IGNOU MHD 07 Free Solved Assignment 2023

IGNOU MHD 07 Free Solved Assignment 2023

MHD 07 (भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा)

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MHD 07 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

1 (क) विश्व मैं भाषाओं का वर्गीकरण किन आधारों पर किया जाता है ?

भाषा मनुष्य की मनोभाव अभिव्यक्ति का आधार है। भाषा ही एक व्यवस्था है जिसके द्वारा मनुष्य अपने समाज के साथ संपर्क स्थापना कर सकता है। हजारों वर्षों से मनुष्य अपने सामाजिक व्यवस्था के अंदर भाषा का व्यवहार करता आ रहा है। इसी बीच भाषाओं में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए, तथा भाषाओं का अलग अलग रूप तथा बोलियों का निर्माण अलग अलग जगह तथा महादेशों के तथ्य भी किया गया है।

भाषा के इसी अंतर्गत तथ्यों को अध्ययन करने के लिए भाषा विज्ञान का निर्माण हुआ, जिसके अंतर्गत भाषा के विविध रूपों तथा प्रकारों पर अध्ययन कर उन्हे वर्गीकरण किया जाता है और unpe ज्यादा से ज्यादा अध्ययन किया जाता है।

तुलनात्मक भाषा विज्ञान

विश्व मैं जो जो आज के समय पे भाषाओं का प्रचलन हो रहा है, भाषा विज्ञानियों के अनुसार वे सब के सब कहीं कहीं किसी न किसी तरह से किसी एक या दो तीन मूल भाषाओं के साथ संपर्क मैं आते है। उन्ही कुछ मूल भाषाओं से ही समयानुक्रम में भाषा में भिन्न भिन्न परिवर्तन आ कर भाषाओं के। इतने प्रकार भेद स्रस्ट हुए है।

बहस अभिज्ञान के इस धारा मैं उस हर एक भाषा को अध्ययन कर उनके मूल प्रकृति तथा उनके व्याकरण gat प्रकृतियों को तुलनात्मक रूप से अध्ययन कर भाषा उत्पन्न के इतिहास आदि को जानने का प्रयास किया जाता है। इसमें ध्वनि का का अध्ययन भी सामिल रहता है।

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IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment 2023

भाषाओं का वर्गीकरण

विश्व भर मैं बिहिन्न तरह के भाषाएं बोले जाते है जिनमे से भारतीय भाषा का एक प्रमुख स्थान पाया जाता है। इसके अलावा भारत के अपने भाषाओं में भी अनेक तरह के प्रकार भेद पाए जाते है। इसीलिए अध्ययन के लिए इन सभी भाषाओं का वर्गीकरण करना बोहोत जरूरी हो जाता है।

पारिवारिक वर्गीकरण

भाषाओं के वर्गीकरण मैं विभिन्न परिवारों का महत्व बोहोत गुरुत्वपूर्ण मना जाता है। क्यों की यह मुख्य रूप से किसी एक मूल भूखंड या फिर एक देश के समग्र संप्रदाय के भाषाओं ही दर्शाता है। संभवत विस्तृत अध्ययन के तहत भाषा मनोबैज्ञानिको से विश्व भर के भाषाओं को मुख्य रूप से दस प्रमुख भाषा परिवारों मैं विभक्त किया है।

  • भारोपीय परिवार
  • द्रविड़ परिवार
  • चीनी तिब्बती
  • मलय पोलिनेशियन
  • सामी हामी
  • दक्षिण अफ्रीकी
  • जापानी कोरियन
  • युरल अल्टाइक
  • आस्तिक परिबार
  • आमेरिकी परिवार

भारोपीय परिवार –

इस परिवार को बहुत सारे नाम दिये गए हैं जैसे कि भारत-जर्मेनीक परिवार, संस्कृत परिवार, आर्य परिवार, भारोपीय परिवार। इस सब में भारोपीय परिवार निर्विवाद रूप से माना जाता है।

भारोपीय भाषाएं पश्चिमी और दक्षिणी यूरेशिया के मूल निवासी भाषा परिवार हैं। इसमें उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप और ईरानी पठार के साथ-साथ यूरोप की अधिकांश भाषाएँ शामिल हैं।

इस परिवार की कुछ यूरोपीय भाषाएं, जैसे अंग्रेजी, फ्रेंच, पुर्तगाली, रूसी, डेनिश, डच और स्पेनिश, आधुनिक काल में उपनिवेशवाद के माध्यम से विस्तारित हुई हैं और अब कई महाद्वीपों में बोली जाती हैं।

द्रविड़ परिवार –

द्रविड़ भाषाएं 220 मिलियन लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं का एक परिवार है, जो कि मुख्य रूप से दक्षिण भारत और उत्तर-पूर्व श्रीलंका में एवं दक्षिण एशिया में कहीं जगहों पर बोली जाती है।
द्रविड़ भाषाओं को पहली बार दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में तमिल-ब्राह्मी लिपि के रूप में तमिलनाडु के मदुरै और तिरुनेलवेली जिलों में गुफा की दीवारों पर अंकित किया गया है।

सबसे अधिक बोलने वाली द्रविड़ भाषाएँ (बोलने वालों की संख्या के अवरोही क्रम में) तेलुगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालम हैं, जिनमें से सभी की लंबी साहित्यिक परंपराएँ हैं।

इस परिवार के भाषा को दक्षिण भारत सहित उत्तरी श्रीलंका, बलूचिस्तान, मध्य भारत आदि में बोला जाता है। इसके अंतर्गत तमिल, टेलगु, कन्नड, मलयालम, गोंडी, कोंकण, कोलामी और ब्रहुई आदि भाषा आता है।

चीनी और तिब्बती परिवार –

इस भाषा का क्षेत्र चीन, बर्मा आदि है। इस परिवार के तहत चीनी भाषा प्रमुख है। लगभग 30 भाषा इस परिवार के अंतर्गत बोला जाता है।

श्यामी, थाईलैंड में बोली जाती है। बर्मी, बर्मा में और तिब्बती, तिब्बत में। इन भाषाओं की ख़ासियत ये है कि नाक से ज़्यादा ध्वनि निकाली जाती है।

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IGNOU MHD 06 Free Solved Assignment 2023

सामी-हामी परिवार –

ये परिवार सामी (सेमेटिक) और हामी (हेमेटिक) के योग से बना है। सेम और हेम दो भाई थे, ये दोनों भाई नोह के पुत्र थे। अरब, सीरिया आदि के लोग सेम को अपना आदि पुरुष मानते हैं जबकि मिस्र एवं इथियोपिया आदि के लोग हेम को अपना आदि पुरुष मानते हैं।

सामी शाखा का प्राचीन भाषा अक्कादी है। इसके अलावा आर्मेनियन, हिब्रू तथा अरबी भाषा इसी शाखा के अंतर्गत आता है। अरब, ईरान, इस्राइल, सीरिया, मिस्र आदि आदि देश में इस भाषा को बोला जाता है।

हामी शाखा के अंतर्गत प्राचीन मिस्री तथा बार्बर भाषा आता है। वैसे ये मुख्य रूप से दक्षिण-पश्चिम एशिया का भाषा है और ये पश्चिम में मोरक्को तक बोला जाता है।

दक्षिण अफ्रीकी परिवार :-

इसस भाषा की परिवार मैँ मुख्य रूप से तीन भाषाएं पाए जाते है।

  • सूडानी परिवार
  • बाँटू परिवार
  • होतेन्तोत-बुशमैनी परिवार

सूडानी परिवार – इस परिवार की भाषाएं आमतौर पर भूमध्य रेखा के उत्तर में पूर्व से पश्चिम तक बोली जाती है। इस परिवार के तहत लगभग 435 भाषाएं आती है। जिसमें से वुले, मन-फू, कनेरी, निलोटिक एवं हौसा इत्यादि प्रमुख भाषाएं है।

बाँटू परिवार – इस परिवार की भाषाएं आमतौर पर भूमध्य रेखा के दक्षिण में दक्षिण अफ्रीका के अधिकांश भागों में एवं जंजीबार द्वीप पर बोली जाती है। इस परिवार के तहत लगभग 150 भाषाएं आती है। जिसमें से जूलु, स्वाहिली, काफिर, सेसुतो एवं कांगो इत्यादि प्रमुख भाषाएं है।

होतेन्तोत-बुशमैनी परिवार – इस परिवार की भाषाएं दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका में ऑरेंज नदी से नागामी झील तक बोली जाती है। सान, होतेन्तोत, दमारा एवं संदवे इत्यादि इस भाषा परिवार की प्रमुख भाषाएं है।

जापानी-कोरियाई परिवार-

जापान और कोरियाई प्रायद्वीप पर बोली जाने वाली भाषा को इसके तहत रखा जाता है। इस परिवार के तहत मुख्य रूप से दो भाषा आता है जिसे कि ‘कोरियन (Korean) और (Japanese) भाषा के नाम से जाना जाता है।

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IGNOU MHD 04 Free Solved Assignment 2023

मलय-पोलिनेशियाई परिवार–

पश्चिम में अफ्रीका के मेडागास्कर द्वीप से लेकर पूर्व में ईस्टर द्वीप तक एवं उत्तर में फ़रमोसा से लेकर दक्षिण में न्यूजीलैंड तक इस परिवार की भाषाएं बोली जाती है। इसमें इन्डोनेशिया के सुमात्रा, जावा एवं बोर्नियो द्वीप भी सम्मिलित है।

मुख्य रूप से इस परिवार के तहत द्वीपीय देश आते हैं। मलय, जावी, फारमोसी, फिजियन, माओरी, हवाइयन एवं टोंगन आदि इस परिवार की प्रमुख भाषाएं है।

यूराल-अल्टाइक परिवार –

यह भी एक भौगोलिक नामकरण है। इस परिवार के भाषा को दक्षिणी फ़िनलैंड, उत्तरी फ़िनलैंड, उत्तरी नोर्वे, हंगरी, अस्तोनिया, साइबेरिया, तुर्की, किरगीज, मंगोलिया, अजरबेजान, उज्बेकिस्तान, मंचूरिया आदि स्थान पर बोला जाता है। क्षेत्र विस्तार की दृष्टि से भारोपीय भाषा परिवार के बाद दूसरे स्थान पर आता है।

इस परिवार में एस्टोनी, हंगेरियन, समोयद, याकूत, फिनो-उग्री, तुर्की, आदि अनेक भाषा आता है।

ऑस्ट्रेलियाई परिवार –

सम्पूर्ण ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप एवं तस्मानिया में इस परिवार की भाषाएं बोली जाती है। मैक्वारी एवं कामिलरोई इस परिवार की प्रमुख भाषाएं है। यहाँ के मूल निवासी इस भाषा को बोलते हैं जो कि अंग्रेजी भाषा के व्यपाक चलन के कारण लगभग सिमट सा गया है और 80 हज़ार से भी कम लोग अब इस भाषा को बोलते हैं।

अमेरिकी खंड

अमेरिकी खंड के तहत एक ही भाषा परिवार आता है वो है अमेरिकी परिवार, इसके तहत सम्पूर्ण उत्तरी अमेरिका एवं दक्षिणी अमेरिका आ जाता है।

वैसे तो यहाँ आमतौर पर इंग्लिश का ही बोलबाला है, लेकिन फिर भी कई अन्य भाषाएं है इस परिवार में जो आज भी कमोबेश बोली जाती है।

अथपस्कन, अज़तेक, मय, करीव, कुईचुआ एवं अरवक इस भाषा परिवार की प्रमुख भाषाएं है। इनमें से बहुत सारी भाषाओं को बोलने वाले की संख्या महज़ कुछ हज़ार रह गई है।

भाषा का आकृतिमूलक वर्गीकरण

आकृतिमूलक वर्गीकरण में समान आकार वाले भाषा को रखा जाता है। ऐसा नहीं है भाषा का ये वर्गीकरण संपूर्णता को प्रदर्शित करता है लेकिन फिर भी ये भाषा के विकास संबन्धित प्रक्रिया को बहुत हद तक स्पष्ट करता है।

आकृति अर्थात शब्द या पद के रचना के आधार पर जो वर्गीकरण किया जाता है, उसे आकृतिमूलक वर्गीकरण कहा जाता है। चूंकि पद में लगने वाले प्रत्ययों का दूसरा नाम रूपतत्व भी है इसीलिए इसे रूपात्मक वर्गीकरण भी कहा जाता है। इसके साथ ही इसे पदात्मक या वाक्यमूलक वर्गीकरण भी कहा जाता है।

आकृतिमूलक आधार पर किया गया वर्गीकरण दो प्रकार का होता है;

  • अयोगात्मक भाषा
  • योगात्मक भाषा

योगात्मक भाषा
जहां अयोगात्मक भाषा का प्रत्येक शब्द स्वतंत्र होता है वहीं योगात्मक भाषा में आकृति-प्रत्यय योग से शब्द निष्पन्न होता है। इस में संबंध तत्व और अर्थ तत्व दोनों का योग होता है।

योग के आकृति के आधार पर योगात्मक को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जाता है;
(1) अशिलिष्ट योगात्मक: जिसमे द्रविड़ और युराल अल्ताइक जैसे भाषाएं आते है

(2) शिलिष्ट योगात्मक : जिसमे भारोपिया और सामी हामी जैसे परिवारों के भाषाएं आते है।

अयोगात्मक भाषा
इस अयोगात्मक में आयोग का अर्थ ये है की यहाँ शब्द में ‘उपसर्ग’ या ‘प्रत्यय’ जोड़ कर रूप रचना नहीं किया जाता है बल्कि इस पद्धति में प्रत्येक शब्द का अपना एक स्वतंत्र सत्ता विद्यमान होता है।इसी कारण से इस वर्ग के भाषा में प्रत्येक शब्द स्वतंत्र रीति से अलग-अलग प्रयुक्त होता है। इसीलिए इन्हें प्रशिलिष्ट भाषा कहा जाता है। इस भाषा के अंतर्गत सिर्फ अमेरिकी भाषाएं ही आते है।

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IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2023

(ख) भाषा के वारे मैं सस्यूर का भाषा बिचारों का विवेचन कीजिए।

सस्युर का जन्म 1857 में जेनेवा में हुआ था। संरचनात्मक भाषा बिज्ञान के बिचार के लिए मुख्य रूप से प्रसिद्धह भाषयबिज्ञानी सस्यूर जी ने अपने जीवन काल में कोई ग्रंथ नहीं लिखा था। उन्होंने जैनेवा विश्वविद्यालय में तीन सत्रों में सामान्य भाषाविज्ञान की कक्षाओं में जो व्याख्यान दिये, उन व्याख्यानों के क्लार नोट्स को उनके सहयोगियों और छत्रों ने संगृहीत किया और 1916 में, उनके निधन के बाद उसे पुस्तक के रूप मैं प्रकाशित किया। उस ग्रंथ का नाम था Cours de linguistique general, शुरू में उनके ग्रंथ की पहुँच सीमित थी और उसका व्यापक असर भी नहीं ।

1928 से लेकर उस ग्रंथ का अब तक अंग्रेज़ी सहित लगभग 12 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उस ग्रंथ ने भाषाविज्ञान के क्षेत्र में क्रांति सी ला दी। सस्यूर को संदर्भ में संरखनावाद (structuralism) का जनक माना जाता है

समकालिक भाषा अध्ययन की रथापना
सस्युर के समय तक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अधिकतर ऐतिहासिक भाषाविज्ञान पर ही काम हुआ था। (संदर्भ के लिए पिछली इकाई को देखे) लिखित भाषा के आधार पर भाषाओं परिवर्तन, ध्वनि संरचना तथा रूप संरचना के आधार पर भाषाओं का अंतः संबंध और पारिवारिक वर्गीकरण, बौोलियों का अध्ययन आदि उस युग के अध्ययन के प्रमुख क्षेत्र थे।

दूसरी और हमबोल्ट, स्टाइनटाल, वुन्ट आदि भाषा वैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान का सहारा लेकर भाषा के सार्वभौम रूप की संकल्पना स्थापित की। इसी युग में सस्युर ने भाषाविज्ञान की अगर हम सस्यूर को आधुनिक युग के प्रथम भाषा वैज्ञानिक कहें तो कोई अत्यूक्ति नहीं होगी।

उनसे पहले के भाषा यैज्ञानिक अधिकतर ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में ही कार्य करते थे। ग्रिम और वर्नर के बाद नव वैयाकरणों का संप्रदाय ध्यनि परिवर्तन के नियमों तथा दो भाषाओं की संबद्धता को स्पष्ट करने में लगा था।

विश्व की भाषाओं कोपारिवारिक दृष्टि से वर्गीकृत करने की दिशा में काफी काम हुआ था। लेकिन भाषा के अध्ययन के लिए सैद्धांतिक आधार निश्चित करने का कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठा था।

उनके विचारों के साथ ही आधुनिक भाषाविज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ। सस्युर ने अपनी ओर से भाषाविज्ञान पर कोई ग्रंथ नहीं लिखा। कक्षाओं में उनके व्याख्यानों का सार ही मरणोपरांत 1915 में ‘कोर्स इन जनरल लिंग्वसिटक्स’ शीर्षक ग्रंथ के रूप में छपा।

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IGNOU MHD 01 Free Solved Assignment 2023

सस्युर ने भाषा विज्ञान की मूल्य संकल्पनाओं के संदर्भ में कुछ वैपरीत्यों को प्रस्तुत किया।
ये हैं :

  1. भाषा बनाम वाक् व्यवहार
  2. समकालिकता तथा ऐतिहासिकता
  3. संरचनागत तथा रूपावलीगता संबंध
  4. संकेतक तथा संकेतित (Signified)
  5. घटक

भाषा विज्ञान के क्षेत्र में सस्युर की देन अत्यंत महत्वपूर्ण है। अपने ग्रंथ में उन्होंने कई महत्वपूर्ण सिद्धवांत प्रस्तुत किये हैं। यहाँ हम उन्हीं नये सिद्धांतों की चर्चा करेंगे।

वाक् व्यवहार और उसका महत्व :-

वे ग्रंथ के आरंभ में भाषा विज्ञान के अध्ययन के उदश्यों की चर्था करते हुए उसके व्यक्तिगत प्रयोग के पक्ष और अभिव्यक्ति के स्तर पर सामाजिक प्रयोग के पक्ष पर बल देते हैं। भाषा स्वत पूर्ण व्यवस्था है। वह मनुष्य के वाक व्यवहार का ही एक अंश है। भाषा वाक व्यवहार की क्षमता से उत्पन्न सामाजिक वस्तु है, जिसमें समाज द्वारा व्यक्तियों के वाक व्यहवार के लिए अपनायी गयी परपराएँ भी जुड़ी हुई हैं।

उच्चारण के स्तर पर समझने के स्तर पर वाक व्ययहार में अंतर रहने पर भी, समाज भाषा की रथना में सामाजिक मान्यता स्थापित करता है, जिससे सभी व्यक्तियों के लिए भाषासमान हो समान विचारों के लिए समान प्रतीक व्यवस्था।

यद्यपि वाक व्यवहार व्यक्तिगत कौशल भी है और सामाजिक धरातल पर व्यवहत व्यवस्था भी है, वह बहुआयामी, विविधरूपा है। उसमें हम भाषा की एकात्मकता के दर्शन नहीं कर सकते।

वास्तब में अध्ययन की दृष्टि से वाक-व्यवहार हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं है – महत्वपूर्ण है भाषा की व्यवस्था स्थापित करने की मनुष्य की शक्ति। वही शक्ति या क्षमता भाषा की रचना में दिखायी पडती है। भाषाविज्ञान इस भाषिक रचना का ही अध्यन करता है।

इसी संदर्भ में सस्युर वाक की संकल्पना को प्रस्तुत करते हैं। यद्यपि भाषा का एक व्यक्तिगत पक्ष होता है और एक सामाजिक अनुबंधन का पक्, जिसके द्वरा समाज भाषा की व्यवस्था को कायम करता है, भाषा का प्रचालन या उत्पादन व्यक्तिगत होता है। व्यक्ति ही भाषा का उत्पादन या अभिव्यक्ति करता है। अभिव्यक्ति सामूहिक नहीं हो सकती। सस्युर उसी व्यक्तिगत क्षमता को वाक कहते हैं। एक भाषा समुदाय के सारे व्यक्तियों के मन में अकित व्यवस्था की सामूहिक राशि ही भाषा है।

उस राशि से समाज के सदस्य वाक व्यवहार के अर्जित कीशल द्वारा अपने मस्तिष्क में भाषिक व्यवस्था को अकित करते हैं। किसी एक व्यक्ति में पूरी भाषा नहीं होती, क्योंकि भाषा समाज की वस्तु है। इसकी तुलना में एक व्यक्तिगत क्षमता है – स्वैच्छिक तथा व्यक्तिगत प्रतिभा से पूस्ति। वाक के आध्ययन में यही देखना होगा कि व्यक्ति किस तरह भाषिक व्यवस्था के आधार पर अपने विचारों को अभिव्यक्ति देता है।

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भाषा, वाक व्यवहार तथा वाक को इस चचर्चा के उपरांत सस्युर सार रूप में इन्हें निम्नलिखित प्रकार से प्रस्तुत करते हैं :

  1. भाषा वाक व्यवहार के विविध तथा व्यापक नमूनों के बीच से प्रकट सुनिश्चित व्यवस्था है। भाषा सामाजिक वस्तू है और व्यक्ति भाषा को बना या बदल नहीं सकता। व्यक्ति समाज में व्यवहार द्वारा भाषा को अर्जिंत करता है।
  2. हम भाषा का ही अध्ययन कर सकते हैं, वाक व्यवहार का नहीं।
  3. भाषा प्रतीकों की व्यवस्था है, जिसमें अर्थ और ध्वनि-बिंबों का संयोजन है।
  4. भाषा मूर्त है – इंद्रियगोचर वाक व्यवहार की तरह क्योंकि इसमें भाषिक प्रतीकों का अध्ययन होता है। ये प्रतीक भी अमूर्त नहीं हैं. बल्कि समाज ने याद्च्छिक रूप से इन्हें अर्थ प्रदान किया है। हम ध्वनि बिंबों को भी इसी तरह दृश्यमान बिंबों (लिखित भाषा) के रूप में मूर्त रूप से दिखा सकते हैं। इस कारण ही भाषा का अध्ययन करना हमारे लिए संभव होता है।

समकालिक तथा ऐतिहासिक भाषाविज्ञान

सस्यूर ने ही सबसे पहले भाषा के समकालिक अध्ययन और ऐतिहासिक क्रम में परिवर्तन आदि को ध्यान में रखते हुए भाषाविज्ञान की दो विशिष्ट शाखाओं का प्रवर्तन किया।
समकालिक अध्ययन के लिए उन्होंने भाषास्थिति जिसमें भाषा को लगभग स्थायी मानकर अध्ययन किया जा सके) का सहारा लिया।

इकाई :

समकालिक भाषाविज्ञान में प्रतीकों तथा उनके संबंधों का अध्ययन किया जाता है। भाषिक प्रतीक उभयांगी हैं – हर प्रतीक का एक ध्वनि बिंब होता है और प्रत्यय भाषा प्रतीकों की व्यवस्था (शृंखला आदि) ही भाषा है। हमें भाषा की इकाइयों को अलग करना होगा, जिससे भाषा का अध्ययन कर सरकें। जैसे, उक्ति अपने में मात्र उच्चरित ध्वनियों की शृंखला है।

भाषा के दो पक्ष हैं — ध्यनि-बिंब तथा कथ्य। दोनों अविभाज्य हैं – एक सिक्के के दो पक्षों की तरह। दोनों के संयोजन से भाषिक ‘रूप’ बनता है। हर भाषिक रूप का अपने परिवेश में मूल्य होता है। हिंदी का बहुवचन संस्कृत बहवचन के समान नहीं है।

सस्युर ने मूल्य को व्याख्यायित करते हुए एक महत्चपूर्ण सिद्धांत दिया जो परवर्ती संरथनात्मक भाषाविज्ञान का आधार बना। चह है व्यतिरेक। जैसे /त/ का उच्यारण वक्ता / की तरह से करे तो भी उसका मूल्य वही होगा – स्वनिम /त/ का प जो अन्य स्वनिम ट, ल आदि के संदर्भ में प्रकार्यात्मक है।

स्वयनिम की स्थापना करके सस्यूर ने भाषा व्यवस्था के विश्लेषण के संदर्भ में एक महत्वपूर् योगदान दिया। उन्होंने रूपिम का उल्लेख् नहीं किया है, लेकिन रूप से लेकर वाक्य तक को इकाइयों को उन्होंने प्रतीक (sign) के व्यापक संदर्भ में देखा था।

‘भाषा की प्रविधि” ‘व्याकरण तथा उसके अंग’ शीर्षक अध्यायों में उन्होंने समकालिक भाषाविज्ञान के अंतर्गत भाषा की संरचना के अध्ययन का विस्तृत विधिविज्ञान प्रस्तुत किया है।

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान शीर्षक भाग में सस्युर ने ऐतिहासिक भाषयबिज्ञान के अध्ययन के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण योगदान भी किया है। आपके अनुसार ध्वनिगत परिवर्तन भात्र उच्चारण में परिवर्तन नहीं है। मूल्य आदि पहले कही नयी मान्यताओं के संदर्भ में कह सकते हैं कि ध्यनि परिवर्तन भाषा की व्यवस्था या संरचना में परिवर्तन कर देता है।

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संरचनात्मक एकात्मकता :

जब हम ‘बचपन’ कहते हैं तो दो किन्हीं खंडों को साथ नहीं रखते, बल्कि एक बृहत संरचना के दो घटकों को देखते हैं जहाँ दोनों का अर्थ एक दुसरे पर निर्भर है और कुल मिलाकर संरचना का एक अर्थ भी है। इसी को सस्युर संरचनात्मक एकात्मकता कहते हैं। इस तरह संरचना-घटक को एकात्मकता न केवल शब्दों में, बल्कि भाषा की समस्त संरचनाओं में देखी जा सकती है।

संरचनागत तथा रूपावलीगत संबंध

जब हम भाषा बोलते हैं तो ध्वयनियों और शब्दों को एक शृंखला के रूप में उच्चारित करते हैं। यह एक संरचना है। संरचना में दो या अधिक भाषिक रूप या इकाइयाँं होती हैं।

जैसे ‘समता’ में ‘सम ‘, ‘ता’ दो रूप हैं, ‘अच्छा लड़का’ में दो शब्द हैं, ‘अगर तुम आऔगे, तो हम साथ चलेंगे’ में दो उपवाक्य हैं। ये तीनों अलग-अलग स्तरों पर संरचनारएँ हैं। सस्युर रूपावलीगत के अंतर्गत सहसंबंध को भी लेते हैं और रूपावलीगत संबंध को भी।

संरचनागत संबंध पूरी रचना के संदर्भ में है, जो उच्चरित वाक्य में प्रकट होता है। क्या उच्चारण के स्तर पर या वाक व्यवहार स्तर पर उच्चरित वाक्य में हम भाषा की रचना दूँढ सकते हैं? इस संदर्भ में ही सस्युर ने भाषा की संरचनाओं के प्रकारों की चर्चा की है।

हम उच्चरित वाक्यों को भाषा के किन्हीं सीमित, पूर्व निर्धारित रचना-प्रकारों में देख सकते हैं। यही भाषा अध्ययन का विषय बनती है। वे प्रकारों से भिन्न वैयक्तिक उक्तियों के महत्व को भी स्वीकार करते हैं।

सस्यूर के अनुसार भाषा प्रतीकों की व्यवस्था

अगर हम प्रतीकविज्ञान का आरंभ सस्यूर से माने तो गलत नहीं होगा। वे भाषाविज्ञान को प्रतीकविज्ञान के अंतर्गत रखते हैं। भाषाविज्ञान का संबंध समाजविज्ञान से है, प्रतीकविज्ञान का मनोविज्ञान से। लेकिन दोनों विज्ञान कुल मिलाकर अर्थ संप्रेषण की रचना तथा प्रक्रियापर प्रकाश डालेंगे।

हर प्रतीक के दो अंग होते हैं – ध्वनि-बिंब तथा अर्थ। भाषा एक सामाजिक संस्था है अर्थात समाज इन प्रतीकों से वाक व्यवहार ह्वारा संप्रेषण करता है। इन प्रतीकों के बारे में अध्ययन करने वाले विज्ञान को प्रतीक विज्ञान कहा जा सकता है।

हम प्रतीकों की रचना के बारे में पढ़ेंगे, जिससे अर्थ के संबंध में सस्युर की मान्यताओं का परिचय मिल सके। प्रतीक मनोवैज्ञानिक वस्तु है जिसके दो अंग हैं – प्रत्यय या संकेतित, ध्वयनि-बिंब या संकेतक वे इसे ध्वनियाँ नहीं, ध्वनि-विब कहते हैं, क्योंकि हम विना उच्चारण ये भाषा में चितन करते प्रतीक यादृच्छि्क होता है।

यादृचिछ्कता उस सामाज़िक बंधन का ही दूसरा नाम है जिसेस भाषा सामाजिक वरत् बनती है। जब कि भाषा में ऐसी यादच्छिकता नहीं है, बल्कि तार्किक संगति और संगठित व्यवस्था है। इन दोनों के कारण ही भाषा में कई शताद्धियों तक भी अधिक परिवर्तन नहीं होता। लेकिन जो परिवर्तन होता है, वह यादच्छिकिता के क्षेत्र में अधि और व्यवस्था में कम होता है।

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(ग) हिंदी भाषा के स्वानिम व्यवस्था की प्रमुख समस्यायों पर विचार कीजिए।

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हिन्दी भाषा की संरचनवादी रचना और अध्ययन जिस विज्ञान के साथ किया जाता है, उसे स्वनिम विज्ञान कहा जाता है। क्यों की शब्दो का उच्चारण हमेशा अलग अलग होता है, इसीलिए उसमे आने वाले ध्वनियों का उच्चारण भी अलग अलग होता है। जिससे उनके उच्चारण मैं कुछ समस्याएं उत्पन्न होती है, जिसको स्वानिमिक समस्या कहा जाता है। इस समस्या के कुछ चार प्रमुख भेद होते है :

A अ लोप की समस्या
B उत्क्षिप्त ध्वनि (ड़/ढ़ की समस्या)
C नासिक्य ध्वनि की समस्या
D महाप्राण ध्वनि की समस्या

A. ‘अ’ लोप की समस्या

हिंदी भाषा के शब्दों के उच्चारण समय मैं साधारण रूप मैं
अ स्वर के लोप की साधारण समस्या दिखाई पड़ता है। यह समस्या मुख्यतः दो तरह के होते है:

अन्त पद मैं लोप और मध्य पद मैं लोप

अन्त पद मैं लोप

इस समस्या मैं जब एक शब्द उच्चारित होता है, तब उस शब्द के अन्त में आने वाले अ-स्वर को उच्चारण नहीं किया जाता है, या फिर वह अपने आप ही उच्चारण के साथ लोप हो जाता है।

जैसे पाठक, लेखक, मन आदि शब्द के लिखन व्यवस्था मैं अ-स्वर का होना साफ साफ दिखाई पड़ता है। पर जब उसका उच्चारण होता है तो उन शब्दों के उच्चारण उच्च इस तरह (पाठक, लेखक, मन) के होने लगते है।

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IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2023

पर इस लोप व्यवस्था का कारण अगर ढूंढा जाए तो अनेकों विद्वानों के भिन्न भिन्न मत देखा जाता है। पर किसी का भी मत को तर्कसंगत ग्रहण नहीं किया जा पता है। पर उनमें से अभिनव जी का तर्क कुछ हद तक सबसे अलग नजर आता है। जहां वो इस लोप का कारण प्राकृतिक यूकारन व्यवस्था को दर्शाते है, और कुछ विद्वानों का मानना है की यह लोप व्यवस्था का कारण हिंदी की अपनी ध्वनि व्यवस्था को ठहराते है।

मध्य में अ लोप की विधि

जिस परकार शब्दांत मैं अ लोप लोप की समस्या आता है, ठीक उसे प्रकार शब्द के मध्य में भी अ लोप की समस्या काफी दिखाई देता है। जैसे की कुछ शब्द फिसलना, सिमटना, तथा चमक आदि उच्चारण के समय मैं फिसला, सिमटा, चमका आदि हो जाते है।

इसके उपाय मैं यह नियम निकाला जाता है की अगर किसी भी शब्द के मध्य में आने वाले “अ” जो की अगर उसके पूर्व मैं व्यंजन तथा स्वर हो और उसके बाद मैं व्यंजन तथा दीर्घ हो, तो उसका लोप कर दिया जाता है।

B. उत्क्षिप ध्वनियों का लोप

हिंदी भाषा में “ट” वर्ग के सभी वार्णो में से ट, ठ, ण स्पर्श तथा ड़ और ढ को उत्क्षिप्त माना जाता है। पर समस्या यही है की उनको स्वतंत्र स्वनीम माना जाए या फिर अपने ही परिवर्तन रूप मैं सही है। यहां परम्परागत स्वानिम विज्ञान उन्हें स्वतंत्र ध्वनि मानते है। वहीं निस्पादक स्वानिम विज्ञानी इसको माने की पक्ष में नहीं है।

इन सब के उपरांत निष्पादक स्वनीम वैज्ञानिकों ने जो विचार को व्यक्त किया है, जिनमें से प्रमुख श्रीवास्तव जी को मना जाता है, उनके अनुसार हिंदी मैं ड और ढ दोनो समान शब्द रूपी अस्तित्व रखते है, पर वे अलग है तो सिर्फ बाहरी संरचना से। शब्द की आंतरिक संरचना में वे दोनो व्यंजन ही है, पर जब दो स्वरों के बीच में आ जाते है तो वे दूसरे प्रकार पे परिवर्तन हो जाते है।

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C. नासिक्य ध्वनियों की समस्या

हिंदी मैं नासिक्य ध्वनि के उच्चरणके समय मुख और नाक दोनो और से बाई का निर्वासन होता है। और हिंदी वर्ग व्यंजन के अंतिम व्यंजनों को नासिक्य व्यंजन माना जाता है। नासिक्य ध्वनि मुखतः दो तरह के होते है

आश्रित नासिक्य ध्वनि और अनश्रित नासिक्य ध्वनि

आश्रित नासिक्य ध्वनि

उच्चारण के समय तथा प्रवृत्ति से अन्य ध्वनियां प्रभावित होने पर उनको आश्रित ध्वनि कहा जाता है। हिंदी भाषा में यह ध्वनि अनुस्वार (०) को कहा जाता है, जो लिए आश्रित ध्वनि है और बिना किसी दूसरे व्यंजन के सहयोग से उच्चारित नही हो सकता। इसके अलावा उच्चारित होते समय वो अपने अपने परिवेश की ध्वनियों से प्रभावित होता है और उनको प्रभावित करता है।

इसीलिए इसके उच्चारण के लिए निम्नलिखित दो नियमों का उल्लेख किया गया है

(1) अनुस्वार जब शब्दांत में आता है तो व्यंजन नासिक्य अर्थात ‘म’ बन जाता है।
(2) पर शब्द के मध्य में आते वक्त वो अपने परवर्ती शब्द के उपरांत उच्चारित होता है।

अनुस्वार संबंधी ये नियम किसी एक शब्द के भीतर (रूपिम सीमा के अंतर्गत) भी काम करते हैं तथा रूपिम सीमा के बाहर भी।

इसके अलावा कुछ शब्द ऐसे भी आओ गए है, जिनपे इन नियमों की ब्यातिरेक होता है, जैसे की

चमका(म में हलंत का प्रयोग करें) – चंगा
सनकी(न मैं हलंत का प्रयोग करें) – शंका
जानकी(न मैं हलंत का प्रयोग करें) – जंघा

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आनाश्रित नासिक्य ध्वनि

अनाश्रित नासिक्य ध्वनि जब उच्चारित होते है तब वो अपने आस पास के व्यंजनों पर उच्चारित होने के लिए आश्रित नहीं रहते। हिंदी भाषा में न (हलंत), म (हलंत) और ण (हलंत) को ही मुख्य रूप से अनाश्रित ध्वनि माना जाता है। इनमे से सिर्फ ण शब्द के प्रारंभ में उच्चारित नहीं हो सकता, तथा अन्य सभी शब्द के पहले उच्चारित हो सकते है। यह व्यंजन सिर्फ तत्सम शब्द के बाद ही आता है, क्यों तद्भव शब्द और आम बोलचाल के बाद वो “न” मैं बदल जाता है।

अनुनासिकताएँ : अनुनासिकता स्वरों का गुण है। नासिक्य रंजित स्वर ही अनुनासिक कहे जाते हैं। हिंदी में सभी मौखिक स्वर अनुनासिक हो सकते हैं।

हिंदी में लिपि चिह्न के रूप में अनुनासिकता को चंद्र बिंदु ] से लिखा जातां है। पर यदि स्वर के ऊपर मात्रा चिह्न हो तो चंद्र बिंदु के स्थान पर इसे बिंद् से ही लिखे जाने की व्यवस्था है।

अनुनासिकता का विकास :

प्राचीन आर्यभाषा से जब मध्यकालीन आर्यभाषा में जो परिवर्तन हुए उनके अंतरगत जिन शंब्दों के मध्य में ‘व्यंजन-गुच्छ’ थे वे सरलीकृत हो गए और आगे चलकर वहाँ एक ही व्यंजन रह गया। साथ ही संयुक्त व्यंजनों के पूर्व का हस्व स्वर भी दीर्घ हो गया।

कर्म > कम्म > काम। यदि शब्दध की संरचनाएँ व्यजन गुच्छ में से एक व्यजन अनुस्वार रहा था तो सरलीकरण की इस प्रक्रिया में पूर्ववर्ती स्वर दीर्घ तो हुआ ही, नासिक्यीकृत (वा अनुनासिक) भी हो गया।

इसका तात्पर्य यही है कि हिंदी में अनुनासिकता का विकास मुख्य रूप से अनुस्वार से ही हुआ है। अर्थात् ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में केवल उन्हीं शब्दों में अनुनासिकता मिलती है, जिनके मूल रूपों में’अनुस्वार’ की स्थिति रही थी।

जैसे दंत > दाँत, चंद्र > चॉद भंग > भॉग, कंटक > कॉटा आदि।

यदि प्राचीन आर्यभाषा के शब्दों में अनुस्वार नहीं था तो मध्य आर्यभाषा (पालि, प्राकृत) में वे भले ही नासिक्य गुच्छ के रूप परिवर्तित हो गए पर आधुनिक आर्यभाषा में अनुनासिकता दिखाई नहीं देती। जन्म, कर्म शब्द इसी प्रकार के उदाहरण हैं।

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D. महाप्राण ध्वनियों के उच्चारण मैं समस्या

हिंदी के महाप्राण व्यंजनों को लेकर यह समस्यां है कि इनको अल्प्राण व्यंजन तथा ‘ह’ व्यंजन का संयुक्त रूप माना जाए (जैसे ख = क+ ह फ = पु+ ह) अथवा एकल स्वनिम।

कुछ भाषाविदों की मान्यता है कि हिंदी के महाप्रण व्यंजनों को एकल स्वनिम न मानकर अल्पप्राण व्यंजन तथा ह’ व्यंजन का संयुक्त रूप मानना चाहिए। इस सिद्धांत को मानने का कारण यह है कि हिंदी में कुछ शब्द ऐसे मिल जाते हैं जहाँ महाप्राणत्व की सत्ता ‘व्यजक गुच्छ’ के रूप में दिखाई देती है जैसे :

अब + ही = अभी
तब + ही = तभी
जब + ही = जभी
कब + ही = कभी

अर्थात् इन सभी शब्दों में ‘भ’ व्यंजन का जन्म ‘ब’ (अल्पप्राण व्यंजन) तथा ‘ह व्यंजन के संयोग से हुआ है। लगभग ऐसी ही स्थिति ‘म’ तथा ‘न’ के महाप्राण
रूपों में भी दिखाई देती है जैसे :

तुम + ही = तुम्हीं

इसके अलावा हिंदी में कुछ ऐसे शबद्द भी मिलते हैं जो विकल्य रूप में प्रयुक्त होते हैं और यह स्पष्ट करते हैं, किे ‘ह’ तथा महाप्राण में कुछ न कुछ संबंध अवश्य है

जैसेः

गदहा – गधा, गदही – गधी

(c) इसके अलावा हिदी में धीमी गति से और तीद्र गति से उच्चारण करने में भी ‘ह” तथा महाप्राण के बीच संबंध दिखाई देता है। उदाहरण के लिए अगर निम्नलिखित
वाक्यांशों को धीमी गति और तीब्र गति से पढ़ा जाए तो अंतर सुना जा सकता है

जैसे :

धीमी गति से मन ही मन – तीब्र गति से मन्ही मन

नहा-धोकर चलो – न्हा-धो कार चलो।

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(घ) भाषा अर्जन और अधिगम की प्रक्रिया पर प्रकाश डालिए।

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भाषा अर्जन की प्रक्रिया

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में अपने मन के भावनाओं को परिप्रकाश करने के लिए उसे एक माध्य की आवश्यकता है, जिससे हम भाषा के नाम से जानते है। इस भाषा को मनुष्य उसी समाज से ही सीखता है। पहले वह भाषा को याद रखता है, उसे पुनः व्यवहार करने के लिए सजग होता है।

समयक्रम में वह तत्कालीन समाज में भाषा के लिए प्रचलित नियमों को सीखता है और भाषा के उपर पूर्ण रूप से अधिकार पा लेता है, जिसे भाषा अर्जन की प्रक्रिया कहा जाता है। अपने मैं भाषा का क्रमबद्ध विकास प्राणी के लिए एक विशिष्टता मना जाता है।

इसीलिए भाषा विज्ञानी क्लॉक एंड ट्रेंगर ने भाषा के बारे में बोला है की : भाषा यदच्छिक वाक प्रतीकों की व्यवस्था है। जिसके द्वारा उस भाषाई समुदाय के लोग परस्पर विचारों का आदान प्रदान तथा आपस में सहयोग कर पाते है।

इन सब मैं भाषा अर्जन के कुछ विशेषताएं है

(1) भाषा एक व्यवस्था है,
(2) यह व्यवस्था प्रतीकों से बनी है,
(3) ये प्रतीक वाचिक हैं,
(4) वाचिकं प्रतीकों तथा अर्थ के बीच संबंध यादिच्छक है, अनिवार्य नहीं, और
(5) भाषा का यह रूप या वस्तु एक साधन के रूप में समाज के उपयोग के लिए है।

शिशुओं में भाषा सीखने की प्रक्रिया मुख्य रूप से दो तरह के होते है : भाषा अर्जन तथा भाषा अधिगम। अन्य रूप से इससे लिखे जाने के बाबजूद यह दोनो प्रक्रिया परस्पर से अलग नहीं है।

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भाषा तथा उनके नियमों को समाज से प्राप्त करने की प्रक्रिया को और किसी एक विषयवस्तु पर पूर्ण रूप से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया को ही भाषा अर्जन की प्रक्रिया के रूप मैं जाना जाता है। इन सब प्रक्रिया में भाषा अर्जन का महत्व मातृभाषा में ज्यादा बढ़ जाता है, क्योंकि एक शिशु अन्य भाषाओं के तुलना मैं मातृभाषा में सबसे ज्यादा चीजों को ज्यादा सहजता से प्राप्त कर पाता है।

अब बालक के भाषा अर्जन और अधिगम करने की प्रक्रिया पर भी मुख्य रूप से दो विचार बोहोत महत्वपूर्ण है।

व्यवहारवादी और संज्ञानवादी

व्यवहारवादी

व्यवहारवादी मनोबिज्ञानी जहां पर बालक के मन और दिमाग जो की भाषा को अर्जन करता है उसको एक kora कागज़ के रूप मैं दर्शाया है। जहां पर बालक शिक्षा के माध्यम से भाषा की सारे नियमों को अर्जित करा सकते है। उनके पास भाषा अर्जन की जन्मजात अधिकार नहीं होती है, वो निरंतर अभ्यास और प्रयासों के द्वारा ही भाषा और उनके नियमों को अर्जन कर सकता है और उसे व्यवहार उपरूप बना सकता है। इन विचारों को मानने वाले व्यक्तियों को अनुभववादी कहा जाता है।

संज्ञानवादी

पर इसके बिल्कुल विपरीत संज्ञावादी मनोबैज्ञानिकों या फिर बुद्धिजीवियों का मानना है की भाषा मानव का अपना जन्मजात संपत्ति है। उसके मस्तिष्क में पहले से ही एक तरह के यांत्रिक व्यवस्था फिट हुआ रहता है, जिसके द्वारा अपने आयु के अनुसार वो धीरे धीरे भाषा को अर्जन करता है और समाज को धीरे धीरे उस भाषा को अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए व्यवहार करता है। भाषा अर्जन के इस प्रक्रिया को आत्मीकरण कहा जाता है।

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इस प्रक्रिया के संसाधन मैं कभी कभी बालक नियमों के तहत गलतियां करता है। पर वह बालक के भाषा सीखने की प्रक्रिया में खास रूप मैं सहायता करता है, जिसको पूर्ण परिणय कहा जाता है।

इन विचार के अनुसार बालक भाषा को अपने अंतर्निहित एक कार्यभार की मेकानिजम के तहत सीखता है। यह बालक के लिए एक सृजनात्मक और अनिवार्य प्रक्रिया माना जाता है। क्यों की मंद से मंद बुद्धि बाला बालक भी एक न एक दिन भाषा को सीख लेता है।

संज्ञानवादी के अनुसार भाषा सीखने के लिए कोई सा भी सामान्य प्रतिभा की आवश्यकता नहीं होता है। क्यों की बालक के मस्तिष्क में एक प्राकृतिक जैविक घड़ी लगा हुआ रहता है, हो भाषा भाषा के नियमों की आत्मिकरण कर उसके अर्जन करने के लिए बालक को सहायता करता है, तथा भाषा की समय सारणी निश्चित कर भाषा अर्जन को एक निश्चित चरणों पे दिखाई पड़ता है।

मनोभाषाविज्ञानी

इनकी विचार काफी संज्ञानवाद के विज्ञानियों के विचारों से मिलता जुलता पाया जाता है। इनके अनुसार एक शिशु के पास पहले से ही भाषा अर्जन करने की क्षयामता होती है, पर उस क्षयामत को बस बाहर लाके उसे काम में लगाने के काम बाहरी वातावरण करता है।

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इस तरह भाषा अर्जन के प्रमुख चार नियमों पर वल दिया जाता है

  • दूसरों की भाषा को समझना
  • शब्द समूह का निर्माण
  • शब्दो का उच्चारण
  • शब्दों को संयुक्त करके वाक्य निर्माण

आयु के अनुसार भाषा अर्जन

भाषा अर्जन एक निरावच्छिन्न प्रक्रिया होता है और सीखने वाले की आयु या उमर इसमें एक प्रमुख भूमिका निर्वाह करता है। जन जन्म के साथ एक बच्चा भाषा तो एक दम से नहीं सीख सकता, पर छह महीने के अंदर अंदर बच्चा सिर्फ चीखने और चिल्लाने के साथ ही अपने मनोभावों को प्रकाशित करता है। उसके कुछ समय के पश्चात वो धीरे धीरे सिर्फ अक्ष्यारीय ध्वनियों का उच्चारण सीखता है, जैसे की
मा, ब, द, दे, दू, चा इत्यादि।

इसके बाद के लगभग छह महीने में उसी भाषिक प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है, सिर्फ उसमे कुछ समोच्चरित शब्दों का मिलन होता है। बा बा, मा मा, चा चा इत्यादि

इसके बाद की भाषा अर्जन की प्रक्रिया में भाषा अर्जन की
प्रक्रिया काफी निश्चित रहती है। इस दौर पे बालक सामने चलते हुए क्रियाओं को समझता है, पर उसे भाषा के तौर पे शब्दों के प्रयोग कर व्यक्त नहीं कर पाता है। यह उनके आयु के प्रथम वर्ष के अंतिम भाग मैं होता है।

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वहीं दूसरे वर्ष के पहले भाग मैं आते आते बच्चा अपने सामने हो रहे क्रियाओं को शब्द के रूप मैं प्रकाश करना तो है, पर वह काफी आधा अधूरा रहता है। जैसे की दो बोल के वो “गुड़िया को दो” को बोलता है। इसे समझने के लिए किए जाने वाले क्रिया को अनुबंधन कहा जाता है। क्यों की शब्दो की तुलना तत्कालीन उपस्थित वस्तुओं के साथ साथ होता है।

इस प्रक्रिया को निष्क्रिय भाषा अर्जन की प्रक्रिया कहा जाता है। इस आयु के पश्चात भाषा की सक्रिय अर्जन की प्रक्रिया का शुरुवात होता हैं।

शब्द समूह का विकाश

यह दो प्रकार के होते है

साधारण शब्द : जहां नित्य व्यवहार्य शब्दों की सीखने की पर्याय व्यवस्थित उपाय से होता है और नित्य व्यबहृत शब्द हो सीखे जाते है।

विशिष्ट शब्द :, यह शब्दों को देखने के लिए एक निर्दिष्ट प्रकार की वातावरण और परिवेश का निर्माण होना जरूरी होता है।

वाक्य बिकास

लगभग दो वर्षो तक साधारण और बैशिस्त्य भाषा के नियमों को अनुकरण कर सीखने के पश्चात जब बच्चा तीसरे साल पे कदम रखता है, तब तक उसके मुख पर लगभश सारी भाषाओं का बिकास हो चुका होता है। जब तक उसके साथ तीसरे वर्ष के पर का समय आता है तब धीरे धीरे बच्चा तत्संबधी व्याकरण पर पूर्ण अधिकार पा कर भाषा को अच्छे तरीके से व्यवहार करने लगता है। पर उस व्यवहार में सिध्धता और प्रकार्यता लाने मैं उसको काफी समय लगता है और यह बच्चे की बौद्धगम के उपर ही निर्भर करता है और उसके आसपास वातावरण पर भी।

अतः सारे बातों के पश्चात भाषा अर्जन के उपरांत भी बालक निरंतर उस भाषा को अभ्यास करना चाहिए, ताकि वो भाषा के अंतर्गत सारे नियमों पे अधिकार पा कर, खुदको भाषा व्यवहार में ज्यादा से ज्यादा बेहतर बना सके।

भाषा अधिगम

भाषा अर्जन की प्रक्रिया से भाषा अधिगम की प्रक्रिया को काफी जटिल माना जाता है। यह भाषा अर्जन की प्रक्रिया की तरह इतना सरल नहीं है। इसके लिए भाषा मनोबिज्ञानिकों की अलग अलग मंतव्य है

गेट्स : प्रशिक्षण तथा अनुभव के द्वारा व्यवहार में होने वाले परिवर्तन और संशोधन को अधिगम कहा जाता है।

वुडवर्थ : नवीन ज्ञान और प्रतिक्रियाओं को लाभ करने को अधिगम कहा जाता है।

स्किनर : व्यवहार में आनेवाले उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया को अधिगम कहा जाता है।

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IGNOU MHD 06 Free Solved Assignment 2023

इन सबके मंतव्य से हम यह निष्कर्ष लगा सकते है की अधिगम एक ऐसे मानसिक प्रक्रिया है जिसमे अनेक प्रकार की क्रिया और प्रतिक्रियाएं सम्मिलित हो बालक को मानसिक रूप से बेहतर बनाने में सहायक होते है।

अधिगम मैं विचार

अधिगम के बारे में संज्ञानवादी या बुद्धिजीवी तथा व्यबहारवादियों का अलग अलग विचार है

व्यवहारवादी

अधिगम से बालक के मानसिक बिकास के लिए व्यबहारबादियों ने उसके आसपास के वातावरण को ज्यादा मूल्य प्रदान किया है। उनके अनुसार बालक अपने आपने निष्क्रिय रहता है जहां उसके आस पास के वातावरण ही उसको भाषा अर्जन के लिए प्रेरित करते है। और भाषा अर्जन के बाद ही बालक मैं अधिगम प्रक्रिया और बौद्धिक विकास संभव हो पाता है।

इनके विचार मैं किसी एक विशिष्ट वातावरण में उद्दीपन (एस) और अनुक्रिया (आर) के बंधन को ही अधिगम।कहा जाता है। यह दोनो प्रकृति में सर्बभौम्य हो कर रहते है। इसीलिए इनके विचारों को (एस आर) विचार कहा जाता है।

इनके द्वारा अलग अलग व्यवहारवादी के समर्थकों मैं भिन्न भिन्न मंतव्य दिए है l। उनमें से थोरंडाईक और स्किनर के विचार अन्यतम माने जाते है।

भाषा पे प्रभाव

इनके मत मैं भाषा का और अन्य विषयों का अधिगम के स्वरूपों में कोई अंतर नही होता। भाषा अधिगम का अर्थ भाषा की आदत डालना है और इसे अपने जीवन काल।मैं लगातार के रूप मैं बेहतर बनाए जाना है, जिससे अनुरूप व्यवस्था से us मनुष्य की मानसिक भाग का बिकास होने लगता है।

भाषा वातावरण इस विचार के काफी करीब माना जाता है। उसमे भाषा का निवेश भाषा की आगमन पर पूरी तरह से निर्भर करता है, लेकिन उनपे जो त्रुटि आती है, उससे बहार आने के लिए भाषा के उपर नियमित आभास काफी जरूरी हो जाता है।

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इसी भाषा के अधिगामिक बिकास के लिए बालक के लिए कुछ भाषा के विषय मैं अनुभूति होना वे जरूरी मानते है। यथा:

  • भाषा मौखिक है लिखित नही।
  • भाषा और उसका अर्जन आदतों का समूह है
  • भाषा सिखाने का उद्देश्य सिर्फ भाषा के सीखने से ही है।
  • भाषा का उचित स्वरूप मातृभाषा रूपी होता है।

संज्ञानवादी के विचार

संज्ञानवादियों के अनुसार अधिगम प्रक्रिया पे बाहरी तों के कोई असर नहीं मानते। इनके विचारों के समर्थक बरदी मेयर और कोहलर को माना जाता है।

उनका विचार है की भाषा को सीखने वाला अपने अंतर्निहित शक्ति के मुताबिक अपने विचारों को पुनः संगठित करता है, जिससे अधिगम प्रक्रिया का आरंभ होता है और इसी को उन्होंने सूझ के रूप मैं व्याख्या किया है।

उनके मुताबिक सूझ एक ऐसे मानसिक अवस्था है, जहां पर आप समस्या और उसके बाहरी संबंधों को स्पष्ट रूप से देख सकते है। सूझ के साथ आप एक समस्या को दोनो और से निस्पक्ष्य भाव से देख सकते है। जिससे निर्णय लेने की प्रक्रिया में मानसिक अवस्था को काफी सहायता मिलती है। इसीलिए उनका यह कहना भी है की सूझ मैं हम मनुष्य की हर एक वस्तुओं की एकत्रीकरण कर सकते है।

इन विचारों को गोस्तलवाद संज्ञानवादी के मनोबैज्ञानिक भी काफी समर्थन करते है। जहां वह व्यवहारवादी विचारों को नासमझ कहते है। क्यों की उनके मुताबिक अधिगम मुख्यताः समस्या समाधान की प्रक्रिया है। जब जब बालक समस्या के समाधान को खुदाई निकालता है, तब वह कुछ नया सीख कर अपने अधिगम तथा मानसिक व्यवस्था को नए तरह से सहायता करता है, जो की यंत्रावत/अंधानुकरण की प्रक्रिया से कभी संभव नहीं हो पाता।

अधिगम मैं अंतरण

जीवन के किसी भी स्थिति में पहले से सीखा हुआ कुछ ज्ञान जो की जीवन के बाद के परिस्थिति या फिर तत्कालीन समय को अगर समाधान करने मैं सहायता करता है, तो उसको अंतरण की प्रक्रिया कहा जाता है। इसीलिए अधिगम की प्रक्रिया मैं अंतरण की बोहोत मान्यता होती है। अंतरण प्रक्रिया से ही अधिगम के माध्यम से बालक को मानसिक रूप से सहायता मिलती है।

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IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2023

2 (क) ऐतिहासिक भाषा बिज्ञान ।

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के प्रदुर्भाव का आधार है भाषा में होने वाले परिवर्तनो का एहसास। कालक्रम के साथ भाषा के स्वरूप में निरेतर परिवर्तन होत है जिसकी तुलना नदीं के प्रवाह के साथ की जाती है। नदी का अस्तित्त नित्य है लेकिन उसकी स्थिते और स्वरूप बराबर परिवर्तन होता है।

भाषा के संदर्भ में ‘सरित प्रवाह’ ‘बहता नीर आदि उक्तियाँ इसी का इगित करती है। परिवर्तन के वैज्ञानिक विश्लेषण तथा विवरण से भाषा के इतिहास का ज्ञान मिलता है। इस तरह भाषा में परिव्तेनो का अध्ययन ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का सबसे प्रमुख लक्ष्य है।

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान वैसे तो एक ही भाषा के इतिहास और उसमें हुए परिव्तनों का अध्ययन करता है। इससे मिले तथ्यों का तुलनात्मक भाषाविज्ञान में फिर उपयोग किया जाता है। इस तरह बाद में दोनों मिलकर समान लक्ष्य की खोज में कार्य करते हैं। इस कारण दोनों को मिलाकर तुलनात्मक-ऐतिहासिक विश्लेषण नामक समन्वित अध्ययन का क्षेत्र विकसित किया गया।

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ऐतिहासिक भाषाविज्ञान अपने में उपयोगी अध्ययन क्षेत्र है। विद्वानों ने इसके अनुप्रयोगों की परिकल्पना की और भाषा के मूल उत्स तक पहुंचने को प्रयास किया। हम जानते हैं कि संस्कृत, लैटिन, ग्रीक भगिनी भाषाएँ हैं। इस बात की भी संभावना की जा सकती है कि ये भाषाएँं किसी एक मूल भाषा से परिवर्तेनो के कारण अलग हुई हों। परिवार की सभी भाषाओं के इतिहास क्रम से हम संभवतः अनुमानित रूप से उस पूर्ववर्ती (कल्पित) भाषा, का पूनर्नि्माण कर सकते है, जिसका कोई प्रमाण या ऐतिहासिक प्रलेख उपलब्ध नहीं है।

इस अध्ययन की शाखा को पूर्वरूप निधारिण की संज्ञा दी जाती है। उदाहरण के तौर पर भाषावैज्ञानिक भारोपीय परिवार के संदर्भ में किसी प्राक भारोपरीश भाषा की कल्पना करते हैं, उसके स्वसरूप का निधारण करते हैं और उससे संस्कृत आदि भाषाओं के ऐतिहासिक क्रम का अनुमान करते हैं।

भाषा के पूर्व रूपों के अध्ययन के लिए ऐतिहासिक भाषाविज्ञान ने कई प्रविधियों का विकास भी किया है। शब्दावली सांख्यिकी इसी प्रकार का एक साधन है जो भाषाओं के अलग होने के समय को ठीक से बताने का दावा करता है। हम जानते है कि भाषाओं में ध्वनि परिवर्तन कम ही होते हैं और शब्दों की तुलना से उन्हें दूढा जा सकता है। इसी तरह भाषा के आधारभत शब्दों में बहत कम परिवर्तेन होते है।

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IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2023

ऐतिहासिक भाषावैज्ञानिकों ने पता लगांया है कि हजार वर्ष में आधारभूत शब्दावली में लगभग 4.57 शब्द बदल सकते हैं। इस तरह दो भाषाओं की आधारभूत शब्दावली में अंतर के आधार पर उनके अलगाव की गणना की जा सकती है। युरोपीय भाषाविदों ने गणना की है कि अंग्रेज़ी और जर्मेन भाषाएँ पहले एक थीं और आज से लगभग 1600 साल पहले ई.400 के आसपास अलग हुई।

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के और भी कई अनुप्रयोग हैं। न केवल हम भाषा के क्रमिक विकास का इतिहास लिख सकते हैं, इस अध्ययन से प्राप्त सूचनाओं को शब्द्कोश में समाविष्ट कर सकते हैं। भाषा का इतिहास पूर्ववती साहित्य के अध्ययन के लिए भी आवश्यक है। भाषा परिव्तेन ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का प्रमुख लक्ष्य है।

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IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2023

(ख) बहुभाषिकता और द्विभाषिकता का सौदाहरण व्याख्या कीजिए।

द्विभाषिकता और बहुभाषिकता

लोगों के व्यवहार के हिसाब से भाषाओं के प्रकार

जब कोई भाषा एक और अन्य भाषा के उपर व्यवस्थित हो कर नहीं रह सकती और वह कई संदर्भों में अन्य भाषाओं के संपर्क में आती है। संपर्क में आने वाली भाषाएँ एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। व्यक्ति भी एक से अधिक भाषाओं का प्रयोग करता है।

अथवा एक से अधिक भाषाओं के प्रति सम्मान का भाव और मूलतः एक से अधिक भाषाओं के इस्तेमाल के विचार को स्वीकार करना और उसे रोजमर्रा के जीवन में स्थान देने को हम संपर्क की स्थिति को हम बहुभाषिकता कहते हैं । इसी सांदर्व में अगर भारत बहुभाषी देश है, क्योंक यहाँ कई भाषाएँ बोली जाती हैं।

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पर वहीं द्विभाषिकता व्यक्तियों के भाषा ज्ञान को सूचित करने वाला शब्द है, भले वह एक से अधिक भाषाएँ जानता है। मान लें कि मैं हिंदी, अंग्रेज़ी और बांगला जानता हूँ। मैं हिंदी और अंग्रेज़ी के संदर्भ में द्टिभाषी हूँ मैं हिंदी बांगला के संदर्भ में द्विभाषी हूँ।

द्विभाषिकता के कारण लोगों में दोनों भाषाओं के कोडों का मिश्रण आदि बाते देखी जा सकती हैं। कभी कभी दो भाषाओं के संपर्क से तीसरा भाषा का नया रूप पैदा हो जाता है। हमेशा दोनों भाषाओं में आदान-प्रदान की स्थिति आती रहती है। इसके अलावा द्विभाषी समाज में भाषाई संपर्क आदि भी होते हैं।

द्विभाषिकता का विकास

प्राथमिक भाषा और द्वितीयक भाषा के बीच फिट पहली अभिव्यक्ति से भाषण तक बना है। पहली चीज़ जो प्रस्तुत की गई है वह है ए स्वर विज्ञान पार भाषा: अर्थात्, एक ध्वनिविज्ञान जो दोनों भाषाओं में व्यावहारिक रूप से समान हैं, जो ध्वनि के एक प्रदर्शनों की सूची का उपयोग करता है।

फिर स्वर विज्ञान, आकृति विज्ञान और वाक्य रचना के संदर्भ में समानांतर विकास होगा, और अंत में द्विभाषी क्षमता के बारे में जागरूकता (और इसलिए, जानबूझकर अनुवाद करने की क्षमता).

बाद के चरणों में, विभिन्न भाषाओं के प्रासंगिक उपयोग की सीख बनाते हुए, भाषा व्यवहार, प्रभाव, विशिष्ट स्थितियों आदि से संबंधित होती है अवचेतन। यही है, यह एक संदर्भ उपकरण बन जाता है।

इस कारण से, उदाहरण के लिए, कुछ लोग हमेशा अकादमिक संदर्भों में कैटलन में बोलते हैं, भले ही इसके लिए कोई लिखित या अलिखित नियम न हो। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषा का अधिग्रहण और उत्पादन पर्यावरण द्वारा मध्यस्थता है, और यह एक विशिष्ट संदर्भ में है जहां एक भाषा का उपयोग किया जाता है।

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बहुभाषिता और द्विभाषिता के विविध रूप

भारत चिरकाल से बहुभाषी देश रहा है। हर प्रांत की अपनी भाष होते हुए भी पहले संस्कृत देश को जोड़ने वाली भाषा थी, अब हिंदी देश की संपर्क भाषा के रूप में उभरी। इस कारण देश का शिक्षित वर्ग हमेशा द्विभाषी भी रहा है।

आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा, महानगरों का उदय और दर संचार और जन संचार माध्यमों का विकास – इन सब कारकों से लगभग हर शिक्षित व्यक्ति द्विभाषी है और एक ही समय में एक से अधिक भाषाओं का भिन्न स्तरों में प्रयोग करता है।

यह भाषा वैविध्य का दुसरा आयाम है। क्या आपने कभी सोचा है कि आप दिन में कितनी भाषाओं और कितने भाषा रूपों का प्रयोग करते हैं? हम एक साथ कई भाषाओं और उनकी कई बोलियों, शैलियों और प्रयुक्तियों (प्रयोजनमूलक रूपों) का प्रयोग बड़ी सरलता से करते हैं।

द्विभाषिता की स्थिति में व्यक्ति की एक भाषा प्रमुख होती है, दूसरी गौण। मातृभाषा के प्रदेश में मातृभाषा ही प्रमुख होती है, व्यक्ति मातृभाषा से भिन्न प्रदेश में रहे तो उसकी मातृभाषा गौण और प्रदेश की भाषा प्रमुख हो जाती है। बहुभाषिक स्थिति में व्यक्ति की द्विभाषिता इस तरह कई रूप देखे जा सकते हैं ।

भाषाओं के प्रकार की बिभिन्न स्थितियाँ :

भाषा 1 + भाषा 2 : जब वक्ता एक ही भाषा-परिवार की दो भाषाओं में दक्षता रखता हो, जैसे हिंदी एवं बंगला, अथवा मराठी एवं गुजराती। कम स्थितियों में दोनों भाषाओं में समान दक्षता होगी प्रायः प्रदेश की भाषा प्रमुख होगी।

भाषा 1 + भाषा 3 : जब वक्ता दो विभिन्न भाषा परिवार की भाषाओं में दक्षता रखता हो, जैसे हिंदी-तमिल या मणिपुरी- हिंदी। इसके अंतर्गत हम अंग्रेजी को भी ले सकते हैं जो भारोपीय परिवार की है, पर अपने देश में अभी भी इसे पूर्ण रूप से भारतीय भाषाओं में नहीं गिना जाता फिर भी इसकी स्थिति जर्मन या जापानी जैसी पूर्ण विदेशी भाषा की नहीं है। इस स्थिति में मातृभाषा ही प्रायः प्रमुख होती है।

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भाषा 1 + भाषा 4 : जब वक्ता मातृभाषा के अतिरिक्त कोई एक विदेशी भाषा का प्रयोग करना भी जानता है, जैसे हिंदी एवं फ्रेंच/ जर्मन। विदेशी भाषा की दक्षता कम ही होती है।

अब तक हमने जिस द्विभाषिकता की चर्चा की, वह बाह्य है, दो भाषाओं के बीच में है। इसी तरह एक भाषिक स्थिति में भी द्विभाषिकता की बात देखी जा सकती है, जहाँ व्यक्ति भाषा की दो बोलियाँ बोले या भाषा की दो विशिष्ट शैलियों का प्रयोग करे। इसे कुछ विद्वान द्विभाषिकता मानते हैं, कुछ नहीं।

दो बोलियों जैसे कि हिंदी के साथ-साथ अवधी, ब्रज की दक्षता रखता हो या फिर एक मानक रूप भाषा जैसे हिंदी और एक बोली जैसे कि भोजपुरी की दक्षता रखता हो।

एक और स्थिति जिसे भाषा द्वैत के नाम से जाना जाता है, का उल्लेख चार्लस् फरग्यूसन ने सबसे पहले किया था। इस रि्थिति में वक्ता एक ही भाषा की दो विभिन्न शैलियों का या कोडों का प्रयोग करता है जिनमें से एक उच्च और दूसरी निम्न समझी जाती है।

उदाहरणतया बंगला-समाज में ‘साधु भाषा’ और’चलित भाषा’ का अलग-अलग प्रयोग होता देखा गया है। कुछ कुछ यही स्थिति तमिल भाषियों की भी है। औपचारिक तमिल में और सामान्य व्यावहारिक तमिल में काफी अंतर है। आजकल की सरकारी हिंदी प्रयोग करने वाले हिंदी भाषी भी भाषा द्वैत के शिकार हैं।

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3 (क) अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी

हिवी के अंतराष्ट्रीय महत्व के कारण विभ्रि्न देशों के विद्वान, मनीषी, भाषाविद हिंदी के अध्ययन-अध्यापन में रचि लेते रहे। हिदी का प्रथम य्याकरण भी कई शताब्दी पूर्व उनमें लिया गया जिसका तत्काल लैटिन में अनुवाद हुआ और बाव मैं अंग्रेज़ी में। अब तो हिंदी वेश्व भाषा के रमें प्रतिष्ठित हो चुकी है।

प्रवासी भारतीयों के कारण हिंदी पहले से फीजी, मारीशस, सूरीनाम अर ट्रिनीडाड में प्रतिष्टित थी। अब तक जो पांच विश्य हिंदी सम्मेलन हुए हैं उनमें से तीन (दो मॉरोशस में और एक ट्रिनिडाड मैं) विदेशों ने संपन्न हुए है।

इसके अस्चत यूनेस्को के प्रतिष्ठा के ठीक बाद जब दूसरे महासभा का आयोजन किया गया तो हिंदी भाषा को उसकी स्वीकृति भाषा के रूप मैं ग्रहण किया गया तथा 1967 ई से यूनेस्को कुरियर का हिंदी संकरण का भी प्रकाशन शुरू हो गया था, और इसी तरह हिंदी विश्व की सबसे ज्यादा व्यवहृत भाषा मैं तीसरे स्थान पर आ चुकी थी।

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IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2023

इसके साथ ही विदेश मंत्रालय द्वारा विश्व हिंदी सम्मेलन और अन्य अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के माध्यम से हिंदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने का कार्य लगातार किया जा रहा है। इसके अलावा प्रत्येक वर्ष सरकार द्वारा प्रवासी भारतीय दिवस मनाया जाता है जिसमें विश्व भर में रहने वाले प्रवासी भारतीय भाग लेते हैं।

जिसकी बदौलत आज हिंदी केवल राष्ट्र भाषा ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में अवतरित हुयी। इसलिए आजकल हिंदी विश्व भाषा हो चुकी है।

आज के समय मैं भारत के अलावा बंग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, भूटान, फिजी, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिडाड एवं टुबेगो, दक्षिण अफ्रीका, बहरीन, कुवैत, ओमन, कत्तर, सौदी अरब गणराज्य, श्रीलंका, अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान, मॉरिशस, आस्ट्रेलिया आदि देशों में भी हिंदी भाषा की मांग तथा हिंदी भाषाभाषी लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।

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IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2023

(ख) ध्वनि परिवर्तन

भाषा-परिवर्तन को भाषा का विकास भी माना जाता है। जैसा कि आप जानते हैं। कि भाषा सार्थक ध्वनियों का समूह है। अतः ध्वनि-परिवर्तन ही भाषागत परिवर्तन के रूप में दृष्टिगत होता है।

भाषा की ध्वनियों में परिवर्तन एक सतत प्रक्रिया है जो भाषा के जन्म से अबाध रूप से घटित होती रहती है। इस क्रम में अनेक ध्वनियाँ लुप्त हो जाती हैं, नई ध्वनियाँ आती हैं आथवा ध्वनियों का परिवर्तित रूप (विकृत रूप) प्रचलित हो जाता है। ध्वनि-परिवर्तन के माध्यम से भाषा के विकास का यह क्रम स्वाभाविक गति से अनवरत चलता रहता है।

जैसे कुछ का उदाहरण है :-

महाप्राण से अल्पप्राण : भ से भ्राता (संस्कृत में) पर अंग्रेजी भाषा में आते आते “भ” लगभग “व” में (brother) बदल जाता है।

घोष से अघोष : द से दंत (संस्कृत मैं) जब अंग्रेजी शब्द मैं परिवर्तित होता है, तब वो “त” में (teeth) परिवर्तित हो जाता है।

स्पर्श से संघर्षी : प से पिता (संस्कृत मैं) जब अंग्रेजी शब्द मैं परिवर्तित होता है, तब वो “फ” (father) में परिवर्तित हो जाता है।

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ऐसी ही संबद्धताओं को ध्यान में रखते हुए ग्रेम नामक जर्मन भाषावैज्ञानिक ने घोषित किया कि किस तरह एक भाषा की ध्वनियाँ दूसरी भाषाओं में बदल जाती हैं। उनके विचारों को ग्रिम नियम की संज्ञा दी जाती है। इसे उन्होंने बड़े ‘वैज्ञानिक’ तथा रोचक ढंग से एक सरल आरेिख के रूप में प्रस्तुत किया। नियम की घोषणा के साथ ही विद्वानों ने अपवादों की सूच्ची देना शुरू कर दिया।

हम देख सकते हैं कि /बंध /bind, दुहिता/daughter के प्रारंभिक व्यंजन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। से अपवादों के व्रिकरण के लिए अतिरिक्त नियम बनाए जाते रहे। लगभग 19वीं शताब्दी भाषा बैज्ञानिकों ने नियमों को दूँढने और माँजने में बड़ा परिश्रम किया। इसी शुंखला मैं वेर्नर नामक जर्मन भाषावैज्ञानिक ने अपवादों के स्पष्टीकरण स्वरूप अन् नियम बनाए जिन्हें वैर्नर नियम की संज्ञा दी जाती है।

फिर भी वे सारे ध्वनि परिवर्तनों के लिए समाधान नहीं दे पाए। विद्वानों ने अनुभव किया कि भाषा नियमों से बँधकर नह चलती। नियम शबद्ध से ही लोग असंतृष्ट हो गए। दुसरी तरह कुछ भाषावैज्ञानिकों ने नियम की संभावना से आश्वस्त थे। वेर्नर ने जब किन्हीं प्रमुख अपवादों का समाधान प्रस्तुत किया तो इससे नियमों में विद्वानों आस्था बढ़ी। उन्होंने घोषणा की कि ध्वनि संबंधी नियम अपवा रहित हैं।

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(ग) अनुवाद और वाक्य विचार

वाक्य अर्थ संप्रेषण की इकाई है जिसकी रचना रूपबद्ध शब्दों के संयोजन से होती है। वाक्य विज्ञान के अंतर्गत सामान्य रूप से भी और भाषा विशेष के संदर्भ में भी वाक्य-रचना और इसके विभिन्न पक्षों का अध्ययन-विश्लेषण किया जाता है।

वाक्यविज्ञान की जानकारी भाषा के सही स्वरूप को समझने के लिए बहुत ज़रूरी है क्योंकि भिन्न-भिन्न अर्थों के संप्रेषण के लिए भाष में भिन्न-भिन्न प्रकार की वाक्य-रचनाओं का प्रयोग किया जाता है।

उदाहरण स्वरूप में :-

(क) श्याम ने फुलदाना तोड़ दिया।
(ख) श्याम से फूलदान टूट गया।

अगर हम इन दोनो वाक्यों को देखेंगे तो इन दोनों वाक्यों से मिलने वाली सामान्य सूचना समान है – फूलदान’ (कम) टूट गया’ (क्रिया) और इस क्रिया को “श्याम” (कर्ता) ने किया है। किंतु दोनों वाक्यों की संरचना की भिन्नता से इनके अर्थों में अंतर आ गया है।

वाक्य (क) में क्रिया कर्ता की स्वेच्छा से संचालित है – अर्थात् “श्याम” ने अपनी इच्छा से, जानते-बूझते फूलदान तोड़ा है।

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IGNOU MHD 06 Free Solved Assignment 2023

जहां वाक्य (ख) में यह क्रिया स्वेच्छाचालित न होकर किसी चूक करा परिणाम है। अनुवादक में इस अंतर को समझकर सही ढंग से संप्रेषित करने की क्षमता होनी चाहिए।

वाक्य में निकटतम पदों की पहचान : –

कई बार किसी भाषा में वाक्य के पदों का परस्पर संबंध स्पष्ट नहीं होता। कुछ स्थितियों में ऐसे वाक्यों के एक से अधिक अर्थ निकलते हैं।

उदाहरण को लिए अंग्रेज़ों के एक प्रसिद्ध चुटकुले का एक वाक्य है जिसमें खरीदार महिला सेल्सग्ल से कहती है ।
I want to try out that dress in the show window.

इस वाक्य से सीधे-सीधे दो अर्थ निकलते हैं :
मैं यह पोशाक ‘शे विंडों’ में पहनकर देखना चाहती हूँ।
मैं वह ‘शो विंडो’ वाली पोशाक पहनकर देखना चाहती हूँ।

इस प्रकार आप देख सकते हैं कि किसी वाक्य के सही आशय को समझने के लिए उसके
विभिन्न घटकों का विश्लेषण आवश्यक है और यह देखना भी ज़रूरी है कि अर्थ की दृष्टि
से कौन-से घटक निकट हैं।

व्याकरण संबंध:-

किसी भी वाक्य में व्याकरण संबंध बोहोत मैंने रखता है। जैसे की अगर हम

राम खाना खा रहा है वाक्य में रहा है की जगह रही है लगा देंगे तो वो स्त्रीलिंग को दर्शाएगा, जब की राम एक पुलिंग है, और व्याकारणगत नियम के अनुसार उसके वाक्य में पुलिंग का व्यवहार किया जाएगा।

इसीलिए वाक्य विचार और अनुवाद के लिए व्याकारणगत संबंध को भी अति जरूरी निवेश माने चलते है।

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(घ) शैली बिज्ञान और भाषाबिज्ञान का पारस्परिक संबंध

भाषाविज्ञान भाषा तथा उसके प्रत्येक प्रकार्य एवं प्रयोग का अध्ययन और विश्लेषण करता है तो शैलीविज्ञान उसकी अनुप्रायोगिक विधा है। भाषाविज्ञान मुख्य रूप से उस भाष तक सीमित है जो नियमों की सुगठित एवं समाजपरक व्यवस्था है और समुदाय के लोगों में रसामाजिक संपर्क स्थापित करने की पद्धति है जो एक दुसरे की बात समझने के लिए सहायक हो सकती है।

हम जानते हैं कि भाषाविज्ञान उसकी भाषा संहिता के संसाधनों का पता लगाता है जो वास्तविक संदेश का सृजन करने हेतु प्रयुक्त होती है। यह वाक्यों के भीतर परस्पर संबंधों की व्यवस्था के रूप में भाषा से जुड़ा हुआ है। वहीं शैलीविज्ञान वाक्यों के संदर्भपरक यथार्थ वाक के अतिरिक्त संसाधनों की ओर ले जाता है और यह मुख्य रूप से भाषा के बोधात्मक, अभिधात्मक और सौंदर्यपरक संसाधनों के प्रयोजनमूलक पक्षों का अध्ययन है।

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भाषाविज्ञान का संबंध वक्ता की आम प्रेरणा से नहीं है कि वह अपनी भाषा के द्वारा और क्या प्राप्त करना चाहता है। यह स्थितिपरक संदर्भ से न तो संबंधित है और न ही वक्ता और श्रोता के बीच और उनके सामाजिक स्तर से या उनकी भूमिका से उसका संबंध है। लेकिन मानव तो सामाजिक प्राणी है, इसलिए उसकी भाषा में सामाजिक संरचना, सामाजिक व्यवहार और मानव संस्कृति का भी योगदान रहता है जिसके लिए शैलीविज्ञान उपयोगी सिद्ध होता है।

इसीलिए शैली और भाषा विज्ञान के अध्ययन के समय काव्य और भाषाओं को तीन मुख्य संदर्वों में देखा जाता है:

  • १) काव्य भाषा है अर्थात् पूर्णतया भाषा के क्षेत्र में आता है और इसलिए यह उसका एक अंग है। अतः काव्य की आलोचना भाषा के क्षेत्र में की जा सकती है।
  • २)काव्ये भाषा नहीं अपितु कला है। अतः वह भाषाविज्ञान के क्षेत्र के बाहर है।
  • ३) काव्य भाषा और कला के बीच आता है अर्थात् इसके कुछ पहलू भाषाविज्ञान के अंतर्गत आते हैं और कुछ कला के भीतर। इस प्रकार वह एक साथ दोनों विभिन्न क्षेत्रों का एक अंग है।

भाषाविज्ञान भाषा का वर्णनात्मक ज्ञान कराता है जबकि शैलीविज्ञान भाषा के स्जनात्मक प्रयोग की ओर जागरूकता पैदा करता है। जिससे सर्जनात्मक प्रयोग के द्वारा रांदर्भानुसार अर्थ परिवर्तन हो जाता है और व्याकरणिक नियमों का अतिक्रमण होता है। शैलीविज्ञान ध्यनि, तप, वाक्य एवं शब्द के स्तरों पर विशिष्टीकरण, विचलन और सर्जनात्मकता के संबंध में भाषाविज्ञान की सहायता करता है। इसमें शाब्दिक अर्थ की व्याख्या न करके अर्थगत विचलन की ओर ध्यान देना पड़ता है।

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इसी प्रकार भाषाविज्ञान से कलात्मक शैली की समस्याओं को नहीं सुलझाया जा सकता जो भाषा के विभिन्न प्रयोजनमूलक रूपों का एक अंतरंग अंग है। इसकी विश्लेषण विभिन्न संरचनात्मक त्वयों और प्रक्रियाओं का निर्धारण करता है।

जबकि शैलीबिज्ञान वाक के सामान्य शैलीगत अभिलक्षणों की स्थापना करने में सहायता करता है। शैलीविज्ञानिक विश्लेषण का कार्यक्षेत्र वाक के ठोस व्यवहार की संरचना है और उसके विशिष्ट तत्वों के चयन एवं उनके प्रयोगीकरण की विशिष्ट रीति है।

शैलीविज्ञन भाषायी साधनों के प्रयोजनमूलक इकाइयों का सही और वृहद ज्ञान दिलाने में सहायता करता है। अतः साहित्यिक कृति के शैलीवैज्ञानिक अध्ययन में केवल भाषा का अध्ययन नहीं आता वरन् उस कृति का अध्ययन भाषावैज्ञानिक विधि-प्रविधि को अपनाकर किया जाता है जो उसे वस्तुनिष्ठ बनाता है।

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