जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय (Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay)

जयशंकर प्रसाद (Jayshankar Prasad) :-

हिन्दी साहित्य मैं छायावादी युग के प्रवर्तक के रूप मैं जयशंकर प्रसाद (Jayshankar Prasad) जी का महत्व काफी ऊपर माना जाता है। इसके अलावा खड़ीबोली भाषा को काव्य भाषा के रूप मैं स्वीकृति दिलाने मैं भी प्रसाद जी का बड़ा योगदान माना जाता है।

इनके द्वारा रचित खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

नामजयशंकर प्रसाद
पूरा नामजयशंकर प्रसाद साहू
पिता का नामबाबू देवकी प्रसाद
पत्नी का नामकमला देवी
जन्म30 जनवरी 1889
जन्म स्थानवाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु15 नवम्बर 1937
नाटकस्कन्दगुप्त, अजातशत्रु आदि
कहानी संग्रहइन्द्रजाल, आँधी
जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय (Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay)

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय (Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay):-

जयशंकर प्रसाद हिन्दी नाटय जगत और कथा साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं । कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी देन महत्वपूर्ण हैं। भावना प्रधान कहानी लिखने वालों में जयशंकर प्रसाद अनुपम था जिस समय खड़ी बोली और अआधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदापण कर रहे थे उस समय जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 989 इ. (माघ शुक्ल दशमी, संवत 1946 वि.) वाराणसी उत्तर प्रदेश में हुआ था।

कवि के पितामह शिव रत्नसा, वाराणसी के अत्यन्त प्रतिष्ठित नागरिक थे और एक विशेष प्रकार की सुरती (तम्बाकू) बनाने के कारण ‘सुँघनी साहु’ के नाम से विख्यात थे। उनकी दानशीलता सर्वविदित थी और उनका यहाँ विद्वानों कलाकारों का समादर होता था। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

जयशंकर प्रसाद के पिता देवी प्रसाद साहु ने भी अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया। इस परिवार की गणना वाराणसी के अतिशय समृद्ध घरानों में थी और धर्न वैभव का कोई अभाव न था। प्रसाद का कुटुम्ब शिव का उपासक था। माता-पिता ने उनके जन्म के लिए अपने इष्टदेव से बड़ी प्रार्थना की थी।

वैद्यनाथ धाम के झारखंड से लेकर उज्जयिनी के महाकाल की आराधाना के फलस्वरूप पुत्र जन्म स्वीकार कर लेने के कारण शैशव में जयशंकर प्रसाद को इझारखंडी कहकर पुकारा जाता था।

वैद्यनाथ धाम में ही जयशंकर प्रसादे का नामकरण संस्कार हुआ। जयशंकर प्रसाद की शिक्षा घर पर ही अरम्भ हुई । संस्कृत, हिन्दी, फारसी, उर्दू के लिए शिक्षक नियुक्त थे। इनमें रसमय सिद्ध प्रमुख थे। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के लिए दीनबन्धु ब्रह्मचारी शिक्षक थे। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

कुछ समय के बाद स्थानीय क्वीन्स कॉलेज में प्रसाद का नाम लिख दिया गया, पर यहाँ पर वे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ सके। प्रसाद एक अध्यवसायी व्यक्ति थे और नियमितं रूप से अध्ययन करते थे।

इन्हें हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी, उर्दू, बँगला आदि भाषाओं का पर्याप्त ज्ञान था। इनका व्यक्तिगत जीवन भी संघर्षमय रहा। पहली दो पत्नियों के देहावसान के उपरान्त इन्होंने तीसरी शादी की। जीवन की इन विडम्बनाओं ने उनकी काव्य-चेतना को भी गहरे से प्रभावित किया।

प्रसाद की बारह वर्ष की अवस्था थी तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। इसी के बाद परिवार में गृहक्लेश आरम्भ हुआ और पैतृक व्यवसाय को इतनी क्षति पहुँची कि वहीं ‘सुँघनी का साहु का परिवार’ जो वैभव में लोटता था, ऋण के भर से दब गया।

पिता की मृत्यु के दो-तीन वर्षों के भीतर ही प्रसार की माता का देहान्त हो गया और सबसे दुर्भाग्य का दिन वह आया, जब उनके ज्येष्ठ भ्राता शम्भु रतन चल बसे तथा सत्रह वर्ष की अवस्था में ही प्रसाद को एक भारी उत्तरदायित्व सम्भालना पड़ा।

प्रसाद का आधिकांश जीवन वाराणसी में ही बीता था। उन्होंने अपने जीवन में केवल तीन-चार बार यात्राएँ की थीं जिनकी छाया उनकी कतिपय रचनाओं में प्राप्त हो जाती है। प्रसाद को काव्य-सृष्टि की आरम्भिक प्रेरणा घर पर होने वाली समस्या पूर्तियों से प्राप्त हुई जो विद्वानों की मण्डली में उस समय प्रचलित था।

जयशंकर प्रसाद की साहित्यिक भावना :-

प्रसाद भारतीय संस्कृति के प्रतीक पुरूष थे। इन्होंने वेद, पुराण, इतिहास, पुरातत्त्व, साहित्य, दर्शन-शास्त्र आदि का गहन अध्ययन किया था। प्राचीन का युग सापेक्ष नवीन संस्कार इनके काव्य की अद्भुत उपलब्धि है। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

इन्होंने प्राचीन इतिहास-पुराण का स्वरूप अपने साहित्य में प्रस्तुत किया। कामायनी में इन्होंने शैव दर्शन से प्रभावित ‘आनन्द’ की स्थापना की है।

साहित्यिक परिचय :-

कहा जाता है कि नौ वर्ष की अवस्था में ही जयशंकर प्रसाद ने ‘कलाधर’ उपनाम से ब्रजभाषा में एक सवैया लिखकर अपने गुरू रसमय सिद्ध को दिखाया था। उनकी आरम्भिक रचनाएँ यद्यपि ब्रजभाषा में मिलती हैं पर क्रमश: वे खड़ी बोली को अनाते गुए और इस समय उनकी ब्रजभाषा की जो रचनाएँ उपलब्ध हैं उनका महत्व केवल ऐतिहासिक ही है।

प्रसाद की ही प्रेरणा से 1909 ई. में उनके भांजे अम्बिका प्रसाद गुप्त के सम्पादकत्व में इन्दु नामक मासिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ हुआ। प्रसाद इसमें नियमित रूप से लिखते रहे और उनकी आरम्भिक रचनाएँ इसी के अंकों में देखी जा सकती है।

प्रसाद जी का जीवन कुल 48 वर्ष का रहा है इसी में उनकी रचना प्रक्रिया | इसी विभिन्न साहित्यिक विधाओं में प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध सभी में उनकी गति समान है किन्तु अपनी हर विधा में उनका कवि सर्त्र मुखरित है।

वस्तुत: एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विधाओं उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिए अनुप्रेरित किया उनकी कहानियों का अपना पृथक और सर्वथा मौलिक शिल्प है, उनके चरित्र चित्रण का भाषा-सौष्ठव का वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है।

उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्राध्य प्रयोग मिलते हैं अभिनेयता को दुष्टि में रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिए न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

उनका यह कथन ही नाटक रचना के अनुकूल। उनका यह कथन ही नाटक रचना के आनतरिक विधान को अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध कर देता है। कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास सभीक्षेत्रों मैं प्रसाद जी एक नवीन ‘स्कूल’ और नवीन जीवन दर्शन की स्थापना करने में सफल हुए हैं।

वे ‘छायावाद’ के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं । वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव-अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पड़ा है। भाषा -शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिए जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पड़ा है, उतना दूसरों को नहीं।

जयशंकर प्रसाद की साहित्यिक रचानाएं :-

कालचक्र के अनुसार ‘चित्राधार’ प्रसाद का प्रथम संग्रह है। इसका प्रथम संस्करण 1918 ई. में हुआ। इसमें कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध सभी का संकलन था और भाषा ब्रज तथा खड़ी बोली दोनों की थी। लगभग दस वर्ष के बाद 1928 में जब इसका दुसरा संस्करण आया तब इसमें ब्रजभाषा की रचनाएँ ही रखी गई ।

साथ ही इसमें ब्रजभाषा की रचनाएँ ही रखी गई । साथ ही इसमें प्रसाद की आरम्भिक कथाएँ भी संकलित हैं। चित्राधार की कविताओं को दो प्रमुख भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक खण्ड उन आख्यानक कविताओं अथवा कथा काव्यों का है जिनमें प्रबन्धात्मकता है। अयोध्या का उद्वार, वनमिलन और प्रेमराज्य तीन कथा काव्य इसमें संग्रहीत है ।

अयोध्या के उद्धार में लव द्वारा अयोध्या को पुनः बसाने की कथा है। इसकी प्रेरणा कालिदास का ‘रघुवंश’ है।’वन मिलन’ “अभिज्ञान शाकन्तलम’ की प्रेरणा है। प्रेमराज्य की कथा ऐतिहासिक है। चित्राधार की स्फुट रचनाएँ प्रकृति विषयक तथा भक्ति और प्रेम सम्बन्धित है। ‘कानन कुसम’ प्रसाद की खड़ी बोली की कविताओं का प्रथम संग्रह है। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

यद्यपि इसके प्रथम संस्करण में ब्रज और खड़ी बोली दोनों की कविताएँ हैं, पर दूसरे संस्करण (1910 ई.) तथा तीसरे संस्मरण (1925 ई. ) में अनेक परिवर्तन दिखाई दिए और अब उसमें केवल खड़ी बोली की कविताएँ हैं कवि के अनुसार यह 1966 वि. (1909 ई.) से 1974 वि. (सन् 1917 ई.) तक की कविताओं का संग्रह है। इसमें भी ऐतिहासिक तथा पौराणिक कथाओं के आधार पर लिखी गई कुछ कविताए है।

करुणालय की रचना गीतिनाट्य के आधार पर हुई है। इसका प्रथम प्रकाशन ‘इन्दु’ (1913 ई.) में हुआ चित्राधार के प्रथम संस्करण में भी यह है। वि. 1928 ई. में इसका पुस्तक रूप में स्वतन्त्र प्रकाशन हुआ। इसमें राजा हरिश्वन्द्र की कथा है। ‘महाराणा का महत्त्व’ 1914 ई. में ‘इन्दु’ में प्रकांशित हुआ था इसमें महाराणा प्रताप की कथा है।

‘झरना’ का प्रथम प्रकाशन 1918 में हुआ था। इसमें ‘छायावाद युग’ का प्रतिष्ठापन माना जाता है। ऑसू प्रसाद की विशिष्ट रचना है। इसका प्रथम संस्करण 1925 ई. , दूसरा संस्करण 1933 ई. में प्रकाशित हुआ’ आँसू’ एक श्रेष्ठ गीतिकाव्य है जिसमें कवि की प्रेमानभूति व्यंजित है।

इसका मूलस्वर विषाद का है। पर अन्तिम पंक्तियों के आशा-विश्वास के स्वर है ‘कामायनी’ प्रसाद का निबन्ध काव्य है। इसका प्रथम संस्करण 1936 ई. में प्रकाशित हुआ था। कवि का गौरव इस महाकाव्य की रचना से बहुत बढ़ गया। इसमें आदि मानव मनु की कथा है, पर कवि ने अपने युग के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार किया है।

प्रसाद जी की रचनाओं में जीवन का विशाल क्षेत्र समाहित हुआ है। प्रेम सौन्दर्य, देशप्रेम, रहस्यानुभूति, दर्शन प्रकृति चित्रण और धर्म आदि विविध विषयों को अभिनव और आकर्षक भंगिमा के साथ आपने काव्य-प्रेमियों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। ये सभी विषय कवि की शैली और भाषा की असाधारणतया के कारण अछूते रूप में सामने आए हैं ।

प्रसाद जी के काव्य साहित्य में प्राचीन भारतीय संस्कृति की गरिमा और भव्यता बढ़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत की गई है। आपके नाटकों के गीत तथा रचनाएँ भारतीय जीवन मूल्यों को बड़ी शालीनता से उपस्थित करती है।

प्रसाद जी ने राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान को अपने साहित्य में सर्वत्र स्थान दिया है। प्रसाद जी ने परकृति के विविध यक्षों को बड़ी सूजीवता से चित्रित किया है। प्रकृति के सौम्य सुन्दर और विकृत-भयानक, दोनों स्वरूप उनकी रचनाओं में प्राप्त है।

जयशंकर प्रसाद के नाटक :-

भारतेंदु के बाद जयशंकर प्रसाद ने ही हिंदी नाटक को एक नया आयाम दिया। उन्होंने ऐतिहासिक सांस्कृतिक परंपराओं को आत्मसात् कर पाश्चात्य एवं भारतीय नाट्य साहित्य का समन्वय किया यह श्रेय प्रसाद को ही है कि उन्होंने सात्विक मनोरंजन के साथ पहली बार हिंदी नाटकों को हास्य व्यंग्य, गहरी संवेदना, आदर्श, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं ऐतिहासिक चेतना से युक्त किया।

प्रसाद के नाटक हैं-

  • सज्जन
  • कल्याणी परिणय
  • करुणालय
  • प्रायश्चत्त
  • राज्यश्श्री
  • विशाख
  • अजातशत्रु
  • जनमेजय का नागयज्ञ
  • कामना
  • स्कंदगुप्त
  • एक घूँट
  • चंद्रगप्प
  • ध्रवस्वामिनी
  • अग्निमित्र

इनमें प्रथम चार नाटक प्राचीन नाट्य परंपरा से मुक्त नहीं हैं, यद्यपि करुणालय में उन्होंने गीति-नाट्य शैली का प्रयोग किया है। ‘स्कंदगुप्त’ , ‘चंद्रगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’ आदि नाटकों में ऐतिहासिक तथ्यों के द्वारा सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रयास किया गया है। इन नाटकों में उन्होंने इतिहास के बीच से ही प्रेम और सौंदर्य के मधुर चित्र खींचे हैं। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

यहाँ प्रसाद की दृष्टि रोमांटिक होते हुए भी संयमित रही है। प्रसाद ने इन नाटकों में ऐतिहासिक तथ्यों के द्वारा वर्तमान जीवन की सामाजिक एव राजनीतिक समस्याओं का भी चित्रण किया। जैसे ‘ध्रुवस्वामिनी’

नाटक के माध्यम से आधुनिक नारी की संबंध-विच्छेद व पुनर्विवाह की समस्या को प्रस्तुत किया है। प्रसाद ने पहली बार पात्रों को उनका स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान किया। उन्होंने पात्रों के अंतर्मन की सुक्ष्म संवेदनाओं को प्रस्तुत किया है। उनके पात्र अंतर्द्ध से युक्त हैं।

इसलिए कहीं-कहीं उनका नायकत्व खंडित होता भी प्रतीत होता है, परंतु प्रसाद ने पात्रों को यथाथ्थवादी मानव सुलभ रूप प्रदान करने का प्रयास किया है। यद्यपि उनके पात्र त्याग व उत्सर्ग में ही संतोष प्राप्त करते हैं लेकिन यह समय की जरूरत थी। साथ ही पारसी नाटकों की सस्ती मनोरंजकता से भी प्रसाद क्षुब्ध थे, इसलिए भी नाटकों में वे आदशों, मूल्यों की स्थापना करना चाहते थे।

प्रसाद ने भारतीय व पाश्चात्य नाट्य परंपरा का समन्वय कर नयी स्थापनाएँ भी की उन्होंने पाश्चात्य दुखात व भारतीय सुखांत नाटकों के सामंजस्य से ‘प्रसादांत’ नाटकों की रचना की। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

उन्होंने नाटकों में सस्ते गीतों की जगह रसपूर्ण गीतों का प्रयोग किया है। यद्ययि कहीं-कहीं इन गीतों से नाटकों के प्रवाह में व्यवधान भी लगता है फिर भी काव्यत्व की दृष्टि से ये गीत सुंदर बन पड़े हैं।
जहाँ तक प्रसाद की भाषा का प्रश्न है, उनके नाटकों की भाषा संस्कृतनिष्ठ है।

दार्शनिक संवादों, स्वगत कथनों व गीतों की अधिकता के कारण उनकी भाषा पर दुरूहता के आरोप भी लगे हैं। एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि प्रसाद के नाटक रंगमंच की दृष्टि से उपयुक्त नहीं हैं। वस्तुतः प्रसाद ने पहले ही यह घोषित कर दिया था कि “नाटकों के लिए रंगमंच होना चाहिए, रंगमंच के लिए नाटक नहीं'”

फिर भी उनके नाटकों के सफल मंचन होते रहे हैं। आधुनिक तकनीकों ने भी इनके मंचन को संभव बनाया है। समग्रत: प्रसाद का हिंदी नाट्क साहित्य में वही स्थान है जो उपन्यास में प्रेमचंद का है। आधूनिक नाटकों में आज जिस मानवीय द्ंद्ध को प्रस्तुत किया जा रहा है उसकी नींव प्रसाद ने ही डाली थी। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

ऐतिहासिक नाटकों द्वारा समसामयिक समस्याओं के चित्रण की परंपरा मोहन राकेश आदि नाटककारों में आज भी चल रही है। प्रसाद के नाटक इस अर्थ में आज भी प्रासंगिक हैं कि न केवल उन्होंने नाटक को नयी संवेदना दी है बल्कि एक नया शिल्प भी दिया है।

जयशंकर प्रसाद जी की कहानी :-

जिस समय प्रेमचंद आदर्शोंन्मुखी कहानियाँ लिख रहे थे उसी समय प्रसाद ने स्वच्छंदतावादी या रोमांटिक कहानियाँ लिखीं। 1911 में प्रसाद की कहानी इंदु’ पत्रिका में छपी। प्रसाद मुलत: कवि थे अत: उनकी कहानियों में छायावाद की मुल प्रवृत्ति ‘वैयक्तिकता’ की सुक्ष्म प्रतिच्छाया दिखाई देती हैं।

प्रसाद के कहानी संग्रह हैं- ‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘आँधी’ व इंद्रजाल’‘छाया’ संग्रह की कहानियाँ प्रेमवृत्त पर आधारित हैं, उनमें कथातत्व अत्यंत झीना है। इनमें प्राय: प्रकृति के काव्यपरक चित्रण का समावेश है। ‘प्रतिध्वनि’ में भावात्मकता और भी गहरी हो गई है। भावविवृत्ति के साथ कुछ अतीतोन्मुखता और छायावादी रहस्योन्मुखता भी है।

इसके बाद ‘आकाशदीप‘ और ‘आँधी’, दो संग्रह प्रकाशित हुए। ‘आकाशदीप’ में संग्रहीत कहानियाँ मानसिक अंत्वंद्ध की कहानियाँ हैं। संवेदना की दृष्टि से इनमें करुणा व अवसाद की अभिव्यक्ति हुई है। ‘आकाशदीप’ कहानी में प्रेम और घूणा की गहन आवेगमयता की गहरी टकराहट है। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

‘आँधी’ में प्रसाद यथार्थवादी समस्याओं से टकराते हैं। इनमें भावों का बहाव उतना नहीं है जितना उनका विश्लेषण। ‘सालवती’ और ‘गुंडा’ इस संग्रह की श्रेष्ठ कहानिरयाँ हैं। प्रसाद की कहानियाँ भी उनके नाटकों की तरह प्रगीतात्मक हैं। अतीत के प्रति प्रसाद की विशेष रुचि रही है।

इसके प्रमाण उनके नाटक भी रहे हैं और कहानियाँ भी। प्रसाद की कहानियाँ अपने ढंग की अद्वितीय कहानियाँ हैं। भावों को वहन करने के लिए इनमें काव्यमयी भाषा का प्रयोग किया है। वातावरण निर्माण की कला में वे बेजोड हैं।

उनकी प्रमुख कहानियाँ हैं- ‘पुरस्कार’, ‘मपता’ ‘मधआ’, ‘आकाशदीप’, ‘व्रतभंग’ आदि। देशप्रेम, त्याग, प्रेम, अंत्द्ध अतीत उनकी कहानियों के प्रिय विषय रहे हैं। वे समग्रत: रोमांटिक कलाकार थे।

मनोभावों व अंत्दंद्र पर कहानियों की परंपरा जो प्रसाद ने चलाई वह बाद में अज्ञेय, जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी ने विकसित की। प्रसाद ने प्रेमचंद के समान ही उसी युग में हिंदी कहानी को एक नयी दृष्टि दी।

  • देवदासी
  • बिसाती
  • प्रणय-चिह्न
  • नीरा
  • शरणागत
  • चंदा
  • गुंडा
  • स्वर्ग के खंडहर में
  • पंचायत
  • जहांआरा
  • मधुआ
  • उर्वशी
  • इंद्रजाल
  • गुलाम
  • ग्राम
  • भीख में
  • चित्र मंदिर
  • ब्रह्मर्षि
  • पुरस्कार
  • रमला
  • छोटा जादूगर
  • बभ्रुवाहन
  • विराम चिन्ह
  • सालवती
  • अमिट स्मृति
  • रसिया बालम
  • सिकंदर की शपथ
  • आकाशदीप

जयशंकर प्रसाद की कविताएं :-

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय (Jaishankar Prasad ka jivan parichay) कई कविताओं से भी भरा हुआ है, नीचे उनकी कविताओं के नाम इस प्रकार हैं-

पेशोला की प्रतिध्वनि
शेरसिंह का शस्त्र समर्पण
अंतरिक्ष में अभी सो रही है
मधुर माधवी संध्या में
ओ री मानस की गहराई
निधरक तूने ठुकराया तब
अरे!आ गई है भूली-सी
शशि-सी वह सुन्दर रूप विभा
अरे कहीं देखा है तुमने
काली आँखों का अंधकार
चिर तृषित कंठ से तृप्त-विधुर
जगती की मंगलमयी उषा बन
अपलक जगती हो एक रात
वसुधा के अंचल पर
जग की सजल कालिमा रजनी
मेरी आँखों की पुतली में
कितने दिन जीवन जल-निधि में
कोमल कुसुमों की मधुर रात
अब जागो जीवन के प्रभात
तुम्हारी आँखों का बचपन
आह रे, वह अधीर यौवन
आँखों से अलख जगाने को
उस दिन जब जीवन के पथ में
हे सागर संगम अरुण नील

काव्य शैली :-

प्रसाद जी की काव्य शैली में पुरम्पूरागत तथा नव्य अभिव्यक्ति कौशल का सुन्दर समन्वय है। उसमें ओज माधूर्य और प्रसाद तीनों गुणों की सुसंगति है। विषय और भाव के अनकल विविध शैलियों का प्रौद प्रयोग उनके काव्य मप्राप्त होता है।

वर्णनात्मक, भावात्मक, आलंकारिक, सूव्तिपरक, प्रतीकात्मक आदि शैली-रूप उनकी अभिव्यक्ति को पूर्णता प्रदान करते हैं वर्णनात्मक शैली में शब्द चित्रांकन की कुशलता दर्शनीय होती है।

छंद और अलंकार :-

प्रसाद जी की दृष्टि साम्य मूलक अलंकारों पर ही रही है। शब्दालंकार अनायास ही आए है। रूपक, सरूपकातिशयोक्ति, उपमा, प्रतीक आदि इनके प्रिय अलंकार हैं। प्रसाद जी विविध छन्दों के माध्यम से काव्य को सफल अभिव्यक्ति प्रदान की। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

भावानुसार छन्द परिवर्तन ‘कामायनी’ में दर्शनीय है, ‘आँसू’ के छन्द उसके विषय के सर्वधा अनुकूल है। गीतों का भी सफल प्रयोग प्रसाद जी ने किया है। भाषा की तत्समता, छन्द की गेयता और लय को प्रभावित नहीं करती है।

‘कामायनी’ के शिलपी के रूप में प्रसाद जी न केवल हिन्दी साहित्य की अपितु विश्व साहित्य की विभूति है। भारतीय संस्कृति के विश्वसनीय सन्दर्भों को प्रस्तुत किया है तथा इतिहास के गौरवमय पृष्ठों को समक्ष लाकर हर भारतीय हृदय को आत्म-गौरव का सुख प्रदान किया है। हिन्दी साहित्य के लिए प्रसाद जी माँ सरस्वती का प्रसाद है।

छायावाद की स्थापना :-

जयशंकर प्रसाद ने हिन्दी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई। वे छायावाद के प्रतिष्ठापरक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस संगीतमय गीतों के लिखने वाले श्रेष्ठ कवि हैं।

काव्य-क्षेत्र में प्रसाद की कीर्ति का आधार कामायनी है। खड़ी बोली का यह अद्वितीय महाकाव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर रचित मानवता को विजयिनी बनाने का सन्देश देता है। यह रूपक कथाकाव्य भी है जिसमें मनु (मन) श्रद्धा (हृदय) और इडा (बद्) के योग से अखंड आन्द की उपलब्धि का रूपक प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर संयोजित किया गया है। Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay

उनकी यह कृति छायावाद और खड़ी बोली की काव्य गरिमा का ज्वलंत उदाहरण है। सुमित्रानंदन पंत इसे ‘हिन्दी में ताजमहल के समान’ मानते हैं। शिल्प विधि, भाषा सौष्ठव एवं भावाभिव्यक्तित की दृष्टि से इसकी तुलना खड़ी बोली के किसी भी काव्य से नहीं की जा सकती है ।

जयशंकर प्रसाद ने अपने दौर के पारसी रंगरमंच की परम्परा को अस्वीकारते हुए भारत के गौरवमय अतीत के अनमोल चरित्रों को सामने लाते हुए अविस्मरनीय नाटकों की रचना की। उनके नाटक स्कंदग्प्त चंद्रुप्प्त आदि में स्वर्णिम अतीत को सामने रखकर मानो एक सोये हुए देश को जागने की प्रेरणा दी जा रही थी।

उनके नाटकों में देशप्रेम का स्वर अत्यन्त दर्शनीय है और इन नाटकों को कई अत्यन्त सुन्दर और प्रसिद्ध गीत मिलते हैं।

देहांत :-

जयशंकर प्रसाद जी का देहान्त 15 नवम्बर सन् 1937 ई. में हो गया। प्रसाद जी भारत के उन्नत अतीत का जीवित वातावरण व्रस्तुत करने में सिद्ध हस्तं थे। उनकी कितनी ही कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें आदि से अन्त तक भारतीय संस्कृति एवं आदशों की रक्षा सफल प्रयास किया गया है और आँसू ने उनके हृदय की उस पीड़ा को शब्द दिए जो उनके जीवन में अचानक मेहमान बनकर आई और हिन्दी भाषा को समृद्ध कर गई।

अंतिम कुछ शब्द :-

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WIKIPEDIA PAGE : जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय

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