IGNOU MHD 11 Free Solved Assignment 2024

IGNOU MHD 11 Free Solved Assignment 2024 (For Jan and Dec 2024)

Contents

MHD 11 (हिन्दी कहानी विविधा)

सूचना  :-

MHD 11 free solved assignment मैं आप सभी प्रश्नों  का उत्तर पाएंगे, पर आप सभी लोगों को उत्तर की पूरी नकल नही उतरना है, क्यूँ की इससे काफी लोगों के उत्तर एक साथ मिल जाएगी। कृपया उत्तर मैं कुछ अपने निजी शब्दों का प्रयोग करें। अगर किसी प्रश्न का उत्तर Update नही किया गया है, तो कृपया कुछ समय के उपरांत आकर फिर से Check करें। अगर आपको कुछ भी परेशानियों का सामना करना पड रहा है, About Us पेज मैं जाकर हमें  Contact जरूर करें। धन्यवाद 

MHD 11 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

Mhd 11

1. (क) शकलदीप बाबू एक-दो क्षण चुप रहे, फिर दाएं हाथ को ऊपर-नीचे नचाते बोले, फिर इसकी गारंटी ही क्या है कि इस दफे बाबू साहब ले ही लिए जाएंगे? मामूली ए. जी. आफिस की क्लर्की में तो पूछे नहीं गए, डिष्टी कलक्टरी में कौन “पूछेगा? आप में कृया खूबी है, साहब, कि आप डिष्टी कलक्टर हो ही जाएंगे? थर्ड व्लास बी. ए, आप हैं, चौबीसो घंटे मटरगश्ती आप करते हैं, दिन-रात सिगरेट आप फूकते हैं। आप में कौन-से सुर्खाब के पर लगे है, जनाब? भाई, समझ लो, तुम्हारे ‘करम में नौकरी लिखी ही नहीं। अरे हाँ, अगर सभी कुकुर काशी ही सेवेंगे तो हंडिया कौन चटेगा? डिट्टी कलक्टरी, डिष्टी कलक्टरी। सच पूछो, तो डिट्टी कलक्टरी नाम से मुझे घूणा हो गई है। और उनके होंठ बिचक गए।

संदर्भ: “शकलदीप बाबू एक-दो क्षण चुप रहे, फिर दाएं हाथ को ऊपर-नीचे नचाते बोले, फिर इसकी गारंटी ही क्या है कि इस दफे बाबू साहब ले ही लिए जाएंगे?” यह उनकी व्यावहारिक विशेषता का उल्लेख कर रहा है, जहां उन्होंने एक-दो क्षण चुप रहकर और फिर हाथ को नचाकर एक सवाल पूछा है। यह एक प्रश्न की प्रकृति में है और संभवतः इसका उत्तर उनकी खुद की व्यक्तिगतता पर आधारित होगा।

“मामूली ए. जी. आफिस की क्लर्की में तो पूछे नहीं गए, डिप्टी कलक्टरी में कौन पूछेगा? आप में क्या खूबी है, साहब, कि आप डि्टी कलक्टर हो ही जाएंगे? थर्ड क्लास बी. ए. आप हैं, चौबीसो घंटे मटरगश्ती आप करते हैं, दिन-रात सिगरेट आप फूंकते हैं।

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व्याख्या : शकलदीप बाबू कहीं एक घंटे बाद वापस लौटे। घर में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने ओसारे के कमरे में झाँका, कोई भी मुवक्किल नहीं था और मुहर्रिर साहब भी गायब थे। वह भीतर चले गए और अपने कमरे के सामने ओसारे में खड़े होकर बंदर की भाँति आँखे मलका-मलकाकर उन्होंने रसोईघर की ओर देखा।

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उनकी पत्नी जमुना, चौके के पास पीढ़े पर बैठी होंठ-पर-होंठ दबाए मुँह फुलाए तरकारी काट रही थी। वह मंद-मंद मुस्कराते हुए अपनी पलनी के पास चले गए। उनके मुख पर असाधारण संतोष, विश्वास एवं उत्साह का भाव अंकित था। एक घंटे पूर्व ऐसी बात नहीं थी। बात इस प्रकार आरंभ हुई। शकलरदीप बाबू सबेरे दातौन-कुल्ला करने के बाद अपने कमरे में बैठे ही थे कि जमुना ने एक तश्तरी में दो जलेबियाँ नाश्ते के लिए सामने रख दीं।

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वह बिना कुछ बोले जलपान करने लगे। जमुना पहले तो एक-आध मिनट चुप रही। फिर पति के मुख् की ओर उड़ती नजर से देखने के बाद उसने बात छेड़ी, दो-तीन दिन से बबुआ बहुत उदास रहते हैं। क्या? सिर उठाकर शकलदीप बाबू ने पूछा और उनकी भौहे तन गई।

जमुना ने व्यर्थ में मुस्कराते हुए कहा, ‘कल बोले, इस साल डिट्टी-कलक्टरी की बहुत-सी जगहें हैं, पर बाबूजी से कहते डर लगता है। कह रहे थे, दो-चार दिन में फीस भेजने की तारीख बीत जाएगी। शकलदीप बाबू का बड़ा लड़का नारायण, घर में बबुआ के नाम से ही पुकारा जाता था। उम्र उसकी लगभग 24 वर्ष की थी।

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पिछले तीन-चार साल से बहुत-सी परीक्षाओं में बैठने, एम.एल.ए. लोगों के दरवाजों के चक्कर लगाने तथा और भी उल्टे-सीथे फन इस्तेमाल करने के बावजूद उसको अब तक कोई नौकरी नहीं मिल सकी थी। दो बार डि्टी कलक्टरी के इम्तहान में भी वह बैठ चुका था, पर दुर्भाग्य! अब एक अवसर उसे और मिलना था, जिसको वह छोड़ना न चाहता था, और उसे विश्वास था कि चूँकि जगहें काफी हैं और वह अबकी जी-जान से परिश्रम करेगा, इसलिए बहुत संभव है कि वह ले लिया जाए।

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शकलदीप बाबू मुख्तार थे। लेकिन इधर डेढ-दो साल से मुख्तारी की गाड़ी उनके चलाए न चलती थी। बुढ़ौोती के कारण अब उनकी आवाज में न वह तडप रह गई थी, न शरीर में वह ताकत और न चाल में वह अकड, इसलिए मुवक्किल उनके यहाँ कम ही पहुँचते। कुछ तो आकर भी भड़क जाते। इस हालत में वह राम का नाम लेकर कचहरी जाते, अक्सर कुछ पा जाते, जिससे दोनों जून चौका-चूल्हा चल जाता।

जमुना की बात सुनकर वह एकदम बिगड़ गए। क्रोध से उनका मुँह विकृत हो गया और वह सिर को झटकते हुए, कटाह कुकुर की तरह बोले, ‘तो मैं क्या करु? मैं तो हैरान-परेशान हो गया हूँ। तुम लोग मेरी जान लेने पर तुले हुए हो। साफ-साफ सुन लो, मैं तीन बार कहता हूँ, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा।

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विशेष :

भाषा सहज और वर्णनशील हैं।

मध्यवर्गीय परिस्थितियों का वर्णन काफी यथार्थ हैं।

IGNOU MHD ALL FREE SOLVED ASSIGNMENT (2023-2024) 

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IGNOU MHD solved assignment

(ख) मैंने देखा, मुझसे ज्यादा वह प्रसन्न है। वह कभी किसी का एहसान नहीं लेता, पर मेरी खातिर उसने न जाने कितने लोगों का एहसान लिया। आखिर कृयों? क्या वह चाहता है कि मैं कलकत्ता आकर रहूँ उसके साथ, उसके पास? एक अरजीक- सी पुलक से मेरा तन-मन सिहर उठता है। वह ऐसा कुयों चाहता है? उसका ऐसा चाहना बहुत गलत है, बहुत अनुचित है.. मैं अपने मन को समझाती हूँ, ऐसी कोई बात नहीं है, शायद वह कवल मेरे प्रति किए गए अपने अन्याय का प्रतिकार करने के लिए यह सब कर रहा है । क्या वह समझता है कि उसकी मदद से नौकरी पाकर मैं से क्षमा कर द्रँगी, या जो कुछ उसने किया है, उसे भूल जाऊँगी? असम्भव मैं कल ही उसे संजय की बात बता दूंगी।

संदर्भ: यह पाठ दो व्यक्तियों के बीच एक संवाद की तरह है, जहां पहली व्यक्ति द्रसरी व्यक्ति के बारे में चिंता व्यक्त कर रही है। निम्नलिखित दो संदर्भ विवरण दिए गए हैं: “मैंने देखा, मुझसे ज्यादा वह प्रसन्न है। वह कभी किसी का एहसान नहीं लेता, पर मेरी खातिर उसने न जाने कितने लोगों का एहसान तिया।

व्याख्या: आखिर क्यों?” यह व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की आदतों और व्यवहार से चिंतित है ओर उसे यह अज्ञात है कि द्सरे व्यक्ति उसके लिए बहुत सारे एहसान कर रहे हैं। इससे संदेह उठता है कि उसका कारण क्या हो सकता है और क्या वह उससे कुछ चाह रहा है। क्या वह चाहता है कि में कलकत्ता आकर रहूँ उसके साथ, उसके पास?

एक अजीक-सी पुलक से मेरा तन-मन सिहर उठता है। वह ऐसा क्यों चाहता है? उसका ऐसा चाहना बहुत गलत है, बहुत अनुचित है। यह व्यक्तिचिंतित है कि दूसरा व्यक्ति उसे किसी प्रकार से आकर्षित करना चाहता है और वह इसको गलत और मैं जानती हूँ, संजय का मन निर्शीथ को लेकर जब-तबब सशंकित होउठता है, पर मैं उसे कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं निरशीथ से नफरत करती हूँ, उसकी याद-मात्र से मेरा मन घूणा से भर उठता है।

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फिर अठारह वर्ष की आयु में किया हुआ प्यार भी कोई प्यार होता है भला। निरा बचपन होता है, महज पागलपन। उसमें आ्वेश रहता है पर स्थायित्व नहीं, गति रहती है पर गहराई नहीं।

जिस वेग से वह आरंभ होता है, जरा-सा झटका लगने पर उसी वेग से ट्रृट भी जाता है। और उसके बाद आहों, ऑँसुओं और सिसकियों का एक दौर, सारी दुनिया की निस्सारता और आत्महत्या करने के अनेकानेक संकल्प और फिर एक तीखी घृणा।

जैसे ही जीवन को दूसरा आधार मिल जाता है, उन सबको भूलने में एक दिन भी नहीं लगता। फिर तो वह सब ऐसी बेवकूफी लगती है, जिस पर बैठकर घंटों हँसने की तबीयत होती है। तब एकाएक ही इस बात का अहसास होता है कि ये सारे ऑँसू ये सारी आहें उस प्रेमी के लिए नहीं थीं, वरन जीवन की उस रिक्तता और शन्यता के लिए थीं, जिसने जीवन को नीरस बनाकर बोझिल कर दिया था।

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तभी तो संजय को पाते ही मैं निशीथ को भूल गई। मेरे आँसू हँसी में बदल गए और आहों की जगह किलकारियाँ गूँजने लगीं। पर संजय है की कभी भी निशीथ के बात को लेकर व्यर्थ मैं खिन्न हो जाता हैं। मेरे कुछ कहने पर जल्दी ही खिलखिला जरूर हो उठता है, पर मैं जानती हूं की वह पूर्ण रूप से आश्वास्थ नही है।

विशेष :

उपरोक्त संदर्भ अपने वर्णन तथा सांप्रदायिकता के दरुस्ती से यथार्थ हैं।

भाषा सहाज तथा यथार्थ पूर्ण हैं।

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2. बदबू कहानी का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।

शेखर जोशी की कहानियों में मध्यमवर्गीय जीवन को विशेष स्थान मिला है।अपने निजी अनुभवों चाहे कारखाने के अनुभव हों, पहाड़ी जीवन से संबंधित या परिवर्तित जीवन मूल्य से तथा आधुनिकता बोध को वह अपनी कहानियों में विस्तृत कैनवास प्रदान करते हैं।

स्वतंत्रता से पूर्व नारी की तुलना में उस समय तक नारी के अधिकारों में परिवर्तन आ गया था। मध्यमवर्गीय पुरुष की तुलना में नारी अधिक सजग हो रही थी, महत्वाकांक्षा भी उसी के साथ पनप रही थी।

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शेखर जोशी की सभी कहानियाँ अलग मिजाज़ की है और सभी में कहानीकार अपनी तरह से उपस्थित रहता है। उनकी कहानियों में दो पीढ़ियों का संघर्ष, भूमि अधिग्रहण, पहाड़ी परिवेश, वहां होते परिवर्तन, मजदूर संगठन के खिलाफ अफ़सर वर्ग की कुटिल राजनीति, व्यक्तिगत लाभ हेतु श्रम दोहन, वर्ग संघर्ष, पलायन, पहाड़ी स्त्रियों का कष्ट एवं दोहरी जिम्मेदारी, स्त्री एवं बाल मनोविज्ञान को स्वर मिलता है।

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कहानीकार भाव और शिल्प दोनों की दृष्टि से कहानी में प्रयोग करता चलता है, उनकी अपनी विशेषता है कि वह बहुत कुछ कहने में यकीन नहीं करते उनके मंतव्य छुपे रहते हैं, उन्हें पाठक अपने हिसाब से ढूंढता है।

शेखर जोशी हिंदी कहानी में प्रेमचंद की पारदर्शी यथार्थ की लेखन परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कथाकारों में प्रमुख हैं। इनकी कहानियों में कहानीकार के प्रगतिशील मूल्यों के साथ-साथ साहित्यिक मूल्य और व्यवहारिक जीवन को संभालने की दृष्टि नैसर्गिक ही प्रकट होती है, कहने में असंगति नहीं कि इनकी कहानियों का कैनवास बहुत विस्तृत है।

मजदूर वर्ग का शोषण चित्रित करते हुए कहानीकार दिखाता है कि कैसे सारे नियम हमेशा मजदूर वर्ग पर थोपे जाते हैं जिस पर कई बार उन्हें सजा भी सुना दी जाती है। मजदूर संगठन बनने के शुरुआती संकेत पर प्रबंधन द्वारा उसे कुचलने का यत्न तथा विवशता में बिखरते मजदूरों का मार्मिक वर्णन कथा में मिलता है।

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“विश्वनाथ त्रिपाठी” इस कहानी के संदर्भ में लिखते हैं कि ‘ बदबू के एहसास का मर जाना और यह एहसास की बदबू का बोध नहीं रह गया है, वैयक्तिक और उससे कहीं बढ़कर सामाजिक ऐतिहासिक शून्यबोध का रहना और मिट जाना है चेतन और अचेतन हो जाने का अंतर है।

कामगारों को परिवार, समाज व परिवेश से अलगाव का बोध बदबू कहानी कराती है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने यह बताने की कोशिश की है कि समाज में पूंजीवाद वर्गीय लोग किस तरह से कामगारों का शोषण करते हैं।

उक्त बातें शहर के सत्येनद्र नगर स्थित डॉ. शिवपूजन प्रसाद सिंह के आवास पर आयोजित बतकही कार्यक्रम में लेखक शेखर जोशी की लिखित कहानी बदबू कि पाठ के दौरान साहित्यकारों ने कही।

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कार्यक्रम की अध्यक्षता नेत्र चिकित्सक डॉ. हनुमान राम व कहानी का पाठ डॉ. धनंजय जयपुरी ने किया। डॉ. राम ने कहा कि प्रेमचंद के बाद के प्रगतिशील रचनाकारों में शेखर जोशी अग्रणी रहे हैं।

इनकी लिखित कहानी बदबू में नगरीय व औद्योगिक जीवन की विडंबनात्मक स्थिति को दिखलाने का प्रयास किया गया है। समकालीन जवाबदेही के संपादक डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद मिश्रने बतकही करते हुए कहा कि यूं तो इस कहानी का मुख्य पात्र नाम रहित है।

पर यह कहानी संवेदना के स्तर पर उच्च कोटी की है। इस कहानी में दिखलाया गया है कि पूंजीवाद वर्गीय एकजुटता में मुखबिरों के माध्यम से कैसे विघ्न डाला जाता है। यह कहानी दर्शाती है। बतकही के दौरान साहित्यकारों ने बदबू कहानी की पाठ पर चर्चा करते हुए अपनी- अपनी राय रखी।

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इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी के एसोशिएट प्रोफेसर कुमार वीरेन्द्र ने कहा कि शेखर जोशी ऐसे कथाकार हैं। जिन्होंने इस कहानी की दिशा गांवों से हटाकर उद्योगों की ओर मोड़ दी। कहानी के माध्यम से मजदूरों की परिस्थिति को बताया।

कार्यस्थल पर मजदूरों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाता है। चिकित्सक डॉ. रामाशीष ने कहा कि हालांकि अब स्थितियां बदली है फिर भी यह कहानी साफ संकेत करती है की तलाशी मनोबल तोड़ने के लिए होती है। एक साथी ने उसकी परेशानी का कारण भाँप लिया था, ‘ऐसे नहीं उतरेगा मास्टर। आओ, तेल में धो लो, कहकर उस साथी ने उसे अपने साथ चले आने को संकेत किया।

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एक बड़े टब में घटिया किस्म का कैरोसीन तेल रखा हुआ था। दोनों ने अपने हाथों को कुहनी- कुहनी भर उसमें डुबाकर मला। अब हथेलियों ओर बाँहों में लिपटी सारी चिकनी कालिख धुल गई थी, परंतुउसे लगा जैसे दोनों बाँहों में अदृश्य चीटिंयाँ रेंग रही हों। कैरोसीन तेल कीगंध के कारण उसका जी मिचला उठा। इस खीझ और गंध से मुव्ति पाने के लिए वह नल की ओर चल दिया।

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अंतिम साइरन बज चुका था । पानी के प्रत्येक नल पर बीसियों कामगार घिरे हुए थे। कुछ लोग हाथों में साबुन मल रहे थे और शेष मल चुकने पर हाथों को पानी से धोने के लिए बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे देखकर सबकी अजनबी निगाहें उसकी ओर लग गई। एक-दो मजदूरों ने सौजन्य प्रदर्शन के लिए अपनी बारी आने से पहले ही उसे पानी लेने को बढ़ावा दिया।

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किंचित संकोच के बाद उसने आगे बढ़कर पानी ले लिया। यह संकोच स्वाभाविक था। अपनी बारी आने से पहले पानी लेने का प्रयत्र करने वालों को उत्साहित करने की इच्छा किसी के मन में न थी, यह वह दो क्षण पहले विभिन्नर स्वरों में सुन चुका था।

परंतु उसे पानी लेते देखकर किसी ने आपत्ति नहीं की। एक बार हाथ अचछी तरह धो लेने पर उसने उन्हें नाक तक ले जाकर सूंघा। कैरोसीन की गंध अभी छूटी नहीं थी। दुबारा साबुन से धो लेने पर भी उसे वैसी ही गंध का आभास हुआ, फिर एक बार और साबुन जेब से निकाल कर उसने हाथों में मलना शुरू कर दिया।

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घासी रस ले-लेकर एक किस्सा सुनाने लगा और सारा समूह अपनी व्यस्तता भूलकर उसकी बात सुनता रहा एक गाँव के मेहतर की लौंडिया थी। उसकी शादी हुई शहर में जैसा तुम जानो, गाँव के मेहतरों को तो कभी गंदा उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। नई- नई शहर में गई तो दिन-रात नाक चढ़ा कर अपने खसम से कहा करे -बदबू आती है, बदबू आती है। मालिक क्या करता।

उसकी खातिर पेशा तो छोड़ नहीं सकता था। थीरे-धीरे लौंडिया भी काम पर जाने लगी। साल-छः महीने के बाद मेहतर की सासू शहर देखने आई। रास्ते में ही हाथ में झाडू बाल्टी लिये बेटी मिल गई। माँ पहले तो लाड़ से बेटी से गले मिली और फपफिर नाक पर औऑँचल रख लिया। बेटी ने पूछा, “ऐ अम्मा, नाक-मुँह क्यों बंद कर लिया? माँ बोली, ‘ बेटी बदबू आती है। बेटी अचम्भे से बोली, कैसी बदबू?

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मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम देती ” नल के इर्द- गर्द घिरे हुए सभी कामगारों के थके चेहरों पर भी उसकी बात सुनकर हँसी खिल गई। घासी ने ही फिर बात को स्पष्ट किया, ये भाई भी अभी हाथ नाक पै ले जा-जा के सँघ रहे थे तभी किस्सा याद आया। पहले-पहल हम भी ऐसे ही सँघा करते थे। पर अब तो ससुरा पता ही नहीं लगता।

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कितनी बार तो साबुन नहीं मिलता, ऐसे ही पोछ-पांछकर रोटी खाने बैठ जाते है। संकेत उसी की ओर था। परिहास के उत्तर में गम्भीर हो जाना उसे उचित न लगा। सभी की हँसी में उसने अपना योग भी दे दिया। परन्तु घासी की बात पर उसे आक्ष्य हो रहा था। तेल की ऐसी तीखी दुर्गध को साबुन से छुटाये बिना आदमी कैसे भला चैन से रह सकेगा।

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इसका उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। कपडे बदल कर वह लाइन में जा लगा। इकहरी पंक्ति के प्रारम्भ में हेड फोरमैन के साथ एक गोरखा सिपाही खड़ा था। प्रत्येक मजद्र अपनी रोटी का खाली डिब्बा खोलकर उसे दिखाता और फिर दोनों हाथ ऊँचे उठाकर तलाशी देने की मुद्रा में खड़ा हो जाता। गोरखा सर्चर मजदूर की छाती, कमर ओर जेबों को टटोलकर आगे बढ़ जाने का संकेत कर देता। जल्दी घर पहुँचने की इच्छा रखने वालों को पंक्ति की धीमी गति के कारण झुंझलाहट हो रही थी।

इसी झंझलाहट में कभी-कभी लोग पंक्ति में अपने से आगे व्यक्ति को ठेल देते। बीच-बीच में मोटा फोरमैन उनकी इस जल्दबाजी को कोई भह्दी, अश्लील व्याख्या कर हँस देता था। उसेफोरमैन का यह व्यवहार अचछा नहीं लगा।

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परंतु ने उसने सुना, पंक्ति में से ही कोई कह रहा था, फोरमैन जी बडे रंगीले आदमी हैं। सम्मति प्रकट करने वाला एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति था जो अब भी कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से फोरमैन की ओर देख रहा था कि जैसे फोरमैन ने यह मजाक करके उन पर बड़ी कृपा कर दी हो।

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IGNOU MHD ALL FREE SOLVED ASSIGNMENT (2023-2024) 

3. एक कहानीकार के रूप में मोहन राकेश का मूल्यांकन कीजिए।

हिन्दी नाटकों में भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद का दौर मोहन राकेश का दौर है, जिसमें हिन्दी नाटक दुबारा रंगमंच से जुड़े। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद यदि कोई लीक से हटकर नाम उभरता है तो वह मोहन राकेश का है।

बीच में और भी कई नाम आते हैं, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए, किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक अलग ही स्थान पर नज़र आता है। इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया।

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मोहन राकेश पहले कहानी विधा के ज़रिये हिन्दी में आए। उनकी ‘मिसपाल’, ‘आद्रा’, ‘ग्लासटैंक’, ‘जानवर’ और ‘मलबे का मालिक’ आदि कहानियों ने हिन्दी कहानी का परिदृश्य ही बदल दिया। वे ‘नयी कहानी आन्दोलन’ के शीर्ष कथाकार के रूप में चर्चित हुए। मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार हैं।

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उनकी कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिससे वे आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं। उनकी खूबी यह थी कि वे कथा-शिल्प के उस्ताद थे और उनकी भाषा में गज़ब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। कहानी से लेकर उपन्यास तक में उनकी कथा-भूमि शहरी मध्य वर्ग है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है।

मोहन राकेश हिंदी साहित्य के उन चुनिंदा साहित्यकारों में हैं जिन्हें ‘नयी कहानी आंदोलन’ का नायक माना जाता है और साहित्य जगत् में अधिकांश लोग उन्हें उस दौर का ‘महानायक’ कहते हैं। उन्होंने ‘आषाढ़ का एक दिन’ के रूप में हिंदी का पहला आधुनिक नाटक भी लिखा। कहानीकार-उपन्यासकार प्रकाश मनु भी ऐसे ही लोगों में शामिल हैं, जो नयी कहानी के दौर में मोहन राकेश को सर्वोपरि मानते हैं।

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मोहन राकेश एक सफल नाटककार थे। भारतेंदु हरिश्वंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद हिंदी नाटकों में मोहन राकेश का युग रहा ।से यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो वह है मोहन राकेश का। हालाकि बीच में और नाटककार भी हुए जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक विधा को सुदढ किया किन्तु मोहन राकेश का लेखन सबसे अलग है।

उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रूमानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहन से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया। उन्होंने हिंदी में नाटक लिखे हैं। किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों को भी जताते हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया वरन्उ से को विश्ব नाटक की सामान्य धारा से जोड़ा।

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प्रमुख भारतीय निर्देशक जैसे इब्राहीम अलकाजी,ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड़, श्यामानन्द जालान, राम गोपाल बजाज और दिनेश ठाकुर ने मौहन राकेश के नाटकों का निर्देशन किया। मोहन राकेश के नाटक आषाढ का एक दिन तथा लहरों के राजहंस में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होने के बावजूद থাयषप अयूपक मनुष्यक अतदट्रुद आर संशयों की गाथा कही गयी है। एक नाटक की पृष्ठभूमि जहां है तो दूसरा बौद्धकाल ।

आषाढ़ का एक दिन में सफलता और प्रेम में एक को चुनने के द्वन्द्र से जूझते कालिदास के चरित्र के जरिये मोहन राकेश रचनाकार और आधुनिक मनुष्प के मन की पहेलियों को सामने रखते हैं । वही प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं दूटने देनेवाली इस नाटक की नायिका के रूप में हिंदी साहित्य को एक अविस्मरणीय पात्र दिया है।

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राकेश के कालिदास विशिष्ट होकर भी खल की भांति दिखते हैं। आथे अधूरे की सावित्री बिननी कित्री कभी स्वयं से खीझती है तो कभी आसपास की ज़िन्दगी से लहरों के राजहंस में और भी जटिल प्रश्नों को उठाते हुए जीवन की सार्थकता, भौतिक जीवन और अध्यात्मिक जीवन के द्वन्द, द्रसरों के द्वारा अपने मत को दुनिया पर थोपने का आग्रह जैसे विषय उठाये गए हैं।

उनके नाटकों को रंगमंच पर मिली शानदार सफलता इस बात का गवाह है कि नाटक और रंगमंच के बीच कोई खाई नहीं है। उनका तीसरा और सबसे लोकप्रिय नाटक आधे अधूरे है । जिसमें नाटककार ने मध्धवर्गीय परिवार की दमित इच्छाओं कुंठाओं और विसंगतियो को दिखाया है ।

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इस नाटक की पृष्ठभूमि आधुनिक मध्यवर्गीय समाज है । वर्तमान जीवन के टूटते हुए संबंधों ,मध्यवर्गीय परिवार के कलहपूर्ण वातावरण विघटन ,सन्त्रास व्यक्ति के आधे अधूरे व्यक्तित्व तथा अस्तित्व का सजीव चित्रण हुआ है।

मोहन राकेश का पह नाटक, अनिता औलक की कहानी दिन से दिन का नाट्यरुपांतरण है। मोहन राकेश ने अपनी रचनाओं में सरल, सहज, व्यावहारिक, संस्कृतनिष्ठ एवं परिमार्जित खड़ी बोली का प्रयोग किया है। कहीं. कहीं दैनिक जीवन में प्रचलित उर्दू एवं अंग्रेजी के शबदों का प्रयोग भी मिलता है। उनकी भाषा सजीव, रोचक और प्रवाहपूर्ण है।

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इउनकी रचनाएं प्रमुखत: वर्णनातमुक,विवरणात्मक भावात्मक तथा चित्रात्मक शैलियों में हैं। संगीत नाटक अकादमी ने सन् 1968 में उन्हें सम्मानित किया था। मोहन राकेश को कहानी के बाद सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली।

हिंदी नाटकों में भारतेंदु और प्रसाद के बाद का दौर मोहन राकेश का दौर है जिसें हिंदी नाटकों को फिर से रंगमंच से जोड़ा। हिन्दी नाठ्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो मोहन राकेश का। हालांकि बीच में और भी कई नाम आते हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं; किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक द्रसरे धुवान्त पर नज़र आता है।

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इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी ऐन्द्रिजालिक सम्मोहक से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया।

वस्तुतः मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया वरन् उसके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। प्रमुख भारतीय निर्देशकों इब्राहीम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड़, श्यामानन्द जालान, राम गोपाल बजाज और दिनेश ठाकुर ने मोहनराकेश के नाटकों का निर्देशन किया।

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मोहन राकेश के दो नाटकों आषाढ़ का एक दिन तथा लहरों के राजहंस में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेने पर भी आधुनिक मनुष्य के अंतर्द्द और संशयों की ही गाथा कही गयी है। एक नाटक की पृष्ठभूमि जहां गुप्तकाल है तो दूसरा बौद्धकाल के समय के ऊपर लिखा गया है।

आषाढ़ का एक दिन में जहां सफलता और प्रेम में एक को चुनने के द्वंद्ध से जूझते कालिदास एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को सामने रखते हैं वहीं प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देने वाली इस नाटक की नायिका के रूप में हिंदी साहित्य को एक अविस्मरणीय पात्र मिला है।

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लहरों के राजहंस में और भी जटिल प्रश्रं को उठाते हुए जीवन की सार्थकता, भौतिक जीवन और अध्यात्मक जीवन के द्वन्द, दूसरों के द्वारा अपने मत को दुनिया पर थोपने का आग्रह जैसे विषय उठाये गए हैं। राकेश के नाटकों को रंगमंच पर मिली शानदार सफलता इस बात का गवाह बनी कि नाटक और रंगमंच के बीच कोई खाई नही है।

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मोहन राकेश का तीसरा व सबसे लोकप्रिय नाटक आधे अधूरे है। जहाँ नाटककार ने मध्यवर्गीय परिवार की दमित इच्छाओ कुंठाओ व विसंगतियो को दर्शाया है । इस नाटक की पृष्ठभूमि एतिहासिक न होकर आधुनिक मध्यवर्गीय समाज है । MHD 11 free solved assignment

आथे अधूरे मे वर्तमान जीवन के टूटते हुए संबंधो,मध्यवर्गीय परिवार के कलहपुर्ण वातावरण विघटन ,सन्त्रास व्यक्ति के आधे अधूरे व्यक्तित्व तथा अस्तित्व का यथात्मक सजीव चित्रण हुआ है । मोहन राकेश का यह नाटक , अनिता औलक की कहानी दिन से दिन का नाट्यरुपांतरण है।

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4. ड्रॉइंग रूम’ कहानी में अभिव्यक्त जीवन दर्शन को स्पष्ट करते हुए उसकी कथा संरचना पर प्रकाश डालिए।

‘डाइंग रूम कहानी जीवन और मृत्यु पर एक दार्शनिक प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है। कहानी की कथा संरचना इस प्रकार है: परिचयः कहानी डाइंग रूम की अवधारणा को पेश करने से शुरू होती है, एक ऐसी जगह जहां लोग शांति से अपना जीवन समाप्त करने जाते हैं। यह जीवन और नश्वरता के दार्शनिक अन्वेषण के लिए मंच तैयार करता है।

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डाइंग रूम का विवरणः कहानी डाइंग रूम, उसके शांत वातावरण और उस प्रक्रिया का एक विशद वर्णन प्रदान करती है जिसके द्वारा व्यक्ति इसमें प्रवेश करना चुनते हैं। यह किसी के जीवन को समाप्त करने के निर्णय की स्वैच्छिक प्रकृति और जबरदस्ती की अनुपस्थिति पर जोर देता है।

बूढ़े आदमी के साथ मुठभेडः: कहानी का नायक, एक युकक, मरने वाले कमरे में एक बुजुर्ग व्यक्ति से मिलता है। बूढ़ा व्यक्ति जीवन पर अपना दृष्टिकोण साझा करता है और युवक को दार्शनिक ज्ञान प्रदान करता है।

जीवन दर्शनः उनकी बातचीत के माध्यम से बूढ़ा व्यक्ति जीवन की नश्वरता और क्षणभगुरता पर चर्चा करता है। वह अस्तित्व के अर्थ, मृत्यु की अनिवार्यता और वर्तमान क्षण को अपनाने के महत्व पर विचार करता है। बूढ़ा व्यक्ति युवक को जीवन की सुंदरता की सराहना करने के लिए प्रोत्साहित करता है, इसकी संक्षिप्तता के बावजूद।

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मृत्यु दर पर चिंतन: युवक वृद्ध व्यक्ति की अंत्ष्टि पर विचार करता है और जीवन और मृत्यु पर अपने स्वयं के टृष्टिकोण पर सवाल उठाने लगता है। वह नश्वरता के आपने डर का सामना करता है और प्रत्येक क्षणभंगुर क्षण के मूल्य की गहरी समझ प्राप्त करता है।

संकल्प और चिंतन: कहानी का समापन उस युवक के मरने के कमरे से निकलने के साथ होता है, जिसने जीवन के प्रति अपने दटष्टिकोण में गहरा परिवर्तन किया है। वह बूढ़े आदमी के दर्शन पर चिंतन करता है और उसे अपने साथ ले जाता है क्योंकि वह एक नई यात्रा पर जाता है।

डाइंगरूम की कथा संरचना एक रैखिक प्रगति का अनुसरण करती है, जो पाठक को युवक और बूढ़े के बीच मुठभेड़ के माध्यम से निर्देशित करती है। कहानी प्रभावी रूप से गहन अस्तित्व संबंधी विषयों का पता लगाने के लिए संवाद और आत्मनिरीक्षण का उपयोग करती है, जीवन की प्रकृति, मृत्यु दर और प्रत्येक क्षण को संजोने के महत्व पर चिंतन को प्रोत्साहित करती है।

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डाइंग रूम’ कहानी निम्नलिखतित प्रमुख विषयों पर ध्यान केंद्रित करते हुए जीवन का एक विचारोत्तेजक दर्शन प्रस्तुत करती है: नश्चरता और क्षणरभंगुरता: कहानी जीवन की क्षणभंगुर प्रकृति और मृत्यु की अनिवार्यता पर जोर देती है। यह पाठकों को सभी चीजों की नश्वरता को पहचानने और वर्तमान क्षण को पूरी तरह से गले लगाने के लिए प्रोत्साहित करता है।

अस्तित्वपरक प्रतिविंब: युवक और वृद्ध ्यक्ति के बीच मुलाकात के माध्यम से, कहानी आत्मनिरीक्षण और जीवन केि गहरे अर्थ के चिंतन को प्रेरित करती है। यह अस्तित्व के उद्देश्य के बारे में सवाल उठाता है और पाठकों को अपनी मृत्यु दर पर विचार करने के लिए आमंत्रित करता हैं। जीवन की सुंदरता की सराहना कहानी जीवन के सामान्य पहलुओं में सुंदरता और अर्थ खोजने के महत्व को रेखांकित करती है।

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यह पाठकों को उन छोटी-छोटी खुशियों और अनुभवों के लिए आभार की भावना पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करता है जो जीवन को सार्थक बनाते हैं। परिवर्तन और विकास: कथा में युवक की परिवर्तनिकारी यात्रा को दशरशाया गया हे क्योंकि वह मृत्यु के अपने भय का सामना करता है और जीवन पर अपने दष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करता है। यह दार्शनिक जांच और आत्मप्रतिबिंब के माध्यम से व्यक्तिगत विकास और ज्ञान की क्षमता पर प्रकाश डालता है।

कथा संरचना के संबंध में, डाइंग रूम’ स्पष्ट शुरुआत, मध्य और अंत के साथ एक रेखीय कथा प्रक्षेपवक्र का अनुसरण करता है। कहानी डाइंग रूम की अवधारणा को स्थापित करती है और युवक को नायक के रूप में पेश करती है। इसके बाद यह युवक और वृद्ध व्यक्ति के बीच बातचीत और आत्मनिरीक्षण के क्षणों की एक श्रृंखला के माध्यम से प्रकट होता है।

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कहानी धीरे-धीरे तनाव और रहस्य पैदा करती है क्योंकि युवक की विश्वदृष्टि एक परिवर्तन से गुजरती है। अंत में, यह युवा व्यक्ति के मरने के कमरे को छोड़ने के साथ समाप्त होता है, जो उसके साथ जीवन के लिए एक नई सराहना करता है।

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कथा संरचना जीवन और मृत्यु के दार्शनिक अन्वेषण का प्रभावी ढंग से समर्थन करती है। यह पाठकों को प्रारंभिक जिज्ञासा से लेकर गहन आत्मनिरीक्षण तक, और अंततः परिप्रेक्षय में बदलाव के लिए नायक की यात्रा से जुड़ने की अनुमति देता है। अपनी सुव्यवस्थित और आत्मविश्लेषी कहानी के माध्यम से, डाइंग रूम’ पाठकों को अस्तित्व कि गहरे पहलुओं पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है और जीवन के गहन प्रश्नों के प्रति चिंतनशील दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करता है।

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5. ‘सुख’ कहानी के कथ्य का विश्लेषण कीजिए।

काशीनाथ सिंह की कहानी ‘सुख’ एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसे अपने जीवन में दुख मिला, लेकिन कहानी का नाम ‘सुख’ पड़ा। क्योंकि इस कहानी का मुख्य पात्र भोला बाबू है जो कहानी के शुरू में तो सुखी होते है किंतु कहानी के अंत तक जाते-जाते वह पूर्ण रूप से दुखी दिखाई देते है।

सुख कहानी का उद्देश्यः: भोला बाबू जेसे संवेदनशील पात्र का चरित्र चित्रण करना लेखक का उददेश्य है। परंतु कहानी का शीर्षिक है सुख’ आज का मनुष्य जीवन की आपाधापी में इतना व्यस्त होता है कि उसे अपने परिवेश एवं प्रकृति की ओर देखने की फुरसत नहीं मिलती। भोलाबाबू ने आवकाश ग्रहण किया। उन्होनें पहली बार सूर्यास्त देखा।

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उन्हें खुशी हुई यह अनोखी क्षणानुभूति वे सबको बताते हैं। अपनी सुख की अभिव्यक्ति सब में बाँटना चाहते हैं। लेकिन हर कोई उन्हें पागल सा समझते हैं। भोला बाबू के जीवन में दुख तो है ही आवकाश ग्रहण करने के बाद की आ्थिक स्थिति जीवन में आनेवाली रिक्तता। परंतु सुख है प्रकृति सौंदर्य का प्रप्त समय का। जब सुख की बात दूसरों तक नहीं पहुँती तो उन्हें दुख होता हैं। उन्हें रोना आता है। परिवार के लोग मात्र उनके रोने में शामिल होते हैं। मतलब उनका सुख दूसरों तक नहीं पहुँच सका।

सूर्यास्त याने संधिकाल भोला बाबू ने अवकाश ग्रहण किया। मतलब तो जीवन समाप्त नहीं हुआ। अब अंधेरा तो नहीं हुआ चलो इसमें भी सुख है। लेखक के जीवन के प्रति आस्थावादी और आशावादी दष्टिकोन के अनुसार शीर्षक है।सुख’ कहानी काशीनाथ के पहले कहानी संग्रह लोग बिस्तरों पर’ की एक महत्तवपूर्ण कहानी है। जिसमें कहानीकार मनुष्य के अपने परिवेश और प्रकृति से उसके विच्छेद होते हुए संबंधों को प्रकट करता है।

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कहानीकार स्वयं प्रकाश उनकी कहानी विधा के विषय में लिखते हैं-

“्यह आदमी सारी ऊर्जा रचना के लिए बचाकर रखता है। सो भी निबंध, समीक्षा, टिप्पणी, व्यंग्य, कविता या सब कुछ के लिए नहीं सिर्फ कहानी के लिए। यही वजह है कि चाहे ‘लोग बिस्तरों पर हो, चाहे सुख, चाहे माननीय होम मिनिस्टर के नाम’ हो चाहे सर्दी-का सबसे बड़ा आदमी’, काशी की कोई भीकहानी नामुकम्मिल या अधूरी नहीं है। एक भी कहानी उन्होंनें ऐसी नहीं लिखी है जिसे पढ़कर आपको लगे इसमें कुछ छूट गया है या इसमें कुछ और होता तो ज़्यादा अच्छा होता।”

स्वयं काशीनाथ सिंह अपनी कहानी ‘सुख का उल्लेख करते हुए लिखते है

” सुख प्रकृति से विचछित्र होते जा रहे मनुष्य की कहानी है। मनुष्य से मनुष्य के, पिता से पुत्र के, पत्नी से पति के, माँ से बेटे के संबंध के टूटने या बिखरने की कहानियाँ तो लिखने वाले और भी थे लेकिन सुख की थीम अलग थी – उनसे कहीं व्यापक और सामाजिक। अपने ही परिवार और समाज में अकिले पड़ते जा रहे मनुष्य की कहानी।

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… स्वाधीनता ने नई कहानी में जो आशाएँ, आकाक्षाएँ और सपने जगाए थे, उन्हें भारत-चीन युद्ध ने ध्वस्त कर दिया। विकास की सारी योजनाएँ भ्रष्टाचार की शिकार साबित हो गई थी। देश असहाय हो गया था और हमारा राष्ट्नायक खुद को अकेला और निरीह महसूस करने लगा था। हमारी कहानियाँ इसी अकेलेपन और ध्वस्त होते जा रहे पुरानें मूल्यों की प्रतिछवियाँ थी।”

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काशीनाथ सिंह का कहानीकार रूप कोई एक स्थान पर ठहरे हुए कथाकार का रूप नहीं है। उनकी कथायात्रा को ठीक तरह से समझने के लिए उनकी काथा यात्रा के विभिन्न चरणों को समझना आवश्यक है। इनकी कहानियों में इनके समय का यथार्थ पूर्ण रूप से झलकता है। जिसका एक सशक्त उदाहरण इनकी कहानी ‘सुख’ है।

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काशीनाथ सिंह की कहानी ‘सुख’ एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसे अपने जीवन में दुख मिला, लेकिन कहानी का नाम ‘सुख पड़ा। क्योंकि इस कहानी का मुख्य पात्र भोला बाबू है जो कहानी के शुरू में तो सुखी होते है किंतु कहानी के अंत तक जाते-जातेत वह पूर्ण रूप से दुखी दिखाई देते हैं।

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6. दलित साहित्य की अवधारणा पर प्रकाश डालते हुए सिलिया’ कहानी के महत्व की चर्चा कीजिए।

भारतीय समाज में जाति व्यवस्था पीढ़ी- दर-पीढ़ि से चलती आ रही है। समाज में सामाजिक व्यवस्था अव्यवस्थित होना शुरू होता है तब उसको बनाये रखना साहित्यकारों का मूल लक्ष्य होता है। साहित्यकारों का जन्म समाज में होने के कारण वह अपने साहित्प में सामाजिक कुरीतियों को याने सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी पहलुओं को कृतिबद्ध करना शुरू करता है।

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इसी प्रकार आधुनिक साहित्य के संदर्भ में दलित साहित्य इन सभी लक्ष्यों को लेकर ही जन्म लिया है। दलित लोग अपने जीवन में भोगी हुई घटनाओं को शब्दबद्ध करने लगे हैं। दलित लोगों का इतिहास देखने पर पता चलता है कि वाल्मीकी जैसे महान् कवि, अंबेडकर जैसे संविधान शिल्पि, पुले जैसे धार्मिक नेता आदि लोगों का योगदान इस संसार के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है। दलित साहित्य लिखनेवालों में दो पक्ष हैं – एक है दलित साहित्यकार और टूसरा गैर दरलिंत साहित्यकार।

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दलित साहित्यकार गैर दलित साहित्यकारों को नहीं मान रहे हैं। इसका मूल कारण यह है कि दलित साहित्यकार का विचार है गैर दलित साहित्यकार दलित लोगों के जीवन को दूर से महसूस करते हैं। लेकिन दलित साहित्यकार अपने जीवन में भोगे हुए निजी घटनाओं को शब्दबद्ध करते हैं।

इस प्रकार की सच्चाई ज्यादा होने के कारण गैर दलितकारों को कम मान्यता दे रहे हैं। दूसरे पक्ष देखे तो सवर्ण लोग दलित साहित्यकारों से लिखित साहित्य को न मानते हुए उस साहित्य को गलीज साहित्य कह कर श्रेष्ठ साहित्य के पक्ष से द्र रखने का डोंग रचा रहे हैं।

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दलित शब्द के अर्थ के संद्भ में दो मत प्रचलित हैं। प्रथम अर्थ संकुचित है, द्रसरा व्यापक अर्थ में प्रयुक्त है। संकुचित अर्थ धार्मिक ग्रंथ, सामाजिक व्य्वस्था आदि से उत्पन्न है, जिसके अंतर्गत चतुर्थ-वर्ण (शूद्र) में आनेवाली जातियों को आधार बताया जाता है। जबकी व्यापक अर्थ में ये उन सभी के लिए प्रयुक्त शब्द है, जिन्हें किसी न किसी प्रकार से दबाया गया हो, फिर चाहे ये किसी भी जाति, वर्ण या संप्रदाय से जुडे हो।

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‘दलित’ शब्द का अर्थ है- जिसका दलन और दमन हुआ है, जिसे दबाया गया है, उत्पीडित, शोषीत, सताया हुआ, गिराया हुआ, उपेक्षित, घृणित, रोंदा हुआ, मसला हुआ, कुचला हुआ, विनिष्ट मर्दित, पक्त-हिंम्मत है तो साहित्य वंचित आदि। बृहत हिंदी कोश में दलित शब्द का अर्थ इस प्रकार दिया गया है। जैसे- “रेदा, कुचला हुआ पढ़क्रांत-वर्ग, हिंदुओं में वे शुद्र जिन्हें अन्य जातियों के समान अधिकार प्राप्त नहीं है।”

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इसी प्रकार कैवल भारती का मानना है कि ‘दलित वह है जिस पर असप्रश्यता का नियम लागू किया गया है। जिसे कठोर और गंदे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया और जिस पर अछूतों ने सामाजिक निर्योग्यिताओं की संहिता लागू की, वही और वही दलित है, और उसके औंतर्गत वही जातियाँ आती हैं, जिन्हें अनुसूचित जातियाँ कहा जाता है।

हिंदी दलित साहित्य के सर्वश्रे्ठ साहित्पकार डा.सुशीला टाकभौरे ने अपनी कहानियों के मध्यम से दलितों की सामजिक, थार्मिक, आर्थिक तथा शैक्षिक चित्रण के साथ उच्चवर्ग के प्रति अपने विद्रोह को स्पष्ट किया है। उनकी अधिकतर कहानियाँ अंबेड़करी विचारधरा पर आधारित हैं। उनकी रचनाओं में शोषकों से ही नहीं बल्कि अन्याय के विरूद्ध आत्मकथात्मक और मनोविश्लेषणात्मक हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में अपने विचार, जीवन की घटनाएँ और अनुभों को प्रस्तुत किया है।

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नारी मन के अंतद्रवंद्ध का चित्रण भी इन कहानियों का मुख्य विषय रहा है। उनकी कहानियों में समाज में व्याप्त जतिभेद, सामाजिक असमानता, छुआ-छूत की भावना और दलित समाज के पीडितव्यक्ति द्वारा भोगे हुए अनुभवों का कथन है आज के इस युग में भी समाज से जातिभेद की भावना पूरी तरह से नहीं मिट गयी है।

समाज में जातिवाद के बंधन काफी सुदृढ़ दिखाई दे रहा है। सुशीला जी की कहानियों में भी इस जातिभेद की समस्या देख सकते हैं। जाति-पाति या वर्णव्यवस्था को जन्म के आधार पर नहीं स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य मात्र की एक ही जाति है।

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गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य ऊँच- नीच होता है। अत: मनुष्य को जीवन में अपने कर्म अच्छे बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। संघर्ष कहानी में 14 साल का शंकर बहुत शरारती होने के साथ घर में सभी को तंग करता है। बाहर के बच्चे भी इसके शरारती से तंग होकर इसे छेड़ते हैं। गॉाँव के कुछ लोग इसे अछूत मानते हैं।

ये उसे अच्छा नहीं लगता। शंकर के मित्रों के कार्य से क्रोधित हो कर वह भी जानबूझकर मित्रों के घर के अंदर गुसता है और सवर्ण (मित्रों को) कड़को से बदला लेकर वह अपनी टाग अड़ाकर उसे गिरा देता है। स्कूल में आध्यापक उसे अछूत होने के कारण परेशान करते हैं। कारण वश वह पढ़ाई में मन लगाता है।

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फिर भी अन्य बच्चे शंकर के नानी सुअर पालने के कारण इसकी मजाक उड़ाते हैं। इन सभी बाह शंकर के मन में जब पढ़कर कुछ कर दिखाने की बात आती है तो अंत में वह जादा अंक लेकर दसवीं कक्षा पास करता है।

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किसी समाज की प्रगतिशीलता वहाँ की शिक्षा पर आधूत होती है। सामाजिक प्रक्रिया में शिक्षा का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। समाज में जिस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था होगी, उसी प्रकर के समाज का निर्माण भी होगा। शताब्दियों से दलितों के पिछड़ेपन का कारण उनका अशिक्षितत होना है। आज भीदलितों के बीच में शिक्षा की कमी है।

शिक्षा के अभाव के कारण वेन कभी अपने अधिकारों को समझ सरकें, न उनकी प्राप्ति के लिए आवाज़ उठा सकें। शोषण का आधार क्या है यह जाने बिना संघष्ष नहीं किया जा सकता। यह ज्ञान शिक्षा से ही प्राप्त हो सकता है।

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नई राह की खोज’ कहानी में रामचंद्र अनपढ़ है। वह अपने बेटे लालचंद को अंग्रेजी कानवेंट स्कूल में भेजता है। मगर घर में सभी अनपढ़ होने के कारण उसके आगे की पढ़ाई नहीं हो पाता है।

परिणामस्वरू्प उसे पाँचवीं कक्षा से फिर कारपोरेशन की हिंदी प्राइमरी स्कूल में दाखिल किया जाता है। उसे हिंदी अच्छी तरह सेन आने के कारण वह स्कूल से भागने लगता है। अत: वह मैट्टीक भी नहीं कर पाता। घर में सभी यह कहते हैं- “आरे आगे चलकर तो बाप का ही काम करना है।

क्या जरूरत है अंग्रेजी पढ़ाई- लिखाई की। साँ बाबू की नौकरी हम लोगों के नसीब में कहाँ होती है? दलित समाज के लोगों को यह जानना जरूरी है कि जीवन की लड़ाई को लड़ने के लिए शिक्षा ही सबसे ज्यादा मारक और शक्तिशाली अस्त्र है ।

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ये लोग अपने बच्चों के बारे में गंभीरता से सोचते नहीं हैं। अत: बच्चे होशियार और बुद्रिमान होकर भी कुछ नहीं कर पाते। घर का वातावरण और अर्थाभाव उनकी पढ़ाई अधुरी रह जाने का और एक कारण है। अत: उनमें यह संदेश देना जरूरी है कि शिक्षा के माध्यम से ही अन्याय और असमानता के खिलाफ संघर्ष कर सकते हैं। MHD 11 free solved assignment

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