द्विवेदी युग की सम्पूर्ण जानकारी (Dwivedi Yug Ki Sampoorn Jaankaari):-

द्विवेदी युग की सम्पूर्ण जानकारी (Dwivedi Yug Ki Sampoorn Jaankaari):-

द्विवेदी युग का नामकरण आचार्य महाबीर प्रशाद द्विवेदी के नाम के अनुसार किया गया है, क्योंकि इस काल मैं उनके साहित्यिक अबदानों के साथ साथ नेतृत्व का भी बोहोत बड़ा भूमिका रहा था।

खास कर भारतेंदु के बाद “सरस्वती” पत्रिका के माध्यम से हिन्दी साहित्य के रचनाओं के नबजागरण का प्रयश उनके द्वारा प्रमुख कार्य राहा था। इस पोस्ट मैं हम द्विवेदी युग के बारे मैं बिस्तार से आलोचना करेंगे।

द्विवेदी युग:-

एक दृष्टि से द्विवेदी युग, भारतेंद् युग का विस्तार ही है। हम यह भी कह सकते हैं कि आधूनिक काल में हिंदी साहित्य ने भारतेंदू युग में पहला चरण रखा और द्विवेदी युग में उसने दूसरा चरण रखा । शायद
इसीलिए डॉ. बच्पन सिंह ने1857 ई. से 1920 के काल को एक ही काल माना है-‘नवजागरण युग’

लेकिन उन्होंने इससे पूर्व प्रकाशित अपने “आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास” में भारतेंदु युग और द्विवेदी युग को अलग-अलग माना है। किन्तु उनके अतिरिक्त प्राय: अन्य सभी हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने इन दोनों युगों को न केवल अलग-अलग माना है अपितु भारतेंदु युग और द्विवेदी युग नामों को भी स्वीकार कर लिया है।

यही उचित भी है क्योंकि भारतेंदु युग और द्विवेदी युग में यदि समानताएँ हैं तो ऐसी असमानताएँ भी हैं जो उनके बीच स्पष्ट विभाजक रेखाएँ खींचती हैं।

इसके बाद अगर बिचार किया जाए तो भारतेंद् युग में कोई एक ऐसी साहित्यिक पत्रिका नहीं थी, जिसने पूरे युग को लगभग पूर्णतः नियंत्रित किया हो पर द्विवेदी जी का व्यक्तित्व भी वैसा स्वच्छंद नहीं था जैसा भारतेंदु का था। इसीलिए जो स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियाँ भारतेंदु युग में जन्मीं थीं, वे द्विवेदी युग में प्रमुख रूप से दबी-सी ही रहीं। इसीलिए ‘सरस्वती‘ पत्रिका के प्रकाशन-वर्ष से इस यूग का प्रारंभ माना जाता है।

स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों के उभार का पहला प्रमाण जयशंकर प्रसाद के“झरना” की कविताओं में मिला। इसलिए इस के प्रकाशन वर्ष को द्विवेदी युग की अंतिम सीमा माना जाता है। भारतेंदू युग से द्विवेदी युग को अलग करने वाले कुछ और बिंदु भी हैं।

भारतेंदु युग संक्राति के काल था और ये पक्ष- विपक्ष परस्पर उलझे हुए थे। द्विवेदी युग में आकर संक्रमण की स्थिति लगभग समाप्त हो जाती है। भारतेंदु युग के उलझे हुए प्रश्नों का इस युग में आकर समाधान हो जाता है।

इस युग में खड़ीबोली को गद्य की भाषा के साथ-साथ पद्य या कविता की भाषा के रूप में भी स्वीकार कर लिया जाता है। इस यूग में एक और विशेष बात हुई है, वह यह कि भारतेंदु युग के मध्य-वर्ग की अपेक्षा द्विवेदी युग के मध्य-वर्ग में आभिजात्य की भावना बहुत प्रबल हो गई।

वह अपने को जन सामान्य से बहुत ऊपर समझने लगा और उसमें यह भाव आ गया कि वह जन-सामान्य को शिक्षा दे सकता है। फलत: उसके लेखन और व्यक्तित्व, दोनों में भारतेंद् युग जैसी अनऔपकचारिता और आत्मीयता नहीं रह गई। इसलिए द्विवेदी युग को भारतेंदु युग से अलग मानना ही उचित होगा।

द्विवेदी युग और स्वाधीनता संग्राम:-

इस युग को जागरण-सुधार-काल भी कहते हैं। 1858 के विद्रोह के पश्चात् महारानी विक्टोरिया के सहृदयतापूर्ण घोषणा-पत्र ने भारतीयों में कुछ आशा जगाई थी किन्तु बाद में वे आशाएँ खरी नहीं उतरीं। फलस्वरूप जनता में असंतोष और क्षोभ की आग भड़कती चली गई। आर्थिक दुष्टि से भी अंग्रेजों की नीति भारत के लिए अहितकर ही थी।

यहाँ से कच्चा माल बाहर जाता था और वहाँ के बने माल की खपत भारत में होती थी। देश का धन निरन्तर बाहर जाने से भारत निर्धन होने लग गया था। जिस कारण से असंतोष फैला और पूरे भारत में आंदोलन होने लगे।

देश को गोपालचन्द्र गोखले तथा बालगंगाधर तिलक जैसे नेता मिले। भारतेन्दु युग में जहाँ भारत की दुर्दशा का दुःख प्रकट करके चुप रह गए वहाँ द्विवेदीकालीन कवि-मनीषियों ने देश की दर्दशा के चित्रण के साथ- साथ देशवासियों को स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रेरणा भी दी।

सरस्वती पत्रिका की भूमिका:-

जिस तरह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीसर्वी शताब्दी के प्रथम दो दशकों के साहित्य को अनुशासित और निर्देशित किया वैसा न उनसे पहले और न ही उनके बाद कोई एक व्यक्ति कर सका। वे सच्चे अर्थों में युग-निर्माता थे।

और यह कार्य उन्होंने किया “सरस्वती” के माध्यम से ही मुख्य रूप से संभब हो पाया था। इस पत्रिका का पहला अंक जनवरी, 1900 ई. में प्रकाशित हुआ। पहले वर्ष में इसके सम्पादक थे – श्यामसुंदरदास, कार्तिक प्रसाद खत्री, राधाकृष्णदास, जगन्नायदास रत्नाकर और किशोरीलाल गोस्वामी।

अगले वर्ष अर्थात् 1901 ई. में केवल श्यामसुंदरदास इसके सम्पादक रह गए। जनवरी, 1903 ई. में द्विवेदी जी ने सरस्वती’ का सम्पादन संभाला और 1920 ई. तक, बीच के दो वर्ष छोड़कर, वे इसका सम्पादन करते रहे ।

उनके सम्पादन काल में इसमें जो भी रचनाएँ प्रकाशित हुई, द्विवेदी जी ने न केवल उनकी भाषा को सूधारा, अपितु उनके भावों और विचारों को भी नियंत्रित किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा का संस्कार शुरू किया।

द्विवेदी जी ने काव्य रचना के क्षेत्र में काव्य भाषा को परिमार्जित एवं स्थिर रूप देने के लिए कार्य किया। एक समर्थ आलोचक की भाँति उन्होंने विभिन्न रचनाकारों की रचना को सुधारा। भाषा को सजाने-संवारने का कार्य उन्होंने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से ही किया। गद्य और पद्य की एक भाषा के लिए द्विवेदी जी ने अथक परिश्रम किया।

उनकी लगन से ही खड़ी बोली का परिमाज्जित रूप उभर कर सामने आया और पद्य और गद्य की भिन्न भाषा का झगड़ा दूर हो गया। मुख्य रूप से उन्होंने भाषा को प्रसाद गुण से युक्त, व्याकरण संबंधी अशुद्धियों से दूर, अभिव्यंजना शक्ति से पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया। रचनाकारों को उन्होंने, शब्दाडम्बर के साथ-साथ अप्लील और ग्राम्य शब्द प्रयोग से बचने का भी सुझाव दिया।

उन्होंने लेखकों को देशज शब्द के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित किया। मुहावरों का प्रयोग तथा स्वाभाविक अलंकारों के प्रयोग के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार एक कठोर शासक के समान उन्होंने भाषा के क्षेत्र में लेखकों को नियंत्रित किया। यह नियंत्रण उन्होंने सम्पादक होने से पहले ही प्रारंभ कर दिया था।

1901 ई. में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित अपने कवि-कर्त्य’ शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा था –

“कविता का विषय मनोरंजन एवं उपदेशात्मक होना चाहिए। यमुना के किनारे केलि-कौतूहल का अद्भुत-अद्भुत वर्णन बहुत हो चुका। न परकीयाओं पर प्रबंध लिखने की अब आवश्यकता है और न स्वकीयाओं के ‘गतागत’ की पहेली बुझाने की। चींटी से लेकर हाथी पर्यन्त जीव, भिक्षु से लेकर राजा पर्यन्त मनुष्य, बिंद्र से लेकर समुद्र पर्यन्त जल, अनंत आकाश, अनंत पृथ्वी, अनंत पर्वत-सभी पर कविता हो सकती है, सभी से उपदेश मिल सकता है और सभी के वर्णन से मनोरंजन हो सकता है। यदि मेघनादवध’ अथवा ‘यशवंतराव महाकाब्य’ वे नहीं लिख सकते तो उनको ईश्वर की निस्सीम सृष्टि में से छोटे-छोटे सजीव अथवा निर्जीव पदार्थों को चुनकर उन्हीं पर छोटी-छोटी कविताएँ करनी चाहिए।”


द्विवेदी जी के इस निर्देश का पालन उनके युग के कवियों ने यह किया था, यह उनकी रचनाओं से स्पष्ट है। द्विवेदी जी ने इस पत्रिका में ऐसे लेखों को प्रकाशित किया जिन्होंने नवजागरण की लहर को प्रसारित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।

आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी से प्रेरणा लेकर तथा उनके आदर्शों को लेकर आगे बढ़ने वाले अनेक कवि सामने आए जिनमें प्रमुख हैं- मैथिलीशरण गुप्त, गोपालशरण सिंह, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ और लोचनप्रसाद पांडेय, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध’, श्रीधर पाठक, नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ तथा राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ आदि। इन सभी कवियों की कविताएँ नवजागरण, राष्ट्रीयता, स्वदेशानुराग एवं स्वदेशी भावना से परिपूर्ण हैं।

द्विवेदी युग में केवल भाषा क्षेत्र में ही परिवर्तन नहीं हुआ अपितु छंदों के क्षेत्र में भी परिवर्तन परिलक्षित है। अब परंपरागत छंद प्रयोग के साथ-साथ संस्कृत के वर्णवृत्तों का प्रयोग भी कविगण प्रच्रता से करने लगे । ‘सरस्वती’ पत्रिका ने कवियों की एक नई पौध तैयार की।

उनकी प्रेरणा से अनेक कवियों ने नवीन विषयों पर कविता लिखी। उनके एक निबंध से प्रेरित होकर मैथिलीशरण गुप्त ने चिर उपेक्षिता उर्मिला को महत्त्व देने हेतु ‘साकेत’ नामक महाकाव्य की रचना की। उन्होंने महावीरप्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा को निम्न पंक्तियों में स्वीकार करते हुए अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की है-

करते तुलसीदास भी कैसे मानस नाद?
महावीर का यदि नहीं मिलता उन्हें प्रसाद।।

खड़ी बोली को परिमार्जत करने, संस्कारित करने तथा व्याकरणिक शुद्धता प्रदान करने में ‘सरस्वती’ पत्रिका का अविस्मरणीय योगदान है।

आचार्य द्विवेदी के भाषा परिष्कार पर टिप्पणी करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है-

“खड़ी बोली के पद्य विधान पर द्विवेदी जी का पूरा-पूरा असर पड़ा। बहुत से कवियों की भाषा शिथिल और अव्यवस्थित होती थी। द्विवेदी जी ऐसे कवियों की भेजी हुई कविताओं की भाषा आदि दुरुस्त करके ‘सरस्वती’ में छापा करते थे। इस प्रकार कवियों की भाषा साफ होती गई और द्विवेदी जी के अनुकरण में अन्य लेखक भी शुद्ध भाषा लिखने लगे। “

द्विवेदी युग की विशेषताएं:

राष्ट्रीयता:-

भारत में बढ़ती हुई राजनैतिक चेतना और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के कारण राष्ट्रीयता द्विवेदी युग के साहित्य की प्रधान भावधारा थी। देशभक्ति और देशप्रेम के ऊपर कई कविताओं की रचना इस युग में की गई है जिसमे मुख्यतः भारत के अतीत पर गर्व और वर्तमान स्थिति पर दुख प्रकट किया गया।

स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने और विदेशी वस्तुओं कॊ त्यागने का आग्रह किया गया। देशबासियों को उत्साहित किया गया है आंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ने के लिए।

मानबता के गुण:-

रीतिकाल का साहित्य मुख्य रूप से ईश्वर, राजा, सामंत, योध्याओं या नायिकाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया था। किन्तु द्विवेदी युग के साहित्य में सामान्य मनुष्य को साहित्य में स्थान मिला। आम लोगों के सुख-दुख और परिस्थितियों का वर्णन काव्य में सहज भाव से किया गया।

मैथिली शरण गुप्त की ’किसान’, सियारामशरण की ’अनाथ’ और सनेही की ’कृषक क्रंदन’ इसीप्रकार की कविताओं का प्रमुख उदाहरण है।

नैतिकता और आदर्श के भाब:-

द्विवेदी युग का काव्य आदर्शवादी और नीतिपरक है। काव्य में मुख्य रूप से असत्य पर सत्य की विजय दिखलाई गई है। स्वार्थ-त्याग, कर्तव्यपालन, आत्मगौरव आदि ऊँचे आदर्शों की प्रेरण दी गई है। मैथिलीशरण गुप्त का “साकेत”, हरिऔध का “प्रियप्रवास” आदि ऐसी ही रचनाएँ हैं। आदर्शों को प्रस्तुत करने के लिए इतिहास-पुराण से कहानियों को लिया गया है।

वर्ण्य विषय का विस्तार:-

द्विवेदी युग के साहित्य में वर्ण्य विषय का अधिक विस्तार हुआ। जीवन के सभी दृश्यों और चीज़ों पर साहित्य लिखा गया। मेहंदी, मुरली, साधु, बालक, निद्रा, मानव, कामना, विद्यार्थी, दरिद्र जैसे अनेक विषयों पर कविताएँ लिखी गई हैं। नए भासाओं खास कर खड़ी बोली भाषा का उपयोग इन सब प्रयासों को और भी आगे ली जाते है।

हास्य-व्यंग्य काव्य:-

द्विवेदी युग में हास्य-व्यंग्य काव्य के माध्यम से सामाजिक और धार्मिक बुराइयों की निंदा की गई है। साथ ही अपनी संस्कृति छोड़कर विदेशी पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने वालों पर व्यंग्य किया गया है।

उदाहरण के लिए कृष्ण को पाश्चात्य वेषभूषा पहनने का आग्रह कर विदेशियों की नकल करने वाले भारतीयों का मज़ाक उड़ाया गया है भड़क भुला दो भूतकाल की, सजिए वर्तमान के साज। फेसन फेर इंडिया भर के, गॉड बनो ब्रजराज॥

काव्यरूप:-

द्विवेदी युग के साहित्य के सभी काव्यरूपों का इस्तेमाल हुआ है जैसे प्रबंध, मुक्तक, प्रगीत और प्रभृति। हिन्दी के कई प्रसिद्ध महाकाव्य भी इसी युग में लिखे गए जैसे साकेत (मैथिली शरण गुप्त), प्रियप्रवास (हरिऔध) आदि। कई प्रसिद्ध खंडकाव्य भी इसी युग मे लिखे गए जैसे रंग में भंग (गुप्त), प्रेमपथिक (जयशंकर प्रसाद) आदि।

भाषा:-

द्विवेदी युग में खड़ी बोली हिन्दी ने ब्रजभाषा का स्थान ले लिया। इस काल के साहित्य ने खड़ी बोली को भाषा-सौन्दर्य, मार्दव (कोमलता) और अभिव्यंजना क्षमता (विचारों या भावों को शब्दों या संकेतों द्वारा ठीक तरह से तथा स्पष्ट रूप से प्रकट करने की क्रिया) के रूप में समृद्ध बनाया।

द्विवेदी युग की गद्य साहित्य:-

नाटक:-

नाटक भारतेंदू युग में एक केंद्रीय विधा थी, द्विवेदी युग में वह निर्जीव हो गई। जैसी सक्रियता, सजीवता और नाट्य-चेतना हमें भारतेंदु युग में दिखाई देती है वैसी द्विवेदी युग में नहीं। इसका एक कारण तो पारसी थियेट्रीकल कम्पनियों की सक्रियता है।

इन कम्पनियों का मुख्य उद्देश्य दर्शकों का मनोरेंजन करके धनार्जन करना था। इन कम्पनियों का 1853 ई. में अव्यावसायिक स्तर पर और 1867-69 ई. में व्यावसापिक स्तर पर प्रारंभ हो गया था। इन कम्पनियों को नाटकों की साहिति्यिकता, युगीन प्रासंगिकता और कलात्मकता से कछ लेना-देना नहीं था।

इन कम्पनियों के लिए और पारसी रंगमंच से प्रभावित होकर नाटक लिखने वालों में नारायणप्रसाद बेताब’, रघुनन्दन प्रसाद शुक्ल, हरिकृष्ण जौहर’, राधेश्पाम कथावाचक आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

इन नाटककारों के अतिरिक्त द्विवेदी युग में लगभग तीस नाटककार ऐसे हैं जिन्होंने साहित्यिक’ नाटक लिखे हैं। इन नाटककारों में से बद्रीनाथ भट्ट के ऐतिहासिक नाटक “दुर्गावती” और उनके प्रहसनों,
को विशेष लोकप्रियता प्राप्त हुई।

शिवनाथ शर्मा, गंगा प्रसाद श्रीवास्तव, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक, प्रेमचन्द आदि ने भी नाटक लिखे। पर वे इतने फलप्रद नही रहे, और इसका कारण पारसी रंगमंच को छोड़कर किसी गंभीर रंगरमंच का अभाव होना था।

दूसरे, इस युग के साहित्यिक नेता महावीर प्रसार द्विवेदी की नाटक में कोई रुचि नहीं थी। नाटक विधा में उन्नति उस समय हुई जब जयशंकर प्रसाद ने इस क्षेत्र में लेखन किया। उन्होंने उत्कृष्ट साहित्यिक नाटकों की रचना की।

उपन्यास:-

इस काल में उपन्यास नाटक की अपेक्षा अधिक लिखे गए। इस काल के लेखकों और पाठकों की प्रवृत्ति कुतूहल, रहस्य और रोमांच के माध्यम से मनोरंजन करने में अधिक रही है। सामाजिक जीवन की यथार्थ समस्याओं को लेकर गम्भीर उपन्यासों की रचना इस युग में कम हुई।

इस युग में तिलस्मी -ऐयारी, जासूसी, अदभुत घटनाप्रधान, ऐतिहासिक एवं सामाजिक उपन्यास अधिक लिखे गए।

तिलस्मी-ऐयारी उपन्यासों की परंपरा देवकीनन्दन खत्री द्वारा भारतेन्दु युग में आरंभ की गई जो द्विवेदी युग में भी जीवित रही। खत्री जी के ‘काजर की कोठरी’, अनूठी बेगम ‘गुप्त गोदना’, ‘भूतनाथ’ – प्रथम छह भाग आदि उपन्यास प्रकाशित हुए। आगे चलकर देवकीनन्दन खत्री के सुपुत्र दुर्गाप्रसाद खत्री ने ‘भूतनाथ’ के शेष भागों को लिखकर इस परंपरा को आगे बढ़ाया।

जासूसी उपन्यासों का प्रवर्तन गोपालराम गहमरी ने किया। गहमरी जी अंग्रेजी के प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार आर्थर कानन डायल से प्रभावित थे।

आर्थर के उपन्यास ‘ए स्टडी इन स्कारलेट’ का इन्होंने ‘गोविन्दराम’ नाम से अनुवाद किया। ‘सरकटी लाश’ , ‘चक्करदार चोरी , ‘जासूस की भूल, ‘जासूस पर जासूसी, ‘जासूस चक्कर में , ‘इन्द्रजालिक जासूस ‘गुप्त भेद’, ‘जासूस की ऐयारी’ आदि उनके प्रसिद्ध जासूसी उपन्यास हैं।

कहानी:-

हिंदी में कहानी का जन्म द्विवेदीयुग में ही हुआ। हिंदी साहित्य के विभिन्न इतिहासकारों ने हिंदी की पहली कहानी के रूप में जिन कहानियों की चर्चा की है वे हैं किशोरीलाल गोस्वामी की इन्दुमती’ (1900 ई. ), माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ (1901 ई.), रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय”, और “बंगमहिला की दुलाईवाली”


द्विवेदी युग का पहला दशक हिंदी कहानी में प्रयोग का दशक है। इस दशक में पहली कहानी की रचना करने वाला कोई लेखक कहानीकार के रूप में विकसित नहीं हुआ। किंतु इसी दशक में वृंदावनलाल वर्मा की तीन कहानियाँ –“राखीबंद भाई”, “तातार” और “एक वीर राजपूत” प्रकाशित हुई और वर्मा जी हिंदी के श्रेष्ठ कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखा था –“यदि ‘इन्दुमती” किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो यही हिंदी की पहली मौलिक कहानी ठहरती हैं। बाद के अनुसंधानों से यह सिद्ध हो गया कि इन्दुमती’ किसी बंगला कहानी की छाया तो नहीं है,

किंतु शेक्सपीयर के नाटक “द टेम्पेस्ट” का भारतीयकरण के साथ हिंदी रूपांतर अवश्य है । वह मौलिक कहानी नहीं है और इसीलिए हिंदी की पहली कहानी के रूप में अमान्य है।

द्विवेदी युग के दूसरे दशक में आगे कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित होने वाले कई कहानीकारों की पहली- पहली कहानियाँ प्रकाशित हुई।

प्रसाद जी की ‘ग्राम‘, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की सुखमय जीवन’, बूद्ध का कांटा’, और ‘उसने कहा था‘, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की कानों में कॅंगना‘, आचार्य चतुरसेन शास्त्री की गृह लक्ष्मी’, प्रेमचंद की सौत‘ और पंच परमेश्वर’ कहानियाँ 1910 ई. और 1916 ई. के बीच प्रकाशित हुई।

इनके अतिरिक्त जी.पी. श्रीवास्तव, शिवपूजन सहाय, विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक’, रायकृष्णदास, सुदर्शन इत्यदि की प्रांरंभिक कहानियाँ भी इसी दशक में प्रकाशित हुई। इस प्रकार, बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में हिंदी कहानी की पुख्ता नींव पड़ी और ये धीरे धीरे विकास के दिशा में अग्रसर हुई।

प्रेमचंद और प्रसाद इसी दशक में कहानीकार के रूप में उभरकर सामने आए, जिन्होंने हिंदी कहानी को दो विशिष्ट शैलियाँ प्रदान कीं जिनके आधार पर इनके समकालीन और परव्ती कहानियों को प्रेमचन्द स्कूल और प्रसाद स्कूल के कहानीकारेों के रूप में वर्गीकृत किया जाने लगा।

निबंध:-

भारतेंदु युग में पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से निबन्ध-साहित्य की पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी। इस युग के निबंध लेखकों में महावीरप्रसाद द्विवेदी, गोविन्दनारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, माधवप्रसाद मिश्र, मिश्रबन्धु (श्यामबिहारी मिश्र और शुकदेवबिहारी मिश्र), सरदार पूर्णसिंह, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी, श्याम सुन्दरदास, पद्मसिंह शर्मा, रामचन्द्र शुक्ल, कृष्णबिहारी मिश्र आदि उल्लेखनीय हैं।

महावीर प्रसाद द्विवेदी के निबंध परिचयात्मक या आलोचनात्मक टिप्पणियों के रूप में हैं। उनका ‘म्युनिसिपैलिटी कारनामे‘ निबंध व्यंग्य शैली में लिखा है।

‘आत्मनिवेदन, ‘प्रभात’, ‘सुतापराधे जनकस्य दण्ड’ आदि इनके अन्य चर्चित निबंध हैं। गोविन्दनारायण मिश्र अपनी पाण्डत्यपूर्ण, संस्कृतनिष्ठ, तत्समप्रधान समासबहुला, दीर्घ वाक्य-विन्यासपूर्ण गद्य-शैली के लिए जाने जाते हैं।

बालमुकुन्द गुप्त हिंदी साहित्य में ‘शिवशम्भु का चिद्वा के लिए जाने जाते हैं। ये चिट्ठे ‘भारतमित्र‘ पत्रिका में प्रकाशित हुए। माधवप्रसाद मिश्र के निबंध ‘सुदर्शन में प्रकाशित हुए। इनके निबंध ‘पुष्पांजलि’ में संकलित हैं।

आलोचना:-

हिदी में जिस आलोचना का सूत्रपात भारतेंदु युग में हुआ, द्विवदी युग में उसका विकास हुआ। इस युग में आलोचना का भी विकास हुआ। जगन्नाथप्रसाद ‘भानु ने ‘काव्य प्रभाकर’ तथा ‘छंद सारावली’ और लाला भगवानदीन ने ‘अलंकार मंजूषा’ नामक आलोचना लिखी।

तुलनात्मक आलोचना का आरंभ 1907 ई. में पदमसिंह शर्मा ने बिहारी और सादी की तुलना द्वारा किया। इसी कड़ी में मिश्रबन्धुओं का ‘हिन्दी नवरत्न’ प्रकाशित हुआ। आगे चलकर लाला भगवानदीन और कृष्णबिहारी मिश्र ने बिहारी और देव पर आलोचना लिखी।

अन्वेषण और अनुसन्धानपरक आलोचना का विकास ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ के प्रकाशन से हुआ।

इस युग में जीवनी लेखन भी पर्याप्त हुआ । यह युग राष्ट्रीय चेतना का युग था। आजादी की आग जनसाधरणों के बीच जगाने के लिए इस युग में महापुरुषों के जीवन पर आधारित जीवनियों लिखी गई।
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने ‘प्राचीन पंडित और कवि’, ‘संकवि संकीर्तन’, ‘चरित चर्चा‘ आदि जीवनी संग्रह लिखे।

इस युग में आर्य समाज तथा अन्य महापुरुषों से संबंधित, राष्ट्रीय महापुरुषों से संबंधित, ऐतिहासिक महापुरुषों से संबंधित, विदेश के महापुरुषों से संबंधित तथा महिलाओं से संबंधित जीवनियँ प्रचुर मात्रा में लिखी गई।

रामविलास सारदा ने ‘आर्य धर्मन्दु जीवन महर्षि, चिम्मनलाल वैश्य ने ‘दयानन्द चरितामृत’ और अखिलानन्द शर्मा ने ‘दयानन्द दिग्विजय‘ नामक जीवनी लिखी।

यात्रावृत्त:-

यात्रायृत्त के विकास की दृष्टि से भी आलोच्य युग महत्त्पूर्ण है। इस युग की आलोचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हुई। स्वामी मंगलानन्द ने ‘मारीशस- यात्रा’, श्रीधर पाठक ने ‘देहरादून – शिमला-यात्रा, उमा नेहरू ने ‘युद्ध-क्षेत्र की सैर’ और लोचनप्रसाद पाण्डेय ने ‘हमारी यात्रा” यात्रावृत्तांत लिखे ।

पुस्तकाकार रूप में गोपालराम गहमरी ने ‘लंका-यात्रा का विवरण, ठाक्र गदाधर सिंह ने ‘चीन में तेरह मास’, ‘हमारी एडवर्ड तिलक यात्रा’ नामक यात्रावृत्तांत लिखे।

संस्मरण:-

इस युग में ‘सरस्वती’ पत्रिका में कुछ संस्मरण भी समय -समय पर छपे, जिनमें महावीर प्रसाद द्विवेदी के ‘अनुमोदन का अन्त’, ‘सभा की सभ्यता’, ‘विज्ञानाचार्य बसु् का विज्ञान मन्दिर’ , रामकुमार खेमका ‘इधर-उधर की बातें , प्यारेलाल मिश्र ‘लन्दन का फाग या कुहरा’ प्रमुख हैं। पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित संस्मरण-साहित्य की दृष्टि से ‘हरिऔध जी के संस्मरण’ ही इस युग की उल्लेखनीय कृति है।

द्विवेदी युगीन कविता:-

इस युग में गद्य साहित्य की उपर्युक्त विधाओं के विकास के बावजूद केंद्र में कविता ही है। भारतेंदु युग में कविता की माध्यम भाषा को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ था। यह विवाद एक सीमा तक इस काल में भी बना हुआ है।

1909 ई. में ‘कविता-कलाप’ की भूमिका में द्विवेदी जी ने यह आशा व्यक्त की थी कि बहुत संभव है कि किसी समय हिंदी गद्य और पद्य की भाषा एक ही हो जाये।

उनकी यह आशा जल्दी ही पूर्ण हो गयी। बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में ही कविता की भाषा के रूप में ब्रजभाषा पिछड़ रही थी, इसकी प्रमाण यह है कि इस दशक में ब्रजभाषा की केवल आठ काव्य-पुस्तकें प्रकाशित हुई, जब कि खड़ी बोली की सत्तरह। फिर भी द्विवेदी-यूग में ब्रजभाषा में लिखी गयी कविता अपना अस्तित्व और महत्व बनाये रही।

ब्रजभाषी कविता:-

इस युग में श्रीधर पाठक, रायदेवीप्रसाद पूर्ण’, नाथूराम शंकर शर्मा, गया प्रसाद शुक्ल, ‘सनेही’, लाला भगवानदीन, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, अयोध्यासिंह उपाध्याय, हरदयालू सिंह सत्यनारायण कविरत्न आदि ऐसे कवि हैं, जो ब्रजभाषा में कविता लिखते रहे।

इनमें से रत्नाकर, कविरत्न और हरदयालु सिंह को छोड़ कर शेष सभी कवि ‘दोरंगी कवि थे, जो ब्रजभाषा में तो शृरंगार, वीर, भक्ति आदि की पुरानी परिपाटी की कविता कवित्त-सवैया या गेय पदों में करते आते थे और खड़ी बोली में नूतन विषयों को लैकर चलते थे।

इनमें से ब्रजभाषा के प्रति एकान्त समर्पित जगन्नाथदास ‘रत्नाकर‘ और सत्यनारायण कविरत्न ने ब्रजभाषा-काव्य में वैशिष्ट्य प्राप्त किया।

खड़ीबोली भाषी काव्य:-

द्विवेदी युग की हिंदी कविता को सबसे बड़ी देन खड़ी बोली को कविता की माध्यम-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना है। खड़ी बोली में दोरंगी कवियों की कविताओं का महत्व अवश्य है, लेकिन उनसे अधिक महत्त्व उन कवियों की कविताओं का है जो इसी युग की उपज हैं और जिन्होंने खड़ी बोली में कविता लिरखी है।

ऐसे कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामनरेश त्रिपाठी, सियारामशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

द्विवेदी जी ने कविता के माध्यम से भी पथ- प्रदर्शक ही काम किया। उन्होंने अपने युग के कवियों को गद्य के माध्यम से ही नहीं, पद्य के माध्यम से भी नए विषयों को अपनाने की प्रणा दी।

फलतः हिंदी कविता से रीतिकालीन विषय -संकोच दूर हुआ और कवि तमाम नए विषयों पर कविता लिखने लगे। नए विषयों पर लिखी गई बहुत-सी कविता पद्य से आगे कम ही बढ़ सकी है। इस पद्य में उपदेशात्मकता, इतिवृत्तात्मक्ता, निबंधात्मक्ता और वक्तृत्व की प्रवृत्तियाँ प्रधान हैं।

निष्कर्ष:-

यह युग भारतेंदु युगीन प्रवृत्तियों का अधिक विकसित और वैविध्यपूर्ण रप है। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दो दशकों के स्वाधीनता आंदोलन ने इस युग के साहित्य को एक सीमा तक ही प्रभावित किया है। इसका कारण एक तो साहित्यकार का मध्यवगीय चरित्र है, और दूसरे सरस्वती और उसके सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का नियंत्रण और निर्देशन है।

एक पत्रिका और एक व्यक्तित ने पूरे युग को किस प्रकार और कितना नियंत्रित किया, इसका उदाहरण द्विवेदी युग के अतिरिक्त दूसरा नहीं है। इस युग के साहित्यिक आदर्श और जीवन-दृष्टि सामान्यत: द्विवेदी जी की देन है।

इस युग में जिन अनेक गद्य-रूपों का विकास हुआ है, उन पर द्विवेदी जी का प्रभाव तो है, लेकिन कविता की अपेक्षा कम, क्योंकि द्विवेदी जी की रुचि जितनी भाषा-निम्माण में थी, उतनी साहित्य निर्माण में नहीं।

साहित्य-निर्माण में भी उनकी जितनी रुचि कविता में थी उतनी गद्य-साहित्य में नहीं। संभवत: इसीलिए गद्य-साहित्य के विकास के बावजूद इस युग में केंद्र में कविता ही है। युग माँग और द्धिवेदी जी के प्रभाव के कारण इस काल में ब्रजभाषा की कविता पिछड़ी और खड़ी बोली की कविता प्रतिष्ठित हुई।

इस युग में अंतत: यह निर्णय हो गया कि खड़ी बोली न केवल गद्य का अपितु कविता का भी सशक्त माध्यम हो सकता है।

अकसार पूछे जाने वाले सवाल :-

द्विवेदी युग के प्रमुख कवि कौन है?

द्विवेदी युग के प्रमुख कवि द्विवेदी युग के प्रमुख कवि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिली शरण गुप्त, पं. रामचरित उपाध्याय, पं. लोचन प्रसाद पांडेय, राय देवी प्रसाद ‘पूर्ण’, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध’, श्रीधर पाठक, नाथूराम शर्मा आदि को माना जाता है।

द्विवेदी युग का प्रारंभ कब हुआ था?

आधुनिक हिन्दी साहित्य के दूसरे चरण (सन् 1903 से 1916) को द्विवेदी-युग के नाम से जाना जाता है। खास कर सन् 1903 में जब महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक के कार्यभार संभाला तब से इसस युग युग का प्रारंभ मानाजाता है, और 17 साल तक इन्होंने इस पत्रिका का संपादन किया।

द्विवेदी युग की प्रमुख विशेषताएं क्या है?

द्विवेदी युग मैं राष्ट्रीय प्रेम, सामाजिक चेतना,मानवीयता, नैतिकता बिचार के बोहोत सारे गुण देखने को मिलते है।

द्विवेदी युग का दूसरा नाम क्या है?

द्विवेदी युग को ‘जागरण-सुधार-काल‘ भी कहा जाता है।

द्विवेदीयुग का महाकाव्य कौन सा है?

प्रियप्रवास, वैदेही, बनवास, चौखे-चौपदे आदि द्विवेदी युग के महाकाव्य माने जाते है।

द्विवेदी युग के जनक कौन थे?

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864–1938) को इस युग के जनक माना जाता है और वे हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे।

अंतिम कुछ शब्द :-

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Wikipedia Page :- द्विवेदी युग

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