IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment 2024

IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment 2024 (For Jan and Dec 2024)

Contents

MHD 02 (आधुनिक हिन्दी काव्य)

सूचना  
MHD 02 free solved assignment मैं आप सभी प्रश्नों  का उत्तर पाएंगे, पर आप सभी लोगों को उत्तर की पूरी नकल नही उतरना है, क्यूँ की इससे काफी लोगों के उत्तर एक साथ मिल जाएगी। कृपया उत्तर मैं कुछ अपने निजी शब्दों का प्रयोग करें। अगर किसी प्रश्न का उत्तर Update नही किया गया है, तो कृपया कुछ समय के उपरांत आकर फिर से Check करें। अगर आपको कुछ भी परेशानियों का सामना करना पड रहा है, About Us पेज मैं जाकर हमें  Contact जरूर करें। धन्यवाद 

MHD 02 Free solved assignment (Hindisikhya) :-

Mhd 02

1. समाज सुधार की दृष्टि से भारतेंदु की कविताओं के महत्व पर प्रकाश डालिए ।

उत्तर:

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र‘ था, ‘भारतेन्दु‘ उनकी उपाधि थी। उनका कार्यकाल युग की सन्धि पर खड़ा है।

उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ परम्परा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोये। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया।

समाज सुधार और नवजागरण: समाज सुधार की इष्टि से भारतेंदु- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का सम्पूर्ण जीवन लेखन, समर्पण और संघर्ष की अनन्त गाथा है। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के द्वारा समाजोत्थान और राष्ट्रीय जन-जागरण का महनीय कार्य किया, उस कार्य के लिए उन्होंने शस्त्र के स्थान पर लेखनी को ही एक कारगर हथियार के रूप मैं प्रयुक्त किया।

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पश्चिमी सभ्यता के साथ पहले सम्पर्क में आने के कारण पश्चिमी बंगाल में नए विचारों का प्रादुर्भाव भी पहले ही हो गया।मध्यकालीन भारतीय समाज की रुढ़िवादिता, संकीर्णता, अंधविश्वासी चेतना को पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान के आलोक में झकझोर कर जगाने का काम बंगाल में राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, रामकृष्णपरमहंस, स्वामी विवेकानन्द सरीखे विद्वानों ने अपने हाथ में लिया था।

828 ई0 में ही बंगाल में ब्रह्म समाज की स्थापना हो चुकी थी। बाल-विवाह पर रोक, विधवा विवाह की अनुमति, नारी शिक्षा, अंधविश्वासों का नकार आदि सामाजिक क्रांति के स्वर वहाँ के अपने छोटे से देश के विभिन्न भागों की अनेकों यात्रांएं की थीं। बंगाल की यात्राओं का लाभ उन्हें वहाँ समाज सुधार की प्रगति देखकर मिला, जिसका खुले मन से स्वीकार कर हिंदी प्रदेश में वे यह ज्योति ले आए और खुलकर सामाजिक सुधारों का झंडा उठा लिया।

अपनी स्वतंत्र कविताओं के अलावा नाटकों के लिए लिखी गई कविताओं में भी समाज सुधार के उनके विचार अभिव्यक्त हुए हैं।

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अपने क्रान्तिकारी विचारों से  उनके सामने सम्पूर्ण देश की तस्वीर थी इसीलिए उनका लेखन व्यष्टि के लिए नहीं, समष्टि के हितों के लिए था। राजसी वैभव मैं रहकर भी वे राजसी मानसिकता से दूर रहे, सामन्तवादी वातावरण से जुड़कर भी वे सामन्तवादी प्रभाव से अफूते रहे, महाजनवादी संस्कारों में पलकर भी उनका दृष्टिकोण जनवादी रहा।

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व्यक्ति और राष्ट्र की चिन्ता उनके जीवन और लेखन का केन्द्र बिन्दु बना। भारतेन्दु ने जन-सामान्य के दुःखदर्द को, अन्धी ‘परम्पराओं को, उसके अन्धविश्वासों और दासता की गर्हित मानसिकता को साहित्य का केन्द्रीय कथ्य माना। IGNOU MHD solved assignment

1. समाज सुधार में भारतेंदु की कविताओं का महत्व- भारतेंदु कि कविताओं मे सामाजिक कुरीतियाँ से आदमी की मुक्ति के लिए उन्होंने आवाज उठायी। विदेशी दासता से देश को मुक्त करने के लिए उनहोंने देशवासियों मैं राष्ट्रीयता का प्राण फूँका और अंग्रेजों की भारत-विरोधी नीतियों का पर्दाफाश किया।

समाज और अपनी रचनाओं के द्वारा उन पर तीखा प्रहार किया-‘मरी बुलाऊँ देश उजाईँ, मेंहगा करके अन्न सबके ऊपर टिकस लगाऊँ, धन है मुझको धनन।

2. समाज में नारी समस्या मे सुधार- भारतेन्दु युग के कविताओं मे समाज की विभिन्‍न समस्याओं को व्यापक रूप मैं प्रस्तुत करने की सराहनीय भूमिका निभाई है। नारी शिक्षा, अस्पश्यता और विधवा विवाह का मार्मिक चित्रण भारतेन्दु युग की कविताओं में मिलता है- कौन करेजो नहि कसकत, सुनि बिपति बाल बिधावन की।’

3. समाज मे वर्ण व्यवस्था के प्रति जागरुकता – भारतेन्दु ने अंधेर नगरी’, ‘भारत दुर्दशा’ नाटक मैं वर्णव्यवस्था और सामाजिक अंधैर के संकीर्ण विचारों का खुलकर विरोध किया हैबहुत हमने फैलाद धर्म बढ़ाया छुआछूत का कर्म!”

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4. स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेरक अनुराग मे सुधार- इस काल के काव्य में भारतीय समाज और स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेरक अनुराग दिखाई देता है।सामाजिक विषमता और निर्धनता को देखकर कवि का हृदय चीत्कार कर उठता है। यहाँ के जनजीवन के शिथिल विचारों अकाल और महंगाई में पिसते हुए मध्यम वर्ग को देखकर उनकी वाणी करुणा भाव से भीग उठती है-

 रौवहू सब मिलि, आवहू भारत भाई

हा। हा। भारत दुर्दशा न देखी जाई।

5. समाज में बेरोजगारी में सुधार- भारतेंदु की कविताओं मे नवयुवकों मे आलस को बेरोजगारी का कारण बताते हुए कहा है-

दुनिया मैं हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा,

मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा।

6.समाज में धार्मिक सुधार- शताब्दी में बंगाल से सामाजिक, धार्मिक नवजागरण की जो लहर उठी उतरेधार्मिक काव्य परंपरा के अनुपालन पर कई प्रश्न लग गये। धार्मिक-सामाजिक सुधारवादी आंदोल्ल धर्सकी रूढ़िवादिता, अंधविश्वास, धर्म द्वारा निर्देशित या प्रेरित मान्यताओं का विरोध करने वाली मान्यताओं केखिलाफ भी उन्होंने ज़ोरदार कविताएँ लिखीं। कुछ मान्यताओं को उन्होंने तर्क की कसौंटी पर परखकर बदला भी।

“अहं ब्रहम सब मूरख, ज्ञान गरूर बढ़ाए।

‘तनिक चोट के लगत हैं, रोइ रोड़ करि हाय ।

जो तुम ब्रहम चौट केहिं लागी, रोड़ तजप्रान।

*हरिचंद” हांसी नाहीं है करनो ज्ञान-विधान।।”

7.सामंती संस्कारों के नारी के प्रति सोच में सुधार- नारी के प्रति उनके दृष्टिकोण में बंगाल के नवजागरण मूलक सुधार आंदोलनों का व्यापक प्रभाव था। वे नारी शिक्षा के हिमायती थे, वेश्यागमन के खिलाफ थे, नारी को पुरुष के बराबर मानने के पक्षघर थे। स्त्रीपयोगी पत्रिका ‘बालाबोधिनी’ का प्रकाशन भी उन्होंने शुरु किया था

जो हरि सोई राधिका जो शिव सोई शक्ति ।

जो नारी सोई पुरुष यामें कफ न विभक्ति।।

निष्कर्ष: भारतेंदु एक कवि के रूप में एक ओर तो अपनी परंपरा से जुड़ने के स्तर पर समाज और जनजीवन के तमाम दुख दर्दों को अपनीकविता का विषय बनाकर। राष्ट्रीय नवजागरण के जितने भी आयाम हो सकते हैं – राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम, समाजसुधार सब भारतैंदु की कविता का विषय बनते हैं। अपने काव्य विकास के दौर में वे अंग्रेजी राज की सामाज्यवादी, उपनिवेशवादी मानसिकता को भी समझते हैं।

और खुलकर उसके विरोध मैं भी खड़े होते हैं। विशेष कर “भारत दुर्दशा ‘ मैं आई उनकी कविताएँ और ‘हिंदी भाषा” पर उनका काव्य इस दृष्टि से उल्लेखनीय है ।

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2. उर्मिला जी को गुप्त जी ने पुनःजीवित किया है’ इस कथन की समीक्षा कीजिए।

उत्तर:

मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली क॑ पहले महान कवि हैं । जयद्रथ वघ, पंचवटी, यशोधरा, भारत भारती-और साकेत उनकी अविस्मरणीय कृतियों हैं। साकेत खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य हैं, इस महाकाव्य की सर्वाधिक आकर्षक झॉकी नवमसर्ग में उपस्थित है। मुक्तक शैली में विकसित इस सर्ग की विरहिणी नायिका उर्मिला का उदात्त चरित्र भारतीय नारी के लिये प्रेरणास्यद एवं हृदयग्राही है।

उर्मिला के चरित्र मैं संस्कृति बोध का व्यापक रूप से वर्णित है । उसमैं विरह जनित दस दशाओं अमिलाषा, चिंता, स्मृति, गुण कथन, उदवैग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण के मध्य समस्त भारतीय जीवन आदर्श सन्निहित है जैसे सत्यनिष्ठा, वचन बध्दता, आतिथ्य, धर्म, पतिव्रत, ‘परदुखकातरता इत्यादि का वर्णन करके उर्मिला को पुनः जीवित कर दिया।

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राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी के साहित्य में राष्ट्र का समूचा इतिहास, भूगोल, धर्म, सामाजिक परिवेश, राजनितिक, परिप्र्य समाहित है। उनकी श्रेष्ठ कृति “साकेत” महाकव्य में राष्ट्रीयता का सतसंकल्प निहित है। यह महाकाव्य समस्त भारतीय जीवनादर्श के विस्तार का उद्घोष है। सत्यनिष्ठा, वचनबध्दता, आतिथ्य धर्म, पतिव्रत, एक पत्नीग्रत, परदुखकातरता, लोक मर्यादा आदि इस महाकाव्य के जीवन तत्व हैं।

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सर्वे सुखिनः सन्तु की कामना को लेकर यह महाकाव्य अध्यात्म, भक्ति, धर्म और दर्शन का समन्वय कर जीवन को उदात्त मूल्यों की ओर प्रेरित करता हैं। रामकाव्य की सहस्त्रों वर्षों की परम्परा को नये धरातल पर प्रस्तुत कर साकंतकार ने जीवंत और युग साथ बना दिया। साफेत के रचनाकार गुर जी ने रामकथा के उन मार्मिक स्थलों से साहित्य जगत का संबंध कराया जिनका अन्य पारम्परिक पूर्ववर्ती रामकाव्य में दर्शन नहीं हो पाया था।

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इन मार्मिक स्थलों में प्रमुख हैं साकेत का नवमसर्ग और उसमें भी नायिक, उर्मिला के चरित्रगत वे वैशिष्टय हैं जो भारतीय संस्कृति का पूर्णत: प्रतिपादन करते हैं। वैसे भी “साकेत” महाकाव्य के पीछे दो निवधधों की प्रेरणा हैं, जिसमें प्रथम कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ जी का काव्य की उपेक्षिताएं एवं हितीय आचार्य महावीर प्रसाद हिवेदी का “कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता हैं।

इसलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपनी कृति हिन्दी साहित्य का इतिहास में यह मत रखा है कि साकेत की रचना का उद्देश्य ही यह रहा है कि काव्य जगत में उर्मिला उपेक्षित न रह जाए। आचार्य नददुलारे वाजपेयी का भी यह मानना था कि उर्मिला को नायिका बनाने हेतु ही साकेत में नवमूसर्ग की रचना हुई है।

इन सभी तथ्यों से यह पुष्ट होता है कि उर्मिला का चरित्र साकेत के माध्यम से साहित्य अध्येताओं के लिए चिंतन और शोध का विषय अवश्य रहा है।

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साकेत महाकवि’ मैथिलीशरण गुप्त का लिखा महाकाव्य है जो 2 सर्गों में लिखा गया है। अंत के सर्गों में लक्ष्मण की पत्नी व राजवधू उर्मिला के वियोग का वर्णन है। साकेत मुख्यत: उ्मिला को केन्द्र में रख कर ही लिखी गयी है। उन्हीं की मन:स्थिति का भावपूर्ण वर्णन करके कवि ने उ्मिला को पुनः जीवित कर दिया।

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उर्मिला के हृदय में अपने पति की ही प्रतिमा है लेकिन वह विरह से व्याकुल हैं और उसमें किसी आरती की लौं के समान स्वयं जल रही हैं उस पर कवि कहता है कि-

मानस-मन्दिर मैं सती, पति की प्रतिमा थाप,

जलती-सी उस विरह मैं, बनी आरती आप।

विरहिणी के रूप मैं उर्मिला की प्रवत्स्यत्पतिका तथा प्रोषित-पतिका दौनों ही दशाओं का चित्रण किया गया है। उर्मिला के हृदय में अपने पति की ही प्रतिमा है लेकिन वह विरह से व्याकुल हैं और उसमें किसी आरती की लौं के समान स्वयं जल रही हैं उस पर कवि कहता है कि-

मानस-मन्दिर मैं सती, पति की प्रतिमा थाप,

जलती-सी उस विरह मैं, बनी आरती आप।

विरहिणी के रूप मैं उर्मिला की प्रवत्स्यत्पतिका तथा प्रोषित-पतिका दौनों ही दशाओं का चित्रण किया गया है। उर्मिला के चरित्र को जीवित कर दिया, इनमें प्रथम रूप वियोग की संभावना या पूर्ण निश्चय से संबंधित होता है, तो द्वितीय दशा में नायिका की वास्तविक विरह-दशा का अंकन किया जाता है।

मार्मिकता की दृष्टि से इनमें से नायिका की प्रथम दशा भी कम करुणार्द नहीं होती। के चरित्र को जीवित कर दिया, इनमें प्रथम रूप वियोग की संभावना या पूर्ण निश्चय से संबंधित होता है, तो द्वितीय दशा में नायिका की वास्तविक विरह-दशा का अंकन किया जाता है। मार्मिकता की दृष्टि से इनमें से नायिका की प्रथम दशा भी कम करुणार्द नहीं होती।

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प्रवत्स्यत्पतिका के रूप में उर्मिला के समक्ष, जिसके हाथों की मेंहदी भी अभी भली-भाँति नहीं सूख पायी  है, तब बड़ी ही विकट स्थिति समुत्पनन हो जाती है, जब वह देखती है कि उसके ज्येष्ठ के साथ उसके प्राणेश्वर ने तो जाने का निश्चय कर ही लिया है, वह स्व-पति की आँखों में झाँकती है और उनमें अंकित इस भाव को पढ़ लेती है, कि उसके पति अपने प्रभु समान भाई के लिए उसे भी छोड़ जायेंगे, इस पर कवि कहता है- मरभु-वर बाधा पावेंगे फोड़ मुझे भी जावेंगे?

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उर्मिला के दवारा स्वप्राणेश्वरों की आशा-आकांक्षाओं का सम्मान- भारतीय सन्नारियाँ निजी आशा- आकांक्षाओं की अपेक्षा सदैव ही स्वप्राणेश्वरों की आशा-आकांक्षाओं का सम्मान करती आयी हैं और उर्मिला भी इस दिशा में पीछे नहीं रहती। वह अपने उस अंतर्मन को जो पति के साथ वन-गमन के लिए तड़प रहा है, यह उद्बोधन देकर स्वयं से कहती है-

ऊहा उर्मिला ने है माना

लू प्रिय पथ का विध्न न बन ।

आज स्वार्थ है त्याग-भरा

तू विकार से पूर्ण न हो,

शाक-भार से चूर्ण न हो।

उर्मिला का विषय मैं वर्णन उनके फिर से जीवित कर दिया- उर्मिला कि गरिमा यह है कि कि वह परम्परागत नायिकाओं की भाँति रूदन – चीत्कार आदि में निमग्न नहीं होती, अपितु अपनी भावनाओं के ज्वार के संयमन मैं अद्भुत धैर्य का परिचय देती है। हाँ जब वह अपनी अग्रज को राम के साथ वन जाने का संकल्प लेते देखती है तो उर्मिला अपनी दैन्य निरीहता को संयमित नहीं रख पाती, और न चाहते हुए भी मूर्छित होकर गिर पड़ती है-

“इपर उ्मिला मुग्ध निरी,

कहकर ‘हाया’ धड़ाम गिरी!”

उर्मिला की दयनीय दशा का वर्णन-उन्होंने उर्मिला के मुख से आसन्न विरह – विछोह के विषय मैं कुछ भी न कहलवाकर अन्य पात्रों की उक्तियों के माध्यम से उसकी दयनीय दशा मूर्तिमती कर दी है। सभी की आँखें छलऊला आती हैं और लक्ष्मण तो इस दृश्य को सहन न कर पाने के कारण अपने नेत्र ही बन्द कर लेते हैं

 “लक्ष्मण ने इग मूँद लिये,

सबने दो-दो बूँद दिये।

उर्मिला का त्याग भाव का वर्णन- .

राम और सीता के साथ उर्मिला के हृदयेश्वर के चले जाने पर षष्ठ सर्ग के आरंभ में उसका नवं-बय में हीं पति से विश्लेष हो जाने के विषय में कवि के ये उदगार सर्वथा उचित हैं कि उर्मिला द्वारा सीता से भी अधिक त्याग – भाव दिखाने केकारण उर्मिला का गौरव बढ़ा है-

 “सीता ने अपना भाग लिया

‘पर इसने वह भी त्याग दिया।

गौरव का भी भार यही,

उर्वी भी गुर्वी हुई मही।

नव वय में ही विश्लेष हुआ,

यौवन मैं ही यति वेश हुआ ।

उर्मिला के आकस्मिक वैग के नियंत्रण का वर्णन- उर्मिला के शरीरांग तो उसके वशीभूत नहीं है यदि चाहने पर भी नींद नहीं आती, उसे खाना-पीना, पहनना, ओढ़ना नहीं भाता तो वह क्या करे ! हों स्व- अंतर्मन को वह शीघ्र ही संयमित कर लेती है।

सुनकर जौजी की मर्म-कथा,

गिर पड़ी मैं, न सह सकी व्यथा ।

वह नारि सुलभ दुर्बलता थी,

आकस्मिक-वेग-विकलता थी।

करना न सौच मेरा इससे,

ब्रत में कुछ विध्न पड़े जिससे।’

निष्कर्ष: उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यहीं कहा जा सकता है कि उर्मिला के विरह-वर्णन मैं जहों परम्परागत प्रणाली का आश्रय लेते हुए, षट्ऋतु वर्णन, दश कामदशाओं के अंकन आदि तथ्यों की वर्णन किया गया है, वहाँ उसके विरह मैं ईर्ष्यी का अणुमात्र भी स्पर्श नहीं है, वह दूसरों को सुखी देखकर वह खुद को दुःखी नहीं मानती।

सूर आदि कवियों की विरहणी गोपियों की भाँति वह उपलब्ध और ईर्ष्या मिश्रित उक्तियाँ नहीं कहती, अपितु उसके पास तो सभी के लिए सहानुभूति का भंडार है। पति से बिछड़ने के विषय में कवि के ये उदगार सर्वथा उचित हैं कि उर्मिला दवारा सीता से भी अधिक त्याग भाव दिखाने के कारण उर्मिला का गौरव बढ़ा है, जहाँ अन्य कवि सुंदर नायिका के अंग का नखशिक वर्णन कर रहे थे वहीं गुप्त जी ने इतिहास के पन्‍नो मे छुपी हुई उर्मिला के विरह वर्णन कर उर्मिला को पुनःजीवित कर ‘दिया।

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नगैन्द्र के शब्दों में- उर्मिला की विरह में मानवता की पुकार है – वह अधिक स्वाभाविक है साथ ही गरिमा की न्यूनता नहीं है. वह विश्वव्यापी हैं!

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3. “वेदना महादेवी के काव्य का स्थायी भाव है।” इस कथन की व्याख्या करें।

उत्तर:

महादेवी वर्मा छायावाद की एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। छायावाद का युग उथल-पुथल का युग था। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि सभी स्तरों पर विभ्रम, द्वंद्व, संघर्ष और आंदोलन इस युग की विशेषता थी।

इस पृष्ठभूमि में, अन्य संवेदनशील कवियों के समान ही, महादेवी ने भी अपनी रचनाशीलता का उपयोग किया। यहाँ हमारा लक्ष्य छायावादी युग की सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि की विशद व्याख्या करना नहीं है।

किंतु, यहाँ हमें इस बात को ध्यान में रखकर अवश्य आगे बढ़ना है कि कवि अपने समय की वास्तविकता, यथार्थ से प्रभावित होकर अपनी रचनाओं में उसकी विशिष्ट प्रवृत्तियों को अभिव्यक्ति देता है और उसकी रचनाएँ ही उस युग-विशेष की मूल प्रवृत्ति को रूपायित करती हैं।

लेकिन महादेवीजी अपनी काव्य रचनाओं में प्रायः अंतर्मुखी रही हैं। अपनी व्यथा, वेदना और रहस्य भावना को ही इन्होंने मुखरित किया है। उनकी कविता का मुख्य स्वर आध्यात्मिकता ही अधिक दिखायी देता है। यद्यपि उनका गद्य रचनाओं में उनका उदार और सामाजिक व्यक्तित्व काफी मुखर है। इस इकाई में हम उनकी कविता में वेदना के भाव की व्याख्या करेंगे।

महादेवी के काव्य मे विरह वेदना- महादेवी जी ने अपना काव्य वेदना और करूणा की कलम से लिखा उन्होने अपने काव्य में विरह वेदना को इतनी सघनता से प्रस्तुत किया के शेष अनुभूतियां भी उनकी पीड़ा के रंगों में रंगी हुई जान पड़ती है।

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महादेवी वर्मा की कविता में दुःख और करुणा का भाव प्रधान है। वेदना के विभिन्न रूपों की उपस्थिति उनके काव्य की एक प्रमुख विशेषता है। वह यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं करतीं कि वह ‘नीर भरी दुःख की बदली’ हैं।

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वस्तुतः समूचा छायावादी काव्य ही व्यक्तिवाद का प्रभाव लेकर चला और वहाँ आत्माभिव्यक्ति को सहज ही स्थान मिला। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ‘हिंदी साहित्य की भूमिका में लिखते हैं – ‘1900-1920 ई. की खड़ी बोली की कविता में कवि के अपने राग-विराग की प्रधानता हो गई।

विषय अपने आप में कैसा है यह मुख्य बात नहीं थी, बल्कि मुख्य बात यह रह गई थी कि विषयी (कवि) के चित्त के राग-विराग से अनुरंजित होने के बाद वह कैसा दिखता है। विषय इसमें गौण हो गया, विषयी प्रधान।’

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महादेवी का विरह उनके समस्त काव्य में विधमान है। वे वेदना से प्रारंभ करके वेदना में ही अपनी परिणति खोज दिखाई देती है। विरह का अर्थ है, वियोग और वेदना का अर्थ है, मानसिक या मन की पीड़ा। इस प्रकार विरह वेदना का अर्थ हुआ वियोग से उत्पन्न मन की पीड़ा हिन्दी काव्य में विरह भावना को अभिव्यक्त करने वाली कवयित्रियों में महादेवी जी का प्रमुख स्थान है।

महादेवी के अपने काव्य में आत्मा और परमात्मा के बिछोह को विरह वेदना के रूप अभिव्यक्त किया है। विरह के ताप को सहकर भी वे उससे उबरना नहीं चाहती है।

उनकी पीड़ा कभी समाप्त हो, उनकी पीड़ा को कोई करूणा, सहानूभूति या सुख से भर दे। सम्पूर्ण साहित्य में उनकी पीड़ा की समानता करने वाला कोई नहीं है। उन्हें पीड़ा की रानी कहा जाता है। वेदना का अर्थ है, मानसिक या मन की पीड़ा। हिन्दी काव्य में वेदना की भावना को अभिव्यक्त करने वाली कावयत्रियो में महादेवी जी का प्रमुख स्थान है।

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महादेवी के अपने काव्य में आत्मा और परमात्मा के बिछोह को वेदना के रूप में अभिव्यक्त किया है। विरह के ताप को सहकर भी वे उससे उबरना नही चाहती है। वे नही चाहती कि उनकी पीड़ा कभी समाप्त हो, उनकी पीड़ा को कोई करूणा सहानुभूति या सुख से भर दे।

सम्पूर्ण साहित्य में उनकी विरह वेदना में सात्विक्ता,विरह वेदना में सात्विकता, विरह मे परिष्कूत स्निग्धता विरह वेद्ना मे भावोद्रक आदि स्थाई भाव देखने को मिलते है।

जब व्यक्ति वेदना के अनुभव से गुज़र चुकता है और उसकी तीव्रता के दंश सह चुकता है तो वह पराई पीर को उसी धरातल पर खड़े होकर रामझ सकता है। यहीं से उसमें समग्र मानव जाति के दुःखों के प्रति सहानुभूति और करुणा के भाव जन्म लेते हैं। महादेवी के वेदना-भाव-प्रासाद की दूसरी आधारभूमि मानवतावादी भावभूमि है।

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महादेवी की वेदना अनुभूतिजन्य होने के कारण उनकी कविताओं में इसकी अभिव्यक्ति भी अत्यंत सहज ढंग से हुई है। उसमें कृत्रिमता कहीं दिखाई नहीं पड़ती। वह कितनी सहजता से कह देती हैं – ‘रात सी नीरव व्यथा / तम सी अगम मेरी कहानी।’ किंतु, यहाँ हमें यह तथ्य ध्यान में रखना होगा कि महादेवी के काव्य में अभिव्यंजित दुःख और वेदना जैसे भाव आरोपित बिल्कुल नहीं हैं, इनका वरण तो कवयित्री ने स्वयं किया है। IGNOU MHD solved assignment

उनका यह कथन इस वक्तव्य की पुष्टि करता है – ‘हमारे असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहँचा सकें, किंतु हमारा एक बूंद आँसू भी जीवन को अधिक मधुर, अधिक उर्वर बनाए बिना नहीं गिर सकता।’ (यामा । अपनी बात) निष्ठुर दीप-सी तिल-तिल जलती कवयित्री अपने काव्य में इस व्यक्तिगत व्यथा को शब्द देने में संकोच नहीं करती।

मानव मात्र के प्रति करुणा का प्रत्यक्षीकरण महादेवी के गद्य लेखन में देखा जा सकता है। पद्य के क्षेत्र में, ‘सांध्यगीत’ और ‘दीपशिखा’ तक आते-आते उनकी वेदना को मानव मात्र के प्रति करुणा का रूप लेते देखा जा सकता है।

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इस दृष्टि से ‘दीपशिखा’ महादेवी की अनुपम कृति है। इसी संग्रह की ये पंक्तियाँ देखिए, जहाँ कवयित्री की चिंता केवल मनुष्य नहीं, तन्वंगी पक्षियों के प्रति भी प्रकट होती है – ‘पथ न भूले एक पग भी । घर न खोए लघु विहग भी । स्निग्ध लों की तूलिका से । आँक सबकी छाँह उज्ज्वल।’ महादेवी वर्मा व्यापक सृष्टि के पक्ष में अपने स्वयं के दुःख, अपनी वेदना को भी तिरोहित करने को तैयार रहती हैं।

एक कविता में वह कहती हैं –

‘मेरे बंधन नहीं आज प्रिय,

संसृति की कड़ियाँ देखो

मेरे गीले पलक छुओ मत,

मुरझाई कलियाँ देखो।’

एक अन्य कविता में, सुमन के माध्यम से वह वंचितों, शोषितों की उपेक्षा से क्षुब्ध होकर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करती हैं –

‘कर दिया मधुर और सौरभ ।

दान सारा एक दिन ।

किंतु रोता कौन है ।

तेरे लिए दानी सुमन?’

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महादेवी के काव्य में विरह वेदना की आध्यात्मिकता : महादेवी वर्मा की रचनाओं को प्रायः आध्यात्मिकता के अंतर्गत रखा जाता है। रहस्यवाद आत्मा और परमात्मा की मधुर प्रणय लीलाओं की काव्यात्मक अभियक्ति है। जिस प्रकार मध्ययुगीन संतों ने सामाजिक विधि निषेधों के तिरस्कार के लिए भक्ति का दामन पकड़ा है, ठीक उसी प्रकार महादेवी वर्मा ने ज्ञात और परिचित की संकीर्णताओं से उबकर अज्ञात असीम की पुकार लगायी।

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यद्यपि इस विद्रोह पर रहस्य का आवरण पड़ा हुआ है, फिर भी कहीं कहीं असंतोष के स्वर बहुत स्पष्ट हो गए हैं। उदाहरण के लिए विरह वेदना की आध्यात्मिकता को व्यक्त करने के लिए महादेवी की कविता का एक अंश दृष्टिगत है

फिर विकल हैं प्राण मेरे।

तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख ल उस ओर क्या है ।

जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है?

क्यों मुझे प्राचीर बन कर

आज मेरे १वास धेरे?

महादेवी की कविता में स्वंम की विरह वेदना का बिछोह-महादेवी वर्मा वेदना भाव की कवियत्री हैं। उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया है कि दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है जो संसार को एक सूत्र में बाँधने की क्षमता रखता है।

हमारे असंख्य सुख चाहे हमें मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुंचा सके, किन्तु हमारा एक बुँद ऑसू भी जीवन को अधिक मधुर, अधिक उ्वर बनाये बिना नहीं गिर सकता है।

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महादेवी वर्मा की विशेष शिक्षा दीक्षा और संस्कारों ने इस वेदना का उदातीकरण कर दिया और उन्होंने अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को उसे अपने जीवन दर्शन के रूप में अपनाया। कवियत्री को इस वेदना- धन पर सात्विक अभिमान है।

मेरी लघुता पर आती,जिस लोक की व्रड़ा,

उसके प्राणों से पूछो वे पाल सकेंगे पौड़ा?

उनसे कैसे छोटा है, मेरा यह भिक्षुक जीवन?

उन में अनन्त करुणा है, इस में असीम सूनापना

विरह वेदना की काल्पनिकता- महादेवी अनेक अंतर्दशाओं में भटकती हुई नजर आती हैं। कहीं तो मिलन की चाह है और कहीं वियोग से उत्पन्न वेदना में आनंद की अनुभूति जिसे वे बनाए रखना चाहती हैं। विरह के कारण जो जिंदगी में सुनापन छा जाता है। IGNOU MHD solved assignment

उस सुनेपन में भी महादेवी के भीतर कहीं भी निराशा का भआाव नजर नहीं आता है। विरह मे भी कामनाओं को जन्म देता है। ये कामनाएं मिलन होने पर क्या-क्या घटित होगा, उसके सपने दिखाने लगती हैं। यदि प्रियतम आ जाते तो क्या-क्या घटित होता उसकी कल्पना करते हुए महादेवी कहती हैं-

हँस उठते पल में आद्र नयन

धुल जाता ओठों से विषाद,

छा जाता जीवन में वसंत

जो तम आ जाते एक बार।

छा जाता जौवन में वसंत

निष्कर्ष- महादेवी के काव्य में चित्रित विरह वर्णन अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रणय निवेदन है। विरह का वर्णन प्रकृति के माध्यम से किया है। विरह वेदना में विरह आनंद की अनुभूति में परिणित होने लगता है। विरह महादेवी की पूंजी है।

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“अपने एकांत निजी क्षणों को कविता का विषय बनाने के कारण महादेवी में प्रयत्न- साधित सूक्षमता और प्रतीकात्मकता मिलती है। उनका संयम तथा संकोच एक दार्शनिक आवरण का रूप ले लेता है।

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4. दिनकर के काव्य में सौन्दर्य और प्रेम का स्वर मुखरित हुआ है, सोदाहरण विवेचना कीजिए।

उत्तर:

रामधारी सिंह दिनकर सिर्फ राष्ट्रीय चेतना के ही कवि नहीं हैं। वे सौंदर्य और प्रेम के भी कवि है। “कुरुक्षेत्र और “संस्कृति के चार अध्याय’ से आगे निकल कर जब हम उर्वशी पढ़ते हैं, तो यह महसूस करते हैं कि राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का यह कवि संवेदना के स्तर पर कितना सुकोमल है।

उसके मन में भी प्रेम और श्रृंगार की एक अलौकिक धारा बहती है तथा वह चंद्रवंशी राजकुल के पुरूरवा की नायिका उर्वशी बन कर प्रकट होती है। यह उर्वशी कौन है? और उसके माध्यम से दिनकर जी कया कहना चाहते हैं? राष्ट्रीय चेतना के इस प्रखर कवि ने जब सौंदर्य, प्रेम और काम पर आधारित उर्वशी लिखी, तो यह एक तरह से उनकी धारा से विपरीत था। एक समय इस पर साहित्यिक विवाद भी हुआ।

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दिनकर के काव्य में सौँदर्य और प्रेम का स्वर: रामधारी सिंह दिनकर सिर्फ राष्ट्रीय चेतना के ही कवि नहीं हैं। वे सौंदर्य और प्रेम के भी कवि है। कुस्क्षेत्र और ‘संस्कृति के चार आप्याय से आगे निकल कर जब हम उर्वशी पढ़ते हैं, तो यह महसूस करते हैं कि राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का यह कवि संवेदना के स्तर पर कितना सुकोमल है।

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दिनकर के काव्य मे सौदर्य: दिनकर जी की किताओं में सौदर्य की मिलावट देखी जा सकती है। उनकी कविताओं में वाद-विवाद, समस्याओं का विचार और गंभीर विषयों के प्रतिस्थापन ने उनहें अलग बनाया है। उनकी कविता मे सौँदर्यता का उत्कृष्ट उदाहरण निम्नलिखित है-

जागो बोधिसत्व ! भारत के हरिजन को जगाने के लिए दिनकर जी ने प्रकृति कि साँदर्य का सहारा लेते हैं, वे बुदध को विप्लव के वाक और ‘अतीत के क्रंति -गान’ कहकर संबोधित करते हैं।

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इन पंक्तियों में भी देखा जा सकता है कि यहाँ राष्ट्रीयता की भावना में आधुनिक चेतना का आग्रह प्रवेश है। भारतीय सामाजिक साम्य के प्रति उनका आग्रह का वर्णन ‘कविता की पुकार’ शीर्षक रचना में ग्राम्य जीवन की सौदर्यता का वर्णन किया गया है-

उदाहरण-

विद्युत छोड़ दीप साजूँगी, महल्ल छोड़ तृण-कुटी-प्रवेश,

तुम गॉरवों के बनो भिखारी, मैं भिखारिणी का लू वेश।

शस्य श्यामला निरख करेगा। कृषक अधिक जब अभिलाषा।

तब मैं उसके इृदय -स्त्रत में उमइुंगी बन कर आशा।

शस्य -शयामला निरख करेगा। कुषक अधिक जब अभिलाषा।

स्वतंत्रता की कल्पना मे सौंदर्य- दिनकर जी की कविताओं में इस युवा-मन की अभिव्यक्ति अनेक स्थलों पर देखने को मिलती है। स्वतंत्रता की कल्पना वे प्रायः एक बड़ी क्रांति के सरूप में ही करते हैं जो अन्याय और असमानता पर आधारित राज्य और समाज का ध्वस कर देगी। क्राति की इस अवधारणा का सौदर्य वर्णन उनकी ‘विपथगा शीर्षक कविता में बड़े ओजस्वी ढंग से मिलता है।

पायल की पहली झमक, सृष्टि में कोलाहल छा जाता है।

पड़ते जिस ओर चरण मेरे, भुगोल उधर दब जाता है।

लहराती लपट दिशाओं में खलभल खगोल अकुलाता है।

परकटे बिहग-सा निरवलम्ब गिर स्वर्ग-नरक जल जाता है।

परकटे बिहग-सा निरवलम्ब गिर स्वर्ग-नरक जल जाता है।

दिनकर के काव्य मे प्रेम् :

किसी कवि की राष्ट्रवादिता या देशभक्ति अंततः ऐसी ही हो सकती है। दिनकर जी ने मात्र राष्ट्रवादी उद्घोष करने वाले पर देश प्रेम व्यंजक कविताएँ ही नहीं लिखीं, भारतीय राष्ट्र की सांस्कृतिक परंपरा की खोज करते हुए ‘संस्कृति के चार अध्याय जैसा ग्रंथ भी लिखा।

इसके चलते उनकी राष्ट्रवादी कविताओं में मात्र भावोच्छवास ही नहीं मिलता बल्कि, राष्ट्र के प्रति प्रेम को मानव को आपस मे जोडने का उदात प्रयास मिलता है।

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उन्होंने लिखा है : ‘मैं भी चाहता था कि गर्जन तर्जन छोड़कर मैं भी कोमल कविताओं की रचना कररू, जिनरमें फूल हों, सौरभ हो, रमणी का सुंदर मुख और प्रेमी पुरुष के इृदय का उदवेग हो और ऐसी अनेक कविताएँ रेणुका, रसवन्ती और द्वन्दवगीत में प्रकाशित हुई।

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हजारी प्रसाद दृविवेदी ने लिखा है, रसवन्ती में कवि साँदर्य के प्रति आकृष्ट होता है, परंतु उसके चित में शांति नहीं है। गर्जन भरे स्वर में राष्ट्रीयता का गान करने वाले कवि का एक स्वर यह भी है-

दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब

बड़े साझ आल्हा गाता है,

पहला स्वर उसकी राधा को

घर से यहां खींच लाता है।

चोरी-चोरी खड़ी नीम की

छाया में छिपकर सुनती है,

हुई न क्यों मैं कह़ी गीत की

विधना, यों मन में गुनती है।

उर्वशी प्रेम की अतल गहराई का अनुसंधान करने के लिए लिखी गयी है । उर्वशी धर्म नहीं, प्रेम की अतीन्द्रियता का आख्यान है और यही आख्यान उसका आध्यात्मिक पक्ष है।’ इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि उर्वशी में प्रेम के ऐद्रिय पक्ष का निषेध किया गया है।

 पुरुरवा की उक्ति

फिर अधर-पुट खोजने लगते अधर को।

कामना छूकर त्वचा को फिर जगाती है।

रेंगने लगते सहस्त्रों साँप सोने के सूधिर में,

चेतना रस की लहर में इब जाती है।

गीत में साँदर्य के प्रति आकर्षण और कर्तव्य की पुकार द्वंदव मुखर हुआ है :

यात्री हूँ अति दूर देश का, पलभर यहां ठहर जाऊ, थका हुआ हूँ, सुंदरता के साथ बैठ मन बहलाऊं,

 एक घुंट बस और’ हाय रे,  ममता छोड़ चलूँ कैसे ? दूर देश जाना है, लेकिन यह सुख रोज़ कहां पाऊँ?

उर्वशी मैं वर्णित सौन्दर्य : सौंदर्य और प्रेम की भावनाओं की यह अभिव्यक्ति दिनकर जी के मूल स्वभाव के अनुकूल थी। उन्होंने लिखा भी है कि आगे चलकर यही धारा ‘उर्वशी’ नामक उनके प्रसिद्ध काव्य में ज़ोरों से फूटी।

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‘उर्वशी ‘ 1953 ई0 से 1961 ई0 के बीच लिखी गई। इस रचना के लिए इन्हें प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। कई लोगों को इसके प्रकाशन से झटका भी लगा क्योंकि सहज, कठिन स्वर में राष्ट्रीयता और साम्यवाद का गान करने वाला, ‘विपथगा’ जैसी कविता का रचयिता सौंदर्य, प्रेम और काम की अनुभूतियों को व्यक्त करे — यह उनके लिए बड़ी लज्जा की बात थी।

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दिनकर जी की प्रचलित और स्वीकृत छवि के अनुरूप ‘उर्वशी’ काव्य न था। संभवत: उन्हें भी इसका अंदाज़ था। इसलिए जहाँ भी मौका मिला, उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘उर्वशी’ के बीज उनकी बिलकुल आरंभिक कविताओं में भी मिल जाएँगे। ‘उर्वशी’ में भी ‘कुरुक्षेत्र’ की तरह एक मिथकीय आख्यान को लेकर उसकी पुनर्रचना की गई है। कथा में कोई बहुत फेर-बदल नहीं है।

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‘उर्वशी’ में एक एक मिथकीय आख्यान को लेकर उसकी पुनर्रचना की गई है। पुरूरवा चंद्रवंशी राजकुल का प्रवर्तक था, उर्वशी स्वप्नलोक की अप्सरा। मित्र और वरुण देवताओं के शाप के कारण उसे पृथ्वी पर उतरना पड़ा।

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यहां उसे पुरूरवा ने देखा और उस पर आसक्त हो गया। उर्वशी भी उसके सौंदर्य, सच्चाई, भक्ति और उदारता जैसे गुणों पर मोहित हो गई। दोनों पति-पत्नी बन गये। बहुत दिनों तक साथ रहकर उर्वशी एक पुत्र को जन्म देकर स्वर्ग चली गई।

पुरूरवा उसके वियोग में पागल-सा हो गया। उर्वशी द्रवित होकर वापस आ गई और एक पुत्र को और जन्म दिया। इस तरह उनके पांच पुत्र हुए। उर्वशी बार-बार स्वर्ग चली जाती। पुरूरवा उसे जीवन-संगिनी बनाना चाहता था। उसने यज्ञ किया और उसका मनोरथ पूरा हुआ।

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‘उर्वशी’ काव्य की नयिका स्वर्ग की अप्सरा है और उसे अक्षय सौंदर्य मिला है। देवलोक की यह नर्तकी चिरयुवती, वारविलासिनी, अनंत यौवनमयी और चिररहस्यमयी है। वह तो रूपमाला की सुमेरू ही है।

एक मूर्ति में सिमट गयीं किस भांति सिद्धियां सारी?

कब था ज्ञान मुझे इतनी सुन्दर होती हैं नारी?

यह ज्योतिर्मय रूप! प्रकृति ने किसी कनक-पर्वत से

काट पुरुष-प्रतिमा विराट्‌ निज मन के आकारों की

महाप्राण से भर उसको, फिर भूपर गिरा दिया है।

इन अंशों में दिनकर की भावसमृद्धि, कल्पनावैभव और शब्दशक्ति उच्चशिखर का स्पर्श करती है। इस अर्धमानवी और अर्धदिव्या नारी के सौंदर्य का चित्रण स्थूल और रंगों के मिश्रण से होना स्वाभाविक है।

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कहीं मांसलता है, तो कहीं सूक्ष्म-लावण्य की अभिव्यक्ति, कहीं इंद्रधनुषी रंगों का मिश्रण है, तो कहीं धूप-छाहीं रंग। वह स्थूल भी है, सूक्ष्म भी। कवि ने सौंदर्य को कल्पना-बल से रूपायित किया है, जहां देहांकन और विदेहांकन दोनों है।

पहले प्रेम स्पर्श होता है,

तदन्तर चिन्तन भी;

प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है,

तब वायव्य गगन भी।

देह-सीमा से स्वानुभूतिमय परिचय कर लेने के बाद विदेहभाव धारण करना अधिक निरापद और न्याय्य होता है। राग से परिचय पाने के बाद विराग धारण ही व्यक्ति का स्वाभाविक विकास है। प्रेम का जन्म काम में होता है; किन्तु, उसकी परिणति काम के अतिक्रमण में होनी चाहिए।

प्रेम इतना पवित्र और महार्घ तत्त्व है कि उस पर दैहिक स्खलनों के दाग नहीं पड़ते। ‘सेक्स’ की अनुभूति में शारीरिक अनुभूति होती है, किंतु, प्रेम की अनुभूति में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक – तीनों अनुभूतियां समन्विर होती हैं, जब प्रेम में अनासक्ति का समावेश होने लगता है।

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‘उर्वशी ‘ प्रेम-काव्य है या नहीं? यह प्रेम शारीरिक आकर्षण से आगे कहां तक जाता है? दिनकर जी स्पष्ट करते हैं, ‘उर्वशी … प्रेम की अतल गहराई का अनुसंधान करने के लिए लिखी गयी है। … उर्वशी धर्म नहीं, प्रेम की अतीन्द्रियता का आख्यान है और यही आख्यान उसका आध्यात्मिक पक्ष है।’ इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि उर्वशी में प्रेम के ऐंद्रिय पक्ष का निषेध किया गया है। पुरूरवा की उक्ति

फिर अधर-पुट खोजने लगते अधर को।

कामना छूकर त्वचा को फिर जगाती है।

रेंगने लगते सहस्त्रों साँप सोने के रूधिर में,

चेतना रस की लहर में डूब जाती है।

निष्कर्ष- रामधारी सिंह दिनकर का रचनाकाल दीसवीं सदी के तीसरे दशक से शुरू होकर आटरवे दशक तक फैला हुआ है। आधुनिक भारत के लिए यह बड़ा महत्वपूर्ण काल हैं। तीसरे दशक से पॉचर्वे दशक के बीच अंग्रेजी हुकूमत को भारत से उखाड़ फैकने का आंदोलन अपनी निर्णायक लड़ाई लड़ रहा था। एक तरफ,

महात्मा गांधी अखिल भारतीय स्तर पर जन नायक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अहिंसा, सत्याग्रह और असहयोग के उनके तरीके राजनीतिक अस्त्र तो थे ही, वे एक व्यापक सांस्कृतिक बदलाव की मॉग कर रहे थे।

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उन्नीसवीं सदी में देश के विभिन्न हिस्सों में जो पुरानी रूढ़ियों, कुरीतियों, अंधविश्वास के खिलाफ सुधार आंदोलन चल रहे थे, महात्मा गांधी ने उन सबको स्वाधीनता संग्राम का वर्णन के साथ-साथ देश प्रेम, साँदर्य का वर्णन कर रहे थे।

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5) क) रोवहु सब मिलि के आवहु भारत भाई।
हा ! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई ।।
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो।
सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो।।
सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो।
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो । ।
अब सबके पीछे सोई परत लखाई।
हा ! हा ! भारत दर्दशा न देखी जाई।।

संदर्भ- प्रस्तुत काव्यखंड भारतेंदु हरिश्चंद् द्वारा रचित भारत दुर्दशा से लिया गया है।

व्याख्या- इस काव्यखंड के माध्यम से कवि भारतेंद् हरिश्चंद्र भारत के दुर्दशा को देख अपना दुःख व्यक्त करते हैं और कहते हैं है मेरे भारत के भाईयों आओ हम सब मिलकर रॉए। क्यंकि भारत के दुर्दशा हमसे देखा नहीं जाता है।

जिस देश को भगवान ने सबसे पहले बलवान एवं धनवान बनाया। जिसे सबसे पहले सभ्यता का वरदान मिला। जिस देश को सबसे पहले रूप-रंग-रस यानी कालाकृतियों का ज्ञान दिया। जान समर्पित किया आज वह देश सबसे पिछा हो गया है।

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कवि कहते हैं इसी कारण हमारे दुर्दशा देखी नहीं जाती है। अब कवि भारतेंद् हरिश्चंद्र भारत के बीते भाग्यशाली दिन याद दिलाते हैं। वह कहते हैं कि यहाँ पर तो राम, युधिष्ठिर, वासुदेव कृष्ण, सू्यांत, साक्य, बुदधि दानी हरिश्चंद्र साथ भीम, करण एवं अर्जून जैसे योदधा जन्म लिए और आज उनकी प्रतिमा दिखाई जाती है और सब रातो रात (अंधकार) में जहाँ देखो तहाँ अब उसी देश में दुःख हीं दुःख छाया हुआ है। कवि इन सभी बातो को जानकर बहुत बुरा महसूस करते हैं।

विशेष-

  • रामविलास शर्मा के शब्दों में- “भारत दुर्दश में उन्होंने (भारतेंदु जी) पढ़े-लिखे लोगों को भी अकेले कुछ कर सकने में असहाय दिखलाया है।”
  • इस काव्य को मानवीकरण करते हुए प्रतीकात्मक ढंग से प्रयोग किया गया है।
  • भाषा-काटव्य की भाषा प्रधानतः ब्रज भाषा है। उन्होंने ब्रज भाषा के अप्रचलित शब्दों को छोड़ कर उसके परिकृष्ट रूप को अपनाया।

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ख) दुःख की पिछली रजनी बीच
विकसता सुख का नवल प्रभात;
एक परदा यह झीना नील
छिपाये है जिसमें सुख गात।

जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल,
ईश का वह रहस्य वरदान
कभी मत इसको जाओ भूल,

संदर्भ- प्रस्तुत काव्यखंड यावाद के प्रसिदध कवि जयशंकर प्रसाद दवारा लिखा गया महाकाव्य कामायनी से लिया गया है।

प्रसंग – सृष्टि के विनाश से दुःखी एवं जीवन के वैषम्य से निराश मन् को समझाते हुए श्रद्धा कहती है-

व्याख्या – अरे मन् ! जगत् की विषमता से पीडित होकर तुम्हें निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि सृष्टि का यही क्रम है, जिस प्रकार रात्रि के पश्चात नवीन प्रभात का उदय होता है।उसी प्रकार दुःख के समय के बाद व्यक्ति के जीवन में सुख का आगमन होता है जिस प्रकार यह आकाश अपने नीलावरण में प्रभात के स्वरूप को छिपाये रहता है, उसी प्रकार दुःख भी अपनी कालिमा के आवरण में सुखमय शरीर को छिपाये रहता है।

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भाव यह है कि प्रत्येक दुःख के बाद सुख का आगमन अवश्यम्भावी है. श्रद्धा पुनः कहती है कि है मनु जिस दुःख को तुम अपने जीवन का अभिशाप और संसार के समस्त कष्टों का मूल समझते हो, तो तुम्हे यह भी नही भूलना चाहिए कि वही दुःख परम शक्ति दवारा प्रदत्त एक रहस्यमय वरदान भी है।

विशेष

  • अलंकार – दुःख की रजनी तथा ‘मुखका नवल प्रभात में रूपक,
  • दुःख को ईश्वरीय वरदान बताया गया है कविवर बिहारी ने भी दुःख के सम्बन्ध में उचित ही लिखा है-

दियौ सु सीस चढ़ाइ लै, आछी भाँति अएरि ।

जापै सुखु चाहत लियाँ, ताके दुखहिं न फेरिफेरि॥

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सूरदास का जीवन परिचय (Surdas Ka Jivan Parichay)

ग) हमारे निज सुख, दुख निःश्वास
तुम्हें केवल परिहास,
तुम्हारी ही विधि पर विश्वास
हमारा चार आश्वास
आये अनंत हत्कंप ! तुम्हारा अविरत स्पंदन
सृष्टि शिराओं में सञ्चारित करता जीवन;
खोल जगत के शत-शत नक्षत्रों-से लोचन
भेदन करते अहंकार तुम जग का क्षण-क्षण
सत्य तुम्हारी राज यष्टि, सम्मुख नत त्रिभुवन,
भूप अकिंचन,
अटल शास्ति नित करते पालन।

संदर्भ- प्रस्तुत काव्यखंड छायावाद के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदनपंत द्वारा लिखा गया काव्य परिवर्तन से लिया गया है।

प्रसंग- यहाँ कवि परिवर्तन को विश्व की नियंत्रिका (नियति) शक्ति बताता हुआ उसे अखिल विश्व का शासक कहता है।

व्याख्या- है परिवर्तन ! तुम हमारी नियति हो, हमारे व्यक्तिगत सुख, दुःख और नि:श्वास तुम्हारे लिए परिहास मात्र हैं । परन्तु तुम्हारी विधि पर विश्वास करके ही हम सान्त्वना पाते हैं। तुम अनन्त इत्कंप हो। तुम्हारा निरन्तर स्पन्दन सृष्टि की शिराओं में जीवन-संचार करता रहता है।

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तुम संसार के नेत्रों को शत- शत नक्षत्रों के समान खोल देते हो और इस प्रकार एक क्षण में तुम संसार के अन्धकार का भेदन कर देते हो। सत्य ही तुम्हारा राजदण्ड है, जिसके समक्ष त्रिभुवन के भूप नत हो जाते हैं और वे अकिंचन बने हुए निरन्तर तुम्हारे शासन का पालन करते हैं।

विशेष

अलंकार मानवीकरण, उल्लेख, ‘सृष्टि-शिराओ’ एवं ‘सत्य तुम्हारी राज-यष्टि’ में रूपक, ‘शत्- शत् और ‘ क्षण-क्षण में पुनरुक्तिप्रकाश

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