IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2023

IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2023

MHD 03 (उपन्यास एवं कहानी)

सूचना 

MHD 01 free solved assignment मैं आप सभी प्रश्नों  का उत्तर पाएंगे, पर आप सभी लोगों को उत्तर की पूरी नकल नही उतरना है, क्यूँ की इससे काफी लोगों के उत्तर एक साथ मिल जाएगी। कृपया उत्तर मैं कुछ अपने निजी शब्दों का प्रयोग करें। अगर किसी प्रश्न का उत्तर Update नही किया गया है, तो कृपया कुछ समय के उपरांत आकर फिर से Check करें। अगर आपको कुछ भी परेशानियों का सामना करना पड रहा है, About Us पेज मैं जाकर हमें  Contact जरूर करें। धन्यवाद 

MHD 03 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

1(क) ‘गोदान’ के प्रमुख नारी पात्रों पर विचार कीजिए।

उत्तर :
गोदान मुंशी प्रेमचाद द्वारा रच भारतीय किसानों के दरिद्र्यता पूर्ण जीवन pe adharit प्रसिद्ध उपन्यास है। ‘गोदान‘ की मूल कथा बेशक होरी-धनिया के संघर्षों और पीड़ाओं की ही है। परंतु इस मूल कथा के साथ-साथ उन्होंने अनेक अवांतर कथाओं और प्रकरणों की भी सृष्टि की है, जिनमें नोहरी, झुनिया, सिलिया, चुहिया, मालती, गोविन्दी आदि अनेक नारी चरित्र हमारे सामने आते हैं।

किसान नारी पात्र:-

इसमें कोई दो राय नहीं कि होरी ‘गोदान’ की ‘आत्मा’ है लेकिन प्रेमचंद ने उस ‘आत्मा’ की ‘काया’ धनिया के सहारे ही गढ़ी है। ‘गोदान’ में प्रेमचंद जो होरी के माध्यम से नहीं कह पाए उसे उन्होंने धनिया के द्वारा अभिव्यक्ति दी है। प्रेमचंद ने होरी का किसान के रूप में अधूरा चरित्र ही उपस्थित किया है। होरी को ढीला-ढाला, गमखोर सबसे दबने वाला. धर्मभीरू मर्यादा प्रेमी के रूप में उपस्थित किया है। इस रूप में वह भारतीय किसान का प्रतिनिधि नहीं है।

धनिया के स्वाभिमानी, निडर, मेहनती, कर्मठ, साहसी रूप से मिलकर ही वह भारतीय किसान की ‘संश्लिष्ट प्रतिमा ‘ बन पाता है। धनिया के बिना वह अधूरा पात्र है। धनिया होरी की चेतना का दूसरा पक्ष है, उसी का अधूरा भाग है, जिसे होरी ने अपने मन में नष्ट कर दिया है, परंतु प्रेमचंद ने उस चेतना को धनिया की काया में गढ़कर मूर्तिमान कर दिया है।

प्रेमचंद ने किसान परिवारों की एक विशेषता का वर्णन किया है, विशेषतः दलित किसानों में पति-पत्नी के बीच की मार-पीट का वर्णन मध्यवर्गीय जीवन में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। यदि वहाँ मारपीट हो जाए तो विवाह-विच्छेद निश्चित है, क्योंकि मध्यवर्गीय स्त्री अपने अस्तित्वबोध के प्रति सचेत है। जैसे की गोबर-झुनिया का झगड़ा हुआ।

दोनों के बीच संवादहीनता आ गयी। इस बीच मिल में हड़ताल हुई और वहाँ हुए झगड़े में गोबर बुरी तरह घायल होकर घर पहुंचा। ‘झुनिया ने गोबर की वह चेष्टाहीन लोथ देखी तो उसका नारीत्व जाग उठा। ‘ उसने तन-मन से गोबर की सेवा-सुश्रुषा की। इसी तरह होरी को ज्वर आया तो धनिया का भी ममत्व जाग उठा – “लाख बुरा हो, पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे हैं, सुख किया है तो उसीके साथ, दुःख भोगा है तो उसी के साथ। अब तो चाहे वह अच्छा है या बुरा, अपना है।

बास्तविकतः यहाँ पितृसत्तात्मक प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखते है। स्त्री की अधीनता व सामाजिक दबाव के कारण सभी किसान नारी चरित्र पति के द्वारा किए गए अपमान, उत्पीड़न को चुपचाप सहती नजर आती है। कोई भी विद्रोह या विरोध नहीं करती। ‘पति-पत्नी में झगड़े तो होंगे ही ‘ या ‘यह हमारा आपस का झगड़ा है | ‘लाख बुरा हो, पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे हैं। जैसे सांत्वना भरे शब्दों से सभी नारी चरित्र अपने आप को रिझाते हुए दिखते है।

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इसके अलावा प्रेमचंद ने ग्रामीण जीवन में विवाहेतर यौन-संबंधों का वर्णन भी किया है। इस प्रकरण में प्रेमचंद ने समाज के उत्पीड़क वर्गों द्वारा दलित वर्ग की स्त्रियों के यौनशोषण का मुद्दा उठाया है।
सिलिया- मातादीन के झूठे प्रेमजाल में फंसी है। वह समझती है कि मातादीन ब्राह्मण होकर भी चमारिन सिलिया. को पत्नी के रूप में घर में रखा है तो जरूर उसके मन में सिलिया के प्रति अटूट प्रेम है। अपनी बिरादरी का विरोध सहकर भी मातादीन सिलिया को अपनी पत्नी के रूप में घर में रखता जरूर है लेकिन उसका प्रेम केवल शारीरिक है।

सिलिया के यौवन भरे शरीर के प्रति वह आकर्षित है। निम्न जाति की सिलिया को वह मन बहलाने वाले खिलौने की तरह समझता है। सिलिया के साथ शारीरिक संबंध रखने पर उसे कोई छुआछूत या ब्राह्मण होने के अंह का अहसास नहीं होता। लेकिन सिलिया द्वारा पकाया खाना वह नहीं खाता। अपनी रसोई वह खुद पकाकर खाता है। धर्म की रक्षा मातादीन के लिए सिलिया द्वारा छुआ खाना न खाने तक सीमित है।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि ‘गोदान ‘ की शहरी कथा के केंद्र में मालती है। उपन्यास में मालती का प्रवेश रायसाहब द्वारा दी गयी दावत में होता है। इसके बाद जब भी उपन्यास मे शहर आता है, मालती अवश्य आती है। वे इंग्लैंड से डाक्टरी पढ़ आयी हैं और अब प्रेक्टिस करती हैं। ताल्लुकेदारों के महलों में उनका बहुत प्रवेश है। वे नवयुग की साक्षात प्रतिमा हैं। गात कोमल, पर चपलता कूट-कूट कर भरी हुई है।

झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की हाजिर-जवाब, पुरुष-मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रेमाद को जीवन का तत्व समझने वाली, लुभाने और रिझाने की कला में निपुण। पर इसके विपरीत उन्होंने खन्ना की पत्नी को बहुत आदर-सम्मान से प्रस्तुत किया है। ‘वह जो खादी की साड़ी पहने बहुत गंभीर और विचारशील-सी है, मिस्टर खन्ना की पत्नी कामिनी खन्ना है।’

मालती अविवाहित है। उपन्यास के अंत में भी वह अपने इसी निश्चय पर कायम है कि ‘मित्र बनकर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने से कहीं सुखकर है।’

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दरअसल प्रेमचंद इन पात्रों के द्वारा नारी के असली रूप को उद्घाटित करना चाहते हैं। उनकी सहानुभूति नारी के मातृत्व रूप के साथ है, वे उसी को महत्व देते हैं तथा रमणी रूप की उपेक्षा करते हैं। परंतु इस उलझन में बह कई बार फंस जाते है। उनका यही सवाल।की एक नारी के रूप मैं क्या अन्य नारी रूप आ सकते है की नहीं।

शिक्षा का प्रसार, आर्थिक विकास, आधुनिकीकरण व अवसरों की प्राप्ति केवल शहरों तक सीमित रही है। गाँवों तक इन सुविधाओं को पहुँचाने में न तो उस समय की अंग्रेज सरकार उत्सुक थी और न ही ज़मींदार, महाजन व अधिकारीगण। क्योंकि गाँवों के विकास के साथ ही चेतना का विकास होगा और शोषित दबे हुए किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी अपने अधिकार व स्वतंत्रता की माँग करेंगे जो की अंग्रेज सरकार और उसके पक्षधरों को मंजूर नहीं था।

एक तरफ उच्च शिक्षा विभूषित मालती कौंसिल का इलेक्शन लड़ती है, तो धनिया, झुनिया, सिलिया को राष्ट्रीय आंदोलन की भनक तक नहीं। प्रेमचंद ने गाँव व शहर के दो अलग-अलग परिवेशों की वास्तविकता को गोदान की रचना द्वारा अभिव्यक्ति देने में बहुत हद तक सफलता प्राप्त की है। प्रेमचंद नारी चरित्रों के माध्यम से इस अंतर को अधिक स्पष्ट कर सके है। गोदान के द्वारा उन्होंने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक सरोकारों को एक विस्तृत पटल पर रेखांकित किया है।

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(ख) ‘सूखा बरगद’ उपन्यास के महत्व पर प्रकाश डालिए।

मंजूर एहतेशाम के ‘सूखा बरगद’ मुस्लिम मध्यवर्गीय समाज के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संघर्ष को उजागर करता है। यहां पर उपन्यासकार ने मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज के अपने प्रत्यक्ष अनुभवों को उपन्यास में भरपूर उपयोग किया है। विभाजन के बाद भारत में रह गये मुसलमानों विशेषतः शिक्षित मध्यवर्गीय मुसलमानों की मानसिकता का बयान ‘सूखा बरगद के कथ्य का एक अहम पक्ष है।

चाहे हिंदू समाज हो या मुस्लिम समुदाय, उसमें मध्यवर्ग का एक खास स्थान होता है। विशेषतः पढ़ा लिखा मध्यवर्ग समाज की उन्नति, बौद्धिक विकास और परिवर्तन में प्रायः नेतृत्व करता है। मध्यवर्ग का उदय औद्योगीकरणऔर नगरीकरण के समांतर हुआ है।हालांकि मध्यवर्ग के अपने अन्तर्विरोध कुछ कम नहीं होते। एक ही समय में वह प्रगतिशीलता के प्रमाण देता है तो कहीं अंधविश्वास और . रूढ़िवाद का समर्थक भी होता है।

मध्यवर्ग की आकांक्षा होती है कि वह समाज के उच्चवर्ग के समकक्ष हो जाये। इसके लिए वह तरह-तरह के दिखावे करता है। लेकिन उच्च । वर्ग का अहंकार और आभिजात्य उसे स्वीकार नहीं करता। इसके फलस्वरूप वह निम्नवर्ग से तो कट ही जाता है, उच्च वर्ग उसे स्वीकारता नहीं है, जिसकी वजह से वह अपनी जड़ों से भी उखड़ जाता है।

सूखा बरगद’ में मंजूर एहतेशाम ने शिक्षित मुस्लिम परिवार को केंद्र में रखा है। उदार विचारों के अब्बू और परम्परा प्रिय अम्मी के वैचारिक संघर्ष और उससे उत्पन्न व्यावहारिक कठिनाइयों के बीच बच्चों – रशीदा और सुहैल की परवरिश होती है। एक ओर माँ से प्राप्त संस्कार हैं, जो समाज में रूढ़ियों के रूप में प्रचलित है, दूसरी ओर अब्बू के माध्यम से नये सोच, नये जमाने की हवा है जो बच्चों के मानसिक-बौद्धिक विकास को सही दिशा देती है।

उपन्यास की कहानी ज्यादातर रशीदा के अवलोकन बिंदु से ही कही गयी है। अपने परिवार के दो तरह के मूल्यों के बीच में जूझते और झूलते रहने और फिर अपना एक रास्ता चुन लेने का साहस है और बदले हुए जमाने की अपने पैरों पर खड़े होनेका तथा, अपने कैरियर के प्रति जागरूक मुस्लिम युवती के रूप में पाठकों को आश्वस्त कराती है।

इतने समस्यायों के बाबजूद उच्चशिक्षा प्राप्त कर आकाशवाणी में नौकरी करने का हिम्मत भी दिखाती है। निम्न मध्य वर्ग की आर्थिक सीमाओं के दबाव को झेलकर भी वह अपने जीवन को यथार्थ की कठिन ज़मीन से टकराने देती है। सुहैल की तरह टूटकर बिखरती नहीं। अली हुसैन साहब द्वारा कहे गए कटु सत्य के अहसास से वह घबराती नहीं।

आज हम लोग कहाँ है? कम्युनिस्ट होते हुए भी पहले ‘मुसलमान हैं या हिंदू!’ यही कारण है कि विजय से प्रेम करके भी उसे दोनों के बीच एक अदृश्य दूरी का अहसास होता है। लेकिन चूंकि वह शिक्षित है और अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है। यही वह नई पीढ़ी है जो अंतर्विरोधों को केवल ‘मुसलमान के संदर्भ में नहीं देखती।

इस उपन्यास मैं लेखक ने लगभग सभी अबस्थायों को दिखाने का प्रयास किया है। चाहे वह अंधविश्वास के चिंतन पक्ष हो, या फिर परिवार के लिए अपने सपने तोड़ने की असहाय पीड़ा को सहने का दर्द हो, नियमों को मान कर घुट घुट के जीने की मजबूरी हो। शायद इसीलिए रशीदा के चिंतन बिंदु से उपन्यासकार ने कई बार मध्यवर्गीय सोच को टिप्पणी दी है।

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मंजूर एहतेशाम ने “सूखा बरगद’ में आजादी के बाद से लेकर आठवें दशक तक के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव की प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करने की कोशिश की है और इस व्यापक संदर्भ में निम्न मध्यवर्ग के जीवन यथार्थ को चित्रित करना चाहा है। मुस्लिम जीवन के यथार्थ और उनकी बदलती सोच को वह बहुत गहराई और प्रामाणिकता के साथ चित्रित करने में सफल हुए है।

युवा पीढ़ी का शिक्षित होना और लडकियों का नौकरी करना संकेत देता है कि नयी पीढ़ी अंतर्विरोधों को केवल “मुसलमान” के संदर्भ में नहीं देखती। उसकी दृष्टि विज्ञान सघन है। इस वर्ग का विश्वास है कि एक मिलीजुली संस्कृति का निर्माण करने में हमें अपने स्वार्थों की बली दे देनी ही चाहिए। उपन्यास से उभरा यह सोच प्रगतिशील और प्रासंगिक है। “सूखा बरगद’ के प्रगतिशील विचारों के सुहैल का आजकल की तेजी से बदलती सामाजिकराजनीतिक स्थितियों के बढ़ते दबाव में रूढ़िवादी बन जाना प्रगतिशील विचारधारा की खामियों को स्पष्ट करता है।

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ग) भारतीय जीवन दृष्टि के संदर्भ में ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ का मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर:

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के द्वारा लिखित ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के सृजन के पीछे का उद्देश्य न तो अतीत-वैभव की भव्यता का चित्र प्रस्तुत करना था और न ही ऐतिहासिक घटनाओं एवं तिथियों को ब्योरेवार प्रस्तुत करना था। इस रचना का उद्देश्य था ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में तत्कालीन युगीन जीवन के आंतरिक यथार्थ को उद्घाटित करना।

इसलिए इस मैं ऐतिहासिक तथ्य और सांस्कृतिक तत्वों का आधार लेकर तत्कालीन युग-सत्य की खोज की गयी है। द्विवेदी जी ने एक युग-विशेष की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं की छानबीन कर समकालीन संदर्भो में उनकी संगति बिठायी है। इस उपन्यास के द्वारा मानवीय मूल्यों की चिंता, मानवता की स्थापना, नारी-स्वतंत्रता, जातिविहीन समाज की स्थापना के द्वारा स्वाधीन भारत की कल्पना को साकार करने का प्रयास किया गया है। अत: यह उपन्यास जितना ऐतिहासिक है उतना समसामयिक भी।

यह लेखक की गहरी सूझ-बूझ, यथार्थवादी दृष्टिकोण और सर्जनात्मक विशिष्टता ही है जिसके लिए अतीतकालीन समस्याएँ अपने समय के संदर्भ में जितनी सार्थक है, आज के संदर्भ में उतनी ही संगत भी। अपने समय की स्थितियों के प्रति सजगता और कलात्मक चेतना के कारण द्विवेदी जी समय के अंतर को सहजता से दूर करते हैं। ऐतिहासिक कथ्य को कल्पना का आधार देकर मानवीय संवेदनाओं, जटील संबंधों को, सच्चे प्रेम और चिंताओं को वास्तविक धरातल से जोड़ देते हैं। इससे उपन्यास में जितनी गहराई, व्यापकता है उतनी ही विश्वसनीयता भी दिखाई देती है।

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महाराज हषर्वर्धन के राज्यकाल में जो विदेशी आक्रमण हुए तथा उनके परिणामस्वरूप जनता को जो असहनीय कष्ट और अमानवीय यातनाएँ भोगनी पड़ी इसका चित्रण योग्य विम्बयोजना के माध्यम से किया गया है। इस भयावह स्थिति से देश को उबारने के लिए ही उपन्यासकार द्विवेदीजी ऐतिहासिक दृष्टि व्यापक, मानवीय धरातल से उठती है, वे ऐतिहासिक बोध की सार्थकता को मानवीय उपयोगिता में मानते हैं।

सामाजिक विकास की प्रक्रिया में इतिहास की वैज्ञानिक दृष्टि को कैसे उपयोग में लाया जा सकता है यह पहली बार ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के द्वारा स्पष्ट हो जाता है। इतिहास के विकास और पतन में जनसाधारण की भूमिका का महत्व जन संघर्ष और विकास की कहानी व्यक्ति के स्थान पर समूह का महत्व और जनसामान्य की सोच का क्या प्रभाव होता यह पहली बार द्विवेदीजी की इतिहास दृष्टि में परिलक्षित हुआ है।

बाणभट्ट की आत्मकथा’ के विजन में केन्द्रीय स्थिति एक ऐसी प्रेम-संवेदना की है जो लोकोत्तर है। उपन्यास का नायक बाणभट्ट निपुणिका और भट्टिनी के प्रेम का आलम्बन है। यह प्रेम अपनी गहनता, तीव्रता, त्याग और संयम में अद्वितीय है। निपुणिका का बाणभट्ट के प्रति प्रेम उद्दाम होते हुए भी आत्मबलिदान में समाप्त होकर उसे उदात्त बना देता है।

भट्टिनी और बाणभट्ट का प्रेम तो और भी उदात्त है। बाणभट्ट भट्टिनी को, जो एक अपृहत राजकुमारी है, हर्षवर्द्धन के एक सामन्त के अन्त:पुर से निकाल कर उसकी रक्षा करता है। इस साहसिक अभियान के पीछे काम की नहीं, बल्कि कर्तव्य की प्रेरणा होता है। आईसिवज से जब भट्टिनी के मन में बाणभट्ट के लिए प्रेम भाव का जन्म होता है तब बाणभट्ट उसे ग्रहण नहीं कर पाता है।

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बाणभट्ट की आत्मकथा’ प्रेम की संवेदना तक सीमित नहीं है। इसके भीतर एक राष्ट्रीय संकट का इतिहास बोध भी सन्निहित है। किसी भी राष्ट्र के इतिहास में राजनीतिक संकट, जिसमें विदेशी शक्तियों का आक्रमण भी शामिल है। जिस समय ‘बाणभटट की आत्मकथा’ लिखी जा रही थी, भारत परतंत्रता और द्वितीय विश्वयुद्ध की विनाशलीला दृश्य को भी उचित रूप से दर्शाया गया है।

द्विवेदी जी के विजन में एक ऐसे विश्व समाज की परिकल्पना है जिसमें युद्ध न हो, विषमता न हो, अत्याचार न हो, अशान्ति न हो और नारी को पूर्ण सम्मान और बराबरी के अधिकार प्राप्त हो। अखंड विश्वशान्ति का सपना तभी साकार हो सकता है जब पर्व और पश्चिम की सभ्यताएं एक दूसरे के श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण कर आपस में मिल जाएँ।

इनके अतिरिक्त उपन्यास में दर्जनों ऐसे पात्र हैं जो अपनी संवेदनशीलता, करुणा, प्रेम, त्याग, बलिदान, कर्मठता, निष्ठा, कर्तव्यपरायणता, देशभक्ति आदि से इस कथा संसार को अद्भुत रमणीयता प्रदान करते हैं। बाणभट्ट की आत्मकथा में इतिहास और कल्पना का यह दुर्लभ संगम मन पर अbbद्भुत प्रभाव छोड़ता है।

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(घ) कुत्ते की पूँछ’ कहानी में अभिव्यक्त मध्यवर्गीय जीवन दृष्टि को रेखांकित कीजिए।

यशपाल मूलतः मध्य वर्ग के लेखक हैं। अपनी कहानियों में वे उस प्रगतिशील परिवर्तन कामी मध्यवर्ग की भूमिका को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं जो सामाजिकराजनीतिक क्रांति का समर्थक और वाहक है। सामाजिक विसंगतियों के उद्घाटन के लिए यशपाल ने व्यंग्य का उपयोग बड़ी खूबी के साथ किया है।

उनकी आरंभिक कहानियों में यह देखा जा सकता है। इसी दौर में लिखित अज्ञेय की भावूक और गद्य गीतनुमा कहानियों से ‘पिंजरे की उड़ान’ की कहानियों की तुलना करके इस अंतर को भली-भांति समझा जा सकता है। प्रेमचंद की कहानियों की अपेक्षा यशपाल की ये आरंभिक कहानियाँ निजी जीवन-प्रसंगों के रचनात्मक उपयोग से अधिक समृद्ध हैं।

लेकिन अपनी इन कहानियों में भी, एक लेखक की हैसियत से यशपाल कहानी और जीवन के पारस्परिक संबंधों को लेकर कहीं भी अस्पष्ट नहीं हैं। वे लिखते हैं, “हमारी कल्पना का आधार जीवन की ठोस वास्तविकताएँ ही होती हैं ” यशपाल की कल्पना अतीत सुख-दुख को अनुभूति के चित्र बनाकर उससे ही संतोष करने को तैयार नहीं है। अपनी कल्पना की प्रकृति की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं, “(वह) आदर्श की ओर संकेत कर समाज के लिए नया नक्शा तैयार करने का यत्न करती है।”

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अपनी कहानियों द्वारा यशपाल एक ओर यदि मध्यवर्ग की रूढियों और परंपरागत संस्कारों पर चोट करते हैं, वहीं वे अवैज्ञानिक निषेधों और वर्जनाओं की भर्त्सना करके स्वस्थ, वैज्ञानिक और सकारात्मक दृष्टिकोण के निर्माण पर बल देते हैं। अकारण भावुकता से बचते हुए, तर्क-सम्मत और यथार्थ दृष्टि अपनाकर ही जीवन सार्थक ढंग से जिया जा सकता है।

इसी आधार पर यशपाल कला की शुद्धता के सिद्धांत की तीखी आलोचना करते हुए उसे जीवन के संदर्भ में ही प्रयोजनीय और सार्थक मानते हैं। यशपाल की कहानियाँ बदलते सामाजिक संदर्भो में बदली हुई नैतिकता की हिमायत करती हैं इसीलिए जब-तब वे अनेक प्रकार के विवादों का केंद्र भी रही हैं। वे इस बात पर जोर देते हैं कि अपने विकास के क्रम में समाज ने अपने को तेजी से बदला है।

इसीलिए प्राचीन और परंपरागत मान्यताओं एवं धारणाओं पर गहराई से पुनर्विचार की आवश्यकता है। इसी स्थिति पर टिप्पणी करते हए वे लिखते हैं, “अनेक पुरानी मान्यताएँ और परंपराएँ आज की परिस्थितियों में बहुत उखड़ी-उखड़ी लगती हैं। इनसे समाज में अव्यवस्था ही उत्पन्न होती दिखाई देती है। समाज का अंग होने के. नाते इन अव्यक्त कारणों को सुलझा सकने में बल्कि ज्यादा संतोष अनुभव होता है।”

यशपाल की इस टिप्पणी के संदर्भ में उनकी कहानियों की भूमिका को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। अपनी पीढ़ी के अनेक किशोरों की तरह उन्होंने भी अपना जीवन आर्यसमाज की छाया में शुरू किया था। तब आर्य समाज की एक क्रांतिकारी भूमिका थी। सरकारी अनुदान और दूसरे प्रलोभनों में फंसकर यशपाल ने गहरी हताशा के साथ उसकी धार को कुंठित होते देखा था।

अपनी इस क्रांतिकारी भूमिका को छोड़कर रूढ़, प्रतिक्रियावादी और निषेधपूर्ण धारणाओं से जीवन को नियंत्रित करने की उसकी लालसा को वे सामाजिक विकास की दृष्टि से घातक मानते थे। ब्रह्मचर्य का आदर्श, बदली हुई स्थितियों में, उन्हें एक बहुत बड़ा ढोंग लगता था। अपनी प्रसिद्ध और विवादास्पद कहानी ‘धर्मरक्षा’ में इसी दृष्टि से वे आर्यसमाज की विचार-दृष्टि पर आक्रमण करते हैं।

दूसरे प्रकार के शोषण के समान वे स्त्री के मौन-शोषण के भी प्रबल विरोधी थे। ‘तुमने क्यों कहा था। मैं सुंदर हूँ!’ में वे स्त्री को कुंठित करने वाली स्थितियों का विस्तारपूर्वक अंकन करते हुए उसके प्रकृत कामावेग का अंकन करते हैं। उनकी अनेक कहानियाँ परिवर्तित सामाजिक संदर्भो में स्त्री-पुरुष संबंधों की संभावनाओं को तलाशती दिखाई देती हैं।

यशपाल की कहानियों में मध्यवर्ग के विभिन्न स्तरों से आए पात्रों की एक भरी पूरी और रंगारंग दुनिया हिलोरे लेती दिखाई देती है। इन कहानियों में पुलिस के अत्याचारों से त्रस्त और आतंकित लोग हैं। रूढ़ियों और अंधविश्वासों में पले-बढे, शहरी सभ्यता के विलास से काफी कुछ अछूते पहाड़ी गाँवों में बसे लोग हैं जो धर्म, मनौती और देवी-देवताओं के नाम पर आज भी शोषण का शिकार हैं।

पहाड़ों पर तफरीह को जाने वाले सुविधाभोगी लोग हैं जो परीक्षा की तैयारी की आड़ में सड़कों . पर सैर करती लड़कियों के नंबर तय करते हैं। पढ़ी-लिखी उपेक्षित महिलाएँ हैं, रूढ़ियों और सामाजिक विसंगतियों की शिकार भी हैं और वेश्याएँ भी।

एक ओर अपनी सफेदपोशी और अभिजात दर्प में बंद लोग हैं, जो इंसान का इंसान की तरह जीना पसंद नहीं करते, और दूसरी ओर शोषित, उपेक्षित, दुखी और सताए हुए लोग हैं जो अपने हक की लड़ाई के लिए अपने को मानसिक रूप से तैयार कर रहे हैं। दूसरों की दया और कैसी भी करुणा के बदले वे आत्मनिर्णय के अपने अधिकार को वरीयता देते दिखाई देते हैं।

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यशपाल की कहानियों के संदर्भ में यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद के बाद कदाचित किसी दूसरे लेखक ने इतनी बड़ी संख्या में न तो अपने आस-पास के विभिन्न वर्गों, श्रेणियों और संस्कारों के पात्रों के एक जीवंत एवं विश्वसनीय संसार की रचना की है और न ही इतने ज्यादा मुस्लिम पात्रों को आधार बनाकर कहानियाँ लिखी हैं जितनी यशपाल ने।

आर्य समाज की निषेधारित जीवन-दृष्टि की तरह ही वे ‘पाप की कीचड़’ में ईसाई समाज की पृष्ठभूमि में भी इस अप्राकृतिक और अवैज्ञानिक सोच की भर्त्सना करते हैं। यशपाल की कुछ महत्वपूर्ण कहानियों के उल्लेख द्वारा मध्यवर्गीय भारतीय समाज के बदलाव में उनकी भूमिका को कदाचित बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।

‘नीरसरसिक’, ‘हृदय’ और ‘भस्मावृत्त चिंगारी’ यशपाल संस्कारगत जड़ता, अतिरिक्त रूप से रोमानी भावुकता के बीच से राह बनाते हुए कला की सामाजिक उपयोगिता पर टिप्पणी करते हैं।

समझने की सोच तो है ही, वे रूढ़ संस्कार भी हैं जो अपनी ही सुंदर पत्नी को इस कारण असुंदर बना देते हैं ताकि वह दूसरों की निगाह से बचाकर रखी जा सके। ‘कुत्ते की पूंछ’ में वर्ग-भेद का दर्प भी है और छोटे समझे जाने वाले लोगों के प्रति घणा भी जो इंसान के इंसान की तरह जी सकने के प्रयत्नों का प्रतिवाद करती है।

‘तर्क का तूफान’, ‘परदा’, ‘गंडेरी’, ‘अस्सी बटा सौ’, ‘या साई सच्चे’ और ‘आदमी कुछ कहानियों में वे इतिहास को वर्ग-संघर्ष की दृष्टि से देखने की कोशिश करते हैं तो कभी वर्गीय रूपांतर के परिणाम स्वरूप साझे स्वार्थों के कारण राजा और पुरोहितवर्ग के जोड़-तोड़ की कोशिशों को उद्घाटित करते हैं।

‘राजा’, ‘दास धर्म’, ‘ज्ञानदान’ और ‘शंबूक’ जैसी कहानियों में भी, पौराणिक पृष्ठभूमि का प्रयोग कर रहे होते हैं – एक वर्ग युक्त और समतावादी समाज की संभावनाओं को तलाशते हुए। ज्ञानदान की भूमिका में यशपाल ने लिखा है कि “कला और साहित्य का उद्देश्य सभी अवस्थाओं में मनुष्य में नैतिकता और कर्तव्य की प्रवृत्तियों की चिनगारियों की फूंक मारकर सुलगाता ही रहता है।

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2 (क) पुरस्कार’ कहानी में राष्ट्रीय भावना ।

पुरस्कार’ कहानी के लेख के पीछे जयशंकर प्रसाद की दृष्टि क्या थी इसे जानना हमारे लिए जरूरी है। स्वाधीनता आंदोलन के काल में देश के इतिहास और संस्कृति के प्रति गौरव और गरिमा की दृष्टि का विकास करना तथा अस्मिता की पहचान कराना जिससे कि स्वाधीनता आंदोलन में जनसामान्य की ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी बढ़ सके।

जयशंकर प्रसाद की सोच के अनुसार स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अपने इस इतिहास का स्मरण कराना निश्चय ही जनता में स्फूर्ति और प्रेरणा का संचार कर सकेगी। इस प्रकार की सोच का जनसामान्य पर कितना प्रभाव हुआ होगा यह निश्चित रूप से कहना मुश्किल है लेकिन पुनरुत्थानवादी दृष्टि के विकास द्वारा देश की स्वतंत्रता के लिए वातावरण निर्मिति का ही प्रयास दृष्टिगत होता है। इसी दृष्टिकोण से प्रसाद ऐतिहासिक पौराणिक कथाओं को उस समय के परिवेश की जरूरत के अनुसार ढालने की कोशिश करते दिखाई देते हैं।

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पुरस्कार’ का मूल्यांकन करते समय यह स्मरण रखना जरूरी है कि ‘राष्ट्र’ की जो … अवधारणा आज है, वह इस कहानी के घटित होने के समय यथावत् नहीं थी। आज एक विशाल भूखंड में रहने वाले एक ही प्रजाति के निवासियों को राष्ट्र माना जाता है। जिनका इतिहास एक होता है और संस्कृति भी बहुत भिन्न नहीं होती। ‘पुरस्कार’ में जो कोशल राष्ट्र है, वह कुछ गाँवों का राज्य भर है, जिसका केन्द्र श्रावस्ती दुर्ग है। कभी कौशल एक बड़ा राज्य रहा होगा, लेकिन कहानी में अरुण जिस कोशल का । अधिपति बनना चाहता है, वह एक छोटा-सा राज्य है। कहानीकार ने इस राष्ट्र का परिचय इस प्रकार दिया है –

श्रावस्ती का दुर्ग, कोशल राष्ट्र का केंद्र, इस रात्रि में अपने विगत वैभव का स्वप्न देख रहा था। भिन्न राजवंशों ने उसके प्रांतों पर अधिकार जमा लिया है। अब वह कई गाँवों का अधि पिति है। फिर भी इसके साथ कोशल के अतीत की स्वर्णगाथाएँ लिपटी हैं।

यहाँ अतीत की चर्चा से संकेत है कि इस राष्ट्र के लोगों का अपना एक गौरवशाली इतिहास है। इसके बावजूद यही लगता है कि ‘पुरस्कार’ कहानी का राष्ट्र या तो एक राज्य का बोधक है या फिर जन्मभूमि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

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(ख) रोज कहानी का उद्देश्य।

इस कहानी का उद्देश्य एक विवाहित युवती के जीवन चित्रण के माध्यम से नारी के सीमित संसार में घुटन और उसकी उदासी का चित्रण है। कहानी का शीर्षक भी मालती की रोज एक ढर्रे पर चलती दिनचर्चा और ऊबी हुई जिन्दगी की ओर संकेत करता है। इस कहानी के शीर्षक से कहानी की मुख्य संवेदना की ओर संकेत के साथ लेखक की सूझबूझ और उसके लेखकीय कौशल का भी पता चलता है।

पूरे दिन काम करना, बच्चे की देखभाल करना और पति का इंतजार करना इतने में ही मानों उसका जीवन सिमट गया है। वातावरण, परिस्थिति और उसके प्रभाव में ढलते हुए एक गृहिणी के चरित्र का मनोवैज्ञानिक उद्घाटन अत्यंत कलात्मक रीति से लेखक यहाँ प्रस्तुत करते हैं। डॉक्टर पति के काम पर चले जाने के बाद का सारा समय मालती को घर में अकेले काटना होता है।

उसका दुर्बल, बीमार और चिड़चिड़ा पुत्र हमेशा सोता रहता है या रोता रहता है। मालती उसकी देखभाल करती हुई सुबह से रात ग्यारह बजे तक घर के कार्यों में अपने को व्यस्त रखती है। उसका जीवन ऊब और उदासी के बीच यंत्रवत चल रहा है। किसी तरह के मनोविनोद, उल्लास उसके जीवन में नहीं रह गए हैं।

जैसे वह अपने जीवन का भार ढोने में ही घुल रही हो। इस प्रकार लेखक मध्यवर्गीय भारतीय समाज में घरेलू स्त्री के जीवन और मनोदशा पर सहानुभूतिपूर्ण मानवीय दृष्टि केन्द्रित करते हैं। कहानी के गर्भ में अनेक सामाजिक प्रश्न विचारोत्तेजक रूप में पैदा होते हैं।

मालती के यान्त्रिक वैवाहिक जीवन के माध्यम से नारी के यन्त्रवत् जीवन और उसके सीमित घरेलू परिवेश में बीतते उबाऊ जीवन का चित्रण ही इस कहानी का उद्देश्य है। यह एक विवाहित नारी के अभावों में घुटते हुए पंगु बने व्यक्तित्व की त्रासदी का चित्रण है।

रोज़ एक ही ढर्रे पर चलती मालती की उबाहट भरी दिनचर्या कहानी के शीर्षक ‘रोज़’ से भी ध्वनित होती है। कहानी के उद्देश्य की ओर इसका शीर्षक भी संकेत करता है। इसलिए इस कहानी का ‘रोज़’ शीर्षक सर्वथा उपयुक्त शीर्षक है।

(ग) ‘पिता’ कहानी में पारिवारिक संबंधों का स्वरूप।

समकालीन कहानी के सुपरिचित कहानीकार ज्ञानरंजन द्वारा रचित पिता कहानी मैं मुख्य रूप से दो पीढ़ियों के बीच हो रहे द्वंद का चित्रण किया गया है। ज्ञानरंजन के रचनाओं में अनुभव की संश्लिष्टता है जो रचना को गहराई देती है।

आज के परिवेश के बीच औसत आदमी की जिंदगी और जीने पैटर्न को जिस तत्परता से उन्होंने व्यक्त किया है, उसके पीछे दृष्टि की गहराई स्पष्ट है। इस कहानी मैं दो पीढ़ियों का अंतर्विरोध स्पष्ट हो जाता है। कहानी मैं एक और पिता है जो की मुख्य रूप से अपने पुराने सलीखों और अपने पुराने तौर तरीके, नीति नियमों के साथ जुड़े रहना चाहते है तभी दूसरी और बच्चें अपने पिता की तरह नहीं है।

वे मॉडर्न जमाने के साथ साथ चलने चाहते है और उनके लिए यही शिकायत है की उनके पिता क्यों नही पुराने आदतों से नए आदतों मैं परिवर्तित हो जाते है।

कहानी में पिता के सुख-सुविधा के लिए किए गए प्रयास बेमानी साबित होते हैं। पिता बेसिन में मुँह-हाथ कभी नहीं धोते न ही ‘बाथरुम’ में खासतौर से उनकी खुशी या सुविध के लिए लगाए गए ‘शावर के नीचे कभी नहाते हैं। नयी चीजों के प्रति कोई उत्साह नहीं देखाते और अपने स्वभाव और आदत के अनुरुप ‘तेल चुपड़े बदन पर बाल्टी-बाल्टी पानी हालते देखे जाते हैं।

पर यहसत्य है की पिता परिस्थितियों लड़ते हैं, लड़ना जानते हैं। वे पुरानी पीढ़ी के प्रतीक हैं। नयी पीढ़ी परिस्थितियों से मुकाबला नहीं कर पाती। वह भागती है, इधस-उधर भटकती है, बेचैन आत्माकी शांति के लिए पर शांति कोई मिठाई तो है नहीं जिसे पैसे देकर खरीदा जा सके। यह अशांत मानस नयी पीढ़ी की प्रमुख विशेषता है।

ज्ञानरंजन संबंधों को निरुपित करने वाले महत्वपूर्ण लेखक हैं तो इससे यह भी समझ लेना चाहिए कि सातवें दशक तक आते-आते हमारे पारिवारिक संबंधों में बहुत बदलाव आ चुका है। यह परिवर्तन संयुक्त परिवार की घुटन, स्त्री-पुरुष संबंधों में तनाव एवं अलगाव, दो पीढ़ियों की टकराहट आदि के रुप में हमारे सामने आया जहाँ तक संयुक्त परिवार का प्रश्न है, अव्वल तो यह कि आज संयुक्त परिवार का अस्तित्व खत्म होने के कगार पर है, जो कुछ परिवार इस तरह के बचे भी हैं वहाँ पर भी पिता-पुत्र, भाई भाई, माँ-बहू के बीच अजीब तनाव की स्थिति है।

‘पिता’ कहानी में संयुक्त परिवार में जिए जा रहे संबंधों को रेखांकित करने का प्रयास दिखाई देता है। यहाँ पिता रुद़ियों से चिपके हैं, रुठी हैं, कंजूस हैं तो भी स्वामिमानी हैं।

परिवार के सुख से सुखी रहने वाले संतोष वृत्ति के धनी पिता । वे कठोर हैं पर निर्दय नहीं, मितव्ययी हैं पर अमानवीय नहीं, अंदर से दयालू हैं। नयी पीढ़ी उनकी अटपटी हरकतों को इसलिए नहीं सहन करती कि पिता वृद्ध हैं, श्रद्धेय हैं, बल्कि वह तो अपने लाभ के लिए उनके असंगत से लगने वाले व्यवहार को सहन करती है। यह स्वार्थ-वृत्ति नयी पीढ़ी को कहीं अधिक कठोर निर्दय, महत्वाकांक्षी बना देती है। जिससे उसकी चेतना सुसंगति को नहीं प्राप्त कर पाती।

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