IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2024

IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2024 (For Jan and Dec 2024)

Contents

MHD 03 (उपन्यास एवं कहानी)

सूचना 

MHD 03 free solved assignment मैं आप सभी प्रश्नों  का उत्तर पाएंगे, पर आप सभी लोगों को उत्तर की पूरी नकल नही उतरना है, क्यूँ की इससे काफी लोगों के उत्तर एक साथ मिल जाएगी। कृपया उत्तर मैं कुछ अपने निजी शब्दों का प्रयोग करें। अगर किसी प्रश्न का उत्तर Update नही किया गया है, तो कृपया कुछ समय के उपरांत आकर फिर से Check करें। अगर आपको कुछ भी परेशानियों का सामना करना पड रहा है, About Us पेज मैं जाकर हमें  Contact जरूर करें। धन्यवाद 

MHD 03 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

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Mhd 3

1. गोदान के आधार पर प्रेमचंद के जनतांत्रिक दृष्टि का सोदाहरण विवेचन कीजिए।

उत्तर :

कथासम्राट प्रेमचंद द्वारा रचित हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास गोदान भारतीय जनजीवन की प्रस्तुति करने वाला महाकाव्य है और उसमें समाज के सभी स्थितियों और समस्याओं के चित्र चित्रित है।

प्रेमचंद ने विशेष रूप से इसमें जो आम आदमी, कृषक जीवन और ग्रामीण परिवेश का मार्मिक और सजीव चित्र प्रस्तुत किया है, वह अद्वितीय है। प्रेमचंद ने घोषित रूप से स्वीकार किया हैं कि उनके उपन्यासों का उद्देश्य चरित्रों पर प्रकाश डालना हैं – “ मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। ”

उपन्यास को आधुनिक युग का महाकाव्य कहा जाता है। एक श्रेष्ठ उपन्यास से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने युग के नाभिकीय यथार्थ को सृजनात्मक तरीके से अभिव्यक्त करे। मार्क्स और एंगेल्स अपने मित्रों को सलाह दिया करते थे कि वे फ्रांस में पूंजीवाद के उदय को जानने–समझने के लिए आर्थिक इतिहासकारों के उबाऊ ब्योरों के बजाय बाल्जाक के उपन्यास पढ़ें।

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मार्क्स ने यह भी लिखा है कि फ्रांस के इतिहास को उन्होंने, जितना बाल्जाक के उपन्यासों से समझा, उतना फ्रांसीसी इतिहासकारों की किताबों से नहीं समझ पाए।

लोकजीवन का यथार्थ चित्रांकन : गोदान में संपूर्ण भारतीय जनजीवन को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह भारतीय जनजीवन का ही महाकाव्य है और उसमें तत्क़ालीनें भारतीय समाज के सभी स्थितियों और समस्याओं को चित्रित किया गया हैं। आम आदमी का जीवन, किसान की त्रासदी, नारी
समस्याएँ, वर्ग संघर्ष, शोषण व भेदभाव, आस्था और आडंबर सभी गोंदान में उपस्थित है।

किसान के संघर्षशील जीवन की अभिव्यंजना : भारतीय किसान प्रेमचंद-के. संपूर्ण साहित्य का केंद्रबिंदु है, जिसकी समस्याओं, जीवन-अनुभव एवं परिस्थितियों को व्यापक रचनात्मक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का काम किया है। इसका सशक्त प्रमाण है – गोदान। गोदान कृषक जीवन की करुण कथा है, यह उपन्यास मात्र होरी की ही नहीं अपितु किसान समाज की दुःखद स्थितियों, परिस्थितियों और परेशानियों की व्यथा है।

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“ किसान ऋण में ही पैदा होता है, ऋण मैं ही जीवित रहता है और ऋण मैं ही जिंदगी से कूच कर जाता है और कूच करते समय ऋण की लंबी विरासत छोड़ जाता है। “ किसान की पूरी जिंदगी अभावों एवं संघर्षों की लंबी श्रृंखला है वह अपनी सामान्य से सामान्य अभिलाषा को भी पूरा नहीं कर पाता। गाय खरीदने की आकांक्षा का पूर्ण न होना, केवल वैयक्तिक आकांक्षा के संदर्भ में अभिव्यक्त नहीं हुआ है। यहाँ प्रेमचंद भारतीय किसानों की आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक वास्तविकता को उजागर करना चाहते थे।

संघर्षशील और स्वाभिमानी नारी चरित्र : प्रेमचंद का मानना था कि नारी की स्थिति को सशक्त किये बिना समृद्ध समाज की कल्पना निरर्थक है। उन्होंने नारी पात्रों के चरित्र की परिकल्पना यथार्थ के धरातल पर की है। परिस्थितियों के घात-प्रतिघात के थपेड़ों से निर्मित इन नारी पात्रों के व्यक्तित्व में जहाँ एक ओर नारी स्वाभावजन्य ममता और सहानुभूति हैं तो दूसरी ओर संघर्षशील और स्वाभिमानी चेतना।

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नाभिकीय यथार्थ को अभिव्यक्ति करने वाले विश्व साहित्य के उपन्यासों में से एक प्रेमचंद का गोदान भी है। इस उपन्यास ने इस तथ्य को सशक्त तरीके से रेखांकित किया कि भारतीय समाज के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंधों की धुरी वर्ण-जाति व्यवस्था है और उच्च जातियों के हाथ में ही सामाजिक, धार्मिक और स्थानीय स्तर पर आर्थिक सत्ता है, भले ही राजनीतिक सत्ता अंग्रेजों के हाथ में हो।

स्वराज के नाम पर उच्च जातियों का गठजोड़ ब्रिटिश शासन से राजनीतिक सत्ता भी हासिल करने की कोशिश कर रहा है। हां यह सच है कि जिस सामाजिक यथार्थ को प्रेमचंद ने गोदान में 1936 में अभिव्यक्ति दी, उसे डॉ. आंबेडकर ने अपने वैचारिक लेखन में 1917 से ही रेखांकित करना शुरू दिया था। यह संयोग है कि वर्ण-जाति व्यवस्था ही भारतीय समाज की धुरी है, इसे रेखांकित करने वाली दो अलग-अलग विधाओं की कृतियां- ‘जाति का विनाश’ और ‘गोदान’- एक ही वर्ष 1936 में ही प्रकाशित होती हैं।

‘गोदान’ होरी की कहानी है, उस होरी की जो जीवन भर मेहनत करता है, अनेक कष्ट सहता है, केवल इसलिए कि उसकी मर्यादा की रक्षा हो सके और इसीलिए वह दूसरों को प्रसन्न रखने का प्रयास भी करता है, किंतु उसे इसका फल नहीं मिलता और अंत में मजबूर होना पड़ता है, फिर भी अपनी मर्यादा नहीं बचा पाता।

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परिणामतः वह जप-तप के अपने जीवन को ही होम कर देता है। यह होरी की कहानी नहीं, उस काल के हर भारतीय किसान की आत्मकथा है। और इसके साथ जुड़ी है शहर की प्रासंगिक कहानी। ‘गोदान’ में उन्होंने ग्राम और शहर की दो कथाओं का इतना यथार्थ रूप और संतुलित मिश्रण प्रस्तुत किया है। दोनों की कथाओं का संगठन इतनी कुशलता से हुआ है कि उसमें प्रवाह आद्योपांत बना रहता है। प्रेमचंद की कलम की यही विशेषता है।

प्रेमचंद गोदान में पुरजोर तरीके से यह रेखांकित कर रहे हैं कि उच्च जातियां जहां पिछड़ी एवं दलित जातियों के श्रम पर पलने वाली अनुत्पादक एवं परजीवी जातियां हैं, वहीं पिछड़ी एवं दलित जातियां ही उत्पादक एवं मेहनतकश जातियां हैं। जिसका प्रमाण वे गोदान के प्रतिनिधि चरित्र होरी महतो और उनके परिवार के हाड़तोड परिश्रम के माध्यम से देते हैं।

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गोदान में बिना अपवाद के सभी उच्च जातीय पात्र अनुत्पादक एवं परजीवी हैं और पिछड़ी एवं दलित जातियों के पात्र उत्पादक एवं मेहनतकश हैं, लेकिन परजीवी जातियों के लोग सुख-सुविधा एवं अय्याशी के साथ जीवन जी रहे हैं, तो मेहनतकश जातियों के लोग गरीबी एवं तंगी में जीवन बिता रहे हैं।

इसका कारण भी रेखांकित करने से प्रेमचंद नहीं चूकते। पूरे कथा विन्यास के माध्यम से वह यह बता देते हैं कि मेहनतकश पिछड़ी एवं दलित जातियों के श्रम के फल को ऐन-केन प्रकारेण उच्च जातियां हड़प लेती हैं, जिसका एक हिस्सा ब्रिटिश साम्राज्य को भी जाता है।

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IGNOU MHD FREE SOLVED ASSIGNMENT (2023-2024)

2. सूखा बरगद’ उपन्यास के आधार पर भारतीय मुसलमानों के भीतर असुरक्षा के डर के कारणों का सोदाहरण विश्लेषण कीजिए।

हाल ही में हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार मंजूर एहतेशाम का निधन होने से स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी साहित्य के एक विशिष्ट अध्याय का अंत हो गया। उनका जन्म 4 अप्रैल को भोपाल में हुआ था और वहीं पर उन्होंने अपनी अंतिम सांस भी ली। उन्होंने अनेक उपन्यास, कहानियां व नाटक लिखे जिनके लिए उनहें सम्मानित किया गया।

उनकी प्रमुख कृतियों में से एक सूखा बरगद उपन्यास उनके बाह्या और आंतरिक संसार का एक विशिष्ट प्रतिबिम्बरहा है जिसके लिए उन्हें श्रीकान्त वर्मा स्मृति सम्मान और भारतीय भाषा परिषद कलकत्ता का सम्मान प्राप्त हुआ।

यह उपन्यासविभाजन के बाद के दौर को याद करते हुए तत्कालीन घटनाओं और माहौल का वर्णन करता है और साथ ही में 1971 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के समय की घटनाओं को भी समेटे हुए है। उपन्यास की कहानी इसके प्रमुख पात्र रशीदा और सुहेल के माध्यम से देश के वातावरण के युवा वर्ग पर पड़ने वाले प्रभाव पर टिप्पणी करती है. सूखा बरगद में मुस्लिम समाज के मानसिक द्नद को व्यक्त किया गया है, जिसमें लेखक के समकालीन अनुभवों का आभास मिलता है जिससे उपन्यास के पात्रों की सोच और संघरषों को एक स्पष्टता मिलती है।

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वर्तमान माहौल को देखते हुए यह उपन्यास आज के समय में भी प्रासंगिक है. उपन्यास की कहानी भोपाल के एक शिक्षित मुस्लिम परिवार पर आधारित  है जिसके सदस्यों के माध्यम से देश में अल्पसंख्यक समुदाय को पेश आने वाली समस्याओं का चित्रण किया गया है. मन्जूर एहतेशाम ने दोनो पक्षों के झगड़े के पीछे राजनीतिक मंसूबों को रेखांकित किया है। IGNOU MHD solved assignment

साथ ही उन्होंने हिन्दू- मुस्लिम समुदायों में धार्मिक कट्टरता का अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है. हालांकि यह कहानी अपने में विभिन्न आयाम समेटे हुए है पर इस लेख में सामाजिक पहचान की प्रतिदक्रिया-स्वरूप थोपे जाने वाले आपराध-बोध एवं परायेपन को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है।

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एहतेशाम कहीं न-कहीं मुसलमानों में व्याप्त अजनबीपन और असुरक्षा की भावना से बेचैन हैं. उपन्यास के अनेक प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है. लेखक ने सुहेल के माध्यम से भारत की धमनिरपेक्ष लोकतांत्रिक प्रणाली में औपचारिक अवसरों पर एक विशेष समुदाय की सांस्कृतिक रीतियों जैसे कि भूमि-पूजन, संस्कृत के गीत एवं पाठ आदि के प्रचलन का उत्तेख करते हुए देश के लोकतांत्रिक मूल्यों पर सवाल उठाया है।

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“हम हिंदी तक राजी हुए तो कहने लगे अब तो तुम्हें संस्कृत भी सीखनी पड़ेगी। क्या होगा इस मुल्क में मुसलमानों का” सुहेल के इस कथन के माध्यम से लेखक ने मुसलमानों में व्याप्त असुरक्षा की भावना को इन्गित किया है. लगातार अपनी वफादारी और सच्चाई पर प्रश्नचिन्ह लगाए जाने को लेकर मुस्लिम समाज के लोगों को पहुंचने वाली ठेस और उद्विप्रता को एहतेशाम ने इस उपन्यास में अनेक स्थान पर उजागर किया है।

कहानी में सन् 71 के हिन्दुस्तान-पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तान में बसे आअपने रिश्तेदारों के लिए चिंतित भारतीय मुसलमानों की परेशानियों का वरण्णन किया गया है. युद्ध के संकटपूर्ण हालात में भी स्वजनों के लिए खुलकर चिंता व्यक्त नहीं कर पाने की विवशता को रशीदा के परिवार के माध्यम से दर्शाया गया है। IGNOU MHD solved assignment

भयग्रस्त परिस्थितियों में अपनों की चिंता करना एक सहज मानवीय स्वभाव है लेकिन इसके कारण खुद को संदेह की दृष्टि से देखा जाना कहीं न-कहीं उन्हें आक्रोश से भर देता है। मंजूर एहतेशाम ने बरगद के पेड़ के माध्यम से सुहेल की मनोदशा में उसकी पुरानी याद और वर्तमान के आभास के वैषम्य को बहुत संवेदना से व्यक्त किया है।

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जिस हिन्दुस्तान को वह एक हरे भरे बरगद के रूप में देखता था और जिसकी छाया में उसे शान्ति मिलती थी अब वही बरगद का पेड़ प्रेम रूपी जल के अभाव में सूख गया है जहां छाया की अपेक्षा शरीर को झुलझाने वाली गर्मी और एक वीरानापन है।

अब उसके लिए हिन्दुस्तान एक सूखा बरगद हो चुका था. सुहेल एक ऐसा मुस्लिम युवक था जिसे हिन्दुस्तान से लगाव था और जहां रहते हुए उसके मन में कोई असुरक्षा की भावना नहीं आती थी. वह सभी समुदायों के बारे में निष्पक्ष विचार रखता था लेकिन प्रतिकूल वातावरण के प्रबल होने के कारण उसके मन में हिन्दुओं के प्रति असुरक्षा और हताशा की भावना उत्पन्न होती गई।

उपन्यास में एक स्थान पर वह सोचता है, “मुसलमान ज्यादा-से-ज्यादा चाहता क्या है? क्या बराबरी के साथ मुत्क में रहना भी न चाहे.” एहतेशामने तत्कालीन सामाजिक अराजकता और क्रूरता को सुहेल के प्रस्तुत संवाद के माध्यम से इंगित किया है- “जमशेदपुर करबला बना हुआ है- मुसलमानों को मार-मारकर नास कर डाला है. वह जो एक राईटरथा-हिन्दू- मुसलमान भाई-भाई की थीम पर उर्दू में जिंदगी-भर कहानियां लिखता रहा, उसे भी निपटा दिया। अखबार में उसकी छोटी सी तस्वीर छपी है। “

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3. “धरती धनन अपना उपन्यास के प्रमुख पुरुष और स्ती पात्रों पर विचार कीजिए।

जगदीश चन्द्र द्वारा लिखित “धरती धन न अपना” उपन्यास भारतीय जाति व्यवस्था में हाशिए पर ढकेल दिए गए बहिष्कृतों का जीवन व्यतीत करने वाले दलितों की जीवन त्रासदी की मार्मिक अभिव्यक्ति है। मुख्य गाँव से बहिष्कृत दलितों की पीड़ा व उत्पीड़न को उन्होंने यथार्थ की भूमि पर उतारा है। छुआछूत के व्यवहार से उपजा यातना व संताप का मिलाजुला विद्रोही स्वर भी इस उपन्यास में अभिव्यक्त हुआ है।

जगदीश चंद्र द्वारा प्रकाशित उपन्यास धरती धन न अपना 1972 में प्रकाशित हुई थी। इस उपन्यास में जगदीश चंद्र ने पंजाब के दोआबा क्षेत्र के दलित जीवन की त्रासदी को चित्रित क्या है।

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मुख्य गांव से बहिष्कृत बस्ती चमादडी में बसने वाली चमार जाति की असहनीय पीड़ा को लेखक नैयथार्थ की भूमि पर प्रस्तुत किया है। पर ऐसा नहीं है कि सिरप्फ पंजाब में ही दलितों की स्थिति ऐसी है बल्कि ऐसी स्थिति हमें संपूर्ण भारत में दिखाई देती है। IGNOU MHD solved assignment

इस उपन्यास की कहानी दो पात्रों काली और ज्ञानो के इर्द गिर्द घुमती हुई दिखाई पड़ती है। यह दोनों पात्र दलित वर्ग से ही है। उपन्यास की कहानी एक अंचल विशेष की कहानी है जिसे पढ़ते हुए हमें ऐसा प्रतीत होता है कि गांव हमारी आंखों के सामने है और हम एक-एक घटना को देख और महसूस कर रहे हैं।

धरती धन न अपना उपन्यास के प्रमुख पात्र :धरती धन न अपना उपन्यास में अनेक चरित्र अपनी विविध प्रवृत्तियों के साथ हमारे सामने आते हैं। ज्ञानो, काली, चाची प्रतापी, निहाली, जस्सो, जीतू, प्रीतो व निक्कू, मंगू, केन्ता व बसंता, चौधरी हरनाम सिंह, लालू पहलवान, छज्जूशाह, डॉ. बिशनदास, पादरी अचिंतराम, पंडित संतराम, कॉमरेंड टहल सिंह, अमरू, लच्छो, हरदेव सिंह, पालो इत्यादि शामिल हैं। इनमें से अधिकांश चरित्र वैयक्तिक न होकर समुंदाय या वर्गे विशेष कें प्रतिनिधि के रूप में आए हैं।

प्रमुख स्त्री पात्र:-

ज्ञानो :-

ज्ञानो इस उपन्यास का प्रतिनिधि और महत्वपूर्ण चेरित्र हैं क्योंकि वह अपने व्यक्तिगत विशिष्ट गुणों के साथ-साथ अपने वर्ग का भी प्रतिनिधित्व करती हैं। ज्ञानी संवेदनशील और दृढ़ स्वभाव की लड़की है।

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ज्ञानो:एक/चरित्र सशक्त है। वह अत्याचार और अन्याय को-बर्दाश्त नहीं करती तथा मुखरता के साथ उनका प्रतिरोध करती है। ज्ञानो के चरित्र कई अ्थों में काली से भी अधिक दृढ़ चरित्र है। अपनां सर्वस्व बलिदान से अपने प्रेम को अमर बना देती है। ज्ञानो ने अपने अस्तित्व के लिए परिवार व समाज़ से संघर्ष करने का प्रयास किया। ज्ञानो का मार्मिक और दुःखांत अंत दलित अस्मिता और संघर्ष के लिए चेतना की एक किरण बनकर उपस्थित होती है। IGNOU MHD solved assignment

प्रतापी :-

काली की चाची प्रतापी अत्यंत भावुक और संवेदनशील स्त्री पात्र है। उसने बहुत गरीबी, दुःख और अकेलेपन को भोगा है। वह कहती है कि “ आज तेरा बाप जिंदा होता तो तुम्हें देखकर कितना खुश होता। उसने तो तुम्हें जी भर कर देखा भी नहीं कि मौत ने आ घेरा। ”

जस्सो :-

जस्सो, ज्ञानो और मंगू की माँ है। वह सदैव मंगू का पक्ष लेती है और ज्ञानो को फटकारती व मारती रहती है।

प्रीतो :-

प्रीतो काली की पड़ोसी है। उसका पति निक्कू निठल्ला आदमी है। घर चलाने के लिए प्रीतो ही, काम करती है। वह अनेक बार यौन-शोषण का शिकार बनती है। |

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प्रमुख पुरुष पात्र

काली :-

काली सामाजिक अत्याचार व उत्पीड़न के प्रतिरोध और सशक्त व स्वतंत्र व्यक्तित्व का प्रतीक है।
काली का जीवन गाँव लौटने से थोड़े सुखद रूप में आरंभ होता है, जबकि अत्यंत विषम परिस्थितियों में गाँव से जान बचाकर व अपनी प्रेमिका की हत्या का मर्मान्‍्तक दुःख लेकर गाँव से. चले जाने से अंत होता है। काली के व्यक्तित्व में शारीरिक व मानसिक दृढ़ता शामिल है।

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वह पहलवान का बेटा है और स्वयं भी सुडौल शरीर का स्वामी है। काली गाँव में सामाजिक क्रांति का
आगाज़ करता है। काली कहता है कि – “शरारत पहले भी होती थी, लेकिन लोग चुपचाप सहन
कर लेते थे। मैं उस समय चुप नहीं रह सकता जब पानी सिर से गुजरने लगता है। ”

हरनाम सिंह :-

हरनाम सिंह एक वर्चस्ववादी पात्र है, जो गाँव के अधिकांश जमीनों का मालिक है। उपन्यास में उसका शोषक, अमानवीयऔर क्र रूप सामने आता है।

मंगू :-

मंगू ज्ञानो का भाई है। वह अपने वर्ग के हितों और यहाँ तक की अपनी ज़मीर व मानवीय अस्मिता को बेच चुका है।

नंद सिंह :-

नंद सिंह एक स्वाभिमानी चरित्र है। वह खेती मजदूरी न कर पुश्तैनी धंधा जूते बनाने-संवारने का काम करता है। वह धर्म परिवर्तन करके अपने संमुदाय से कट जाता है।

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बिशनदास :-

बिशनदास घोर कित्ताबी-कामरेड है। गाँव में उसकी दवाइयों की दुकान है।.वह.एक सुविधभोगी चरित्र है, जिंदगी के संघर्षों से उनका कोई वास्ता नहीं है। वह कहता है कि “ बहुत उथल-पुथधल होगी पूँ जीवाद और जागीरदारी सिस्टम इंकबाल को असफल बनाने की कोशिश करेंगे। ”

जगदीश चंद्र के शब्दों में -मेरा यह उपन्यास मेरी किशोरावस्था की कुछ अविस्मरणीय स्मृतियों और उनके दामन छिपी एक अदम्य वेदना की उपज काली और उसका पूरा दलित वर्ग दलित होने का द्वंश झेलता है। उच्च वर्गों के द्वारा दलितों का शोषण किया जाता है कभी मारा तो कभी असहनीय दर्द और पीड़ा झेलने पर मजबूर किया जाता है।

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उनकी स्त्रियों के साथ शोषण किया जाता है। पर उन स्त्तियों को बोलने का भी हक नहीं होता कि वह अपनी रक्षा के खातिर आवाज उठा सके। उन्हें मंदिरों में प्रवेश से भी वंचित रखा जाता है। इतना ही नहीं उन्हें कुएं से पानी लेने का भी अधिकार नहीं होता है। उन्हें समाज से अलग और अछूत समझा जाता है। गावों में दलित जाति के लिए गांव से थोड़ा हटकर एक मोहल्ला होता है।

जगदीश चंद्र ने अपने इस उपन्यास में ज्ञानो और काली के माध्यम से दलित जाति में प्रेम संबंध को भी दिखाने का प्रयास किया है। इस उपन्यास को अंत तक पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि दलित जाति के लिए प्रेम करना भी एक बड़े अपराध से कम नहीं है।

ऐसा लगता है कि दलित जाति में प्रेम का अंत ही मौत होता है। काली और ज्ञनो का प्रेम संघ्र्ष और उनकी दुखद परिणति इस उपन्यास के अंत में दिखाई पड़ता है। ज्ञानो को उसकी मां के हाथों जहर देकर मार देना उसके बाद काली का कुछ पतान चलना।

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ऐसी-ऐसी अनगिनत घटनाएं हमें इस उपन्यास में दिखाई पड़ती है जिसे पढ़ने पर हमारा कलेजा कांप उठता है की हमारे समाज में ऐसे भी लोग रहते हैं जो मानव होकर भी मानव पर ही अत्याचार करते हैं।

समग्रत: कह सकते है कि जगदीश चंद्र द्वारा रचित उपन्यास “ धरती धन न अपना ” मैं अभिव्यक्त दलित जीवन के सरोकारों और उससे उत्पन्न जीवन संघर्ष और त्रासदी का विस्तार से अवलोकन किंया है-तथा-दलितिं जीवन की त्रासदी के लिए जिम्मेदार समाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए छटपटाते दलित चरित्रों का और पंजाब के आंचलिक पहलुओं एवं गाँवों के समाजार्थिक परिवेश को संपूर्णता में प्रस्तुत किया गया है।

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इस समाजार्थिक परिवेश को गाँव के विभिन्न चरित्रों के घात-प्रतिघात, परस्पर व्यवहार द्वारा प्रकाशित किया हैं। धरती धन न अपना उपन्यास के संवेदना और शिल्प को उसमें चित्रित पुरुष और स्त्री पात्रों ने ‘सहजता और समग्रता से अभिव्यक्त किया है।

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4. बाणभट्ट की आत्मकथा में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने भारतीय जीवन को किस रूप में चित्रित किया हैं सोदाहरण वर्णन कीजिए।

बाणभट्ट की आत्मकथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी रचित एक ऐतिहासिक हिन्दी उपन्यास है। इसमें तीन प्रमुख पात्र हैं- बाणभट्ट, भट्टिनी तथा निपुणिका। इस पुस्तक का प्रथम प्रकाशन वर्ष

1946 में राजकमल प्रकाशन ने किया था। इसका नवीन प्रकाशन 1 सितम्बर 2010 को किया गयाथा। यह उपन्यास आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की विपुल रचना-सामर्थ का रहस्य उनके विशद शास्त्रीय ज्ञान में नहीं, बल्कि उस पारदर्शी जीवन-द्ह्टि में निहित है, जो युग का नहीं युग-्युग का सत्य देखती है।

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उनकी प्रतिभा ने इतिहास का उपयोग ‘तीसरी ऑँख के रूप में किया है और अतीतकालीन चेतना-प्रवाह को वर्तमान जीवनधारा से जोड़ पाने में वह आक्षर्यजनक रूप से सफल हुई है। बाणभट्ट की आत्मकथा अपनी समस्त औपन्यासिक संरचना और भंगिमा में कथा-कृति होते हुए भी महाकाव्यत्व की गरिमा से पूर्ण है।

इस उपन्यास में द्विवेदी जी ने प्राचीन कवि बाणभट्ट के बिखरे जीवन-सूत्रों को बड़ी कलात्मकता से गँधकर एक ऐसी कथाभूमि निम्मित की है जो जीवन- सत्यों से रसमय साक्षात्कार कराती है।

इसका कथानायक कोरा भावुक कवि नहीं वरन कमनिरत और संघर्षशील जीवन-योद्धा है। उसके लिए शरीर केवल भार नहीं, मिट्टी का ढेला नहीं , बल्कि उससे बड़ा है और उसके मन में आर्यावर्त के उद्धार का निमित्त बनने की तीव्र बेचैनी है।

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अपने को निःशेष भाव से दे देने में जीवन की सार्थकता देखने वाली निउनिया और ‘सबकुछ भूल जाने की साधना में लीन महादेवी भट्टिनी के प्रति उसका प्रेम जब उच्चता का वरण कर लेता है तो यही गुँज अंत में रह जाती है- वैराग्य क्या इतनी बड़ी चीज है कि प्रेम देवता को उसकी नयनाग्रि में भस्मकराके ही कवि गौरव का अनुभव करे?

बाणभट्ट की आत्मकथा’ हर्षकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का जीवन्त दस्तावेज है। ऐतिहासिक उपन्यासकार को अतीत में भी प्रवेश करना पड़ता है। अतीत में प्रविष्ट हो कर ही इतिहास को वर्तमान संदर्भों के साथ जोड़ पाता है। इसी जुड़ाव के माध्यम से ऐतिहासिक उपन्यासकार अतीत को चित्रित करता है।

पात्र:-

बाणभट्टभट्ट-असली नाम दक्ष

निउनिया- निपुणिका का प्राकृत नाम

भट्टिनी- देवपुत्र तुवरमिलिंद की कन्या

इस उपन्यास के माध्यम से हजारीप्रसाद द्विवेदी के स्त्री संबंधी विचारों को भी समझने में सहायता मिलती है। निउनिया को उज्जयिनी की नाटक-मंडली में भती करने के पक्चात् भट्ट सोचता है कि- “साधारणतः जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्ष्टा माना जाता है उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है, यह बात लोग भूल जाते हैं। मैं नहीं भूलता।

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मैं स्री-शरीर को देव-मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ।”हजारी प्रसाद द्विवेदी एक ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में ही जाने जाते हैं। बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास हजारी प्रसाद द्विवदी द्वारा लिखित पहला ऐतिहासिक उपन्यास है।

इस उपन्यास का प्रकाशन 1946 में हुआ था। यह उपन्यास हर्षकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का जीता जागता दस्तावेज है। यह उपन्यास इतिहास और कल्पना का बहुत ही सुंदर समन्वय है। ऐसा

प्रतीत होता है कि यह दोनों एक दूसरे के पूरक हो। इस उपन्यास का संबंध संस्कृत के प्रसिद्ध कवि बाणभट्ट से है। इस उपन्यास में सातवीं शताब्दी के हर्ष युग के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति के ऐतिहासिक त्वों पर प्रकाश डाता गया है।

इस उपन्यास में प्रमुख तीन पात्र हैं- बाणभट्ट, भट्टिनी तथा निपुणिका, राज्यश्री, कुमार वर्धन, सुचरिता। यह सभीप्रतीत होता है कि यह दोनों एक दूसरे के पूरक हो। इस उपन्यास का संबंध संस्कृत के प्रसिद्धकवि बाणभट्ट से है। इस उपन्यास में सातवीं शताब्दी के हर्ष युग के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति के ऐतिहासिक त्वों पर प्रकाश डाला गया है।

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इस उपन्यास में प्रमुख तीन पात्र हैं- बाणभट्ट, भट्टिनी तथा निपुणिका, राज्यश्री, कुमार वर्धन, सुचरिता। यह सभीपात्र कथानक के विकास में अहम भूमिका निभाते हुए जान पड़ते हैं। इसके साथ ही इसमें काल्पनिक पात्र भी हैं ।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्राचीन कवि b के जी बाणभट्ट न को बहुत हीकलात्मकता से गूँथ कर एक ऐसी कथाभूमि निर्मित की है जो जीवन सत्यों से रसमय साक्षात्वार कराती है। द्विवेदी जी ने इस उपन्यास की रचना मध्यकालीन इतिहास के एक छोटे से कालखंडको आधार बनाकर की है।

इस उपन्यास में सातवीं शताब्दी का इतिहास और समाज का जीवंत चित्रण प्रस्तुत हुआ है। इस उपन्यास की केंद्रीय समस्या बाणकालीन राजवंशीय इतिहास कोप्रस्तुत करने की नहीं है, बल्कि मुख्य समस्या है भट्टिनी (प्रभावशाली चरित्र)की रक्षा करना। जो भट्टिनी नारी की गरिमा, उदारता, समस्त भारतीयता और अपने समाज की आस्था का प्रतीक है।

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नारी सम्मान की रक्षा का भाव इस उपन्यास का मूल केंद्र है। “हजारी प्रसाद द्विवेदी में कारयित्री प्रतिभा के कारण ही उच्च कोटि के भावयित्री प्रतिभा भी है। यहां द्विवेदी जी के संबंध में डॉ.हरदयाल का यह कथन बिल्कुृल उचित जान पड़ता है। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा ऐतिहासिक उपन्यास के दायित्व को निबाहने में पूर्णता समर्थ है ।”

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5.मैला आंचल’ एक आंचलिक उपन्यास है, उदाहरण देकर सिद्ध कीजिए।

अंचल विशेष का गुण धर्म आंचलिकता है। आंचलिक रचनाएँ अंचत विशेष के रीतिरिवाज, रहन- सहन वेश-भुशा, सपने एवं अभिलाषाओं का जीवन्त दस्तावेज होती है लेकिन इससे यह ध्वनि नहीं निकलती की अंचल के सभी प्राणियों का जीवन एक रस एक रूप होता है। यहाँ भी एक की अभिलाषाएँ दूसरे की अभिलाषओं से टकराती है। एक का प्रेम दूसरे की घूणा का विषय बनता है।

इंसानियत, हैवानियत, दया, प्रेम घूणा को लेकर यहाँ भी घात-प्रतिघात चलता रहता है। स्थानीय रंगत, रीति-रिवाज, रहन-सहन को किसी रचना पर आच्छादित कर देने मात्र से आंचलिक उपन्यासपुरा नहीं हो जाता।

आंचलिकता सिर्फ वाह्या रंगों में नहीं है और न हीं अंचल विशेष की चौहदी के सर्वेक्षण में, आंचलिकता अंचल विशेष के चिरत्रों के यथार्थ अंकन में है। आंचलिकता राष्ट्रीयता का विलोम नहीं है। अंचल राष्ट्र सेनिर्पेक्ष नहीं होता। अंचल या जनपद भी राष्ट्र का ही अंग होता है। जिस तरह अंचल का नाम लेने से राष्ट्र खंडित नहीं होता उसी तरह आंचलिकता से रष्ट्रीयता के टुकड़े नहीं होते।

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रेणु जी शुष्क जीवन में भी रस तलाशने वाले, लोक संस्कृति के महागांयक हैं। उनका कथाकार व्यक्तित्व लोक कला, लोक कथा लोक संस्कृति और लोक गीतों के तत्वों से बुना हुआ है। लोक जीवन के स्वभाव और संस्कार से वे परिचित हैं।

वे स्थानीय लोक जीवन में ही डुबकर अपने चरित्रों को गढ़ते चलते हैं। लोक जीवन से जुड़ाव और अपने क्षेत्र से गहरी आत्मीयता हीं उनकी ताकत है। इसी आधार पर वे आंचलिक जीवन और समस्याओं का साक्षात्कार करते हैं।

अपनी लोक कथा और लोक चेतना के बल पर हीं वे हाई-तीन वर्षों के काल को उपन्यास में जिस तरह बांधा है वह शताब्दियों को अपने कथा फलक पर उतारने वाले रचनाकारों के लिए ईष्था का विषय है। आंचलिकता सामान्यता में नहीं विशिष्टता में है।

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जो सामान्य, टाइप से भिन्न है वही विशिष्ट  है। रेणु जी के मैला आंचल का मेरीगंज गाँव सामंती व्यवस्था में जकड़ा हुआ, गरीबी और जहालत में सांस लेता हुआ, अंधविश्वासों में दम तोड़ता हुआ सामान्य गाँव हीं है अन्य गाँवों की तरह, लेकिन रेणु जी पुर्णिया की बोली-वाणी, वहाँ के रीति-रिवाज, मिथक और लोक संस्कृति का प्रयोग कर इस गाँव को अन्य गाँवों से भित्र और विशिष्ट बना देते हैं। IGNOU MHD solved assignment

इसकी आंचलिकता अन्य गाँवों से इसकी भित्नता में ही निहित है। दूसरी बात यह कि रेणु जी ने हिन्दी उपन्यास को परम्परागत नायक से मुक्ति दिलायी। आंचलिक उपन्यास में व्यक्ति नायक नहीं होता, पूरा अंचल हीं नायक होता है।

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मैला आंचल में भी मेरीगंज हीं अपनी विशेषताओं के साथ नायक है। रेणु ने इसकी भूमिका मे लिखा, “कथानक है पूर्णिया मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पीछड़े गाँव का प्रतीक बनाकर इस उपन्यास कथा का क्षेत्र बनाया है।”

रेणु जी इस अंचल के सरल जटिल संश्लिष्ट जीवन का अनेकानेक चित्र देकर पीछड़े गाँव, पीछड़े वर्ग और जिंदगी की दौर में पिछड़ गए लोगों को कथा के केन्द्र में ले आते हैं। उन्होंने अंचल से जुड़े हुए जीवन को इस तरह चित्रांकित किया है कि पूरा अंचल मोहक कलाकृतियों से अटा एक बड़ा कैनवास दिखाई पड़ने लगता है।

इस कैनवास पर उभरे चित्र हृद्यग्राही भी हैं और हुृदयविदारक भी। आंचलिक उपन्यास आंदोलन की शुरू आत मैला आंचल से होती है। लेकिन यही उपन्यास उस आंदोलन- की चरम उपलब्धि भी है। यह आंचलिक आंदोलन गाँवों के उपेक्षित सामुहिक जीवन को साहित्यिक चिंता के केन्द्र में लाने के कारण क्रान्तिकारी आंदोलन था।

रघुवीर सहाय हिन्दी के आंचलिक आदोलन से पैदा हुयी आंचलिक रचनाओं की लोकप्रियता की तुलना रूसी साहित्प की पोवेस्त्र (उपन्यास) की प्रसिद्धि से करते हैं। उन्होंने बताया की दोनों आंदोलन गाँव जाकर मानवीय अनुभव न्याय और नैतिकता की खोज करते हैं। उनके अनुसार यह आंदोलन भद्र लोग (अभिजात्य वर्ग के राजनीतिक चरित्र के विरूद्ध प्रतिक्रिया रूप में जनमानस में उपजी वितृष्णा की अभिव्यक्ति था।

रूस में सन् 60 के आसपास सामुहिक खेती के बाद वाले दौर में आंचलिक आंदोलन का उदय हुआ। रूसी हिन्दी आंचलिक उपन्यासों में समान बात यह है कि दोनों सामाजिक राजनीतिक हृदयहीनता के विरूद्ध घृणा व्यक्त करते हैं।

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दोनों ने नयी नैतिकता की उम्मीद जगायी। रघुवीर सहाय ने रेणु के मैला आंचल और परती परीकथा की तुलना वलेनतीन रसपुतीन के उपन्यास मयोरा से विदायी और अंतिमघड़ी से करते हुए कहाः “कि दोनों लेखक परिवार और समाज के प्रति कर्मठ लगाव और विरूद्ध प्रतिक्रिया रूप में जनमानस में उपजी वितृष्णा की अभिव्यक्ति था।

रूस में सन् 60 के आसपास सामुहिक खेती के बाद वाले दौर में आंचलिक आंदोलन का उदय हुआ। रूसी हिन्दी आंचलिक उपन्यासों में समान बात यह है कि दोनों सामाजिक राजनीतिक हदयहीनता के विरूद्ध घृणा व्यक्त करते हैं।

दोनों ने नयी नैतिकता की उम्मीद जगायी। रघुवीर सहाय ने रेणु के मैला आंचल और परती परीकथा की तुलना वलेनतीन रसपुतीन के उपन्यास ‘मयोरा से विदायी और अंतिमघड़ी से करते हुए कहाः “कि दोनों लेखक परिवार और समाज के प्रति कर्मठ लगाव और निष्ठा दिखाते हैं। दोनों गाँव की ओर विश्राम या मनोरंजन के लिए नहीं जाते, लोकतंत्र के जड़ों की खोज में जाते हैं।

दोनों में आंचलिक होना ग्रामीण होकर रह जाना नहीं है, अधिक सार्थक जीवन जीना है। दोनों स्थानीय बोली का रचनात्मक प्रयोग करते हैं।

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6. उदाहरण देकर समझाइए कि ‘रोज’ कहानी में मध्यवर्गी स्त्री के जीवन यथार्थ का चित्रण हुआ है।

रोज कथा साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन के प्रणेता महान् कथाकार सचिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय’ की सर्वाधिक चर्चित कहानी है। प्रस्तुत कहानी में संबंधों की वास्तविकता पर बात किया गया है। लेखक अपने दूर के रिश्ते की बहन मालती जिसे सखी कहना उचित है, से मिलने अठारह मील पैदल चलकर पहुँचते हैं।

मालती और लेखक का जीवन इकट्टे खेलने, पिटने और पढ़ने में बीता था। आज मालती विवाहिता है। एक बच्चे की माँ भी है। वार्तालाप के क्रम में आए उतार – चढ़ाव में लेखक अनुभव करता है कि मालती की आँखों में विचित्र – सा भाव है। IGNOU MHD solved assignment

मानो वह भीतर कहीं कुछ चेष्ट कर रही हो, किसी बीती बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार तंतु को पुनर्जीवित करने की। मालती रोज कोल्हू के बैल की तरह व्यस्त रहती है। पूरे दिन काम करना, बचे की देखभाल करना और पति का इंतजार करना इतने में ही मानों उसका जीवन सिमट गया है।

वातावरण, परिस्थिति और उसके प्रभाव में ढलते हुए एक गृहिणी के चरित्र का मनोवैज्ञानिक उद्घाटन अत्यंत कलात्मक रीति से लेखक यहाँ प्रस्तुत करते हैं। डॉक्टर पति के काम पर चले जाने के बाद का सारा समय मालती को घर में अकेले काटना होता है।

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उसका दुर्बल, बीमार और चिडचिड़ा पुत्र हमेशा सोता रहता है या रोता रहता है। मालती उसकी देखभाल करती हुई उद्धाटन अत्यंत कलात्मक रीति से लेखक यहाँ प्रस्तुत करते हैं। डॉक्टर पति के काम पर चले जाने के बाद का सारा समय मालती को घर में अकेले काटना होता है। उसका दुर्बल, बीमार और चिड़चिड़ा पुत्र हमेशा सोता रहता है या रोता रहता है। मालती उसकी देखभाल करती हुई

सुबह से रात ग्यारह बजे तक घर के का्यों में अपने को व्यस्त रखती है। उसका जीवन ऊब और उदासी के बीच यंत्रवत चल रहा है। किसी तरह के मनोविनोद, उल्लास उसके जीवन में नहीं रह गए हैं। जैसे वह अपने जीवन का भार ढोने में ही घुल रही हो। इस प्रकार लेखक मध्यवर्गीय भारतीय समाज में घरेलू स्त्री के जीवन और मनोदशा पर सहानुभूतिपूर्ण मानवीय दृष्टि केन्द्रित करते हैं। कहानी के गर्भ में अनेक सामाजिक प्रश्र विचारो्तेजक रूप में पैदा होते हैं।

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कहानी के इस भाग में ही मालती के यन्त्रवत् जीवन की झलक मिल जाती है, जब वह अतिथि का स्वागत केवल औपचारिक ढंग से करती है। अतिथि उसके रिश्ते का भाई है, जिसके साथ वह बचपन में खूब खेलती थी।

पर वर्षों बाद आए भाई का स्वागत उत्साहपूर्वक नहीं कर पाती, बल्कि जीवन की अन्य औपचारिकताओं की तरह “एक और औपचारिकता निभा देती है। उसके व्यवहार में यंत्रवृत् कर्तद्यपालन का भाव, झलकता है। कर्त्तव्यपालन में वह कोई कमी छोड़ती प्रतीत नहीं होती। वह अतिथि के लिए हाथ का पंखा भी झलती है, पर उसकी कुशल क्षेम पूछने का उत्साह तक नहीं दिखाती। IGNOU MHD solved assignment

उसके जीवन में उत्साह नहीं है, तो व्यवहार में भी उत्साहहीनता और मात्रऔपचारिकता है। बचपन की बातूनी लड़की शादी के दो वर्षों बाद ही बुझ कर मौन हो गई। इस मौन को अतिथि भी परिलक्षित करता है। इसीलिए उसे कहानी के शुरू में ही लगता है कि उस घर में कोई काली छाया मँडरा रही है। यह काली छाया कहानी में कई स्थानों पर मैंडराती देखी जा सकती है।

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हम देखते हैं कि मालती अतिथि से-कुछ नहीं पूछती, बल्कि उसके प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर ही देती है। उसमें अतिथि की कुशलता या उसके वहाँ आने का उद्देश्य या अन्य समाचारोंके बारे में जानने की कोई उलसुकता नहीं दीखती।

यदि पहले कोई उत्सुकता, उत्साह, जिज्ञासा या किसी बात के लिए उत्कंठा थी भी तो वह दो वर्षों के वैवाहिक जीवन के बाद शेष नहीं रही। विगत दो वर्षों में उसका व्यक्तित्व बुझ सा गया है, जिसे उसका रिश्ते का भाई भाँप लेता है। अतः मालती का मौन उसके दम्म का या अहेलना का सूचक नहीं; उसके वैवाहिक जीवन की उत्साहहीनता, नीरसता और यान्त्रिकता का ही सूचक है।

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7. ‘पाजेब कहानी के आधार पर मध्यवर्गीय मानसिकता और बदल रहे नैतिक मूल्यों पर प्रकाश डालिए।

जैनेन्द्र ने पाजेब कहानी के माध्यम से नौकरीपेशा मध्यवर्ग की मानसिकता में आ रहे बदलाव की आरे संकेत किया है। शहरीकरण और पूँजी के बढ़ते हुए वर्चस्व के कारण मानवीय संबंधों में तेजी से बदलाव आने लगा था।

व्यक्ति का जीवन इतना सरल नहीं रह गया था जैसा कि कुछ समय पहले तक वे तत्व मौजूद थे। आपसी संबंधों में संदेह  और अविश्वास पैदा होने लग गया था। आर्थिक और राजनीतिक दबाव ने व्यक्तिव्यक्ति के बीच संदेह का वातावरण तैयार कर दिया था। एक प्रकार के भय से आक्रांत मध्यवर्ग कई-कई आशंकाओं को अपने मन में पालने लग गया था। संयुक्त परिवार के विघटन ने मध्यवर्ग को भयाक्रांत कर दिया था।

आशुतोष का प्रत्येक हाव-भाव, उसके दोस्त छुन्नू के साथ उसका पतंग उड़ाना आदि बाल सुलभ खेल को संदेह की नजर से देखा जाना, तत्कालीन समय में आर्थिक दबाव के कारण बदलते जीवन मूल्यों की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं।

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नैतिक मूल्यों की वास्तविक शिक्षा बाल्यकाल में ही दी जानी चाहिए, इस समय दंड और पुरस्कार देकर बच्चों में इन मूल्यों का विकास किया जा सकता है जो एक बालक की प्रवृत्तियों के अनुकूल ही है। लेकिन जैसे ही दंड और पुरस्कार को कठोर अनुशासन के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा तो नैतिक विकास की दिशा विपरीत हो जाएगी।

परिवार में नैतिक मूल्यों की एकरूपता बालक के नैतिक विकास के लिए अति आवश्यक है। पिता का नैतिक मूल्यों के प्रति अति आग्रह और आशुतोष में इन मूल्यों के विकास के अभाव की शंका ने पिता को कठोर शासन करने पर मजबूर कर दिया था। यहाँ हम देख रहे हैं कि अपने पक्ष की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए परिवार ने आशुतोष को संदेह के घेरे में लेकर एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया।

बल्कि अस्तित्व को नकारकर उसके निजी क्षेत्र में अर्थात उसके निर्णय लेने अथवा उसके कहे गए सच को न मानकर उसे अंत में झूठ बोलने पर मजबूर किया जाना। मध्यवर्ग कि इस उधेड-बन अवस्था उसकी अर्थ की समस्याओं का ही परिणाम है। व्यक्ति जितना आर्थिक समस्याओं से जूझता जाता है उतना ही वह इस उधेड़-बुन में फंसता चला जाता है। अपने ऊपर या परिवार जनों पर से विश्वास उठना व्यक्ति के जीवन में हो रहे उतार-चढ़ाव का ही प्रतिबिंब होता है।

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जीवन के आदर्शों से वह हटने लगा था। व्यवस्था में आए बदलाव ने आपसी रिश्ते-नातों पर भी आघात करना प्रारंभ कर दिया था। इन्हीं बदलते हुए संबंधों, आशंकाओं और संदेहों के माध्यम से जैनेन्द्र ने ‘पाजेब’ के माध्यम से मध्यवर्गीय मानसिकता में आए बदलाव को चित्रित किया है।

व्यवस्था के अंतर्विरोधों को उघाड़ने में पारिवारिक संबंधों के बीच आ बैठे संदेह ने पिता ने पुत्र पर दबाव डालकर न हुई चोरी को कबुलने के लिए मजबूर कर दिया। यहाँ केवल बेटे द्वारा एक अपराध होने की या चोरी करने की मात्र आशंका से मध्यवर्गीय नीति मूल्यों के टूटने की पीड़ा पिता को घेर लेती है। IGNOU MHD solved assignment

जैनेन्द्र ने पाजेब कहानी के माध्यम से नौकरीपेशा मध्यर्ग की मानसिकता में आ रहे बदलाव कीआरे संकेत किया है। शहरीकरण और पूँजी के बढ़ते हुए वर्चस्व के कारण मानवीय संबंधों में तेजी से बदलाव आने लगा था। नई कहानी के दौर के सभी लेखकों की रचनाओं में इस बदलते हुए जीवन संद्भों को यथार्थवादी, मनोविश्लेषणवादी और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से जाँच-परख कर प्रस्तुत किया।

जीवन डे मूल्यों के तेजी से बदलने का वह समय था। व्यक्ति का जीवन इतना सरल नहीं रह हिला गया था जैसा कि कुछ समय पहले तक वे तत्व मौजूद थे। आपसी संबंधों में संदेह काजेड: जैनेला खुभार और अविश्वास पैदा होने लग गया था। आर्थिक और राजनीतिक वबाव ने व्यक्ति- व्यक्ति के बीच संदेह का वातावरण तैयार कर दिया था। एक प्रकार के भय से आक्रांत मध्यवर्ग कई-कई आशंकाओं को अपने मन में पालने लग गया था। संयुक्त परिवार के विघटन ने मध्यवर्ग को भयाक्रांत कर दिया था। जीवन के आदशों से वह हटने लगा था।

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व्यवस्था में आए बदलाव ने आपसी रिश्ते-नातों पर भी आघात करना प्रारंभ कर दिया था। इन्हीं बदलते हुए संबंधों, आशंकाओं और संदेहों के माध्यम से जैनेन्द्र ने “पाजेब’ के माध्यम से मध्यवर्गीय मानसिकता में आए बदलाव को चित्रित किया है। IGNOU MHD solved assignment

व्यवस्था के अंतर्विरोधों को उघाड़ने में पारिवारिक संबंधों के बीच आ बैठे संदेह ने पिता ने पुत्र पर दबाव डालकर न हुई चोरी को कबुलने के लिए मजबूर कर दिया। यहाँ केवल बेटे द्वारा एक अपराध होने की या चोरी करने की मात्र आशंका से मध्यवर्गीय नीति मुल्यों के दूटने की पीड़ा पिता को घेर लेती है। आशुतोष का प्रत्येक हाव-भाव, उसके दोस्त छुत्रू के साथ उसका पत्तंग उड़ाना आदि बाल सुलभ खेल को संवेह की नजर से देखा जाना, ततकालीन समय में आर्थिक दबाव के कारण बदलते जीवन मूल्यों की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं।

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नैतिक मुल्यों की वास्तविक शिक्षा बाल्यकाल में ही दी जानी चाहिए, इस समय बंड और पुरस्कार देकर बच्चों में इन मूल्यों का विकास किया जा सकता है जो एक बालक की प्रतृत्तियों के अनुकूल ही है।

लेकिन जैसे ही दंड और पुरस्कार को कठोर अनुशासन के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा तो नैतिक विकास की दिशा विपरीत हो जाएगी। आशुतोष के माता-पिता एक विशिष्ट दायरे में घुमते हुए नजर आते हैं, सामाजिक यथार्थ से एकदम निरपेक्ष अपनी ही समस्याओं से घिरे हुए।

उनका संघर्षव्यक्ति के अंतर्मन में अधिक चलता है, सतह पर कम दिखता है। पाजेब खो जाने की घटना से परिवार के सदस्यों का चिंतित हो जाना स्वाभाविक है लेकिन जीवन की अन्य समस्याओं के प्रति उदासीन होकर केवल पाजेब की चोरी तक ही इसे सीमित किए जाने से यह केवल पारिवारिक समस्या बन कर रह जाती है। इसका सामाजिक पक्ष इसमें निहित नहीं है। IGNOU MHD solved assignment

सारा संघर्ष भीतरी है, व्यक्ति के मन के भीतर चलता है, समाज के भीतर नहीं। मध्यवर्ग की संकुचित दायरे में केवल अपने तहत् सोचने की मानसिकता का जैनेन्द्र ने वास्तविक चित्रण इस कहानी के माध्यम से किया है। जैनेन्द्र की यह विशेषता है कि व्यक्ति के मन के भीतर चलने वाले दंद्ध और उथल-पुथल को अभिव्यक्त करना, यही उनकी कहानी का लक्ष्य भी होता है।

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इसलिए “पाजेब’ कहानी में केवल एक परिवार के आंतरिक संबंधों, आपसी मतभेद, उतार-चढ़ाव, व्यक्तिगत समस्याओं को ही महत्व दिया गया है। कहानी में केवल एक घटना है और उसके इर्द गिर्द सभी पात्र घुमते रहते हैं। घटना बहुलता नहीं है, सामाजिक सरोकारों को अभिव्यक्त करने या संबंध होने का जैसे कोई औचित्य ही नहीं है।

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IGNOU MHD FREE SOLVED ASSIGNMENT (2023-2024)

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৪. यशपाल मूलत: मध्यवगीीय लेखक हैं।” कुत्ते की पूछ” कहानी के आधार पर उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।

यशपाल, एक प्रसिद्ध हिंदी लेखक, अक्सर एक ऐसे लेखक के रूपप में माने जाते हैं जो मध्यम वर्ग के अनुभवों और चिंताओं को उजागर करते हैं। यह चरित्र चित्रण उनकी कहानी “द डॉग अक्स”

में स्पष्ट है। कथा आम लोगों के जीवन, उनके संघर्षों, आकांक्षाओं और मध्यवर्गीय समाज की गतिशीलता की पड़ताल करती है। यहाँ कुछ उदाहरण दिए गए हैं जो यशपाल को एक मध्यवर्गीय लेखक के रूप में चित्रित करते हैं:

रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर ध्यान दें:

 “द डॉग अक्स” इसके पात्रो के रोजमर्रा के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है, मुख्य रूप से एक छोटे शहर में रहने वाला एक मध्यम वर्गीय परिवार। यशपाल उनकी नियमित गतिविधियों, बातचीत और चिंताओं में तल्लीन हो जाता है। कहानी सामान्य मध्यवर्गीय अनुभवों जैसे वित्तीय बाधाओं, सामाजिक गतिशीलता और बेहतर जीवन की खोज पर प्रकाश डालती है। सामाजिक वास्तविकताओं की परीक्षा: यशपाल का लेखन अक्सर सामाजिक वास्तविकताओं और मध्यम वर्ग के सामने आने वाले मुद्दों को दर्शाता है।

“द डॉग अक्स” में, वह सामाजिक असमानता, भ्रषटचार और न्याय के लिए संघर्ष के विषयों की पड़ताल करता है। यह कहानी उन चुनौतियों पर प्रकाश डालती है जिनका सामना सामान्य व्यक्ति ऐसी प्रणाली को संचालित करने में करते हैं जो पक्षपातपूर्ण या अन्यायपूर्ण हो सकती है।

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मध्यवर्ग की संकुचित दायरे में केवल अपने तहत् सोचने की मानसिकता का जैनेन्द्र ने वास्तविक चित्रण इस कहानी के माध्यम से किया है। जैनेन्द्र की यह विशेषता है कि व्यक्ति के मन के भीतर चलने वाले द्वंद्व और उथल-पुथल को अभिव्यक्त करना, यही उनकी कहानी का लक्ष्य भी होता है।

इसलिए ‘पाजेब’ कहानी में केवल एक परिवार के आंतरिक संबंधों, आपसी मतभेद, उतार-चढ़ाव, व्यक्तिगत समस्याओं को ही महत्व दिया गया है। कहानी में केवल एक घटना है और उसके इर्द-गिर्द सभी पात्र घुमते रहते हैं। घटना बहुलता नहीं है, सामाजिक सरोकारों को अभिव्यक्त करने या संबंध होने का जैसे कोई औचित्य ही नहीं है। IGNOU MHD solved assignment

यशपाल मूलतः मध्य वर्ग के लेखक हैं। अपनी कहानियों में वे उस प्रगतिशील परिवर्तन कामी मध्यवर्ग की भूमिका को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं जो सामाजिकराजनीतिक क्रांति का समर्थक और वाहक है। सामाजिक विसंगतियों के उद्घाटन के लिए यशपाल ने व्यंग्य का उपयोग बड़ी खूबी के साथ किया है। उनकी आरंभिक कहानियों में यह देखा जा सकता है।

इसी दौर में लिखित अज्ञेय की भावूक और गद्य गीतनुमा कहानियों से ‘पिंजरे की उड़ान’ की कहानियों की तुलना करके इस अंतर को भली-भांति समझा जा सकता है। प्रेमचंद की कहानियों की अपेक्षा यशपाल की ये आरंभिक कहानियाँ निजी जीवन-प्रसंगों के रचनात्मक उपयोग से अधिक समृद्ध हैं।

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लेकिन अपनी इन कहानियों में भी, एक लेखक की हैसियत से यशपाल कहानी और जीवन के पारस्परिक संबंधों को लेकर कहीं भी अस्पष्ट नहीं हैं। वे लिखते हैं, “हमारी कल्पना का आधार जीवन की ठोस वास्तविकताएँ ही होती हैं ” यशपाल की कल्पना अतीत सुख-दुख को अनुभूति के चित्र बनाकर उससे ही संतोष करने को तैयार नहीं है। अपनी कल्पना की प्रकृति की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं, “(वह) आदर्श की ओर संकेत कर समाज के लिए नया नक्शा तैयार करने का यत्न करती है।”

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मध्यवर्गीय मूल्यों का प्रतिनिधित्वः “द डॉग आस्व्स में यशपाल के पात्र मध्यवर्गीय मूल्यों जैसे कि कड़ी मेहनत, अखंडता और ऊपर की ओर गतिशीलता की आकाक्षाओं को मूर्त रूप देते हैं।

नायक, एक शिक्षक, अपने पेशे के लिए समर्पित है और अपने छात्रों को ज्ञान प्रदान करने काप्रयास करता है। यशपाल का चित्रण परिश्रम और शिक्षा की खोज के मध्यवर्गीय लोकाचार को रेखांकित करता है। आर्थिक दबावों की पड़ताल यशपाल के मध्यम वर्ग के चित्रण में आर्थिक चिंताएँ और वित्तीय संघर्ष।प्रमुख हैं।

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“द डॉग अक्स में, परिवार को वितीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, विशेष रूप से पिता के बीमार स्वास्थ्य के कारण। यशपाल चिकित्सा खर्चों के बोझ, वित्तीय प्राथमिकताओंको संतुलित करने की आवश्यकता और आर्थिक अस्थिरता के कारण व्यक्तियों और परिवारों परपड़ने वाले दबाव पर प्रकाश डालते हैं। IGNOU MHD solved assignment

आम पाठकों से जुड़ाव: यशपाल की लेखन शैली और विषयगत फोकस पाठकों की एक विस्तृत श्रृंखला के साथ प्रतिध्वनित होता है, जिसमें मध्यम वर्ग के लोग भी शामिल हैं। रोजमर्शा की चुनौतियों, आकोक्षाओं और दुविधाओं का उनका सूक्ष्म चित्रण परिचित और सापेक्षता की भावना पैदा करता है। पाठकों के साथ यह जुड़ाव एक मध्यवर्गीय लेखक के रूप में उनके चरित्र चित्रण में पोगदान देता है।

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यशपाल की कहानियों में मध्यवर्ग के विभिन्न स्तरों से आए पात्रों की एक भरी पूरी और रंगारंग दुनिया हिलोरे लेती दिखाई देती है। इन कहानियों में पुलिस के अत्याचारों से त्रस्त और आतंकित लोग हैं। रूढ़ियों और अंधविश्वासों में पले-बढे, शहरी सभ्यता के विलास से काफी कुछ अछूते पहाड़ी गाँवों में बसे लोग हैं जो धर्म, मनौती और देवी-देवताओं के नाम पर आज भी शोषण का शिकार हैं।

पहाड़ों पर तफरीह को जाने वाले सुविधाभोगी लोग हैं जो परीक्षा की तैयारी की आड़ में सड़कों . पर सैर करती लड़कियों के नंबर तय करते हैं। पढ़ी-लिखी उपेक्षित महिलाएँ हैं, रूढ़ियों और सामाजिक विसंगतियों की शिकार भी हैं और वेश्याएँ भी।

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एक ओर अपनी सफेदपोशी और अभिजात दर्प में बंद लोग हैं, जो इंसान का इंसान की तरह जीना पसंद नहीं करते, और दूसरी ओर शोषित, उपेक्षित, दुखी और सताए हुए लोग हैं जो अपने हक की लड़ाई के लिए अपने को मानसिक रूप से तैयार कर रहे हैं। दूसरों की दया और कैसी भी करुणा के बदले वे आत्मनिर्णय के अपने अधिकार को वरीयता देते दिखाई देते हैं। IGNOU MHD solved assignment

कुल मिलाकर, यशपाल की कहानी “द डॉग आस्क्स” दैनिक जीवन की खोज, सामाजिकवास्तविकताओं की जांच, मध्यवर्गीय मूल्यों का प्रतिनिधित्व, आर्थिक दबावों की जांच और आम पाठकों के साथ संबंध के माध्यम से एक मध्यवर्गीय लेखक के रूप में उनके चित्रण का उदाहरण है। ये तत्व उनके साहित्यिक कार्यों में मध्यवरगीय अनुभव का एक सूक्ष्म और प्रामाणिक चित्रण प्रस्तुत करने के लिए गठबंधन करते हैं।

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9.”ठाकुर का कुआँ कहानी के आधार पर अस्पृश्यता की समस्या का वर्णन कीजिए।

प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से भारतीय जातिप्रथा की सबसे घूणित परंपरा अस्पृश्यता (छुआछूत) के कारण तिरस्कार, अपमान और मानवीय अधिकारों से वंचित जीवन जी रहे अछूतों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को अभिव्यक्त किया है। पानी के लिए तरसते अुत जीवन की वास्तविकता की यह कहानी है।

भारतीय समाज में जातिप्रथा के कारण गैर-बराबरी, अभाव, विपन्नता, तिरस्कार, उत्पीड़न को सह रहे तमाम अळूत वर्ग की त्रासदी को जान सकेंगे। उस पर गहराई से सोच सकेंगे।

इंसान ने ही जातिगत भेदभाव के आधार पर गैरबराबरी को बढ़ावा देकर उसे स्थायी रूप देने के लिए अनेकानेक धार्मिक, पारंपारिक, सनातनी ढकोसलों का सहारा लिया और किस प्रकार करोड़डों अछुतों को इन्सान होने के दर्जे से नीचे गिराकर गुलामों का जीवन जीने पर मजबूर किया, इस वास्तविकता को आप जान सकेंगे।

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अछूत गंगी को पानी के लिए जातिप्रथा और छुआछूत परंपरा की बाधाओं को पार करके, जीवन को दांव पर लगाना पड़ता है, इस सच्चाई से आप परिचित हो सकेंगे। गंगी की अछूत बस्ति में उनका अपना कुआ न होना अछूतों की गरीबी और आर्थिक विपत्नता की स्थिति को दर्शाती है। अछूत बस्ति आर्थिक रूप से इतनी विपन्न क्यों है?

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ये सवाल को भी समझने में यह इकाई आपकी सहायता करेगी। अस्पृश्यता का व्यवहार करने वाले हिंदुओं से संघर्ष करने के स्थान पर गंगी का पलायन करना, समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि जातिप्रथा और अस्पृश्पता निर्मूलन के लिए गंगी द्वारा कड़ा संघर्ष करने की आवश्यकता थी।

इससे आप सहमत हो सकेंगे। प्रेमचंद आधुनिक युग के पहले महत्वपूर्ण लेखक है जिन्होंने दलित समस्या परसर्वाधिक गहराई से विचार किया है। प्रेमचंद के समकालीन अन्य रचनाकारों में राहुल सांकृत्यायन और निराला ने भी दलित जीवन की भयावह त्रासदी को वाणी दी है, लेकिन सबसे सशक्त रचनाएँ प्रेमचंद ही दे पाए हैं।

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उन्होंने आधुनिक भारतीय समाज में जातिव्यवस्था के कारण अछूत माने गए दलित समाज के त्रासद अनुभवों को अपने रचना कर्म का विषय बनाया है। ठाकुर का कुआं, सदगति,  द्रुध का दाम, कफन’ आदि कहानियाँ दलित जीवन में व्याप्त अभाव, पीड़ा, उत्पीड़न और दर्द को अभिव्यक्त करती हैं। उनकी कहानियों में छुआछूत का विरोध स्पष्टतः सामाजिक और आर्थिक संदों के रूप में किया गया है।

प्रेमचंद मानव-मानव के बीच समानता का पुरस्कार करते हैं, और विशिष्ट जातियों के जन्मगत विशेषाधिकारों का विरोध करते है। मनुष्य का स्थानअच्छे गुण और कर्मों के आधार पर निष्चित होना चाहिए न की जन्म के आधार पर। IGNOU MHD solved assignment

लेकिन हिंदू धर्म के जिस तर्क के कारण जातियों का विभाजन, विभिन्न जातियों के बीच रोटी-बेटी के व्यवहार का निषेध किया गया, और अछूतों के मानवाधिकारों को छीनकर उनका शोषण किया उच्च कही गई जातियों को न कैवल विशेषाधिकार दिए बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए कानून बनाकर उन्हें कड़ाई से लागू किया जाता है। जातिव्पवस्था के तहत जन्मना जाति तय होने से व्यक्ति का न केवल सामाजिक दर्जा बल्कि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति भी निक्चित हो जाती है।

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जाति के आधार पर पेशों का बंटवारा तथा उत्पादन के साधनों पर अधिकार या उससे वंचित किया जाना भी जातिव्यवस्था जातियों कोन केवल विशेषाधिकार दिए बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए कानून बनाकर उन्हें कड़ाई से लागू किया जाता है। जातिव्यवस्था के तहत जन्मना जाति तय होने से व्यक्ति का न केवल सामाजिक दर्जा बल्कि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति भी निश्चत हो जाती है।

जाति के आधार पर पेशों का बंटवारा तथा उत्पादन के साधनों पर अधिकार या उससे वंचित किया जाना भी जातिव्यवस्था द्वारा निर्धारित होता है। इस सबके पीछे धर्म का आधार दिया गया है। ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से जातियों की निर्मिंति की मनगढंत झूठी कहानी जन्मना जाति निध्धारण के लिए उपयोग में लाई गई।IGNOU MHD solved assignment

अपने को श्रेष्ठ बनाएँ रखने के लिए इस झूठी कहानी को भाग्य, कम्मफल, पूनर्जन्म के झूठे तर्क का सहारा दिया गया।

अंधविश्वास और शिक्षा के अभाव में निम्न तबका इसे ही अपना प्रारव्ध समझता रहा। ज्ञान और शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने का धर्म के ठेकेदारों का यह छल तबब से लेकर आज तक सफल होता आ रहा है। इस धार्मिक छल-कपट, श्रेष्ता के ढोंग, आर्थिक उत्पादनों पर इनके एकाधिकार और निम्र जातियों को मानवीय अधिकारों संचित किए जाने की साजिशों का पर्दाफाश प्रेमचंद ने अपनी कहानियों के माध्यम से किया है।

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‘ठाकुर का कुआं’ कहानी अछू्तों के मानव अधिकारों की पूर्ति बिना दयनीय स्थिति में जीने की त्रासदी को चित्रित करती है। वर्ण – जाति व्यवस्था जैसी अतीशय अमानुषिक रचना से हम सभी परिचित हैं। यह कोई अनायास नहीं है कि दलितों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली भारतीय जनसंख्या का साठ प्रतिशत हिस्सा दलित समुदाय है। वर्ण व्यवस्था ने समाज में असमानता और श्रेणीनुमा ढांचा पैदा करके दलितों को सभी सुख सुविधाओं से वंचित रखा कथित ऊँची जाति के कुओं से ये पानी नहीं ले सकते।

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इनका अपना कुआँ हो नहीं सकता कथित ऊँची जाति की दया पर निर्भर रहकर पानी के लिए तरसना ही इनके जीवन की त्रासदी है। घंटो याचना करने पर किसी सवर्ण का मन पसीजा तो दो चार बाल्टियों से मटके भर देंगे, वह भी एहसान जताते हुए और हजार गलियाँ देकर। पानी जैसी मानव जीवन की मूलभूत जरूरत, जो एक प्राकृतिक संपदा है।

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लेकिन सवर्ों ने सत्ता और संपर्ति के जोर पर इसे अपने वर्चस्व में कर लिया है। इस वर्चस्व का विरोध करने अथवा इस व्यवस्था को तोड़ने पर अद्तों को गाँव पंचायतों द्वारा अपमानित, उत्पीड़ित किया जाता है या इन्हें मार दिया जाता है। ठाकुर का कुऔँ दलितों की इसी गंभीर समस्या को उजागर करती है।

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10. (क) जयशंकर प्रसाद की राष्ट्रीय भावना

प्रसाद जी की व्यापक राष्ट्री सांस्कृतिक चेतना का विश्वमंगल से विरोध न था। वे उत्पीड़न के विरोध में थे – विषमता रहित समाज की स्थापना चाहते थे। ‘कामायनी’ की मिथकीय सीमाओं में भी कर्म चेतना, संघर्ष चेतना, एकता जैसे तत्त्व हैं, जिनका महत्त्व राष्ट्रय आंदोलन के लिए था।

इन पंक्तियों के द्वारा प्रसाद जी राष्ट्र को जागरण का संदेश देते हैं । न्ददुलारे वाजपेयी का कहना है, “बीती विभावरी जाग री” शीर्षक जागरण गीत प्रसाद जी के संपूर्ण काव्य- प्रयास के साथ उनकी

युग-चेतना का परिचायक प्रतिनिधि गीत कहा जा सकता है।” राष्ट्रीय चेतना का स्थूल रूप उनके नाटकों के गीतों, ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ से में मिलता है। नाटकों के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय चेतना का प्रसार किया।

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और जब वे कहते हैं – चित्राधार’ में तो वे यहां तक कहने का साहस कर गए कि उस ब्रह्म को लेकर मैं क्या करूंगा जो साधारण जन की।पीड़ा नहीं हारता। -आंसू’ में भी विश्वमंगल की भावना की अभिव्यक्ति हुई है। सारांशतः हम यह कह सकते हैं कि प्रसाद जी का काव्य राष्ट्रीय काव्य, सांस्कृतिक जागरण का काव्य हैं।

ये स्वाधीन चेतना के बल पर नई मानव परिकल्पना में सक्षम हैं। वह नई संबंध भावना का संकेत हैं। यहां राष्ट्रीयता का भाव संकुचित नहीं है, बल्कि विश्वमंगल हेतु है। कामायनी’ आधुनिक जीवन-बोध का महाकाव्य है। इसमें संघर्ष करना सिखाया गया है। कर्म करना सिखाया गया है। विश्व-मंगल इसका मूल प्रयोजन है। उसकी मूल संकल्पना संकुचित राष्ट्रवाद के विरुद्ध है। मुक्तिबोध इड़ा को पूंजीवादी सभ्यता की उन्नायिका कहते हैं।

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प्रसाद जी की रचनाओं में कहीं भी भाव-स्थूलता का वर्णन नहीं है। इनमें अनुभूति का सूक्ष्म वर्णन है। वे स्वच्छंदतावादी भी थे। हालांकि कुछ आलोचकों ने, जब उन्होंने “ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे” लिखा था, पलायनवादी होने का आरोप लगाया।

किंतु हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना और ‘द्विवेदी कालीन’ कवियों,  मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, की चेतना में अंतर है। उनकी राष्ट्रीय चेतना बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के ‘विप्लव गान’ और ‘निराला’ के ‘जागो फिर एक बार’ से भी भिन्न है । इनमें राष्ट्रीयता का स्वरूप स्थूल हैं, इनमें उद्बोधन है, विदेशी सत्ता से मुक्त होने का आह्वान है।

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इसमें संदेह नंहीं कि श्रद्धा, जो रागात्मक वृत्ति का प्रतीक हैं, का आदरशीकरण प्रसाद जी करते हैं। श्रद्धा मनु को जीवन में वापस लाती है। कर्म-्षेत्र में आने से आनंद की प्राप्ति होती है। फिर भी इड़ा का जो व्यक्तित्व विथान है उसमें नई युग चेतना के सभी सकारात्मक तत्त्व वर्तमान हैं। तो वे समग्र विश्व तक राषट्रीय चेतना का प्रसार करते प्रतीत होते है, का आदर्शीकरण प्रसाद जी करते हैं। श्रद्धा मनु को जीवन में वापस लाती है। कर्म-क्षेत्र में आने से आनंद की प्राप्ति होती है।

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फ़िर भी इड़ा का जो व्यक्तित्व विधान है उसमें नई युग चेतना के सभी सकारात्मक तत्त्त वर्तमान हैं। तो वे समग्र विश्च तक राष्ट्रीय चेतना का प्रसार करते प्रतीत होते हैं। इसका क्लासिक उदाहरण है – ‘कामायनी। ‘कामायनी’ संकुचित राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर विश्वमंगल वाली रचना है। वह संपूर्ण मानवजाति की समरूपता का सिद्धरात अपनाकर आनंद लोक की यात्रा का संदेश देती है।

(ख) किसानों के प्रति प्रेमचंद की दृष्टि

प्रेमचंद ने किसान को साहित्य का विषय बनाया। उनके कथा-साहित्य में किसान-जीवन के विभिनत्र पक्षों का चित्रण हुआ है। भारत का सबसे बड़ा वर्गकिसान रहा है। किसान भारत की कृषि-संस्कृति का मूलाधार है। किसान के बिना भारतीय संस्कृति का कोई भी विश्लेषण अधूरा होगा। यह बात बार-बार दुहराई गई है कि भारत एक कृषि-प्रधान देश है।

प्रेमचंद ने इस कृषि- व्यवस्था के कर्ता- धर्ता किसान को अपने उपन्यासों और कहानियों का मुख्य विषय बनाया। उनके पहले तथा उनके बाद किसी भी रचनाकार ने इतने विस्तार से किसान को आधार बनाकर हिंदी में साहित्य सृजन नहीं किया।

डा. रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद की रचनाधमिता के इस पक्ष को रेखांकित किया है, हिंदी में किसानों की समस्याओं पर ज्यादा उपन्यास लिखे ही नहीं गए, जो लिखे भी गये हैं, उनमें प्रेमचंद की सूझबूझ का अभाव है।” किसान-जीवन के साथ तालमेल बनाते हुए प्रेमचंद ने जो रचा वह हिंदी के लिए एकदम नया था, “उन्होंने उस धड़कन को सुना जो करोड़ों किसानों के दिल में हो रही थी।

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उन्होंने उस अछूते यथार्थ को अपना कथा-विषय बनाया, जिसे भरपूर निगाह देखने का हियाव ही बड़ों- बड़ों को न हुआ था। “किसान के जीवन को भरपूर निगाह’ से देखने तथा लिखने के कारण ही, ” प्रेमाश्रम’ किसान-जीवन का महाकाव्य है। उसमें उस जीवन का एक पहलू नहीं दिखाया गया, वह एक विशाल नदी की तरह है जिसमें मूल धारा के साथ आसपास के नालों का पानी, जड़ से उखड़े हुए पुराने खोखले पेड़ और खेतों का घासपात भी बहता हुआ दिखाई देता है।” IGNOU MHD solved assignment

प्रेमचंद के योगदान की घोषणा करती यह पंक्ति ध्यान देने योग्य है”,गप्रेमाश्रम’ और कर्मभूमि के साथ गोदान हिंदुस्तानी किसानों के जीवन की बृहतत्रयी समाप्त करता है। प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों के बारे में यह बात सर्वमान्य है कि उनमें सर्वाधिक प्रमुखता से किसान-जीवन को ही विषय बनाया गया है।

हिंदी आलोचना में यह बात अच्छी तरह पहचानी गयी है कि प्रेमचंद ने किसानों के शोषण-उत्पीड़न को न केवलचित्रित किया है, बल्कि इनके विरोध की चेतना को भी पकड़ा है। किसानों के विद्रोही तेवर की चच्चा रामविलासजी ने अनेक बार की है। IGNOU MHD solved assignment

किसानों के शोषकों की पहचान सामंतों, पुरोहितों एवं महाजनों के रूप में की गयी है। प्रेमचंद किसान की समस्या के व्यवस्थागत कारणों की तलाश करते हैं। रामविलासजी बहुत बारीकी के साथ अर्थव्यवस्था, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, सामंतवाद-पुरोहितवाद आदि व्यवस्थागत पक्षों को ध्यान में रखकर प्रेमचंद के साहित्य को समझने-समझाने का प्रयास करते हैं।

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प्रेमचंद के किसानों की पहचान माक्सवादी शब्दावली में बताई गई है कि वे सीमांत किसान हैं। ऐसा किसान जिसके पास कम ज़मीन है। वह परिवार की मदद से खेती करता है। पाँच बीघे के

आसपास की खेती का वह मालिक भी होता है और श्रम करने वाला किसान भी। उसकी हैसियत इतनी नहीं होती कि अपनी खेती के लिए मजदूर रख सके। जीवन की कठिन परिस्थितियों में प्रायः उसे कर्ज लेना पड़ता है।

गाँव की महाजनी पद्धति से उसे कर्ज मिलता है, जिसके सूद की दर जानलेवा होती है। सवा सेर गेहूँ में प्रेमचंद ने कर्ज की इस पद्धति के भयानक रूप को कहानी में ढाला है। प्रेमचंद का यही किसान भारत को कृषि प्रथान देश बनाता है। आज़ादी के पहले भारत की अर्थव्यवस्था, समाज व्यवस्था और धर्मव्यवस्था को बनाने में गाँवों की भूमिका आज की अपेक्षा ज्यादा बड़ी थी।

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इन गाँवों में रहनेवाली शत प्रतिशत आबादी कृषि-व्यवस्था पर आश्रित थी। गाँव की इस आबादी के बारे में ये नहीं कहा जा सकता कि ये सभी किसान थे। प्रेमचंद के सभी ग्रामीण पात्र किसान नहीं हैं। यद्यपि सभी ग्रामीण आश्रित थे कृषि-व्यवस्था पर ही, पर सबको किसान नहीं कहा जा सकता।

ग्रामीण आबादी की पहचान वर्गों में बाँटकर की जा सकती है। ऐसा एक वर्गीकरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा किया हुआ भी मिलता है। कृषि और व्यापार से जुड़े वरगों के अंतर पर विचार करते हुए वे लिखते हैं, “भूमि ही यहाँ सरकारी आय का प्रथान उद्म बना दी गई है।

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व्यापार श्रेणियों को यह सुभीता विदेशी व्यापार को फलता फूलता रखने के लिए दिया गया था जिससे उनकी दशा उन्नत होती आई और भूमि से संबंध रखने वाले सब वर्गों की जमींदार क्या किसान क्या मजदूर गिरती आई।

सूरदास का जीवन परिचय (Surdas Ka Jivan Parichay)

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