भारतेंदु युग की सम्पूर्ण जानकारी (Bhartendu Yug Ki Sampoorn Jaankaari)

भारतेंदु युग की सम्पूर्ण जानकारी (Bhartendu Yug Ki Sampoorn Jaankaari):-

भारतेंदु युग आधुनिक कालीन हिन्दी साहित्य का पहला चरण है। अब इसका सर्व स्वीकृत नाम ‘भारतेंदु युग’ है और यह नामकरण भारतेंदु हरिश्चन्द्र के नाम पर किया गया है। इस नामकरण में भारतेंदु के व्यक्तित्व एकवं इस कालखण्ड के साहित्य को उनकी देन की स्वीकृत निहित है। भारतेंदु का महत्व आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रायः सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में इस प्रसंग में लिखा है। “भारतेंदु हरिश्चन्द्र का प्रभाव भाषा और साहित्य दोनों पर बड़ा गहरा पड़ा। उन्होंने जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिभाषित करके उसे बहुत ही चलता, मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिन्दी साहित्य को नये मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया।

उनके भाषा-संस्कार की महत्ता को सब लोगों ने मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया और वर्तमान हिन्दी गद्य के प्रवर्तक माने गये। इससे भी बड़ा काम उन्होंने यह किया कि साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया और उसे वे शिक्षित जनता के साहचर्य में लाए।”

आरंभ:

भारतेंदु युग का प्रारम्भ कब से माना जाये, इस पर हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों में थोड़ा बहुत मतभेद है। आचार्य शुक्ल ने इसका प्रारम संवत् 1900 अर्थात् 1843 ई. से माना है । इसमें संवत् 1900 को सीधा रखने के अतिरिक्त और कोई तुक नहीं है।

इस युग को सर्वाधिक प्रभावित करने और हिन्दी साहित्य को आधुनिक बोध से जोड़ने वाले भारतेन्दु का जन्म 1850 ई. में हुआ था। इसलिए कुछ लोग इस पक्ष में हैं कि इसी वर्ष को भारतेंदु युग का प्रारम्भ-वर्ष माना जाये।

लेकिन यह मानना भी बहुत तर्कसम्मत नहीं प्रतीत होता, क्योंकि भारतेंदु ने जन्म लेते ही तो हिन्दी साहित्य को प्रभावित नहीं कर दिया। फिर, यदि हम उनके जन्म-वर्ष को इस साहित्यिक युग का प्रारमभ-वर्ष मानते हैं तो हमें उनके निधन-र्ष 1885 ई. को इस युग का अन्त-वर्ष मानना चाहिए। ऐसा किसी ने नहीं माना है।

इसलिए डॉ. बच्चनसिंह की यह बात समझ में आती है कि सन् 1857 को आधूनिक काल का प्रारम्भिक बिन्दु मानना चाहिए, क्योंकि हिन्दी भाषी क्षेत्र में ही नहीं, पूरे भारतवर्ष के इतिहास में यह वर्ष एक निर्णायक मोड़ उपस्थित करता है।

यह भारत के स्वाधीनता -संग्रम की शुरुआत का वर्ष है। भारतेंदु युग की अन्तिम सीमा 1900 . स्वीकार करना उचित होगा, क्योंकिे इस वर्ष नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के तत्वावधान में सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इस पत्रिका ने द्विवेदी युगीन हिन्दी के दिशा-निर्देशन में, उसके व्यक्तित्व-निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई।

नव जागरण और आधुनिक बोध:

भारतेंदु युग में अर्थात् उन्नीसवीं शती के अन्तिम चरण में पूरे देश में सांस्कृतिक जागरण की लहर दौड़ चुकी थी। सामन्तीय ढाँचा टूट चुका था। अंग्रेजी शिक्षा के विकास की गति चाहे जितनी धीमी रही हो और उसके उददेश्य चाहे जितने सीमित रहे हों, उसका व्यापक प्रभाव देश के शिक्षित समाज पर पड़ रहा था। भारत में राष्ट्रीय एवं सामाजिक सोच विकसित हो रही थी।

सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तन और सुधार की आवश्यकता थी। भारतेन्दु इसी प्रगतिशील चेतना के प्रतिनिधि थे। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से ठीक समय पर उचित नेतृत्व प्रदान किया और अपने निबन्धों, नाटकों तथा भाषणों में जागरण का संदेश दिया।

उनके सहयोगियों और समर्थकों ने उनके द्वारा प्रशस्त पथ पर चलकर हिंदी की जो सेवा की वह अविस्मरणीय है। भारतेन्दु कालीन साहित्य सांस्कृतिक जागरण का साहित्य है। इस युग में गद्य की लगभग सभी विधाओं नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, आलोचना अआदि सभी का विकास एवं लेखन हुआ।

खड़ीबोली गद्य का विकास :

भारतेंदु से पूर्व खड़ी बोली गद्य के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र इत्यादि के राजकाज और पत्रव्यवहार आदि में मिलने वाले उदाहरणों के अतिरिक्त पुस्तकों के रूप में रची गयी गद्य-रचनाएँ या तो दक्खिनी हिन्दी में मिलती है या ब्रज आदि विभाषाओं से प्रभावित खड़ी बोली में ।

दक्खिनी हिन्दी के पहले गद्य- लेखक ख्वाजा बन्देनवाज गैसूदराज ने पन्द्रहर्वीं शताब्दी के दूसरे दशक में सूफी सिद्धान्तों का परिचय देने के लिए मेहराजूल आशकीन’ की रचना की।

इसकी भाषा में अरबी तथा फारसी पन अधिक है। इनके बाद शाह मीराजी की मरकूबुल कलूब’, शाहबुरहानुदन की कलमतुल हकायत में भी सूफी सिद्धान्तों का विवेचन है। इनकी भाषा गेसूदराज की भाषा की अपेक्षा अधिक सहज, स्वाभाविक और सरल हिन्दी है।

अब्दुस्समद के तफसीरे बहानी में, मूहम्मद वली उल्ला कादरी के मारफत-उलसलूक में भाषा का झूुकाव अरबी-फारसी रहित हिन्दी की ओर है। वजही की रचना सबरस की भाषा में न केवल अधिक हिन्दी पन है बल्कि अत्यधिक परिष्कृति और स्पष्टता भी है। इसका गद्य अत्यन्त प्रवाहपूर्ण एवं सरस है । खड़ी बोली को गद्य के रूप में विकसित करने में इन रचनाओं का ऐतिहासिक महत्व है ।

दक्खिनी हिन्दी से भिन्न खड़ी बोली में उन्नीसवीं शती से पूर्व गिनीचुनी गद्य रचनाएँ मिलती है। इनमें सबसे पहले रचना अकबर के समकालीन गंग कवि रचित चन्द छन्द बरनन की महिमा मानी जाती है। इसमें खड़ी बोली के कतिपय अर्वाचीन प्रयोगों के कारण इसकी प्रामाणिकता पर सन्देह किया जाता है।

इसके बाद की गद्य-रचना जटमल -रचित ‘गोरा-बादल की कथा है, जिसकी खड़ी बोली मैं रचना राजस्थानीपन के लिए हुआ है । भक्तिकाल में इन रचनाओं के अतिरिक्त मिलने वाली गद्य- रचनाओं कतुबशत‘, ‘भोगुल पुराण’, गैणेश गौसठ’ में खड़ी बोली में राजस्थानी, ब्रजभाषा और पंजाबी का मिश्रण बहुत अधिक है।

इसके अलावा रीतिकाल में खड़ी बोली गद्य की अनेक मौलिक अनूदित रचनाएँ मिलती हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण रचना रामप्रसाद निरंजनी का ‘भाषा-योगवाशिष्ट‘ है।

फोर्ट बिलियम कॉलेज और खड़ी बोली गद्य का विकास :

1803 में फ़ोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता के हिंदी अध्यापक गिलक्राइस्ट ने हिंदी और उर्दू, दोनों में गद्य पुस्तकें तैयार कराई। यह कॉलेज ईस्ट इंडिया कंपनी के तरफ से उनके कर्मचारियों के बीच हिंदी भाषा तथा ज्ञान के प्रसार के लिए स्थापना की गई थी।

सदल मिश्र ने फोर्ट विलियम कॉलेज के तत्वावधान और अध्यापक गिलक्राइस्ट के आदेशानुसार दो पुस्तकों की रचना की – ‘चन्द्रावती अथवा नासिकेतोपाख्यान’ एवं रामचरित अथवा अध्यात्मरामायण’। इन्होंने व्यवहारोपयोगी गद्य लिखने का प्रयत्न किया लेकिन इन्हें भी अधिक सपफलता नहीं मिली। इनके गद्य में एक ओर ब्रजभाषा का प्रयोग है तो दूसरी ओर पूर्वीपन है।

इसके बाद लल्लूजी लाल ने प्रेमसागर नामक एक पुस्तक लिखा जो भी कुछ खास सफल न हो सका। न लल्लूजी लाल का गद्य साफ-सुथरा है, न सदल मिश्र का। इसीलिए आरगे के गद्य लेखकों के लिए इनका गद्य प्रैरक नहीं बन सका।

इससे यह भी सिद्ध होता है कि जब तक कोई लेखक स्वतः रचना करने के लिए प्रेरित न हो तब्ब तक राजकीय प्रेरणा उपयोगी नहीं होती। इसके बाद ये दोनो स्वाधीन गद्य लेखक के रूप मैं प्रतिष्ठित हुए।

इन दोनों के अलावा मुशी सदासुखलाल ‘नियाज़्’ के द्वारा लिखा गया सुखसागर और इंशाअल्ला खाँ के द्वारा रानी केतकी की कहानी लिखा गया पर ये भी कुछ ज्यादा सफल नहीं हो पाए।

भारतेंदु युग के पत्रकारिता और साहित्य:

खड़ी बोली हिन्दी गद्य और भारतेंदु युगीन साहित्य के विकास में उस काल के पत्र- पत्रिकाओं का बड़ा योगदान है। इस काल की सारी जागृति, सारी सुधारवादी चेतना और सारा साहित्य मुख्य रूप से पत्र – पत्रिका के माध्यम से ही सामने आया और जनसाधारण तक पहुँचा।

हिन्दी के पहले साप्ताहिक ‘उदंत मार्तड’ का प्रकाशन कलकत्ता से 30 मई 1826 ई. को प्रारम्भ हुआ और ग्राहकों के अभाव में 4 दिसम्बर 1827 ई. को बंद हो गया। इससे पहले राजा राममोहनराय ने बंगदूत’ का हिन्दी संस्करण भी निकाला था।

कलकत्ता से ही हिन्दी का पहला दैनिक समाचारपत्र श्यामसुंदर सेन ने जून 1854 ई. में ‘समाचार सुधावर्षण‘ के नाम से निकाला, जो कई वर्षों तक प्रकाशित होता रहा।

इन पत्रों में साहित्य का प्रकाशन नगण्य था, समाचारों का प्रकाशन ही मुख्य था। साहित्य का प्रकाशन तो मुख्पतः उन पत्र-पत्रिकाओं में हुआ, जिन्हें उस समय के साहित्यकारों ने निकाला। स्वयं भारतेन्दू हरिश्चन्द्र ने कविवचन-सुधा’ और हरिश्चन्द्र मैगजीन’ का प्रकाशन किया ।

उनके अतिरिक्त प्रतापनारायण मिश्र ने ब्राह्मण’ लाला श्रीनिवासदास ने सदादर्श’, तोताराम ने ‘भारतबन्धु’ कन्हैयालाल ने मित्रविलास’ देवकीनन्दन तिवारी ने प्रयाग समाचार’, बदरीनारायण प्रेमघन’ ने ‘आनन्दकादम्बिनी’, अम्बिकादत्त व्यास ने पीयूष प्रवाह’, बालकृष्ण भट्ट ने हिन्दी प्रदीप’, किशोरीलाल गोस्वामी ने उपन्यास’ गोपालराम गहमरी ने जासूस’ और गुप्त कथा’ आदि पत्र निकाले ।

राष्ट्रीय – सांस्किृतिक चेतना जगाने, रूढ़ियों और अन्धविश्वास से मुक्त करके समाज सुधारने और भारत के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के अतिरिक्त इनका उद्देश्य यथा हिन्दी भाषा का प्रचार करना व हिन्दी लिखने वालों की संख्या-वृद्धि करना भी था।

भारतेंदु युग का अधिकांश साहित्य पहले पहल इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आया और हिन्दी भाषा का परिमार्जन हुआ ।

भारतेंदु युग के बिभिन्न गद्य साहित्य:

नाट्य साहित्य :

इसके पश्चात् भारतेन्दु के पिता गोपालचन्द्र गिरिधरदास ने ‘नहुष (1857) नाटक लिखा किन्तु वह ब्रजभाषा में लिखा गया। गणेश कवि ने प्रद्युम्न विजय’ नाटक लिखा जो पद्यबद्ध है तथा संस्कृत नाटक का अनुवाद था। शीतलाप्रसाद त्रिपाठी ने ‘जानकी मंगल नाटक लिखा इसकी भाषा परिमार्जित खड़ीबोली थी।

इसके बाद भारतेन्द्र अपने युग के श्रेष्ठ नाटककार थे। उन्होंने अनुदित और मौलिक नाटक लिखे। उन्होंने विद्यासुन्दर लिखा, जो संस्कृत ‘चौरपंचाशिका’ के बंगला-संस्करण का हिंदी रूपान्तरण था। इसके अतिरिक्त भारतेन्दु ने रत्नावली, पाखण्ड विडम्बन, धनंजय विजय, कर्पूरमंजरी, भारत जननी, अंधेर नगरी, प्रेमजोगिनी नाटक लिखे।

इस युग में मुख्य रूप से पौराणिक, ऐतिहासिक, रोमानी एवं समसामयिक समस्याओं को लेकर नाटक लिखे गए। ऐतिहासिक नाटकों में भारतेंदु का ‘नीलदेवी‘, श्रीनिवासदास का ‘संयोगिता स्वयंवर’ उल्लेखनीय है। समसामयिक समस्याओं पर लिखे नाटकों में भारतेन्दु का ‘भारत-दुर्दशा, बालकृष्ण भट्ट का ‘नई रोशनी का विष, गोपालराम गहमरी का ‘देश-दशा” उल्लेखनीय है।

उपन्यास :

भारतेंदु युग में उपन्यास भी खूब लिखे गए एवं सभी विषयों को लेकर लिखे गए। इस युग के उपन्यासकारों में लाली श्रीनिवासदास, किशोरीलाल गोस्वामी, बालकृष्ण भट्ट, ठाकुर जगन्मोहन सिंह प्रमुख है। भारतेंदु युग में सामाजिक, ऐतिहासिक, तिलस्मी- ऐयारी, जासूसी तथा रोमानी उपन्यासों की रचना खूब हुई।

सामाजिक उपन्यासों में ‘भाग्यवती’ और परीक्षागुरु के अतिरिक्त बालकृष्ण भट्ट का रहस्यकथा’, ‘नूतन ब्रह्मचारी’ और ‘सौ अजान एक सुजान‘, राधाकृष्णदास का निस्सहाय हिन्दू’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस युग के सर्वप्रधान उपन्यास लेखक किशोरीलाल गोस्वामी माने गए हैं। इस युग में बंगला और अंग्रेजी के उपन्यासों का अनुवाद भी बहुत हुआ।

कहानी

भारतेंदु युग में आधुनिक कलात्मक कहानी का आरंभ नहीं हुआ था। कहानियों के नाम पर कुछ प्रकाशित संग्रह प्राप्त हैं, जैसे – मुंशी नवलकिशोर द्वारा सम्पादित ‘मनोहर कहानी‘ में संकलित एक सौ कहानियाँ, अम्बिकादत्त व्यास का ‘कथा कुसुम कलिका, राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द का ‘वामा मनोरंजन’ और चण्डीप्रसाद सिंह का ‘हास्य रतन’ आदि।

वस्तुतः ये लोक-प्रचलित तथा इतिहास -पुराण-कथित शिक्षा नीति या हास्य – प्रधान कथाएँ हैं जिन्हेंतत्कालीन लेखकों ने स्वयं लिखकर या लिखवाकर सम्पादन करके प्रकाशित करा दिया।

निबंध साहित्य

भारतेंदु युग में जिस दूसरी गद्य-विधा का विकास विशेष रूप से हुआ, वह निबन्ध है। निबन्ध से हमारा तात्पर्य उस लघ्चाकार अकथात्मक गद्य रचना से है, जो अपनी संरचना में स्वच्छन्द होती है और जिसमें लेखक की वैयक्तिकता, उसका व्यक्तित्व निर्बन्ध अभिव्यक्ति पाता है।

इस दृष्टि से लेख निबन्ध से अलग है। इस युग के गद्य लेखकों ने समकालीन जीवन और इतिहास के अनेक पंक्तियों पर प्रभूत मात्रा में लेख लिखे हैं, जिनमें से अधिकांश तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं की फाइलों में दबे पड़े हैं।

इन लेखों का महत्त्व असंदिग्ध है, क्योंकि इनके माध्यम से हम न केवल उस काल के लेखकों की सोच से परिचित होते हैं, अपित् युग की प्रामाणिक जानकारी भी हमें मिलती है। लेकिन साहित्यिक दृष्टि से इन लेखों की अपेक्षा निबन्धों का महत्त्व अधिक है ।

यद्यपि भारतेंदु युग के अनेक लेखकों ने निबन्ध लिखे हैं, किन्तु निबन्धकार रूप में अपना वैशिष्ट्रयस्थापित करने वाले चार ही लेखक हैं- भारतेंदु हरिश्चन्द्र, बालकृषण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र और बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन’

भारतेन्दु ने निबन्ध कम लिखे हैं, लेख अधिक। उनके विभिन्न विषयों पर लिखे गये लेखों में उनकी भावनाओं और उनकी व्यंग्य-प्रवृत्ति ने अभिव्यक्त अवश्य पायी है, किन्तु इतनी के साथ कि लेख, निबन्ध नहीं बन सके हैं।

भारतेंदु युग की कविता:-

भारतेंदु युग में गद्य को लेकर कोई दुविधा नहीं है न कथ्य को लेकर न माध्यंम भाषा को लेकर, क्योंकि भारतेंदु युग से पूर्व हिन्दी में गद्य की कोई पुष्ट परम्परा नहीं थी। लेकिन कविता को लेकर दुविधा ही दुविधा है ।

भक्तिकाल और रीतिकाल की सम्पन्न काव्य-परम्परा को छोड़कर एकदम नये कविता मार्ग पर चल पड़ना भारतेंदु युग के कवियों के लिए सम्भव नहीं था। इसलिए भारतेंदु युग में भक्ति, श्रृंगार और नीति की प्रचूर कविता का लेखन हुआ तथा इसकी भाषा ब्रजभाषा ही रही।

इस यूग के अनेक कवि परंपरा का कोरा अनुकरण कर रहे थे और कविता के नाम पर केवल चमत्कार-सृष्टि क़र रहे थे, जैसे महाराज कुमार बाबू नमदेश्वर प्रसाद सिंह का शिवाशिव शतक’, किन्तु स्वयं भारतेन्दु, द्विजदेव, सरदार कवि, लाल कवि, शाह कुन्दनलाल ललितकिशोरी’, लढिराम, जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ आदि ऐेसी परम्परागत कविता लिख रहे थे, जिसमें अनुभव की सजीवता भी थी और चमत्कार भी।

यदि भारतेंदु युग के कवियों ने ऐसी ही परम्परागत कविता लिखी होती तो आधुनिक हिन्दी कवितिा में उनका योगदान नगण्य माना जाता । लेकिन ऐसा है नहीं। इस युग के कवियों ने परम्परा से हटकर नये विषयों को लेकर नयी भाववस्तु वाली कविताएँ प्रभूत मात्रा में लिखी हैं।

उन्होंने ऐसे विषयों पर कविताएँ लिखी हैं जिन पर उनके पूर्ववर्ती कवि कविता लिखने की बात सोच भी नहीं सकते थे।

समकालीन जीवन का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिस पर भारतेंदु युग के कवियों ने कविता न लिखी हो। कविता लेखन के इतने विविध विषय होना, कविता का, यथार्थ और दैनन्दिन जीवन से जुड़ना है। यह एक तरह से पारलौकिक जीवन दृष्टि को अपदस्थ करके लौकिक जीवन दृष्टि का स्थापित होना है।

भारतेंदु युग के प्रमुख विशेषताएं :

भारतेंदु युग ही आधुनिककालीन साहित्यरूपी विशाल भवन की आधारशिला है। अनेकों विद्वानों ने भारतेंदु युग की समय-सीमा सन् 1857 से सन् 1900 तक स्वीकार की है। सभी यह स्वीकार करते है की भाव, भाषा, शैली आदि सभी दृष्टियों से इस योग में हिंदी साहित्य की उन्नति हुई ।

हिंदी साहित्य के आधुनिककालीन भारतेंदु युग प्रवर्तक के रूप में भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम लिया जाता है। यह राष्ट्रीय जागरण के अग्रदूत थे। भारतेंदु युग में रीतिकालीन परिपाटी की कविता का अवसान राष्ट्रीय एवं समाज सुधार भावना की कविता का तीव्र गति से उदय हुआ।

उन्होंने कवियों का एक ऐसा मंडल तैयार किया, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से नवयुग की चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान की। भारतेंदुयुगीन साहित्य की विशेषताएं कुछ इस तरह है

  • राष्ट्रीय प्रेम का भाव
  • जनतावादी विचारधारा
  • गद्य एवं उनकी अन्य विधाओं का विकास
  • छंद-विधान की नवीनता
  • भारतीय संस्कृति का गौरवगान

राष्ट्रप्रेम का भाव :-

भारतेंदु युग आगे बढ़ने के साथसाथ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के परिणामस्वरुप भारतवासियों में सोई हुई आत्मशक्ति के जागरण के साथ ही राजनीतिक अधिकारों के प्रति लालसा बढ़ी, जिससे उनमें राष्ट्रीयता के भाव का उदय होना स्वाभाविक था।

इसका प्रभाव इस युग की रचनाओं पर भी पड़ा। इस युग के रचनाकारों की रचनाओं में देशभक्ति का स्वर विशेष रूप से गुंजायमान है। इस युग के कवि देश की दयनीय दशा से उत्पन्न क्षोभ के कारण ईश्वर से प्राथना करते हैं, तो कहीं-कहीं उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुए स्वतंत्रता का महत्व बताया है

जनतावादी विचारधारा:-

भारतेंदु युग का साहित्य पुराने ढांचे से संतुष्ट नहीं है वे उनमें बदलाव कर यह सुधार कर उसमें नयापन लाने का प्रयास हरदम किये है इस काल का साहित्य केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य ना होकर मनुष्य की एकता, समानता और भाईचारे का भी साहित्य है। इसके पश्चात नए गद्य धारा विचार के रचनाओं का भी इस पर खूब प्रभाव पड़ा।

गद्य एवं उनकी अन्य विधाओं का विकास:-

भारतेंदु युग की सबसे महत्वपूर्ण देन है गद्य व उसके अन्य विधाओं का विकास। इस युग में पद्य के साथ गद्य विधा प्रयोग में आयी जिससे मानव के बौद्धिक चिंतन का भी विकास हुआ। कहानी, नाटक ,आलोचना आदि विधाओं के विकास की पृष्ठभूमि का भी यही योग रहा है। जिसके वजह से इस युग के साहित्य अन्य युगों से काफी अलग प्रतिमान होता है।

छंद-विधान की नवीनता:-

भारतेंदु ने जातीय संगीत का गांवों में प्रचार के लिए ग्राम्य छंदों-कजरी, ठुमरी, लावनी, कहरवा तथा चैती आदि को अपनाने पर जोर दिया। कवित्त सवैया ,दोहा जैसे परंपरागत छंदों के साथ-साथ इनका भी जमकर प्रयोग किया गया।

भारतीय संस्कृति का गौरवगान:-

राष्ट्रीय नवजागरण के साथ साथ भारतीय सभ्यता और संस्कृति की अपेक्षा पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति को उच्च बताने वालों के विरुद्ध व्यंग्य और हास्यपूर्ण रचनाएं लिखी गयीं। भारत के गौरवमय अतीत को भी कविता का विषय बनाया गया, जिससे इस युग के रचनाओं का मान काफी बढ़ गया।

निस्कर्ष:-

स्पष्ट है कि भारतेन्द्र युग संक्रमण का काल है। उसमें नये और प्राने का द्वन्द्ध कदम-कदम पर विद्यमान है। यह भी स्पष्ट है कि पूराना पिदछड़ रहा है, नया आगे बढ़ रहा है। इस पुराने और नये के द्वन्द्ध के कारण ही भारतेंदु युगीन हिन्दी साहित्य अनेक अन्तर्विरोधों से ग्रस्त है।

लेकिन उसकी सबसे बड़ी देन यह है कि उसने हिन्दी साहित्य को नवयूग में लाकर खड़ा कर दिया। उसने खड़ी बोली गद्य को और उसके विविध साहित्यरूपों को विकसित और प्रतिष्ठित किया। उसने कविता, को दैनन्दिन यथार्थ जीवन की समस्याओं के साथ जोड़ा।

इस युग के साहित्पकार स्वयं जागे और दूसरों को जगाया ! मध्यकालीन बोध को त्यागकर उन्होंने आधुनिक बोध को अपनाया और उसे अपनाने के लिए अपने पाठकों को प्रेरित किया। सामान्यतः इस युग के साहित्यकार की दृष्टि आधुनिक और प्रणगतिशील थी। भारतेंदु युग के हिन्दी साहित्य एक नवजागृत जाति का साहित्य है।

अंतिम कुछ शब्द :-

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Wikipedia Page :- भारतेंदु युग

ये भी देखें :-

  1. कबीरदास का जीवन परिचय
  2. भक्तिकाल की संपूर्ण जानकारी
  3. रीतिकाल की सम्पूर्ण जानकारी
  4. आधुनिक काल की सम्पूर्ण जानकारी
  5. हिन्दी साहित्य का इतिहास, कालबिभाजन, नामकरण और चार युग
  6. छायावाद युग की सम्पूर्ण जानकारी
  7. द्विवेदी युग की सम्पूर्ण जानकारी
  8. भारतेंदु युग की सम्पूर्ण जानकारी
  9. द्विवेदी युग की सम्पूर्ण जानकारी
  10. छायावाद युग की सम्पूर्ण जानकारी
  11. तुलसीदास जी का जीवन परिचय
  12. मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन परिचय
  13. निर्गुण संत काव्यधारा की सम्पूर्ण जानकारी
  14. सूफी काव्यधारा की सम्पूर्ण जानकारी
  15. कृष्ण भक्ति काव्य की सपूर्ण जानकारी
  16. राम भक्ति काव्य
  17. उत्तर छायावाद युग की सम्पूर्ण जानकारी

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