IGNOU MHD 12 Free Solved Assignment 2024

IGNOU MHD 12 Free Solved Assignment 2024 (For Jan and Dec 2024)

Contents

MHD 12 (भारतीय कहानी विविधा)

सूचना  :-

MHD 12 free solved assignment मैं आप सभी प्रश्नों  का उत्तर पाएंगे, पर आप सभी लोगों को उत्तर की पूरी नकल नही उतरना है, क्यूँ की इससे काफी लोगों के उत्तर एक साथ मिल जाएगी। कृपया उत्तर मैं कुछ अपने निजी शब्दों का प्रयोग करें। अगर किसी प्रश्न का उत्तर Update नही किया गया है, तो कृपया कुछ समय के उपरांत आकर फिर से Check करें। अगर आपको कुछ भी परेशानियों का सामना करना पड रहा है, About Us पेज मैं जाकर हमें  Contact जरूर करें। धन्यवाद 

MHD 12 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

mhd 12

1. (क) प्रेस में विनायक को छोड़कर और कोई नहीं था। उस विन के लिए तयशवा कार्य में दो काम बाकी थे-पहला, वो निमंत्रण-पत्र  कम्पोज करके उसका प्रूफ निकालना और दूसरा, प्रूफ -शोधन किये अभिनन्दन पत्र में ‘करेक्शन’ लगाकर छापना। छोटी-सी’ आशा अंकुरित हुई-बहुत-सी साधारण इच्छा, आप चाहें तो बचपना भी कह सकते हैं। चेस को खोलकर ‘स्टोन’ पर रखा। वह भी वह विवाह निर्ंत्रण कार्ड का ही मैटर था। विनायक ने मैटर में वर के नामवाले अक्षरों के ब्रश से पोछा। स्याही हट जाने पर चँदी की तरह उजले अक्षर चमक उठो। ‘चिरंजीय श्रीधर’-इन अक्षरों के टाइप-वार्यीं से बायीं और जैसा कि आइने में प्रतिविम्बित होता है-साफ विखाई दिए।

उत्तर-

संदर्भ -प्रस्तुत अवतरण तमिल कहानीकार दण्डपाणि जयकान्त की कहानी ‘ट्रडिल’ से लिया गया है। दण्डपाणि जयकांतन की ‘ट्रेडिल’ कहान में छापेखाने का जीवन चित्रित हुआ है। ट्रेडिल बह मशीन है, जिसे पांव की सहायता से चलाया जाता है। इसका प्रयोग छोटे शहरों या कस्बों में ज्याद होता है। पांव से चलाई जाने वाली इस मशीन में छपाई का काम होता है।

पहली दृष्टि में ऐसा लगता है, जैसे कहानीकार प्रेस, सामग्री, मशीन, छपक आने से पहले की स्थितियों से परिचित करा रहा हो, लेकिन उसका लक्ष्य कुछ और है, यंत्रवत् होते मानव जोवन, बढ़ती संवेदनशीलता और आरसदी: दिखाना। ट्रेडिल मशीन को क्रियाशील करने वाले मजदूर के, विनायकमर्ति की जीवन स्थितियों का संवेदनशील चित्रण करना ही कहानीकार का मूल लक्ष है। कहानीकार ने कहानी के प्रारंभ में छापाखाने के वातावरण का जीता- जागता वर्णन किया है।

MHD 12 free solved assignment

विनायक प्रेस में निमंत्रण पत्र बना रहा था। विवाह व निमंत्रण पत्र में ‘चिरंजीव श्रीधर’ नाम को चमकाया, तो उसके मन में भी विवाह की इच्छा जाग्रत होने लगी।

व्याख्या- प्रेस में आज विनायक अकेला था। उसे दो ही काम करने थे। दो निरमंत्रण पत्र कंपोज करके उनका प्रफ निकालना था और प्रफ कि गए अभिनंदन पत्र में करेक्शन लगानी थी और उसे छापना था। वह बुदबुदाया कि छापने के लिए कागज काटना पड़ेगा। तभी ट्रेडिल में कसे हुए चेर को खोलते समय निरमंत्रण पत्र देखकर उसके मन में भी विवाह को लेकर आशा जागी।

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हालांकि यह इच्छा साथारण थी किंतु विनायक के लिए बेह रोमांचक थी। फिर उसने चेस को खोलकर स्टोन पर रखा। यह भी एक विवाह का निरमंत्रण पत्र था। विनायक ने जब निर्मत्रण पत्र में वर के नाम वा अक्षरों को ब्रश से पॉछा, तो चिरंजवी श्रीधर’ शब्द चमक उठे, जिन्हें देखकर विनायक की इच्छा फिर बलबती हो गई।

विशेष- यंत्रवत जीवन के बीच जीवन जीने की आशा की अभिव्यक्ति है।

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IGNOU MHD ALL FREE SOLVED ASSIGNMENT (2023-2024) 

(ख) ठहरो! ठहरो! कहते हुए हाथ उठाकर उसने बोनों पक्षों को शांति किया। फिर उसने दोनों पक्षों से पूछा, “क्या बात है मैया, क्य मामला है?” उसका स्वर, उसकी अवस्था और पहनावा, वृद्धा वेखते ही वृद्धा की हिस्पत बँंधी। आवाज कुछ धीमी करके यथासंभव सद्भाद के साथ वह बत बताने लगी, “तुम्हीं बताओ बेटी! यह लोग पानी के लिए आई हैं। यह कोई सरकारी नल तो नहीं है न? पैसा खर्च करके लगाया हुआ है। हर साल म्यूनिसपैलिटी को हम टैक्स भी देते हैं। ऐसे में पहले हमारे बच्चों ने आकर मना किया। इन लोगों ने बात सुनी नहीं फिर मैंने आकर मना किया। फिर हमारा माली आया, तो वह लड़की कहती है-अगर तू मर्व है, तो कुत्ता छोड़!” वेखो ततो उँगली – भर नहंहै लड़की!” कहकर उँंगली से सत्यवती की ओर वृद्धा ने इशारा किया।

उत्तर

संदर्भ -प्रस्तुत गद्यांश तेल्ण वरिष्ठ कथाकार कालीपट्नम रामाराव की कहानी ‘प्राणधारा सें उद्धृत है। प्रकृति ने अपने संसाधन सभी के लिए समान रूप से प्रदान किए हैं, किन्तु पूंजीवादी युग में कुछ थोड़े लोगों ने प्रकृति के संसाधनों पर कब्जा क कब्जा कर लिया है, जिससे संपूर्ण विश्व में असमानता उत्पन्न हो गई है।

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यहां तक कि हवा, पानी और भोजन भी गरीब व कमजोर लोगों. की पहुंच से बाहर हो गए हैं। ग्राणधारा’ कहानी में पानी के विषम वितरण की समस्या को उठाया गया है। यह भी देखने योग्य है कि किस प्रकार धनी लोग गरीब की अन्याय अथवा विवशता के विरुद्ध उठी आवाज को उनका अपने ऊपर अत्याचार सिद्ध कर देते हैं।

व्याख्या- बंगले पर पानी लेने गई स्त्रियों की बंगलों में रहने वाली वूद्धा एवं अन्य लोगों से भिंडत हो गई। तभी एक वृद्धा ने दोनों पक्षों को शांत करके मामला जानना चाहा। इससे बंगले की वूद्धा को थोड़ी हिम्मत बँंधी। वह दिखावा करने के लिए सद्भाव से बताने लगी कि ये स्त्रियां हमारे बंगले के नल से पानी लेने आई हैं।

हमने यह नल अपना पैसा खर्च करके लगाया है, यह सरकारी नल नहीं है। इसी कारण हमारे बच्चों ने इन्हें यहां से पानी भरने से मना किया, तो ये लोग चिल्लाने लगे। मैंने और माली ने भौ मना किया, तो इस लड़की ने कहा कि तू हर ऊपर कुत्ता छोड़ दें। यह छोटी-सी लड़की कितना बोलती फिर वन्धा ने सत्यवती की ओर संकेत किया।

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भरने से मना किया, तो ये लोग चिल्लाने लगे। मैंने और माली ने भी मना किया, तो इस लड़की ने कहा कि तू हमारे ऊपर कुत्ता छोड़ दें। यह छोटी-सी लड़की कितना बोलती है। फिर वृद्धा ने सत्यवती को ओर संकेत किया।

विशेष-1. समाज में अमीर- गरीब के भेदभाव को दिखाया है। गरीबी के कारण लोग मूलभूत संसाधनों से भी वचित हैं। अमीर धन के बल पर संसाथनों पर कब्जा करके बैठे हैं। गरीब उनसे मदद देने को कहते हैं, तो वे उनसे झगड़ा कर उन्हें अत्याचारी सिद्ध करते हैं।

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2. ‘ट्रेडिल’ कहानी के कथानक का विश्लेषण कीजिए।

उत्तर-

कहानीकार जयकांतन ने ‘ट्रेडिल’ कहानी में अपेखाने के वातारण, उसके कर्मचारियों के जीवन, उन पर वातावरण का प्रभाव तथा मालिकों का कर्मचारियों के साथ व्यवहार आदि का सच्छा चित्रण किया है। उन्होंने कहानी के नायक की स्थिति द्वारा मजटूर वर्ग पर औद्योगिक वातावरण के प्रभावों और जीवन में उत्पन हुए अभावों, समाप्त होते संस्कारों को दिखाना चाहा है।

ट्रेडिल’ कहानी में छापेखाने का जीवन वित्रित हुआ है। ट्रेडिल पांव की सहायता से चलाई जाने वाली छपाई की मशीन होती है।

कहानी में वर्णित छापेखाने का कहानीकार ने फोटोग्राफिक वर्णन किया है। कहानी पढ़ते समय हर स्थान पर ऐसा प्रतीत होता है कि कहानीकार एक ‘गाइड’ की तरह प्रेस की छोटो-सी-छोटी चोज के बारे में आपको बता रहा हो।

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प्रत्यक्ष तौर पर तो ऐसा लगता है कि कहानीकार प्रेस, सामग्री, मशीन, छपकर आने से पहले की स्थितियों के बारे में भले आपको परिचित करा रहा है, लेकिन उसका लक्ष्य द्रेडिल मशीन को क्रियाशील करने वाले मजदूर के. विनायकमूर्ति की जीवन-स्थितियों का संवेदनात्मक चित्रण करता है। कहानी के प्रारंभ में छापेखाने के वातावरण का अत्यंत जीवंत चित्रण है, जो पाठक को छापेखाने के जीवन से जोड़ता है।

 यह वर्णन देखिए-

*अंधेरी गुफा सरीखा’ वाक्यांश द्वारा प्रेस की जिन्दगी का अनुमान लगाया जा सकता है। मुरुगेश मुदलियार प्रेस के मालिक हैं और विनायकमूर्ति कर्मचारी है। वह प्रेस में कंपोजिटर, बाइंडर मशीनमैन सबकुछ है। उस पर काम का बहुत भार है।

छपेखाने में वह अकेला ही दिन भर काम में जुटा रहता है। बारह वर्षों से वह कारखाने में कार्य कर रहा है। कागज, मशीन, इंक, कार्ड, टाइप-सेटिंग आदि के बीच पेडल मारकर मशीन चलाना ही उसका जीवन बन चुका है। के. विनायकर्म्र्ति को प्रतीक बनाकर कहानीकार छापेखाने में काम करने वाले मजदूरों की शोचनीय जीवनस्थिति का मार्मिक चित्रण करना चाहता है।

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‘द्रेंडिल’ कहानी पूंजीवादी युग में बदलते मालिक-कर्मचारी संबंधों, मजटूरों र शोषण और अभावग्रस्त जीवन को अधार बनाकर लिखी गई हैं। कहानीकार जयकांतन ने “ट्रडिल’ के कथा-नायक के जीवन का अध्ययन कर चित्रण किया है।

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उन्होंने पीडित, दलित, शोषित, निर्धन मजदूर के जीवन की समस्या के अंकन के साथ उनके हृदय की गहराई में उतरकर चित्रण किया है। इस संदर्भ में डॉ. के. ए, जमुना की ‘अधूरे मनुष्य’ नामक पुस्तक में वर्णन रत हैं। ससाज द्वारा बिरक्त, अपमानित एर्वं उपेक्षित लोगों को उन्होंने सहानभूति की दृष्टि से देखा और उनके जीवन का चित्रण अपनी कहानियों में किया।

टूटी-फूटी झोपड़ियों में, प्लेटफार्म पर जीवन बिताते हुए, मुट्ठी भर अन्न के लिए तडप – तडप कर प्राण देने वाले निर्धन लोगों के दुख-दर्द को जितनी सजीवता से जयकांतन ने प्रस्तुत किया है, वैसा दूसरे किसी तमिल कहानीकार ने नहीं किया। “

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धन की लिप्सा व अधिकार के नशे में मालिक मजदूरों का किस हद तक शोषण करते हैं । स्वरयं को उनके जीवन का मालिक मानते हैं । इसे भी “ट्रेडिल’ कहानी में दिखाया गया है-विनायकमूर्ति अपने मालिक के ‘मूड’ पर जीवित रहता है। कभी मुदलियार प्रसन्न होकर अठन्नी दे देते हैं तो कभी मुड’ ठीक रहे तो चाय के लिए चवन्नी दे देते हैं।

भोजन में केवल दाल- भात और अनवरत काम। निर्धन मजदूर के जीवन में घोर निस्संगता के साथ वह कहीं-न-कहीं अकेलेपन का शिकार भी है। वह अचानक बीमार हो जाता है। भयानक दर्द उठता है पेट में। अंतडियां मरोड़ खाने लगती हैं। इर्निया का ऑपरेशन हुआ सरकारी अस्पताल में। जयकांतन ने केवल तीन शाब्दों में मजदूर का जीवन पूर्णतया अभिव्यंजित कर दिया है- ” बीमारी…व.. अपमान! “

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जयकांतन बताना चाहते हैं कि मजदूर भी मनुष्य होते हैं। उनके भी कुछ सपने होते हैं और वे सपनों को पूरा करने के लिए जीवित रहते हैं, दर्द सहते हैं, अपमान झेलते हैं, किन्तु उनके सपनों का संबंध धनी बनने या वर्चस्व प्राप्त करने से न होकर आजीविका से संबंधित अथवा जीवन की आवश्यकता को पूरा करने से होता है।

विनायकमूर्ति का भी एक सपना था-विवाह करके घर बसाने का सपना। दूसरे निर्धनों की तरह विनायकमूर्ति का सपना भी चूर-चूर हो जाता है। ऑपरेशन के बाद महीने भर अस्पताल में बिताने के बाद डॉक्टर द्वारा विवाह न करने की सलाह सुनकर वह ऐसा महसूस करता है मानों उसे “दिल के अंदर चुपके से एक बम बनकर फूट पड़ा।’

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उसका पिछले बारह वर्षों से संजोया सपना मिट्टी में मिल जाता है। तीस बरस के एक नौजवान के लिए इससे बड़ा वज्रपात भला और क्या हो सकता है कि वह विवाह के योग्य नहीं रहा।

विनायकमूर्ति काम पर लौटता है, तो मुदलियार उसका वेतन दस रुपये बढ़ा देता है और विवाह के लिए पेशागी के तौर पर सौ रुपये देने का ऐलान भी कर देता है। यह देखकर विनायकमूर्ति का दुख और भी बढ़ जाता है, किन्तु वह जता भी नहीं सकता।

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विनायकमूर्ति को माध्यम बनाकर जयकांतन ने मजदूर यर्ग का स्वप्नभंग होना दिखाया है। आजादी के बाद भारतीय मजदूर वर्ग और निराश्रित लोगों की त तकलीफों की पुकार जयकांतन की अनेक कहानियों में सुनाई पड़ती है। ओवर टाइम’, ‘दांपत्यम’, ‘देवन बरुवारा’ ऐसी ही कहानियां हैं।

‘ओवर टाइम शीर्षक कहानी का कथा -नायक एलुमल्लै भी एक गरीब कंपोजिटर है। उसका सपना है, अपनी बेटी का विवाह करना, इसलिए वह धन जुयाने के लिए चितित रहता है। विनायकमूर्ति की तरह दिन- रात काम करते हुए बीमार हो जाता है।

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इस कहानी में एलुमल्लै प्रेस में ही दम तोड़ देता है। यहां तक दोनों कहानियों में समान स्थितियां हैं, किन्तु जयकांतन ने ट्रेडिल’ को आगे बढ़ाते हुए दिखाया है कि विनायकमूर्ति का सपना चूर-चूर हो जाता है।

पर वह अदम्य जिजीविषा प्रकट करता है। जीवन यथार्थ को झुलाने के प्रयास में वह ‘वेस्ट शीट’ के बहाने मशीन रोककर तह करके रखे हुए कागज को निकालकर देखता है- “के. विनायकमूर्ति और सौभाग्यक्ती अनसूया का शुभ विवाह ” जीवन में अभावों से लड़कर भी वह जीवित रहना चाहता है।

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 वह अपने संघर्षमय जीवन, दुःख भरी जिन्दगी में पल भर की मुस्कान को भी दुख को कम करने में खुशी प्राप्त करता है। यहां कहानीकार यह संकेत करना चाहता है कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवन की खुशी को पा लेना मजदूर वर्ग की सबसे बड़ी विशेषता है। “सांसारिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए एक जीवन-साथी का होना बहुत आवश्यक है।

” इस वाक्य में ‘सुखमय’ के स्थान पर ‘दुखमय’ छपने पर विनायक को हसी आ जाती है। इससे पता चलता है कि कष्ट झेलते हुए, अभावों में जीते हुए, असुविधाओं का सामना करते हुए भी विनायकमूर्ति का जीने का ढंग निराला है।

 मजदूर वर्ग की यह विशिष्टता कहानीकार अत्यंत सहज तथा स्वाभाविक ढंग से सामने लाना चाहता है, जो कहानी को उद्देश्यपूर्ण बनाती है। यह कहानी आशावान बनाती है कि विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।

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जीवन की एकरसता व यांत्रिकता को अस्वीकार कर जीवन की असहाय वेदना को सहन करने से मनुष्यता को बचाए रखने के लिए प्रयास किया जा सकता है और दूटते-बिखरते सपनों में भी जोवन-रस दूंढा जा सकता है।

आधुनिक युग में मानव-जीवन मशीनों पर निर्भर होता जा रहा है। जीवन की दिनचर्या के सभी कार्यों में मशीन की भूमिका बढती जा रही है। कहीं जाना हो, पानी गर्म करना हो, चटनी-मसाले पीसने हों, गरमी-सरदी दूर करनी हों, छर जगह मशीन मौजूद है। पहले लोग अपने मित्रों-संबंधियों से मिलने जाते थे। पर्व-त्योहारों एवं विशेष अवसरों पर एकत्र होते थे।

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चिद्ठी लिखकर हाल -चाल पूछते थे, परंतु मोबाइल और इंटरनेट आने के बाद लोगों का मिलना-जुलना, विशेष अवसरों पर एकत्र होना कम होता जा रहा है। ऐसा इसलिए नहीं कि हमारे पास समय की करमी है या धन का अभाव है, बल्कि हमारी संवेदनाएं मर गई हैं।

न दुख में दुखी होते हैं और न सुख में खुश होते हैं। मशीनों के आगमन से मनुष्य भी मशीन बनता जा रहा है। मशीन और मानव में मावनाओं का ही अन्तर था ही और अब वह भी समाप्त होता जा रहा है।

मशीनीकरण से धन कमाने की होड़ बढ़ी। गांव से लोग शहरों की ओर पलायन करने लगे। संयुक्त परिवार एकाकी परिवार में बदलते गए। इससे व्यक्ति समाज और कुटुंब से दूर होता गया और धनलिप्सा के कारण स्वार्थी बनता गया।

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इससे मानव जीवन में एकरसता और घुटन भरने लगी। पहले बच्चों को संस्कार देने, उन्हें दुनियादारी सिखाने के जो कार्य परिवार के बुज़र्ग करते थे, उन कायों को पैसे के बदले संस्थाओं ने ले लिया, लेकिन वहां व्यक्ति केवल व्यवहार है, भावना नहीं।

मनुष्य मशीन कैसे बन जाता है? यह विचारणीय है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के विकास के साधन मनुष्य की सुख- सुविधा के लिए खोजे गए, लेकिन इन साधनों ने मनुष्य को अपने कब्जे में कर लिया और मानवता को समाप्त कर दिया।

दो विश्वयुद्ध, बढ़ते मानसिक रोग, अकेलापन इसी का परिणाम है। पूंजीवादी सभ्यता में पूंजी सर्वॉपरि होती है। उसके समक्ष सारे आत्मीय संबंध और मानवीय गुण गौण हो चुके हैं। मुनाफा कमाना यानी पूंजी की सर्वग्रासी शक्ति से मानव मशीन में तब्दील हो जाने का आशय है, एक भाव-प्रेम रहित दुनिया की रचना ” इसानियत केवल शब्दकोश में पाई जाती है। फिर यह ‘उन्नति’ अथवा ‘विकास’ किसके लिए है? मनुष्य के लिए या फिर रोबोट जैसे यत्रमानव के लिए ?

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भूमंडलीकरण के दौर में पूंजी के उत्पात से सबसे बड़ा संकट मनुष्यता के सामने मंडरा रहा है। इस दृष्टि से ‘ट्रेडेल -कहानी विनायकमूर्ति के माध्यम से समस्त मानव जाति की स्थिति को व्यक्त करने और विचार करने हेतु पूर्णतः प्रासंगिक है।

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दूसरा मार्मिक प्रसंग भौ है। महीने भर के बाद अस्पताल से छुट्टी पाकर विनायक के काम पर लौटने के संबंध में कहानो में वर्णन ‘अंधेरी गुफा सरीखे छपेखाने में पुसकर उसने ट्रेडिल देखी। केस देखा और स्टिक देखा -जिनसे उसका एक महीने का वियोग हो गया था। पता नहीं, क्या सुझा या उस..सने ट्रेडिल को गले लगाकर सांस भरी। “

“विनायक ट्रेडिल को वैसे ही गले लगा रहा है जैसे किसी आत्मीय को आलिगन में लिया जाता है। वह पूरे संसार में ट्रेडिल को ही संगी-साथी, सबकुछ मानता है। विनायक की दुनिया ट्रेडिल की दुनिया तक सीमित है।

इस प्रसंग से दो बातें सामने आती हैं, पहली तो यह कि विनायक संसार में अकेला है और निजींव मशीन ही उसकी साथी है, जो मानव के मशीन में बदलने की तरसदी को दर्शाती है। दूसरी, यह कि भारतीय संदर्भ में अब भी मानवता एवं भावों का अंश मौजूद है, जिसे पुष्ट करने की जरूरत है। पाठकों को इस कहानी के केन्द्रीय भाव को समझकर उस पर विचार करना चाहिए और यही कहानीकार का उद्देश्य भी है।

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“ट्रडिल’ शीर्षक कहानी में भी मालिक -कर्मचारी संबंधों के तनाव को कहानीकार ने चित्रित किया है, लेकिन यहां मालिक-कर्मवारी के संबंध में एक विलक्षणता है। इन दोनों के संबंध में लगाव और तनाव दोनों हैं, शोषण है तो अपनापन भी है।

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इसका कारण यह कि भारत में 1950 के दशक में पूंजीवाद का प्रभाव पड़ना शुरू तुआ था और भारतीय संस्कृति के संस्कार अभी भी लोगों के दिलों में मौजूद थे थोडी- सी संवेदनशीलता ही सही, जीवित थी। आत्मीयता के कुछ क्षण अब भी शेष थे, इसलिए संबंधों के बीच एक लगाव मौजूद् है। “ट्र्डिल’ कहानी में आप इसकी इसकी पुष्टि कर सकते हैं।

के. विनायकमूर्ति प्रिटिंग प्रेस के मालिक मुरुगेश मुद्दलियार का कर्मचारी है। 18 वर्ष की आयु से उसने प्रिटिंग प्रेस में कंपोजिटर का कार्य करना शुरू किया था। अब उसकी उम्र तीस साल की है। अब वह केवल (कंपोजिंग) के साथ बाइण्डिंग करने और मशीन चलाने का काम भी करता है। विनायकमूर्ति एक अति विश्वस्त कर्मचाररी हैं।

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एक रविवार को विनायक दादी के यहां जाता है और मालिक मुदलियार को सूचना देता है कि दादी ने उसके लिए कोई लड़की देख खी है। वह मालिक से सौ रुपये की पेशगी मांगता है, तो मुदलियार खुशी – खुशी मान भी लेता है। जयकांतन ने कहानी में मुदलियार के हदय में बची हुई संवेदनशीलता और पूंजी की संपूर्ण सता के कब्जे से बचे रहने का वर्णन भी किया है।

वास्तव मैं ट्रडिल काहानी के जरिए तत्कालीन दुखी व निर्धन मजदूरों तथा कर्मचारियों के दैनंदीन दुखभरी जीवन को एक मार्मिक परिप्रेक्ष्य के साथ पाठकों के मन तक पहुचाने मैं के. विनायकमूर्ति काफी हद तक सफल रह पाये हैं।

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3. ‘अपने लिए शोकगीत’ कहानी के प्रतिपाद्य पर विचार कीजिए।

उत्तर –

अपने लिए शोकगीत’ अवकाश प्राप्त यानी रिटायर्ड आदमी अविनाश की कहानी है। अविनाश के परिवार में बच्चे-बह, पोते-पोती सब हैं। मगर अविनाश को लगता है कि वह अपने घर में अप्रासंगिक हो गए हैं, अकेले हो गए हैं। कोई उनका ख्याल नहीं रखता। उनके खाने-पीने, शौक वगेरह को कोई तवज्जो नहीं देता। अपनी पतनी शैलबाला के दूर होने से वे ज्यादा दुखी हैं। वह बच्चे-बहुओं और पोती की दुनिया में रम गई है।

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अविनाश ने इस घर को बनाने में पूरा जीवन लगा दिया और अब वे उसके एक कोने में डाल दिए गए हैं। उनकी दुनिया एक संकरे कमरे में एक पतले से बिस्तर तक सिमट कर रह गई है। जिस आदमी ने लंबे समय तक एक बड़े से कमरे में चौड़े पलंग पर पत्नी के साथ जीवन बिताया हो, वह एक संकरी कोडरी में अकेले में असहज महसूस तो करेणा ही।

पत्नी के तर्क और कसम के कारण वे चुप हैं। पत्नी बड़े पल्लंग वाले कमरे में पोती के साथ सोती है। उसका तर्क है कि आदमी को जवानी में अपने बुजुगों और बुढ़ापे में अपने बच्चों से शर्म करनी चाहिए। मगर अविनाश पत्नी की निकटता नहीं मिलने से खिन महसूस करते हैं, जो स्वाभाविक भी है।

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इस कहानी में मनुष्य के मन की भीतरी परतों को कुरेदने-पहचानने की कोशिश की गई है। अवकाश ग्रहण करने के बाद व्यक्त में एक खालीपन आ जाता है, वह खुद को अकेला और क कमजोर समझने लगता है।

उन्हें लगता है कि बच्चे उनकी वातें नहीं मानते। उनसे कि कोई सलाह नहं लेता, उनकी बातों को अहमियत नहीं देता। यह एक मनोवैज्ञानिक बदलाव होता है। रिटायर्मेंट के बाद भी व्यक्ति की आदतों में बदलाव आता है। इस कहानी में अविनाश में ये मनोवैज्ञानिक लक्षण सहज ही देखे जा सकते हैं।

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पहले अविनाश का समय घर और दफ्तर के कामों के बीच तालमेल बिठाने में निकल जाता था। सुबह उठते ही दफ्तर भागने की हड़बड़ी, फिर शाम को लौटकर आते तो थकान चढ़ी होती।

अब वे दिन भर खाली हैं, घर में ही रहना है और घर की जिम्मेदारियां भी अब बेटे और बहुओं ने संभाल रखी हैं, इसलिए खाली समय काटना एक बड़ी समस्या है। बेंटे-बहू के न चाहते हुए भी सुबह की सैर के लिए निकलते वक्त दूध लेने चले जाते हैं।

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उनका तर्क है कि पैकेट का दूध बच्चों को देना सेहत के लिए ठक नहीं है। इस तरह उन्होंने अपने लिए सुबह का एक काम तलाश लिया है। शाम को जब नौकरानी बच्चे को पार्क में घुमाने लेकर जाती है, अविनाश भी जाने लगे हैं, क्योंकि इसके लिए उनका कहना है कि इस तरह बच्चों को नौकरानी के भरोसे छोड़ना ठीक नही।

वे अखबार पढ़कर, रसोई और काम करती पत्नी से बात करके समय बिताते हैं। हालांकि उन्हें वहां से कोई खास प्रतिक्रिया नहीं मिलती, फिर भी वे कभी अखबार की खबरों और कभी रसोई में बन रही चीजों के बारे में बात करते हैं। बुजु्गों में यह एक तरह का स्वभावणत परिवर्तन होता है कि खालीपन में उनसे कोई बातें करता रहे, उनकी बातें सुनता रहे।

अगर कोई उनकी बात नहों सुनता हो, उन्हें झुंझलाहट होतो है, उनके स्वभाव में चिड चिड़ा पन आ जाता है। फिर अगर पत्नी भी उनका साथ न दे, उनके पास बैठकर बातें न सुने-कहें तो यह झुंझलाहट और बढ़ जाती है।

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बुजुगों को इसलिए छोटे बच्चे प्रिय लगते हैं कि वे वे देर तक उनके साथ समय बिता पाते हैं। छोटा बच्चा साथ नहीं होने वे पत्नी की निकटता चाहते हैं। इस कहानी में अविनाश की पोती है, जिससे वे देर तक बातें कर सकते हैं।

मगर वह स्कूल चलो जाती है और वापस आने पर अपनी दादी के साथ ज्यादा वक्त बिताती है। पत्नी भी बेटे-बहुओं और पोती के काम में खुद को व्यस्त रखती है। दोनों बेटे दफ्तर जाते हैं और मुश्किल से सुबह-शाम की चाय के वक्त अविनाश के साथ बैठ पाते हैं।

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शैलबाला ने अविनाश का कमरा अलग कर दिया है, दोनों अलग-अलग सोने लगे हैं, तब से अविनाश और अकेले पड़ गए हैं। यहीं बातें उनकी खिन्नता और अकेलेपन को और भी बढाती हैं।

वे बाजार से तरह-तरह की सब्जियां लेने के लिए निकल जाते हैं। हालाकि ये सब्जियां उनके बेटे-बहु पसंद नहीं करते। मगर अविनाश अपने बचपन के दिनों और ग्रामीण परिवेश में उन सब्जियों के महत्व को याद करते हुए उन्हें खरीद लाते हैं।

उन्हें नौकरानी से पकवाते और खाते हैं। बुढ़ापे में उनकी भूख और तृष्णा जैसे बढ़ गई है। रसोई में बन रहे भोजन की सुगंध से वे बेचैन हो जाते हैं। सभी के साथ जुड़ने के लिए बेटों के टिफिन या पोती के टिफिन में से चखते हैं। मगर उनसे बात करने, उनकी बात सुनने के लिए किसी के पास वक्त नहीं होने से वे परेशान रहते हैं।

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यह स्थिति पीढ़ियों के टकराव को जन्म देती है। बुजुर्ग माता-पिता को लगता है कि उनके बेटे-बहु उनका कहा नहीं मानते। बच्चों को लगता है कि माता-पिता अभी तक अपने पुराने दिनों में जी रहे हैं, बदलते समय के अनुसार अपने को बदलने को तैयार नहीं हैं। वे अपने काम -काज, बच्चों और परिवार की जरूरतों के कारण माता-पिता को बहुत कम समय दे पाते हैं।

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इस कहानी में ऐसी स्थितियां नहीं हैं। बेटे अपने पिता के लिए कुछ समय निकालते हैं, शैलबाला भी अविनाश का ध्यान रखती है। मगर अविनाश चाहते हैं कि सब उनके साथ ज्यादा-से-ज्यादा समय बिताए।

इसका नतीजा यह निकलता है कि एक दिन सोते वक्त रात में उन्हें लगता है कि जैसे उन्हें हार्ट अटैक हुआ है। अपने शरीर में चल रही उथल-पुथल को महसुस कर कराह उठते हैं, जैसे अर्धनिद्रा में व्यक्ति को महसुस होता है, इसलिए वे तमाम तरह की आशंकाओं से घिर जाते हैं., फिर वे यह भी सोचते हैं कि वे मर ही जाएं तो आच्छा। फिर वे घर के लोगों की प्रतिक्रियाओं, मन:स्थितियों का अनुमान लगाते हैं।

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इससे उनके बेटे-बहू, पतनी परेशान होंगे, उनकी तीमारदारी में लग जाएंगे। घर में उनका महत्त्व बढ़ जाएगा। पत्नी उनके पलंग पर ही बैठकर रात भी देखभाल करेगी। शायद यहीं मेरे साथ सो भी जाए। आज के बाद शायद् पोती को बेटों के साथ सुलाने का प्रबंध करें। परंतु पत्नी शैलबाला उनकी नाड़ी देखकर कहती है कि दिन भर ऊटपटांग खाने से पेट में गैस बन गई है।

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कोई बुरा सपना आया होगा। बेटे मां का समर्थन करते हुए अपने पिता की खाने-पौने संबंधी गलत आदतों पर ताना मारते हैं, जिससे क्षोम और बढ़ जाता है। मगर सोचते हैं कि पत्नी उनके पास सो जाए तो सुख मिलेगा।

वे उससे कइते भी हैं, मगर शैलबाला बच्चों का ख्याल कर, शर्म के मारे अपने कमरे में चली जाती है। और उसकेबाद अविनाश जी अकेले कमरे मैं लेटे लेटे देर रात तक अपने जीवनभर के कार्यों तथा घरवालों मैं उनके लिए प्यार मैं आए हुए कमी के बारे मैं सोचते हुए खूब दुखी हो जातेहैं।

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वास्तव मैं यहाँ काहानीकार एक अवसरप्राप्त व्यक्ति के सोचके जरिए बड़े ही आसान तथा मर्मस्पद तरीके से उनके मन के विचार को पाठकों तक पहुंचाया हैं।

4. “बघेई” कहानी का कथानक बताते हुए उसके महत्व की चर्चा कीजिए।

उत्तर-

आदिवासी जन-जीवन की झाकिया कहानी में उड़ीसा के कोरापूट जिले में रहने वाले आदिवासी जनजीवन की धार्मिक मान्यताओं का प्रसंगानुकूल चित्रण है। इस समाज में ज्ञानी और पुजारी का बहुत प्रभाव है।

आदिवासी लोगों का मानना है कि ठकुराइन के प्रसन्न होने से ही अच्छी फसल होती है, प्राकृतिक विपदाओं और बीमारियों से रक्षा होती है। वे ही बाढ़ के प्रकोप से पूरे गांव तथा इलाके की हिफाजत करती हैं।

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‘बघेई’ कहानी में धनू पंडित का उल्लेख मिलता है। उसकी पूरे आदिवासी अंचल में विशेष प्रतिष्ठा है। ठकुराइन की पूजा के लिए कोई व्यक्ति चाहिए। अतः सभी उसकी बातों का सम्मान करते हैं । आदिवासी लोगों का मानना है कि ठकुराइन उसके माध्यम से काम करवाती हैं। उस गांव के आदिवासियों में मूर्तिपूजा का प्रचलन था। उनकी पूजा-पद्धति और धार्मिक विचार पर कहानीकार ने प्रकाश डाला है।

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उन्होंने आदिवासी समाज में व्याप्त अंधविश्वास, धार्मिक बाहाचार, धर्मभावना, सड़ी- गली मान्यताओं, शरीर साथना, तत्र-मत्र की दखाने का प्रयास किया है। कहानीकार ने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों को लिखा है। वे ऐसी जर्जर मान्यता के लिए जिम्मेदार कारण को हैं और पाते हैं कि अशिक्षा ही इसका मूल कारण है।

ब्राह्मणी देवी की पूजा के दिन गांव का मुखिया और पुजारी उपवास करते हैं। किसी भी बड़े काम, जैसे बाघ मारने का अभियान करने के पाहले प्रथा के अनुसार सभी ब्राह्मणी देवी के सामने इकट्ठे होते।

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आदिवासी समझते कि देवी की आज्ञा को मुखिया या पुजारी सुना रहे हैं। बाघ को मारने के अभियान में पडित की दाई जांघ को बरहा ने चीर डाला और इसे माँ की इच्छा का नाम दे दिया जाता है। ‘बधेई’ में चित्रित धार्मिक मान्यता आदिवासियों के जीवन बरित्र के विविध पक्षों को रूपायित करती है कि वे सहजता से किसी बात को स्वीकार कर लेते हैं। वे कुसंस्कारों और आडम्बरों के कारण शोषण के शिकार हैं।

सामाजिक जीवन- ‘बघेई’ कहानी की पृथ्ठभूमि स्वतंत्र भारत की है। स्वतंत्रता के कई द्शकों के बाद भी आदिवासी समाज की स्थितियाँ बदली नहीं हैं। जो थोड़ा बहुत पढ़-लिख लेते हैं, वे शहरों में जाकर अपनी जड़ से कट जाते हैं। अपने आदिवासी भाइयों की शोचनीय स्थति से उदासीन रहने लगते हैं। ‘बघेई’ कहानी से यह स्पष्ट होता है कि आदिवासी परिश्रमी होते हैं और अपनी गरीबी में भी संतोष रखते हैं।

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वे साहूकार, महाजन, पुलिस, अधिकारी का शोषण भी झेलते हैं, स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरों के हित का अधिक ध्यान रखते हैं, स्वयं जोखिम उठाकर भी परोपकार करते हैं। बघेई’ में आदिवासो जल, जंगल और जमीन को सर्वोपरि मानते हैं और इन्हीं तीन तत्वों के चारों ओर उनका जीवन- चक्र घूमता रहता है। वे पानी, बिजली, सड़क शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं और उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर है।

सरकार और प्रशासन भी उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं। लेडेंग के निवासी अपने को केंचुआ मानते हैं, जो माटी के साथ रहता है, माटी को बनाता है, खाता है, खोदता है। मर जाने पर मिट्टी की शक्ति बढ़ाता है।

संघर्षशील मनुष्य के रूप में जीवनयापन करना आदिवासी अपना धर्म समझते है और इसे पूरा करने के लिए वे एकजुट होकर आगे बढ़ते हैं। विज्ञान और तकनीकी विकास की बात पर उन्हें भरोश नहीं होता, क्योंकि इनकी दुनिया भिन्न है।

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वे आंखों देखी पर विरवास करते हैं। “बघेई’ में चित्रित समाज लेखक के आसपास का समाज है। जीवन की क्षणभंगुरता और खोती जा रही संवेदना व मूल्य संकट के बारे में भी रचनाकार सावधान है। लेखन ने आदिवासियों के अनवरत संघर्ष और उम्मीद को बचाए रखने की का प्रयास किया है।

वे व्यक्ति चरित्र के प्रतिष्ठित रूपबोध को आत्मिक विकास की ओर उन्मुख करना तथा अदम्य विश्वास बनाए रखना चाहते हैं।

‘बघेई’ कहानी में खास कोई निश्चित कथा नहीं है। इस लंबी कहानी में बाध के आतंक, आदिवासियों का बाघ का शिकार हेतु अभियान जैसी घटनाओं के अलावा कोई कथा-क्रम नहीं है। गोपीनाथ महंती ने विविध परिप्रेक्षयों में बाघ का उल्लेख किया है, क्योंकि आदिवासी समाज बाघ के प्रकोप से आतंकित है।

बाध की उनमुत्ता के चलते चारों ओर भय का वातावरण है। बाधिन ने गाय या भैंस या बैल के शिकार के बाद आदमी का शिकार करना शुरू कर दिया।

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लेखक ने इस स्थिति का चित्रण किया है, “लोगों ने जानवरों पर बंदिश लगा दी। पनहे में बांधकर गांव में ही रखा। भूख से भले उनके पेट में आग जल लगी। फिर भी उन्हें खोला नहीं गया.. लेकिन उसके बाद शुरू हुआ असल ‘बघेई ‘- बाघ आदमी खाने लगा।” बाघ का आदमी खाना, उसके विरोधी स्वभाव का प्रतीक है।

लेखक ने यहाँ इसे प्रतीक रूप में लिया है, व्योंकि मनुष्य और मनुष्यता विरोधी शक्तियों को पराजित करना किसी व्यक्ति बिशेष के लिए संभव नहीं है, इसलिए आदिवासी समाज के लोग बाघ यानी मनुष्य विरोधी शक्ति को मारने के लिए संघर्षबद्ध जीवन जीते हैं, सामूहिक प्रयास करते हैं, अपनी शक्ति के अनुसार उसे चुनौती देते हैं और सदियों से उनके मन में व्याप्त आतंक को समाप्त करना  चाहते हैं।

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इस कहानी में बाघ जनतंत्र के हत्यारे का प्रतीक भी है। यह बाध और कोई नहीं बल्कि शासन सता पर बैठे लोग और धनी लोग हैं, जो अपने उच्छुंखल प्रवृत्ति से जनता के अधिकारों का हनन करते है। ‘ अमातुष, नृशंस और पापी’ बाघ हिंसक जानवर के साथ स्वेच्छवारिता का प्रतीक है।

यह दम और शोषण से आम आदमी पर आतंक बरसाने वाले शासक का प्रतीक भी है। कहानीकार ने ‘बाघ’ की सर्वकालिकता और सार्वभौमिकता को स्पष्ट शब्द में चित्रित किया है- “हर युग में, हर जगह बाध निकला है और उसने शिकार किया है ।

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संसार में जितने दिनों तक मनुष्य नाम का प्राणी जीवित है, बाघ नामधारी जन्तु जींद है, किसी न किसी जगह आदमी को बाघ खा ही रहा होगा।”अर्थात् बाघ अन्याय का प्रतीक है। आदिवासियों ने उस बाघ का विरोध किया है, जो मानव समाज को अपने अधिकारों से वंचित करता है। युद्ध केवल अस्त्र -शस्त्रों से नहों जीता जाता।

विजय के लिए अदम्य साहस चाहिए जो आदिवासियों के पास होता है। हालांकि वे अंधविश्वास को आधार बनाकर रण-क्षेत्र में पहुँच रहे हैं, जो उन्हें प्रेरणा तो देता ही है।

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5. कोंणकी कहानी संसार का सामान्य परिचय देते हुए ‘ओरे चुरुगन मेरे..’ कहानी का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-

कोंकणी भाषा भारतीय संबिधान की आठवीं अनुसूची में स्वीकृत 22 भाषाओं में से एक है। इसे 20 अगस्त, 1992 को इस अनुसूची में शामिल किया गया। कॉकणी साहित्य पाँच सौ वर्षों से भी अधिक पुराना है। लोक कधाओं में कोंकणी का इतिहास और भी पुराना है।

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कोंकणी की कुछ लोककथा का वी. एस. सुकतांकर, लूसीओ रोडरीग आदि ने अंग्रेजी में अनुवाद किया था, जो इसके साहित्य के महत्व को दर्शाती है। आधुनिक कोंकणी कहानी के प्रारंभ का श्रेय शोण्णोई गोइम्बाब को जाता है। शोष्णोई गोइम्बाब कोंकणी नवजागरण के अग्रदूत थे। ‘नवम गोम’ शीर्षक पत्रिका में उनकी पह़ली कहानी मोजी बा कोइम गेलि’ प्रकाशित हुई थी।

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‘मोजी बा कोइम गेलि’ (मेरी माँ कहाँ गयी) में एक छोटे वच्वे यायुलो की कहानी है, जो अपनी माँ से अत्यधि प्रेम करता था। बाबुलो की माँ की बीमारी से मृत्यु होने पर बच्चे से छिपाकर उसका ऑतिम संस्कार कर दिया जाता है।

बाबुलो को यह कहकर सांत्वना दी जाती है कि उसकी माता ईश्वर के पास गई हुई है। बाबुलो उसकी प्रतीक्षा करता है, लेकिन माँ के वापस न आने पर खाना-पीना छोड़ देता है। अन्त में बाबुलो की भी मृत्यु हो जाती है।

इस कहानी में बालक का माता के प्रति प्रेम, शैशवावस्था का यथार्थ चित्रण और माता के बिना बच्चे की दुःख स्थिति का अत्यंत मर्मस्पर्शीं वर्णन है। इनके दूसरे कहानी संग्रह ‘अनवल्लम’ (बकुल फूल) में करवार, मंगलूर आदि का जनजीवन चित्रित हुआ है। कॉकप कहानियों में गोवा के रीति-रिवाज, आचार-विचार आदि का भी जीवंत वर्णन है।

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मराठी में दैनिक ‘राष्ट्रमत’ और कॉकणी में ‘सूनापरांत’ के सम्पादक रहे चंद्रकांत केणी मराठी तथा कोंकणी के प्रसिद्ध लेखक हैं। उनकी कहानियों मैं सहज-सरल भाषा में सार्वजनिक विषयों पर आधारित हैं। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से जीवन-यथार्थ को अत्यंत विशिष्टता के साथ प्रस्तुत कि है।

चंद्रकांत केणी को उनके साहित्यिक योगदान देने के लिए 1988 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है। इनकी पहली कहानी ‘गुपित’ 1995 में प्रकाशित हुई थी। ” भुई चाफी’, ‘धतोरी ओजन जिएताली”,’आषाद पौवल्ली’, ‘ ओलमी’ और होकोल पौन्नी’ आदि इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं।

मराठी के प्रसिद्ध कहानीकार लक्ष्मणराव सरदेसाई ने मराठी में सात सौ से भी अधिक कहानियाँ लिखी हैं। कोंकणी में इनकी कुछ ही कहानियाँ उपलब्ध हैं, क्योंकि पचास वर्ष की अवधि पार करने के बाद आपने कॉकणी में लिखना प्रारंभ किया था। इनकी चर्चित कहानियाँ हैं- ‘संतु हलेलम होडोप’ (संतु नाई का बक्सा) और फोलर(लाइंट हाउस)।

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भारतीय समाज में संतानहीन माता की स्थिति अत्यंत दयनीय है। संतानविहीन माता को कुल कलकिनी, पिशाचिनी, बांझ आदि ताने सुनने पड़ते हैं। मातृत्व ही नारी जीवन की सफलता और सार्थकता मान लिया गया है। ‘ ओरे चुरुंगन मेरे’ कहानी में लेखिका ने ‘मौसी’ के माध्यम से माता न बन पाने की यंत्रणा को दिखाया है। नारी को ममता की मूर्ति कहा जाता है। मौसी उस ममता को अपनी बहन के बेटे रघु पर दोनों हार्थों से लुटाती है।

अपनी बहन की मृत्यु होने पर उसके बेटे को अपने पास ले आती है। उसे तमाम सुख-सुविधारएं पहुंचाती है। कहीं लड़का ऊब्ब न जाए, इसका ख्याल करते हुए ‘तब मौसी अपना काम छोड़कर मेरे साथ खेलती थी’..मौसी के साथ खेलने में बहुत मजा आता था।

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पूरे समय मेरे हो जाते, तब वह मुझे गौद में बिठाकर, ‘बड़ा होशियार है मेरा राजा बेटा’, ऐसा कहकर हंसती थी। मौसी कितनी सीधी-सादी, भोली – भाली और सहज हृदय थी। उसने बच्चे के पालन-पोषण में कोई कमी न बरती थी। बच्चे के साथ रहकर उसे मानो सारे स्वर्गीय सुख प्राप्त होते थे।

बच्चे के लालन-पालन, उसके साथ खेलने और उसके संस्पर्श से मानो मौसी का मातृत्व साकार हो उठा था। मौसी को हर वक्त यह आशंका अवश्य घेरे रखती कि बच्चा कहीं उसे छोड़कर न चला जाए। रघू रोज स्कूल जाते समय मोड़ पर आम के पेड़ के पास पहुंचते ही पौछे मुड़कर देखा करता और मौसी को हाथ हिलाया करता था।

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एक दिन हाथ न हिलाने पर मौसी आशंकाओं से धिर जाती है। स्कूल से आने पर मौसी पृछती है-” ऐसे केसे भूल गया? तुझे तो मुझसे अपनापन ही नहीं है। मैं ही तुझ् पर जान देती हू..”इतने में ही मौसी की आखें भर आती हैं। यह मीठी शिकायत है तो प्यार का इजहार भी। मौसी के उसके अंदर मातृत्व को लेकर कहीं -न-कहीं असुरक्षा का भाव भी है, इसलिए रघू को मौसी चुरुंगन की कहानी सुनाती है।

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चुरुंगन और मौसी की कहानी के माध्यम से रघू और मौसी संकेतित हैं। चुरुगन की मौसी की यंत्रणा रघु की मौसी की यंत्रणा बनकर प्रकट होती है। छोटी-सी प्रासंगिक कथा मार्मिक और हृदय को द्रवित करने वाली है। लेखिका के शब्दों में कहानी का सार इस तरह है, “एक था चुरुंगन एकदम नन्हा-सा। एक दिन उसकी मां मर गई।

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चुरुंगन घोंसले में अकेला रह गया। की एक मौसी धी। उसने बड़ी ममता से उसे अपने पंखे तले सहारा दिया। पाला…. पोसा..। चुरुंगन की मौसी उसका पालन-पोषण करने लगी। मौसी उसे बहुत प्यार करती थी। वह उसे अपना ही बच्चा समझती थी। मौसी ने उसे उड़ना सिखाया।

बच्चे ; पंख फैलाए। वह अकड़ से उड़ने लगा। मौसी खुशी से फूली न समाई । एक दिन चुरुगन घोसले से बाहर निकला। उड़कर दूर -दूर चला गया। मौसी चुरुगन को भूल न सकी। वह उसकी राह देखती रही। और उस चुरुंगन की याद में मौसी घासले में रोती रहती थी। “

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चुरुगन की मौसी की कहानी एक बहाना है अपनी रास्ता सुनाने का। लोककथा में रघू की मौसी ने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया है। चुरुगन की कहानी सुनाते समथ मौसी का रोना मौसी का हृदय के किसी कोने में भावी विरह की आशा का को दर्शाता है।

मौसी की स्थिति वैसी न हो जाए जैसी चुरुगन की मौसी की थी। तभी तो कहानीकार ने वर्णित किया है, “कहानी सुनाते-सुनाते मौसी खुद ही रोने लगीं। उसका रोना देखकर मैं भी रोनै लगा मौसी ने मुझे गोद में लिटाया और थपथपाते हुए थीमे स्वर में वह गाने लगी।.. “ओरे चुरुगन मेऐ, कब आएगा तू प्यार करती हूँ तुमसे मैं पर भूल गया रे तू।”

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मौसी ने पराये बच्वे को पूर्णतया अपना लिया था और ममत्व से मातृत्व को भर दिया था। जब रघू को लेने उसके पिता अचानक आ पहुंचते हैं तो मौसी डर जाती है। मौसी की इस स्थति का चित्रण लेखिका ने इन शब्दों में किया है, ” मौसी के हाथ का सूप जमीन पर गिरा। उसमें से चावल सब जगह बिखर गये। मौसी बिल्कुल गई-बीती। सूप भी ठीक तरह पकड़ना नहीं जानती।” इस प्रकार लेखिका ने निस्संतान मातृ हदय की त्रासद स्थितियाँ को अत्यंत मर्मस्पर्शी ढंग से चित्रित किया है।

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‘ओरे चुरुंगन मेरे.. कहानी आठ साल के बच्चे रघू की कहानी है, जिसकी माँ अभी दो दिन पहले ही इस दुनिया को छोड़कर चली गई। इस बच्चे की स्वाभाविक इच्छाओं और प्रतिक्रियाओं का कहानी में चित्रण किया गया है। कहानी में एक निस्संतान स्त्री के मातृत्व की भावना और मातृहीन बच्चे के मनोविज्ञान को प्रभावशाली से वर्णित किया गया है।

इस कहानी में रचनाकार की मनोबैज्ञानिक सूझबूझ के साथ उसके मनोवैज्ञानिक ज्ञान का परिचय भी मिलता है। बच्चे का लगाव, जुड़ाव या प्रेमभाव सबसे अधिक माता के साथ होता है। मातृहीन बच्चे के लिए माँ की स्मृतियों में डूबा रहना सबसे बड़ा सहारा होता है। रघू पिता या पडोस की स्त्री सुरंग की गोद हो, वह मां के साथ बिताये गये एक -एक पल को याद करता है।

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पिता को मां की याद में रोते हुए देखकर बच्चे का रोना सहज स्वाभाविक है। पिता जी उसे सहलाते हैं, तो रघू को अपनी मां के सहलाने की याद आती है। अगर मां से भी अधिक प्रेम मौसी बच्वे को करे तो क्या मौसी मां बन सकती है? मौसी प्यारी होती है, लेकिन बच्चे के लिए मां सर्वाधिक प्यारी होती

. जैसे-

इस वालसुलभ भावना का कहानी में अनेक स्थलों पर चित्रण है;

“मौसी के कपडों से फूलों की सी खुशबू आ रही थी। मां के कपड़ों से हमेशा धुएं की गंध आती थी। पर मेरा मन चाहा कि मौसी के कपड़ों से धुएं की ही गंध आती तो कितना अच्छा होता।”” मां की बगल में सोते हुए धूएं की अच्छी सी गंध आती थी। सुरंग की साडी से भी वही खुसबू आती है, जैसी कि मां की साडी से आती थी। उस गंध का चिंतन करते हुए मैं मौसी की बगल में घुसा।”

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“मौसी सुर-सुर कर रस्सी खींच के गागर से कुएं का पानी निकालकर मेरे सर उंडेल देती। पूरे बदन में साबुन लगाती। घर पर मैं अकेला ही नहा लेता था। मैने मां को कभी मुझे नहलाने नहीं दिया। मैं क्या अब नन्हा स बच्चा हूँ ? पर मौसी सुने तब न ?”

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उपयुक्त उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि मां का स्थान कोई दूसरा नहीं ले पाता है। बच्बे के दिलो-दिमाग में मां की स्मृतियां भरी रहती हैं। वह अपनी मां की तुलना दूसरों से कर मां का श्रेष्ठता बोध सिद्ध करता है। मौसी ने रघु को सौतेली मां की बच्चे को कष्ट देने वाली कई कहानियाँ सुनाई थीं।

पिता और मौसी के वार्तालाप को सुनकर रघू को पता चल जाता है कि उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली है। बच्बे चंचल होते हैं तो उनके मानसिक भाव भी तो स्थिर नहीं होते। सिसकियां भर- भर कर रोने वाले रघू को जैसे ही पता चलता है कि पड़ोस में रहने वाली और रघू को बहुत चाहनेवाली सुरंग ही उसकी ‘सौतेली मा’ है तब बच्चे की मानसिक स्थिति तत्काल बदल जाती है, “कौन है वह? सुरंग….. सुरंग? मेरी आंखें चमक उठीं। हटो। सुरंग भी कभी सौतेली मां हो सकती है भला? वह कितनी अच्छी है।

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उसकी बगल में जब सोया था, तब मुझे लगा था कि जैसे मां की गोद में सो गया हुं” इसके बाद बच्चा खुशी-खुशी मौसी को छोड़कर पिता के साथ चला जाता है। मौसी को विश्वास नहीं हो पा रहा था कि रघु उसे छोडकर अपने पिता के साथ वापिस जा रहा है। रघु के मन में एक बात घर कर चुकी है कि वह अपने पिता के साथ अपने गांव में स्वतंत्र रहेगा, अपने मित्रों के साथ खेलेगा।

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मौसी के यहां सारी सुख -सुविधाएं होने पर भी रघू एक बेगानापन भी महसूस करता है। मौसी के यहां उसे रहना पसंद है, लेकिन पिता के साथ चलकर मछलियां पकडना उसे ज्यादा भाता है। रघू से जब पूछा जाता है, “यहां तुझे अच्छा नहीं लगता?””

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तो रघू बिना किसी लाग-लपेट के सीधा जवाब देता है, “यहां मुझे अच्छा लगता था। पर पिता जी के साथ और भी अच्छा लगेगा।” बालसुलभ चेष्टाओं को कहानीकार ने बड़े सहज ढंग से प्रस्मुत किया है। इस मनोवैज्ञानिक उद्घाटन में लेखक ने सैद्धान्तिक जटिलताओं को न अपनाकर बच्चे की चेष्टाओं और क्रियाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।

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इस कहानी में सामाजिक संस्कार और मान्यताओं की भी अभिब्यक्ति हुई है; जैसे-घर से कहों बाहर निकलते समय थोड़ी दूरी के बाद पीछे मुड़कर राह देखने वाले को हाथ हिलाने से अपनापन जाहिर का मध्यवर्गीय संस्कार तब दिखता है, जब रघु एक बार हाथ हिलाना भूल जाता है, तो मौसी को बहुत अधिक बुरा लगता है। रमू द्वारा पीछे मुड़कर हाथ न हिलाने से मौसी समझ लेती है कि रघु का उसके प्रति कोई लगाव नहीं है।

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रघु के पिता का रमू की मों की मृत्यु के छह महौने के अन्दर दूसरा विवाह करने को समाज द्वारा उचित न मानना भी एक सामाजिक मान्यता है. क्योंकी घरणी की मृत्यु हो तो लगभग साल भर कोई खुशी नहीं मनाई जाती।

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सौतेली माता के प्रति समाज की सीमित सोच को भी इस कहानी में लेखिका ने उभारा है। सभी सौतेली माताएं अपने सौतेले बच्चों को कष्ट पहुंचाया। कुछ अच्छी या बहुत अच्छी भी होती हैं, लेकिन समाज की मान्यता भला कहां बदलती है?

रघू की मौसी भी उसे सौतेली माता की नकारात्मक छवि ही दिखाती है। हालांकि इसके पीछे उसकी मौसी यही है वकि रघू उसे छोड़कर न जाए। इस प्रकार इस कहानी में लेखिका ने कॉकणी समाज के रीति -रिवाज, मान्यताओं, सामाजिक सोच आदि का वर्णन किया है, लेकिन ये मान्यताएं पूरे भारतीय समाज में लगभग एक समान हैं। MHD 12 free solved assignment

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6. दीनानाथ नादिम का परिचय वेते हुए उनकी कहानी ‘जवाबी कार्ड’ का विश्लेषण कीजिए।

उत्तर

दीनानाथ नादिम का जन्म मार्च, 1916 में श्रीनगर के एक अत्यंत गरीब परिवार में हुआ था। उनके बचपन में ही, उनके पिता शंकरलाल कौल का देडांत हो गया था। मां ने हो उनका पालन-पोषण किया। वे दूसरे संत कवियों के लीला पद गाकर नादिम को सुनाया करती।

नादिम पर उनकी मां का बहुत प्रभाव था। वे ललय और दूसरे संत कावियों की कविताओं से प्रभावित थे। दौनानाथ नादिम ने 1943 में स्तातक की डिग्री हासिल की 1947 में शिक्षाशास्त्र में ग्रेजुएट हुए। फिर उन्होंने हिंदू हाईस्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया।

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दोनानाथ नादिम शुरू में अंग्रजी और उर्दू में कविताएं लिखों। कुछ रचनाएं उन्होंने हिंदी में भी लिखौं। उन पर जोश मलीहाबादी, बृजनारायण चकबस्त, एहसान विन दानिश जैसे रचनाकारों का प्रभाव था। 1942 में उन्होंने कश्मीरी भाषा में पहली कविता ‘माज कसीर’ यानी “मां कश्मीर’ लिखी। उस वक्त कश्मीर में चारों तरफ ‘कश्मीर छोड़ो’ का नारा गुँज रहा था। डोगरा साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बज चुका था।

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1948 में जब रेडियो कश्मीर की स्थापना से दीनानाथ नादिम ने कश्मीरी भाषा को प्रोत्साहित करने के मकसद से अनेक प्रयोग किए। उन्होंने गीतात्मकता से अलग मुक्त छंद की रचना करनी शुरू की। 1950 के दशक में उनके इस प्रयोग से कश्मीरी कविता को एक नया आयाम मिला। अब उन्होंने विश्व शाति के लिए युवाओं को तैयार करना शुरू कर दिया।

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पचास के दशक में ही उन्होंने कश्मीरी भाषा में पहला ओपेरा यानी संगीत- नाटक लिखा। इस नाटक के जरिए उन्होंने प्रतीकात्मक रुप से अपने वतन, अपनी मिट्टी, अपने लोगों का साथ न छोड़ने का संदेश दिया। इस तरह नादिम कश्मीर और कश्मीरी भाषा के लिए लगातार संघर्ष करते रहे। उनकी कविताओं में कश्मीर की आजादी का आह्वान जगह-जगह भरा पड़ा है।

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 दीनानाथ की कुछ रचनाएँ स्थानीय पत्र- पत्रिकाओं में छिपी भी थों, मगर ज्यादातर मुशायरों में गाई जाती रही थीं। 1985 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, तब ‘शिहिलकुल’ नाम से उनकी कविताओं का एक संचयन प्रकाशित हुआ।

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‘जवाबी कार्ड’ कहानी का विश्लेषण कहानी के बारे में बातचीत करने से पहले ‘जवाबी कार्ड’ का अर्थ जानना जरूरी है। पहले पोस्टकार्ड के साथ एक जवाबी कार्ड भी लगा होता था। जिस पर चिट्ठी लिखने वाला केवल अपना पता लिख देता था। पत्र पाने वाला चिट्ठी पाते ही जवाबी कार्ड पर जवाब लिखकर वापस भेज देता था। यह एक तरह से चिट्ठी पहुँचने का प्रमाण भी होता था।

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एक छोटी-सी घटना पर आधारित इस कहानौ में अधिक घटनाएं नहीं हैं मगर दो-तीन घटनाओं और वर्णनों से ही उस समय के कश्मीर की स्थितियों की जानकारी मिल जाती है। इस कहानी का मुख्य पात्र है-गुल साहब।

प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं होने पर भी सारी कहानी उसी के इर्द-गिर्द घूमती है। गांव के लोगों की बातों और गुल साहब से उनके लगाव से गांव, बल्कि पूरे मुल्क के लिए उनकी महत्ता का चलता है। वह जो कर रहा है, पसे लोगों में किस तरह सुरक्षा भावना मजबूत हुई है और लोग उस पर कितना गर्व करते हैं।

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कहानी में परोक्ष रूप से दिखता है कि कश्मीर में उन दिनों सीमा पर लड़ाई चल रही है। कश्मीर की सुरक्षा खतरे में है। गुल साहब के सेना में भर्ती होने से गांव वालों को कश्मीर की रक्षा का भरोसा मिला है। यह उन लोगों के लिए गर्व का विषय है कि उनके गांव का कोई नौजवान सरहद पर उनकी रक्षा के लिए लड़ने गया है।

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गांव आने पर पुलिया पर ही सारे बच्वे उससे लिपटकर नारे लगाने लगे। लडाई पर जाने वाले दिन गांव के स्त्री-पुरुष उससे मिलने आए। सबने कुछ न कुछ उपहार दिया। किसी ने सूखी सब्जी दी, किसी ने कड़म के साग का अचार दिया, वास पंडित तो कंठ ऋषि के आश्रम से रक्षा सूत्र ले आए थे। लड़ाई पर रवाना होने पर गांव के सारे लोग चार मील तक छोड़ने गए और जब तक वह नजरों से ओझल नहीं हो गया, वे वहीं खड़े रहे।

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इससे कश्मीर में सभी समुदायों के लोगों के आपस में मिल-जुलकर रहने, एक दूसरे के सुख- दुख में शरीक होने, किसी को किसी से ईथ्थ्यांईर्षानहीं, किसी की किसी से दुश्मनी नहीं होने जैसे भावों का पता चलता है।

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यह कश्मीर हो नहीं, पूरे भारतीय ग्रामीण समाज का स्वरूप है। कहानी में जून दैद पूरे गांव की माँ, दादी, नानी है। हर कोई उससे सलाह लेता है, स्नेह देता है। कहानी शुरू ही यहीं से होती है कि जमाल मीर जून दैद के घर आता है और बाहर बैठकर आवाज लगाता है। गौशाले से बाहर निकलते हुए जून दैद उसे फटकार लगाती है- पता नहों कब तुम्हें बात करने का शकर आएगा।

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जून दैद के प्रति तो सारे गांव का प्यार है। लोग उसकी झिडकी सुनकर भी. बुरा नहीं मानते, कुछ सीखते ही हैं। जून दैद अपने पोते गुल साहब के बिना रह नहीं सकती। वह हर बात में गुल साहब का ही उदाहरण देती है।

गुल साहब के गांव आने पर गांव भर के बच्चे उसे घेरकर पुलिया से ही नारे लगाने लगते हैं। तो जून दैद घर से बाहर आकर चेहरे पर बनावटो गंभीरता लाकर कहती है,’….ले चाब कप्तान। मुर्गा चाब, ऐसे मूख्ख जब कप्तान बनते, तब..’। फिर देर तक गुल साहब को गले से लगाए रहती है।

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गुल साहब के गांव में किसी को पता नहीं कि जून दैद से वास्तव में संबंध क्या है। कोई कहता है कि वह जून दैद की भानजी का बेटे है और कुछ उसका पोता कहते हैं। लेकिन अधिकतर मानते हैं कि यह बच्चा जून दैद को मख्ट्रम साहब की सीढ़ियों पर मिला था।

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मगर गुल साहब में जून दैंद के प्राण बसते हैं। गुल साहब के फौज में चले जाने पर जून दैद अपना दुख, अपनी उदासी अपनी गाय बदरी से साझा करती है। जब कोई घर आता है तो वह उलाहना देती है कि देखो न गुल के जाने के बाद बदरो ने भी ठीक से नहीं खाया। गांव के लोगों इकट्ठा होने पर उसकी जुबान पर बस गुल रहा है। गांव वाले भी आनंदित हैं। इस समय पूरे कश्मीर की रक्षा कर गुल साहब की बातों में बहुत कुछ जानने की जिज्ञासा जाहिर करते।

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चाहते हैं कि जून दैद के साथ सभी गाँववाले गुल साहब को बहुत चाहते हैं। जाति-धर्म के बंधन नहीं हैं। कहानी ने अंत में डाकिये द्वारा गुल साहब का खाली जवाबी कार्ड मिलने पर गांव के लोगों की सच्ची आत्मीयता देखने को मिलती है।

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सभी हैरान है कि ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि जून दैद ने चिट्ठी लिखी हो और गुल साहब उसके जवाब में कुछ न लिखें। इस तरह खाली कार्ड देखकर बस पीड़ित और दूसरे लोगों को गुल साहब के लड़ाई में मारे जाने की आशंका हो जाती है जो भी यह कार्ड देखता है, मायूस हो जाता है। जून दैद को यह खबर किस तरह सुनाई जाए। यह सोचकर सब परेशान है। उसे संभालना मुश्किल होगा।

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