हिंदी साहित्य का इतिहास और काल विभाजन (Hindi Sahitya Ka Itihas Aur Kaal Vibhajan) :-
हिंदी साहित्य का इतिहास और काल विभाजन (Hindi Sahitya Ka Itihaas Aur Kaal Vibhajan):- हिन्दी साहित्य का इतिहास मुख्य रूप से हिन्दी भाषा का मूल उद्गम और उसके क्रमिक विकास को समझाता है क्योंकी साहित्य में परिवर्तित सामूहिक चित्तवृत्तियों को आधार बनाकर साहित्य की परंपरा का व्यवस्थित अनुशीलन ही साहित्य का इतिहास कहलाता है और यह अध्ययन मैं मुख्य रूप से हिंदी साहित्य या फिर हिंदी भाषा के विकास तथा इस भाषा में विभिन्न समय में किए गए रचनाओं के लेखन तथा उनके प्रामाणिकता और अध्ययन के उपर ही है।
इस पोस्ट से हम हिंदी साहित्य के पृष्ठभूमि, कालबिभाजन, हिंदी साहित्य के नामकरण तथा हिंदी साहित्य के प्रमुख चार युग: आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल के उपर संक्षेप मैं आलोचना करेंगे। Kaal Vibhajan
हिंदी विश्व में सबसे अधिक बोले जाने वाले भाषाओं में से एक है। हिंदी की जड़ें प्राचीन भारत में इस्तेमाल की जाने वाली संस्कृत भाषा तक जाती हैं लेकिन मध्य युगीन भारत के अवधी, मागधी, अर्ध-मागधी और मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य को हिन्दी का आरम्भिक साहित्य माना जाता है।
इसीलिए इसके साहित्य के इतिहास को भी विश्व के प्रमुख साहित्य में से एक माना जाता है। हिंदी भाषा का साहित्य मुख्यतः इस भाषा का विकाश तथा इसके विभिन्न रचनाओं जैसे काव्य, निबंध, उपन्यास, नाटक, गद्य रचना के वारे में है, जो इस साहित्य के वारे में लिखने के लिए अवशेषों के रूप में इतिहास कारों को सहायता प्रदान करती है।
Kaal Vibhajan
हिंदी साहित्य का प्रारंभ (Hindi Sahitya Ka Prarambh):-
हिंदी साहित्य का प्रारंभ मुख्यतः सातवीं और आठवीं सदी के बीच में माना जाता है। कोई कोई पुस्तक में आपको इसका आरंभ सातवीं सदी में भी लिखा हुआ मिल जायेगा।
पर अधिकांश इतिहासकार इसको आठवीं सदी ही मानते है। पर राहुल संस्कृतायन ने हिंदी साहित्य के प्रथम कवि सरहप्पा को माना है, जिनका जन्म आठवीं सदी माना ही माना जाता है ।
शायद ये ही एक कारण है कि ज्यादातर इतिहासकार हिंदी साहित्य का आरंभ आठवीं सदी को ही मानते है। यह समय वह है जब महाराजा हर्षवर्धन के निधन के बाद भारतवर्ष में केंद्रीय सत्ता के अभाव के कारण देश छोटे छोटे राज्यों में विभाजित हो कर आपस में संघर्ष करते रहे ।
हिंदी भाषा का विकास का आरंभ भी इसी समय के आसपास माना जाता है जब संकृत, अपभ्रंश के रचनाओं के साथ साथ हिंदी के मुख्य रचनाओं का प्रारंभ भी हो चुका था।
हिंदी साहित्य का काल विभाजन (Hindi sahitya Ka Kaal Vibhaajan):-
साहित्य एक नदी के प्रवाह की तरह होता है, जो निरंतर आगे बढ़ते ही रहता हैं । न उसमे कोई रुकावट आ सकती है और न ही उसके प्रवाह को कोई भंग कर सकता है, पर हां ये संभव है की समय के साथ साहित्य में नई प्रबृतियाँ तथा नई चिंतन प्रणाली का आगमन होता गया ।
हिंदी साहित्य के काल विभाजन मैं काल को एक को विभाजन के सर्वाधिक उपयुक्त प्रणाली, साहित्य में उस नई साहित्य प्रवाहित धाराओं को पहचानना और उन्ही प्रबृतियों के आधार पर उन्हें विभाजित करना है । Kaal Vibhajan
ज्यादातर प्रवृतियां तत्कालीन युग के प्रवृतियों के हिसाब से बदलती रहती है एवं हिंदी साहित्य के विषय में भी यही बात युक्तियुक्त प्रतीत होती है । एक विशेष काल में समाज की विशेष परिस्तितियां और उसके मुताबिक बिचारधाराएं रहे और उन्ही के अनुरूप साहित्यिक रचनाएं की गई । कुछ मैं अपवाद रहे अवश्य पर बह गौण प्रवृत्ति के थे।
हिंदी साहित्य का प्रारंभ लगभग आठवीं सताब्दी से हुआ और जब तक इसका इतिहास को कोई भी इतिहासकार ने लिखना प्रारंभ किया तब तक लगभग 1000 साल हो चुके थे। अब प्रश्न ये उठता है कि इतने बड़े समय का अध्ययन कैसे किया जाए, जिसका उत्तर हमको कल विभाजन ने दिया ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी के अनुसार
- प्रत्येक देश का साहित्य वर्ग की जनता के चित्तवृत्ति के संचित प्रतिविम्ब होता हैं, जिससे जनता के चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ वहाँ के साहित्य के भी मनोवृत्ति या स्वरूप परिवरतान हो जाता हैं।
- आदि से अन्त तक इसी मनोवृत्ति के परामपर को परखते हुए साहित्य परामपर के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता हैं।
- पर सिर्फ निर्धारित करदेने से यह नही तो ते हो जाता है की उस काल मैं उसीतरह के काव्य या रचनाओं का रचना हुआ होगा, जो की काभी काभी संभभ भी नही हैं।
Kaal Vibhajan
काल विभाजन का प्रयाश का प्रारंभ :-
जैसा की उपेर भी कहा जा चुका हैं की हिन्दी साहित्य का इतिहास लगभग 1000 साल पुरानी हैं, तो पहले तो यह समस्या सबसे बाद था की कोई तकनीकी परुस्तहभूमि तथा अवधारणा के बिना इतने बड़े साहित्य विधाओं का अध्ययन किया तो कैसे किया जाए ? Kaal Vibhajan
इसी समस्या को ध्यान में रखकर इतिहास को कालखंडों में विभाजित करते हैं (जिसका विबरण आगे दिया गया हैं) लेकिन इससे प्रश्नों का समाधान नहीं होता। इसी से जुड़ा कुछ दूसरे प्रश्न उठ खड़े होते है जैसे की
- साहित्य के इतिहास में काल विभाजन और नामकरण की अनिवार्यता क्या है?
- इस अनिवार्यता को इतिहास में किन तथ्यों से पुष्ट किया जाता है ?
- इतिहास का कोई कालखंड या युग इतिहास की तथ्यपूर्ण वास्तविकता को प्रतिबिंबित करता है, अथवा वह इतिहासकार के मन की संकल्पना है?
- तथा क्या युग की पहचान इतिहासकार की व्याख्या है?
शायद इन्ही सब प्रश्नों के पीछे ही मानो जैसे पूरा हिन्दी साहित्य के कालविभाजन का आधार छुपा हुआ हो, था एक बात और भी की इन सभी प्रश्नों के उत्तर खोजे बगैर हम काल विभाजन के आधारों को नहीं समझ सकते।
Kaal Vibhajan
कालविभाजन के पृष्ठभूमि :-
- साहित्य अध्ययन मैं एक आलोचनात्मक चेतन होता हैं, जिस चेतन के वाल पे हम जीवन तथा संस्कृति के परीक्षण कर उस के कसौटी पर साहित्य तथा तत्कालीन समाज के रिश्ते का पहचान कर पाते हैं।
- जे इस रिश्ते पे आए परिवर्तब के ज्यादा जल्दी पहचान पाएगा, उसका साहित्य का काल विभाजन उतना ही प्रामाणिक हो पाएगा।
- यही एक कारण हैं जिसके चलते हमें आचार्य शुक्ल जी के आलोचनात्मक साहित्य तथा उनके काल विभाजन तथा अध्ययन तक बार बार वापस आना पद जाता हैं, क्यूँ उनका अध्ययन ही काफी हद टाटक सठीक जान पड़ता हैं।
- एक इतिहासकार का कार्य ही यही है की वह उस युग के शाखाएं मैं बंधी यथार्थ तथा अनुभव जो की एक दूसरे से जुड़े हुए होते है, उनको सही तरीके से तत्कालीन समाज तथा जनता के परिदृष्टि से पहचानना तथा अपने खुद के युग तथा समय में उस पहचान को उचित सरल उपाय मैं उसको विश्लेषण करके सबके साने पेश करना।
- इस कार्य के लिए इतिहासकार का उस युग के समयसामयिक प्रश्नों पर अपनी पकड़ गहरी होनी चाहिए। अगर यह नहीं हो सका तो उसकी इतिहास दृष्टि अतीतोन्मुखी होजाएगी, और सही इसिहाश दृष्टि हमेशा भविष्यतोन्मुखी होनी चाहिए, ना की अतीतोन्मुखी।
- क्योंकि एतिहासिक संदर्भ ही तत्कालीन परिस्थिति की जटिलता तथा विशिष्टता को पहचानने का उपादान होता है, इसीलिए ऐतिहासिक सामाजिक संदर्भों को समझकर ही साहित्य के कालखंडों का निर्धारण किया जा सकता हैं।
- अगर ऐतिहासिक संदर्व को छोड़ भी दिया जाए तो बाकी रहता है साहित्य, जिसके आधार पर कालखंड निर्धारण किया जा सकता है।
- पर क्यों की साहित्य के साथ अगर इतिहास को मूल्यांकन किया जाए तो साहित्यसाधन के लिए सिर्फ शास्त्र ही रह जाएगा।
- और क्योंकि शास्त्र मुख्य रूप से प्रयातः जीवन तथा समाज की सजीव चेतना का परीक्षण नहीं करता, जिसका कारण यह है कि शास्त्र में जड़ता होती है, जिस वजह से कालखंड के लिए उपयुक्त कारण मिल नही पाता तथा तत्कालीन समाज के अध्ययन के दृष्टि के लिए वो काफी हद तक पक्षपात सृष्टि कर देता है।
परंतु जब काल विभाजन के समय एक दूसरे प्रश्न से सामना हुआ की इतने बड़े कालखंड को आखिर विभाजित किस प्रकार किया जा सकता है ?
इस साहित्य के काल विभाजन और नामकरण का अनिवार्यता क्या है और इस काल विभाजन को किस तथ्य से पुष्टि मिल सकता हैं .. जिसका उत्तर आगे चलकर हमारे कुछ इतिहासकारों न हमें दिया।
Kaal Vibhajan
काल विभाजन के विभिन्न मत :-
जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा :-
हिंदी साहित्य के कालबिभाजन के क्षेत्र में प्रथम प्रयास करने का श्रेय जॉर्ज ग्रियर्सन जी का है। पर जैसा की उन्होंने अपने ग्रंथ में खुद ही स्वीकार किया है, की उनके सामने बोहोत सी ऐसी कठिनाइयां थीं जिससे वे हिंदी साहित्य के काल बिभाजन में पूर्णतः सफल नहीं हो सके। Kaal Vibhajan
उनका कालबिभाजन ग्यारह भागों में था और कुछ इस प्रकार का था :
- चारण काल
- पंद्रहवीं साति का धार्मिक पुनर्जागरण काल
- जैसी की प्रेमकविता
- ब्रज का कृष्ण संप्रदाय
- मुगल दरवार
- तुलसीदास
- रीतिकाब्य
- तुलसीदास के अन्य परबर्ती
- 18बीं शताब्दी,कंपनी के शासन में हिंदुस्थान
- महारानी विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्थान
यद्यापि ग्रियर्सन जी के काल बिभाजन में अनेक असंगतियां तथा त्रुटि पाई गई थीं, परंतु काल विभाजन करने के प्रथम प्रयास होने के कारण इसका अपना महत्व है ।
मिस्रबंधु बिनोद द्वारा :-
1913 में मिस्रबंधु बिनोद ने कालबिभाजन का नया प्रयास किया जो की जॉर्ज ग्रियर्सन जी के प्रयास के प्रत्येक दृष्टि से ज्यादा बेहतर रहा और उन्होंने हिंदी साहित्य का विभाजन कुछ इस प्रकार किया :
- आरंभिक काल : 600 से 1000 बीं
- उत्तराम्भिक काल : 1344 से 1444 बीं
- माध्यमिक काल : 1445 से 1560 बीं
- प्रौढ़ माध्यमिक काल : 1561 से 1580 बीं
- अलंकृत काल : 1681 से 1790 बीं
- उत्तरालंकृत काल : 1791 से 1889 बीं
- परिवर्तन काल : 1890 से 1925 बीं
- वर्तमान काल : 1926 बीं से अबतक
आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा :-
मिश्रबंधु के बाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने सन 1929 में हिंदी साहित्य का काल विभाजन ज्यादा बेहतर तरीके से किया जो की अभितक सभी इतिहासकारों द्वारा आदृत है ।
इस कालबिभाजन में अधिक सरलता, स्पष्टता तथा सुबोधता है और अपनी इसी विशेषता के कारण बह आजतक सर्वमान्य और सर्व प्रतिष्ठित है । उनका काल विभाजन कुछ इस प्रकार का है :
- आदिकाल ( बीरगाथाकाल ) : 1050 से 1375 बीं
- पूर्बमध्यकाल (भक्तिकाल ) : 1375 से 1700 बीं
- उत्तरमध्यकाल ( रीतीकाल ) : 1700 से 1900 बीं
- आधुनिक काल ( गद्यकाल ) : 1900 से आजतक
डॉक्टर रामकुमार वर्मा द्वारा :-
शुक्ल जी के पश्चात डॉक्टर रामकुमार वर्मा का नाम इस प्रसंग में उल्लेखनीय है, जिन्होंने भी अपना कालबिभाजन का नया रूप उपस्थित किया, जो कुछ इस प्रकार है।
- संधिकाल : 750 से 1000 बीं
- चारणकाल : 1000 से 1375 बीं
- भक्तिकाल : 1375 से 1700 बीं
- रीतिकाल : 1700 से 1900 बीं
- अधुनिकाकाल : 1900 से अबतक
डॉक्टर नगेंद्र द्वारा :-
इस के बाद कालबिभाजन के प्रयास में डॉक्टर नगेंद्र का स्थान भी उल्लेखनीय है और उनका काल विभाजन कुछ इस प्रकार है :
- आदिकाल : 7बीं शाति के मध्य से 14बीं शति के मध्यतक
- भक्तीकाल : 14बीं शाति के मध्य से 17बीं शति के मध्यतक
- रीतिकाल : 17बीं शाति के मध्य से 19बीं शति के मध्यतक
- आधुनिककाल : 19बीं शाति के मध्य से मध्यतक
डाक्टर हजारिप्रसाद द्विवेदी द्वारा :-
डाक्टर हजारिप्रसाद द्विवेदी के आधार पर हिंदी साहित्य का काल विभाजन का कुछ इस रूप में किया गया है :
- आदिकाल : 1000 से 1400 बीं
- भक्तिकाल : 1400 से 1600 बीं
- रीतिकाल : 1600 से 1950 बीं
- आधुनिककाल : 1950 से आजतक
इस के पश्चात जिन लोगों ने भी काल विभाजन का प्रयास किए उन्होंने शुक्ल जी के काल विभाजन को ही अनुकरण किया है बस एक दो काल का नामकरण परिवर्तित करके रखा गया है, जिससे आचार्य शुक्ल जी के काल विभाजन का महत्व पता चलता है।
हिंदी साहित्य के नामकरण (Hindi Sahitya Ke Naamkaran):-
काल विभाजन की तरह हिंदी साहित्य के नामकरण को लेकर विद्वानों में कोई मतभेद नहीं है, बस हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल के नामकरण को लेकर ही मतभेद है । जिनमे मुख्यतः दो वर्ग है, एक जो मानते है हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं सत्ता से हुआ है और दूसरे वर्ग जो मानते दसवीं शताब्दी से ।
पर वास्तव में अगर हम सातवीं से दसवीं शताब्दी को ही इस काल का पृष्ठभूमि मान लेंगे तो ये मतभेद बिलकुल खतम हो जाएगा, क्यों की तब के रचनाओं का भाषा मुख्यतः अपभ्रंश है और इसी भाषा से ही तो हिंदी भाषा का जन्म हुआ है। Kaal Vibhajan
इसी लिए इस कालखंड के मूल स्वरूप को जानने के लिए इस काल के साहित्यिक रचनाओं को गंभीर रूप से जानना बोहोत ही आवश्यक है। पर इस बीच मतभेद को अगर विचार मैं लिया जाए तो सिर्फ दो ही काल के नामकरण मैं मतभेद नजर आता है, आदिकाल और रीतिकाल।
दोनों का नामकरण को लेकर ही अधिक मतभेद है क्यो की यही दो काल है जिनके साहित्य रचनाओं का एक से ज्यादा प्रबृतियाँ निकली और उनको एक ही वर्ग में रखने में काफी मुस्किले आयी।
ज्यादातर इतिहासकारों का मतभेद दसवीं शताब्दी से लेकर चौदहवी शताब्दी तक के कालखंड के नामकरण को लेकर है और भिन्न भिन्न विद्वानों के अपने दिये गए नामकरणों का सूचि निम्न में दिया गया :-
- चारणकाल : जॉर्ज ग्रियर्सन
- प्रारंभिक काल : मिश्रबंधु बिनोद
- बीरगाथा काल : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- सिद्धसमंत काल : राहुल संस्कृतायन
- बीजवपन काल : महावीरप्रसाद द्विवेदी
- आदि काल : हजारीप्रसाद द्विवेदी
- संधि काल एवं चारण काल : डॉक्टर रामकुमार वर्मा
इसके बाद सत्रहवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखंड के नामकरण मैं भी विद्वानों का बोहोत सारे मातवेद है, और सबके द्वार किए गए अलग अलग नामकरण निम्न में दिए गए है:-
- अलंकृतकाल : मिश्रबंधु बिनोद
- रीतिकाल : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- कलाकाल : रामाशंकर शुक्ल
- श्रृंगारकाल : पण्डित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
हिन्दी साहित्य का इतिहास: चार युग- आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल (Aadikaal, Bhaktikaal, Reetikaal, Aadhunikkaal):-
हिंदी अति के इतिहास को मुख्य रूप re चार युग में भाग किया गया है, जिसका वर्णन संक्षेप मैं नीचे किया जा रहा है।
आदिकाल:
हिंदी साहित्य इतिहास के प्रथम काल को मुख्यतः आदिकाल के नाम से ही संबोधित किया गया है। इस काल के लिए कई नाम सुझाए गए यथा- चारण काल, प्रारंभिक काल, वीरगाथा काल, संधिकाल, सिद्ध सामंतकाल तथा आदिकाल।
यहाँ इतना समझना आवश्यक होगा कि काल की दृष्टि से प्रथम काल को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल कहा और प्रवृत्ति के आधार पर इसे “वीरगाथा काल” की संज्ञा दी गई। परंतु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रवृत्ति के आधार पर भी इस काल के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही प्रस्तावित करते हैं ।
यही नाम विद्वानों के बीच लोकप्रिय हुआ। यह नाम यदि प्रथमकाल के लिए लोकप्रिय हुआ तो उसका कारण यह था कि “आदिकाल” जैसे नाम में एक प्रकार का खुलापन है। उसमें तत्कालीन साहित्य की चेतना के विविध रूपों का संयोजन हो सकता है।
भक्तिकाल:
हिंदी-साहित्य के संदर्भ में भक्तिकाल से तात्पर्य उस काल से है जिसमें मुख्यत: भगवत धर्म के प्रचार तथा प्रसार के परिणामस्वरूप भक्ति-आंदोलन का सूत्रपात हुआ था और उसका लोकोन्मुखी प्रवृत्ति के कारण धीरे-धीरे लोक प्रचलित भाषाएँ भक्ति-भावना की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती गई और कालांतर में भक्तिविषयक विपूल साहित्य की बाढ़ -सी आ गई।
परंतु यह भावना वैष्णव धर्म तक ही सीमित न थी – शैव, शाक्त आदि धर्मों के अतिरिक्त बौद्ध और जैन संप्रदाय भी इस प्रवाह से प्रभावित हुए बिना न रह सके।भक्तिकाल का विवेचन करने के पूर्व भक्ति-भावना की परंपरा और परिवेश का संक्षिप्त परिचय पा लेना विषय को बोधगम्य बनाने में सहायक होगा।
रीतिकाल :
हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सम्बत् 1700 से 1900 तक के कालखंड को रीतिकाल की संज्ञा प्रदान की है। उनके अनुसार इस काल में “रीति तत्व” की प्रधानता को ध्यान में रखते इसकाल का नामकरण रीतिकाल किया गया है।
इस काल के अधिकाश कवियों ने आचार्यत्व का निर्वाह करते हुए लक्षण ग्रंथों के उपर रीति ग्रथों की रचना की जिनमें अलंकार, रस, नायिका भेद, आदि काव्यांगों का विस्तृत विवेचन किया गया।
आश्रयदाताओं के प्रशंसा के लिए तथा अपनी काव्य प्रतिभा दिखाने के लिए इन कवियों के लिए लक्षण ग्रंथ लिखना अनिवार्य था। काव्यांग चर्चा में ये गौरव का अनुभव करते थे तथा इस युग में इस बात पर विवाद होते थे कि इस पंक्ति में कौन-सा अलंकार, शब्द शक्ति, रस या ध्वनि है।
काव्यांगों के लक्षण एवं स्वरचित उदाहरण प्रस्तृत करने वाले रीति ग्रंथों की प्रच्रता के कारण ही इस काल में रीति तत्व की प्रधानता परिलक्षित होती है और इसी कारण इस काल का नाम रीतिकाल रखा गया है।
यद्यपि भक्तिकाल में कुछ कवियों ने रीति ग्रंथ लिखे हैं, यथा- सूरदास के “साहित्य लहरी” में तथा नंददास के “रस मंजरी” में रीति निरूपण किया गया है तथापि रीतिकाल में सैकड़ों कवियों ने लक्षण ग्रंथों की परिपाटी पर रीति ग्रंथों की रचना की है। मतिराम, चिंतामणि, भूषण, ग्वाल, पद्माकर, देव, भिखारी दास जैसे कवियों ने रीति ग्रंथ लिख कर युगीन प्रवृत्ति का परिचय दिया।
आधुनिक काल:
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में ऐसी बहुत सी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुई जिसने देश की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों को झकझोर दिया।
1849 ई. में सिक्खों को पराजित करने के बाद सम्पूर्ण देश पर अग्रेजों का शासन हो गया था। 1857 की क्राति एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। डलहौजी द्वारा देशी राज्यों का विलय और अवध प्रदेश का अंग्रेजी राज्य में समाहार महत्त्वपूर्ण घटनाएं थी। अंग्रेजों ने अपनी आर्थिक, शैक्षणिक एवं प्रशासनिक नीतियों में परिवर्तन किया।
ईसाई धर्म प्रचारक भारतीय धर्म एवं समाज की मान्यताओं की खिल्ली उड़ा रहे थे। वे भारतीय धर्म तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों का मजाक उडाकर भारतीयों को नीचा दिखाने का प्रयास कर रहे थे।
यही नहीं अपितु आर्थिक लालच देकर भोले- भाले भारतीयों को ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित भी कर रहे थे। देवेन्द्रनाथ ठाकुर, केशवचन्द्र सेन, राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद आदि महापुरुषों ने सांस्कृतिक एवं सामाजिक रूप से भारतीय जनता को जाग्रत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। Kaal Vibhajan
अकसार पूछे जाने वाल्व सवाल (FAQs):-
हिंदी साहित्य के इतिहास में कितने काल है?
इसमें हिंदी साहित्य की विकास-यात्रा के चार काल खण्डों आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिककाल की सामान्य प्रवृत्तियों, कवियों एवं विशिष्टताओं का परिचय प्रस्तुत किया गया है ।
हिंदी साहित्य में कितने भाग होते हैं?
समग्र रूप से हिंदी पद्य साहित्य को चार युगों (काल) या चरणों में विभाजित किया जा सकता है: आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल एवं आधुनिक काल
हिंदी साहित्य का आरंभ कब से माना जाता है ?
हिन्दी साहित्य का आरम्भ आठवीं शताब्दी से माना जाता है। यह वह समय है जब सम्राट् हर्ष की मृत्यु के बाद देश में अनेक छोटे छोटे शासनकेन्द्र स्थापित हो गए थे जो परस्पर संघर्षरत रहा करते थे।
आदिकाल को किसने नामकरण किया?
हिन्दी साहित्य के इतिहास में लगभग 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के मध्य तक के काल को आदिकाल कहा जाता है। इस युग को यह नाम डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया है। Kaal Vibhajan
अंतिम कुछ शब्द :-
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Kaal Vibhajan
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