सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य की सम्पूर्ण जानकारी (Sidhh sahitya, Naath sahitya Aur Jain sahitya Ki Samporn Jaankaari)

सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य की सम्पूर्ण जानकारी (Sidh sahitya, Naath sahitya Aur Jain sahitya Ki Samporn Jaankaari):-

Contents

आदिकालीन साहित्य के प्रमुख रचनाओं मैं सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य का नाम आता है जो की आदिकालीन साहित्य मैं किए गए बिभिन्न प्रकार के रचनाओं का उदाहरण के रूप मैं आगे आते है। यद्यापि इनमे से अनेकों रचनाओं का प्रामाणिकता संदिग्ध है, फिर भी जो भी तथ्य इतिहासकारों को मिलता है, उन्ही तथ्यों से सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का बिस्तार आलोचना इसस पोस्ट मैं किया जा रहा है।

सिद्ध साहित्य (Sidh Sahitya):-

सिद्ध साहित्य का आरंभ तब हुआ था जब वस्तुतः भारतीय समाज में रूढ़िवादी विचार परंपरा के विरुद्ध समय-समय पर व्यापक लोकजीवन विद्रोह कर रहा था और नये विचारों की ओर बढ़ रहा था। एक और जनशक्तियाँ समाज में संगठित होती रही हैं और दूसरी ओर रूढ़िवादी परंपरा के वर्चस्व को चुनौती देती रही हैं। वास्तव में सिद्ध, नाथ और जैनियों का विद्रोह इसी बात को प्रमाणित करता है।

यदि सिद्ध, नाथ और जैन का विद्रोह मात्र धार्मिक होकर रह जाता तब तो साहित्य के इतिहास में उसकी चर्चा की आवश्यकता ही नहीं होती, परंतु इस विद्रोह का प्रसार धीरे धीरे जीवन और समाज के दूसरे क्षेत्रों में भी दिखाई पड़ता है। सिद्ध, नाथ और जैन साधकों द्वारा लड़े गऐ वैचारिक संग्राम से साहित्य भी अछूता नहीं रहा है। क्यों की उनके धर्मो के प्रसार ही साहित्य के माध्यम से हुआ है।

साहित्य में जनभाषा की प्रतिष्ठा के लिए सिद्ध, नाथ और जैन रचनाकारों ने व्यापक संघर्ष किया। नाथ, सिद्ध और जैन साधक घोषित रूप में रचनाकार नहीं थे। कवि कर्म उनका पेशा नहीं था। वे तो बस सामाजिक विषमता के खिलाफ आवाज उठा रहे थे।

इसी प्रक्रिया में वे अपने अनुभव को अभिव्यक्त कर रहे थे। और यही एक कारण है जिसके लिए उनके साहित्य में जीवनगत अनुभवों का सजीव चित्रण होने के साथ-साथ धार्मिक विश्वासों का वर्णन भी मिलता है। इस प्रसंग के सिद्ध साहित्य के संदर्भ में इन महत्वपूर्ण मुद्दों का हम पोस्ट में विश्लेषण करेंगे।

सिद्धों का परिचय (Sidhon Ka Parichay) :-

सिद्ध मुख्यतः बज्रयानी थे जो की बौद्ध धर्म की एक शाखा थी। ईसा की आरंभिक सदी में बौद्धधर्म का विभाजन दो भागों मैं हो गया। जो दो पंथ बाद मैं जा कर हीनयान और महायान के नाम से प्रसिद्ध हुए।

एक और हीनयान ने पारंपरिक रूप में बौद्ध सिद्धांत को अपनाया तो दूसरी और महायान ने उसमें कुछ मौलिक परिवर्तन कर अपने खुद के पंथ का आधार तैयार किया, जिसमें बोधिसत्व के गुर्णों का मानवीकरण हुआ और इसकी परिकल्पना देवता और देवियों के समानांतर मैं की गई।

इस संप्रदाय में जटिल कर्मकांड का विकास हुआ जो, नवीन ऐन्द्रजालिक रहस्यवाद से संबद्ध था, और इसी प्रकार महायान में भी एक नवीन संप्रदाय का उदय हुआ। इस नवीन संप्रदाय ने ऐन्द्रजालिक शक्तियों को प्राप्त करना अपना उद्देश्य बनाया इस शक्ति को वे “बज्र” कहते थे, अतएव बौद्धधर्म के इस नवीन संप्रदाय का नाम वज्रयान पड़ा, जो की आगे चल कर सिद्धों के नाम मैं जाने गए।

इस संप्रदाय का प्रसार देश के पूर्वी भागों में जैसे असम, बिहार, बंगाल और नेपाल आदि मैं बोहोत ज्यादा हुआ, और यही सिद्धों के मुख्य कार्यक्षेत्र के रूप मैं प्रतिष्ठित हुए।

इस संप्रदाय के चौरासी सिद्धों की सूची उपलब्ध है। उसमें आदि सिद्ध सरहपा को स्वीकार किया गया है । यद्यपिविद्वानों में इस पर विवाद है। सिद्दों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा और कुकरीपा का नाम प्रमुख है।

सिद्ध साहित्य क्या है (Sidh Sahitya Kya Hai) :-

सिद्धों ने बौद्ध धर्म के बज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जनभाषा मैं लिखे है वही हिंदी साहित्य के सिद्ध साहित्य के सीमा के अंतर्गत आता है।

जैसा की उपर उल्लेखित कुल चौरासी सिद्धों मैं से आदि सिद्ध के रूप मैं सरहपा को माना जाता है, तथा उनके अलावा सबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा और कुकरीपा आदि के नाम प्रमुख माना जाता है। यहां संक्षेप में उनके व्यक्तित्व तथा उनके कृतियों का वर्णन किया जा रहा है।

सरहपा (Sarhapa) :-

सरहपा के रचना सरहपाद, सरोजवज्र, राहुलभद्र आदि कई नामों से प्रख्यात हैं। जाति से ये ब्राह्मण थे। इनके रचना-काल के विषय में सभी विद्वान एकमत नहीं हैं क्योंकी इनका कोई ठोस प्रामाणिक तत्व नहीं मिलता है।

राहुल संस्कृतायन जी ने इनका समय 761 ई. माना है और इसके सम्मति अधिकांश विद्वान् देते है। इनके द्वारा रचित बत्तीस ग्रंथ बताए जाते हैं, जिनमें से ‘दोहाकोश‘ हिंदी की रचनाओं में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। इन्होंने पाखंड और आडंबर का विरोध किया है तथा मुख्य रूप से गुरु-सेवा को महत्त्व दिया है। ये सहज भोगमार्ग से जीव को महासुख की ओर ले जाते हैं। इनकी भाषा सरल तथा गेय है एवं काव्य में भावों का सहज प्रवाह मिलता है।

शबरपा (Shabrapa):-

इनका जन्म क्षत्रिय कुल में 780 ई. में मानाजाता है। यह भी माना जाता है की इन्होंने सरहपा से ज्ञान प्राप्त किया था। शबरों के जैसाजीवन व्यतीत करने के कारण ये शबरपा कहे जाते थे। “चर्यपद” इनकी प्रसिद्ध पुस्तक है। ये माया मोह का विरोध करके सहज जीवन पर बल देते हैं और उसी को ही महासुख की प्राप्ति का मार्ग बतलाते हैं।

लुइपा (Luipa):-

ये राजा धर्मपाल के शासन काल में कायस्थ परिवार में उत्पन्न हुए थे। शबरपा ने इन्हें अपना शिष्य बनाया था इनकी साधना का प्रभाव देखकर उड़ीसा के तत्कालीन राजा तथा मंत्री इनके शिष्य हो गए थे। चौरासी सिद्धों में इनका सबसे ऊँंचा स्थान माना जाता है। इनकी कविता में रहस्य – भावना की प्रधानता है।

होम्भिपा (Hombhipa) :-

मगध साम्राज्य के क्षत्रिय वंश में 840 ई. के लगभग इनका जन्म माना जाता है। विरूपा से इन्होंने दीक्षा ली थी। इनके द्वारा रचित इक्कीस ग्रंथ बताए जाते हैं, जिनमें “डोम्बि -गीतिका”, “योगचर्या”, “अक्षरद्विकोपोदेश” आदि विशेष प्रसिद्ध हैं।

कण्हपा (Kanhapa):-

इनका जन्म 820 ई. में कर्नाटक के किसी ब्राह्मण परिवार मैं माना जाता है। बिहार के सोमपुरी नामक स्थान पर ये बसबास करते थे। जलनधरपा को इन्होंने अपना गुरु बनाया था। कई सिद्धों ने इनकी शिष्यता स्वीकार की थी। इनके लिखे ग्रंथो की संख्या चौहत्तर बताए जाते हैं, जिनमें अधिकांश दार्शनिक विषयों पर हैं।

रहस्यात्मक भावनाओं से परिपूर्ण गीतों की रचना करके ये हिंदी के कवियों में प्रसिद्ध हुए। इन्होंने शास्त्रीय रूढ़ियों का भी खंडन किया है।

कुकरीपा (Kukripa) :-

इनका जन्म कपिलवस्तु के एक ब्राह्मण कूल में माना जाता है। इनके जन्म काल का प्रामाणिकता का पता नहीं चल सका है। चर्पटीया इनके गुरु थे। इनके द्वारा रचित सोलह-ग्रंथ माने जाते हैं। ये भी सहज जीवन के ही समर्थक थे।

साहित्य साधना प्रसंग (Sahitya Sadhana):-

सिद्धों ने बौद्ध परंपरा में चली आती हुई निर्वाण भावना का तिरस्कार कर जीवन में महासुख की अनुभूति को ही प्रमुखता प्रदान की है।बौद्ध धर्म में निर्वाण के तीन मुख्य अवयव ठहराए गए हैं – शून्य, विज्ञान और महासुख। बज्रयान में सिर्फ महासुख का प्रवर्तन हुआ।

वज्धयान में निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवास सुख के समान बताया गया है, इसलिए सिद्धों के साहित्य में प्रणय के प्रसंग अधिक हैं। हाँ, यह भी हो सकता है की सिद्धों के इस प्रणय का गहन आध्यात्मिक अर्थ हो, लेकिन उन्होंने जिस लौकिक शब्दावली में व्यक्त किया है, वह भी साहित्य के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है।

कण्हपा के डोम्बी गीत में डोम्बी के प्रति कपाली का प्रेम निवेदन अत्यंत ही संवेदनशील प्रतीत होता है। कण्हपा जब डोम्बी नारी का चित्रण करते हैं तो उसमें लोकजीवन की डोम्बी नारी का यथार्थ चित्र उपस्थित हो जाता है।

सिद्ध साहित्य के प्रणय प्रसंगों में लोकजीवन के चित्र जो आए वे बड़े ही मौलिक हैं। उनमें जिस बिंब का प्रयोग हुआ है, वे भी पूरी तरह से नए हैं। उदाहरण स्वरूप शबरपा एक शबरी बालिका वर्णन करते हैं, जिसमें शबरी बालिका का भोला-भाला चित्र है। इस अबोध बालिका वर्णन जिस प्रकार मैं है वह शास्त्रीय शब्दावली में मुग्धा नायिका है।

इस प्रकृति तथा नायिका के वर्णन में एक मासूमियत है। यह मासूमियत शास्त्रीय साहित्य की नायिका के रूप वर्णन से अलग है। उसमें सामंती साहित्य के नायक और नायिका की तरह उपभोग का वर्णन नहीं है, नायिका को मात्र विलास की वस्तु नहीं समझा गया है।

इस वर्णन को पढ़कर ऐसा अनुभव होता है कि सिद्ध रचनाकारों ने उस दलित और पीड़ित वर्ग को अपने साहित्य में स्थान दिया जो समाज में निचले स्थान पर थे। जिनका वर्णन तत्कालीन आधुनिक साहित्य में आवश्यक नहीं समझा जाता था।

डोम्बी और शबरी का वर्णन कुछ उसी प्रकार का है। समाज के निम्न स्तर पर जी रहे लोगों को सिद्धों ने अपना काव्य नायक बनाया, जो की साहित्य के इतिहास में सिद्धों का क्रांतिकारी योगदान है।

सिद्ध साहित्य का भाषा (Sidh Sahitya Ka Bhasha):-

सिद्ध साहित्य की काब्यानुभूति को समझने के बाद उनकी भाषा को भी समझना उतना ही आवश्यक है। सिद्धों ने अपनी दार्शनिक अनुभूति को लोकनमुखित करने के लिए प्रतीक भाषा का प्रयोग किया है। उस प्रतीक विशेष को समझे बिना हम उनकी दार्शनिक अनुभूति को कभी समझ ही नहीं सकते और इसी भाषा को पंडित महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने संधा भाषा कहा है।

इस भाषा की शैली धूप-छांव की शैली के रूप मैं वर्णन किया गया है। इस भाषा में शब्द के बाहरी और आंतरिक अर्थ हमेशा अलग होते हैं। शब्दों की इसी द्वयार्थक प्रकृति का परिचय संधा भाषा में मिलता है। वस्तुतः संधा भाषा संश्लिष्ट अनुभूति की भाषा थी। जिसमें शब्दों का एक अर्थ लोकानुभव से संबद्ध है तो दूसरा अर्थ दार्शनिक अनुभूतियों की व्यंजना करता है।

इस भाषा के लौकिक अर्थ कभी- कभी लोकविरुद्ध भी होते थे, जिसे सामान्यतः उलटबाँसी के रूप में समझा जाता है। यह सत्य है कि सिद्धों के साहित्य में दार्शनिक अनुभूति और साधनापरक रहस्यवाद की उक्तियाँ भरी पड़ी हैं पर यहाँ योग क्रिया के जटिल विधान का कर्मकांड भी प्रचार परिमाण में मिलता है, और  उसमें मानवीय अनुभूतियों की स्वाभाविक दशाओं का वर्णन भी मिलता है।

क्यूंकि सिद्ध साहित्य के बिंब मुख्य रूप से निम्न और दलित जातियों के जीवन व्यापार से जुड़े हुए हैं,इसीलिए उन्होंने प्रबंध काव्य और खंडकाव्य के स्थान पर गीति और मुक्तक काव्य में रचना की है। सिद्धों ने भाषा में अपभ्रंश के साहित्यिक बर्चस्व के  जगह देशभाषा को अपने रचनाओं का आधार बनाया, जो उनके साहित्यिक अवदान को मौलिक बनाता है।

सिद्ध साहित्य और हिंदी भाषा का विकास (Sidh Sahitya Aur Hindi Bhasha Ka Bikas) :-

क्यों की सिद्धों की कब्यारचन का मूल तत्कालीन शासन तथा जीवन व्यवस्था पर प्रहार करना तथा उसको एक नई दिशा देना ही था, तो यह जायस है की उनकी भाषा मूल रूप से विद्रोही ही रही थी। पर आचार्य शुक्ल के मुताबिक इन भाषाओं (अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी) में रचना होने का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी में ही मिल जाता है।

आचार्य शुक्ल बौद्धों, सिद्धों की रचनाओं से हिंदी भाषा का प्रारंभ मानते हैं परंतु वे इनकी रचनाओं को स्वाभाविक साहित्य में स्थान देने के पक्षधर नहीं हैं। उन्होंने साहित्य के इतिहास में दूसरी जगह यह भी लिखा है कि उनकी रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक प्रथाओं, अनुभूतियों और दशाओं से कोई संबंध नहीं। वे सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, अतः वे शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं।

उन रचनाओं की परंपरा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते। आचार्य शुक्ल के इन दोनों वक्तव्यों के आपस में ही अंतर्विरोध है। वे साहित्य को भाषा और अनुभूति की दो अलग-अलग श्रेणियों में बाँटकर देखना चाहते हैं जो की कभी ठीक लगता है और कभी ठीक नही लगता।

उन्हें हिंदी भाषा का विकास तो सिद्धों की रचनाओं से मिलता दिखाई देता है, लेकिन अनुभूति के धरातल पर सिद्धों से उनका विरोध हो जाता है।

सिद्धों की विद्रोही अनुभूति को अपभ्रंश की रूढ़ होती हुई भाषा में नहीं रचा जा सकता था, इसीलिए सिद्धों के लिए एक नई भाषा की तलाश अनिवार्य हो गई थी, जिसके लिए उनकोने तत्कालीन जनभाषा को अपने साहित्य मैं शामिल किया और उससे विचारों का बिस्तर भी आसान हो गया।

तत्कालीन भाषा का प्रचलन समूर्ण हिंदी या फिर अभी प्रचलित हिंदी भाषा नही थी, और संस्कृत भाषा से हिंदी भाषा की प्रक्रिया लभग आरंभ हो चुकी थी। और कहीं न कहीं सिद्ध संप्रदाय की विद्रोह मनोभाव तथा उनके जनभाषा रूपी साहित्य प्रसार हिंदी भाषा के विकास में मूल स्तंभ के रूप सहायक हुई थी।

नाथ साहित्य (Naath Sahitya) :-

नाथों के समय सिद्धों के बाद के बता या जाता है। नाथ पंथ के साधकों ने अपने आपको योगी कहकर संबोधित किया। नाथ पंथ के साहित्य के संबंध में इसी उक्ति को प्रस्तावित किया जा सकता है। सिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपथियों की हठयोग-साधना आरंभ हुई।

नाथ पंथी साहित्य प्रामाणिकता की दृष्टि से संदिश्थ है। नाथ पंथ का उद्भव किस प्रकार से हुआ इस पर विद्वानों में मतभेद है। सिद्धों की जो सूची मिलती है उसमें से कई का सबंध नाथ परंपरा से भी था। राहुल सांकृत्यायन जी ने नाथ-पंथ को सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप माना है। नाथ परंपरा में मत्येंद्र नाथ के गुरु जलंधर नाथ माने जाते हैं।

तिब्बत के ग्रंथों में भी सिद्ध जलंधर आदि नाथ कहे गए हैं। चौरासी सिद्धों की तरह नाथों की भी संख्या नौ बताई जाती है। इनमे नागार्जुन, जदभरत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरखनाथ, चर्पट, जालंधर, मलयार्जुन के नाम शुमार है।

नाथ साहित्य क्या है (Naath Sahitya Kya Hai):-

नाथपंथ के योगियों द्वारा रचे गए रचनाओं को ही नाथ साहित्य के रूप मैं बिबेचित किया जाता है। नाथसाहित्य मैं नाथ पंथ के मुख्य रचनाकारों में गोरखनाथ, चौरंगीनाथ, गोपीचंद, चुणकरनाथ, भरथरी आदि का ही नाम प्रसिद्ध है। उनमें से लगभग सभी के साहित्य के प्रामाणिकता मैं संदिग्धता है ।

गोरखनाथ की तत्कालीन देशभाषा में लिखी हुई रचनाओं में “गोरख बोध”, “गोरखनाथ की सत्रह कला”, “दत्त गोरख संवाद”, “योगेश्वरी साखी”, “नरवइ बोध”, “विराट पुराण”, “गोरख सार” तथा “गोरखनाथ बानी” ही उपलब्ध हैं। इसके अलावा गोरखनाथ जी के कुछ पुस्तकें संस्कृत भाषा में भी मिलती हैं ।

अन्य नाथ कवियों की छोटे मोटे रचनाएँ मौखिक रूप में उपलब्ध होती हैं जैसा कि कहा जा चुका है, नाथ साहित्य की प्रामाणिकता संदिग्ध है। उसकी प्रामाणिकता के संदेह का आधार मुख्यतः उन रचनाओं की भाषा है।

जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग गोरखनाथ के साहित्य में मिलता है, उससे अनुमान लगाया जाता है कि उस भाषा का प्रचलन गोरखनाथ के काल में नहीं था।

गोरखनाथ जी के समय में जो भाषा लिखने-पढ़ने के लिए प्रयुक्त होती थी, उस भाषा में प्राकृत या अपभ्रंश का थोड़ा बहुत मेल तो रहता था। पर गोरखनाथ की रचनाओं की भाषा में उस प्रवृत्ति की सूचना कहीं नहीं मिलती। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि गोरखनाथ के नाम पर अब तक जो रचनाएँ मिलती हैं इन रचनाओं को नाथ पंथ के अनुगामियों ने ही एकत्रित किया होगा।

नाथ साहित्य की अप्रामाणिकता का अन्य एक कारण यह भी है कि नाथपंथी, साहित्य रचने के उद्देश्य से ही कभी लेखन नहीं कर रहे थे। वे बस अपनी संवेदना तथा अनुभव को लोगों से साझा करना चाहते थे।

उसके लिए उन्होंने पुस्तक लिखने की कभी आवश्यकता को ही महसूस नहीं किया और उसका परिणाम यह हुआ कि उनकी वाणी साहित्य बनकर लोगों के मुख के माध्यम से जनभाषा के रूप मैं ही बहुत दिनों तक जीती रही।

और इस प्रक्रिया के में नाथों की वाणी की भाषा बदल गई और भाव भी परिवर्तित हो गए नाथ साहित्य का लोक -साहित्य में रूपांतरण हो गया और लोक-साहित्य हमेशा लोगों की स्मृति में ही सुरक्षित रहता है।

लोक साहित्य को किसी पुस्तक में बाँधने की आवश्यकता नहीं होती, इसका उदाहरण स्वरूप नाथों का जोगीड़ा आज भी पूर्वी भारत में प्रचलित है।

      नाथ साहित्य यायावरों द्वारा रचा गया था और यही यायावरी प्रवृत्ति नाथ कवियों की अदभुत विशिष्टता है। नाथों ने देश के विविध भागों की यात्रा की थी और उस प्रदेश का अनुभव प्राप्त किया था।

नाथ साहित्य में सैलानी का अनुभव नहीं है अपितु उसमें एक सांस्कृतिक यात्री का अनुभव है, जो प्रदेश की भाषा, संस्कृति, रीति -रिवाज, वेशभूषा आदि का निरीक्षण करता है।

नाथों ने जिस प्रदेश की यात्रा की वहाँ की संस्कृति की विशिष्टता और भाषा की विशिष्टता को आत्मीयता से स्वीकार किया, और अपने सभी अनुभूतियों को मिलाकर एक मिश्र प्रवृत्ति का आरंभ किया।

नाथ साहित्य में उत्तर भारत की सांस्कृतिक विविधता के अनेकों चित्र मिलते है। उत्तर भारत के विविध प्रदेशों की यात्रा के क्रम में नाथों ने एक संपर्क भाषा को विकसित किया, जिसमें पूर्वी प्रदेश की भाषा, ब्रजभाषा, खड़ी बोली, राजस्थानी और पंजाबी के शब्द हैं।

आचार्य शुक्ल ने इस भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा है, जो वस्तुतः नाथों के लिए एक संपर्क भाषा थी। व्यापक जनसंपर्क के कारण नाथ इस भाषा को निर्मित कर पाए। इसी प्रकार से नाथ पंथ के उन जोगियों ने परंपरागत साहित्य की भाषा या काव्य-भाषा से, जिसका ढाँचा नागर अपभ्रंश या ब्रज का था, अलग एक सधुक्कड़ी भाषा का सहारा लिया जिसका ढाँचा कुछ खड़ी बोली के साथ साथ राजस्थानी भी था।

नाथों के सांस्कृतिक विश्लेषण (Sanskrutik Bishleshan):-

सिद्धों का प्रभाव क्षेत्र उत्तरपूर्वी था। नाथों का प्रभाव समस्त देश में व्याप्त था। पश्चिमी भारत के क्षेत्र से नाथों का विशेष संबंध था। नाथ पंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि, उसका हमेशा स्थानीय संस्कृति के साथ ही संवाद होता था। नाथपंथ ने मिश्र हो रही सांस्कृतिक प्रक्रिया को और भी अधिक तीव्रता प्रदान की। उनके दृष्टिकोण में नाथपंथ सेक्युलर था।

इस पंथ की और मुसलमानों का भी आकर्षण काफी राहा था। और इसके बाद ईश्वर से मिलाने वाला योग हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य साधना के रूप में प्रचलित होने लगा।

नाथपंथ ने हर धर्म और हर संस्कृति से संवाद बहन करके उनको एकत्रित स्थापित किया और यही एक कारण था कि धार्मिक सहिष्णुता का विकास नाथों के साहित्य में अधिक ही देखने को मिलता है।

नाथों में बौद्धधर्म के प्रति आत्मीयता है और वह जैनधर्म से भी प्रभावित है तथा उनमें सनातन धर्म के प्रति भी आस्था है और उसमें मुस्लिम धर्म के प्रति भी विश्वास है। नाथपंथ खुले मन से वैचारिक बहस के लिए आमंत्रित करता है, लेकिन उसमें विवाद नहीं, संवाद है। और यही शायद एक वजह है जिससे नाथों के संस्कृति मिश्र रूप से दिखाई देता है।

गोरखनाथ (Gorakhnath) :-

गोरखनाथ नाथ-साहित्य के आरंभकर्ता माने जाते हैं। वे सिद्धर मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। किन्तु उन्होंने सिद्धों के मार्ग का विरोध किया था। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं शिव थे।

उनके पश्चात् मत्स्येंद्रनाथ उनके शिष्य हुए, जिनके आचरण का विरोध उनके शिष्य गोरखनाथ ने किया। आचार्य शुक्ल का विचार है कि जलंधर ने ही सिद्धों से अपनी परंपरा अलग की और पंजाब की ओर चले गए ।

जलंधर के शिष्य मछंदर या मत्स्येन्द्रनाथ थे और मछंदर के शिष्य गोरखनाथ या गोरक्षनाथ थे। गोरखनाथ संप्रदाय के विशेष प्रवर्तक थे। गोरखनाथ अपने युग के महान धर्मनेता थे। इनकी संगठन की शक्ति अपूर्व थी। गोरखनाथ के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। राहुल सांकृत्यायन इनका समय दसवीं शताब्दी बताते हैं।

आचार्य शुक्ल इन्हें 12वीं शताब्दी का मानते हैं और आचार्य हजारी इन्हे दसवीं शताब्दी के मानने के पक्षधर में है। गोरखनाथ ने हठयोग का उपदेश दिया था। हठयोगियों के ‘सिद्धर-सिद्धांत-पद्धति’ ग्रंथ के अनुसार ‘ह’ का अर्थ सुर्य तथा ‘ठ’ का अर्थ है चंद्र। इन दोनों के योग को ही ‘हठयोग’ कहते हैं।

सिद्धों और नाथों मैं अंतर (Sidhon Aur Naathon Main Antar) :-

सिद्ध और नाथ के बीच कई तात्विक समता और विषमता देखने को मिलती है। तांत्रिक साधना की व्यापक स्वीकृति नाथों के साहित्य में भी प्राप्त होती है, परंतु नाथों ने साधना में योग क्रिया को ही अपना आधार बनाया। नाथों का सिद्धों से विरोध वाममार्गी साधना को लेकर ही हुआ था।

नाथपंथ की दारशनिकता सैद्धान्तिक रूप से शैवमत के अन्तर्गत है और व्यावहारिकता की दष्टि से हठयोग से संबंध रखती है। वाममार्गी साधना में लोकाचार से अलग हटकर सिद्धों ने मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन को साधना में प्रमुखता दी। सिद्धों की साधना के ये अनिवार्य अंग थे।

नाथों ने लोक जीवन में सुचिंतन, अहिंसा और आचरण की पवित्रता जैसे श्रष्ठ मानवीय मनोभाव को प्रधानता देना अपने पंथ का लक्ष्य रखा।

इसके साथ-साथ नाथ पंथ ने शैवदर्शन और पतंजलि के हठयोग को मिलाकर आपने पंथ का वैचारिक आधार तैयार किया। सिद्धों के समान नाथ पंथ ने भी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना, नाद बिंदु की साधना, षटचक्र शून्य भेदन, शून्यचक्र में कुंडलिनी का प्रवेश आदि अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों को योग के लिए आवश्यक माना।

नाथपंथ में शून्यवाद के महत्व को भी प्रतिपादित किया गया है जो संभवतः उन्होंने वज्रयान से ग्रहण किया था। सामाजिक विषमता, उदाहरण के लिए जातिप्रथा, छुआछूत, धार्मिक मतभेद, मूर्तिपूजा आदि बाहयाचारों का विरोध नाथों ने भी किया था। कुछ सामाजिक मर्यादा के मुद्दों को छोड़कर सिद्दों से नाथों की व्यापक सहमति थी।

जैन मार्ग और जैन मत (Jain Marg Aur Jain Mat): –

जैन साधुओं ने अपने मत का प्रचार भारत के पश्चिमी क्षेत्र में हिंदी-कविता के माध्यम से किया था, जिस प्रकार हिंदी के पूर्वी क्षेत्र में सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान मत का प्रचार हिंदी-कविता के माध्यम से किया। जैन कवियों की रचनाएँ आचार, रास, फाग, चरित आदि विभिन्न शैलियों में मिलती हैं।

आचार-शैली के जैन-काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता को प्रधानता दी गई है। जैन साधुओं के रचनाओं को जैन साहित्य के रूप मैं माना जाता है। भगवान महावीर का जैन धर्म प्रचार तथा जैन साहित्य मैं प्रमुख स्थान माना जाता है।

नाथ पंथ के तरह महावीर जैन ने भी अपने धर्म का प्रचार लोकभाषा मैं ही किया। पहले जैन धर्म का प्रचार उत्तरी भारत में अधिकांशतः हुआ और बाद में गुजरात में इस धर्म की प्रधानता आठवीं सदी से लेकर तेरहवीं सदी तक रहा।

भगवान महावीर का जैनधर्म हिन्दू के सदाचारों के अधिक समीप है। जैन धर्म का ईश्वर के सृष्टि के नियमों के मुताबिक नहीं है। वह हर्ष तथा आनन्द का स्रोत है। इस धर्म की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इसमें ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह का विशेष महत्त्व है ।

प्रारम्भिक जैन साहित्य में दोहा-चौपाई पद्धति पर क्यूचरित-काव्य या आख्यानक काव्य का निर्माण हुआ। यही परम्परा आगे चलकर सूफी कवियों द्वारा ग्रहण कर ली गई। इन प्रारंभिक रचनाओं के आधार पर ही पुरानी हिंदी का जन्म और पीछे खींच ले जाया जाता है। जैन आचार्यों ने प्राकृत भाषा के अतिरिक्त अपभ्रंश में प्रचुर रचनाएँ लिखीं।

जैन साहित्य (Jain Sahitya) :-

जैन साहित्य की अधिकांश रचनाएँ अपभ्रंश भाषा में ही लिखी गई हैं, लेकिन वह हिंदी साहित्य से अलग नहीं हैं। जैन अपभ्रंश भाषी साहित्य का व्यापक प्रभाव परवर्ती हिंदी साहित्य में देखने को मिलता है। जैन साहित्य के महत्व की दूसरी बात उसकी प्रामाणिकता को लेकर भी है।

बैसे भी आदिकाल में जितने भी प्रकार के साहित्य मिलते हैं उनमें लगभग सभी प्रकार के साहित्य की प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है, और जैन साहित्य भी इसका अपवाद है। फरक बस इतना है की, जैन साहित्य का परिरक्षण धर्म संप्रदाय के आश्रय में हुआ था, इसलिए उस साहित्य का लिखित रूप अभी तक अपरिवर्तित रूप में जैन मठों और पुस्तकालयों में सुरक्षित रहा।

जैन साहित्य में आदिकाल की भाषा और सामाजिक गति का महत्वपूर्ण तथ्य छिपा हुआ है, इसलिए जैन साहित्य का अध्ययन अनिवार्य है। उसे मात्र धार्मिक साहित्य कहकर हिंदी साहित्य से खारिज नहीं किया जा सकता।

वास्तव धर्म किसी साहित्य को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता। यदि ऐसा संभव होता तो भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग नहीं कहा जाता। क्यूंकि मिथक में मानवीय अनुभूति का संश्लिष्ट रूप छिपा होता है। हर युग के संदर्भ में मिथक के अर्थ बदलते हैं।

जैन साहित्य में भी कुछ मिथकों का प्रयोग मिलता है। साहित्य में मिथक का प्रयोग कोई नई बात नहीं है। संस्कृत साहित्य में भी मिथक का प्रचुर प्रयोग मिलता है। साहित्य के संदर्म में यह देखना होता है कि उन धार्मिक रचनाओं में मानवीय अनुभूति को विस्तार मिला है या नहीं।

रचना की सृजनात्मक अनुभूति में मानवीयता है या नहीं। वस्तुतः धार्मिकता साहित्यिक संवेदना का अवरोधक नहीं है| धर्म का उपयोग यदि संकीर्ण दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हो रहा है तो वह साहित्य निः संदेह साहित्य नही है।

जैन साहित्य के प्रकारभेद (Jain Sahitya Ke Prakarbhed) :-

जिस प्रकार बौद्ध धर्म ने देश के पूरबी क्षेत्र में अपने मत को स्थापित करने के लिए जनभाषा को आधार बनाया उसी प्रकार जैन साधुओं ने भी देश के पश्चिम क्षेत्र में अपने मत को स्थापित करने के लिए जनभाषा को ही अपनाया।

और यह जनभाषा अपभ्रेश भाषा थी। जैन साधुओं ने इसी अपश्रंश भाषा में मुख्यतः अपना साहित्य रचा। जैन साहित्य में प्रमुख तीन प्रकार की रचनाएँ मिलती हैं।

प्रथम प्रकार की रचनाएँ, जिन्हें पौराणिक काव्य कह सकते हैं, इस प्रकार के रचनाकारों में स्वयंभू, पुष्दंत आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं। द्वितीय प्रकार की रचनाओं में, मुक्तक रचनाओं को रखा जा सकता है तथा तृतीय प्रकार की रचनाओं में, हेमचन्द्र और मेरुतुंग की रचनाओं को लिया जा सकता है।

चरित काव्य (Charit Kabya):-

पौराणिक विषयों को लेकर जैन कवियों ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में विपुल साहित्य की रचना की। इस साहित्य में जीवन के मर्म के साथ उपदेश और धर्म का अदभुत तथा बिपुल संयोग देखने को मिलता है। जैन अपभ्रंश काव्य की समस्त प्रबंधात्मक कृतियों पद्यबद्ध हैं, जिसके चरित नायक या तो पौराणिक हैं।

मध्यकाल में धर्म प्रसार के लिए ब्राह्मणों और जैनों द्वारा प्राण साहित्य की रचना हुई थी और इसकी सबसे बड़ी खामी यह थी कि उसमें भानवीय दशाओं का स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता है।

काव्य में जीवन की मार्मिक अनुभूतियों और दशाओं का वर्णन भी कई स्थल पर होता है, परंतु काव्य में काव्यत्व दर्शनिक उद्देश्य के साधन रूप में ही प्रस्तुत होता है।

इस प्रक्रिया में काव्य की आंतरिक प्रभाव गायब हो जाती है, उसके स्थान पर दार्शनिक मतवाद का आग्रह प्रबल हो जाता है। इस प्रकार के आग्रह के बावजूद कुछ पौराणिक काव्यों को श्रेष्ठ साहित्यिक रचना स्वीकार कर सकते हैं।

स्वयंभू और पुष्पदंत पौराणिक काव्य के विशिष्ट कवि हैं। इसी काव्यों के संदर्भ में स्वयंभू रचित “पउमचरित” को उच्चकोटि का दर्जा दिया जाता है। इस काव्य के 83 संधियों को स्वयंभू ने लिखा था और बाद में और बाकी 7 संधियां उनके पुत्र त्रिभुवन के द्वारा सम्पूर्ण हुआ। अन्य जैन काव्यों की तरह इस काव्यों में भी ब्राह्मण मत का आलोचना हुआ है, पर यह ब्राह्मण मत किसी धार्मिक मत का आग्रह न हो कर सामाजिक आग्रह का मत मालूम पड़ता है।

इस संदर्भ मैं दूसरा काव्य पुष्पदंत द्वारा रचित “महापुराण” ग्रंथ को भी प्रमुख माना जाता है। इस ग्रंथ का संबंध प्राचीन काल के महत्ती कथा से है। इस ग्रंथ में जैन धर्म के 63 महापुरुषों का वर्णन है। इस ग्रंथ की महानता इसके धार्मिक होने से नहीं बल्कि इसके मानवीय जीवन के अभिब्यंजना होने से है।

इसके अलावा पुष्पदंत के “नागकुमार चरित” भी इसी रचनाओं की कोटि में रखा जा सकता है। जैन काव्य में कहीं-कहीं धर्म ने लौकिक अनुभूति को आच्छादित कर लिया है, जिससे लौकिक अनुभूति और धार्मिक अनुभूति के बीच द्वंद्वात्मक भाव पैदा हो गया है।

विचारधारा की प्रबलता के कारण अंत में मोक्ष, वैराग्य आदि का पक्ष रखा गया है, परंतु इससे जीवन की जटिलता से पैदा होने वाली कठिनाइयों से कवि ने कभी मुँह नहीं मोड़ा है। कवि धनपाल की कृति “भविसयत्त कहा” जैन चरित काव्य की एक महत्वपूर्ण रचना है। इस काव्य में लौकिक अनुभूति और धार्मिक अनुभूति के बीच तीब्र द्वंद्ध देखने को मिलता है।

मुक्तक काव्य (Muktak Kabya) :-

जैन साहित्य में चरित काव्य के अतिरिक्त मुक्तक काव्य की रचनाएँ भी हुई हैं। मुक्तक साहित्य में प्रधान रूप से दो प्रकार की भावधारा मिलती है। प्रथम प्रकार की वे रचनाएँ हैं, जो साधकों को लक्ष्य में रखकर लिखी गई हैं। यह काव्य परमसमाधि तथा रहस्यात्मक अनुभूतियों को ध्यान में रखकर लिखा गया है।

दूसरे प्रकार की काव्य रचना का संबंध जैन काव्य के आचरण शास्त्र से है। इस प्रकार की काव्य रचना का उद्देश्य श्रावकों को तीर्थ, व्रत, उपवास आदि का उपदेश देना है। इस प्रकार की रचनाओं में रास, फाग, चर्चरी आदि को रख सकते हैं।

रहस्यात्मक काव्य (Rahasyatmak Kabya) :-

रहस्यानुभूति का प्रभाव जैन साहित्य में भी देखने को मिलता है। जैन धर्म में रहस्यवादी काव्य की संख्या अल्पमात्रा में ही उपलब्ध होती है| जोइन्द् का “परमात्मप्रकाश” और “योगसार” तथा मुनिरामसिंह का “पाहुड़ दोहा” जैन साहित्य की उल्लेखनीय रहर्यवादी काव्यकृतियाँ है।

जैन दर्शन में कहा गया है कि आत्मज्ञान से मिथ्या दृष्टि दूर हो जाती है और परम पद की प्राप्ति होती है। समान विकल्पों का विलय होना परम समाधि है और परम समाधि की प्राप्ति से समस्त संसार के अशुभ कर्मों का क्षय हो जाता है। “पाहुड़ दोहा” में मुनिरामसिंह ने मूर्ति पूजा का खंडन किया है, और योगपरक शब्दावली का प्रयोग मिलता है।

जैन रासो साहित्य (Jain Raaso Sahitya):-

परवर्ती जैन साहित्य में रास ग्रंथों की प्रचुरता दिखाई पड़ती है। वस्तुतः रास नृत्य गीत और अभिनय के सम्पूक्त मनोभाव को सूचित करता है। ताल देकर काव्य का गायन किया जाता था, इसलिए इसमें नृत्य, संगीत और अभिनय का स्वाभाविक रूप से जुड़ाव हो गया।

प्रमुख रास ग्रंथों में “भारतेश्वर बाहुबली रास” (1184 ई), “चंदनबाला रास” तथा “उपदेश रसायन रास” नाम गिनाया जा सकता है। “भरतेश्वर बाहुबली रास” शालिभद्र सुरि की रचना है। इसे हम कथा काव्य कह सकते हैं। जिसमें कथा और गायन का विशिष्ट सम्मिश्रण है।

रासो काव्य में दूसरे प्रकार की रचना उपदेश साहित्य का अंग है। इस प्रकार के रास साहित्य में सामाजिक व्यवर्था को सामने रखकर गृहस्थ को अपने धर्म का पालन करने का उपदेश दिया जाता था।

ब्याकरणात्मक ग्रंथ (Vyakaranatmak Granth):-

जैन रचनाकारों ने अपभ्रंश में काव्य रचनाओं के अलावा व्याकरण ग्रंथ का भी निर्माण किया था। इसमे आचार्य हेमचन्द्र का “सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन” अपभ्रंश व्याकरण का ग्रंथ सबसे पहले आता है जिसकी रचना 1143 ई. के आसपास हुई थी।

इस ग्रंथों में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश – तीनों भाषाओं का समावेश मिलता है। इस व्याकरण ग्रंथ में हेमचन्द्र ने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के एकाध उदाहरण ही प्रस्तुत किए हैं परंतु अपभ्रंश के उदाहरण में उन्होंने संपूर्ण गाथा एवं छंद दे दिए हैं।

WIKIPEDIA PAGE : सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य, जैन साहित्य

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