IGNOU MHD 14 Free Solved Assignment 2024

IGNOU MHD 14 Free Solved Assignment 2024 (For Jan and Dec 2024)

Contents

MHD – 14 (हिंदी उपन्यास-1)

सूचना  :-

MHD 14 free solved assignment मैं आप सभी प्रश्नों  का उत्तर पाएंगे, पर आप सभी लोगों को उत्तर की पूरी नकल नही उतरना है, क्यूँ की इससे काफी लोगों के उत्तर एक साथ मिल जाएगी। कृपया उत्तर मैं कुछ अपने निजी शब्दों का प्रयोग करें। अगर किसी प्रश्न का उत्तर Update नही किया गया है, तो कृपया कुछ समय के उपरांत आकर फिर से Check करें। अगर आपको कुछ भी परेशानियों का सामना करना पड रहा है, About Us पेज मैं जाकर हमें  Contact जरूर करें। धन्यवाद 

MHD 14 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

Mhd 14

1. क) मेरे सिर कलंक का टीका लग गया और वह अब धोने से नहीं धुल सकता। मैं उसको या किसी को दोष क्यों दू? यह सब मेरे कर्मों का फल है आह एडी में कसी पीा हो रही है; यह कांटा कैसे निकलेगा? भीतर उसका एक टुकड़ा टूट गयया है। कैसा टपक रहा है। नहीं मैं किसी को दोष नहीं दे सकती। बुरे कर्म तो मैंने किए हैं, उनका फल कौन भोगेगा विलास -लालसा ने मेरी यह दुर्गति की मैं कैसी अधी हो गई थी, केवल इन्द्रियों के सुख भोग के लिए अपनी आत्मा का नाश कर बैठी। मुझे कष्ट अवश्य था मैं गहने-कपड़े को तरसती थी. अच्छे भोजन को तरसती थी. प्रेम को तरसती थी।

उत्तर-

यह गद्यांश एक व्यक्ति के आंतरिक भावों और संवेदनाओं को व्यक्त करता है जो अपने कमों के फल से धिरी हुई है और अपने जीवन के विभिशन्न पहलुओं पर विचार कर रहा है। इस गद्यांश को समझने के लिए कई भावनाएं और संवेदनाएं हैं जो संदर्भित हो सकती हैं:

1. “मेरे सिर कलंक का टीका लग गया और यह अय धोने से नहीं धुल सकता।” -यह बात दिखा रही है कि व्यक्ति के पास कोई भी अपराथ हो जाए, वह उससे मुक्ि प्राप्त करने की आशा नहीं रखता। वह अपने अवगुणों के लिए खुद को दोषी मान रहा है।

2. “मैं उसको या किसी को दोष क्यों दू?” – यह उचित समझा जा सकता है कि व्यक् अपने बुरे कमों को देखकर दूसरों को दोष देने से बच रहा है और खुद पर जिम्मेदारी लेने को तैयार है।

4. “भीतर उसका एक ट्रकड़ा टूट गया है। कैसा टपक रहा है।” – व्यति्ि अपने आतरिक भावों का वर्णन कर रहा है, जिनमें उसका मन टूट रहा है और उसे कष्ट महसूस हो रहा है।

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5. “नहीं मैं किसी को दोष नहीं दे सकती। बुरे कर्म तो मैंने किए हैं, उनका फल कौन भोगेगा” – व्यक्ति स्वयं को दोषी नहीं मान रहा है और उसे दूसरों पर दोष देने का इरादा नहीं है। वह समझता है कि वह अपने बुरे कर्मों के लिए सजा नहीं भोगेगा, बल्कि उनका फल किसी और को मिलेगा।

6. “विलास-लालसा ने मेरी यह दुर्गति की मैं कैसी अधी हो गई थी, केवल इन्द्रियों के सुख भोग के लिए अपनी आत्मा का नाश कर बैठी।” – यह भाग्य को दोष दे रहा है जो उसे इंद्रियां भोगने के लिए अपनी आत्मा को नष्ट करने पर ले जाता है।

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7. “मुझे कष्ट अवश्य था में गहने-कपड़े को तरसती थी. अच्छे भोजन को तरसती थी, प्रेम को तरसती थी।”- व्यक्ति अपनी वृद्धि को तरस रहा है, जिसमें उसे सुख, ऐश्वर्य और प्रेम की इच्छा है। यह भावना साफ करती है कि व्यक्ति अपने अभावों से पीड़ित है और उन्हें पूरा करने की इच्छा है।

इस गद्यांश में व्यक्ति की आंतरिक विरासत, विचार, और भावनाएं दिखाई देती हैं, जो उसके अंतर्निहित भाग्य और स्वभाव को समझने में मदद करती हैं। यह व्यक्ति अपने कर्मों के फल को देखने के लिए समझदारी और जिम्मेदारी के साथ अपने जीवन को जीने की कोशिश कर रहा है।

IGNOU MHD ALL FREE SOLVED ASSIGNMENT (2023-2024) 

MHD 14 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

(ख) तुम्हें क्या मालूम है कि जिसके लिए तुम सत्यासत्य में विवेक नहीं करते, पुण्य और पाप को समान समझते हो, यह उस शुभ मुहुर्त तक सभी विघ्न-बाधाओं से सुरक्षित रहेगा? सम्भव है ठीक उस समय जৰ जायदाद पर उसका नाम चढ़ाया जा रहा हो एक फुन्सी उसका तमाम कर दे। यह न समझो कि मैं तुम्हारा बुरा चेत रहा हूँ तुम्हें आशाओं की असारता का केवल एक स्वरूप दिखाना चाहता हूँ मैने तकदीर की कितनी ही लीलाएँ देखी हैं और स्वयं उसका सताया हुआ हूँ।

उत्तर-.-

यह गद्यांश एक संयवाद का हिस्सा है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को आक्षस्त कर रहा है और उसे विशेष भविष्यवाणी कर रहा है। इसमें कहा गया है कि व्यक्ति को जिस चीज के लिए यह सारयासत्य में विवेक नहीं करता है, और पुण्य और पाप को समान मानता है, वह उस शुभ मुहूर्त राक सभी विध्-वाधाओं से सुरक्षित रहेगा।

इसका मतलब है कि उसकी विशेष भाष्यशाली स्थिति बनी रहेगी जब उसकी जायदाद पर उसका नाम चढाया जा रहा हो और उसे किसी भी प्रकार की कठिनाइयों से बचाया जा सकता है। इसे एक फुंसी के तमाम करने के समान समझा गया है, जिससे इस स्थिति का समाधान सरल और सुविधाजनक हो जाए।

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इस संवाद में दूसरे व्यक्ति को समझाया जा रहा है कि भविष्यवाणी करने वाला व्यक्ति उसे दोषी नहीं ठहरा रहा है, वल्कि सिर्फ उसकी आशाओं की एक असारता दिखा रहा है और उसके लिए एक सकारात्मक भविष्य की आशा देना चाहता है। वह यह बता रहा है कि उसने तकदीर की कई लीलाएं देखी हैं और वह स्वयं भी उस तकदीर के खिलाफ खड़ा हुआ है।

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इस संवाद में भविष्यवाणी, तकदीर और अन्य रहस्यमयी तत्तवों का प्रयोग किया गया है जो लोगों के दिमाग में विचार और आशाओं को संबोधित करते हैं । इसमें भविष्यवाणी का प्रतीक्षा और सकारात्मक सोच की महत्वता दिखाई गई है।

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(ग) तुम खेल में निपुण हो, हम अनाड़ी हैं। बस इतना ही फरक है। तालियों क्यों बजाते हो, यह जीतने वालों का धरम नहीं ? तुम्हारा धरम तो है हमारी पीठ ठोकना हम हाे, तो क्या, मैदान से भागे तो नहीं, रोये तो नहीं, धाधली तो नहीं की। फिर खेलेंगे, जरा दम ले लेने दो, हार-हार कर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक न एक दिन हमारी जीत होगी, जरूर होगी।

उत्तर-.-

यह गद्यांश एक व्यक्ति या समूह के सामथ्य और साहस का प्रशंसन करता है जो खेल में कुशलता रखता है और हार-जीत को अपने अनुभव से जोड़ता है। इस गद्यांश के माध्यम से लेखक समझाने की कोशिश कर रहा है कि खेल का महत्व उसे जीतने वाले को नहीं बल्कि खेल में भाग लेने वालों को भी होता है।

“तुम खेल में निपुण हो, हम अनाड़ी हैं। बस इतना ही फरक है।”

इस संवाद के शुरुआत में, दो व्यक्तियों या समूहों के बीच एक सामान्य संवाद है जो एक दूसरे की खिलाड़ी या खेल में निपुणता को स्वीकार कर रहा है। “तुम खेल में निपुण हो” – यहां उल्लेख किया गया व्यक्ति या समूह खेल में माहिर हैं और जीतने की क्षमता रखते हैं। विपरीत रूप से, “हम अनाडी हैं” – दूसरी पक्ष का व्यक्ति या समूह खेल में अनुभवहीन है और जीतने की क्षमता से वंचित हं।

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“तालियाँ क्यों बजाते हो, यह जीतने वालों का धरम नहीं?” इस पंक्ति में, दूसरे पक्ष का व्यक्ति या समूह पूछ रहा है कि खेल जीतने वालों का धर्म नहीं होता है, जिसका मतलब है कि जीतने के लिए सिर्फ खेलना पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि यह एक उद्दीपना या एक अनुभव है जो जीत और हार से ऊपर उठने का प्रशंसन करता है।

“तुम्हारा धर्म तो है हमारी पीठ ठोकना हम हारे, तो क्या, मैदान से भागे तो नहीं, रोये तो नहीं, धॉधली तो नहीं की।” इस भाग में, खेल का महत्व और उसमें भाग लेने का मूल्य दिखाया गया है। यहां व्यकति या समूह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि वे खेल में हारते हैं तो भी उन्हें निराश नहीं होना चाहिए। वे खेल में धांधली नहीं करते हैं., और यह इशारा है कि खेल के मूल्य को समझा रहे हैं।

“फिर खेलेंगे, जरा दम ले लेने दो, हार-हार कर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक न एक दिन हमारी जीत होगी, जरूर होगी।”

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इस भाग में, व्यक्ति या समूह खेल में अपने योग्यता का सामथ्थ्य कर रहा है। वे बता रहे हैं कि वे मेहनत करके तैयारी करेगे, हार का सामना करेंगे, और खेल में धीरज रखकर वे जीत हासिल करेंगे। इससे दिखता है कि खेल में सफलता के लिए संघर्ष और उन्हें हार के साथ तैयार रहने की आवश्यकता है। यह गद्याश एक प्रेरक संदेश साझा करता है कि खेल में भाग लेने वाले लोग उद्रीपना और अनूभव के माध्यम से सीख सकते हैं, और वे अपने परिणामों में सफलता प्राप्त कर सकते हैं, चाहे वे जीतें या हारें।

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(घ) मानव जीवन की सबसे महान घटना कितनी शांती के साथ घटित हो जाती है। यह विश्व का एक महान् अंग, वह महत्वाकांक्षाओं का प्रचंड सागर वाह उद्योग का अनंत भांडार, वह प्रेम और द्वेष, सुख और दूःख का लीला क्षेत्र, वह बुद्धे और बल की रंभूमि न जाने कब और कहाँ लीन हो जाती है, किसी को खबर नहीं होती।

उत्तर-.-

यह गद्यांश एक व्याक्लता भरी सोच को व्यक्त करता है जो मानव जीवन की महत्वपूर्ण अस्तित्व से जुड़ी हुई है। यहां प्रस्तुत गद्यांश में, लेखक ने जीवन को विविधता और विशालता के साथ उपस्थित रूप से दिखाया है जिसमें शांति से लेकर उद्योग, प्रेम और द्वेष, सुख और दूःख जैसी अनेक भायनाएं और गुण होते हैं।

इस गद्यांश का संदर्भ शायद इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि मानव जीवन अत्यंत अस्थिर है और अनिश्चितता से भरा हुआ है। इसमें अनेक संधर्ष और विरोधाभास हैं जो अपने-आप में अविरोधी हैं और हमें अपने जीवन को समझने और समाधान करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

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इस गद्यांश को समझने के लिए, हम उस समय को सोच सकते हैं जय लेखक अपने सामान्य दैनिक जीवन और उसमें घटित होने वाली घटनाओं से चिंतित रहता है और उसे समझने का प्रयास करता है। उस समय पर उसका ध्यान विश्व विभिन्न पहलुओं पर एकत्रत हो जाता है, जिससे वह अपने जीवन की सामान्यता और अस्थिरता को समझने का प्रयास करता है।

इस गद्यांश में अभिव्यक्त भावना से भरे शब्दों का उपयोग किया गया है जो हमें जीवन की विभिन्न पहलुओं के बारे में सोचने पर प्रोत्साहित करता है। वह इस सामान्य और भ्रांतिपूर्ण दुनिया में जीवन के अर्थ और प्रयासों को समझने की उत्सूुकता को उजागर करता है।

यह विशेष रूप से विचारशील और सोचने पर मजबूर करने वाला गद्यांश है जो हमें जीवन के परिवर्तनियों और अनिक्षितता के साथ सामना करने के लिए प्रेरित करता है। यह भावनाएं और विचारों का एक सुंदर वर्णन है जो मानव जीवन हैं।

अस्थायी और विचित्र स्वरूप को प्रकट करता है।

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2 – प्रेमचंद पर उनकी समकालीन आलोचना का विवरण प्रस्तुत करते हुए उसका मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर-.-

प्रेमचंद हिंदी साहित्य के उन प्रमुख लेखकों में है जिन्होंने पहली बार साहित्य के निर्माण में समाज जीवन की भूमिका और जीवन के निर्माण में साहित्य की भूमिका का महत्त्व प्रतिपादित किया। प्रेमचंद, भारतीय साहित्य के एक महान कथाकार, उपन्यासकार, और निबंधकार थे जो हिंदी उपन्यास की संधि में नए दिशानिर्देश स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

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उनके लेखन में विविधता, सामाजिक न्याय, मानवीय भावनाएं और समस्याओं के सामंजस्यपूर्ण वर्णन की वजह से उन्हें हिंदी साहित्य के महान लेखकों में गिना जाता है। ऐसा नहीं है कि प्रेमचन्द साहित्य में मानव मन के अन्तर्व्यापारों और स्थितियों की गति से निर्धारित और परिपोषित ‘कल्पना तत्त्व’ के कायल न थे।

‘गोदान’,’कफन’, ‘मंत्र’,’नशा’, ‘सद्गति’ जैसी रचनाओं में विचार- भावना का जो अन्यतम नाटकीय संघर्ष प्रदर्शित किया गया है, सामान्य जन के मानवीय अन्तर्विरोध को इससे और अधिक बेहतर ढंग से प्रदर्शित नहीं किया जा सकता था।अभिप्राय यह है कि गरीब,किसान – मजदूर,निरीह और दरिद्र मनुष्यों में प्रेमचंद ने सबसे ज्यादा मनुष्यता,सच्चाई व सेवा भाव पाया है और इसी कारण उनसे अगाध प्रेम भी किया है।उनके सौंदर्यशास्त्र का यह एक सबल पक्ष है जो उसे व्यापकता प्रदान करता है।

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प्रेमचंद के लेखन का सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्य उनकी कहानियों और उपन्यासों की मार्मिक अन्तर्वस्तु और रचना- संगठन से नि:सृत होते हैं।उनकी धारणा है कि-

“मनुष्य में जो कुछ सुंदर है,विशाल है,आदरणीय है, आनंदप्रद है,साहित्य उसी की मूर्ति है।उसकी गोद में उन्हें आश्रय मिलना चाहिए जो निराश्रय है,जो पतित है,जो अनादृत है।”

उनके सौंदर्य बोध के अभिप्राय ने ‘सौंदर्य’ की परिभाषा ही बदल दी है।प्रेमचंद साहित्य में विचारधारा के कायल ही न थे बल्कि इसे साहित्य की अनिवार्य वस्तु मानते थे।साफगोई,पक्षधरता व दो-टूक कथन उनके सौंदर्य बोध का सार है।

उन्होंने जीवन और साहित्य, विचारधारा और साहित्य, राजनीति और सौन्दर्य शास्त्र के संदर्भ में परंपरित अवधारणाओं का प्रतिवाद किया; सौंदर्योपासकों तथा धार्मिक रहस्यवादियों के मनोगत वादी आवरणों को उघाड़ा।रहस्यात्मक लेखन के विरुद्ध जिस यथार्थवादी लेखन की नींव प्रेमचंद ने रखी उस सिलसिले में पाठक वर्ग का व्यापक समर्थन उन्हें मिला।

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चूँकि किसी साहित्यिक प्रवृति का भाग्य निर्धारण लेखक और पाठक (जनता) मिलकर करते हैं तो कहना न होगा, जनता ने प्रेमचंद के संघर्ष में उनका साथ दिया अन्यथा देवकीनन्दन खत्री और गोपाल राम गहमरी के व्यापक प्रभाव को काटकर यथार्थवाद का झंडा गाड़ना संभव न हुआ होता और जैनेन्द्र तथा अज्ञेय जैसी दुर्धर्ष आत्मनिष्ठ प्रतिभाओं के आगमन के बावजूद अपनी उँचाई पर स्थिर रह जाना तो उनकी जन चैतन्यता को ही पुष्ट करता है।

जैनेन्द्र और अज्ञेय के पास भी अपना व्यक्तिगत सत्य है अवश्य,किन्तु यह सत्य पाठकों के एक नगण्य अल्पमत से अधिक के लिए नहीं है अर्थात् ये निजी घुटी-बन्द दुनिया के अधिवासी हैं,एक गहरे अर्थ में घोर आंचलिक है।प्रेमचंद ऐसे स्रष्टा है जो व्यापक जातीय जीवन और संस्कृति के साथ ताना- बाना बुनते है।सत्य को खोजते हुए वे दर-दर भटकते है।

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उनका मत है कि दृढ़ साम्य-भाव के बिना राष्ट्रीयता की कल्पना नहीं की जा सकती।और सच यह है कि समाज में साम्य-भाव की स्थापना अहिंसा,प्रेम व करुणा से नहीं बल्कि जन-संघर्षों के माध्यम से ही संभव है।प्रेमचंद ने निरंतर गतिशील यथार्थ की सामग्री को परिवर्तित हो रहे देश-काल के संदर्भ में परिवर्द्धित एवं संवर्द्धित किया।

अपने बोधात्मक मूल्यों का,सौंदर्य बोध का विश्व दृष्टि के संदर्भ में विषय-वस्तु के चयन, भाषा एवं शिल्प के स्तर पर विस्तार किया।प्रेमचंद ऐसे पहले कथाकार है जिनकी रचनाओं में जनवादी बुद्धिजीवियों और प्रगतिशील शहरी मजदूरों को प्रस्तुत किया गया है।उनके लेखन कला का यह एक विशिष्ट पक्ष है।

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प्रेमचंद की आलोचनात्मक पडताल करने वाले नंद दुलारे वाजपेयी भी जब उनके कथा साहित्य के महत्त्व पर विचार करते हैं, तब वे उनकी तुलना तोल्सतोय से करते हुए नजर आते हैं तो आज के रचनाकार रमेश उपाध्याय, प्रेमचन्द को अपने लिए प्रेरक मानते हैं।

असगर वजाहत हो या अखिलेश ‘कफन’ कहानी को महत्त्वपूर्ण बताते हैं तो ममता कालिया आज के संदर्भ में ‘सवा सेर गेहूँ’ को महत्त्वपूर्ण मानती हैं।’1 सारे विवादों, असहमतियों के बावजूद रचनाकार कुछ कारणों से कालातीत होता है, तभी तुलसीदास, कबीरदास और प्रेमचन्द आज भी हमें प्रासंगिक लगते हैं। गहरी अंतर्दृष्टि के जरिए वे सामाजिक व्यवस्था को चित्र्ति करने में सिद्धहस्त रहे हैं। प्रेमचन्द हमें आज और अधिक प्रासंगिक किसान जीवन के संदर्भ में भी लगते हैं।

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प्रेमचन्द का जितना विरोध आज हो रहा है उससे अधिक अपने जीवन काल में भी हुआ था। उन्हें गाँधीवादी, आदर्शवादी और माक्र्सवादी कहा जाता रहा है, जबकि वे सही अर्थों में देखा जाए तो किसान जीवन के चितेरे होने के कारण आज भी हमें उतने ही नवीन लगते हैं, जितने कल थे।

इस प्रकार से देखें तो लेखन संबंधी उपर्युक्त समस्त विशिष्टताएं उन्हें अन्य लेखकों से पृथक करती हैं।

प्रेमचन्द का कथा साहित्य जितना समकालीन परिस्थितियों पर खरा उतरता है,उतना ही बहुत हद तक आज भी दिखाई देता है। भले ही देश आजाद है पर महिलाओं, दलितों और किसानों की स्थितियों में बहुत कुछ वैसा ही अन्याय और शोषण दिखाई देता है। उनकी रचनाओं में गरीब श्रमिक, किसान और स्त्री जीवन का सशक्त चित्र्ण उनकी दर्जनों कहानियों और उपन्यासों में हुआ है,

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सेवासदन’ की सुमन की तरह कोठे पर बैठने का सिलसिला आज भी बंद नहीं हुआ है। ‘गबन’ उपन्यास का रमानाथ हैसियत से अधिक दिखने की लालसा में सरकारी धन का घपला करता है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में भारतीय समाज के सभी वर्गों, भारतीय जीवन के सभी पक्षों और भारतीय मनुष्य के सभी रूपों का चित्र्ण किया है। उतना दूसरे किसी भारतीय लेखक में शायद ही मिले। उनका रचनात्मक संदर्भ यूरोपीय उपन्यासों से भी भिन्न रहा है।

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प्रेमवंद के दिवंगत होने के समय के लगभग समकालीन आलोचकों ने उनके लेखन को विभिन्न दृष्टिकोन से देखा था। कुछ आलोचकों ने उन्हें समाजवादी विचारधारा के पक्षधर माना और उनके समाजिक न्याय के प्रति सराहना की। वे उनके कथा- साहित्य को भारतीय समाज की समस्याओं का अभिव्यक्ति समझते थे और उनके कथाएं एक सामाजिक संदेश बनकर रहती थीं।

हालांकि, कुछ अन्य आलोघक ने प्रेभचंद को एकदिश दिखाया और उनके लेखन को व्यक्तिगत भावनाओं और मौद्रिक কचियों का प्रतीक माना। उन्होंने कहा कि उनके उपन्यासों में सामाजिक विचार के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभव भी निहित होते हैं जो एक व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक विकास को दर्शाति हैं।

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इस प्रकार, प्रेमचंद के लेखन के मूल्यांकन में भी विविधता देखी जा सकती है। उनके लेखन की विशेषता यह है कि उन्होंने समाजवादी विचारधारा के अनुसार न सिर्फ समाज की समस्याओं को प्रकट किया बल्कि उसके साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभवों को भी ध्यान में रखते हुए एक पूर्णतः विशेष और सुंदर समन्वित शृंगारकारी दृष्टिकोन प्रस्तुत किया।

भारतीय साहित्य में प्रेमचंद का स्थान अट्रट है और उनके लेखन को उस समय के सामाज़िक, राजनीतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य से समझना अहम् है। उनके द्वारा प्रस्तुत किए मगए किस्से, कहानियों, और उपन्यास आज भी हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण कृतियों में गिने जाते हैं और उन्हें विश्षस्तरीय पहचान दिलाई गई है।

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3- सुमन के चरित्र की मूलभूत विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर.-

चरित्र सृजन और विकास का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है और सुमन नामक चरित्र के मूलभूत विशेषताएं उसके व्यक्तिगतता, भावनाएं, गुण, और आचरण को समझाती हैं।

सुमन का चरित्र एक सकारात्मक और उत्साही व्यक्तित्व का प्रतीक होता है जो भाकनाओं से भरा हुआ है और समृद्ध, सामाजिक, और अध्ययनशील जीवन जीने की इच्छा रखता है। उसके मूलभूत विशेषताएं उसे अपने आसपास के लोगों के साथ संबंध बनाने और जीवन के सभी पहलुओं को समझने में मदद करती हैं।

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सुमन का चरित्र :

1) अनुपम सौन्दर्य की प्रतिमा

सुमन मुग्ध मनोहरकारिणी अनुपम सौन्दर्य की प्रतिमा है। उस का सौन्दर्य चंचल स्वाभिमान युक्त होता है। लम्बे-लम्बे केश, कुन्दन का दमकता हुआ मुखचन्द्र, चंचल, सजीव मुस्कराती हुई आँखें, कोमल चपल गात, ईंगुर-सा भरा हुआ शरीर, अरुण वर्ण कपोल आदि से शोभित अतुलित सौन्दर्य की राशि के रूप में सुमन प्रस्तुत होती है।

सुमन के लावण्यमय सौन्दर्य पर भोली बाई भी चकित होकर कहती है, “अब तक सेठ बलभद्रदासजी मुझ से कन्नी काटते फिरते थे, इस लावण्यमयी सुन्दरी पर भ्रमर की भाँति मण्डराएँगे। सुमन का सौन्दर्य ‘सेवासदन’ उपन्यास में आकर्षण का एक केन्द्र – बिन्दु है । सारी घटनाएँ तथा अन्यपात्र सुमन से प्रभावित हैं। “

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2) विलासिता के प्रति आकर्षित

सुमन में भोग – विलास के प्रति अद्भुत ललक दिखाई देती है। भोग-विलास को वह सम्मान समझती है। भोलीबाई के ऐश्वर्य से प्रभावित होकर वह पति गजाधर से कहती है, “वह चाहे तो हम – जैसों को नौकर रखले ।” इस सम्बन्ध में उपन्यासकार प्रेमचन्द स्वयं कहते हैं,‘उसने गृहिणी बनने की नहीं, इन्द्रियों के आनन्द – भोग की शिक्षा पायी थी।”

सुमन में कुशल गृहिणी के लक्षण नहीं है। इसी कारण वह पति गजाधर के अल्पवेतन को वह खोमचे वालों की वस्तुओं को अकेले ही खा कर समय से पहले समाप्त कर देती है। पति गजाधर सुमन के रूपलावण्य पर मुग्ध हो वह सदा पत्नी को प्रसन्न रखना चाहता था। घर का सारा काम वह स्वयं करता था।

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लेकिन सुमन ने गृहिणी बनने की नहीं, इन्द्रियों के आनन्द-भोग की शिक्षा पायी थी। सुमन की मोहिनी सूरत ने पति को वशीभूत कर लिया था। किन्तु सुमन जिह्वा-रस भोगने के लिए पति से कपट करती रहती है। उसके सौन्दर्य की चर्चा मुहल्ले में भी फैल जाती है। पडोसियों के बीच सुमन सौन्दर्य की रानी मानी जाती है। IGNOU MHD solved assignment

पति गजाधर द्वारा सुमन घर से निकाल दी जाती है, तो विपत्ति के समय उसकी मनोवृत्तियाँ और भी प्रबल हो उठती हैं। वेश्या बनना वह अपना सौभाग्य समझती है। सुमनबाई बनने पर उसका आत्मकथन है – ” मेरा तो यह अनुभव है कि जितना आदर मेरा आज हो रहा है, उसका शतांश भी नहीं होता था।

एक बार मैं सेठ चिम्मन लाल के ठाकुर द्वार पर झूला देखने गयी थी, सारी रात बाहर खड़ी रही, किसी ने भीतर न जाने दिया, लेकिन कल उसी ठाकुरद्वार में मेरा गाना हुआ तो ऐसा जान पडता था, मानो मेरे चरणों से मन्दिर पवित्र हो गया।

विट्ठलदास के द्वारा दिये गये ज्ञान से प्रभावित हो वह वेश्या मार्ग को हेय समझकर कहती है, – “ आप सोचते होंगे कि भोग विलास की लालसा से कुमार्ग में आयी हूँ, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। मैं ऐसी अन्धी नहीं कि भले-बुरे को पहचान न कर सकूँ।

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मैं जानती हूँ कि मैंने – अत्यन्त निकृष्ट कर्म किया है। लेकिन मैं विवश थी, इस के सिवा मेरे और कोई रास्ता न था। “

सुमन का यह आत्म-कथन नारी की दयनीय दशा का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है । प्रायः तत्कालीन समाज में अपनी रक्षा का अन्य मार्ग न देख कर इन विचारों के अन्तर्द्वन्द्व में स्त्रियाँ वेश्या बन जाने के लिए बाध्य हो जाया करती थीं।

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गजाधर का यह कथन इसकी पुष्टि करती है- “मेरी असज्जनता और निर्दयता सुमन को चंचलता और विलास लालस ने मिलकर हम दोनों का सर्वनाश कर दिया । “

कथानक की चरम परिणति में अपनी दुर्दशा का श्रेय विलास – प्रवृत्ति को त्याग देते हुए सुमन कहती है – “नहीं, मैं किसी को दोष नहीं दे सकती, बुरे कर्म तो मैंने किए हैं, उनका फल कौन भोगेगा ? विलास – लालसा ने मेरी यह दुर्गति की। मैं कैसी अन्धी हो गई थी, केवल इन्द्रियों के सुख-भोग के लिए अपनी आत्मा का नाश कर बैठी ।”

प्रेमचन्द लिखते हैं – यह सुमन है या उसका शव, अथवा उसकी निर्जीव मूर्ति ? उस वर्णहीन मुख पर विरक्ति, संयम तथा आत्म-त्याग की निर्मल शान्तिदायिनी ज्योति झलक रही थी ।

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3) रूपगर्विता :-

सुमन का चंचल स्वभाव उसे अस्थिर करता है और उसके गृहिणी स्वरूप को भी विकृत कर देता है। वह अपने इसी स्वभाव को समस्त आपत्तियों का कारण मानती है।

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सुमन अपने अन्तस से कहती है – ‘“हाँ! प्रभो ! तुम सुन्दरता देकर मन को क्यों चंचल बना देते हो ? मैंने सुन्दर स्त्रियों को प्राय: चंचल ही पाया। कदाचित, ईश्वर इस युक्ति से हमारी आत्मा की परीक्षा करते हैं, अथवा जीवन-मार्ग में सुन्दरता रूपी बाधा आग में डाल कर उसे चमकाना चाहते हैं, पर हाँ। अज्ञानवश हमें कुछ नहीं सूझता, यह आग हमें जला डालती हैं, वह बाधा हमें विचलित कर देती है। “

इस प्रकार सुमन अपने आत्मकथन द्वारा व्यक्त कर देती है कि स्त्री का गौरव, सौन्दर्य एवं महत्त्व स्थिरता में है।

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4) सुशिक्षित एवं चतुर नारी :-

सुमन सुशिक्षित, विदुषी एवं चतुर नारी है। वह समय- समय पर धार्मिक पुस्तकों, रामायण आदि का अध्ययन करती रहती है। उसमें किसी बात को समझाये जाने पर अच्छे और बुरे का अन्तर करने की अद्भुत क्षमता है।

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वेश्या बन जाने पर रातों में वह सदैव ज्ञान – चक्षु, खोल कर इस तथ्य पर मनन करती है – ‘जो शान्तिमय सुख सुमन को प्राप्त है, क्या वह मुझे मिल सकता है ? असम्भव ! जहाँ तृष्णा-सागर है, वहाँ शान्ति – सुख कहाँ है ?IGNOU MHD solved assignment

आदर एवं निर्लज्जता के सम्बन्ध में कहे गये कथन भी उसके सांसारिक ज्ञान के परिचायक हैं – आज चाहे समझते हों कि आदर और सम्मान की भूख बडे आदियों को ही होती है, किन्तु दीन दशावाले प्राणियों को उसकी भूख और भी अधिक होती है, क्यों कि उनके पास इन को प्राप्त करने का कोई साधन नहीं है। वह इनके लिए चोरी, छल-कपट, सब कुछ कर बैठते हैं। आदर में वह सन्तोष है जो धन और भोग – विलास में नहीं है।’

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“यहाँ आकर मुझे मालूम हो गया है कि निर्लज्जता सब कष्टों से दुस्सह है और कष्टों से शरीर को कष्ट होता है, इस कष्ट से आत्मा का संहार हो जाता है।” “सुमन, तुम वास्तव में विदुषी हो। “

सुमन के प्रति विट्ठल दास का कथन है – “सुमन, तुम वास्तव में विदुषी हो।”

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5) संघर्षमय जीवन :-

‘सेवासदन’ उपन्यास में सुमन ऐसी नारी का प्रतिनिधित्व करती है जो समस्त आपत्तियों का सामना स्वयं करती है। अपने द्वारा किये गये अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगने के लिए स्वयं तैयार है।

“मैं सहानुभूति की भूखी थी, वह मुझे मिल गयी। अब मैं अपने जीवन का भार आप लोगों पर नहीं डालूँगी आप केवल मेरे रहने का प्रबन्ध कर दें जहाँ मैं विघ्न – बाधा से बची रह सकूँ।” “मैं परिश्रम करूँगी। अपनी निर्लज्जता का कर आप से न लूँगी।”

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6) निर्लिप्त जीवन:-

सब कुछ क्रीडापूर्वक करती है और बड़े ही विनोदपूर्ण ढंग से परिस्थितियों के साथ स्वयं आनन्दित रहती है। दालमण्डी छोडते समय वह अपने प्रेमियों को बिदा करती है। उस समय प्रकृति हास्य से परिपूर्ण दृष्टिगोचर होती है। IGNOU MHD solved assignment

वह सिगरेट की एक डिबिया मँगवाती है और वारनिश का एक बोतल मँगाकर ताक पर रख देती है और एक कुर्सी का एक पाया तोड कर कुर्सी छज्जे पर दीवार के सहारे रखदेती है। पाँच बजते-बजते मुंशी अनुलवफा का आते है ।

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इधर-उधर की बातें करने के पश्चात सुमन बोलती है – “आइए, आज आप को वह सिगरेट पिलाऊँ कि आप भी याद करें।” सुमन सलाई रगडकर अबुलवफा की दाढ़ी का सर्वनाश कर देती तो हँसी उसके ओठों पर आ जाती है। इस प्रकार विनोद क्रीडा में वह सब कुछ भूल कर हास्य का आनन्द लेती है।

7) स्वाभिमान तथा बुद्धिमत्ता :-

सुमन बडी स्वाभिमानिनी है। वह किसी के सामने अपने को ही मानकर नहीं आती, पडोसियों ने उसके सौन्दर्य रीति, व्यवहार और गुणों पर मुग्ध हो कर उसका नेतृत्व स्वीकार कर लिया था। अपने इस गुण के कारण ही वह प्रत्येक क्षेत्र में अपना वर्चस्व चाहती है।

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पडोसियों के मध्य वेश्या बन जाने पर दालमण्डी में इसी प्रवृत्ति के कारण आधिपत्य स्थापित कर पाती है। आश्रम में सेवाधर्म का पालन करके पति के घर सारे कष्ट झेल कर भी रानी बन कर सम्मान से रहने वाली महत्त्वाकांक्षी प्रवृत्ति का प्रदर्शन करती है। वह मानिनी सगर्वा नारी के रूप में विलसित चरित्रवाली है।

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सुमन चंचल प्रकृति की नायिका है, जिसके कारण उसकी बुद्धि आच्छन्न हो गई थी और वह भोली के आश्रय तक आ पहुँचती थी, किन्तु उसके बौद्धिक रूप का जागरण भी उपन्यास के घटनाक्रम में बुद्धिमत्ता की ओर इंगित करता है।

विट्ठलदास की धार्मिक बातों से उसके उच्छृंखल बौद्धिक विचारों में परिवर्तन आता है। वह अपने झोंपडे में सन्तुष्ट रहती है। अन्त में प्रत्युपकार करने की भावना भी उस में जागरित होती है।

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धार्मिक पक्ष :-

सुमन वेश्या जीवन के कारण समाज में तिरस्कृत होती है। चंचलता और तृष्णा से विरक्त हो वह धार्मिक पथ का अनुसरण करती है। धन की अपेक्षा वह सेवा – निरत हो जीवन को परिवर्तित कर देती है। उसका त्यागमय जीवन और सेवा – भाव उसे अत्यन्त ऊँचे स्थान पर बैठा देते हैं।

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उपसंहार :- अन्त में गजानन्द सुमन की प्रशंसा में कहता है, “मैं ने तुम्हें आश्रम में देखा, सदन के घर में देखा, तुम सेवाव्रत में मग्न थीं, तुम्हारे लिए ईश्वर से यही प्रार्थना करता था। तुम्हारे हृदय में दया है, प्रेम है, सहानुभूति है और सेवा – धर्म के यही साधन हैं, तुम्हारे लिए उसका द्वार खुला है। “

अपनी इसी भावना के द्वारा सुमन ‘सेवासदन’ को आदर्शमय तथा उन्नत अवस्था पर पहुँचा देती है। निस्स्वार्थ त्याग वृत्ति से उसका चरित्र प्रकाशित होता है।

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उपन्यास में सुमन एक सुन्दर, चंचल और अभिमानिनी के रूप में दर्शाती है। अन्त में आकर शहीना, आभूषण हीना और रूप लावण्य के स्थान पर पवित्रता की ज्योति के रूप में दिखाई देती है।

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4- रंगभूमि में आदर्शवाद किस रुप में व्यक्त हुआ है? विचार कीजिए।

उत्तर.-

‘रंगभूमि ‘ में आदर्शवाद किसी अध्यात्मिक रूप से य्यक्त नहीं हुआ है, बल्कि यह लोकप्रिय आदर्शवादी भावना को संक्षेप्त रूप से प्रतिकृतित करता है जो मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को सम्मिलित करता है।

एक साहित्यिक विवेचन पुस्तक में नन्ददुलारें वाजपेयी‘हिन्दी उपन्यास – परम्परा और प्रेमचन्द ’पर बात करते हुए कहते हैं‘ प्रेमचन्द के उपन्यासों में सबसे प्रमुख विशेषता है उनकी आदर्श – वादित। चरित्रों और उनकी प्रवृत्तियों का निर्देश करने में वे आदर्शोन्मुखी है घटनावली का निमार्ण और उपसंहार करने में आदर्श का सदैव ध्यान रखते है। इसका साक्षात प्रमाण रंगभूमि मैं देखा जा सकता हैं।

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प्रेमचंद अपने आपको शुद्ध यर्थाथवादी लेखक नहीं मानते। उन्होंने आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद की। नई अवधारणा सामने रखी। 22 जनवरी 1930 को श्री हरिहरनाथ को उन्होंने पत्र लिखा। उसमें लिखामेरा सवाल है कि साहित्य का सबसे बड़ा उद्देश्य उन्नयन है ऊपर उठाना।

हमारे यथार्थवाद को भी यह बात आँख से ओझल न करनी चाहिए। मैं चाहता हूँ कि आप मनुष्यों की सृष्टि करें, साहसी, ईमानदार, स्वतंत्र चेतना मनुष्य जान पर खेलने वाले जोखिम उठाने वाले मनुष्य, ऊँचे आदर्शों वाले मनुष्य आज इसी की जरूरत है।

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कहना न चाहिए कि ‘रंगभूमि का सूरदास इसी तरह का मनुष्य है। इसे कोई चाहे तो आदर्श पात्र कहे, चाहे यथार्थवादी इस रूप में प्रेमचंदअपने आपको आदर्शवादी लेखक ही मानते हैं। यह अलग बात है कि आदर्शवाद से उनका तात्पर्य अधििकतर लोगवाद रहा है।

वे चाहते हैं कि साहित्य और समाज का एक ऊँचा लक्ष्य हो। वही साहित्य को गति और बल देते हैं। ऊँचे लक्ष्य के बिना बड़ा काम नहीं हो सकता। इस आदर्श आकांक्षा के साथ प्रेमचंद की इच्छा रही है कि साहित्य को जनता के वास्तविक जीवन से जुड़ा हुआ होना चाहिए।

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वे मानते हैं कि साहित्य सच्चा इतिहास है। क्योंकि उसमें अपने देश और काल का जैसा चित्र होता है वैसा कोई इतिहास में नहीं हो सकता” साहित्य में यह ऐतिहासिक सत्य तभी आ सकता है जब रचना की आधारभूमि यथार्थवादी होती है। IGNOU MHD solved assignment

प्रेमचंद ने एक स्थान पर लिखा है- यथार्थवाद यदि हमारे आँखें खोल देता है, तो आदर्शवाद हमें उठाकर किसी मनोरम स्थान में पहुंचा देता है। लेकिन जहाँ आदर्शवाद में यह गुण है, यहाँ इस बात की भी शंका है कि हम ऐसे चरित्रों को न चित्रित कर बैठे जो सिद्धांतों की मूर्ति मात्र हो- जिनमें जीवन न हो। किसी देवता की कामना मुश्किल नहीं है, लेकिन उसमें प्राण प्रतिष्ठा करना मुश्किल है। “

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इस गद्यांश में लेखक ने विभिन्न विशेषताओं का संदर्भ देते हुए जीवन की एक व्यापक छवि वित्रित की है जिसमें अन्तव्यक्ति और अंतरराषट्ट्य संबंध, आत्म-समर्पण और आत्म-नियंत्रण, अनुशासन और स्वतंत्रता, प्रेम और द्वेष, सुख और द्ख आदि को सम्मिलित किया गया है। इन सभी तत्वों को संघर्ष के रूप में व्यक्त किया गया है, जो मानव जीवन की विशेषता और अस्थिरता को दर्शाता है।

आदर्शवाद एक दृढ़ विश्वास है कि जीवन के सभी पहलू समृद्धि और उत्कष्टता की ओर आगे बढते हैं और समस्याओं का समाधान सहजता से हो जाता है। इस गद्यांश में आदर्शवाद को भव्य और सुंदर शब्दों में व्यक्त किया गया है, जिससे इसमें संचित विचारो का सही प्रतिनिधित्व होता है।

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लेखक ने इस गद्यांश में जीवन को एक महान नाटक के रूप में दर्शाया है जिसमें हर इसान अपने भूमिका के अनुसार रंग- भूमि पर अपनी प्रदर्शनी देता है। यहां रंग-भूमि एक मेटापफॉर है, जिससे समझाया जा सकता है कि जीवन एक नाटक जैसा है जिसमें अपनी अपनी भूमिका निभाने वाले अभिनेता हर पल अपनी प्रतिभा और कार्यशीलता से उत्कृष्टता की प्रतिस्पर्धा करते हैं।

समग्र रूप से, रंगभूमि’ एक आदर्शवादी भावना का बेहतरीन वर्णन है, जो मानय जीवन की अनन्त विशालता और अस्थिरता को सराहता है और सभी पहलूओं को संघर्ष के रूप में दिखाता है जो हमें समझने और समाधान करने के लिए प्रेरित करता हैं।

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5- औपन्यासिक शिल्प की दृष्टि से ‘गबन का मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर.-

‘गबन’ एक उपन्यास है जो मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया है और उसका प्रकाशन 1910 में हुआ था। यह उपन्यास उत्तर भारतीय समाज की समस्याओं और सामाजिक परिवर्तनों को एक उत्कृष्ट कहानी के माध्यम से व्यक्त करता है।

औपन्यासिक शिल्प की दुष्टि से, ‘गवन’ एक अदत उदाहरण है जो अपने समय की समस्याओं, विरोधों, और य्यक्तिगत और सामाजिक संघधर्षों को साहित्यिक रूप में प्रस्तुत करता है। इसमें लेखक ने अपने पाठकों को विभिन्न सामाजिक विषयों पर सोचने पर प्रेरित किया है और उन्हें समस्याओं के समाधान तलाशने के लिए प्रोत्साहित किया है।

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गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया एक यथार्थ वादी उपन्यास है। इस उपन्यास की कथा वस्तु अपने मूल्यों से भटकते मध्य वर्ग के जीवन का वास्तविक चित्रण करने की रही है। जिसमें कहानी की नायिका जलपा का आभूषणों के प्रति अत्यधिक लोभ दर्शाया गया है, जिसके कारण उसका पति संकट में पड़ता है।

घटनाक्रम अनेक मोड़ लेते हैं, और कहानी का नायिका जलपा अपने पति को संकट निकालती भी है। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने कहानी की मुख्य नायिका जलपा के आभूषणों के लोभी स्त्री से लेकर एक राष्ट्रनायिका बनने तक की परिणति का वर्णन किया है।

‘गबन’ के माध्यम से, मुंशी प्रेमचंद ने गहरे लघुता और उदासी के रंग में समाज की अध्यात्मिकता और नैतिकता की दिव्यता को दिखाया हैं। इसमें व्यक्ति के अंतरंग संघर्ष, व्यक्तिगत सम्मान की महता, और समाज के प्रति उत्तरदायित्व के विषय में अत्यंत गहराई से विचार किया गया है।

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गबन में एक मध्यमवर्गीय परिवार की आर्थिक खींचतान के बीच शौक पालने और सामाजिक दिखावे को बनाये रखने की कहानी है जो कई उतार चढावों से गुजरते हुए अंततः सच्चाई, सेवा भावना, त्याग एवं सरल जीवन के सुखांत पर पूरी होती है। इसमें पति-पत्नी के बीच प्रेम, प्रदर्शन से शुरू होकर तमाम अनुभवों से गुजर कर सच्ची हार्दिक एकात्मता तक पहुंचता है।

एक उदाहरण से हम स्त्री-पक्ष और शिल्प- पक्ष के संबंध को समझ सकते हैं। जैसे मकान के निर्माण में ईट, पत्थर, सीमेंट, बलू, लोहा, इत्यादि की जरूरत होती है। इन सभी वस्तुओं को एक ढाँचे में जोड़ा जाता है, तभी मकान अपना स्वरूप ग्रहण करता है।

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किसी खास ढाॉँचे को फ्लैट कहा जाता है तो किसी ढॉँचे को कोठी। इसमें कोई शक नहीं कि दोनों के निर्माण में जिन वस्तुुओं का प्रयोग हुआ है वे एक ही हैं। इसके बावजूद ढाँचे के.कारण मकान अपना वैशिष्ट्य पाता है।

वैसे ही किसी रचना का वैशिष्ट्य उसके शिल्प पर निर्भर करता है। इसके साथ ही मकान की ही तरह रचना में भी वस्तु और ढाँचा – दोनों ही का समान महत्त्व है। इसी कारण गबन अपने कथानक शिल्प दृष्टि के कारण काफी प्रमाणिक जान पड़ता हैं।

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उपन्यास के वर्णन की शैली

नाटकीय दृश्यों की योजना भी कथानक का अंग है। कहानी में सिर्फ सुनाया जा सकता है दिखाया नहीं जा सकता। नाटकीय दृश्यों की योजना के कारण भी कथानक में समय का निलम्बन होता है। ऊपर के उदाहरण से ही इसे भी समझा जा सकता है।

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कहानी कहने वाले को उपर्युक्त दोनों दृश्यों का वर्णन करने की कोई जरूरत नहीं है। वह मात्र जालपा के अंदर की ग्रंथि की सूचना देकर आगे बढ़ जाएगा। जबकि प्रेमचंद इन दो नाटकीय दृश्य की योजना करते हैं। क्योंकि उपन्यासकार सिर्फ सुनाता ही नहीं है, बल्कि वह दिखाता भी चलता है। इन योजनाओं के कारण प्रेमचंद समय को निलम्बित कर देते हैं ।

प्रेमचंद ने गबन’ में सरल कथन या वर्णन की इैली अपनायी है। वे सरल कथन के द्वारा कथावाचक पद्धति से तथ्यों का वर्णन करते हैं। इसके साथ ही उन्होंने चित्र और नाटक के रूप में वस्तु को प्रस्तूत किया है। हम कह सकते हैं कि चित्र और नाटक की प्रविधि से उन्होंने अपने को वर्णन से बचाया है।

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पाठक की अवस्थिति :-

गबन’ के शिल्प पर विचार करते हुए यह देखने की जरूरत है कि कथा को पाठक कहाँ पर अवस्थित होकर देखता है। कभी तो पाठक रमानाथ, जालपा, देवीदीन, आदि के जीवन के किसी विशेष काल-खंड के सामने अपने आपको खड़ा हुआ पाता है, तो कभी वह उन पात्रों के जीवन का सर्वेक्षण ऊँचाई से, उनके इतिहास पर व्यापक दृष्टि -परिसर से देखते हुए एवं सामान्य प्रभाव ग्रहण करते हुए करता है।

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उपन्यास के आरंभ में हम जालपा के बचपन के दृश्य के सम्मुख होते हैं और ठीक उसके बाद ऊँचाई पर स्थित होकर मुंशी दीनदयाल के जीवन, उनकी सोच, उनकी आर्थिक सामाजिक स्थिति आदि को देखने लगते हैं।

दृश्य का नाटकीय रूप में प्रस्तुतीकरण :-

गबन’ में हम इस प्रकार के वर्णन को बहुत साफ-साफ देख सकते हैं। इस उपन्यास में बहुत सारे दृश्य ऐसे हैं जिन्हें नाटकीय रूप में प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के लिए छठे खंड में जब सराफ के बार-बार के तकाजे के बाद अंतत: दयानाथ तीन दिन के बाद का समय दे देते हैं।

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इसके बाद तीसरे दिन दयानाथ की व्यग्रता और फिर रामेश्वरी तथा रमानाथ के साथ वार्तालाप का पूरा दृर्य नाटकीय प्रस्तुती की संभावना लिए हुए है। इन विशिष्ट प्रसंगों के संवादों, वर्णित वस्तुओं, पात्रों एवं कार्य्यापारों को नाटकीय रूप में रंगमंच पर प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है।

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‘गबन’ में प्रमुरख पात्र उन्नति और परिवर्तन के मध्य संघर्ष करते हैं, जिससे उन्हें अपने भूमिका को समझने और स्वीकार करने की जरूरत होती है। इस उपन्यास में व्यक्ति के आनंद और उदासी, उचता और पतन, स्वच्छता और अशुचता के भेदभाव को दिखाने के लिए साहित्यिक शिल्प का सटीक उपयोग किया गया है।

सार्थक कहानी और विवेचनीय पात्र विकास के साथ, गबन’ एक श्रेष्ठ उपन्यास है जो समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर करता है और सामाजिक बदलाव के माध्यम से मानवीयता की प्रतिठा को सुनिक्चित करता है। इसके माध्यम से, उपन्यासिक शिल्प का आद्दुत विकास और प्रभावशाली प्रसार होता है जो पाठकों को सोचने पर मजबूर करता है और सामाजिक न्याय और समरसता की ओर प्रेरित करता है।

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6-(क) प्रेमशंकर का चरित्र :

उत्तर.-

प्रेमशंकर ‘प्रेमाश्रम’ में किसान और जमीदार का संघर्ष है। इस संघर्ष के फलस्वरूप प्रेमाश्रम की स्थापना होती है, और इसका श्रेय प्रेमशंकर को है। प्रेमशंकर भी ज्मीदार वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। वे उपन्यास के खास पात्र और निर्दयी जरमीदार ज्ञानशंकर के भाई हैं।

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प्रेमशंकर को किसानों से सहानुभूति है। वे किसानों के दुःख दर्द में भागी बनते हैं। और जमींदार के अत्याचार और शोषण से टूटे और त्रस्त किसानों की यथासंभव सहायता भी करते हैं – धन से, श्रम से। प्रेमाश्रम की स्थापना भी उन्होंने किसानों के हित के लिए ही की है।

अब छः साल के बाद वे अमेरिका से लौटे तो तब तक वहां वे वहां के कृषि शास्त्र का अभ्यास किया और दो साल तक एक कृषिशाला में काम भी किया है। वे अपना सब कार्य स्वयं करते है। विदेश होकर आए हैं तभी उन्हें पराधीनता का पूरा ज्ञान है।

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उनके विदेश भागने का कारण उनका स्वाधीनता प्रेम था। उनके स्वराज्य आंदोलन में अग्रसर होते ही पुलिस उन्हें फँसाना शुरू कर देती है। यह ज्ञात होते ही कि उन पर अभियोग की तैयारी हो रही है वे विदेश भाग जाते हैं।

विदेश जाकर ही उन्हें अनुभव होता है कि “जिन विचारों के लिए मैं यहाँ राजद्रोही समझा जाता था उससे कहीं स्पष्ट बातें अमेरिका वाले अपने शासकों को नित्य सुनाया करते हैं, बल्कि वहाँ शासन की समालोचना जितनी ही निर्भीक हो, उतनी ही आदरणीय समझी जाती है।” लेकिन उनका यह स्पष्ट मानना है कि “यहाँ स्वदेश के देहातों और छोटे शहरों का जीवन उनसे कहीं सुखकर है मेरा विचार भी सरल जीवन व्यतीत करने का है।

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प्रेमशंकर के लिए परमार्थ सर्वोपरि मानते था। दुूसरों के हित के लिए काम करने में उन्हें अपनी तनिक भी परवाह नहीं। बाढ़ आने पर प्रेमशंकर गाँव के निवासियों को बचाने का ऐसा उत्साह दिखाते हैं कि सारे गाँव वाले भी उनके साथ हो लेते हैं।

उनका साहस अदम्य और उद्योग अविश्रान्त था। पर यही परोपकार उन्हें भारी पड़ता है। “प्रेमशंकर अपने झोंपड़े पर पहुँचे तब दो सौ से अधिक पशुओं को आनन्द से बंधे जुगाली करते हुए देखा। IGNOU MHD solved assignment

लेकिन इतनी कड़ी मेहनत कभी न की थी। ऐसे थक गए कि खड़ा होना मुश्किल था। अंग-अंग में पीड़ा रही थी। आठ बजते-बजते उन्हें ज्वर हो आया।’ लेकिन इससे भी उनके उत्साह में कोई कमी न हुई। अशक्तता की स्थिति में भी वे बाढ़ के बाद गाँव वालों के कषटों पर विचार करते हैं। बांध बांधने का आदि खुद लेकर खुद जमींदार का काम करते हैं।

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अतः प्रेमशंकर स्वयं बांध का कार्य हाथ में लेते हैं। श्रम और धन से गाँव की सहायता करते हैं। यही नहीं जब लखनपुर गाँव के किसानों को एक तरफ महामारी का शिकार बनना पड़ता है और दूसरी तरफ ज्ञानशंकर उन पर इजाफा लगान का दावा कर देता है, तब भीउसी गाँव के दूसरे जर्मींदार प्रेमशंकर उनकी सहायता करने को तत्पर होते हैं।

प्रेमशंकर की सहिष्णुता उन्हें अपने ही गाँव लखनपुर से अलग कर देती है और अंतत: भाई की चालाकी से वे उस गांव से इस्तीफा भी दे देते हैं। लेकिन उनके चरित्र का यही गुण अंतत; उन्हें गायत्री, मायाशंकर, प्रभाशंकर, विद्या, श्रद्धा -सभी की दृष्टि में सम्माननीय बना देता है।

यहाँ तक कि उनका स्वार्थान्ध भाई ज्ञानशंकर जो कुटिल, चालाक और अत्याचारी जमींदार है, का भी समय – समय पर क्षणिक हृदय-परिवर्तन प्रेमशकर के सान्निध्य में जब-तब होता रहता है।

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प्रेमशंकर के रूप में प्रेमचंद ने ऐसे चरित्र का सृजन किया है जो केवल आदर्श की भूमि पर ही अवस्थित नहीं है। उसमें भी मानवीय दुर्वलताएँ हैं। वह एक गाल पर चौँटा खाकर दूसरा गाल आगे करने की नीति में विश्वास नहीं करता उसकी भी सहिष्णुता कई बार जवाब दे जाती है।

प्रेमशंकर और ज्ञानशंकर का मित्र डिप्टी ज्वालासिंह अपने कर्तव्य पालन में ज्ञानशंकर की अपील खारिज कर देता है और ज्ञानशंकर उनके चरित्र पर आरोप करते हुए लेख लिखता है।

प्रेमशंकर रचनाकार के रूप में अपनी अद्धुत और अनूठी प्रतिभा के लिए जाने जाते हैं। उनके लेखन का विशेषता भावुकता, संवेदनशीलता, और उदारता में है। उनके रचनाओं में सामाजिक सुधार, नारी उत्थान, और समाज के दरिद्रों की उपेक्षा को समझाने का प्रयास दिखता है।

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प्रेमशंकर के चरित्र की खासियत उनके विच्ारधारा के साथ उनके लेखन के दृष्टिकोन में दिखती है, जो सामाजिक संबंधों, मानवीय भावनाओं और समस्याओं के प्रति उनके अपने अलग पहलू को प्रकट करता है।

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(ख) सेवासदन की अंतर्वस्तुः

उत्तर.-

सेवासदन के अंतर्वस्तु में विशेषता उसके समाज को दिखती है, जिसमें सेवा और समर्पण की भावना स्वाभाविक रूप से समाविष्ट होती है। यह नाटक एक संबलता से भरी प्रेम कहानी भी है जो राजकुमार रतनसेना और चंद्रकांता के प्रेम पर आधारित है।

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इसमें सेवा, त्याग, विश्वास, और समपण की भावना का अहुत प्रस्तुतिकरण किया गया है, जिससे यह दर्शाता है कि प्रेम में अपने को खोने और अन्य के प्रति समर्पित होने का महत्व और अनंत शक्ति होती है।

सेवासदन’ की कथा वस्तु मुख्यत: मध्यर्ग पर आधारित है, अत: भारत की वर्गीय सरंचना में मध्यवर्ग की स्थिति पर विशेष रूप से विचार किया गया है । इसके लिए मध्पवर्ग के चरित्रगत गुणों- अवगुणों, क्षमताओं-अक्षमताओं को हमने स्पष्ट किया है।

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नारी-मुक्ति प्रेमचंद की सामाजिक चिन्ता का एक प्रमुख मुद्दा रहा है। सेवासदन ‘ में नारी- मुक्ति को केंद्र में रखा गया है, विशेषपत: मध्यवर्गीय नारी को। अत: सेवा सदन’ में व्यक्त इस विषयों के मान्यताओं को सोदाहरण विवेिचित-विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। IGNOU MHD solved assignment

मध्यवर्गीय नारी-मुक्ति की समस्या विशेष रूप से विवाह-संस्था से जुड़ी हुई है। अत: विवाह संस्था की विकृतियों दहेज प्रथा, कुल-वर्ण की स्थिति, सामाजिक धार्मिक रूढ़ियों, विगलित रीति-रिवाजों को ध्यान में रखकर सेवासदन’ की अन्तर्वस्तु का किश्लेषण किया गया है। सेवासदन’ में चूँकि वेश्या जीवन को प्रमुखता और विस्तार मिला है।

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इसलिए उस पर विस्तार से विचार किया गया है। लेकिन वेश्या जीवन के संदर्भ में नारी-मुक्ति की आकांक्षा को ही प्रस्तृत इकाई में विशेष रूप से रेखांक्त किया गया है। सेवासदन’ की अंतर्वस्तु की व्यापकता को ध्यान में रखकर संकेतिक प्रासंगिक समस्याओं और विशिष्ट पात्रों के चरित्रगत गुण-दोषों पर भी इसी इकाई में विचार किया गया है।

इससे कथावस्तु के सुगठित ताने-बाने को चाहे विशेष बल न मिला हो, लेकिन उपन्यास की अन्तर्वस्तु को अपेक्षित विस्तार अवश्य मिला है। इसके अंतर्गत शोषण, साम्प्रदायिकता, वोट की राजनीति, अशिक्षा आदि पर भी हमने विचार किया है। ये ऐसे तत्व और प्रसंग हैं, जो सेवासदन’ की अंतर्वस्तु को अत्यन्त विस्तृत करते हैं ।

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(ग) गबन पर नवजागरण का प्रभावः

ANS.- गबन’ प्रेमचंद के एक प्रमुख उपन्यास है, जो उस समय के भारतीय समाज के सामाजिक अवसरों, अन्याय, और भ्रष्टाचार को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। इसमें ग्रामीण समाज की निगरानी, भूमि-धरों की दरिद्रता, और समाज की राजनीतिक दलितों चित्रित की जाती हैं। IGNOU MHD solved assignment

इस उपन्यास में नवजागरण का प्रभाव भी दिखाया गया हैं, जिसने समाज को विचार करने और समस्याओं के समाधान की ओर मुड़ने के लिए प्रेरित किया। ‘गबन’ के माध्यम से प्रेमचंद ने समाज में सुधार के लिए अधिक से अधिक लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया।

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इसस उआपन्यास के राष्ट्रीय आंदोलन में दो स्वर प्रमुख हैं- एक स्वाधीनता का और दूसरा नवजागरण का। स्वाधीनता का संबंध अंगरेजों को भारत से भगाकर उसके स्थान पर हिन्दुस्तानियों का अपना स्वराज लाने से है। यह राष्ट्रीयता की भावना से संबद्ध है।

राष्ट्रीयता की भावना आधुनिक, वैज्ञानिक और तार्किक ज्ञान पैदा हुई। इसी आधुनिक, वैज्ञानिक और ताकिक ज्ञान के कारण समाज में जो परिवर्तन हुआ उसे नवजागरण कहा जाता है। हमने आधुनिक, वैज्ञानिक और तार्किक ज्ञान के माध्यम से अपनी परम्परा, अपने इतिहास, अपने समाज, अपने धर्म आदि को फिर से परिभाषित किया।

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अग्रेजों के जाने के बाद हमारे स्वराज का स्वरूप कैसा होगा, इस सवाल का जवाब उस समय के बौद्धिक जगत् में ढूुंढ़ने की कोशिश हो रही थी।

प्रेमचंद भी इस सवाल से जूझ रहे थे। गबन’ उपन्यास में प्रेमचंद ने इन सवालों का जवाब रचनात्मक धरातल पर दूंढ़ने की कोशिश की है। इस उपन्यास में राष्ट्रीय आंदोलन के इन दोनों स्वरों को प्रेमचंद ने वर्गीय दृष्टि भी देखने का काम किया है। कुल मिलाकर इस उपन्यास पर तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन की छाया बहुत साफ-साफ दिखाई देती है। MHD 14 free solved assignment

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(घ) प्रेमचंद के उपन्यास संबंधी विचार:

उत्तर.-

प्रेमचंद के उपन्यासों में समाज, व्यक्तित्व, और सामाजिक संबंधों को उनके विशिष्ट दृष्टिकोन से दर्शनि का प्रयास होता है। उनके उपन्यास विशेष रूप से समाजिक न्याय, विचारशीलता, और समाज में बदलाव के विषयों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। IGNOU MHD solved assignment

उनके लेखन में विभिन्न वर्गों के लोगों के जीवन के पीछे छिपे भावों की खोज की गई है और उन्होंने उन्हें वाक्यों के माध्यम से विशेषता से प्रकट किया है। उनके उपन्यास में समाज की समस्याओं , विरोधों, और संघर्षों को विचारशीलता और संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया गया है, जिससे उनके लेखन का अद्धुत विचारथारा और समाजिक संवेदनशीलता का प्रतिष्ठान मिलता है।

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प्रेमचन्द आज भी हिन्दी में सर्वश्रेष्ठ कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ऐसा नहीं कि प्रेमचन्द के बाद हिन्दी उपन्यास का विकास हुआ ही नहीं है ; कथ्य की दृरष्टि से हिन्दी उपन्यास का विस्तार और वैविध्य आश्वस्त करने वाला है।

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शिल्प की दृष्टि से उसका विकास चमत्कारी है। उपन्यास की भाषा का विकास भी अपने ढंग से हुआ है । पर प्रैमचन्द जैसी अपने कथ्य के प्रति गहरी संवेदना उनके बाद के उपन्यासकारों में कम ही दिखाई देती है। संवेदनाओं के अंकन की दृष्टि से भी प्रेमचन्द के बाद के उपन्यास उनसे आगे नहीं जा पाए हैं। केवल शिल्प की दृष्टि से ही हिन्दी उपन्यास प्रेमचन्द से आगे जा पाए हैं।

व्यक्तिगत उपन्यासकार के रूप में अब तक हिन्दी का कोई लेखक उनका स्थान ले सका है, ऐसा नहीं कहा ही नहीं जा सकता।

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हिन्दी उपन्यास और कहानी को कला के स्तर पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय तो प्रेमचन्द को है ही ; शिल्प और भाषा दोनों ही दृष्टियों से उन्होंने हिन्दी कथा साहित्य को विश्व स्तर पर पहुँचा दिया। IGNOU MHD solved assignment

तत्कालीन सामाजिक परिवेशों के तहत प्रेमचंद जी के रचना, जहां खास कर उपन्यास तथा खानियों के कथानक बस्तुए ज्यादा प्रभावित रहे हैं। अपने रचनाएं के माध्यम से तत्कालीन समाज मैं हो रहे अन्याय के खिलाफ जंग छिड़ाने में वो काफी कारीगर साबित हुए थे।

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खास कर ब्रिटिश साम्राज्य के द्वारा करे जाने वाले आम जनताओं के ऊपर अन्यायों, अबिचारों के खिलाफ उनकी ज्यादा जंग थी, यह माना जाता है। क्यों एक उपन्यास कथानक को ज्यादा विस्तार से उभय सकारात्मक व नकारात्मक ढंग से परिस्थितियों का चित्रण के साथ साथ पात्रों के चित्रण मैं साफ हो पाते हैं, इसीलिए प्रेमचंद ने अपने मंत्रियों को समाज मैं जाहिर करने के लिए खास कर उपन्यास को ही चुना।

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