IGNOU MHD 10 Free Solved Assignment 2024

IGNOU MHD 10 Free Solved Assignment 2024 (For Jan and Dec 2024)

Contents

MHD 10 (नाटक और अन्य गद्य बिधाएं)

सूचना  :-

MHD 10 free solved assignment मैं आप सभी प्रश्नों  का उत्तर पाएंगे, पर आप सभी लोगों को उत्तर की पूरी नकल नही उतरना है, क्यूँ की इससे काफी लोगों के उत्तर एक साथ मिल जाएगी। कृपया उत्तर मैं कुछ अपने निजी शब्दों का प्रयोग करें। अगर किसी प्रश्न का उत्तर Update नही किया गया है, तो कृपया कुछ समय के उपरांत आकर फिर से Check करें। अगर आपको कुछ भी परेशानियों का सामना करना पड रहा है, About Us पेज मैं जाकर हमें  Contact जरूर करें। धन्यवाद 

MHD 10 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

Mhd 10

1. (क)

लाडली को काकी से अत्यंत प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी। याल जय उसके माता-पिता ने काकी को निर्वयता से घसीटा तो लाडली का हवय ऐंठ कर रह गया। वह झुंइला रही थी कि यह लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़याँ नहीं वे देते। क्या मेहमान सथ की सथ खा जायेंगे? और यदि काकी ने मेहमानों के पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जाएगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें भैर्य वेना चाहती थी, परंतु माता के भय से न जाती थी। उसने अपने हिस्से की पूड़ियों विल्कुल न खायी थीं। अपनी गुड़िया की पिटारी में बंव कर रक्खी थी। उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी। उसका इदय अधीर हो रहा था! यूड़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगी, पूरियों वेखकर प्रसन्न होंगी! मुझे खूब प्यार करेगी ?

उत्तर

संबर्भ-प्रस्तुत गद्यांश प्रेमचंद की काहानी ‘बूढ़ी काकी’ से लिया गया है। बुद्धिराम के बेटे के तिलक था। घर में उत्सव था, किंतु बुद्विराम और उसकी पत्नी रूपा ने उसी बूढ़ी काकी के साथ निर्दयतापूर्वक दुव्यवहार किया था, जिस बूढी काकी की संपत्ति के बल पर वे ऐश कर रहे थे। बुद्धिाम की बेटी लाइली काकी से बहत प्यार करती थी। वह काकी के प्रति अपने माता-पिता का व्यवकहार नहीं समद्य पा रही थी। बालमन की इसी दविधा का वर्णन इन पक्तियों में किया गया है।

व्याख्या-लाडली को काकी से बहुत प्यार था। वह छोटी अबोथ लड़की थी। उसके माता-पिता ने दो बार काकी को निर्दयता से घसीटा, तो लाडली को बहुत दुख हुआ। वह समझ नहीं पा रही थी कि काकी को भूख लगी है, तो ये लोग उन्हें पृड्धियां खाने को क्यों नहीं दे रहे हैं। क्या सारा खाना मेहमानों के लिए और यदि कारकी के मेहमानों से पहले खाने से क्या गलत हो जाएगा।

वह चाहती थी कि वह काकी के पास जाए और उनहें सांत्वना दें, किंतु माता-पिता के भय से वह काकी के पास नहीं गई। उसने भी पूड़ियां न खाकर अपनी गुड़िया की पिटारी में रखी थी। अब वह वे पृड़धियां कारकी को खिलाना चाहती थी। उसके मन की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। वह सोच रही थी कि पूड़ियोँ देखकर काकी खुश हो जाएँगी और उसे बहुत प्यार करेंगी।

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विशेष-

1. बालमनोविज्ञान का भावपूर्ण वर्णन है।

2. व्यक्ति के स्वार्थ, निर्यता एवं कृतघ्नता की अभिव्यक्त है।

3. बुढ़ा व्यक्ति बच्चे वके समान होता है, उसका मन चंचल होता है, इस भाव को दर्शाया है।

4. बजुर्ग सम्मान के योग्य होते हैं, उनके साथ दुव्यहार व्यक्ति की संवेदनशीलता, मानसिकता एवं समाज व परिवार में टूटते मूल्यों को व्यक्त करता।

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(ख) पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यहह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्षी के ही खिलौने हैं, इनहें वह कैसे चाहती हैं, नथाती है। लेटे ही लेटे गर्व से बोले चलो हम आते हैं । यह कहकर पंडित जी ने बड़ी निश्चितता से पान के बीड़े लगाकर खाये। फिर लिहाफ ओड़़े हुए वरोगा के पास आकर बोले, बाबू जी आशीर्वाव कहिए, हमसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ कि गाड़ियों रोक दी गयौं। हम ख्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-वुष्टि रहनी चाहिए।

उत्तर-

संवर्भ– प्रस्तुत गद्यांश प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दरोगा’ से लिया गया है। वंशीधर ने नमक के दरोगा के रूप में अलोपीदीन की गाड़रियां रोक ली। अलोपीदीन मानते थे कि धन के बल पर सब खरीदा जा सकता है। व्यक्ति का ईमान भी धन से बिकता है। यही सोचकर वे निश्ंचित होकर वंशीधर से बात करने जाते हैं।

व्याख्या-पंडित अलोपीदीन को धन की महिमा पर बहुत विश्वास था। उनका मानना था कि धरती से स्वर्ग तक सभी जगह धन का बल कार्य करता है। यह सही भी था, क्योंकि न्याय और कानून धनी लोगों के अनुसार चल रहे थे।

इसी कारण गाड़ियां पकड़े जाने की खबर पाकर भी अलोपीदीन विचलित नहीं होते और वहां पहुँचने की बात कहकर तसल्ली से पान खाते हैं। फिर ठंड के कारण लिहाफ ओढद्कर दरोगा के पास जाकर खुशामर्ी अंदाज में बोलते हैं कि आपने किस अपराध में हमारी गाडियां रोक ली हैं। हम ब्राह्माण हैं। इस कारण भी हमारे साथ नरम व्यवहार करना चाहिए।

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विशेष-

1. सरकारी विभागों में फैले भ्रष्टावार को उजागर किया है।

2, वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों द्वारा स्वयं को ऊँचा सिद्ध करने पर व्यांय है।

3. भाषा व्यंगर्यपूर्ण है।

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IGNOU MHD ALL FREE SOLVED ASSIGNMENT (2023-2024) 

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2, प्रेमचंद की कहानियों में अभिव्यक्त राष्ट्रवाद को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-

प्रेमचन्द भावुक रचनाकार ही नहीं थे, अपितु उन्होंने अपने समय के गंभीर-से-गंभीर विषय को लेकर उसका सूक्ष्म विश्लेषण करके एक नवीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने में सक्षम थे। उस समय स्वाधीनता का प्रश्न उनके लिए सबसे बड़ा तथा महत्तपूर्ण प्रश्न था इसीलिए स्वाधीनता आंदोलन का चित्रण करते समय उन्होंने लगातार उन विसंगतियों पर भी गहरा प्रहार किया है, जो भारतीय राष्ट्रवाद को अत्यधिक संकीर्ण बना रही थीं।

प्रेमचंद एक दृढ़ राष्ट्रवादी थे, जिसकी झलक उनकी रचनाओं में बखूबी देखने को मिलती है। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में राष्ट्रवादी नेताओं की स्वार्थ लिप्सा एवं कमज़ोरियों को भी उजागर किया। उन्होंने रंगभूमि एवं कर्मभूमि उपन्यास के ज़रिये शिक्षित राष्ट्रवादी नेताओं को उनकी कमजोरियों का एहसास कराते हुए उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया।

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इन शिक्षित एवं स्वार्थी प्रकृति के लोगों पर व्यंग्य करते हुए ‘आहुति’ में एक स्त्री कहती है- ‘‘अगर स्वराज्य आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यूँ ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूंगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेज़ी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। उनकी बुराइयों को क्या प्रजा इसलिये सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी है?’’

प्रेमचंद ने श्रेष्ठ साहित्य के मानकों को रेखांकित करते हुए कहा था कि ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, जो इसमें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’

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इस आधार पर प्रेमचन्द ने राष्ट्रवाद को समर्थ बनाने वाले व्यापक मूल्यों का भी चित्रण अपनी रचनाओं में किया। इसी राष्ट्रवयाद के संदर्ष में अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेमचन्द यह भी दरशांते हैं कि संपूर्ण हिन्दुस्तान राष्ट्र के इस विष्य पर स्वाधीनता के लिए एकजुट हो चुका है।

इसी स्थिति को वे अपनी एक महत्वपूर्ण कहानी ‘कानूनी कुमार’ में अपने देश में আ্याप कमबोरियों तथां संकीर्ताओं को उजागर कर उसे समाप्त करने के विभिन तरीकों का बब्धूबी चित्रण करते हैं तथा इसके साथ ही वे स्त्रयों की पुरुष सत्तात्मक समाज में विद्यमान द्यनीय दशा पर गंभीरता से प्रकाश डालते हुए उसे बदलने की बात भी करते हैं।

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प्रेमचन्द यह मानते थे कि स्त्रयों की स्थिति में परिवर्तन लाये बिना राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता है इसीलिए प्रेमचन्द सती’ कहानी की नाथिका को अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान तथा ्याग करने के लिए रणभूमि की ओर प्रस्थान करता हुआ दिखाते हैं तथा उसके इस अदम्य साहस का चित्रण करके प्रेमवन्द यह व्यक्त रहे थे कि स्त्रयों को अबला या कमजोर समझना राष्ट्रीय आंदोलन के साथ थोखा करने के समान होगा।

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प्रेमचंद ने उपर्युक्त आदर्शों एवं मापदंडों को प्रत्येक साहित्यकार हेतु ज़रूरी माना और स्वयं भी इन मानदंडों का अनुपालन किया तथा उन्हीं आदर्शों को ध्यान में रखते हुए अपने कालजयी कृतियों की रचना की।

उनकी रचनाएँ जीवन की सच्चाइयों से इतनी भरी हुई थीं कि शायद ही कोई पहलू अछूता रहा हो। उन्होंने उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से ग्रामीण जीवन के साथ-साथ शहरी जीवन की दुर्दशा का भी सजीव चित्रण किया है। ‘पूस की रात’ कहानी का पात्र ‘हल्कू’ अपनी पत्नी से कंबल खरीदने की इच्छा व्यक्त करता है और जैसे ही उसे साहूकार का कर्ज़ चुकाने की बात याद आती है, तो सारे ख्वाब धुआँ बनकर उड़ जाते हैं।

इसी प्रकार “समर-यात्रा’ शीर्षिक कहानी के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद का अत्यंत विस्तृत चित्रण करते हुए वे यह दशाति हैं कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सन्ले वाहक ते ये ही लोग हैं, जो प्राय: सदियों से समाज में सामाजिक-आरथिक रूप से शोषण का शिकार होते रहे हैं तथा इसके साथ ही इस कहानी में उन्होंने इस शोषित वर्ग की उत्सर्ग भावना और उसके साहस का अत्यधिक प्रभावशाली वर्णन किया है।

इसके पीडे उनका मुख्य उदेश्य यह दर्शाना था कि स्वाधीनता आंदोलन से अब पूरा राष्ट्र प्रभावित हो चुका है।

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“आहुति’ नामक कहानी भी इसी उद्देश्य को पूरा करती हुई प्रतीत होती है, जिसमें स्वयंसेवक अपने प्राणों की चिंता किए बिना स्वदेशी आंदोलन में सक्रिय होते हैं। ‘पल्नी से पति’ नामक कहानी में भी राष्ट्रप्रेम को ही सर्वोपरि स्वीकार किया गया है, तो ‘मैकू’ शीर्षक कहानी में भी मनुष्य के बदलते हुए भावों को स्वाधीनता-आंदोलन से मिश्रित करके उसे एक नया अर्थ देने की सार्थक पहल रचनाकार द्वारा की गई है।

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‘दो बैलों की कथा’ के माध्यम से जानवरों द्वारा किए जाने वाले सत्याण्रह को प्रतीक बनाकर प्रेमचंद इसके द्वारा विरोधी को हराने की अपनी प्रबलतम अभिलाषा को उजागर करते हैं।

राष्ट्रवाद का अपनी कहानियों के माध्यन से चित्रण करते हुए प्रेमचन्द मुख्यत: पूर्ण स्वराज की मांग तथा राष्ट्र को सर्वोपरि समझने की व्यापक भावना, स्वाधीनता संग्राम में स्त्रियों-शोषितों की गहरी भागीदारो और किसानों के विद्रोह भाय को महत्व्पूर्ण तथ्य के रूप में दर्शाति हैं।

इसौलिए प्रेमचन्द की दृष्टि राष्ट्रयाद की व्यापकता की पृष्ठभूमि से कदु्र स्वाथों को महत्त्व देने वाली नहीं है। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद में प्रवेश कर रही संकीर्ण मानसिकता को भी ध्यान में रखा था, क्योंकि प्रेमचन्द के सामने यह स्पष्ट था कि जब तक हमारे जीवन मूल्य उदात तथा आदर्श न होंगे, तब तक शोषण व दमन रहित विकसित राष्ट्र का निर्माण कर पाना संभव नहीं है।

‘गोदान’ की बात करें तो प्रेमचंद जी ने इसमें सामंतवादी व्यवस्था में जकड़े हुए ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण किया है और यह दर्शाने की कोशिश की है कि समाज की कुछ विशेष प्रकार की समाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से शोषण का जन्म होता है।

उन्होंने समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों एवं बाह्य आडंबरों पर भी प्रहार करते हुए उन्हें दूर करने का प्रयास किया। उनकी रचनाएँ सिर्फ मनोरंजन के लक्ष्य से नहीं लिखी गई थीं बल्कि वे अपनी कृतियों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों पर भी चोट करते थे।

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‘सद्गति’ एवं ‘सवा सेर गेहूँ’ कहानियों के माध्यम से उन्होंने बताया कि किस प्रकार लोग वर्तमान जीवन की चिंता छोड़कर परलोक के चक्कर में पुरोहित के चंगुल में फँस कर प्राण तक गवाँ देते हैं।

‘सेवासदन’ प्रेमचंद जी का पहला उपन्यास है जिसमें उन्होंने वेश्याओं की समस्या को प्रमुखता से उठाया है। वेश्यावृत्ति जैसी समस्या हेतु उन्होंने पुरुषों की अधम प्रवृत्ति को ही ज़िम्मेदार ठहराया है। प्रेमचंद जी कहते है कि ‘‘हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएँ, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएँ हैं, जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया है।’’

प्रेमचन्द इस तथ्य से भली-भाति अवगत थे कि जब तक राष्ट्र के लोग आपसी झगड़ों तथा समस्याओं में लिप्त रहेंगे, तब तक राष्ट्रीय एकता के विषय में बात करना बेईमानी है तथा वे अंग्रेजों की उस कुटनीति को भी समझ रहे थे, जिसके अन्तर्गत अंग्रेज सरकार हिन्दू-मुसलमानों को आपस में धर्म व भाषा के आधार पर लड़ाकर स्वाधीनता आंदोलन को कमजोर करने का प्रयास कर रही थी इसीलिए प्रेमचन्द अपनी कहानियों में साम्प्रदायिकता के इसी विषय को उठाकर अंग्रेजों की इस कृटनीति को लोगों के सामने लाने का प्रयास कर रहे थे।

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प्रेमचंद जी ने समाज में व्याप्त छूआ-छूत, भेदभाव एवं ऊँच-नीच जैसी कुरीतियों का भी गंभीरता से चित्रण किया। समाज में व्याप्त बिखराव से उन्हें बहुत कष्ट होता था। उन्होंने इसे कर्मभूमि, ठाकुर का कुआँ, ‘सदगति’ आदि कहानियों में बहुत बारीकी से उकेरा है। प्रेमचंद जी की कहानियों में कहीं भी सांप्रदायिकता का पुट नहीं रहा।

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उन्होंने मुसलमान एवं हिंदू पात्रों को उकेरने में कोई भी भेदभाव नहीं दिया एवं हर पात्र के साथ सहृदयता बरती। उनकी प्रमुखता आर्थिक-सामाजिक समस्याओं को चित्रित करने पर रहती थी, न कि जाति या धर्म पर। मुंशी प्रेमचंद ने हमेशा मनुष्य के अंदर छिपे देवत्व को उभारने की कोशिश की, जिसे बड़े घर की बेटी एवं पंच परमेश्वर कहानियों में आसानी से देखा जा सकता है।

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*हिसा परमो धर्मः नामक कहानी में प्रेमचन्द ने धर्म- परिवर्तन की गंभीर समस्या का चित्रण करते हुए इस साम्प्रदायिकता के विषवृक्ष को तेजी बढ़ता हुआ दिखाया है, जिसमें हिन्दू, मुसलमानों को हिन्दू बना रहे हैं और मुसलमान, हिन्दुओं को मुसलमान तथा ये दोनों वर्ग इस कार्य के लिए अपना भरपूर प्रयास करते हैं।

यहां तक कि दोनों एक-दूसरे के जान-माल के भी दुश्मन बरने हुए हैं तथा इन्हीं संघर्षों के साथ स्त्रियों की बेशन्जत किया जा रहा इस कहानी के माध्यम से प्रेमचन्द ने साम्प्रदायिकता का मानवता पर अत्यधिक गहरा प्रभाव दिखाया है। यह आदमी को टुकड़े-ट्कड़े में बांट देती है। इस कहानी के अन्त में जामिद के माध्यम से उन्होंने अपनी बात इस प्रकार से स्पष्ट की है-

“..वह जल्द-से -जल्द शहर से भागकर अपने गांव पहुंचना चाहता था, जहां मजहब का नाम सहानभूति, प्रेम और सौहा् था। धर्म और धार्मिक लोगों से उसे घुृणा हो गई धी।”

इसी प्रकार की साम्प्रदायिकता तथा धर्मांधिता को प्रेमचन्द ने “जिहाद’ नामक कहानी के माध्यम से भी दर्शाया है. जिसमें अज्ञानवश मनुष्य अपने उच्च मानव धर्म से विरत होकर संकीर्ण मानसिकता का गुलाम हो जाता है।

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“मुक्ति धन’ शीर्षक कहानी में भी प्रेमचन्द दशाति हैं कि हिन्दू -मुस्लिम एक-दूसरे का आदर करना सीख गए हैं और इसी आधार पर उन्होंने ‘पंच-परमेश्वर’ में हिन्दू-मुस्लिम मित्रता का एक आदर्श रूप प्रस्तुत किया है, क्योंकि प्रेमचन्द इस तथ्य से परिचित थे कि धार्मिक कट्टरता ही राष्ट्रबाद को संकीर्ण बनाने का कार्य करती है।

अत: स्वाधीनता आंदोलन को अधिक सफल और सार्थक बनाने के लिए यह जरूरी था कि लोग अपनी इस धार्मिक संकीर्ण मानसिकता की शধৃखलाओं को छोडें इसलिए प्रेमचन्द ने इस संकौर्ण राष्ट्रवाद को केन्द्र बनाकर ‘आहुति’, ‘ब्रह्म का स्वांग’ जैसी कहानियां लिखीं,

जिसके माध्यम से प्रेमचन्द यह दिखा रहे थे कि एक सम्पन्न वर्ग स्वाधीनता आंदोलन में भी राष्ट्रीयता के नाम पर अपनी रोटी सेंक रहा था और वह अपने वर्चस्व को कायम रखने की गंभीर साजिशें में भी लिप्त था, किन्तु ऐसे संशयों के बावजूद भी प्रेमचन्द स्वाधीनता तथा राष्ट्रवाद का हरसंभव समर्थन करते हुए प्रतीत होते हैं।

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3. प्रेमचंद किसान समस्या को किस प्रकार देखते थे? उदाहरण सहित उत्तर वीजिए।

उत्तर

नहीं, प्रेमचन्द की अधिकांश काहानियों में किसानों/मजदूरों का सत्ता के प्रति प्रतिरोध नजर नहीं आता है। ‘नशा’ कहानी में जमींदार का पुत्र ईश्वरी अपने एक निर्धन मित्र को रास्ते में अपने घर समझाता हुआ यह कहकर ले जाता है कि-

“लेकिन भाई एक बात का ख्याल रखना। अगर वहां जमींदारों की निन्दा की तो मुआमिला बिगड़ जाएगा और मेरे घरवालों को बुरा लगेगा। वह लोग तो असामियों पर इसी दावे से शासन करते हैं कि ईश्वर ने असामियों को उनकी सेवा के लिए ही पैदा किया है।

आसामी भी यही समझता है। अगर उसे सुझाव दिया जाए कि जमीदार और आसामी में कोई मौलिक भेद नहीं है, तो जरमादारों का कहीं पता न लगे।”

इसी प्रकार के “नमक का दारोगा’ कहानी में पडित आलोपीदोन के बारे में भी यह लिखते हुए व्यक्त करते हैं- पण्डित अलोपीदीन इस इलाके कै सबसे प्रतिष्ठित जर्मीदार थे। लाखों रुपये की लेन- देन करते थे। इथर छोटे से बड़े कौन ऐसे थे, जो उनके ऋणों न हॉ। व्यापार भी लम्बा चौड़ा था….अग्रेजी अफसर उनके इलाके में शिकार खेलने जाते और उनके मेहमान होते।”

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इस प्रकार प्रेमचनद किसान या मजदूर सता या अधिकार प्राप्त लोगों का सम्मान या इन्जत करते हुए प्रत्यकष तो दिखाते हैं, लेकिन उनके शोषण या अत्याचार का उल्लेख मात्र करके इसे हो अपनी नियति मान लेने की मानसिकता को उजागर करते हैं।

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ये लोग इन सत्ताधारियों (जमींदार, पंडित, साहूकार आदि) के प्रति विद्वोह था आक्रोश को व्यक्त नहों करते हैं। किसानों से जमींदार अपनी इच्छानुकूल नजराना वसूलते हैं और न दे पाने की स्थिति में किसान अपनी जमीन से डाथ धो बैठता है, तो भी किसानों में प्रतिरोध की भावना या विद्रोह का स्वर मुखरित नहीं होता है।

नजराना जमींदारों द्वारा किसानों के शोषण का नया तरीका है। इसका वर्णन करते हुए एक किसान जगदत सिंह ने अवध में प्रचलित शोषण के इस हथियार के बारे में उल्लेख किया है-अवध की भोली प्रजा यह पुकाकर कहन कहती है कि काश्तकारों से जमींदार खेत छोन लेते हैं । किसान जब खेती के लिए जमीौंदारों के पास जाते हैं, तब जमींदार किसानों से पुछते हैं कि कितने रुपये नजर दोगे?

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किसान कहते हैं कि जो आप फरमावें। इस प्रकार अधिक रुपये नजर लेकर किसी दूसरे किसान पर बंदखली लगा कर जमीन छीनकर, जमींदार उस किसान को जमौन दे देते हैं। कुछ वर्षों के बाद दूसरे से जमीन छौनकर, तीसरे किसान को दे देते हैं और नजर तथा मालगुजारी उससे अधिक तय करते हैं।किसान की मृत्यु के पश्वात जमीन का किसान के लड़के-बच्चों से छीन लिया जाना भी आधर्म है।

इस प्रकार का अन्याय बाराबंकी, लखनक, उन्नाव, रायबरेली आदि में बहुतायत से বিखलाई पड़ता है। इस प्रकार से इस नजराने को चुकाते – चुकाते किसानों को आत्महत्याएं करनी पड़ी या अपनी बेटियां भी बेचनी पड़ी थीं। फिर भी किसानों ने इस प्रथा के विरूद्ध कोई विरोथ नहीं किया। ‘विध्वंस’ कहानी में ईश्वरी अपने एक निर्धन मित्र को रास्ते में अपने घर समझाता हुआ यह कहकर ले जाता है कि-“लेकिन भाई एक बात का ख्याल रखना।

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अगर वहां जमीदारों की मनाई की तो मुआमिला विगड़ जाएगा और मेरे घरवालों को बुरा लगेगा। वह लोग तो असामियों पर इसी दावे से शासन करते हैं कि ईश्वर ने असामियों को उनकी सेवा के लिए ही पैदा किया है। आसामी भी यही समझता है। अगर उसे सुझाव दिया जाए कि जमींदार और आसामी में कोई मौलिक भेद नहीं है, तो जमीदारों का कही पता न लगे। “

इसी प्रकार के ‘नमक का दारोगा’ कहानी में पडित आलोपौदीन के बारे में भी यह लिखते हुए व्यक्त करते हैं- “पण्डित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित जर्भीदार थे। लाखों रूपये की लेन- देन करते थे। इथर छोटे से बड़े कौन ऐसें थे, जो उनके ऋणी न हों। व्यापार भी लम्बा- चौड़ा था.. अग्रेजी अफसर उनके इलाकें में शिकार खेलने जाते और उनके मेहमान होते। “

इस प्रकार प्रेमचन्द किसान या मजदूर सत्ता या अधिकार प्राप्त लोगों का सम्मान या इन्जत करते हुए प्रत्यक्ष तो दिखाते हैं, लेकिन उनके शोषण या अत्याचार का उल्लेख मात्र करके इसे हो अपनी नियति मान लेने की मानसिकता को उजागर करते हैं। ये लोग इन सत्ताधारियों (जमीदार, पडित, साहूकार आदि) के प्रति बिद्रोह या आक्रोश को व्यक्त नहों करते हैं।

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किसानों से जमींदार अपनी इच्छानुकूल नजराना वसूलते हैं और न दे पाने की स्थिति में किसान अपनी जमीन से हाथ धो बैठता है, तो भी किसानों में प्रतिरोध की भावना या विद्रोह का स्वर मुखरित नहीं होता है।

नजराना जमींदारों द्वारा किसानों के शोषण का नया तरीका है। इसका वर्णन करते हुए एक किसान जगदत्त सिंह ने अवध में प्रचलित शोषण के इस हथियार ये यारे में उल्लेख किया है- अवंध की भोली प्रजा यह पुकारकर कहती है कि काश्तकारों से जमीदर खेत छोन लेते हैं।

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किसान जब खेती के लिए जमौदारों के पास जाते हैं, तब जमींदार किसानों से पूछते हैं कि कितने रुपये नजर दोगे? किसान कहते हैं कि जो आप फरमावें। इस प्रकार अधिक रुपये नजर लेकर किसी दूसरे किसान पर बेदखली लगा कर जमीन छोनकर, जमींदार उस किसान को जमीन दे देते हैं।

कुछ वर्षों के बाद दूसरे से जमीन छीनकर, तीसरे किसान को दे देते हैं और नजर तथा मालगुजारी उससे अधिक तय करते हैं.. किसान की मृत्यु के पश्वात जमीन का किसान के लड़के-बच्चों से छीन लिया जाना भी अधर्म है।

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प्रकार का अन्याय बाराबंकी, लखनक, उनाव, रायबरेली आदि में बहुतायत से दिखलाई पड़ता है। इस प्रकार से इस नजराने को चुकाते-चुकाते किसानों को आत्यहत्याएं करनी पड़ं या अपनी बैट्ियां भी बेचनी पड़ी थौं।

फिर भी किसानों ने इस प्रथा के विरुद्ध कोई विरोध नहीं किया। “विध्वंस’ कहानौ में भी किसान ‘वेगार प्रथा’ के बिरुद्ध कोई विरोध करते नजर नहीं आते हैं तथापि अपवाद स्वरूप इस कहानी की नायिका भुगनी बेगार में जमींदार उदयभान पांडे का चना समय पर नहीं भून पाती है, तो जर्मीदार इसे अपना अपमान मानते हुए उसकां भाड़ नष्ट् करवा देता है।

तब भुगनी उसे फिर बनाने की कोशिश करती है तो जमींदार उसके नाद पर लात चलाता है, तो वह लात बुद्धिया भुगनी की कमर पर पड़ती है।

इससे आहत होकर बुढ़िया झुकने की बजाय जमींदार के समक्ष प्रतिरोध करती हुई तनकर खड़ी हो जाती है और इसी समय गांव छोड़कर चले जाने के जमींदार के आदेश की अवहेलना करती हुई उसे चुनौती देती हुई कहती है-” क्यों छोड़कर निकल जाऊ? वारह साल खंत जोतने से आसामी भी काश्तकार हो जाता है। मैं तो झॉप़ झोपड़ी में बूढ़ी हो गई। सास- ससुर और उनके बाप- दाद इसी झॉपड़ी में रहे। अब उसे यमराज को छोड़कर और कोई मुझसे नहीं ले सकता। “

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यद्यपि इस कहानी के संदर्भ में आने वाला यह प्रसंग यहां पर तो उपयुक्त प्रतीत होता है कि भुगनी तनकर खड़ी हो गई, लेकिन बहुधा ऐसा होता नहीं, क्योंकि जमींदारों के शोषण तथा अत्याचार से किसानों के साथ-साथ हो नाई, धोबी, जुलाहे, गड़रिये आदि भी त्रस्त थे, लेकिन इसके विरूद्ध कोई आवाज उठाता हुआ प्रतीत नहीं होता है।

सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध करने की शक्ति की कमी की पृष्ठभूमि में किसानों में एकता का अभाव प्रमुख कारण है, जिसके कारण ही वे सता के प्रति विरोध में सफलता प्राप्त नहीं कर पाते हैं।

इसलिए ‘गोदान’ में भोला कहता भी है-“हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उस पर भी एक-द्सरे को देख नहीं सकते। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो जफा कैसे करें, प्रेम तो संसार से उठ गया।”

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इस प्रकार प्रेमचन्द की कहानियों में किसानों/ मजदूरों का सत्ता के प्रति प्रतिरोध नजर प्रायः नहीं आता है।

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4. ‘अलोचकों की दृष्टि में प्रेमचंद’ विषय पर एक निबंध लिखिए।

उत्तर-

प्रेमचंद, भारतीय साहित्य के महान लेखकों में से एक हैं, जिनकी रचनाओं ने समाज के विभिन्न पहलुओं को सुनहरी रेखों में चित्रित किया है। उनकी लेखनी की शक्ति, समाज के मुद्दों को गहराई से छूने की क्षमता और उनकी कहानियों की गाहेराई ने आलोचकों की दृष्टि में भी एक अद्वितीय स्थान बनाया है।

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प्रेमचन्द विवादों के घेरे में -प्रेमचंद हिन्दी कथा साहित्य के महत्वपूर्ण रचनाकार हैं, जिनकी कहानियों का विषय -वैविध्य आलोचकों के मध्य एक गंभीर बहस का मुद्दा रहा है। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह जो का प्रेमचन्द की कहानियों के संबंध में कहना है, “1905-1906 के बंग- भंग से लेकर 1936 तक, जब प्रभचन्द की मृत्यु हुई, 20 वर्षों के भारतीय जीवन की धडकन, उसका दुख, उसका दर्द अपनी समस्त गहराई के साथ, अपनी समस्त व्यापकता भी समेत गया।

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अगर किसी एक भारतीय लेखक में आप हुढ़ना चाहे, तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर के रहते हुए, शरतचन्द्र के रहते हुए., सुब्रह्ण्यम भारती के रहते हुए, वि.स. खाण्डेलकर के रहते हुए, कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी के रहते हुए, डॉ. मुहम्मद इकबाल के रहते हुए भी मैं प्रेमचन्द का नाम लेना चाहुंगा, क्योौँकि यही एकमात्र साहित्यकार हैं, जिनके साहित्य में स्वाधौनता संग्राम की अमर गाथा अपने पूरे ब्योरे के साथ कही गई है।

प्रेमचंद की रचनाओं का एक महत्वपूर्ण पहलु यह है कि वे समाज की समस्याओं और आम आदमी के जीवन की मुद्दों को सामाजिक दृष्टि से दर्शाते हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक, राजनीतिक, और मानविक मुद्दे सुस्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं। वे आम जनता के दर्द-दुख, संघर्ष और आक्रमण को वाक्य-वाक्य में प्रस्तुत करते हैं, जिससे पाठकों को गहरा प्रभाव होता है।

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मैं कहना चाहुंगा कि इन 30 वर्षों के भारतीय स्वाधीनता संग्राम की अमरगाथा अगर किसी एक साहित्यकार के साहित्य में आप देखना चाहें, तो प्रेमचन्द के साहित्य में देखें। यद्यपि नामवर सिंह जी का यह कथन प्रेमचन्द के महत्व को विशिष्ट रूप से प्रतिपादित करता है, किन्तु फिर भी हिन्दी के सभी आलोचकों के द्वारा इस कथन पर एकमत न होने के कारण प्रेमचन्द आरंभ से ही विवादों के घेरे में आ गये।

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जिन पर एक समर्थ रचनाकार होने के सभी गुण होने के बावजूद एक बड़े कलाकार की क्षमता न होने के आरोप भी लगाए गये थे।

इन आरोपों का उत्तर देते हुए प्रसिद्ध आलोचक जनार्दन प्रसाद झा द्विज ने कहा था “अपनी कृतियों में अपने समय का सर्वाग सुन्दर चित्र उतारना यदि साहित्यिक अक्षमता है तो इसी अक्षमता के नाते प्रेमचन्द जी भारतीय कथा साहित्य के संसार में आज अपने समय के सबसे विश्वस्त प्रतिनिधि कलाकार कहे जा सकते हैं।”

जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ का यह वक्तव्य स्पष्ट कर देता है कि उस समय प्रेमचन्द की प्रशंसा के साथ-साथ ही उन पर दूसरों की कहानियों की विषय-वस्तु की नकल करने तथा हिन्दू (विशेषकर ब्राह्मण विरोधी) होने जैसे आरोप भी आलोचकों द्वारा लगाए हैं, जिनमें श्री रामकृष्ण शुक्ल ‘शिलिमुख’ ने ‘सुधा’ पत्रिका में प्रेमचन्द की ‘विश्वास ‘ कहानी की समीक्षा करते हुए उसमें हाल केन के ‘इटरन्नल सिटी’ का सारांश देने,

तथा मोपासा की कहानी “नेकलेस’ की नकल करने का आरोप लगाया था, तो “प्रेमचन्द की कला’ नामक लेख में उन्होंने लिखा है “ब्राह्मणों के सुधार का प्रेमचन्द जी ने ऐसा ठेका लिया है कि एक सेवा- सदन को छोड़कर सर्वत्र ही ब्राह्मण निन्दनीय और. उपहास्य ठहयाए गए हैं और उनको जूते लगवाए गए हैं।

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यद्यपि नामवर सिंह जी का यह कथन प्रेमचन्द के महत्त्व को विशिष्ट रूप से प्रतिपादित करता है, किन्तु फिर भी हिन्दी के सभी आलोचकों के द्वारा इस कथन पर एकमत न होने के कारण प्रेमचन्द आरंभ से ही विवादों के घेरे में आ गये, जिन पर एक समर्थ रचनाकार होने के सभी गुण होने के बावजुद् एक बड़े कलाकार की क्षमता न होने के आरोप भी लगाए गये थे।

इन आरोपों का उत्तर देते हुए प्रसिद्ध आलोचक जना्दन प्रसाद झा द्विज ने कहा था “अपनी कृतियों में अपने समय का सर्वाग सुन्दर चित्र उतारना यदि साहित्यिक अक्षमता है तो इसी अक्षमता के नाते प्रेमचन्द जी भारतीय कथा साहित्य के संसार में आज अपने समय के सबसे विश्वस्त प्रतिनिधि कलाकार कहे जा सकते हैं।

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जना्दन प्रसाद झा “द्विज’ का यह वक्तव्य स्पष्ट कर देता है कि उस समय प्रेमचन्द की प्रशंसा के साथ-साथ ही उन पर दूसरों की कहानियों की विषय-वस्तु की नकल करने तथा हिन्दू (विशेषकर ब्राह्मण विरेधी) होने जैसे आरोप भी आलोचकों द्वारा लगाए हैं, जिनमें श्री रामकृष्ण शुक्ल “शिलिमुख’ ‘सुधा’ पत्रिका में प्रेमचन्द की ‘विश्वास’ कहानी की समीक्षा करते हुए उसमें हाल केन के ‘इटर्नल सिटी’ का सारांश देने तथा मोपासा की कहानी “नेकलेस’ की नकल करने का आरोप लगाया था।

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इससे प्रेमचन्द की कला’ नामक लेख में उन्होंने लिखा है “ब्राह्मणों के सुधार का प्रेमचन्द जी ने ऐसा ठेका लिया हैं कि एक सेवा-सदन को छोड़कर सर्वत्र ही ब्राह्मण निन्दनीय और उपहास्य ठहराए गए हैं और उनको जूते लगवाए गए हैं।

प्रेमचंद के रचनाकारी कौशल की बात करें, तो उनकी कहानियाँ सादगी और सामान्यता में छिपे महत्वपूर्ण संदेशों को आसानी से पहुंचाती हैं। उनका भाषा और संवाद आम जनता की भाषा को पकड़ते हैं, जिससे पाठकों का सहज सम्बंध बनता है।

प्रेमचंद का लेखन कला केवल कहानियों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने नाटक, उपन्यास, और निबंधों में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिलाया।

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समापन के रूप में, ‘आलोचकों की दृष्टि में प्रेमचंद’ एक महान और सुप्रसिद्ध लेखक के साथ जिस तरह से समर्थन और आलोचना का आदर करते हैं, वह दिखाता है कि उनका योगदान साहित्य के क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। प्रेमचंद के काम को आलोचकों की दृष्टि से देखने से हम उनके श्रेष्ठ रचनाओं का और अधिक मूल्यांकन कर सकते हैं और उनके द्वारा उठाए गए समाज के मुद्दों को बेहतर समझ सकते हैं।

इसी तरह, प्रेमचंद का लेखन आलोचकों के लिए एक अमूल्य धरोहर है, जिसने भारतीय साहित्य को उच्चतम गुणवत्ता की ओर बढ़ाया है और समाज के विकास के प्रति उनके संवेदनशीलता को प्रमोट किया है।

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इसके आधार पर यह स्पष्ट है कि उस युग में प्रेमचन्द पर केवल साहित्यिक आलोचना ही नहीं हो रही थी बल्क ‘मोटेराम शास्त्री’ नामक कहानी को लेकर लखनऊ के एक वैद्य महाराज ने उन पर यह कहकर मानहानि का दावा भी दायर किया कि यह कहानी उनके ऊपर ही प्रेमचन्द द्वारा लिखी हुई है।

यद्यपि प्रेमचन्द इस मुकटमे से तो बरी हो गए, लेकिन हिन्दी आलोचना जगत के केनद्र में फिर भी विद्यमान रहे थे तथा उनकी निन्दा इस बात को लेकर होती रही थी कि उनमें ब्राहयण विरोधी एक स्थायी भाय विद्यमान है, जो उचित नहीं है।

हिन्दी आलोचक जगत में दलित संवेदना से संबंधित प्रेमचन्द की कहानियों में ब्राह्मण समर्थक तथा दलित विरोधी होने के आरोप लगाने के साथ-साथ ही इसके विरोधस्वरूप ‘रंगभूमि’ की प्रतियां भी जलाई गई और हिन्दी जगत की विडबना है कि ‘सद्गाति’ को लेकर आलोचकों को उनमें एक ओर ब्राह्मण विरोधी रूप दिखाई देता है तो दूसरी ओर दलित विरोधी रूप भी।

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ये इस प्रकार की आलोचनाएं हैं, जिससे ग्रेमचन्द जैसे कथासम्राट के भावों को समझना मुरिकल होगा। वस्तुतः प्रेमचन्द अपनी कहानियों के आधार पर समाज में व्याप्त बुराई को उजागर कर रहे थे। प्रेमचन्व की कहानियां और रामविलास शर्मा जैसा कि सर्वविदित है, प्रेमचन्द को अपने जीवन-काल में आलोबकों की कटु आलोचना का शिकार होना पड़ा। आलोचना जगत् में उनके प्रशंसक कम और निंदक अधिक हो गए थे।

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ऐसे में स्वयं आलोचना के क्षेत्र में उतरे। लेकिन इन निंदक आलोचकों के बीच कुछ ऐसे समीक्षक भी सामने आए जिन्होंने प्रेमचन्द के साहित्य का सम्यक मूल्यांकन किया और उनकी प्रतिभा को साहित्य जगत् में उजागर किया। हालॉकि सूरज को दीप दिखाने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन प्रकाशचन्द्र गुप्त एवं डॉ. रामविलास शर्मा ने उनके मूल्यांकन को नये आयाम प्रदान किए।

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डॉ. शर्मा उन आलोचकों में महत्तपूर्ण आलोचक थे जिन्होंने प्रेमचन्द के साहित्य का माक्सवादी अवधारणा के अनुसार सम्यकू मूल्यांकन कर उन्हें नई ऊँचाई पर बिठा दिया। हालाकि इस प्रकार की अवधारणा के अनुसार उनके साहित्य का मूल्यांकन करना आसान कार्य न था।

अपनी ‘प्रेमचन्द’ पुस्तक के ‘आदर्श और यथार्थवाद’ निबंध में आदर्श और यथार्थ के द्ंध का प्रस्तुतीकरण करते हुए डॉ. शर्मा ने बताया कि प्रेमवन्द का आन्तरिक झुकाव यथार्थवाद की ओर था।

इसी पुस्तक के अतिम चार अध्यायों में प्रेमचन्द के उपन्यासों में समाज के विविध वर्गों का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया है। तत्पश्चात्उ नके साहित्य में स्वाधीनता आंदोलन के विविध रूपों का विवरण दिया है और दिख्खाया है वकि प्रेमचन्द के साहित्य में समाज के दलित वर्ग के प्रति कितनी गहरी संवेदना थी। प्रेमचन्द की कला’ नामक अध्याय में डॉ. शर्मा ने प्रेमचन्द के साहित्य की शिल्पगत विशेंपताओं एवं भाषा-शैली का विवेचन किया हैं ।

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प्रेमचन्द’ नामक पुस्तक के माध्यम से डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रेमचन्द की आलोचना को एक नयी ऊंचाई पर पहंचाते हुए उनकी कहानियों के बारे लिखा था कि प्रेमचन्द के उपन्यासों और कहानियों के आधार पर प्रेमचन्द की आलोचना को एक नए मुकाम पर पहुंचाने का कार्य रामविलास शर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्रेमचन्दব’ ने किया, जो सन 1941 ई. में प्रकाशित हुई।

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अपनी इस पुस्तक में प्रेमचन्द की कहानियों पर विचार करते हुए उन्होंने कहा, “कहानियों मं शब्द चित्रों के साथ वह कथा-तत्व का पूर ध्यान रखते हैं और हास्य और व्यंग उनके चित्रण को संजीव बनाते हैं।

वार्तालाप में स्वाभाविकता ऐसी होती है कि जिस अेणी का व्यक्ति होता है, वैसी ही उसकी भाषा भी होती है। प्रेमच्द के पात्रों की भाषा एक अध्ययन करने की वस्तु है; देहाती, हिन्दी, उर्द, अग्रेजी और इनके मिश्रण से बनी अनेक प्रकार की भाषा-शैलियां एक युग के सास्कृतिक आदान- प्रदान का इतिहास है।

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‘कफन’ के दलित पात्रों से लेकर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के बीते नवाबों तक सैकड़ों श्रेणियों के पात्रों का उनकी स्वाभाविक भाषा में बातचीत कराना समाज के अदभूत ज्ञान का साक्षी है।

ऐसी क्षमता संसार के महत्तम साहित्यिकों में पाई जाती है। प्रेमचन्द का गद्य देहाती भाषा का दड़ध भूमि पर निर्मित हुआ है; कहावतें, मुहावरे, उपमाएं, उन्होंने वहीँ से सीखी हैं, भाषा की सरलता के लिए भी उन्हें वहाँ से प्रेणा मिली है.देश के गरोबों के प्रति उनको सहमुभूति, उनसे उनके प्रगाढ़ परिवय और उनवके चित्रण की सच्चाई ने उन्हें सफल कलाकार बनाया है। “

प्रेमचन्व और परवर्ती आलोचना आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने बीसवों शाताब्दी के छठे दशक में’साहित्य’ तथा ‘आलोचना-3’ में प्रकाशित लेखों तथा सम्पादकीय टिप्पणियों के आधार पर प्रेमचन्द विषयक आलोचना के क्षेत्र को एक नया आयाम प्रदान करते हुए प्रेमचन्द को मध्यवर्ग का लेखक घोषित करते हुए कहा,

“यद्यपि प्रेमचन्द ने रानी सारंधरा और ‘कफन’ जैसी उत्कृष्ट् कहानियां भी लिखी, फिर भी निर्विवाद है कि उन्होंने अधिकतर मध्यवर्ग को ही अपनी कहानियों का आधार बनाया है और उनकी कहानियां आसानी से ‘जवन के खंड ‘ बन गए हैं। “

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अन्य महत्वपूर्ण आलोचक नन्ददुलारे वाजपेयी ने अपनी एक किताब ‘प्रेमचन्द : साहित्यिक विवेचन’ में प्रेमचन्द की कहानियों तथा उपन्यासों का अलग-अलग विवेचन प्रस्तुत करते हुए अनेक स्थानों पर उनके कला और भाव पक्ष को लेकर कद़ी आलोचना करते हुए उसके निचोड़ध को प्रस्तुत करते हुए यह माना था कि प्रेमचन्द की कहानियां प्रगातिशील, समानहित तथा समाजोत्थान की भावना से प्रेरित हैं।

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इनके मूल में आशावाद, मानव महत्व के प्रति विश्वास और समाज विरोधी शक्तियों के विरुद्ध कठोर व्यंग्य भरा हुआ है तथा प्रेमचन्द की आरभिक कहानियों पर आदरशवाद के हावी होने की बात को भी वाजपेयी जी ने उजागर किया है।

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इसी प्रकार अन्य आलोचकों द्वार प्रेमचंद पर उंगली उठाए जाने पर नामवर सिंह ने लिखा था कि यद्यपि प्रेमचन्द की कहानी कहने का डांचा तो फारस की पुरानी कहानियों के अनुरूप था, लेकिन उनमें विद्यमान भाव तथा विषय-वस्तू नवीन है।

अत: पुरानी चीज में नयी भावना और नये अंदाज के प्रस्तुतीकरण को ही हम आदर्शवाद मानते हैं और इन्हीं के आधार पर प्रेमचन्द नई देशभक्ति और नई राष्ट्रीय भावना को अपनी कहानियों में लाने के लिए प्रयल्शील हैं।

नामवर सिंह के इस कथन की सत्यता का आभास प्रेमचन्द की उत्तरोत्तर कहानियों के विकास में नजर आता है इसीलिए प्रायः नामवर सिंह से प्रमचन्द के सभी हिन्दी आलोचक एकमत दिखाई देते हैं।

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5. ‘गुल्ली डंडा’ कहानी का विश्लेषण करते हुए उसमें अभिव्यक्त जीवन मूल्य को रेखांकित कीजिए।

उत्तर

प्रेमचंद एक व्यापक जीवन दृष्टि रखने वाले मानवधर्मी सामाजिक कथाकार हैं, जिन्होंने जीवन को अपने दृष्टिकोण से देखा तथा परखा था। उनका मानना था-“मनुष्य-जाति के लिए मनुष्य ही सबसे विकट पहेली है। वह खुद अपनी समझ में नहीं आता। किसी न किसी रूप में वह अपनी हा आलोचना किया करता है- अपने हीं मनोरहस्य खोला करता है। मानव-संस्कृति का विकास ही इसलिए हुआ है कि मनुष्य अपने को समझे।”

प्रकृति के अनुसार बचपन मनुष्य जीवन की वह अवस्था है जिसमें प्रेम और अपनत्व की स्वाभाविक भावना होती है। जब बच्चा बड़ा होता है और सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है तो सबसे प्रेम करने और सबको समान समझने की भावना समाप्त हो जाती है।

मनुष्य और मनुष्य के बीच ऊँच-नीच, छोटापन-बड़ापन आदि भेदभाव और असमानता सामाजिक पारिस्थितियों की देन है। जो बच्चे साथ खेलते-कूदते बड़े होते हैं, उनमें बचपन में जो समानता और अपनत्व होता है, वह बड़े होने पर समाप्त हो जाता है।

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कोई बड़ा होने पर किसी बड़े पद पर नियुक्त होकर उच्च प्रतिष्ठा और आय का स्वामी हो जाता है वह स्वयं को दूसरों से बड़ा मानता है और अहंकार से भर उठता है तो दूसरे भी उसके पद-प्रतिष्ठा से प्रभावित होकर उसको अपने से बड़ा और आदर का पात्र मानते हैं। चाहे यह आदर भाव उनकी मजबूरी ही हो।

‘गुल्ली डंडा’ कहानी का मुख्य पात्र थानेदार का बेटा था और उसका मित्र गया एक गरीब चर्मकार था। बचपन में दोनों में ऊँच-नीच का अन्तर नहीं था। कथानायक बड़ा होकर इंजीनियर बन गया। वह अपने बाल सखा गया के साथ गुल्ली-डंडा खेलने गया परन्तु अपने मित्र गया के खेल में उसको वह दक्षता नहीं दिखाई दी जो बचपन में थी।

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उसे लगा कि उसकी अफसरी दोनों के बीच दीवार बन गई थी। गया उसके साथ खेल नहीं रहा था, उसका मन रख रहा था और उसकी हर धाँधली को बिना विरोध किए सहन कर रहा था। उसके पद और प्रतिष्ठा ने दोनों में असमानता का भाव उत्पन्न कर दिया था।

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अत: कथाकार प्रेमचंद का यह कथन उनकी उस रचनात्मक चेतना की मूल प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है, जिसका मुख्य उद्देश्य नयी जीवन-विधि की तलाश है तथा यह,जीवन-विधि का नयापन एक प्रकार की नयी मूल्य-व्यवस्था की माँग करता है।

अत: कहानी में रचनाकार ने जिन परिवर्तनों की आशा व्यक्त की है, उन्हें देखते हुए हमें कहानी को समझने में सहायता मिलती है। कहानी की कथावस्तु के साथ ही जब हम दूसरे खंड में उस मोड़ पर पहुँचते हैं, जहाँ से यह ‘गुल्ली डंडा’ कहानी अपने मूल मंतव्य को अपेक्षाकृत अधिक खुले रूप में सामने रखती है।

इसके अंतर्गत चिंता के तबादले के कारण कथावाचक को बचपन बिताने वाली जगह छोढ़नी पड़ती है तथा नई जगह जाने की सखुशी इसी रूप में हमजोलियों से बिसुड़ने के दुःख पर भारी पड़ती है और बालक तब अपने साथियों पर धौस जमाने के लिए अपने एक अनदेखे तथा नये स्थान के बारे में अनेक आधारहीन कल्पनाएँ करने लगता है, जिसके आधार पर साथियों के बीच वह उस नयी जगह को कल्पना के बल से संपूर्णता में रच डालता है। यद्यपि एक प्रकार से बास्तविक हानि की भरपाई करते हुए कल्पित

अतिरिक्त लाभ को प्राप्त करने की अभिलाषा भी चरम सीमा पर होती है, जिसे प्रेमचंद अपने चिरपरिसचित स्वभाव के अनुरूप जीवन के सच का एक भाग पाठकों के सामने लाते हैं। यहाँ पर बच्चे का सच यह है कि वह वर्तमान समय में अपने साथियों और परिचित परिवेश से अलग हो रहा है तथा वह इस स्थिति में मजबूर है और यहाँ मजबूरी ही उसका वास्तविक सच है।

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अतः इस मजबूरी भरे सच का सामना करने के लिए वह अपने विचारों के आधार कल्ना-रचित एक प्रकार के चमत्कारिक के आभास सहारा लेता है। जहाँ पर हमारा (बड़ों का) सच तो देश की गुलामी और बदहाली है।

फिर भी इसकी उपेक्षा करते हुए इस अंग्रेजी रहन-सहन और खेल-कूद, आचार-विचार को अपनाकर जिस काल्पनिक मायालोक का निर्माण कर रहे हैं, प्रेमचंद, उसी मायालोक को सत्य के धरातल पर लाकर खड़ा कर देते हैं।

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बच्चे झठ को सच बनाने की कल्पना करते हैं, तो हम इसके विपरीत सच को झूठ बनाने के लिए कल्पना का इस्तेमाल करते रहे हैं. इसीलिए प्रेमवंद कहते हैं, “बच्चों में मिथ्या को सत्य बना लेने की वह शक्ति है, जिसे हम, जो सत्य को मिध्या बना लेते हैं, क्या समझैंगे।”

इस प्रकार एक साधारण समझ जाने (गुल्ली डंडा) खेल के आधार पर प्रमचंद ने मानव-व्यक्तित्व के व्यक्तिगत के साथ-साथ ही उसके अनेक सामाजिक पहलुओं कोभारतीय हिन्दी समाज के उस ऐतिहासिक संदर्भ के रूप में प्रकट किया है, जो राष्ट्रीय चेतना की विकास की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील महत्वपूर्ण है।

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अतः इस कहानी में व्यक्त की गई धारणाएँ एवं भावनाएँ, उस समय के समाज के साथ साथ ही आज के समय तथा समाज के लिए भी एक सार्थक विकास तथा प्रासगिकता को भी उजागर करती हैं।

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6. ‘सुजान भगत’ कहानी का विश्लेषण करते हुए उसका मंतव्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-

कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानियों बीसर्वीं शतब्दी के भारत की प्रामाणिक तस्वीर है, जिसके अंतर्गत एक कहानीकार के रूप में प्रेमचंद ने युगीन संदभोँ तथा उससे बाहर निकलकर मानवीय संवेदना तथा मानव मूल्यों की स्थापना करते हुए सामाजिक यथार्थ को अत्यधिक महत्तव देते हुए आदर्श की प्राप्ति के लिए भी प्रयासरत थे।

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प्रेमचंद क्योंकि बदलते समय के एक सजग कलाकार थे, इसलिए उन्होंने लिखा था-इन्हाँ कारणों से ये नये पक्ष में खड़े होकर कहानी के एक ऐसे जातीय ढाँचे का निर्माण करना चाहते थे, जिसमें सरलता हो, सजगता हो, प्रेम हो, करुणा हो तथा इन सबमें अपनी मिट्टी की सॉधी महक हो।

“पंच परमेश्वर’, ‘बड़े घर की बेटो’ ‘अलग्योझा’ जैसी आदर्शवाद से प्रेरित कहानियों की शृंखला में ‘सुजान भगत’ नामक कहानी को भी रखा जा सकता है। प्रेमचंद युगीन ‘राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन’ महात्मा गाँधी की देन था, जिसका यथार्थ किसान तथा मजदर के जीवन संघर्ष की परिणति के रूप में व्यक्त होता है, जिसमें व्यक्त आदर्श की प्रवृत्ति यथार्थ की ओर उन्मुख होती हुई प्रतीत होती है, जिसके अंतगत आदर्श तथा यथार्थ के अंतर्विरोध के स्थान पर तत्कालीन त्रासद समाज को सम्रगता से देखा गया है इसीलिए यह यथार्थवादी दृष्टि ‘पूस की रात’, ‘सद्गाति’ व ‘कफन’ जैसी कहानियों में भी परिलक्षित होती है।

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‘सुजान भगत’ नामक कहानी चरित्र प्रधान होने के साथ-साथ यथार्थवाद तथा आदर्श से प्रेरित मानी जा सकती है, जिसका केनद्रीय पात्र ‘सुजान है तथा जो अपने परिश्रम तथा अदम्य शक्ति के बल पर विकासात्मक आदर्शवाद के प्रतीक के साथ- साथ अपने अधिकारों की रक्षा करते हुए युवा पीढ़ी की स्वार्थपरता तथा उसकी अंह भावना को भी नीचा दिखा देने का सामर्थ्थ रखता है।

‘पंच परमेश्वर’ कहानी के अनुरूप ही ‘सुजान भगत’ में भी पात्रों के हृदय परिवर्तन की भावना उजागर की गई है, लेकिन इस ‘सुजान भगत’ कहानी में सुजान के हृदय परिवर्तन का मुख्य कारण स्वार्थ लिप्सा तथा अपने अधिकारों की पुनः प्राप्ति तथा कर्त्त्य बोध की भावना।

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प्रेमचंद अपने समय के ऐसे मर्मज्न रचनाकार थे, जिन्होंने राष्ट्रीय परिवर्तन के प्रति जागरूकता दर्शाते हुए इस आदोलन की सफलता की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए थे। उनका मानना था कि समाजवादी विवारों के प्रभाव के बावजूद स्वाधीनता आंदोलन का मुख्य नेतृत्व अपने वैचारिक अंतरविरोधों से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकता है।

“सुजान भगत’ नामक कहानो ऐसे बृहत्तर कृषक समाज के लोगों की कहानी है, जो किसानों को उनके अधिकारों के प्रति सतर्क रहने की शिक्षा भी प्रदान करती है। प्रेमसचंद क्योंकि तत्कालीन सामंती समाज व्यवस्था में व्याप्त गाँवों की पिछड़ी दशा, ग्रामीण संरचना, जाति-प्रथा, गरीब, शोषण, अत्याचार आदि जैसी परिस्थितियों के कारण अत्यधिक चितित रहते थे।

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अत: ‘सुजान भगत’ कहानी इस दृष्टि से अपनी संरचना द्वारा एक मुक प्रामाणिक दस्तावेज बनकर उभरता है, जिसमें नीति, धर्मं, प्रेम, तिरस्कार, संवेदना तथा दंद भी अपने यथार्थ रूप में विद्यमान है।

कहानी का आशय ‘सुजान’ एक उदार तथा परिश्रमी किसान था, जिसके परिश्रम से उसकी खेती में भरपूर फसल होती थी और इसके कारण हो उसके पास कुछ धन-सम्पत्ति आ जाने के बाद उसकी प्रवृत्ति धार्मिक हो जाती है। उसके घर पर साधु-संतों, हाकिम-अफसरों का ताँता लगा रहता था। यद्यपि सुजान के यहाँ भरपूर दूध होता था, किंतु वह एक बूंद भी ग्रहण नहीं करता था, उसका स्वभाव अत्यन्त विनम्र हो गया था, क्योंकि वह यह नहीं चाहता था कि कोई उसे धन का घमंड होने का उलाहना दे।

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उसने गाँववालों की पानी की समस्या के समाधान हेतु एक कुएँ का निर्माण भी कराया था। सुजान जब एक बार ‘गया’ तर्पण करने की इच्छा से चला जाता है और वापस आकर यज्ञ तथा ब्रह्मभोज का आयोजन भी करता है। तब से उसे ‘सुजान भगत’ के नाम से जाना जाता है। सुजान भगत अब अत्यधिक नियम- संयम, व्रत से रहने लगे थे, जिन्होंने झूठ बोलना तथा व्याज लेना भी छोड़ दिया था। उनकी इस धार्मिक

प्रवृत्ति तथा दान-पुण्य के कार्यों के कारण उनकी पत्नी बुलाकी तथा बेटा भोला उनका विरोध करते हुए उन्हें बहुधा भला-बुरा भी सुनाने लगे थे। धीरे-धीरे सुजान भगत से उसके परिवार में सब अधिकार छिनने लगे थे जैसे- घर में क्या होना है तथा खेत म क्या बोना आदि जैसे विषयों पर भी उसकी कोई सलाह नहीं ली जाती थी। एक बार जब सुजान भगत अनाज लेकर भिक्षा देने के लिए चलने लगे, तो उसका बेटा भोला उनके हाथ से अनाज़, छीनकर ‘भीख को भीख की तरह-से दिए जाने की’ उल्टी शिक्षा देने लगता है।

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तब भगत अपनी स्थिति पर चिंतित होते हुए मन-ही-मन पत्नी को कोसता है, जो कि अब उनका नहीं बल्कि बेटे भोला का साथ दे रही थी। सुजान भगत ने तब पुनः परिश्रम के बल पर अपने अधिकारों को प्राप्त करने का प्रण कर लिया, इसके लिए वह बिना कुछ खाये-पीये ही खेतों में जाकर कठोर परिश्रम करते हैं, जिसको देखकर उनकी पत्नी तथा बेटा दंग रह जाते हैं और उनकी मेहनत से तब खेतों में सोना बरसने लगता है।

अत: उनकी इस श्रमशीलता के कारण उन्हें घर में छिने अपने अधिकार पुनः: प्राप्त होते हैं तथा व अपनी पैदावार को दिल-खोलकर दान करने लगते हैं, किंतु अब उनकी पत्नी तथा बेटे ने उनके विरुद्ध बोलने का साहस नहीं किया। अत: इस प्रकार से अपनी लगन तथा परिश्रम के बल पर सुजान भगत ने अपनी पैदावार को बढ़ाते हुए अपनी पत्नी तथा बेटे का अहकार भी तोड़ दिया तथा अपने अधिकारों को भी पुन: प्राप्त किया।

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मुंशी प्रेमचंद एक ऐसे सामाजिक, यथार्थ तथा आद्शवादी रचनाकार हैं, जिन्होंने अपने लेखन के आधार परिवार तथा समाज के जीवन का चित्रण करते हुए उनमें व्याप्त विड़ंबनाओं का भी कुशलतापूर्वक चित्रण किया है, क्योंकि परिवार भारतीय समाज की एक भहत्वपूर्र्ण तथा प्राथमिक इकाई है

इसीलिए मुंशी प्रेमचन्द ने अपने सम्पूर्ण लेखन में व्यापक ग्राम समाज अथवा मजदूर तथा किसान के जीवन की दशा एवं दिशा का जीवंत चित्रण किया है। ‘सुजान’ जो कि एक साधारण श्रेणी का किसान है तथा उसके परिवार मे उसकी पत्नी के अतिरिक्त दो बेटे भी थे। जहाँ सुजान के परिश्रम से उसकी

खेती में खूब पैदावार भी होती थी इसीलिए तब उसका पूरा परिवार सुजान पर ही निर्भर करता था। कुछ पैसे सुजान के हाथ में आते ही उसकी वृत्ति एक तरफ धर्म की ओर उन्मुख हो जाती है और वह साधु-संतों का अपने घर पर सत्कार करने लगता है तथा अनेक सरकारी कर्मचारी सुजान के घर पर ही ठहरने लगते हैं, इसौलिए पूुरा गाँव सुजान के कृत्य से अत्यधिक प्रभावित था और वह इसके साथ-साथ ही गाँव में पानी की समस्या से निपटने के लिए एक कुआं भी खुदवाता है।

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तथा पानी आ जाने पर वह अतिशय खुश होता है। इसके उपरान्त वह गाँव में यज्ञ तथा ब्रह्माभोज का आयोजन भी कराता है अपनी अत्यधिक धार्मिक प्रवृति के कारण गया से लौटकर सुजान महतो, “‘सुजान पगत’ हो जाता एवं अब वह पूर्ण रूप से धार्मिंक कारयों की ओर उन्मुख हो जाता है, किंतु उसके परिवार के शेष सदस्य उसके इस व्यवहार से रुष्ट से रहते हैं तथा इसी कारण सुजान परिवार का मुखिया होकर भी अब अपने अधिकारों को खोने लगा था।

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एक दिन जब उसकी पत्नी बुलाकी ओखली में से दाल छाटने का कार्य रही थी, तो उनके द्वार पर एक भिखमंगा गरीब हेतु गुहार लगाता है. तो इस पर सुजान भगत का बेटा माँ से कहता है कि माँ तुम भिखमंगे को भीख दे दो। किंतु इस पर बलाकी उपेक्षित भाव से कहती है; “भगत के पौँव में मॅहदी लगी है, क्यों कुछ ले जाकर नहीं दे देते? क्या मेरे चार हाथ है?” यहाौँ प्रथम बार महतो का मुखिया होने का भ्रम होता है।

यहाँ पर पारिवारिक विडंबना के रूप में यह सत्य प्रकट होता है कि जिस सुजान के परिश्रम के बल पर पूरा परिवार निश्चित होकर अपने-अपने कायों में संलग्न है, उसी सजान की धार्मिक प्रवत्ति होने के कारण तथा परिवार को कम समय दिये जाने के परिणामस्वरूप उसकी अवहेलना तथा उपेक्षा होनी प्रारंभ हो जाती है,

यहाँ तक वह अब परिवार में अपने अधिकारों को भी धीरे- धीरे खो रहा था। इसी संदर्भ में जब अपने पिता की बात की अवहेलना का एक संदर्भ माँ को बताता है, तब उसकी माँ भोला का ही समर्थन करती हुई कहती है-“बहुत अच्छा किया तुमने बकने दिया करो। दस-पाँच दफे मुँह की खा जायेंगे, तो आप ही बोलना छोड़ देंगे।”

फिर सुजान का बेटा भोला कहता है, “दिन भर एक न एक खुचड़ निकालते रहते हैं। सौ दफे कह दुनिया कि तुम घर गृहस्थी के मामले मं न बोला करो, पर इनसे बिना बोले रहा नहीं जाता। ” इस प्रकार सुजान के परिवार में उसकी वास्तविक स्थति का नग्न यथार्थ, जहाँ पर उसके मुखिया होने पर भी बोलने तक की आजादी पर प्रतिबंध लगाने की बात स्पष्ट रूप में कही जाती है।

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इसके बाद भी हृद तो एक बार जब हो जाती है, जब भोला सुजान के हाथ से अनाज की छबड़ी छौनकर उसे अपनी मेहनत का अन उठाने का ताना भी मार देता है। यह है कि सुजान की पारिवारिक विडंबना, जिसके अंतर्गत उसे मुखिया होने पर भी भिखारी को अपनी इच्छानुसार भीख देने की स्वतंत्रता त्रथा अधिकार प्राप्त नहीं होते हैं तथा थीरे-धीरे उसकी पारिवारिक उपयोगिता घटती चली जाती है।

‘सुजान भगत’ काहानी में प्रेमचंद ने नई पीढ़ी का पुरानी पीढ़ी से संबंध का कुशलता से चित्रण किया है। ‘सुजान’ जैसा बूढा किसान पुरानी पीढी का नेतृत्व करता है तथा वह अपने पूरे कार्य व्यापार में गाधीवादी तरीकों; जैसे -चितन, उपवास आदि के मध्यम से अपने खोये हुए अधिकार एवं स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त करता है।

पत्नी तथा बेटों जैसी नई पीढी को अपनी बूड़ी हड्डियाँ के बल पर चुनौती देता हुआ विजय को प्राप्त करता है। सुजान के अंदर जब दान-धर्म की प्रवृत्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है और तब वह इस कारण से पारिवारिक कार्यों में भी समय नहीं दे पाता है।

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तो उसकी परिवार में उपयोगिता घटने लगती है और वह अपने द्वार पर आये हुए भिक्षुक को भी अपनी इच्छानुसार भिक्षा नहीं दे पाता है और अपने बेटे भोला द्वारा अपने हाथ से अनाज की छबढ़ी छीने जाने तथा मेहनत करके अन्न कमाकर लाने की बात से आहत होकर पुनः अपने परिश्रम यके बल पर उपवास रख्ते हुए दिन-रात खेतों में मेहनत करते हुए वह नई पीढ़ी की चुनौती को स्वीकार करते हुए खेतों में सोना बरसाने की क्षमता दिखाकर अपनी पत्नी तथा बेटों का मुख बंद करा देता है।

मुजान कर्म करके अपनी उपयोगिता को पुनः सिद्ध करते हुए अपने को स्वतंत्र बनाकर अपने अधिकारों को हस्तगत कर नयी पौढ़ी से चुनौती स्वीकारते हुए उन्हें दिखाता है कि कैसे चारा काटना चाहिए? हल कैसे जोतना चाहिए? श्रम कैसे करना चाहिए? आदि। उनकी इसी कठिन परिश्रम की प्रवृति के कारण उन्हें ‘ भूत’ की संज्ञा भी दी जाती है।

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इससे पूर्व जब भोला भिखारी को दी जाने बाली जौं से भरी छबड़ी सुजान के हाथ से छीनकर उन्हें ताना देता है तब सुजान इसके बाद से अचानक ही खसिया जाता है और फिर वह भिखारी को कोई अन्य बहाना बनाकर वापस भेज देता है और तद्परान्त वह युक्ष के नीचे बैठकर सोचता है-“अपने ही घर में यह अनादर। अभी वह अपाहिज नही है, हाथ पाव थर्के नहीं हैं, घर का कुछ-न-कुछ काम करता ही रहता है। उस पर यह अनादर। MHD 10 free solved assignment

उसी ने घर बनाया यह सारी विभूति उसी वे श्रम का फल हैं, पर अब इस घर पर उसका कोई अधिकार नहीं रहा। अब वह द्वार का कुत्ता है, पड़ा रहे और घरवाले जो रूखा दे दें वह खाकर पेट भर लिबा करे। ऐसे जीवन को धिक्कार है।”

अत: यह कहानी का प्रथम पक्ष उभरता है, जहाँ तक आकर एक प्रकार से पुरानी पौदी का नेतृत्व कर्ता सुजान अपने अनादर के कारण विद्रोह या चूँ कहें की चुनीती को स्वीकार करते हुए यह चोषणा करता है कि “”सुजान ऐेखे घर में नही रह सकता” अत इसे ‘ऐसे घर’ के पीछे ही आस्था/अनास्था, अच्छे बुरे, नये। पुराने सभी का गहरा दुंद्ध पा है।

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अत: यहाँ इस प्रकार से किसान सुजान, कहानी के द्वितीय पक्ष में पुनः एक प्रकार की नयी चेतना एवं कर्जा से जागता है और अथयक परिश्रम के बल पर फिर से धन-धान्य उपजाता है तथा अपनी पल्नी तथा बच्चों के मुख को बंद करते हुए अपने लगन तथा परिश्रम से पुन: वह अपने ही घर में अपने ख्ोये हुए अधिकारों को प्राप्त कर लेता है।

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