छायावाद युग की सम्पूर्ण जानकारी (Chhayabaad Yug Ki Sampurn Jankari):-
आधूनिक हिन्दी काव्यधारा के विकास में छायावाद का महत्वपूर्ण स्थान है । छायावाद ने न केवल अंतरबस्तु के स्तर पर तथा काव्य भाषा और संरचना की दृष्टि से भी हिन्दी कविता तथा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है।
छायावाद के समय मैं हिंदी साहित्य मैं उपन्यास, निबं, कहानी, नाटक आदि भी लिखे गए, पर कविता का महत्व यहां सबसे गुरुत्वापूर्ण रहा। आगे हम छायावाद की इन्हीं विेशिष्टताओं के विषय मैं विस्तार से आलोचना करेंगे।
छायावाद क्या है:-
छायावाद का समय सन 1918 से सन 1938 तक माना जा सकता है। रामचन्द्र शुक्ल ने छायावाद का आरंभ सन् 1918 से माना है। इस काल के आस-पास साहित्य में एक नए मोड़ का आरंभ हो गया था, जो पुरानी काव्य-पद्धति को छोड़कर एक नई पद्धति के निर्माण का सूचक था।
निराला की ‘जूही की कली’ (1916) और पंत की ‘पल्लव‘ की कुछ कविताएँ सन् 1920 के आसपास प्रकाशित हो चुकी थीं। छायावाद के लगभग 20 सालों में विपुल साहित्य का रचना किया गया।
जहाँ एक ओर प्रसाद, निराला आदि कवि भी इसी युग में हुए जिनका प्रधान लक्ष्य साहित्य – साधना था और दूसरी ओर माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन आदि रचनाकार भी हुए जो अपने युग के आंदोलनों में सक्रिय भाग लेते थे और कविताएँ भी करते थे।
हिंदी की रोमांटिक स्वच्छंदतावादी काव्यधारा की विकसित अवस्था को ‘छायावाद’ नाम से जाना जाता है। उसकी प्रमुख प्रवृत्तियों और हास के कारणों के बारे में अब कोई भी उल्लेखनीय विवाद नहीं रह गया है।
बीसवीं शताब्दी के हिंदी कविता के सबसे समर्थ और महत्वपूर्ण काव्यांदोलन के रूप में छायावाद की स्वीकृति के बारे में व्यापक सहमति है। शताब्दी के आरंभ में जब काव्य-प्रवृत्ति के लक्षण दिखाई पड़े. तब काव्य रचना के जिस बात ने विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया, वह थी रीतिकालीन काव्य-रूढियों से मुक्ति।
अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में ब्रजभाषा को अपदस्थ करने के लिए आचार्य महावीरप्रसाद जी पहले ही व्यापक आंदोलन चला चुके थे। द्विवेदी जी के प्रयत्नों से, खड़ी बोली काव्य- भाषा के रूप में प्रतिष्ठित भी हो चुकी थी।
पर जैसा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है,
“उसी समय पिछले संस्कृत-काव्य के संस्कारों के साथ पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य -क्षेत्र में आए जिससे इतिवृत्तात्मक पद्यों का खड़ी बोली में ढेर लगने लगा।’ यानी इससे काव्य-भाषा तो खड़ी बोली भाषा की हो गई, पर काव्य-शैली में रीतिकालीन चमत्कारात्मकता, सरसता, विदग्धता आदि का स्थान इतिवृत्तात्मकता ने ले लिया।
आज शुक्ल जी की यह स्थापना निर्विवाद रूप से स्वीकृत है कि रीतिकाल की रूढ़ियों को तोड़कर “स्वच्छृंदता का आभास” पहले-पहल पं. श्रीधर पाठक ने ही दिया।” और इससे “सब बातों का विचार करने पर पं. श्रीधर पाठक ही सच्चे स्वच्छंदतावाद के प्रवर्तक ठहरते हैं ।
स्वच्छंदताबाद का आधार :-
हिंदी में इस प्रकार ‘रोमैंटिसिज्म’ के लिए ‘स्वच्छंदतावाद’ शब्द आ जाने के बाद छायावादी कविता को आरंभिक स्वच्छंद काव्य-घारा से ही नहीं, बल्कि उसकी परवर्ती परंपरा से भी अलग करके देखने की परिपाटी चल पड़ी। इसी बीच हिंदी की रहस्यात्मक कविताओं की चर्चा के प्रसंग में अंग्रेज़ी के ‘मिस्टिसिज्म‘ शब्द का उल्लेख किया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि आरंभ में बहुत दिनों तक छायावादी कविताओं के लिए ‘रहस्यवाद”‘ शब्द का प्रयोग भी होता रहा।
पर वास्तविकता यह है कि शुक्ल जी ने जिन कवियों की कविताओं में सच्चे स्वच्छंदतावाद’ का स्वरूप देखा था, उनके सच्चे स्वच्छंदतावाद’ में भी और बातों के अलावा ‘रहस्यपूर्ण संकेत’ मौजूद है। इसलिए केवल राविन्द्रिक प्रभाव के अनुमान के कारण छायावाद को स्वच्छंदतावादी काव्य-परंपरा से बाहर नहीं किया जा सकता।
छायावाद के आरंभ में होने वाले तात्कालिक विवादों का कोलाहल शांत हो जााने के बाद अब यह बात भली- भाँति स्पष्ट होकर सामने आ चुकी है कि ‘छायावाद‘ हिंदी की अपनी रोमैंटिक अथवा स्वच्छंदतावादी काव्यधारा की ही विकसित अवस्था है।
इसके पहले चरण के कवि हैं श्रीघर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, मुकुटधर पाण्डेय आदि जिन्हें आ. शुक्ल ‘सच्चे स्वच्छंदतावादी’ कहते थे और दूसरे चरण में इसी काव्य-प्रवृत्ति को प्रौड़तम उत्कर्ष तक पहुँचाने वाले कवि प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी थे जिन्हें छायावाद’ के कवि माना जाने लगा।
प्रवर्तन का प्रश्न:-
छायावाद का आरंभ किस कवि की किस रचना से माना जाए यह प्रश्न आज भी विवादास्पद है। सुमित्रानंदन पंत ने अपनी पुस्तक ‘छायावाद : पुनर्मूल्यांकन’ में इस प्रप्न पर विस्तार से विचार किया है। उन्होंने प्रसाद को छायावाद का प्रवर्तक मानने के पक्ष में ‘भावना की दृष्टि से आदर’ व्यक्त किया। पर लगे हाथेों तथ्य-विश्लेषण की दृष्टि से’ उन्होंने इस मान्यता का विरोध किया।
इस बारे में उन्होंने जो तथ्य प्रस्तूत किए हैं उनका सार यही है कि “सन 1919 में प्रकाशित झरना’ के प्रथम संस्करण की 24 कविताओं में कोई ऐसी विशिष्टता नहीं थी जिस पर ध्यान जाता। दरअसल छायावादी प्रवृत्ति से युक्त प्रसाद जी की कविताएँ अरना’ के दूसरे संस्करण में पहली बार सन् 1927 में ही प्रकट हुई। इसके अलावा उनके कानन-कसुम’, प्रेम-पथिक’ आदि काव्य सन् 1923 के बाद ही प्रकाश में आए।
इनमें से कानन-कसुम’ में द्विवेदी-युग के ढंग की ही रचनाएँ थीं। पंत जी का दावा है कि “मेरी प्राय: सभी पल्लव’ में प्रकाशित रचनाएँ दो वर्ष पूर्व से अर्थात् सन् 1923 के मध्य से सरस्वती में प्रकाशित होने लगी थीं।
इसके अलावा उनके वीणा‘ नाम के गीत -संकलन की रचना सन् 1918 और 1919 के बीच में और ग्रथि’ नामक काव्य की रचना सन् 1919 में की जा चुकी थी। उनकी पहली लम्बी रचना स्वप्न’ का प्रकाशन भी सन् 1920 की सरस्वती में हो चुका था।
जहाँ तक लिख लिए जाने का प्रश्न है, निराला जी का कहना था कि ‘जूही की कली‘ तो उन्होंने सन् 16 में ही लिख डाली थी। यह बात अलग है कि जूही की कली’ का कथ्य रीतिकालीन सा है पर अप्रस्तुत विधान, चित्रमयी भाषा और लाक्षणिक वैचित्रय एवं छंद-मुक्ति, सभी दृष्टियों से यह कविता हिंदी काव्य में एक स्पष्ट मोड़ की सूचक है।
पंत जी ने अपनी मान्यता के समर्थन में झरना’ के बारे में शुक्ल जी का निम्नलिखित कथन उद्ध़त किया – ‘झरना’ के द्वितीय संस्करण में छायावाद कही जाने वाली विशेषताएँ स्पफुट रूप में दिखाई पड़ीं । इससे पहले ‘पल्लव’ बड़ी धुमधाम से निकल चुका था, जिसमें रहस्य-भावना तो कहीं -कहीं पर अप्रस्तुत विध्ान, चित्रमयी भाषा और लाक्षणिक वैचित्र्य आदि विशेषताएँ अत्यंत प्रचुर परिमाण में सर्वत्र दिखाई पड़ी थीं।
निष्कर्ष यह है कि छायावाद का प्रवर्तन किस कवि की किस रचना से हुआ इसका एकदम ठीक-ठीक निर्णय करना कठिन है। वस्तृत: सुमित्रानंदन पंत ने छायावाद के आरंभ के विषय में जो कहा उसमें काफी सार है : ‘मेरे विचार से छायावाद की प्रेरणा छायावाद के प्रमुख कवियों को उस युग की चेतना से स्वतंत्र रूप से मिली है।
ऐसा नहीं हुआ कि, किसी एक कवि ने पहले उस घारा का प्रवर्तन किया हो और दुसरों ने उसका अनुगमन कर उसके विकास में सहायता दी हो।” यह बात इसलिए और भी सही है कि किन्हीं समानताओं के रहते भी छायावाद के कवियों में विविधता और भिन्नता भी कम नहीं है।
छायावादी काव्य की विशेषताएँ :-
छायावादी काव्य विषय-वस्तु एवं शैली दोनों ही दुष्टियों से अपने पूर्ववर्ती काव्य से अलग है। इस काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियों का निरूपण निम्न शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है-
आत्माभिव्यंजन:-
छायावादी कवियों ने काव्य की विषय-वस्तु अपने व्यक्तिगत जीवन से ही खोजने का प्रयास किया। अपने जीवन के निजी प्रसंगों, घटनाओं एवं व्यक्तिगत भावनाओं को अनेक छायावादी कवियों ने काव्य की विषय-वस्तु बनाया। छायावादी कविता में वैयक्तिक सुख-दुख की खुलकर अभिव्यक्ति हुई।
प्रसाद कृत ‘आँसू’ कारव्य और पंत कृत ‘उच्छवास’ नामक कविता इस कथन के समर्थन में पेश की जा सकती है। पंत जी ने अपनी ‘प्रिया’ को मन मंदिर में बसाकर उसे पूजने का उल्लेख उनके काव्य पंक्तियों में साफ दिखाई देता है।
निराला की कई कविताओं में उनके व्यक्तिगत जीवन का सत्य व्यक्त हुआ है ‘राम की शक्ति पूजा’ में राम की हताशा, निराशा में कवि के अपने जीवन की निराशा की अभिव्यक्ति की हुई है और इसके अलावा महादेवी वर्मा की कविताओं में भी आत्माभिव्यंजना की प्रवृत्ति उपलब्ध होती है। वेदना की जो प्रधानता उनकी कविताओं में है, उस पर उनके जीवन की छाया है, ऐसा कहना अनुपयुक्त नही हो सकता।
सौंदर्य चित्रण:-
छायावादी कवि मूलत: प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं, किंतु उनकी सौंदर्य भावना सुक्ष्म एवं उदात्त है। उसमें रीतिकालीन स्थूलता एवं मांसलता का नितांत अभाव है। सौंदर्य चित्रण में उनकी वृत्ति बाह्य वर्णनों में उतनी नहीं रमी, जितनी आंतरिक सौंद्र्य के उद्घाटन में एवं भाव दशाओं के वर्णन में रमी। नेत्रों के सौंद्र्य एवं उसके प्रभाव की व्यंजना निम्न पंक्तियों में प्रसाद जी ने अत्यंत आकर्षक ढंग से की है।
श्रृंगार निरूपण:-
द्विवदीयुगीन कविता में श्रृंगार-निरूपण बहुत कम हुआ है और जहाँ हुआ है वहाँ भी म्यादित रूप में ही है। छायावाद में आकर कविता में पुनः श्रृंगार की प्रतिष्ठा हुई। इन कवियों ने श्रृंगार के संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों के आकर्षक चित्र अंकित किए। निराला ने ‘जूही की कली’ नामक कविता में प्रकृति के प्रतीकों से प्रेम व्यापारों का निरूपण बोहोत ही ऊंदा तरीके से किया है।
नारी भावना:-
छायावादी कवियों ने नारी के प्रति उदात्त दृष्टिकोण अपनाकर समाज में उसके सम्मानीय स्थान को प्रतिष्ठित किया। रीतिकालीन कवियों ने नारी को विलास की वस्तु और उपभाोग की सामग्री मात्र माना, जबकि छायावादी कवियों ने उसे प्रेरणा का पावन उत्सव मानते हुए गरिमा प्रदान की। वह दया, क्षमा, करुणा, प्रेम की देवी है और अपने इन गुणों के कारण श्रद्धा की पात्र है।
रहस्य भावना:-
छायावादी काव्य में रहस्यवाद की प्रवृत्ति भी प्रमुख रूप से उपलब्ध होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसी कारण से ‘छायावाद’ का अर्थ ‘रहस्यवाद’ माना है। प्रायः सभी छायावादी कवियों ने अज्ञात सत्ता के प्रति ‘जिज्ञासा’ के भाव व्यक्त किए हैं। पंत की ‘मौन निमंत्रण’ कविता में इसकी अभिव्यक्ति बहुत सुंदर ढंग से हुई है।
छायावाद के प्रमुख कवि:-
छायावादी युग मैंबोहोत से ऐसे कवि तथा लेखकों ने अपने साहित्यिक कृति से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है, पर उनमे से छार कवि सबसे महत्वपूर्ण माने जाते है:- जयशंकर प्रशाद जी, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, और सुमित्रानंदन पंत।
छायावाद युग की गद्य साहित्य:
नाटक
हिंदी नाटक साहित्य की दृषटि से इस युग को ‘प्रसाद युग कहना उचित है। प्रसाद जी ने 1918 ई. के पूर्व से ही नाटक लिखने प्रारंभ कर दिए थे। उनकी आरंभिक रचनाएँ ‘सज्जन, ‘कल्याणी-परिणय’, ‘प्रायश्चित’, ‘करुणालय’, ‘राज्यश्री’ हैं।
इनके अतिरिक्त ‘विशाख’ ‘अजातशत्रु’, ‘कामना’, ‘जनमजेय का नाग यज्ञ, ‘”स्कन्दगुप्त’, ‘एक घूंट, ‘चन्द्रगुप्त’, और ‘धुवस्वामिनी’ ने हिंदी नाट्य साहित्य को विशिष्ट स्तर एवं गरिमा प्रदान की। वस्तुत हिंदी उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में जो स्थान प्रेमचंद का है, वही नाटक के क्षेत्र में प्रसाद का है। द्विवेदी युग में हुई नाट्यलेखन की क्षतिपूर्ति जयशंकर प्रसाद ने की।
भारतेन्दु द्वारा स्थापित की गई हिंदी नाटक और रंगमंच की परम्परा को जयशंकर प्रसाद ने ही नया जीवन और नई दिशा प्रदान की। प्रसाद जी मुख्यतः ऐतिहासिक नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
उपन्यास
लेखन के लिए इस युग को निर्विवाद रूप से ‘प्रेमचन्द-युग‘ कहा गया है क्योंकि “सेवासदन’ का प्रकाशन न केवल प्रेमचन्द के साहित्यिक जीवन की वरन् हिंदी उपन्यास के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। ‘सेवासदन‘ के बाद प्रेमचन्द के ‘प्रेमाश्रय’, ‘रंगभूमि’, कायाकल्प’, ‘निर्मला , ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ शीर्षक सात मौलिक उपन्यास प्रकाशित हुए। पहले प्रेमचन्द उर्दू में लिखा करते थे।
प्रेमचन्द हिंदी कथा साहित्य को ‘मनोरंजन’ के स्तर से उठाकर जीवन के वास्तविक धरातल पर लाए। उन्होंने जीवन और समाज की अनेक समसामयिक समस्याओं जैसे – पराधीनता, जमींदारों तथा सरकारी कर्म चारियों द्वारा किसानों का शोषण, निर्धनता, अशिक्षा, अंधविश्वास, दहेज की कुप्रथा, घर और समाज में नारी की स्थिति, वेश्याओं की जिन्दगी, वृद्ध-विवाह, साम्प्रदायिक वैमनस्य आदि को अपने उपन्यासों के माध्यम से उठाया।
कहानी:-
आधुनिक हिंदी का विकास सही अर्थ में इसी काल में हुआ। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द का स्थान हिंदी कहानी के क्षेत्र में भी अद्वितीय है। प्रेमचन्द जी की कहानियाँ भी अपने आसपास की जिन्दगी से जुड़ी हुई हैं।
कहानियों में प्रेमचन्द का आदर्शवादी दृष्टिकोण भी यथार्थवाद के साथ-साथ दिखाई देता है। इन्होंने लगभग 300 कहानियाँ लिखीं जिनमें प्रमुख हैं – ‘बलिदान’, ‘आत्माराम’, ‘बूढ़ीकाकी’, ‘विचित्र होली’, ‘गृहदाह’. ‘हार की जीत’, ‘परीक्षा’, ‘आपबीती’, ‘उद्धार’, ‘सवासेर गेहूं’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ आदि।
इस काल के दूसरे प्रमुख कहानीकार जयशंकर प्रसाद हैं। इनकी प्रथम कहानी ‘ग्राम’, ‘इन्दु‘ में छपी। उनकी कहानियों में जीवन के सामान्य यथार्थ को कम और स्वर्णिम अतीत के गौरव को अधिक स्थान मिला है। ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘आंधी’, ‘इन्द्रजाल’ इनके कहानी संग्रह है। ‘आकाशदीप, ‘पुरस्कार’, ‘मधुवा’, ‘गुण्डा’, ‘सालवती’, इन्द्रजाल’, इनकी उल्लेखनीय कहानियाँ हैं।
निबंध:-
इस युग के सबसे प्रमुख निबंधकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं। इनके निबंध ‘चिन्तामणि’ के दो खण्डों में संकलित हैं। प्रथम भाग में तीन प्रकार के निबंध हैं मनोविकार विषयक, साहित्य सिद्धांत विषयक और साहित्यालोचन विषयक।
मनोविकार संबंधी निबंधों में आचार्य जी ने अत्यंत गंभीर मुद्रा में उत्साह, श्रद्धवा, भक्ति, करुणा, लज्जा, ग्लानि, लोभ, प्रीति, ईष्या, भय आदि भावों का विश्लेषण किया है। शुक्लजी का विशद पाण्डित्य, प्रौढ़ चिन्तन, सूक्ष्म विश्लेषण, व्यापक अनुभव सब कुछ अपने उत्कर्ष पर पहुँचा दिखाई देता है। इनके निबंधों में प्रांजल साहित्यिक भाषा का प्रयोग द्रष्टव्य है।
समालोचना:-
इस काल में समालोचना का साहित्य एक नवीन कलेवर ग्रहण करता है। इस काल के समालोचना साहित्य का परिष्कार और परिमार्जन करने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी को ही जाता है। इनकी पहली सैद्धांतिक आलोचना कृति ‘काव्य में रहस्थवाद‘ इसी युग में प्रकाशित हुई।
शुक्ल जी ने भारतीय और पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का गंभीर अध्ययन किया। उन्होंने हिंदी में पहली बार अपने ग्रंथ ‘रस-मीमांसा’ में “रस-विवेचन” को मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान किया। इस काल में सैद्धांतिक आलोचकों में लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’ भी उल्लेखनीय हैं। ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ उनका आलोचना ग्रंथ है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने भी ‘आलोचनादर्श’ और ‘साहित्य समालोचना समालोचनाएँ लिखीं।
छायावाद का निष्कर्ष :
छायावाद मुलत: मूल्य केद्रित काव्य माना जाता है और इसका केंद्रीय मूल्य स्वातंत्र्य है। मुक्ति की कामना इस युग के कवियों में व्यापक स्तर पर अनेक रूपों में व्यक्त हुई है। इन कवियों ने वस्तु वर्णन के स्थान पर अनुभूति को महत्त्व दिया।
वस्तु वर्णन के स्थान पर अनुभूति को महत्त्व देना हिंदी कविता को छायावाद की महत्त्वपूर्ण देन है। छायावादी काव्य में प्रेम को उसके मध्ययुगीन अनुषंगों से मुक्त कर उसे रागात्मक और अशरीरी पावनता से युक्त करने का प्रयास किया गया।
छायावादी कवियों ने प्रकृते को भी एक नई नजर से देखा। उन्होंने प्रकृति की अवधारणा एक विराट सत्ता के रूप में की।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल :-
छायावादी का अर्थ क्या होता है?
छायावाद हिंदी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग ई.स.1918 से 1936 तक की प्रमुख युगवाणी रही।
छायावाद के जनक कौन है?
छायावाद के जनक जयशंकर प्रसाद जी को माना जाता है।
छायावाद की पहली रचना कौन सी है?
छायावाद के प्रथम रचना प्रशाद जी के झरना को माना जाता है।
अंतिम कुछ शब्द :-
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Wikipedia Page :- छायावाद युग
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