IGNOU MHD 16 Free Solved Assignment 2024

IGNOU MHD 16 Free Solved Assignment 2024 (For Jan and Dec 2024)

MHD – 16 (हिंदी उपन्यास-1)

सूचना  :-

MHD 16 free solved assignment मैं आप सभी प्रश्नों  का उत्तर पाएंगे, पर आप सभी लोगों को उत्तर की पूरी नकल नही उतरना है, क्यूँ की इससे काफी लोगों के उत्तर एक साथ मिल जाएगी। कृपया उत्तर मैं कुछ अपने निजी शब्दों का प्रयोग करें। अगर किसी प्रश्न का उत्तर Update नही किया गया है, तो कृपया कुछ समय के उपरांत आकर फिर से Check करें। अगर आपको कुछ भी परेशानियों का सामना करना पड रहा है, About Us पेज मैं जाकर हमें  Contact जरूर करें। धन्यवाद 

MHD 16 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

1) ‘चेम्मीन’ उपन्यास के कथानक का वर्णन कीजिए ।

उत्तर-

मलयालम में आदिवासी केन्द्रित लेखन की शुरुआत का श्रेय तकषी शिवशंकर पिल्लै को है । चेम्मीन अर्थात मछुआरे को ज्यादातर जगह आदिवासियों में ही गिना जाता है। लेकिन केरल में मछुआरे अनुसूचित जातियों के अंतर्गत आते हैं। ‘चेम्मीन’ उन गरीब मछुआरों के जीवन पर ही केन्द्रित उपन्यास है जो अपने जीवन निर्वाह के लिए समुद्र पर ही आश्रित होते हैं ।

समुद्र तटीय मछुआरा समाज एक बंद समाज है जो परम्पराओं, रूढ़ियों, अंधविश्वासों और मान्यताओं से इस कदर जकड़ा हुआ है कि वह अपने सदस्यों को और खासतौर से समुदाय की महिलाओं को इसकी रत्ती भर भी छूट नहीं देता है । समुदाय के नियमों और मर्यादाओं का उल्लंघन करने वालों का तिरष्कार करता है। भारत के अन्य अधिकांश पुरुषवादी समुदाय की तरह ऐसे समुदाय निर्मित नियमों और मर्यादाओं का सबसे अधिक शिकार महिलाओं को ही होना पड़ता है।

महिलाओं को तुरंत ही पथभ्रष्ट और अपवित्र घोषित कर दिया जाता है । सागर ही मछुआरों का जीवन है और उसी से उनकी जीवन शैली, धारणाएं, अचार-विचार, उम्मीदें और आकांक्षाएं सभी निर्धारित होती है।

अनंत विस्तृत सागर की तरंगावर्तनों के साथ खेलते-सोते उनका व्यक्तित्व निर्मित होता है। ये मछुआरे सागर को अपनी माता मानते है क्योंकि उनकी सारी इच्छाओं की पूर्ति सागर करता है। सागर माता के कोप से उन्हें डर भी लगता है इसलिए माता के व वे ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकते जो समुद्र को पसंद नहीं है । MHD 16 free solved assignment

‘चेम्मीन’ धर्मवीर भारती द्वारा रचित हिंदी उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ की तरह रोमैंटिक उपन्यास है । लेकिन ‘गुनाहों का देवता’ की रोमांटिकता जहाँ सामाजिक यथार्थ भूमि के संस्पर्शो से पूरी तरह अलग-थलग और वायवीय हो जाती है वहीं ‘चेम्मीन’ में तकषी ने रोमांटिकता के बहाने मछुआरों के सामाजिक यथार्थ का जिस तरह से विशद चित्रण किया है कि मछुआरा समाज भी एक पात्र के रूप में उभर कर सामने आता हैं।

‘लरकाई के प्रेम’ से बंधे प्रेमी युगलों के माध्यम से मछुआरा समाज के नियमों, नैतिक मान्यताओं और बन्धनों को चुनौती भी देते है। यहीं चुनौती ‘चेम्मीन’ को ‘गुनाहों का देवता’ से अलग भूमि पर अवस्थित करती है । यहाँ तकषी की संवेदना ने केवल आदिवासी मछुआरा समाज व परिवार ही नहीं, पूरे भारतीय समाज और परिवार में औरत की स्थिति और उसकी अस्मिता जैसे सवाल पर व्यापक विमर्श के लिए प्रेरित किया है ।

‘चेम्मीन’ के कथा एक रोमैंटिक करुण कथा है । लेकिन यह कथा मछुआरा समाज में प्रचलित कुछ मान्यताओं, विश्वासों और रीति-रिवाजों से होकर गतिमान होती है और साथ ही उन मान्यताओं, विश्वास और रीति-रिवाज के कारण अभिशप्त मछुआरा समाज के दारुण जीवन को अभिव्यक्त करती है। दूसरे शब्दों में तकषी ने प्रेम कथा के बहाने मछुआरा समाज में प्रचलित मान्यताओं, विश्वासों और रीति-रिवाजों को ही उपन्यास के विषय- वस्तु के रूप में अभिव्यक्त किया है ।

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चेम्मीन’ की कथा के तीन कोण है जिसकी शुरुआत केरल के समुद्र तटीय इलाके में रहने वाले एक मछुआरे की महत्वाकांक्षा से शुरू होती है जिसके लिए एक प्रेमी युगल के बीच बढ़ता आकर्षण और अंकुरित होता प्रेम संबंध माध्यम बनता है । इसी के साथ केरल के मछुआरा समाज में प्रचलित वे मान्यतायें और मिथक है जो मछुआरा समाज के जीवन को प्रभावित और नियमित करते है ।

मछुआरा समाज में प्रचलित एक मिथक, जो पूरी कथा में आयंत एक दुःस्वप्न की तरह मौजूद है जिसके अनुसार सागर देवी उस मछुआरे का जीवन नष्ट कर देती है जिसकी पत्नी अपवित्र हो जाती है अर्थात समुद्र का किनारा पवित्र होना चाहिए और इसकी पवित्रता की नैतिक जिम्मेदारी किनारे पर रहनेवाली स्त्रियों की है।

दूसरी प्रचलित मान्यता सामाजिक है और जिससे भारत का एक बड़ा हिस्सा, खासतौर से ग्रामीण गरीब तबका, आज भी ढोये जा रहा है कि बेटी का विवाह जल्द से जल्द कर देना चाहिए। यह ऐसा नियम था जिसे समुद्र तटीय मछुआरे, जिन्हें घटवार कहा जाता है, उल्लंघन नहीं कर सकते थे।

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तीसरा नियम कि केवल धीवर ( जालिया) समुदाय के मछुआरों को ही नाव और जाल खरीदने और उसका मालिक होने का अधिकार है जो समुदाय विशेष के सामाजिक आर्थिक वर्चस्व को स्थापित करता है।

एक अन्य परम्परागत नियम यह था कि कोई भी नया काम करने से पहले समुदाय के मुखिया से औपचारिक अनुमति लेनी पड़ती है । तकषी इन तीनों कोणों के बीच आपसी टकराव के द्वारा मछुआरा समाज ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय समाज के विश्वासों, मान्यताओं और मूल्यों के खोखलेपन को पर्त-दर-पर्त खोलते जाते है।

तकषी ने प्रेम कथा के सापेक्ष मछुआरा समाज के जिस सच्चाई को उजागर करते है वह पूरे भारतीय समाज की सच्चाई है। ‘चेम्मीन’ में मछुआरों की आर्थिक और सामाजिक दुर्बलता, महाजनों द्वारा उनके शोषण, मछुआरा समुदाय के मुखियों द्वारा लोगों जीवन और व्यवसाय पर अनेकानेक प्रतिबंध, सूदखोरी का दुश्चक्र और बिचौलियों के आतंक के कारण मछुआरों के अभिशप्त जीवन का चित्रण ‘गोदान’ के त्रासद कृषक कथा से जुड़कर सम्पूर्ण भारतीय समाज के शोषित और सबसे निचले पायदान के लोगों की जीवन-गाथा बन जाता है।

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अपने समुदाय के रीति-नीतियों के बंधन से कोई भी व्यक्ति/मछुआरा ऐसें जकड़ा हुआ है कि वह तमाम क्रांतिकारिता के बावजूद अपने आसपास के दुश्चक्र से मुक्त नहीं हो पाता है। चेम्बनकुंजु जैसे साहसी, चतुर, मेहनती और कुशल नाविक की सबसे बड़ी महत्वकांक्षा अपनी एक नाव और जाल खरीदना है जैसे ‘गोदान’ के होरी की तरह महज गाय पालने की लेकिन सामाजिक मान्यता उसके राह में रोड़ा बनती है।

जैसे गाय पालने की लालसा कृषक समाज में प्रतिष्ठा की बात मानी जाती है वैसे ही नाव और जाल का मालिक होना मछुआरा समाज में गर्व और रुतबे की बात हुआ करती है | चेम्बन जिस अरय समुदाय का मछुआरा है उस जाति को नाव और जाल खरीदने और उसका मालिक होने का अधिकार नहीं है | केवल धीवर ( जालिया) समुदाय के मछुआरों को ही नाव और जाल खरीदने और उसका मालिक होने का अधिकार था।

लेकिन चेम्बन अपनी इस महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिए ‘गोदान’ के होरी की तरह कर्ज लेता है, वादा- करता है, कोई भी नैतिक-अनैतिक तरीका अपनाने से परहेज नहीं करता है। ‘होरी’ के पास गाय खरीदने के पैसे नहीं तो चेम्बन के पास भी नाव और जाल खरीदने के पैसे नहीं है ।

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लेकिन वह अपनी इस इच्छा को किसी भी तरह से पूरा करना चाहता है । वह अस्य जाति द्वारा नाव और जाल नहीं खरीदने और उसका मालिक नहीं होने की सामाजिक मान्यता को चुनौती देता है ।

अस्य समुदाय में नाव और जाल खरीदने के लिए सामाजिक योग्यता का निर्णय उस समुदाय का मुखिया करता है लेकिन चेम्बन नाव और जाल खरीदने के लिए अपने समुदाय के मुखिया से आज्ञा नहीं लेकर समुदाय के बेमानी नियमों को तोड़ देता है । लेकिन उसकी महत्वकांक्षा की कोई सीमा नहीं है। उसकी यही महत्वकांक्षा उससे सामाजिक रीति-नीतियों, अंधविश्वासों और प्रचलित दकियानूसी मान्यताओं का पालन कराती है।

तत्कालीन समाज की विडम्बना कितनी त्रासद है इसका अनुमान हम इस वास्तविकता से लगा सकते है कि आधुनिक सूचना और ज्ञान क्रांति के समय में भी सामाजिक स्तर पर कुछ लोग प्रगतिशीलता और बौद्धिकता के बावजूद व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर ठेठ दकियानूसी आचरणों की अनवरत गुलामी से बंधे होते है । यहाँ चेम्बन कुंजु तो केवल महत्वाकांक्षी है, प्रगतिशील नहीं है | बिना बौद्धिक और तार्किक सजगता के महत्वाकांक्षा का कोई मूल्य नहीं है ।

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चेम्बन लकीर का फ़क़ीर भी नहीं है लेकिन वह धन-लोलुपता में इस कदर जकड़ा हुआ है कि उसकी संवेदनशीलता नष्ट हो जाती है जिसकी अंतिम परिणति मानसिक विक्षिप्तता और आर्थिक दिवालिएपन में होती है । चेम्बन कुंजु की महत्वकांक्षा, धन-लोलुपता और सामाजिक रीति-नीतियों के समक्ष विवाह, परिवार और प्रेम के समस्त मूल्य दफ़न हो जाते है।

अपनी बेटी करुतम्मा और अन्य धर्मी परीक्कुट्टी के प्रेम संबंधों में जो भी घटनाएँ घटित होती हैं वे सभी उसकी महत्वकांक्षा के कारण घटित होती हैं । सबसे पहले उसकी महत्वकांक्षा को समझते हुए ही उसकी बेटी करुतम्मा परीक्कुट्टी से आर्थिक मदद मांगती है। परीक्कुट्टी मुस्लिम युवक है जो करुतम्मा के साथ समुद्र तट पर घूमते-खेलते बड़ा हुआ है । अर्थात् दोनों के बीच एक-दूसरे के प्रति आकर्षण है, ‘लरकाई का प्रेम’ है।

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करुतम्मा के आग्रह पर परीक्कुट्टी नाव और जाल खरीदने के लिए चेम्बन की आर्थिक मदद करता है | यह आर्थिक मदद ही उन दोनों के प्रेम संबंधों की त्रासदी का कारण बन जाता है | चेम्बन शर्त के मुताबिक पैसे के बदले परीक्कुट्टी को न तो मछलियाँ देता है और न पैसे लौटाता है । परीक्कुट्टी पैसे-पैसे का मोहताज होकर दर-दर भटकने के लिए अभिशप्त होता है ।

मुसलमान होने के कारण कोई भी मछुआरा न तो मछलियाँ उधार देता है और न पैसे उधार देता है ताकि वह जीवन यापन कर सके । दूसरी ओर वह सामाजिक बहिष्कार के भय से और महत्वाकांक्षा के कारण करुतम्मा और परीक्कुट्टी के बीच वैवाहिक संबंध को स्वीकृति नहीं देता है | बड़े निर्लज्ज तरीके से अपनी बेटी करुतम्मा और उसके प्रेम को भी बलि देने के लिए मजबूर करता है।

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IGNOU MHD ALL FREE SOLVED ASSIGNMENT (2023-2024) 

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(2) ‘संस्कार’ उपन्यास की मूल संवेदना का वर्णन कीजिए।

उत्तर-

‘संस्कार’ उपन्यास मुख्यत: एक सांस्कृतिक संघर्ष का उपन्यास है। उपन्यास का आरंभ ही वस्तुतः सांस्कृतिक संघर्ष से होता है। नारणप्पा के मरने के कारण ही जो दुर्वासापुर में सांस्कृतिक संघर्ष आरंभ होता है वह अंत तक प्राणेशाचार्य के वापस अपने गाँव लौटने तक बना रहता है। नारणप्पा के मृत्यु से ही समस्त दुर्वासापुर के ब्राह्मणों जिनका प्रतिनिधित्व प्राणेशाचार्य करते है और मरे हुए नारणप्पा के कारण सांस्कृतिक संघर्ष शुरू हो जाता है।

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नारणप्पा ब्राह्मण था जो कि शिवमोग्या गाँव से ज्वर लेकर आता है, चार दिन तक ज्वर रहने के उपरांत उसका प्राणांत हो जाता है। उसकी पत्नी चंद्री प्राणेशाचार्य के पास आकर इसकी खबर देती है और फिर समूचे दुर्वासापुर और फिर परिजातपुर तक यह खबर फैल जाती है। समूचे अग्रहार के ब्राह्मण प्राणेशाचार्य के चबूतरे पर जमा होते है।

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वहाँ पर समस्या यह उठती है कि नारणप्पा के शव का दाह संस्कार कौन करेगा? प्राणेशाचार्य कहते हैं कि, “कोई रिश्तेदार न हो तो और कोई ब्राह्मण यह कार्य कर सकता है- ऐसी बात धर्मशास्त्र में है । ” परंतु कोई भी ब्राह्मण उसके शव – संस्कार के लिए पूर्ण रूप से तैयार नहीं होता है।

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‘संस्कार’ उपन्यास में सांस्कृतिक संघर्ष वहाँ के ब्राह्मणों और नारणप्पा के कारण उत्पन्न होता है। दुर्वासापुर में रहनेवाले ब्राह्मण लोभी, स्वार्थी, ईष्यालु और संकुचित मानसिकता के हैं। उनका ब्राह्मणत्व सिर्फ इस बात पर टिका हुआ है कि वे सैकड़ो हजारों साल पुरानी परंपराओं तथा नियमों का पालन करने में है। वह नियमों का पालन सिर्फ इसलिए करते हैं कि वह इन नियमों से यदि कहीं भटक जाए तो अनर्थ हो जाएगा।

शव के संस्कार करने कि बात सुनकर गरुड़ा चार्य नारणप्पा के विरूद्ध कहते हैं, ” -अभी इस प्रश्न को छोड़ दें कि मुझे संस्कार करना चाहिए या नही — ।

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पहला सवाल तो यह है कि यह ब्राह्मण है भी या नहीं? क्या कहते हैं— शूद्रा से निरंतर सहवास किया था इसने- 1″ वस्तुत: दुर्वासापुर के ब्राह्मण असमंजस कि स्थिति में है कि नारणप्पा का संस्कार करें कि नहीं क्योंकि नारणप्पा अपने बरामदे में बैठकर मुसलमानों के साथ मांस, मदिरा लेता था, अछूत कन्या चन्द्री से शादी की थी तथा उसने शालिग्राम को नदी में फेंक दिया था।

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उसने ब्राह्मणत्व के सभी संस्कार छोड़े थे किंतु ब्राह्मणत्व ने उसे नहीं छोड़ा था और यही सांस्कृतिक संघर्ष का प्रमुख कारण था। यू. आर. अनंतमूर्ति ने ‘संस्कार’ में सांस्कृतिक संघर्ष को बखूबी दिखाया है। दुर्वासापुर के समस्त ब्राह्मण को डर था कि वह उसका संस्कार करने के कारण अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर लेंगे। किसी गैर ब्राह्मण को भी दाह-संस्कार करने के लिए नहीं कह सकते, क्योंकि अपनी मृत्यु तक नारणप्पा ब्राह्मण ही था ।

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दासाचार्य कहते हैं, “अब अगर एकदम बिना सोचे-समझे या जल्दी में इसका दाह संस्कार करना तय कर लें तो बस हम ब्राह्मणों को कभी भी कोई भोजन- श्राद्ध पर नहीं बुलाए गए, यह निश्चित है। लेकिन शव को इसी तरह पड़े रहने देकर हम उपवास पर तो नहीं रह सकते।

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” वास्तव में दासाचार्य का कहना यहाँ समूचे अग्रहार के ब्राह्मणों का कथन है जो कि सांस्कृतिक संघर्ष की उपज है क्योंकि नारणप्पा जैसे ब्राह्मण का दाह संस्कार करना कोई भी नहीं चाहता था, क्योंकि नारणप्पा ने ब्राह्मण के सभी आचार-विचार को त्याग दिया था।

‘संस्कार’ में दूसरी तरफ प्राणेशाचार्य मानते हैं कि नारणप्पा शास्त्रों के अनुसार बिना बहिष्कृत हुए मरा है, इसलिए वह ब्राह्मण रहकर ही मरा है। जो ब्राह्मण नहीं है, उनको उसके शव को स्पर्श करने का अधिकार नहीं है। उनके लिए उसके शव को स्पर्श करने को छोड़ देंगे तो हम अपने ब्राह्मणत्व की ही प्रवंचना करेंगे। संस्कार में सांस्कृतिक संघर्ष तब तीव्र होता है जब चंद्री अपने पति नारणप्पा के संस्कार के लिए सोने की माला और हाथों के कंगन प्राणेशाचार्य के सामने रख देती है।

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सभी ब्राह्मण वहाँ खासकर लक्ष्मणाचार्य और गरुड़ा चार्य लोभ में आ जाते हैं और सोचते हैं कि सोना अगर मिल जाए तो और ब्राह्मणत्व भी बचा रहा तो कोई मामूली सी गाय दान में देकर इहलोक और परलोक दोनों का लाभ मिल सकता है। इसी कारण सभी दूसरे के प्रति नारणप्पा के द्वारा किए गए अन्याय को बढ़ा-चढ़ाकर साफ शब्दों में कहने लगें।

लोभ के कारण ब्राह्मण अब दाह-संस्कार करने को तैयार हैं क्योंकि उन्हें फायदा हो रहा है, जो कि उपन्यास में सांस्कृतिक संघर्ष का एक प्रमुख कारण है। वस्तुतः स्वार्थ एकाध व्यक्ति का होता तो प्रश्न जल्दी ही सुलझ जाता, बहुविध स्वार्थ मिलकर शास्त्र की सम्मति की शरण में गए।

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यह सांस्कृतिक संघर्ष तब भी था जब दुर्वासापुर के लोग नारणप्पा को गाँव से बहिष्कृत करने को तैयार थे, किंतु नारणप्पा ने भी धमकी दी थी कि बहिष्कार करोगे तो मैं मुसलमान हो जाऊँगा और तुम सबको खम्भे से बंधवाकर तुम्हारे मुहँ में गोमांस ठूंस दूँगा और देखूँगा कि तुम्हारा ब्राह्मणत्व मट्टी-मट्टी हो जाए। वस्तुतः अगर नारणप्पा मुसलमान हो जाता तो सम्पूर्ण ब्राह्मणों को अग्रहार छोड़ना पड़ता ।

सांस्कृतिक संघर्ष का एक प्रमुख कारण था प्राणेशाचार्य और नारणप्पा सभी सोचते थे कि अग्रहर में अंतिम विजय प्राणेशाचार्य के सनातन धर्म और उनकी तपस्या की होती है या नारणप्पा के राक्षसी स्वभाव की। एक तरफ नारणप्पा है जो ब्राह्मण धर्म की निंदा करता है, “अब आपका शास्त्र, धर्म नहीं चलेगा। आगे कांग्रेस का राज। अछूतों को देव-स्थान में प्रवेश करने का अधिकार आपको देना पड़ेगा।”

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आगे वह प्राणेशाचार्य से कहता है, “जो लड़की सुख नहीं देती, उसके साथ कौन जिंदगी चलाएगा आचार्य जी, सिर्फ बेकाम ब्राह्मणों के सिवा? साथ ही गरूड़ाचार्य के ब्राह्मणत्व पर व्यंग्य करते हुए नारणप्पा कहता है, विधवाओं की जायदाद हड़पने वाला, जादू-टोना करवाकर दूसरों की बुराई चाहने वाला गरूड़ आपकी दृष्टि में ब्राह्मण है न ।”

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तो दूसरे तरफ वेदांत शिरोमणि प्राणेशाचार्य है जो काशी अनुलोम-विलोम के विषय में वेदांत पढ़कर आए हुए दिग्गज पंड़ितों के साथ तर्क-चर्चा कर चुके हैं। वस्तुत: उपन्यास में सांस्कृतिक संघर्ष दो बुनियादी तौर पर भिन्न प्रतिक्रियाएँ द्वारा प्रस्तुत की जाती है- एक व्यवस्था तथा संयम पर जोर देने वाली जिसका प्रतिनिधित्व प्राणेशाचार्य करते हैं तो दूसरी तरफ नारणप्पा है जो स्वच्छंदता तथा भावुकतापर जोर देता है।

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संस्कार में यू. आर. अनंतमूर्ति ब्राह्मणों पर करारी चोट करते हैं तथा यह दिखाते हैं कि उनका आचार-विचार सब कुछ ऊपरी सतह तक ही है। वह नियमों से इतना बंध चुके हैं तथा रूढ़ियों, धर्मशास्त्रों, पुराण तथा मनुस्मृतियों से इतना जकड़ चुके हैं कि केवल उन्हें अपना लाभ स्वार्थ ही दिखाई देता है। वह सिर्फ नाम के ही ब्राह्मण रहते हैं, दूसरों का धन हड़प लेना, जैसा कि गरूडाचार्य ने एक विधवा लक्ष्मीदेवम्मा के साथ किया।

उसे घर से निकाल दिया और उनकी जायदाद भी हड़प ली। क्या ब्राह्मणत्व इसकी अनुमति देता है? अनंतमूर्ति यह प्रश्न करना चाहते हैं वह दिखाते हैं कि एक तरफ दासाचार्य जैसे ब्राह्मण है जो सिर्फ भोजन के बारे में ही सोचते हैं। ब्राह्मणत्व की दुहाई देने के बावजूद भी अपने पड़ोस के गाँव परिजातपुर में शव संस्कार से पहले ही अपने से नीची जाति के ब्राह्मण के यहाँ भोजन कर आते हैं और मंजय्या को किसी को भी बताने से मना करते हैं।

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नाराणप्पा ऐसे ब्राह्मणों को अच्छी तरह जानता है और इसलिए उनका विरोध करते हुए प्राणेशाचार्य से कहता है, “देखें, आखिर कौन जीतता है- मैं या आप? मैं ब्राह्मणत्व का नाश करके ही हदूँगा । लेकिन मुझे दुख इस बात का है कि विनाश के लिए इस अग्रहार में आपके अतिरिक्त कोई दूसरा ब्राह्मण ही नहीं रहा । गरूड़, लक्ष्मण, दुर्गाभट्ट— हा हा हा — ए ब्राह्मण है?

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यू. आर. अनंतमूर्ति दुर्वासापुर के सांस्कृतिक संघर्ष को दिखाते हुए ब्राह्मणों की खोखली मान्यताओं और परंपराओं पर चोट करते हैं। वह दखाते हैं कि नारणप्पा जो कि ब्राह्मणत्व को त्याग चुका है और डंके कि चोट पर जो काम करता है वही अन्य ब्राह्मण ब्राह्मणत्व के आड़ में करते है। प्राणेशाचार्य को अछूत कन्या चंद्री के साथ उपभोग करना और फिर लोगों के जान लेने के भय से घबराना इसी बात का उदाहरण है। स्मार्त और माहव ब्राह्मणों का आपस में संघर्ष भी तत्कालीन सांस्कृतिक संघर्ष को दिखाता है।

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दुर्गाभाट्ट माहवों की हँसी उड़ाते हुए कहता है, “छी छी: छी, उतावले मत होइए, आचार्य जी । शूद्रा को रखैल बनाकर रखने से ही ब्राह्मणत्व नष्ट नहीं होता । उत्तर से इस ओर आए हुए हमारे पूर्वज — | द्रविड़ स्त्रियों के साथ सहवास हुआ है उनका ऐसा इतिहास बताता है।”

तो वही दूसरी तरफ जब दुर्वासापुर के सभी ब्राह्मण परिजातपुर के ब्राह्मणों से दाह-संस्कार करने के लिए निवेदन करते हैं तो दुर्गाभट्ट को बड़ी चिंता होती है क्योंकि परिजातपुर के ब्राह्मण स्मार्त है और अगर वह दाह-संस्कार कर देंगे तो वह जाति-भ्रष्ट हो जायेंगे, इसलिए वह स्मार्तों को ब्राह्मणत्व का डर दिखाकर भयभीत करते हैं। MHD 16 free solved assignment

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(3) जंगल के दावेदार उपन्यास के मुख्य चरित्रों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-

जंगल के दावेदार’ की शुरुआत ही विरसा की मृत्यु के वर्णन से होती है। उसके मृत शरीर के क्रिया-कर्म के खत्म हो जाने के बाद ही उसके जीवित काल का आख्यान शुरू होता है । 1895 से 1900 ई. तक मुंडा जन-जीवन में बिरसा को सालीटरी सेल में विरामहीन चलते देखना, कनु मुंडा द्वारा बिरसा को शैशव- क्षिप्रता से देखना, धानी मुंडा का आक्षेप – इत्यादि विषय एक पारस्परिक क्रम के अनुच्छेदों में वर्णित न होने के बावजूद इनमें एक संलग्नता दिखलायी पड़ती है।

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इस संलग्नता का मूल सूत्र है बिरसा मुंडा का दिपदिपाता जीवन ! 1900 ई. 2 जून को राँची जेल में सुपरिटेन्डेन्ट के ज्ञापन ने अचानक उस जीवन स्पंद को चादर से ढक दिया। उसे हैज़ा हुआ है, और वह नहीं बच सकता’, सुपरिटेन्डेन्ट के इस. घोषणा के आठ दिन बाद 9 जून 1900 ई. को बिरसा की मृत्यु के रहस्य को खोलकर उपन्यास समाप्त हो जाता है।

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हतभागा गरीब सुगाना मुंडा का लड़का बिरसा । वह चाइबासा के जर्मन लुथरन चर्च में पढ़ने गया था । गरीब घर का यह लड़का “हथेली-हथेली भर का कौर लेकर भात खाकर था ।” ‘इजार’ पैन्ट कैसे पहने जाते हैं, यह नहीं जानता था । उसका जन्म चालकाड़ के बामबा में हुआ था । बृहस्पतिवार को जन्म हुआ था, इसलिए नाम रखा गया बिरसा ।

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उसके शारीरिक वर्णन के बारे में उपन्यास में लिखा गया है- शक्ल बड़ी सुन्दर निकल गयी। मुंडा लोगों के घर इतना लम्बा, सुगठित शरीर ऐसी आँखें देखने में नहीं आतीं।” बचपन से ही बिरसां स्वप्नदर्शी था। बचपन में उनके अभावग्रस्त सांसारिक जीवन में जब उसका बड़ा भाई कोमता बड़े होकर हाट (बाजार ) से एक बस्ता नमक लाने की बात कहता, तो उस बात की प्रतिक्रिया में ही विरसा के कवि समान स्वप्नदर्शी होने के परिचय को हम देख पाते है।

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– “बिरसा भैया के दम्भ की यह असम्भव बात सुनकर अपनी वंसी लेकर निकल जाता । लौकी की खोल से बना दुहला और बंसी दोनों ही उसके लिए जरूरी होते । दुहले की झंकार और बंसी के सुर दोनों ही उसके साथ-साथ घूमते । जंगल में बैठकर वह अपने मन से बंसी बजाता ।”

समाज परिवेश की वास्तविकता के चलते शुरू में उसके स्वप्न छोटे थे। आठ वर्ष की उम्र में उसके मामा निबाई मुंडा उसे उसके मौसी के घर आयूभात ले गये। जहाँ मौसी जोनी के साथ बातचीत करते वक्त उसके स्वप्न की सीमा प्रकट होती है। उसके धारणानुसार ‘बड़े होने का अर्थ था- “मों को बोरा भर नमक लाकर दूंगा, डब्बा भर दाल और दाना ला दूँगा।”

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इस बड़े होने के सपने के भविष्य में ही था प्रचारक होना, पाठशाला में पढ़ना, मौसी की गाय चराना, बेड़ा बाँध देना और लकड़ी ला देना । चालकाड़ से चाईबासा आकर उम्र, बुद्धि और अभिव्यक्ति किसी में भी बिरसा के अन्दर कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। उसके स्वप्न तब भी खंडित ही थे बड़े होने पर यह क्या होगा-दूसरों से साग्रह वह यह प्रश्न करता ।

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पर वही प्रश्न अपनी तरफ पाकर यह हक्का-बक्का हो उठता, बोलता, ‘लिखना-पढ़ना सीखूंगा, बहुत सा लिखना-पढ़ना । उसके बाद कचहरी जाकर, बाप को अपनी जमीन लौटाऊंगा और क्या करोगे ? इस प्रश्न के जवाब में कहता है “प्रचारक बनूँगा । सब को यीशु की बात बताऊँगा ।” इसके बाद ?” इस तीसरे बार के एक ही प्रश्न का उत्तर नहीं है उसके पास इसलिए कहता है- “तब देखा जायेगा । “

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धानी मुंडा :

धानी मुंडा मुंडा जाति के स्वाधीनता युद्ध के सपनों का फेरीवाला ही है । मुलकई लड़ाई के समय ही वह बिरसा के अंदर (जब बिरसा किशोर था) भविष्य के नायक को देखा था । मुलकई लड़ाई का योद्धा धानी इस समय से ही सरदारों को बोलता “अब हाथों में बलोया रहेगा, तीर-धनुक रहेंगे ।” छोटानागपुर इलाके के इतिहास का बहुदर्शी साक्षी है धानी मुंडा । लेखिका उसके अनुभव के अंदर से की इतिहास को पाठकों से परिचित करवाती है । धानी द्वारा बंदी मुंडाओं को कही गयी कहानियों से जाना जाता है-

  • मुंडा लोग खुटकट्टि ग्राम बनाते थे स्थान से स्थानतर “घर बाँधने (बनाने) के लिए स्थान खोजने के कारण।
  • खुटकट्टि ग्राम बसाते का नियम है-जगह खोज कर खोजते आकर ‘अचोटा’ जमीन के चारों तरफ श्रावल से मारकर जो खुट गाड़ेगा, वही खुटकट्टि ग्राम की नींव डालता है।

  • चुटिया हरम और नागु हरम- इन दोनों भाइयों ने डोमडागरा नदी के किनारे चुटिया गाँव की नींव डाली । उन दोनों भाइयों के नाम से ही क्रमशः इस अंचल का नाम ‘छोटानागपुर पड़ा ।
  • “सवताल लोग जब ‘हुल’ करते हैं, धानी मुंडा तब तक पाँच सौ चाँद पार कर गया है। सिधु- कानू के हुल स्थल में योग देकर धानी मुंडा भगनादिहि चला गया था। वहाँ वह काले कुचफल से कुचिला विष तैयार करता था ।

बुरूड़ी के एक इलाके के ‘मानकि वृद्ध डोंका की युवा पत्नी श्री शाली। डोंका के बिरसाइत हो जाने पर सांसारिक जिम्मेदारियों के भार को निभाने में पहले शाली असंतुष्ट होती है, किन्तु विरसा की सम्मोहिनी से वह डोंका का सिर्फ घर छोड़कर बिरसा के अनुकरण को ही नहीं मानती बल्कि अपने संसारिक कार्यो के बीच चोरी-छिपे बिरसा का कार्य करती रहती है।

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बिरसा के भावादर्शों से प्रेरित होकर वह कहती है मैं भी कुसुम के फूल से कपड़े पीले रंग लूंगी। पति-पत्नी जिस तरह रहते हैं, वैसे नहीं रहूंगी। मैं भी जाकर चालकाड़ से उसकी बातें सुन आऊंगी ।” गुप्त रूप से विष बुझे तीर पेट पर कपड़े बांध कर शाली पहुंचाती है। सब जानते हैं वह गर्भवती है। गर्भवती महिलाओं की तरह मेरा-भरा शरीर लेकर झुकझुक कर अकेले जंगलों में वह टहलती रहती है।

पीछे से देख रहे भरत दरोगा के शरीर का खून भी झनझना उठता। कुशलतापूर्वक भरत दरोगा की आँखों में धूल झोंककर वह मानी पाहानी को तीर हस्तांतरित कर देती। ये सारे कार्य वह करती विरसा के लिए। मानी संदेह करता है कि विरसा के प्रति शारीरिक प्रेम के चलते ही शाली अपने जीवन को दांव पर लगा कर इस तरह का कार्य करती है।

संवाद होने पर इस प्रसंग को उठाने पर शाली उसे झाड़ती (झिड़कती है। ऐसा लगता है जैसे शाली एक स्वप्न के मध्य बची रहती है। यह स्वप्न है बिरसा के पुनरागमन का। आशा करती है भविष्य के उस दिन की “अब जो हो रहा है. जिस तरह दिन कट रहे हैं, सब मिट जायेगा । सत्य रहेगा केवल बिरसा के लौट आने का दिन। विरसा के आने से सब बदल जायेगा ।” MHD 16 free solved assignment

बिरसा जब 1895 ई. में पकड़ा जाता है और दो साल के लिए कारादंड पाता है, तब गुप्त रूप से उसके भावादर्शो को बचा कर रखते हैं शाली और मानी पाहानी । वे जंगलों में घूमते रहते हैं। एक तरह से देखने पर ऐसा लगता है कि अकाल और सूखे के कारण ही उन्होंने ऐसा जीवन चुन लिया है। किन्तु बड़े-बड़े हाट (बाजार ) को लांघकर वे छोटे-छोटे गाँवों में तीर पहुंचाते है. झुड़ी के ऊपर कच्छु-केला और साग रखकर।

मानी पहानी के कथनानुसार, ‘छोटे-छोटे जंगलों के अंदर अन्दर गाँवों में तीर लेंगे, जाएँगे ऊपर अरबी, केला. साग रखेंगे। हम टोकरी में बेचें। उसकी टोकरी मैं लूंगी। वह जाकर रातों-रात लोगों के घर की दीवार में तीर खोस आयेगी ।” MHD 16 free solved assignment

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( 4 ) ‘मानवीनी भवाई’ उपन्यास की प्रासंगिकता का विवेचन कीजिए।

उत्तर-

‘मानवीनी भवाई’ का पहला प्रकरण ‘फ्लैशबैक’ पद्धति पर लिखा गया है। एक ठंडी रात में, खेत की एक झोपड़ी में अलाव के पास बैठकर हुक्का पीता वयोवृद्ध कालू अपने अतीत को याद करता है | परंतु आगे की कथा कालानुक्रम से ही चलती है । अर्थात् थोड़ी देर के लिए यदि महला प्रकरण कथा से निकाल भी दें, तो कथा में कोई विक्षेप नहीं पड़ेगा।

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‘मानवीनी भवाई’ का दूसरा भाग ‘भांग्यना भे नाम से लिखा गया है। उसमें नायक-नायिका कालू और राजू की संघर्ष कथा आगे बढ़ती है । तीसरा भाग घम्मर वलोणुं दो भागों में विभक्त है। उनमें कालू और भली के पुत्र प्रताप तथा उसकी पत्नी चंगा की कथा केंद्र-स्थान में है। हम यहाँ पर ‘मानवीनी भवाई’ की मुख्य कथा को केंद्र में रखेंगे ।

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‘मानवीनी भवाई’ की कथा कालू के जन्म से समय से आरंभ होती है। किसी सुसुवाती रात में तीस पैंतीस घरों वाले एक छोटे से गाँव में कालू के जन्म का वर्णन हैं। कालू की माँ का नाम रूपाडोसी तथा बाप का नाम वालाभाई पटेल हैं । उनके जीवन की प्रौढ़ावस्था में भगवान को भूख बुझानी थी, इसलिए कालू के जन्म ने वाला पटेल के घर में तथा पूरे गाँव में भी उत्साह का रूप ले लिया था। गाँव की स्त्रियों वाला पटेल के यहाँ जमा होती हैं।

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बेटे का जन्म हुआ है, इसलिए उसके नामकरण के लिए तथा ग्रहदशा की गणना कराने के लिए ब्राह्मण को बुलवाया गया है; पत्थर पर दूब सरीखे बेटे का जन्म हुआ है और वह भी उस इलाके में पूजे जाने वाली ‘काळियादेव’ (पास में ही शामळाजी (श्यामजी – श्री कृष्ण ) का मंदिर है ।

वहाँ के लोग शामळाजी को काळियादेव (कालादेव) के नाम से पूजते हैं ।) के आशीर्वाद से हुआ है। इसलिए उसका नाम काळु (कालू) रखा जाता है । वाला पटेल के ही खानदान की एक औरत है माली । उसे यह सब कुछ अच्छा नहीं लगता। माली परमा पटेल की पत्नी है। परमा पटेल गाँव का मुखिया है । वह खुद उदार और रीति-नीति वाला आदमी है; परंतु उसकी पत्नी माली स्वभाव से अत्यंत झगड़ालू तथा ईष्यालु है।

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ईश्वर ने उसे रणछोड़, नाथा और नाना नाम के तीन बेटे दिए हैं। घर में बहुएँ हैं; नाती-पोते भी आ गए हैं। परंतु माली को तो दूसरों का सुख सुहाता नहीं। अपने खानदान के वाला पटेल के बेटा पैदा हो और जो उसे सुख फूटी आँख से भी नहीं भाती, ऐसी रूपा (कालू की माँ) की गोद में किलकारी मारे-यह माली को सहन नहीं होता।

ज्योतिषी ग्रहदशा देखकर बताते है कि बड़ा होकर यह बालक समाज का अगुवा बनेगा और इसके नसीब में दो औरतें लिखी हैं। यह सुनकर माली जल कर कोयला हो जाती है। वह कोई न कोई बहाना लेकर कालू के माँ-बाप के साथ झगड़ती रहती है । वह मन ही मन यह भी तय करती है कि इस कलमुँह कालू को दो बार तो क्या एक बार भी शादी करने दूँ तो मेरा नाम माली नहीं ।

वाला पटेल की पूरे इलाके में बड़ी पूछ थी; परंतु वह कालू को चार वर्ष का छोड़कर परलोक सिधार गया। माँ रूपा ने किसी तरह पाला-पोसा और जिसके मन में वाला पटेल के लिए बहुत इज्ज़त थी, ऐसी फूलीडोसी के प्रयत्न से गाँव में ही कालू की सगाई हो गई ।

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इस घटना से बौखला कर माली ने झगड़ा किया और अपना सिर पीटने लगी । बुरा- आदमी बुरा काम किए बिना नहीं रह सकता। ऐसे ही माली भी मौका मिलने पर छल-कपट करके राजू और कालू की सगाई तोड़वा देती है । कालू और राजू अचपन में एक साथ खेले कूदे थे; खेतों में एक साथ घूमे फिर थे। दोनों के मन में आकर्षण पैदा हो गया था। वे दोनों प्रेम को समझें, उसके पहले ही उनकी सगाई खटाई में पड़ गई।

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पर जवान होते ही दोनों की समझ में आ जाता है कि समाज ने भले ही उन्हें अलग कर दिया हो, परंतु दोनों के हृदय तो एक-दूसरे के लिए बैचेन थे। माली के सामने कालू की माँ का कोई वश नहीं चलता। उधर राजू की सगाई पड़ोसी गाँव के एक ‘दुवाह’ वर के साथ हो जाती है। शादी के बाद वह विदा हो जाती है।

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राजू के जेठ की बेटी भली के साथ कालू की शादी होती है। और इस तरह, जो प्रियतमा थी, और पत्नी बनने वाली थी, वह राजू कालू की चाची सास बन जाती है । भाग्य की विडंबना तो देखिए, कि अब राजू को कालू के साथ मिलना तो है, और कालू का कुशल- समाचार पूछना भी है; परंतु चाची सास के संबंध से प्रेयसी या पत्नी के रूप में नहीं । वैसे तो शादी और समाज के सूत्र से बँध कर साथ तो रहना है, परंतु प्रेम के लिए आजीवन तरसते रहना है।

बल्कि उनकी असली कसौटी तो आगे आती है। मरते समय कालू की माँ कालू से यह वचन ले लेती है कि वह दूसरी शादी नहीं करेगा। मानो रही-सही कसर वह पूरी कर देती है। बिरादरी में उस जमाने में एक के रहते दूसरी पत्नी लाने की रोक न थी । कालू ने माँ को वचन दे दिया हैं और राजू अब चाची सास बन चुकी है। वह करे तो क्या करे?

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कालू जब भी ससुराल जाता, राजू के लिए उसकी तड़प बढ़ जाती । कभी-कभी वह मन में यह भी तय करता है कि भले दुनिया जो कहे या करें; परंतु राजू की माँग में सिंदूर डाल दूँ और उसे अपने घर में लाकर बैठा लूँ । समझदार राजू सब कुछ समझती है और वह यह भी जानती है कि अब ऐसा कुछ भी संभव नहीं है।

तभी कालू के कान में यह बात आती है कि माली किसी भी तरह से राजू की शादी अपने बेटे नाना के साथ कराने का इरादा रखती है। इससे कालू बहुत बेचैन हो उठता है । इतना ही नहीं, वह उग्र भी बन जाता है। उसका प्रेम सारे बंधन तोड़कर बाहर आ जाता है। वह राजू को बुलाकर खरा खोटा सुना देता है। राजू को काल के उन वचनों में अपार प्रेम दिखाई पड़ता है और उसकी आँखें भीग जाती हैं ।

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5) (क) चेम्मीन उपन्यास के लेखक तकषि शिवशंकर पिल्लै का कृतित्व

उत्तर-

तकषि शिवशंकर पिल्लै का वास्तविक नाम है कै.के. शिवशंकर पिल्लै। तकषि शिवशंकर पिल्लै उनका साहित्यिक नाम है। लोग उन्हें तकषि के नाम से जानते बुलाते है। तकषि उनके गाँव का नाम है जो कि मध्य केरल के आलप्पुषा जिले के अम्पलप्पुषा तालुक में सागर के किनारे स्थित है।

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तकषि गाँव केरल की राजधानी तिरुवनन्तपुरम् से उत्तर की ओर डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर है। इसी गाँव में तकषि का 17 अप्रैल 1912 को जन्म हुआ था। उनकी माता का नाम पार्वती अम्मा तथा पिता का नाम पोरपल्लि कलत्तिल शंकर

कुरूप था। वे अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे। पहली संतान कन्या थी। उनके परिवार की दशा सामान्य थी। चावल की खेती मुख्य पेशा था । कृषिवृत्ति के अलावा पिता कथकली एवं तुल्लन कलाओं के जानकार थे। लगभग आए दिन घर में पुराण पारायण होता रहता था । पुराण कथाओं से तकषि का परिचय घर पर ही हुआ।

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उनकी आरंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। इसके बाद सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई गाँव से बारह किलोमीटर दूर समुद्री तट पर स्थित अंपलप्पुषा स्कूल में हुई । यहाँ पर अरय समुदाय से तकषि का परिचय हुआ। अस्यों का जीवन-यापन मछुवारी से चलता था।

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उनकी कुटियाँ सटी हुई होती थीं। उनके शरीर से सदा मछली की बू आती रहती थी। दोपहर का भोजन केले के पत्ते में ले जाने की प्रथा थी। खाने की पोटली पर अकसर चींटियाँ आक्रमण कर. देती थीं। चींटियों वाले हिस्से को अलग फेंक बाकी भोजन कर लिया जाता था। फेंके हुए हिस्से को हड़पने अरय बच्चे टूट पड़ते थे।

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वे चींटियाँ और चावल दोनों खा लेते थे। होंठो पर लगी चींटियों को हाथों से पोंछ कर देते थे। गरीबी का यह हाल था। इसी कारण शायद ही कोई अरय बच्चा सावतीं कक्षा तक पहुँच पाता था। कुछ विद्यार्थी बड़े होकर नाव, मछली जाल खरीद लेते, कुछ नाव खेने में लग जाते। कुछ तो सागर में लापता हो जाते।

हाई स्कूल उन्होंने कुछ और दूरी पर वैक्कम और करुवाट्टा के स्कूलों में पूरा किया। वहाँ पर मी अस्य लोग थे। चेम्मीन उपन्यास की रचना के समय अस्य समुदाय के ये अनुभव प्रेरक और सहायक रहे होंगे।

तकर्षि को अपने जीवन में कई पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए जिनमें से प्रमुख हैं: ‘चेम्मीन’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (1957). ‘एणिप्पडिकल के लिए केन्द्र साहित्य अकादमी पुरस्कार (1965), सोवियत लैंड नेहरू एवार्ड (1974), तथा ‘कयर के लिए वयलार पुरस्कार (1980) आदि। केरल विश्वविद्यालय और महात्मा गांधी विश्वविद्यालय ने मानद डी.लिट. प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया। 1985 में ‘पद्म भूषण दे कर राष्ट्र ने उन्हें समादृत किया ।

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(ख) ‘जंगल के दावेदार’ के नायक ‘बिरसा मुंडा’ के चरित्र का चित्रण कीजिए ।

उत्तर-

हतभागा गरीब सुगाना मुंडा का लड़का बिरसा । नह चाइबासा के जर्मन लुथरन चर्च में पढ़ने गया था । गरीब घर का यह लड़का “हथेली-हथेली भर का कौर लेकर भात खाकर था ।” ‘हजार’ पैन्ट कैसे पहने जाते हैं, यह नहीं जानता था । उसका जन्म चालकाड़ के बामचा में हुआ था । बृहस्पतिवार को जन्म हुआ था, इसलिए नाम रखा गया बिरसा।

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उसके शारीरिक वर्णन के बारे में उपन्यास में लिखा गया है- “शक्ल बड़ी सुन्दर निकल गयी। मुंडा लोगों के घर इतना लम्बा, सुगठित शरीर ऐसी आँखें देखने में नहीं आती ।” बचपन से ही विरसां स्वप्नदर्शी था। बचपन में उनके अभावग्रस्त सांसारिक जीवन में जब उसका बड़ा भाई कोमता बड़े होकर हाट (बाजार ) से एक बस्ता नमक लाने की बात कहता, तो उस बात की प्रतिक्रिया में ही बिरसा के कवि समान स्वप्नदर्शी होने के परिचय को हम देख पाते है।

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– “विरसा भैया के दम्म की यह असम्भव बात सुनकर अपनी बसी लेकर निकल जाता। लौकी की खोल से बना दुहला और बंसी दोनों ही उसके लिए जरूरी होते । टुहले की झंकार और बंसी के सुर दोनों ही उसके साथ-साथ घूमते । जंगल में बैठकर वह अपने मन से बंसी बजाता ।”

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समाज — परिवेश की वास्तविकता के चलते शुरू में उसके स्वप्न छोटे थे। आठ वर्ष की उम्र में उसके मामा निबाई मुंडा उसे उसके मौसी के घर आयूपात ले गये। जहाँ मौसी जोनी के साथ बातचीत करते वक्त उसके स्वप्न की सीमा प्रकट होती है।

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उसके धारणानुसार “बड़े होने का अर्थ था- “माँ को बोरा भर नमक लाकर दूंगा, डब्बा भर दाल और दाना ला दूँगा।” इस बड़े होने के सपने के भविष्य में ही था ‘प्रचारक होना, पाठशाला में पढ़ना, मौसी की गाय चराना. बेड़ा बाँध देना और लकड़ी ला देना । चालकाड़ से चाईबासा आकर उम्र, बुद्धि और अभिव्यक्ति किसी में भी बिरसा के अन्दर कोई परिवर्तन नहीं हुआ था।

उसके स्वप्न तब भी खंडित ही थे । बड़े होने पर यह क्या होगा दूसरों से साग्रह वह यह प्रश्न करता । पर वही प्रश्न अपनी तरफ पाकर यह हक्का-बक्का हो उठता बोलता, ‘लिखना-पढ़ना सीखूंगा, बहुत सा लिखना पढ़ना । उसके बाद कचहरी जाकर बाप को अपनी जमीन लौटाऊँगा” और क्या करोगे ? इस प्रश्न के जवाब में कहता है प्रचारक बनूँगा ।

सब को यीशु की बात बताऊँगा। इसके बाद इस तीसरे बार के एक ही प्रश्न का उत्तर नहीं है उसके पास इसलिए कहता है- “तब देखा जायेगा।” विरसा के पास जंगल में रहकर जंगल को लेकर स्वप्न देखने की कोई सीमा नहीं थी । जंगल को यह अपने अधिकार की सम्पत्ति समझता । जंगल में आते ही वह समाज और परिवार की बात भूलकर स्वप्न देखने लगता ।

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इस तरह अपने को मूलकर अपने में रहने का अभ्यास बिरसा में निर्मित हो गया था। एक दिन धानी मुंडा को यह कह बैठता है- “यह जंगल मेरा है। शैशव एवं परवर्ती यौवनकाल में भी जंगल के लिए विरसा के अन्दर एक अदम्य आकर्षण था ।

इसलिए दुय्य, विषाद एवं जिस कारण भी मन अशांत होने से वह जंगल में जाकर शांति परता । यहाँ तक की यौवन (युवा समय) में मुंडा जाति के मुक्ति के सम्बन्ध में रास्ता खोजने में अस्थिर होने के वक्त भी देखा जाता है कि बारसा सब मेरा है, कोई कानून मुझे रोक नहीं सकता- कहते-कहते वह जंगल के अन्दर घुसा जा रहा था।” शैशवकाल से ही बिरसा के चरित्र का एक बड़ा भाग था, उसकी पारिवारिक मानसिकता ।

खांटगां में मौसी के घर से निकलकर वह कुंती बरतोलि में बड़े भाई के पास पहुँचता है । जंगल के दावेदार में लेखिका द्वारा केन्द्रीय चरित्र बिरसा के अन्दर नायक की विशिष्टता का संचार करने के बावजूद जातिगत जीवन-लग्नता से उसे अलग करके कल्पना मानव नहीं बनाती हैं । यह लेखिका के वास्तविकता बोध का परिचय दिलाता है ।

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इसलिए प्राचीन मुंडा संस्कार बोध से प्रेरणा लेकर इस जाति के उदीयमान नायक के अन्दर इस जाति की चारित्रिक विशिष्टताओं को आरोपित करती हैं एकदम उसी तरह जिस तरह की घटना घट सकती है। लेखिका कहती हैं- “बिरसा इन्हीं विश्वासों में बड़ा हुआ। उसे पता है कि मुंडा बनकर कई लाख मुंडा जिस तरह का जीवत बिताते हैं, उसके बाहर के जीवन की बात सोचना भी महापाप हैं।

मुंडाओं के ऐतिहासिक जातिगत विश्वास को बनाए रखकर ही उनमें पहली बार विरसा आत्मविश्वास का संचार करता है। विद्रोह के समय रांची के कमिश्नर के समक्ष क्राउन के विश्वस्त कर्मचारी डाक्टर रोजर्स के वर्णन से स्पष्ट देखा जा सकता है- “विरसा ने अपनी साथी जंगलवासियों के मन में एक आत्मविश्वास पैदा किया है। अब मुंडा होने पर उसे गर्व है। इतने दिनों तक, मुंडा पैदा होने के लिए वह अपने को दोष देता था. दुःखी होता था।”

मुंडाओं में आत्मविश्वास पैदा करने के कारण ही विरसा तेजी से जनप्रिय हो उठा। डोंका अपनी पत्नी शाली को बोलता है, “उसे देखकर उसकी बातें सुनकर लगता है कि मेरी छाती में बाढ़ आ गयी है शाली. जैसे पहाड़ टूटता है। उसके पास जाकर ही मुझे पता चला कि मुंडा होने में कितना गर्व है।” डोका की इन बातों का अर्थ शाली जिस तरह से समझती, उसमें भी मुंडाओं की आत्मसचेतना को देखा जा सकता हैं-मुंडा माने जंगली, असभ्य ।

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मुंडा लोगों का जीवन दिकु लोगों के लिए है, दिकु लोगों के खलिहान में घान-सरसों-ईख आयेगी, दिकु आकर जंगल हासिल कर जमीन पर दखल करेंगे. बोंगा-योगी का थान, बलि की जगह आदि गाँव का, सबका चिन्ह तक मिटाकर वहाँ दिकु लोग अपने देवी-देवताओं के स्थान बनाएंगे। मुंडा लोगों के जीवन में वह और ही है। मुंडा क्योंकर मुंडा कहलाकर गर्व करेंगे? किस तरह अपना आत्म विश्वास अटूट रखेंगे ?”

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(ग) ‘संस्कार’ उपन्यास के शिल्प को विश्लेषित कीजिए ।

उत्तर-

1970 में संस्कार पर बनी फिल्म को लेकर उठे बवाल को छोड़ दें तो सर्वत्र इसकी प्रशंसा ही हुई है। बल्कि इसकी भाषा और शैलीगत विशिष्टता तथा इसकी साहित्यिक महत्ता को लेकर तो आलोचकों में पूरी मतैक्य रहा है।

फिल्म को लेकर भी जो बवेला मचा उसका साहित्य और साहित्यिकता से कोई लेना-देना नहीं था। कुछ रूढ़िवादी हिन्दुओं ने उपन्यास और फिल्म में अपनी छवि के अंकन को लेकर विरोध जताया था और फिल्म के प्रदर्शन को बाधित करने की कोशिश की थी। 1967 में नव्य साहित्य दर्शन पर अपने विचार रखते हुए शांतिनाथ देसाई ने न केवल कन्नड़ उपन्यास के क्षेत्र में, बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य के क्षेत्र में ही इसे नए अभिनव और अप्रतिम उपलब्धि बताया था।

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कहने का मतलब यह कि प्रकाशन के साल भर के भीतर ही संस्कार चर्चा के घेरे में आ चुका था। उसी तरह कन्नड़ आलोचक कोटा परमेश्वर ऐयल ने इसके भाषिक प्रयोग की चर्चा करते हुए प्रत्येक चरित्र के बोलने- बतियाने के विशिष्ट अंदाज पर तो प्रकाश डाला ही है, उपन्यास में जिस बारीकी से भावव ब्राह्मणों की जीवन शैली को उकेरा गया है, उस पर भी सुधी पाठकों का ध्यान दिलाया है ।

इसी तरह विश्व प्रसिद्ध लेखक वी.एस. नेपाल ने इसे एक मुश्किल उपन्यास बताने के साथ ही यह भी लिखा है कि यूँ तो अनुवाद हमेशा स्पष्ट नहीं होता और फिर हिन्दू मान्यताओं का अंग्रेजी में अनुवाद करना और भी कठिन हो जाता है, तब भी कहानी कहने का अंदाज वशीभूत कर लेने वाला है और इसी से मूल कन्नड़ के लेखन की खूबसूरती का अनुमान लगाया जा सकता है।

कन्नड़ की मूल कृति को विदेशी पाठकों तक पहुँचाने वाले ए. के. रामानुजन का मानना है कि संस्कार की कहानी किसी पारंपरिक कथा के तौर पर प्रश्न के साथ शुरू होती है। इस प्रश्न का उत्तर बार-बार टाला जाता है ।

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इस तरह इस उपन्यास में प्रश्न, विलंब तथा उत्तर की पारंपरिक शैली देखी जा सकती है। हालांकि तीन भागों की इस पद्धति के बावजूद इसमें सामान्य तौर से आने वाला उत्कर्ष या अन्त नहीं है । निष्कर्ष तक पहुँचाने की बजाय अवकर्ष के तौर पर परंपरा का प्रयोग इस आधुनिक कहानी का अविभाज्य हिस्सा है।

उनके अनुसार, उपन्यास के नायक की तरह ही उपन्यास का प्रारूप भी त्रिस्तरीय है। ये तीन स्तर हैं- अलगाव, बदलाव और पुनर्गठन । उपन्यास इस तीसरे स्तर की शुरुआत तक ही पहुँचकर समाप्त हो जाता है । रामानुजन लिखते हैं कि संस्कार सिर्फ रचना का विषय नहीं है, बल्कि यह प्रारूप का भी विषय है।

लिखते हैं कि संस्कार सिर्फ रचना का विषय नहीं है, बल्कि यह प्रारूप का भी विषय है । आचार्य तीन स्तरों से गुजरते हैं। हालांकि हम उन्हें तीसरे स्तर से गुजरता हुआ नहीं देख पाते, बल्कि उसके पायदान तक ही देख पाते हैं ।

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(घ) ‘मानवीनीभवाई’ उपन्यास के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-

वर्ष 1985 में ‘मानवीनी भवाई’ को ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला । यह उपन्यास आंचलिक उपन्यास के रूप में जाना जाता है। इसमें एक प्रदेश विशेष का कलात्मक निरूपण हुआ है । इसीलिए इसे प्रादेशिक उपन्यास भी कहा जा सकता है। जनपद के चित्रण कीं दृष्टि से यह उपन्यास तुरंत ध्यान खींचता है।

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खेती के सहारे जीने वाले गाँव और वहाँ के गरीबों के जीवन को ऋऋऋतुओं के ताने-बाने के साथ पन्नालाल ने इस रचना में बड़ी खूबी के साथ प्रस्तुत किया है। बदलती ऋतुओं के साथ वहाँ ही प्रकृति परिवर्तित होती है। लेखक सर्दी, गरमी और बरसात की खेती तथा उसकी तैयारियों का आलेखन सामाजिक जीवन की प्रकृति के साथ-साथ करता है।

उपन्यास का प्रमुख पात्र किसान है तथा आसपास का ग्रामीण समाज भी खेती के काम में लगा हुआ है । इसलिए उपन्यास की कथा में खेती, गाँव-सिवान, ऋतुओं, मौसमों और मौरामों के अनुसार बदलती फसलों का तथा उसी से संबंधित आनुषंगिक कथा का आलेखन होता है।

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गरमियों में खेतों में खाद डालना, असाढ़ में बरसात चालू होते ही खेतों में बुवाई करना, भादों में फसल की निराई करना, क्वार में तैयार फसल की कटाई करना; इसी तरह जाड़ों में गेहूं-चने की बुवाई करना; उन्हें खाद-पानी देना, फिर होली बीतते-बीतते रबी की फसल की कटाई-मॅड़ाई करना आदि किसानों की जीवन-चर्या का चित्रण बखूबी किया गया है।

जाड़े की ओस भरी रातों में खेतों की रखवाली करते किसान ‘दूहा’ और भजन गाते हुए रात बिताते हैं। वर्षा ऋतु की पहली बारिश होती ही हळोतरा (हल चलाने का मुहूर्त) किया जाता है। इस मौके पर खाने के लिए कंसार बनाया जाता है।

सावन में पक्के तथा ज्वार-बाजरे के खेतों में पक्षियों को भगाने के लिए मचान बनाए जाते हैं और उन पर बैठकर रखवाले पक्षियों को उड़ाया करते हैं। ‘मानवीनी भवाई’ नामक इस उपन्यास की रचना पन्नालाल पटेल ने खेत में मचान पर बैठकर ही की थी।

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खेत-सिवान के जीवन की तरह ग्रामवासियों के सामाजिक जीवन का भी आलेखन इस उपन्यास में हुआ है। सगाई विवाह के प्रसंग पर गुड़-लावा खाने के लिए लोग इकट्ठे होते है: होली के अवसर पर लोग खुशियाँ मनाते हैं।

गरमियों में विवाह और फुलेका (विवाह के अवसर की एक रस्म ) के अवसर पर स्त्री-पुरुष ढोलक की ताल पर नाचते-गाते हैं। सीमंत के समय भी प्रसंगोचित गीत गाए जाते हैं । ‘ वेसता वर्ष’ (गुजरात में दिवाली के दूसरे दिन से नया वर्ष आरंभ होती है । इसीलिए उसे वैसता वर्ष कहा जाता है ।) के दिन गाँव के मुबक गायों को तोरण चढ़ाने का उत्सव मनाते है।

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समय मिलने पर एक-दूसरे के पर आना-जाना, किसी आपद्-विपद् में एक-दूसरे को सांत्वना देना और एक-दूसरे की मदद करना आदि सामाजिक व्यवहार ग्राम-जीवन के अंग हैं। साथ ही टोना-टोटका, अंधविश्वास, जंतर-मंतर, धागा ताबीज, ओझा-सोखा, भूत-प्रेत आदि की अज्ञानपूर्ण मान्यताएँ भी उसी में घुली मिली है।

कालू-राजू जैसे मुख्य पात्रों की व्यक्तिगत तथा पारिवारिक कथाओं के सहज विकास तथा उन्हें गति देने के लिए इनका स्वाभाविक वर्णन उपन्यास में हुआ है। यह सारा वर्णन मुख्य कथा के साथ ओतप्रोत है। साथ ही मुख्य कथा को जीवंतता भी प्रदान करता है।

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यही नहीं, यह सारा वर्णन वहाँ की स्थानीय बोली-भाषा में वहाँ के अपने मुहावरों और कहावतों के साथ हुआ है। मतलब यह है कि यह उपन्यास सही अर्थों में आंचलिकता का वैशिष्ट्य लिए हुए है।

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