IGNOU MHD 06 Free Solved Assignment 2023

IGNOU MHD 06 Free Solved Assignment 2023

MHD 06 (हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास)

सूचना  
MHD 01 free solved assignment मैं आप सभी प्रश्नों  का उत्तर पाएंगे, पर आप सभी लोगों को उत्तर की पूरी नकल नही उतरना है, क्यूँ की इससे काफी लोगों के उत्तर एक साथ मिल जाएगी। कृपया उत्तर मैं कुछ अपने निजी शब्दों का प्रयोग करें। अगर किसी प्रश्न का उत्तर Update नही किया गया है, तो कृपया कुछ समय के उपरांत आकर फिर से Check करें। अगर आपको कुछ भी परेशानियों का सामना करना पड रहा है, About Us पेज मैं जाकर हमें  Contact जरूर करें। धन्यवाद 

MHD 06 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

1 जैन साहित्य के विविध प्रकारों का परिचय दीजिए।

आदिकालिन साहित्य मैं जितने प्रकार के साहित्य मिलते है लगभग उन सभी साहित्य की प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाया जा सकता है, पर जैन साहित्य इन सभी का अपवाद है। जैन साहित्य का आश्रय धर्म संप्रदाय मैं ही हुआ था, इसीलिए उस साहित्य का लिखित रूप अभितक अपरिवर्तित है।

बौद्ध धर्म जिस प्रकार देश के पूर्वी क्षेत्र में जनभाषा को आधार बना कर अपने मतों का प्रचार किए, ठीक उसीप्रकार जैन धर्म भी देश के पश्चिमी क्षेत्र में अपने मतों के प्रचार हेतु जन भाषा को माध्यम बनाया जो की मुख्य रूप से अपभ्रंश भाषा थी।

और इसी भाषा में जैन साहित्य के मुख्य रूप से 3 प्रकार के रचनाएं मिलती है। प्रथम प्रकार मैं पौराणिक काव्य जिसमे स्वयंभू, पुष्पदंत आदि के रचनाएं, द्वितीय प्रकार को मुक्तक काव्य और तृतीय प्रकार के काव्य रचनाओं में हेमचंद्र और मेरूटिंग आदि के रचनाओं को लिया जाता है। जैन साहित्य के कुछ प्रकारों कुछ इस प्रकार के है :

पौराणिक काव्य:-

पौराणिक विषयों को लेकर जैन कवियों ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में विपुल साहित्य की रचना की। इस साहित्य में जीवन के मर्म के साथ उपदेश और धर्म का अदभुत संयोग देखने को मिलता है। जैन अपभ्रंश काव्य की समस्त प्रबंधात्मक कृतियों पद्यबद्ध हैं, जिसके चरित नायक या तो पौराणिक हैं या जैन धर्म के निष्ठापूर्ण अनुयायी । मध्यकाल में धर्म प्रसार के लिए ब्राह्मणों और जैनों द्वारा पुराण साहित्य की रचना हुई थी।

पुराण साहित्य की सबसे बड़ी खामी यह थी कि उसमें मानवीय दशाओं का स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता है। काव्य में जीवन की मार्मिक अनुभूतियों और दशाओं का वर्णन भी कई स्थल पर होता है, परंतु काव्य में काव्यत्च दर्शनिक उद्देश्य के साधन रूप में ही प्रस्तुत होता है।

जैन काव्य में कहीं-कहीं धर्म ने लौकिक अनुभूति को आच्छादित कर लिया है। लौकिक अनुभूति और धार्मिक अनुभूति के बीच द्वंद्वात्मक भाव पैदा हो गया है। विचारधारा की प्रबलता के कारण अंत में मोक्ष, वैराग्य आदि का पक्ष रखा गया है, परंतु जीवन की जटिलता से पैदा होने वाली कठिनाइयों से कवि ने मुँह नहीं मोड़ा है।

पौराणिक काव्य के उदाहरण मैं स्वयंभू रचित पउमचरिउ उच्च कोटि का काव्य माना जाता है। इस काव्य की 83 संधियों को स्वयंभू ने लिखा था, बाद में उसमें सात संधियों को उनके पुत्र त्रिभुवन ने जोड़कर काव्य को पूरा किया।

पउम चरिउ’ में राम और सीता के जीवन की कहानी है। इस काव्य में कवि ने राम को साधारण मनुष्य के समान ही वर्णित किया है जिसमें उल्लास और अवसाद के भाव हैं। सीता के चरित्र में करुणा है परंतु वह अंत में वैराग्य मार्ग को ग्रहण करती है ताकि दूसरे जन्म में स्त्री होकर जन्म नहीं लेना पड़े।

अन्य जैन काव्यों की तरह इस काव्य के प्रारंभ में ब्राह्मण मत की आलोचना की गई है। ब्राह्मण मत की आलोचना किसी धार्मिक आग्रह का परिणाम न होकर सामाजिक आग्रह का परिणाम मालूम होती है। जैन भी उसी सामाजिक वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे जिसके खिलाफ सिद्ध और नाथ लड़ रहे थे। ‘

इस प्रकार काव्य के अन्य उदाहरण के रूप मैं ‘महापुराण’ पुष्पदंत द्वारा रचित महाकाव्य भी सामने आता है। महापुराण’ का मतलब प्राचीनकाल की महत्ती कथा से है। महापुराण में जैन धर्म के 63 महापुरुषों का वर्णन है| महापुराण की कथावस्तु का फलक अत्यधिक विराट है। महापुराण’ की विशिष्टता उसके धार्मिक होने में नहीं बल्कि उसकी महत्ता मानव जीवन की अभिव्यंजना में है।

मुक्तक काव्य:-

जैन साहित्य में चरित काव्य के अतिरिक्त मुक्तक काव्य की रचनाएँ भी काफी हुई हैं। मुक्तक साहित्य में प्रधान रूप से दो प्रकार की भावधारा मिलती है प्रथम प्रकार की वे रचनाएँ हैं, जो साधकों को लक्ष्य में रखकर लिखी गई हैं और यह काव्य परमसमाधि तथा रहस्यात्मक अनुभूतियों को ध्यान में रखकर लिखा गया है। दूसरे प्रकार की काव्य रचना में उनका संबंध काव्य के आचरण शास्त्र से है, जहां इस प्रकार के काव्यों के माध्यम से वे काव्य रचना का उद्देश्य श्रावरकों को तीर्थ, ब्रत, उपवास आदि का उपदेश देना है। इस प्रकार की रचनाओं में हम रास, फाग, चर्चरी आदि को रख सकते हैं।

रहस्यात्मक साहित्य:-

रहस्यात्मक काव्यों का प्रभाव जैन साहित्य में भी देखने को मिलता है परंतु जैन धर्म में इन काव्यों की संख्या अल्पमात्रा में ही उपलब्ध होती है। जिसमे जोइन्दु का ‘परमात्मप्रकाश’ और ‘योगसार’ तथा मुनिरामसिंह का ‘पाहुड दोहा’ जैन साहित्य की उल्लेखनीय रहस्यवादी काव्यकृति के रूप मैं सामने आता है। ‘पाहुड़ दोहा में मुनिरामसिंह ने मूर्ति पूजा का खंडन किया है।

पाहुड़ दोहा’ में योगपरक शब्दावली का प्रयोग मिलता है। इसके अलावा परमात्मप्रकाश में परमात्मा को नित्य निरंजन स्वरूप माना गया है। जोइन्दु के अनुसार वह परमात्मा योग, वेद और शास्त्रों से नहीं जाना जा सकता है। निर्मल ध्यान द्वारा उसकी अनुभूति की जा सकती है।

जैन धर्म के दार्शनिक सिद्धांतों को मुख्य रूप से जोइन्दु ने ही काव्यात्मक साँचे में ढालने का प्रयास किया है। जैन दर्शन में कहा गया है कि आत्मज्ञान से मिथ्या दृष्टि दूर हो जाती है और परम पद की प्राप्ति होती है । समान विकल्पों का विलय होना परम समाधि है और परम समाधि की प्राप्ति से समस्त संसार के अशुभ कर्मों का क्षय हो जाता है।

जैन रास साहित्य:-

उपरांत प्रकारों के पश्चात जैन साहित्य में रास ग्रंथों की प्रचुरता दिखाई पड़ती है। जो की मुख्य रूप से रास नृत्य गीत और अभिनय के प्रति रहे मनोभाव को ही सूचित करता है। काव्यों के रचना के अनुसार उस समय मैं ताल देकर काव्य का गायन किया जाता था, इसलिए इसमें नृत्य, संगीत और अभिनय का स्वाभाविक रूप से जुड़ाव हो गया।

रूप गठन की दृष्टि से प्रबंध और मुक्तक दोनों में रास काव्य लिखे गए हैं। प्रमुख रास ग्रंथों में भरतेश्वर के ‘बाहुबली रास’, ‘चंदनबाला रास’ तथा ‘उपदेश रसायन रास” का नाम मुख्य रूप से गिनाया जा सकता है। भरतेश्वर बाहुबली रास शालिभद्र सूरि की रचना है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

इसे हम कथा काव्य कह सकते हैं जिसमें कथा और गायन का विशिष्ट सम्मिश्रण पाया जाता है। भरतेश्वर बाहुबली रास में रचनाकार ने हिंसा का विरोध किया है। कवि ने यह संकेत करने का प्रयास किया है कि सामंती समाज में युद्ध की विभीषिका कितनी भयानक होती थी।

व्याकरणिक ग्रंथ और साहित्य:-

जैन रचनाकारों ने आपभ्रंश में व्याकरण ग्रंथ का भी निर्माण किया था। आचार्य हेमचन्द्र का ‘सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन’ अपभ्रंश व्याकरण का ग्रंथ है, जिसकी रचना 1143 ई. के आसपास माना जाता है और इस ग्रंथ में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश आदि तीनों भाषाओं का उचित समावेश मिलता है।

इस व्याकरण ग्रंथ में हेमचन्द्र ने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के सिर्फ एकाध उदाहरण ही प्रस्तुत किए हैं परंतु अपभ्रंश के उदाहरण में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसके अलावा हेमचन्द्र के व्याकरण से इस बात का पता चलता है कि तब तक अपभ्रंश भाषा, साहित्य की भाषा हो चुकी थी परंतु अपम्रंश के परिनिष्ठित रूप से अलग, देशभाषा और अपभ्रंश के योग से एक नई भाषा विकसित हो रही थी जिसका विकास आगे चलकर हिंदी के रूप में हुआ।

हेमचन्द्र दो प्रकार की अपभ्रश भाषा की सूचना देते है – प्रथम प्रकार नागर अपभ्रश है और दूसरे प्रकार की भाषा ग्राम्य अपभ्रंश है। ग्राम्य अपश्रश और देशभाषा के स्वाभाविक मिश्रण से एक नये प्रकार की भाषा का प्रारंभ होता है, जो अपभ्रेंश की साहित्यिकता और शास्त्रीयता से अलग हटी हुई थी, उसका पता हमें हेमचन्द्र के शब्दानुशासन से ही चलता है।

आचार्य मेरुत्ंग की ‘रचना प्रबंधचिंतामणि’ जिसकी रचना 1305 ई. के आसपास हुई थी, और यह संस्कृत ग्रंथ भोज प्रबंध’ के ढंग पर लिखी गई थी। इसमें बहुत से प्राचीन राजाओं के आख्यान संगृहीत किए गए थे।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

2 रीतिसिद्ध कवियों का परिचय देते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ बताइए।

आचार्य केशबदास

इनकी चर्चा साहित्य के इतिहासकारों ने भक्तिकाल के फुटकल कवियों में की है। किन्तु बिना केशवदास का श्रद्धापूर्वक स्मरण किए हिंदी रीति साहित्य की भूमिका का प्रारंभ कोई न कर सका। पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र लिखते हैं – “केशव की रचना में इनके तीन कूप दिखाई देते हैं – आचार्य का, महाकवि का और इतिहासकार का। ये परमार्थतः हिन्दी के प्रथम आचार्य हैं।

इन्होंने ही हिन्दी संस्कृत की परंपरा की व्यवस्थापूर्वक स्थापना की थी।” डॉ. भगीरथ मिश्र ने भी विश्वताथ जी के इस कथन का समर्थन किया है। आचार्य शुक्ल ने केशव की सहदयता पर आक्षेप करते हुए इनकी कविता दुरुहता और अस्पष्टता का सविस्तार उल्लेख किया है।

डॉ. जगदीश गुप्त ने भी कहा है कि ‘सुबरन” की खोज में तथा कवि छढ़ियों के निर्वाह में तललीन उनकी काव्य चेतना कवि-सुलभ रागात्मक तारतम्य और सहज सँदर्य बोध से प्रायः वंचित रह गई है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

इन्होंने मुक्तक और प्रबंध दोनों काव्य रूपों में अनेक काव्यों की रचना की – उदाहरण के रूप में रस (रसिकप्रिया), अलंकार (कविप्रिया) छंद और भक्ति (रामर्ंद्रिका, छंदमाला), वीर-प्रशस्तिकाव्य (वीर सिंह देवचरित, जहाँगीर जस चन्द्रिका, रतन बावनी), वैराग्य (विज्ञानगीता) आदि को लिया जा सकता है।

रीतिकालीन कविता के लिए एक विशेष मानसिक वातावरण के निर्माण में इनका योगदान मूल्यवान है यद्यपि इनमें सहृदयता और निर्मल शास्त्र ज्ञान का अभाव माना जाता है फिर भी, रीतिकालीन कविता की सभी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व केशव का साहित्य करता है। केशव की कविता में शास्त्रीय विवेचन की सामग्री मिलती है। ‘

कविप्रिया’ और “रसिकंप्रिया’ शास्त्रीय ग्रंथ हैं। ये दोनों ग्रंथ रीतिकाल के आधारभूत लक्षण ग्रंध हैं। इन ग्रंथों की विषयवस्तु का विवेचन करना अनिवार्य होगा। ‘रसिकप्रिया’ में नायिका भेद का वर्णन है। कामजास्त्र के अनुसार, विभिन्न उम्र के अनुसार आदि कई प्रकारों से नायिका भेद का विवेचन किया गया है। अमीर और सामंत सुविधाभोगी दर्ग थे। सामंत अपनी हैसियत के अनुसार हरम में रानियों को रखते थे। रानी का मुख्य कार्य स्लामंत पति को रिना होता था।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

शास्त्र ने नायिका भेद को रचकर उपयुक्त नारी पात्र को सामंत के सामने प्रस्तुत होने का विधान बनाया। नायिका भेद की रचना की उपयोगिता विशुद्ध भोग-विलास के लिए थी। उसका जन सामान्य से कोई सीधा तात्पर्य नहीं था। नायिका भेद का सूत्र श्रुंगारिक मनोभाव से जुड़ा हुआ था।

मत्तिराम

मतिराम रीतिकाल के विशिष्टंग (रस, अलंकार, छंद) – निरूपक आचारयों में प्रमुख थे। इन्होंने भानुमिश्र के रस और नायिका भेद के लक्षणों का आधार लेकर ‘रसराज” नामक प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ की रचना की। इन्होंने दोहों में लक्षण और सरस सवैयों – कवित्तों में उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इनका ग्रंथ ‘ललितललाम’ प्रसिद्ध अलंकार-निसरूपक ग्रंथ ‘कुवलयानंद’ के आधार पर निर्मित है। इसके उदाहरण – भाग में राजा ‘ भावसिंह हाड़ा की प्रशस्ति पाई जाती है।

छंदो-निरूपक ग्रंथ छंदसार’ शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनकी ‘सतसई’ में 703 दोहे हैं जिनमें पूर्व निर्मित ग्रंथों के भी दोहे संग्रहीत हैं। सतसई के अंत में आश्रयदाता भोगनाधथ की प्रश्नांसा की गई है। आचार्य शुक्ल ने लिखा है, “मतिराम की-सी स्निग्थ और प्रसादपूर्ण भाषा रीति का अनुसरण करने वालों में बहुत ही कम मिलती है। भाषा के ही समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम हैं और न उनके व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ ।” वाध्तव में इनकी प्रसिद्धि का मूल !

कारण इनके द्वारा दिए गए उदाहरणं की स्वाभाविक सरसता ही है। मतिराम के काव्य में स्वाभाविकता है। रीतिकाल के अन्य कवियों की तरह उन्होंने वैचित्य को अपने काव्य में स्थान नहीं दिया है। रीति काल की | परिपाटी का पालन करते हुए भी वे झूढ़ियों से मुक्त हैं। उनकी कविता में नामिका के रूप वर्णन अथवा कार्यव्यापार के जो चित्र मिलते हैं, उसमें गृहस्थ जीवन की झलक मिलती है।

भूषण
भूषण शिवाजी के समकालीन थे और उन्होंने शिवाजी तथा छत्रसाल दोनों का आश्नय ग्रहण किया। शिवराज भूषण, शिवा बामनी और छत्रसाल दशक इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। रीतिकाल की सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य – प्रवृत्ति श्रृंगरिकता की उपेक्षा करते हुए इन्होंने अपने प्रसिद्ध अलंकार-निरूपक ग्रंथ ‘शिवराजभूषण में वीर प्रशस्तिपरक उदाहरणों की रचना की है।

इसमें ‘मतिराम के ललितललाम’ के 100 अलंकारों के अतिरिक्त 5 शब्दालंकारों का भी समावेश किया गया है। पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने सही संकेत किया है कि परंपरा के फेर में हिन्दी के कितने ही कवियों का सच्चा और उत्कृष्ट रूप निखरने नहीं पाया। अलंकारों के बोझ से वीर रस दब गया। भूषण के लक्षण कई स्थानों पर अस्पष्ट और भ्रामक हैं।

भूषण को काव्यरीति का अच्छा अभ्यास न था। डॉ. महेन्द्र कुमार का मानता है कि भूषण के काव्य में वीर रस की व्यंजना के स्थान पर राजविषयक रति का ही परिपाक हुआ है क्योंकि “वाणी के ओज पर पूर्ण दृष्टि रहने के कारण सामान्य रूप से ये उन तत्त्चों का निर्वाह नहीं कर पाए जिनसे वीर-रस का परिपाक होता है – कर्म के प्रति आश्रय की ललक तथा अभीष्ट सिद्धि के लिए व्यापार शुंखला में उत्तरोत्तर आनंदप्राप्ति की व्यंजना का अभाव इनकी अनुभाव योजना को शिधिल कर गया है।”

इनके दो मुक्तक ग्रंथ शिवाबावनी’ और झत्रसाल दशक’ में इनका कविरूप अधिक उभर सका है। वीर रस के साथ-साथ अबद्धुत, भयानक, वीभत्स और रौद्र भी इसमें व्यंजित हुए हैं। इनके ‘भूषण उल्लास’, दूषण उल्लास” और “भूषण हजारा” भी यदि उपलब्ध हो जाते तो इन्हें संभवत: आचार्य के रूप में प्रतिष्ठा मिल सकती थी। भूषण की सभी रचनाएँ मुक्तक हैं। इनकी साहित्यिक भाषा ब्रज है। रीतिकार के रूप में चाहे इन्हें सफलता न मिली हो परन्तु कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

“भूषण’ वास्तव में इनका नाम नहीं बल्कि उपाथि है जो इन्हें चित्रकूट के नरेश सोलंकी हृदयराम के पुत्र रुद्र ने प्रदान की थी। भूषण की कविता में ओज है। वे वीर रस के कवि थे। ओज वीर रस की कविता का स्थायी भाव है। ओज ने उनकी कविता में आवेग को भरा।

यह आवेग उन्हें स्तामाजिक जीवन से मिला था। सामाजिक जीवन की परिस्थिति की माँग युद्ध और आक्रमण था। युद्ध और आक्रमण की कविता के लिए जिस प्रकार से भाव का संगठन काव्य में होना चाहिए उसी प्रकार का भाव भूषण की कविता में मिलता है। भूषण के छंद में आवेग और अनुभूति की एकता है।

देव
रीतिकालीन सर्वगनिरूपक आचार्यों में देव का स्थान महत्वपूर्ण है। बिहारी या भूषण की तरह इ्हें कोई ऐसा आश्रयदाता न मिल सरका जो इन्हें पूर्णतः संतुष्ट कर सकता। अतः जीवनभर इन्हें अनेक छोटे बड़े दरवारों के चक्कर लगाने पड़े। संभवत: यही कारण है कि उन्हें अपने पुराने छंदों में कुछ नए जोड़ कर अनेक ग्रंथों का निम्माण करना पड़ा।

इनके ग्रंथों की संख्या 72 बताई गई है पर अभी तक 25 ग्रंथ ही उपलब्ध हुए हैं। इनमें से हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास” में केवल 18 ग्रथों का उल्लेख है। प्रेमचंद्रिका, रागरत्नाकर, देवशतक, देवचरित्र और देवमायाप्रपंच को छोड़कर शेष काव्य शास्त्रीय हैं। इनके विवरणों में न जाकर सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद्रिका’ में वासना रहित प्रेम का महत्त्व प्रतिपादित है। इस कृति में प्रेमस्वसूप, प्रेममहात्य आदि विषयों को ललित शैली में वर्णित किया गया है।

‘रागरत्नाकर’ में संगीत विषयक चर्चा है। देव शतक अंतिम दिनों की रचना होने के कारण वैराग्य परक है। इसमें कवि ने दार्शनिक भावनाओं को पूर्ण अनुभूति के साथ अंकित किया है। दिवचरित्र’ श्रीकृष्ण के चरित्र पर आधारित प्रबंथ काव्य है। दिवमाया प्रपंच’ संस्कृत के ‘प्रबोधचंद्रोदय” का पद्यममय अनुवाद है। काव्य शास्त्रीय ग्रंथों भावविलास रस, नायिका भेद और अलंकार निरूपक ग्रंथ है।

शब्दरसायन’ में काव्यांगों की चर्चा है। “सुखसागर तंरग’ भी काव्यांगों पर लिखित उदाहरणों का संग्रह है। ‘अष्टयाम’ अपने नाम से ही वण्यवस्तु का संकेत देता है। इन्होंने श्रंगार को मूल रस के रूप में प्रतिध्ठित किया है आचार्य शुक्ल ने जु टिपूर्ण भाषा होने पर भी भाव : निर्वाह में इन्हें सफल माना है।

यद्यपि इन्होंने ज्ञान-वैराग्य और भक्ति विषयक काव्य रचना भी की है पर सफलता इन्हें शु गारिक रचनाओं में ही मिली। डॉजगदीश गुप्त का मत है कि देव भी कवित्वप्रधान आचार्यत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्होंने भाषा के सौष्ठ, समृद्धि और अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

देव आचार्य्य और कवि थे। देव के काव्य में मानव भनोभाव का अत्यंत सूक्ष्मतापूर्वक विश्लेषण किया गया है। मनोभाव का सजीव चित्र उनके काव्य में मिलता है। प्रेम भाव में मनःस्थिति की चंचलता का बड़ा ही रमणीय चित्र इस पद में प्रस्तुत हुआ है।

भिखारीदास:

इन्हें सर्वाग-निरूपक आचार्यों में प्रमुख माना जाता है। इनके द्वारा रचित ‘रस सारांश’ में रस और रसांगों का तथा ‘मुंगार मिर्णय’ में श्रंगार के आलंबन नायक -नायिका के भेदों का वर्णन भानुदत् की ‘रसमंजरी’ और ‘रसतरंगिणी” के अधार पर किया मया है। काब्य निर्णय’ में मम्मट, विश्वनाथ, जयदेव और अप्पय दीक्षित आदि के ग्रंथों को आधार बनाया गया है।

इसमें रस, अलंकार, गुण, दोष और ध्वनि का विवेचन किया गया है। इनका काव्य उत्कृष्ट और ललित है। भाव पक्ष और कलापक्ष का सुन्दर सामंजस्य इनके कवि कर्म की उत्कृष्टता को प्रमाणित करते हैं, पर आचार्य कर्म में इन्हें पयप्त सफलता नहीं मिली। अलंकारों के वर्गीकरण और तुकों के विवेचन में इनकी मौलिकता झलकती है। ‘छंदार्णव पिंगल’ में संस्कृत-प्राकृत हिन्दी ग्रंथों से सहायता ली गई है। इन्होंने नीतिपरक सुन्दर सूक्तियों की भी रचना की है।

रीतिकाव्य में भिखारीदास का महत्त्व कवि और आचार्य दोनों रूपों है। अलंकार विवेचन के क्रम मे उन्होंने अलंकारों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया। नायिका भेद पर उन्होंने नई दृष्टि से विचार किया। छंद विवेचन में भी कवि ने मौलिक सूझबूझ का परिचय दिया है। छंद के संदर्भ में इन्होंने प्राकृत और संस्कृत काव्यों का अध्ययन किया। इन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष दिया कि तुक का प्रारंभ अपभंश काळ्य से होता है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

काव्यांग के निरूपण में भी भिखारीदास का महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने छंद, रस, अलंकार, रीति, गुण, दोष, शब्द- शक्ति आदि सब विषयों पर गहराई से विश्लेषण किया है। काव्यांग विवेचन के क्क्रम में इन्होंने बड़े मनोहर उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। भावों की स्वाभाविकता के साथ कलात्मकता का संयोग निम्नलिखित पद में देखा जा सकता है।

6) पदमाकर
कवि पह्माकर रीतिकाल के विशिष्टंग निरूपक आचार्य के रूप में जाने जाते हैं। जयपुर नरेश जगतसिंह के आश्रय में इन्होंने “जगदविनोद” नामक नवरस-निरूपक ग्रंथ की रचना की। मतिराम जी के ‘रसराज’ के समान पद्माकर जी का जगद्विनोद’ भी काव्यरसिकों और अभ्यासियों दोनों का कंठहार रहा है।

इन्होंने ‘हिम्मतबहादुर विरदावली” नाम की वीर रस की एक बहुत ही फड़कती हुई पुस्तक लिखी। डॉ. बच्चन सिंह ने इनके रीतिकाव्य- ग्रंथों की सराहना की है पर प्रशस्तिपरक और भक्तिपरक काव्य को ‘काव्याभास माना है, क्योंकि इनमें काव्य-दूढ़ियों का निर्वाह अधिक है। ‘गंगालहरी’ और ‘प्रवोधपचासा’ काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से सामान्य हैं। गंगालहरी में कवि ने गंगा का अलंकारों से अद्धितीय अलंकरण किया है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

इन ग्रथों की रचना कवि ने अपने अंतिम दिनों में कानपुर गंगा के तट पर की थी, अतः इनमें चमत्कार की अपेक्षा भक्ति और ज्ञान-वैराग्य की भावना प्रमुख है। इनका अलंकार ग्रंथ ‘धद्माभरण’ लक्षणों की स्पष्टता और उदाहरणों की सरसता के कारण अधिक प्रसिद्ध हुआ । इन्होंने मुक्तक तथा प्रबंथ दोनों शैंलियों में रचना की। इनकी भाषा में प्रवाहमयता है तथा वह सरस एवं व्याकरण सम्मत है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

आधुनिक काल के साहित्य की पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।

शुक्ल युगीन हिन्दी आलोचना पर निबंध लिखिए।

द्विवेदी-युग की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समीक्षा को विकसित एवं समृद्ध करने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को है। वे हिंदी आलोचना के प्रशस्त-पथ पर एक ऐसे आलोक-स्तम्भ के रूप में प्रतिष्ठित हैं जिसके प्रकाश में हम आगे और पीछे दोनों ओर बहुत दूर तक देख सकते हैं। इस युग की आलोचना को “शुक्ल-युगीन आलोचना” के रूप में देखा-समझा जाता है।

आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि यद्यपि द्विवेदी-युग में विस्तृत समालोचना का मार्ग प्रशस्त हो गया था, किंतु वह आलोचना भाषा के गुण-दोष विवेचन, रस, अलंकार आदि की समीचीनता आदि बहिरंग बातों तक ही सीमित थी।

उसमें स्थायी साहित्य में परिगणित होने वाली समालोचना, जिसमें किसी कवि की अन्तर्वत्ति का सूक्ष्म व्यवच्छेद होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखाई जाती हैं, बहुत ही कम दिखाई पड़ी। समालोचना की यह कमी शुक्लयुगीन हिंदी आलोचना, विशेषत: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की व्यावहारिक आलोचना से दूर हुई।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

इस युग में आलोचकों का ध्यान गुण-दोष कथन से आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अंत:वृत्ति की छानबीन की ओर गया। इस प्रकार की समीक्षा का आदर्श शक्ल जी की सूर, जायसी और तुलसी संबंधी समीक्षाओं में देखा जा सकता है।

शुक्ल जी ने सूर, तुलसी, जायसी आदि मध्यकालीन कवियों और छायावादी काव्यधारा का गंभीर मूल्यांकन करके जहाँ व्यावहारिक आलोचना का आदर्श प्रस्तुत किया और हिंदी आलोचना को उन्नति के शिखर तक पहुँचाया, वहीं “चिंतामणि” और “रसमीमांसा” जैसे ग्रंथों से सैद्धांतिक आलोचना को नई गरिमा और ऊँचाई प्रदान की।

“कविता क्या है’, “काव्य में रहस्यवाद’, ‘साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद’, ‘रसात्मक बोध के विविध रूप’ आदि निबंधों में शक्ल जी ने अपनी काव्यशास्त्रीय मेधा और स्वतंत्र चिंतन-शक्ति के साथ-साथ भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य शास्त्र के विशद् एवं गंभीर ज्ञान तथा व्यापक लोकानुभव और गहरी लोकसंस्कृति का जो परिचय दिया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

शुक्ल युगीन अन्य आलोचना – इस काल में कई दिशाओं से छायावाद के आविर्भाव के समय का डटकर विरोध हुआ, किन्तु दो आलोचकों (शान्तिप्रिय द्विवेदी तथा डॉ० नगेन्द्र) ने छायावाद को स्थापित करने में भरपूर सहायता की।

हमारे साहित्य निर्माता (सन् 1932), कवि और काव्य (सन् 1936 ) तथा साहित्यिकी (सन् 1938) आदि शान्तिप्रिय द्विवेदी के तीन ग्रन्थ प्रकाशित हुए। सन् 1938 में प्रकाशित डॉ० नगेन्द्र के सुमित्रानन्दन पन्त ने विशेष प्रसिद्धि प्राप्त की ।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

छायावदोत्तर काल में सबसे पहले आचार्य नन्ददूलारे वाजपेयी सामने आए। वाजपेयीजी ने शुक्लजी की सीमाओं को पहचानकर आलोचना पद्धति को उनसे मुक्त रखा। छायावादी तत्त्वों को उन्होंने आदर दिया तथा नई कविता की अनेक तत्त्वों की उन्होंने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की।

आधुनिक साहित् तथा नया साहित्य, नये प्रश्न आदि उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस काल के प्रमुख आलोचक थे। हिन्दी साहित्य की भूमिका ऐतिहासिक पद्धति में विरचित उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ सन् 1940 में प्रकाशित हुआ।

आचार्य शुक्ल से हिन्दी वालों ने तुलसी का आदर करना, ग्रियर्सन से जायसी का आदर करना सीखा, आचार्य द्विवेदी से कबीर का आदर करना सीखा। डॉ० नगेन्द्र इस काल के महान (ट) सिद्ध हुए। हिन्दी आलोचना को उनके ग्रन्थों ने एक बार फिर से समयानुकूल भी बनाया तथा गौरवपूर्ण पद पर इस सिद्धान्त में सैद्धान्तिक आलोचना को उसके उत्कर्ष पर उन्होंने पहुँचाया तथा देव और उनकी कविता में व्यावहारिक आलोचना को उसके उत्कर्ष पर उन्होंने पहुँचाया ।

गुलाबराय (सिद्धान्त और अध्ययन सन् 1946 तथा काव्य के रूप 1947), आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र (वाङ्धय विमर्श, हिन्दी साहित्य का अतीत दो भाग और हिन्दी का समसामायिक साहित्य) आदि इसी कोटि के अन्य आलोचक हैं। आचार्य शुक्ल के बाद हिन्दी में स्वच्छंदतावादी, प्रभाववादी, मनोवैज्ञानिक या अन्तश्येतनावादी, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक, अन्वेषण एवं अनुसंधानपरक और प्रगतिवादी या माक्सवादी आलोचना का विकास हुआ।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

प्रयोजनमूतक हिन्दी की संकल्पना स्पष्ट कीजिए।

उत्तर व्यक्ति द्वारा विभिन्न रूपों में बरती जाने वाली भाषा को भाषा – विज्ञानियों ने स्थूल रूप से सामान्य भाषा और प्रयोजनमूलक भाषा इन दो भागों में विभक्त किया है। कुछ लोग भाषा को बोलचाल की भाषा, साहित्यिक भाषा’ और प्रयोजनमूलक भाषा -इन तीन भागों में विभाजित करते हैं। जिस भाषा का प्रयोग किसी विशेष प्रयोजन के लिए किया जाए, उसे प्रयोजनमूलक भाषा कहा जाता है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि प्रयोजन के अनुसार शब्द-चयन, वाक्य-गठन और भाषा प्रयोग बदलता रहता है।

भारत की राजभाषा के पद पर आसीन होने से पूर्व हिन्दी सरकारी कामकाज तथा प्रशासन की भाषा नहीं थी। मुगल शासकों के समय फारसी या उर्दू और अंग्रेजों के समय अंग्रेजी राजकाज की भाषा थी। स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी भारत की राजभाषा बनी।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

इसके फलस्वरुप हिन्दी को साहित्य लेखन के साथ-साथ अब तक अनछुए क्षेत्रों से होकर गुजरना पड़ा, जैसे- आधुनिक ज्ञान – विज्ञान और प्रौद्योगिकी, सरकारी कामकाज तथा प्रशासन, विधि, दूरसंचार, व्यवसाय, वाणिज्य, खेलकूद, पत्रकारिता आदि। इस प्रकार श्प्रयोजनमूलक हिन्दी की अवधारणा सामने आयी।

आन्ध्र प्रदेश के भाषा-विदू श्री मोट्रि सत्यनारायण के प्रयासों ने सन 1972 ई. में प्रयोजनमूलक हिन्दी को स्थापना दी। उन्हें यह दर था कि हिन्दी कहीं केवल साहित्य की भाषा बनकर न रह जाए। उसे जीवन के विविध प्रकार्यों अभिव्यक्ति होना चाहिए। बनारस में ई, में आयोजित एक संगोषी के बाद प्रयोजनमूलक हिन्दी के क्षेत्र में क्रांतिकारी विकास हुआ।

प्रयोजनमूलक हिन्दी की संकल्पना आने के पहले भारत के विश्वृविद्यालयों के हिन्दी विभागों के अन्तर्गत स्नातकोत्तर स्तर पर मुख्य रूप से हिन्दी साहित्य एवं आठ प्रश्रपत्रों में से केवल एक प्रश्नपत्र में भाषाविज्ञान सन् 1974 के सामान्य सिद्वान्तों एवं हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन अध्यापन हो रहा था। लेकिन मोटूरि सत्यनारार ५५ यह विचार सामने रखा कि। साहित्य एवं प्रशासन के क्षेत्रं के अलावा अन्य विभिन्न क्षेत्रों के प्रयोजनों की पूर्ति के लिए जिन भाषा रूपों का प्रयोग एवं व्यवहार होता है, उनके अध्ययन और अध्यापन की भी आवश्यकता है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

हिन्दी भारत की राजभाषा ही नहीं, सम्पर्क भाषा और जनभाषा भी है। हिन्दी केवल साहित्य की भाषा न रहे बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रो में स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त हो, तभी इसका विकास सुनिश्वित होगा । सुखद सूचना यह है कि विविध विश्वविद्यालयों के हिन्दी के पाठ्यक्रमों में प्रयोजनमूलक हिन्दी को स्थान दिया जा रहा है।

हिन्दी भारत की राजभाषा ही नहीं, सम्पर्क भाषा और जनभाषा भी है। हिन्दी केवल साहित्य की भाषा न रहे बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रभावी रूप से प्रयुक्त हो, तभी इसका विकास सुनिश्चित होगा । सुखद सूचना यह है कि विविध विश्वविद्यालयोंम के हिन्दी के पाठ्यक्रमों में प्रयोजनमूलक हिन्दी को स्थान दिया जा रहा है।

प्रयोजनमूलक हिन्दी आज भारत के बहुत बड़े फलक और धरातल पर प्रयुक्त हो रही है। केन्द्र और राज्य सरकारों के वी संवादों का पुल बनाने में आज इसकी महती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। आज इसने कम्प्यूटर, टेलेक्स, तार, इलेक्ट्रॉनिक्स, टेलीप्रिंर, दूरदर्शन, रेडियो, अखबार, डाक, फिल्म और विज्ञापन आदि जनसंचार के माध्यमों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।

शेयर बाजार, रेल, हवाई जहाज, बीमा उद्योग, बैंक आदि औद्योगिक उपक्रम, रक्षा, सेना, इन्जीनियरिंग आदि प्रौद्योगिकी संस्थान, तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्र, आयुर्विज्ञान, कृषि, चिकित्सा, शिक्षा, विश्वविद्यालय, सरकारी और अर्ध सरकारी कार्यालय आदि कोई भी क्षेत्र हिन्दी से अछूता नहीं रह टीपत्री लेटर पैड स्टॉक रजिस्टर लिफाफे, मुहरें, नामपद्र, स्टेशनरी के साथ-साथ – अपनी, लोटा, लोक, के साथ-साथ कार्यालय-ज्ञापन, परिपत्र, आदेश, राजपत्र, अधिसूचना, अनुस्मारक,प्रेस विज्ञाप्ति, निविदा, नीलाम, अपील, केबलग्राम, मंजूरी पत्र तथा पावती आदि में प्रयुक्त होके अपने महत्त्व को स्वतः सिद्ध कर दिया है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

कुल मिलाकर यह कि पर्यटन बाजार, तीर्थस्थल, कल-कारखने, कचहरी आदि अब प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्र तथा पावती की जन में आरपार को हिन्दी सित कर दिया है। कुल मिलाकर वह कि पर्यटन बाजार, कल-कारखने, कचारी आदि अब हैं के लिए यह बहुत शुभ है।

प्रयोजनमूलक हिन्दी के विविध रूपों का आधार उनका प्रयोग क्षेत्र होता है। प्रयोजनमूलक हिन्दी के भेदों की गणना सम्भव नहीं है। अध्ययन के लिए किसी विवेच्य के भेद प्रभेद करने होते हैं। प्रयोजनमूलक हिन्दी के प्रयोग के प्रमुख क्षेत्र

साहित्यिक प्रयुक्ति

साहित्य किसी भी भाषा की अनिवार्य आवश्यकता है। साहित्यिक भाषा काफी विशिष्टताएँ लिये होती हैं, इसलिए वह लेखकों तथा विशिष्ट पाठकों तक सीमित रहती है। साहित्यिक भाषा में जनसामान्य के जीवन के साथ-साथ दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र तथा संस्कृति का आलेख पाया जाता है। हिन्दी भाषा की साहित्यिक प्रयुक्ति की परम्परा बहुत पुरानी है।

वाणिज्यिक प्रयुक्ति

वाणिज्य या व्यापार, हिन्दी भाषा के प्रयोग का दूसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इसके अन्तर्गत व्यापार, वाणिज्य, व्यवसाय, परिवहन, बीमा, बैंकिग तथा आयात-निर्यांत आदि क्षेत्रों का समावेश होता है। इन क्षेत्रो में प्रयुक्त भाषा अन्य क्षेत्रों में प्रयुक्त भाषा से काफी भिन्न होती है जैसे, सोने में उछाल, चॉदी मन्दा, तेल की धार ऊँची आदि । हिन्दी भाषा की वाणिज्यिक प्रयुक्ति का क्षेत्र काफी विस्तृत और अत्यन्त लोकप्रिय है।

कार्यालिक संयुक्ति

हिन्दी भाषा की अत्यन्त आधुनिक एवं सर्वोपयोगी प्रयुक्ति में कार्यालयी’ प्रयुक्ति आता है। कार्यालयी हिन्दी का प्रयोग सरकारी, अर्थ-सरकारी और गैर-सरकारी कार्यालयों में काम-काज में होता है जहाँ हिन्दी में मसोदा लेखन, टिप्पणी लेखन, पत्राचार, संक्षेपण, प्रतिवेदन, अनुवाद आदि करना पड़ता है। प्रशासनिक भाषा और बोलचाल की भाषा में पर्याप्त्त अन्तर पाया जाता है। काय्यालयी भाषा की अपनी विशिष्ट पारिभाषिक शब्दावली, पद-रचना तथा आदि होते हैं।

जनसंचार एवं विज्ञापन प्रयुक्ति

विज्ञापन और जन-संचार के क्षेत्र में हिन्दी का भरपूर उपयोग हो रहा है। आज हिन्दी के समाचार-पत्र विश्व के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले पत्र बन गए हैं। आकर्षक वाक्य-विन्यास, शब्दों का उचित चयन तथा वैशिष्टयपूर्ण प्रवाहमय भाषिक संरचना आदि विज्ञापन की भाषा के मुख्य तत्व हैं। वर्तमान युग में हिन्दी के विज्ञापन भाषा का रूप जन संचार के माध्यमों (समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, रेडियों दूरदर्शन, सिनेमा) आदि आते हैं।

वैज्ञानिक प्रयुक्ति

वैज्ञानिक एवं तकनीकी हिन्दी से तात्पर्य हिन्दी के उस स्वरूप से है जिसका प्रयोग विज्ञान और तकनीकी विषयों को अभिव्यक्त करते के लिए किया जाता है। 1961 में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अधीन वैज्ञानिक और तकनिकी शब्दावली आयोग की स्थापना की गई। विज्ञान एंव टेक्नोलाजी की भाषा सामान्य व्यवहार की भाषा से सर्वथा भिन्न होती है, अतः इसके लिए हिन्दी, संस्कृत, के साथ अन्तर्राष्ट्रीय शब्दावली का प्रयोग करते हुए शब्दावली का निर्माण किया गया।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

6 क)आदिकाल का सीमा निध्धारण

उत्तर
उत्तर हिन्दी साहित्य के आदिकाल के िषय में विद्वानों में मतभेद है । यह मतमेद अपभंश भाषा को हिन्दी में स्वीकार या बहिष्कृत करने से सम्यन्थित है। वास्तव में जब अपभंश भाषा साहित्यिक माषा के रूप में प्रतिप्ठित हो गयी, तब वह जन भाषा से दूरूर हो गयी । चन्द्रथर शमा गुलेरी ने इसे ही पुरानी हिन्दी कहा है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी का आरंभ सिद्धों की रचनाओं से स्वीकार करते हुए इसे सनु 903 ई० अर्थातृ दसवी शतब्दी से ही मानते हैं।

उन्होंने अपने शोधपुण्ण इतिहास और आलोचना में यह बार-बार आग्रह किया है कि हिन्दी साहित्य का विकास कार्य सातवीं सदी में हो चुका था । काव्य के आधार पर नाथ और सिद्धों का मुल्यांकन करने पर हम यह पाते हैं कि सि्रों ने पंडित परम्परा को खुली चुनौती दी है आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद दूसरे महत्व्पूर्ण इतिहासकार हैं – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवदी । उन्होंने भाषा और साहित्य का रूप इतना अधिक मिला-जुला पाया कि वास्तविक हिन्दी की शुरूआत ही दे भकि्ति काल से मानते हैं ।

आचार्य द्विवेदी दसवीं शताब्दी से चौदह्थी शताब्दी तक के समय को हिन्दी साहित्य का आदि काल मानते हैं । उनके अनुसार इस प्रकार दसवीं जताब्बी से चौदहवीं शताब्बी का काल जिसे हिन्दी का आदि काल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभंश के ही आगे का रूप है । इसी अपभंश् के परवर्ती रूप को कुछ लोग उत्तरकालीन अपभंश कहते हैं और कुछ लोग पुरानी हिन्दी से सम्योचित करते हैं।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

सांकूत्यायन ने आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के काव्य में दो प्रकार के भाव प्राप्त किए हैं – सिद्धों की वाणी और सामन्तों की स्तृति। इसलिए उन्होंने उस काल को सिद्ध सामंत युग कहा है, किन्तु इस नाम से उन अत्यंत महत्तवपूर्ण लीकिक साहित्य की कुछ भी झलक नहीं मिलती है । बाद के साहित्यकारों में डॉ० रामकूमार वर्मा और राहल सांकृत्यायन ने भी सातवीं-आठवीं शताब्दी से हिन्दी साहित्य का आरंभ माना है।

डॉ० रामकूमार वर्मा ने गुलेरी जी के मत का समर्थन किया है और राहल सांकृत्यायन ने भी उत्तर आपभ्ंश की रचनाओं को हिन्दी की रचना माना है । इसलिए हिन्दी साहित्य का आरंभ सातवी शताब्दी से स्वीकार किया जा सकता है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

ख) अवधी भाषा का साहित्यिक भाषा के रूप में विकास

‘कोसल’ अवध का प्राचीन नाम है अतएव इस भाषा को ‘कोसली’ या पूर्वं’ की संज्ञा भी दी जाती है। ‘बैसवाड़ी’ इस क्षत्र के प्रमुख बोली है। जो लखनक, उन्नाव, रायबरेली और फतेहपुर में बोली जाती है। अवधी को मोटे रूप में तीन भागों में बाँट सकते हैं पश्चिरमी (खीरी, सीतापुर, लखनऊ, उन्नाव, फर्तहपुर) केन्द्रीय (बहराइच, बाराबंकी, रायबरेली) जायसी पूर्व अवरधी की परंपरा पर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का ग्रथ ” प्रारभिक हिंदी’ शीर्षक से उपलब्ध है। अवधी भाषा पर पहला उल्लेखनीय कार्य बाबूराम सक्सेना का ‘अवधी का विकास’ है।

पूर्वीं (गौँड़ा, फैजावाद, सुल्तानपुर, इलाहाबाद, जौनपुर, मिर्जापुर का कुछ भाग) यह वही भाषा है जिसमें गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘राजचरितमानस’ है जिसको अज अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। भारत तथा विश्व की अनेक भाषाओं में इसका अनुकवाद हो चुका है। जायसी रचित महाकाव्य ‘पदमावत’ की रचना भी इस भाषा की हुई।
अवधी की भाषिक संरचना तथा रूप रचना पर डॉ. ज्ञानशंकर पांडेय तथा डॉ. त्रिलोक नाथ सिंह ने लखनऊ विश्वविद्यालय से कार्य सम्पन्न किए हैं।

सीमावर्ती जिलों में अवधी समीपस्थ भाषाओं से प्रभावित हुई, जैसे सीतापुर में कन्नौजी से फतेहपुर में कन्नीजी से इलाहाबाद के दक्षिण-पूर्वीं भाग में भोजपुरी व बधेली से।

काव्य भाषा के रूप में अवधी के दो भेद हैं
।. ठेठ अवधी
2 साहित्यिक अवधी।

ठेठ अवधी में सृफियों की काव्यधारा प्रवाहित हुई। प्रारंभ में इसको प्रतिष्टित करने का श्रेय मुल्ला दाऊद को है। प्रथम साहित्यिक ग्रंथ ‘चंदायन’ है। वाचिक परंपरा में अवधी बहुत प्राचीन है। ‘प्राकृत पैंगलए’ में शराबी अवधी के रूप मिलते हैं।

अपभ्रेंश में ‘कहा’ ग्रंथों की परंपरा प्राप्त होती है, जिसकी कृुछ छवि ‘चंदायन’ में भी प्राप्त हुई
चंदायन में दोहा-चौपाई की कडबक शैली का प्रयोग मिलता है। चंदायन ‘लोरिक’ के संपूर्ण जीवन पर आधारित है। जायसी ने ‘पदमावत’ में अपने पूर्व-रचित काब्य ग्रथों-अखरावट, कहारनामा, चम्पावत आदि का उल्लेख किया। अभी तक जायसी पूर्व कुतुबन कृत मुगावती’ प्रप्त हुई है जिसका प्रकाशन हो चुका है।

“मृगावती’ अपने समय में पर्याप्त लोकप्रिय रही। ‘मुगावती’ की भाषा सहज और स्पष्ट है, अलंकृत है। दूसरा प्रसितद्ध ग्रंथ मंझन कृत ‘मुधमालती’ है। मंझन की अवधी अधिक सरल है। कति में विरह बर्णन प्रभावपर्ण है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

जायसी ने “पदमावत’ में अपने पूर्व- रचित काव्य ग्रंथों- अखरावट, कहारनामा, चम्पावत आदि का उल्लेख किया। अभी तक जायसी पूर्व कुतुबन कृत ‘मृगावती’ प्राप्त हुई है जिसका प्रकाशन हो चुका है। ‘ मृगावती’ अपने समय में पर्याप्त लोकप्रिय रही। ‘मृगावरती’ की भाषा सहज और स्पष्ट है, अलंकृत है।

दुसरा प्रसिद्ध ग्रंथ मंझन कुृत ‘मधुमालती’ है। मंझन की अवधी अधिक सरल है। कृति में विरह वर्णन प्रभाकवपूर्ण है।
जायसी रचित ‘पदमावत’ प्रेमाख्यानों की परंपरा में मूर्घन्य है। पदमावती को केन्द्र में रखकर अनेक ग्रंथ लिखे गए। इस महाकाव्य में मसनवी शैली का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। सूफी कवियों ने भारतीय लोक – कथानकों को अवश्य लिया पर तसब्बुफ के आधार पर फारसी की मसनवी शैली में रचना की। प्रेम की पीर ही उनकी साधना का मूत्र मंत्र रहा। भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर समन्वयात्मक दृष्टि का परिचय दिया है। भाषायी आधार ठेठ अवधी रहा। भाषा की दृष्टि से ये पॉक्तियां विशिष्ट हैं।

स्थानीय प्रयोग और लोक जीवन की शब्दावली से भाषा पुष्ट हुई है। इन बिंबों की ओर संकेत करते हुए डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कहा है कि ‘कवि ने इन विंबों का चुनाव सामान्य भारतीय जनजीवन से किया है इसलिए भी उनका संप्रेषण बेजोड़ है।’ उसमान कृत ‘चित्रावली’ भी ‘पदमावत’ की तरह है। नूर मुहम्मद के ग्रंथ ‘इंद्रावली’ और ‘ अनुराग बाँसुरी’ है ।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

ग) भारतेंदु युगीन निबंध

उत्तर भारतेन्द् युग (1873-1900) -भारतेन्द्र युगीन निबन्धकारों के सामने राजनीति, धर्म, आर्थिक दर्दशा, अध्या्म, अतीत का गौरव आदि अनंत विषय फैले हुए थे । इस युग के निबन्धकारों ने इन विषयों पर जी भर कर निबंध लिखे हैं। समाज सुधार और राष्ट्रीयता की भावना इस काल के निबंथों की प्रमुख प्रयृत्तयाँ हैं ।

इस काल के निबंधकारों का प्रमुख उद्देश्य अपने निबन्थों के माध्यम से भारतीय जनता को शिक्षित करके उनमैं राष्ट्रीयता भायना जागृत करना था। भारतेन्द्र ने स्वयं इतिहास, धर्म, कला, समाज-सुधार तथा साहित्य आदि विषयों पर निबंध लिखे।

इन निबंथों में व्यंग्य-शैली का आकर्षण देखते ही बनता है। इसी युग में प्रतापनारायण मिश्र ने ‘समझदार की मौत है, ‘दाँत’, ‘माँ, ‘परीक्षा’, ‘मनोयोग’ आदि विषयों पर निबंध लिखे । इन निबंधों में भी जन-जागरण की प्रवृत्ति ही प्रमुख है। बालकृष्ण भट्ट इस युग के समर्थ निबंधकार हं। भट्ठजी ने ‘देश-सेवा की महत्ता अंग्रेजी शिक्षा और प्रकाश’, ‘बाल-विवाह’, ‘राजा और प्रजा’ आदि अनेक नि्वंधों में सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डाला है।

इनके निवंधों में मूल रूप से समाज-सुथार तथा राष्ट्रीयता की प्रवृत्ति ही प्रमुख है। इस युग का निबंधकार राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण तथा तत्कालीन जीवन चेतना से सीथे जुड़ा हुआ है ।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

घ) कबीरदास

कबीरपन्थियों का विश्वास है कि कबीर का जन्म स्वामी रामानन्दजी के आशीर्वाद के फलस्वरूप एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। वह ब्राद्मणी नवजात शिश् को काशी के लहरतारा नामक तालाब के समीप छोड़ आई थी । उसी समय वहाँ से नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति कहीं जा रहे थे ।

उन्होंने उस बालक को गोद में ले लिया । उसी शिशु का नान वाद में कबीर रखा गया ।
काशी में हम प्रकट भए हैं, रामानन्द चेताए’ के अनुसार वे काशी में उत्पन्न हुए थे । प्रातः वेला में गंगा- स्नान को जाते समय पंचगंगा थार पर स्वामी रामानन्द से ‘राम’ शब्द सुनकर कबीर ने उन्हें अपना गुरु बनाया था। कबीर जुलाहे का कार्य करते थे ।

उनकी पत्नी का नाम लोई था, जिससे उनके कमाल और कमाली पुत्र-पत्री भी हुए । कबीर -पंथी लोग कबीर को अविवाहित मानते हैं, परन्तु यह मत प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।

कबीर बहुत गहरी मानवीयता और सहृदयता के कवि हैं। उनका प्रमुख कवच निश्चयता और निर्भयता हैं, उनमें मानवीय करुणा, निरीहता, जगत के सौंदर्य से अभिभूत होने वाला हृदय विद्यमान है। कबीर की एक और विशेषता काल का तीब्र बोध है। वे काल को सर्वग्रासी रूप में चित्रित करते हैं और भक्ति को उस काल से बचने का मार्ग बताते हैं।

कबीर दास जी निर्गुण निराकार ब्रह्म के उपासक थे। उनकी रचनाओं में राम शब्द का प्रयोग हुआ है। निर्गुण ईश्वर की आराधना करते हुए भी कबीर दास महान समाज सुधारक माने जाते हैं। उन्होंने हिंदू और मुसलमान दोनों संप्रदाय के लोगों की कु रीतियों पर जमकर व्यंग किया।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

समकालीन कविता में बिम्ब और प्रतीक:

समकालीन कविता में बिंब, प्रतीक और मिथक तीनों की स्थिति मिलकर भी कोई सर्जनात्मक वैशिष्ट्य पैदा नहीं कर सकती। नयी कविता ने दमकते-खनकते बिंब, प्रतीक, मिथक दिये थे और उनमें हमारे परम्परा की जातीय स्मृति जीवन्तता से धड़कती थी। यह जातीय धड़कन समकालीन कविता में मंद हो गई। धीमी नब्ज निश्चय ही किसी की खतरनाक बीमारी की सूचक है।

मिथक और बिंब-प्रतीक चेतना के सार्थक उपयोग के अभाव में समकालीन कविता की सपाटबयानी, ब्यौरा-वर्णन, विवरण, वक्तव्यबाजी के बड़बोलेपन का शिकार हो गए। ऐसा नहीं है कि यहाँ प्रतीक-बिंब नहीं है-पर आम आदमी की रोज़मर्रा की जिन्दगी में खोये हुए हैं। जैसे, केदारनाथ सिंह की कविता ‘बैल’ में बैल उस असहाय आदमी का प्रतीक है-जो दूसरों के द्वारा हाँका जाता है :

“वह एक ऐसा जानवर है जो दिन भर,

भूसे के बारे में सोचता है

रात भर ईश्वर के बारे में।

समकालीन कविता में सभी कवियों के अपने-अपने बिंब-प्रतीक हैं। – सर्वेश्वर ने “जंगल’, ‘आग’, ‘कुआनो नदी’, “लोकतंत्र’, “तेन्दुआ’, ‘चट्टानें, न जाने कितने नए प्रतीक निर्मित किए और यही काम धूमिल ने किया। सर्वेश्वर में “जंगल”, इतिहास-चेतना, धूमिल में “जंगल” अव्यवस्था और जगूड़ी की कविता में “जंगल” अराजकता का प्रतीक है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

अर्थ की नई चमक उसमें कौंधती है किन्तु लगातार पुनरावृत्ति और सदैव उसमें नए अर्थ भरने की चेष्टा इस समर्थ प्रतीक को निरर्थकता के कुँए में धकेल देती है। ऐतिहासिक-पौराणिक मिथकों का समकालीन कविता ने सार्थक उपयोग किया है।

इतिहास के पात्र भी मिथक के रूप में आए हैं। मिथकों के इस ढंग के प्रयोग ने जातीय-अस्मिता और वर्तमान स्थितियों के बीच रचनात्मक संवाद कायम किया है। श्रीकान्त वर्मा की “जलसाघर” धर्मवीर भारती की ‘सपना अभी भी’ विजयदेव नारायण साही की “सारनी’ में इतिहास प्रसिद्ध विजेताओं के नाम लगातार कौंधते हैं। श्रीकान्त वर्मा का “मगध” इस क्षेत्र की एक बड़ी रचनात्मक उपलब्धि है – यथा

“केवल अशोक लौट रहा है

और सब

कलिंग का पता पूछ रहे हैं

केवल अशोक सिर झुकाए है

और सब विजेता की तरह चल रहे हैं”

ऐसे ही राजकमल चौधरी की कविता “मुक्ति प्रसंग” में “उग्रतारा” के पौराणिक-मिथक के माध्यम से आधुनिक मनुष्य के मन की स्वाधीनता की घोषणा संस्कारों की रगड़-उलझन के बावजूद की गई है – यथा :

“अब तुम मेरी पूजा करो उग्रतारा

मैं सोया हुआ वर्तमान हूँ

शिव हूँ

तुम्हारा सम्पूर्ण आत्म-निवेदन

स्वीकारने का एकमात्र मुझको रह गया है अधिकार”।

समकालीन कविता में बड़बोलापन एवं सपाटबयानी भी ज्यादातर कविताओं के बिंबों-प्रतीकों-मिथकों को कमजोर बनाती हैं असम्बद्ध शब्दों के संशोधन में कवि कितनी चतुराई बरते वह भाषा के अवमूल्यन से आगे नहीं बढ़ पाता।

कहीं-कहीं असम्बद्ध बिंब प्रतीकों का अतिशय-विस्तार स्थिति की जटिलता को प्रभावहीन बना देता हैं | समर्थ बिंब-निर्माण समर्थ रचना कर्म की कसौटी है। मलयज के शब्दों में “बिंबों का कवि पाठक को अपने सृजनात्मक अनुभव के अंतरंग में स्थापित करना चाहता है”। (कविता से साक्षात्कार, पृष्ठ-149)

समकालीन कविता में केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल जैसे कवियों के बिंब यह काम बखूबी करते हैं लेकिन ज्यादातर युवा कवि इस काम को करने में असमर्थ है। सर्जनात्मक भाषा के इकहरेपन ने बिंब की ताकत को बढ़ने ही नहीं दिया। नतीजा यह है कि बिंबों-मिथकों के बहुआयामी सृजनात्मक अर्थ-संस्कार से समकालीन कविता का अधिकांश वंचित रह गया है।

MHD 06 free solved assignment

IGNOU MHD solved assignment

Your Top Queries To Be Solved :-

  • MHD 06 free solved assignment
  • IGNOU MHD solved assignment
  • IGNOU MHD 06 solved assignment
  • IGNOU MHD free solved assignment
  • IGNOU solved assignment
  • IGNOU free solved assignments
  • IGNOU MHD 06 free solved assignments
  • MHD solved assignment
  • MHD solved free assignment
  • MHD solved assignment free
  • MHD free assignment
  • IGNOU MHD free assignment solved
  • IGNOU MA HINDI solved assignment
  • IGNOU MA HINDI free solved assignment

Leave a Comment