IGNOU MHD 01 Free Solved Assignment 2023

MHD 01 (आदिकाव्य, भक्तिकाव्य और रीतिकाव्य )

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MHD 01 free solved assignment मैं आप सभी प्रश्नों  का उत्तर पाएंगे, पर आप सभी लोगों को उत्तर की पूरी नकल नही उतरना है, क्यूँ की इससे काफी लोगों के उत्तर एक साथ मिल जाएगी। कृपया उत्तर मैं कुछ अपने निजी शब्दों का प्रयोग करें। अगर किसी प्रश्न का उत्तर Update नही किया गया है, तो कृपया कुछ समय के उपरांत आकर फिर से Check करें। अगर आपको कुछ भी परेशानियों का सामना करना पड रहा है, About Us पेज मैं जाकर हमें  Contact जरूर करें। धन्यवाद 

MHD 01 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

1)(क) ठाकुर ठक भए गेल चोर सरपरि घर सज्जिअ।
दासे गोसाउनि गहिअ धम्म गए धंध निमज्जिअ ।।
खले सज्जन परिभविअ कोइ नहि होइ विचारक।
जाति अजाति विवाह अधम उत्तम कौ पारक ।।

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उत्तर:
संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश मैथिली कवि विद्यापति के द्वारा रचित है। यह पद कीर्तिलता के द्वितीय पल्लव के प्रारंभ से लिया गया है। संधि कवि के रूप मैं परिचित विद्यापति ने प्रस्तुत पद मैं ठाकुर गणेश्वर के निधन के बाद राज्य में हो रहे सामाजिक दशा को वर्णन किया है।

प्रस्तुत काव्याँश में कवि विद्यापति जी ने राजा गणसिंह के देहांत के उपरांत राज्य के हाल को बड़े ही सुन्दर तरीके से चित्रण किया है।क्योंकि कवि उस समय तिरहुत के राजा शिवसिंह और कीर्तिसिंह के दरबारी कवि थे। उनके वर्णन मैं राजा के निधन के उपरांत राज्य में नया और अन्याय को पहचानने वाला कोई भी नही बचे। राजा के होने का भय खत्म हो जाने पर सारे राज्य में अराजकता तथा अधर्म फैल गया। राज्य मैं धर्म खतम खतम सा हो गया और व्यापार डूब गए।

राजा के ना रहने के कारण ठाकुर ठग गए, चोरों से सभी के घरों पर कब्जा कर लिया। नौकरों ने गृह स्वामिनियों के घर हड़प लिए और सभी दुष्टों ने सज्जनों को दबोच लिया। कोई सही गलत का विचार करने वाला नही रहा इसीलिए हर तरफ अराजकता फैल गई, धर्म अधर्म मैं शादियाँ होने लगी, नीच वर्ग के लोग ज्यादा शोषित होने लगे।

वास्तव में कवि विद्यापति के इस प्रसंग का वर्णन यथार्थ है।

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(ख) झूठे तन को क्या गरबावै।
मरै तौ पल भरि रहन न पावै।।
खीर खांड घृत पिंड संवारा, प्राण गए लै बाहरिे जारा।
जिहिं सिरि रचि रचि बांधत पागा, सो सिरु चंचु संवारहिं कागा।
हाड़ जरै जैसे लकड़ी झूरी, केस जरै जैसे त्रिन कै कूरी।
कह कबीर नर अजहुं न जागै, जम का डंड मूंड महिं लागै||

उत्तर:
भक्तिकालीन साहित्य के सर्वश्रेष्ठ संत कवि कबीरदास जी के रचना से लिया गया है। प्रस्तुत किए गए संदर्व काव्यांश में कबीरदास जी ने संसार के नश्वरता तथा आत्मा के सत्यता के बारे में बोहोत ही सुन्दर तरीके से वर्णन किया है। यहां कबीरदास जी ने मानव शरीर को मिथ्या तथा आत्मा को ही एक मात्र सत्य के रूप मैं भी वर्णन किया है।

कबीरदास जी के मुताबिक हमारा शरीर सबसे बड़ा मिथ्या है। जिसके लिए मानव हमेशा गर्व करता रहता है, उस से मानव को जल्द ही विराट हो जाना चाहिए, क्यों की वो जिस शरीर तथा संसार के पीछे भाग रहा है, वो सब मिथ्या है।

वो शरीर तथा संसार हमेशा साथ नही रहता। इसके बजाए उसको आत्मा पर पर गर्व करना चाहिए, क्योंकि आत्मा ही हमेशा साथ रहता है, और आत्मा ही ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक है। कबीरदास जी के अनुसार जिस शरीर को बनाने के लिए अच्छे अच्छे भोजनों का सेवन किया जाता है, पर एक दिन मृत्य के बाद वो सब चुटकी भर समय मैं जल कर राख हो जाता है, अपने ही परिवार के लोग उस शरीर को त्याग देते है।

चाहे अपने शरीर को बाह्य रूप से कितना भी सजा लो अगर कर्म बुरा होगा तो मृत्यु के बाद आपको कोई नही पूछेगा। इस नश्वर संसार से मृत्यु के बाद मानव का शरीर सुखी लकड़ियों के भांति जला दिया जाता है। पर मनुष्य यह बात को ना समझ को हमेशा नश्वर संसार के पीछे भागता रहता है, जब तक यमराज उसको दंड ना दे देते है।

वास्तव में कबीरदास जी के इस काव्यांश के वर्णन मैं मानव समाज को उचित संदेश दिया गया है।

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(ग) ऊधो! जानि परे सयान।
नरियन को जोग लाए, भले जान सुजान।।
निगम तू नहिं पार पायो कहत जासों ज्ञान।
नयन त्रिकृटी जोरि संगम जेहि करत अनुमान।।
पवन धरि रबि-तन निहारत, मनहिं राख्यो मारि।
सूर सो मन हाथ नाहीं गयो संग बिसारि।।

उत्तर :
प्रस्तुत सांदर्व काव्यांश सूरदास रचित भ्रमारगीत से ली गई है। इस काव्यांश में सूरदास ने श्रीकृष्ण के मथुरा जाने के बाद उद्धव के द्वारा गोपियों को दिए गए निर्गुण ब्रह्म के ऊपर सलाह तथा गोपियों को उस पर ब्यंगता पूर्ण उपहास का अतिसुंदर वर्णन किया है।

श्रीकृष्ण जी के मथुरा जाने के बाद उद्धव जब गोपियों को निर्गुण ब्रह्म के बारे में समझाने लगते है, तब गोपियों उस निर्गुण ब्रह्म का आकार पूछते है। वे पूछते है की ये कौन है, किस देश में वास करते है, कैसे दिखते है, हम जिसके प्रेमभक्ति मैं बंधे हुए है, इसने जैसे तो नही लगते है! उद्धव को फटकारते है की अगर इस बात का गलत उत्तर उन्होंने दिया तो उन्हे अपने किए का फल मिलेगा।

गोपियां उन्हे व्यंग रूपी प्रश्न करते है की तुम तो बोहोत चतुर मालूम पड़ते हो, जिस निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान तुम दे रहे हो, उनको तो बेद भी नही जान पाए।

तुम जिस तरह निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त करने का रास्ता हमे बता रहे हो, वो हमसे नही हो सकता, क्यों की हमारा मन तो सदा सर्वदा श्रीकृष्ण के साथ जुड़ा हुआ रहेगा। जिस ब्रह्म को योगी ध्यान लगा कर पाना चाहते है, उनको हमने श्रीकृष्ण के रूप मैं पा लिया है। पर हम यह ध्यान नहीं लगा सकते, क्योंकि हमारा मन पहले से ही श्रीकृष्ण के साथ जा चुका है।

बास्तव में सूरदास द्वारा वर्णित गोपियों की यह प्रसंग यथार्थ है।

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IGNOU MHD 04 Free Solved Assignment 2023

(घ) अधिक बधिक तें सुजान, रीति रावरी है,
कपट-चुगौ दे फिरि निपट करौ बुरी।
गुननि पकरि लै, निरपाँख करि छारि देह,
मरहि न जियै, महा विषम दया-छुरी।
हौं न जानौं, कौन धौं ही यामैं सिद्धि स्वारथ की,
लखी क्यौं परति प्यारे अंतरकथा दुरी।
कैसें आसा-दुम पै बसेरो लहै प्रान – खग,
बनक-निकाई घनआनैंद नई जुरी।।

उत्तर :

प्रस्तुत संदर्व काव्य अंश घननाद द्वारा लिखित काव्य से लिया गया है। इसस पदस मैं घनानन्द ने अपने प्रेमिका सुजान से जो शिकायतें की है तथा अपने बिरह बेदाना का मार्मिक वरन भी किया हैं ।

रीतिकाल का समय सामाजिक परंपराओं से मुक्त नही था पर घननंद उन्न सामाजिक बंधनों को लेशमात्र भी उपेक्षा नही की। उन्होंने एक बेशया से प्रेम किया और समाज का कोई भी मर्यादा को प्रेम के ऊपर आने नही दिया।

पर असफलता के कारण बिरह-बीयथा मैं मौन रहते थे, अकेले ही उसकलों सहते थे। रीतिकाल मैं मुख्य रूप से सं प्रेम का वैनन हुआ है, पर घनानन्द ने अपने प्रेम की उदत्तता और उछट को बताने के लिए अपने प्रेम भाषा तथा बिषय को अपनाया। उनका परेम एकतरफा होने के कारण, पीड़ादायक था। इसस पद मैं अपने प्रिय का तुलना एक बहेलिये से किया गया है जो की कपात करता है, जिसे घननंद बड़े ही बुरी बात मानते है।

उनके वर्णन मैं उन्होंने सारे गुणों को जाल मैं पकड़ कर पंखहीन करदिया। अब दर्द के मारे नया वह जी पाती है और ना ही मर्र पाती है। इतना पीड़ा देकर तुम्हें क्या हासिल हुआ, पता नही मेरते दिल का हाल कब तुम समझ पाओगे। आपने तो पक्षी को निर्मम कर दिया पर वह आपको सामने देख कर रह नही पा रहा है। क्युओन की वह तो ऐसे बैठ नही रह सकते यह सोच कर की उनके प्रियतम उनके लिए आएंगे।

वास्तव मैं घनानन्द की यह बिरह बेदाना का वर्णन मर्मस्पर्शी है।

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IGNOU MHD 03 Free Solved Assignment 2023

2) (क) विद्यापति की भाषा पर प्रकाश डालिए।

उत्तर :

विद्यापति का रचना युग आदिकालीन अवसान के समय का था। इस युग में आदिकालीन साहित्य का पूर्ण अधिकार तो था ही, पर आने वाले नए युग का चिन्ह भी काफी सहजता चिनहट किया जा सकता है, और यह विद्यापति के भाषा से भी साफ देखा जा सकता है। MHD 01 free solved assignment

विद्यापति की भाषा अपभ्ंश से छुटती हुई और आधुनिक आर्यभाषाओं की ओर बढ़ती हुई भाषा है क्योंकी उनकी भाषा जन-भाषा है। अनेकोबार यह दिखाई पड़ता है की संस्कृत, फारसी, प्राकृत आदि स्रोतों से कवि ने शद्द ग्रहण अवश्य किया है, परंतु कवि ने उसे ज्यादा से ज्यादा जन-भाषा मैथिली के नज़दीक ले जाने का प्रयास किया है।

विद्यापति की मातृभाषा और उनके सामाजिक जीवन की तत्कालीन भाषा मैथिली ही थी, तो यही उनकी काव्य भाषा होना थोड़ा लाजमी लगता है। उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण रचना पदाबली मैथिली भाषा मैं ही रचित है। पर जनभाषा को अपने काव्यों में उपयोग के उदाहरण स्वरूप उन्होंने तत्कालीन जनभाषा अबहट्ट में कीर्तिलता तथा कीर्तिपताका का भी रचना किया है, जिससे यह पता लग जाता है की उनकी रचना सिर्फ अपने क्षेत्र तक सीमित नहीं था।

जनभाषा का उपयोग :

अपने काव्यों मैं भाषा प्रयोग के क्षेत्र में तत्कालीन जन भाषा का उपयोग करना विद्यापति को उस युग के रचनाकारों मैनालगा बनाता है। इसका महत्व सबसे ज्यादा बढ़ जाता है, जब खास कर वे खुद संक्रमण काल में रचना कर रहे हो।

जिस काल में अपभ्रंश मैं रचना करने का समय लगभग खतम हो चला था और उसकी जगह मैं आधुनिक आर्य भाषा अपने साहित्यिक उत्पति के साथ आगे आ रहे थे। पर यह सच है की जब कोई भाषा काव्यभाषा का मान्यता प्राप्त कर लेती है तब उसके प्रतिष्ठा सर्वोच्च हो जाता है और उस तक पहुंचना सामान्य जनमानस के लिए थोड़ा कठिन हो जाता है, जिसके चलते नए जनभाषा का आगमन होता है और विद्यापति के रचना काल में कुछ इसी तरह का परिस्थिति उत्पन्न हो चुका था।

जिसके लिए अब्दुर्रहमान के संदेशरासक और विद्यापति के कीर्तिलता प्रमुख उदाहरण जान पड़ते, जिसमे रचनाकारों ने साफ लिखा है बुद्धिमान लोग तो काव्यों को समझ जाते है जो संस्कृत जानते हो, और मूर्ख लोग कुछ भी नही समझ सकते, पर उनके बीच जो लोग जनभाषा मैं रचित काव्यों में रुचि रखते है, उन्हीके लिए यह काव्य रचना की गई है। MHD 01 free solved assignment

विद्यापति के काल में संस्कृत पंडितों का भाषा था और प्राकृत भाषा का मर्म कोई आम जनता समझ नही पारहे थे, जिसके कारण ही विद्यारी जी ने अपने काव्यों के भाषा अवहट्ट और जनभाषा के मिश्रित रूप को ही चयन किया, जिससे पंडितों द्वारा जिस प्राकृत भाषा को उपेक्षा किया जरा था, उस भाषा को जनमानस के समीप लाया जा सके। इस प्रयास मैं विद्यापति के भाषा में ज्यादा बोधगम्यता मिलता है पर अब्दुर्रहमान जी के भाषा में थोड़ा ज्यादा परसर्गों का प्रयोग मिलता है, जिसका उचित उदाहरण संदेश राशक में काफी वार मिलता है। MHD 01 free solved assignment

जहां अब्दुर्रहमान जी का भाषा संदेशरासक में “प्रकृताभास” थी वही विद्यापति का भाषा कीर्तिलता में अवहट्ट और देशी जन भाषा के मिश्रण रूप मैं नजर आता है जो की आधुनिक आर्यभाषा के ज्यादा निकट मालूम पड़ता है। और यह विशेषता कीर्तिपताका मैं भी पाया जाता है। इन काव्यों में पाए वाले अवहट्ट के इस रूप को कुछ इतिहासकारों ने मिथिलापभ्रंश कहा है और इसका आधार विद्यापति द्वारा आभ्रंश भाषा पर मैथिल भाषा का रंग चढ़ाने प्रयास को देख कर ही कहा गया है। MHD 01 free solved assignment

भाषा शैली:

संस्कृत भाषा के सामने अवहट्ट भाषा को ज्यादा बोधगम्य करने के लिए विद्यापति जी ने उसके साथ मैथिली भाषा का स्पर्श कराया जिससे या भाषा जनमानस के ज्यादा करीब आ सके। वे खुद संस्कृत के प्रखर विद्वान होने के कारण उनके काव्यों में संस्कृत शब्दों तथा छंदों का भी प्रयोग देखने को मिलता है और इसके पीछे का कारण अपने काव्यों को उन विद्वानों मैं प्रतिष्ठित करने का उद्द्येश्य ही रहा होगा।

पर यह संस्कृत भाषा पूरी तरह साधारण था जिससे कोई भी व्यक्ति संस्कृत जो समझता है, वह इसको समझ पाएगा। वास्तव में कवि पूर्ण रूप से सामाजिक विकास को दृष्टि में रख कर ही भाषाओं का चयन करते थे और शब्दो के चयन में निशंकोच मानसिकता का प्रयोग करते थे, यह जान पड़ता है। और यह उनको आधुनिक आर्यभषा के साथ भी जोड़ देती है।

वास्तव में विद्यापति के भाषागात शैली उनके तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के तहत यथार्थ प्रतीत होता है।

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(ख) ‘पदमावत्’ में वर्णित लोकतत्चों का मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर:

मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखित ‘ पद्मावत ‘ प्रेमाख्यानक परम्परा का सबसे प्रसिद्ध एवं सबसे महत्वपूर्ण महाकाव्य है इसके अन्तर्गत चित्तौड़ के राजा रतनसेन और सिंघल की राजकुमारी पद्मावती के प्रेम, विवाह और विवाह के बाद के जीवन का वर्णन किया गया है। इस कथा का पूर्वार्द्ध कल्पना प्रधान है जबकि उत्तरार्द्ध में ऐतिहासिकता।

पद्मावत मूल रूप से रोमांचक शैली का कथाकाव्य है, इस काव्य में प्रेम, सौन्दर्य, प्रकृति, दर्शन, अध्यात्म, मौलिकता, रहस्यात्मकता और भारतीय संस्कृति का समग्र रूप देखने को मिलता है। यह वह काव्य है जिसके अन्तर्गत भारतीयता का आदर्श पूरी तरह देखने को मिलता है। पद्मावत के विभिन्न पात्र दार्शनिक तत्वों के प्रतीक हैं। MHD 01 free solved assignment

इस दृष्टि से कुछ इसे रूपक काव्य भी मानते हैं। काव्य तत्व और भाव व्यंजना की दृष्टि से पद्मावत उच्चकोटि का काव्य है। सौन्दर्य वर्णन, प्रेम – वर्णन, संयोग, वियोग वर्णन, वीरता वर्णन, त्याग वर्णन और अनेक प्रकार के वर्णन इस काव्य के अन्तर्गत देखे जा सकते हैं।

भारतीय कथा काव्य की प्रायः सभी रूढ़ियों का वर्णन सफलता पूर्वक इसके अन्तर्गत किया गया है। दोहा, चौपाई में लिखा गया अवधी भाषा से सजा हुआ पद्मावत हिन्दी सूफी काव्य परम्परा का महत्तम ग्रन्थ है । प्रेमाख्यानक सूफी काव्यों का प्रमुख लक्ष्य भारतीय जन – जीवन के चित्र के साथ प्रकारांतर से सूफी मत एवं साधना का प्रचार करना भी था। अपने रचनाओं के माध्यम से वे हिन्दू समाज में अपने सिद्धान्तों और साधना – पद्धतियों पर प्रचार करने में सफल भी हुए। MHD 01 free solved assignment

लोकतत्व से आशय जन साधारण की मान्यताओं से है। यदि किसी देश की संस्कृति का वास्तविक रू्प देखना हो तो वहाँ के लोक जीवन को देख लेना चाहिए क्योंकि लोक जीवन में व्याप्त विभिन्न मान्यताएँ, विभिन्न पर्वो एवं उत्सवों के रीति रिवाज अतीत की किसी गौरवमयी वास्तविकता की ओर संकेत करते हैं।

अहोई अष्ट्मी और करवा चौथ के पर्वों पर स्त्रियों द्वारा विशिष्ट देवियों की आकृतियाँ गृह-भित्ति पर चित्रित करने की प्रथा उत्तरी भारत में सर्वत्र देखने को मिलती है इसका धार्मिक और पौराणिक महत्व चाहे कुछ भी हो, किन्तु ललित कलाओं के प्रति भारतीय अभिरूचि के उत्सुकता का यह स्पष्ट निदर्शन है। लोक जीवन में स्त्रियों द्वारा बनाई गई चित्रकला तथा देवताओं की मूर्तियों से यह विदित होता है कि यथार्थ संस्कृति हमारे ग्रामीण जीवन में ही है। MHD 01 free solved assignment

प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा में लोक कथाओं के माध्यम से ही अलौकिक प्रेम की व्यंजना का विधान किया गया है। प्रेमाख्यानक कवियों ने भारतीय समाज और संस्कृति से सम्बद्ध कथाओं को अपने काव्यों में आधार रूप से प्रयुक्त किया है। जायसी का पद্मावत भी लोक जीवन से सम्बद्ध होकर ही हमारे सामने आया है।

जायरसी ने हिन्दूर जीवन को निकट से जाना, समझा था। यही कारण है कि पद्मावत एक प्रेमाख्यान होते हुए भी सामाजिक और पारिवारिक जीवन के चित्रों से भरा पड़ा है। उसमें त्कालीन समाज में प्रचलित जीवन शैली विभिन्न रीति-रिवाज, परम्पराएँ, लोकाचार, रूढियाँ, व्रत त्यौहार आदि का वर्णन यत्र तत्र देखने को मिलता है। MHD 01 free solved assignment

जायसी ने हिन्द्र समाज में प्रचलित अनेक रीति-रिवाज एवं लोकाचार को भी लोक जीवन से ग्रहण किया है। पद्मावती के जन्म पर नामकरण व षष्ठी देवी पूजन के समय के लोकाचार दर्शनीय है- बसंत पंचमी आते ही पद्मावती सखियों के साथ सजधजकर शिव मण्डप में गौरी व शिव की पूजा करने जाती है।

सखियों ने विविध प्रकार के फल-फूल शिव पार्वती पर चढ़ाने के लिए चुने है। वे सभी खेलती-कूदती हुई शिव मण्डप में पहुँचती है और जब वे वहाँ पहुँचती है तब विविध प्रकार के वाद्य बजते हैं। पद्मावती के विवाह वर्णन के समय तो लोकाचारों एवं रीति रिवाजों की भरमार है। विवाह की तैयारी, निमन्त्रण सम्प्रेषण, सारे राजमहल में आनन्दोत्सव, भूमि पर बिछाई जाने वाली लाल बिछावन, चन्दन के खम्भों की पंक्तियाँ और मणियों के दीपक आदि को प्रज्वलित करना भी वर्णित किया गया है।

बारात के राजमहल के समीप पहुँचते ही सखियों के साथ पद्मावती का भी वर देखने जाना, भाँवर पड़ना, बारातियों का विविध प्रकार के व्यंजनों से स्वागत- सत्कार, कन्या की बिदाई इत्यादि भी पद्मावत में वर्णित हुए है। इन सबके अतिरिक्त हिन्द्र परिवार की संयुक्त परिवार प्रथा पति-पत्नी का अटूट सम्बन्ध, पति की मरणाशंका पर जौहर व्रत आदि का भी वर्णन जायसी ने किया है।

जायसी भारतीय समाज में व्याप्त विविध विचारों से भी भली-भाँति परिरिचित थे। धन का महत्त्त, दान का महत्तव, कर्म फल में विश्वास संसार को मिथ्या मानना, सत्य, प्रेम, दया, करूणा जैसे मानवीय मूल्यों का जीवन में महत्व इत्यादि सब बाते उनके काव्य में सामाजिक लोकाचार के रूप में चित्रित है।

लोक में व्याप्त धार्मिक जीवन से भी जायसी भली- भाँति परिचित थे। हिन्द्रओं के देवी-देवताओं की साज-सज्जा तक का उन्हे ज्ञान था-जायसी ने तत्कालीन समाज में व्याप्त जप, तप, साधना, हठयोग की पद्धति का भी वर्णन किया है। पाँचों कलाओं के साथ-साथ वाणिज्य, गणित, ज्योतिष, रसायन शास्त्र, वनस्पति विज्ञान, जन्तु विज्ञान, आयुर्वेद इत्यादि का भी वर्णन पद्मावती में किया गया है। MHD 01 free solved assignment

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(ग) कबीर के दर्शन संबंधी विचारों का सोदाहरण विवेचन कीजिए।

उत्तर:

संत कवि कबीरदास के भक्तिकालीन साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते है। अपने काव्य रचना के क्षेत्र में उन्होंने ब्रह्म के वर्णन को परम तत्व, जीव, माया, तथा सृष्टि के अनुरूप के रूप मैं किया है पर जब इतिहासकारों ने इन सभी गुणों को एक साथ देखने तथा समझने को प्रयास करते है तो काव्यरचना के हिसाब से वह एक कण के समान प्रतीत हुआ। इसीलिए कबीरदास के लेखन को उनके दार्शनिक प्रतिबिंब से देखना सुसंगत जान नही पड़ता है।

इसके कारण को हम कुछ इस तरह तोड़ कर समझ सकते है। जनश्रुतियों के अनुसार कबीरदास की आयु लगभग 120 साल माना जाता है, जो की कभी संभव और कभी असंभव जान पड़ता है। परागर हम उनके आई को लगभब 80 साल भी मन ले तो अपने प्रारंभिक जीवन से को उन्होंने है तरह के धर्मशास्त्रियों, चिंतकों, भक्तों तथा ज्ञानियों के साथ सत्संग किया था, उन सब से उनका व्यक्तित्व काफी प्रभावित हुआ था, यह तो सच है। पर ये नही की उनका व्यक्तित्व एकदम से बदल गया हो।

हम कह सकते है की उन सब लोगों के प्रभाव से कबीरदास जी के व्यक्तित्व तथा विचारों मैं निरंतर परिछन्नता आया होगा, उनके विचारों मैं निरंतर आत्मशोधन और संशोधन आया होगा, और यह काफी लंबा प्रक्रिया के रूप से हुआ होगा यह माना जाता है।

और यही एक कारण है जिसके लिए उनके प्रारंभिक विचार दृष्टि और अपने जीवन के बाद वाले समय के विचार दृष्टि में काफी अंतर देखा जा सकता है। इसका मूल कारण उनके विचारों का निररंतर रूप से विकास होने को ही माना जा सकता है। कबीरदास अपने रचनाओं के मुख्य प्रसंग कुछ इस प्रकार के है :

निर्गुण ब्रह्म और कबीरदास जी के राम :

कबीर के ब्रह्म और राम दोनो निर्गुण है। उन्होंने दशरथ पुत्र राम को नहीं बल्कि परम सत्यता के अर्थ में राम को ही अपने ईश्वर के अस्तित्व के रूप मैं स्वीकारा है। कबीरदास जी के मुताबिक उनका कोई अस्तित्व नहीं है, वह रूपातीत, गुणातीत है, वह सृष्टि के हर जगह विद्यमान है। और कबीर दास जी के मुताबिक राम की भक्ति करने के लिए सिर्फ प्रेम मार्ग ही यथेष्ठ है। वो सारा संसार को नश्वर और राम को ही एक मात्र सत्य मानते है।

जीव और माया:

कबीरदास जी जीव और ब्रह्म को अलग अस्तित्व को स्वीकार करते थे, और उसका कारण माया को ही मानते थे, जो की इस संसार की ही माया थी जो हर मानव के जीवन में वास करने लगा था। उनके मुताबिक माया की दो शक्तियां है, आवरण और बिक्षेप। आचरण से सत्य को ढंका जा सकता था और बिक्शेप से भ्रांति उत्पन्न किया जा सकता था। कबीर दास परम सत्य और ब्रह्म के प्राप्ति मैं माया को एक बड़ी बाधा के रूप मैं मानते थे। MHD 01 free solved assignment

मोक्ष:

कबीरदास जी इस मायारूपी संसार के मोह नहीं रखते थे, इसीलिए वे मोक्ष मार्ग पर चल पड़े थे। पुराणों के मुताबिक कबीर ने भी मोक्ष को इस संसार रूपी मायाचक्र से उधर और ब्रह्म को प्राप्ति के रूप मैं ही ग्रहण किया। उन्होंने भी मोक्ष को भगत के प्राप्ति के रूप मैं ग्रहण किया। MHD 01 free solved assignment

वास्तव में कबीरदास जी की दार्शनिक देख उस समय के मानव समाज के लिए काफी उच्चकोटी का था।

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2(क) तुलसीदास की सामाजिक चेतना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर:

भक्तिकालीन श्रेष्ठ रामभक्त कवि तुलसीदास जी ने अपने बहुमुखी रचनाओं के साथ हिंदी साहित्य को तो समृद्ध किया है, पर उसके साथसाठ तत्कालीन समाज के समस्याओं को दृष्टि में रख रामकथा के आख्यान से उनको हाल करने का मार्ग भी दिखाया है। MHD 01 free solved assignment

अपने तात्कालीन समाज में तुलसीदास सामंती राजतंत्र को ही श्रेष्ठ मानते थे, क्योंकि उनके मत मैं इसिमैं गरीबों तथा नीच जाती के लोगों को न्याय मिलसक्ता है। इस शाहशान व्यवस्था मैं वे राजा के पद को उदारता, दयावान और सत्यवान आदि गुणों के साथ देखना चाहते थे।

तत्कालीन समाज में जातिप्रथा व्यवस्था का उच्छेद, नीच जातियों के शोषण पे रोक लगाना चाहते थे। वे जातिप्रथा और बर्णाश्रम व्यवस्था के आवाहक नाथों, सिद्धों और जैनों को समझते थे, इसीलिए उनके वानियों को वे बर्जन करने के लिए परामर्श देते थे। उन्होंने रामराज्य रूपी असल राज्य का भी स्वप्न देखा था, जहां पर नारी और पुरुष को एक जैसा सम्मान मिले।

बस्ताब में तुलसीदास जी के विचार तत्कालीन समाज के उन्नति के लिए यथार्थ था।

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(ख) मीरा के काव्य में व्यक्त विद्रोही विचारों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर :

राजस्थानी राठौर वंश की कुलबधु के रूप मैं मीराबाई तत्कालीन समाज के रूढ़िवादी प्रथा के उस हिस्से में थी, जहां स्त्रियों को धूल समान तुल्य माना जाता था। अपने वंश के युद्धपरायणता होने का परिणाम उनके घर की स्त्रियां अपने पराधीनता के साथ देती थी। उनके वंश की स्त्रीयों को अपने पति और पिता दोनो कुल के मर्यादाओं को संभालने का भार समझा जा रहा था। अल्पायु मैं विवाह, विधवा होने के बाद सती हो जाने वाली कुप्रथाओं का शिकार होती थी। स्त्रीयों को अपने खुद के इच्छाओं का अभिव्यक्ति मात्र उस समय अपराध माना जाता था। MHD 01 free solved assignment

मीराबाई इसी अन्याय के विरुद्ध अकेली खड़ी हुई, आया बाद मैं उनको अपने वंश के काफी स्त्रीयों की सहायता भी प्राप्त हुई, पर हर बार उनका दमन उनके अभिभावक राणा बिक्रमाजित कर देते थे। उनको मीराबाई की सत्संग और मर्यादा से बाहर हो कर कार्य करना विष के जैसा चुभता था। पर मीराबाई श्रीकृष्ण के भक्ति में विलीन हो कर सारे मर्यादाओं को पार तथा नाना अत्याचारों का सामना कर सबके लिए एक ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करती है। और यही कारण है की मीराबाई के पदों मैं सबसे ज्यादा राणा के स्त्रीयों के प्रति किया हुआ अत्याचारों का वर्णन पाया जाता है।

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(ग) पद्माकर के काव्यों में व्यक्त लोक जीवन का चित्रण कीजिए।

रीतिकालीन कविताओं मैं लोकजीवन सदा उपेक्षित ही एआहट था, आऊर यह सभी आश्रयदाता कविऑन के रचनाओं मैं साफ दिखाई देता है। पद्माकर भी इन्ही कविऑन के अंतर्गत माने जाते है पर अन्य कविऑन के तुलना मैं उनके काव्यों मैं लोकजीवन का चित्र आपने आप ही थोड़ा स निखार के या जाता हैं, पर इसका अर्थ काफी सीमित रहता हैं। MHD 01 free solved assignment

पद्माकर के प्रशस्ति पूरक काव्यों मैं जहां भक्ति और भक्तिपरक काव्य होते है उनमे भी लोकजीवन का सं,आईक चित्रण देखा जा सकता है। उनकजे प्रसिद्ध काव्य “ हिम्मतबहादुर बिरुद्धावली ” मैं यह साफ नजर आता हैं, जहां पर अर्जुन सिंह और हिम्मतबहादुर के बीच के युद्ध का वर्णन किया गया है, जहां पर भी तत्कालीन समाज की धुंधली सी तसबीर साफ दिख जाती हैं।

उनकर काव्य वर्णन मैं ज्यादातर संसार की जातिलटयोन का ही वर्णन किया गया है, जिसे वजह से यह वर्णन अधिक सजीब जान पड़ता है। इसके अलावा लोक जीवन मैं जिन जिन देवताओं का पूजन किया जाता था, उनका भी बन्दना किया गया है। “गंगालहरी”, “रामरसायन” आदि काव्यों मैं इसका सजीब उदाहरण मिलजाता है।

बास्टव मैं पद्माकर जी के काव्यों मैं लोक जीवन का वर्णन तत्कालीन सम्यक के अनुरूप होते हुए यथार्थ हैं।

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