कबीरदास (Kabirdas):-
संत कबीरदास हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के निर्गुण उपासना कवि मैं सबसे उच्च माने जाते है। एक महान समाज सुधारक तथा संत के रूप मैं प्रसिद्ध है। उनका जन्म का समय मध्यकालीन भारत मैं लगभग 14 बीं सदी मैं माना जाता है, जब सैयद बंश का शासन भारत बर्ष मैं चल रहा था।
तत्कालीन सामाज मैं ब्यापट बुराइयों को कबीरदास जी ने अपने काव्यरचना के माध्यम करने का पूर्ण प्रयाश किया। आगे हम कबीरदास जी के जीबन परिचय, उनके साहित्यिक कृतियाँ तथा उनके बिषय मैं बिस्तार से आलोचना करेंगे।
कबीरदास का जीबन परिचय (Kabirdas Ka Jiban Parichay) :-
पूरा नाम | संत कबीरदास |
अन्य नाम | कबीरा, कबीर साहब |
जन्म | सन 1398, मगहर , उत्तरप्रदेश |
मृत्यु | सन 1528 |
पत्नी | लोई |
संतान | कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री |
कर्म क्षेत्र | काशी |
शिक्षा | निरक्षर |
प्रसिद्धि | समाज सुधारक कवि |
रचना भाषा | साधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी |
संत कबीरदास भक्तिकालीन निर्गुण संत काब्यधारा के प्रमुख कवि के रूप मैं माने जाते है। इनका जन्म उत्तरप्रदेश के वाराणसी के पास स्थित मगहर नामक स्थान मैं सन 1398 को हुआ था। कबीर दास ने अपनी रचना में भी वहां का उल्लेख किया है: “पहिले दरसन मगहर पायो पुनि काशी बसे आई” अर्थात काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देख लिया था और मगहर वाराणसी के निकट ही है और वहां कबीर का मकबरा भी है।
इनके जन्मकाल, जीवन-मरण तथा माता पीला के बारे में कई जनश्रुतियां तथा किंबदंतियां प्रसिद्ध है। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म काशी की एक विघवा ब्राह्मणी के घर में हुआ था। किन्तु लोकभय से वह इन्हें लहरतारा ताल के निकट छोड़ आई।
उसके बाद इनका पालन-पोषण नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने किया। इससे यह स्पष्ट है कि कबीर जुलाहा थे, क्योंकि उन्होंने अपने को कविता में अनेक बार खुदको जुलाहा कहा है। इस प्रकार कबीर ब्राह्मणी के पेट से पैदा हुए थे, लेकिन उनका पालन-पोषण जुलाहे के यहाँ हुआ। बाद में वे जुलाहा ही प्रसिद्ध हुए।
कबीर जी के पत्नी का नाम लोई थी और उनको एक पुत्र “कमाल” तथा पुत्री “कमाली” की प्राप्ति हुई। कबीर की मृत्यु मगहर ज़िला बस्ती में सन् 1518 में हुई। कबीर की मृत्यु के बारे में भी कहा जाता है कि हिंदू उनके शव को जलाना चाहते थे और मुसलमान दफ़नाना।
इस पर विवाद हुआ, किंतू पाया गया कि कबीर का शव अंतर्धान हो गया है। वहाँ कुछ फूल पड़े मिले। उनमें से कुछ फूलों को हिंदुआ ने अग्नि के हवाले किया और कुछ फुलों को मुसलमानों ने जमीन में दफ़ना दिया।
कबीरदास जी की शिक्षा (Kabirdas ji ki sikhsa):-
कबीरदास जी निरक्षर थे क्योंकि उनको पढ़ने का अवसर नहीं मिला था, परंतु उन्होंने विद्वानों का सत्संग काफी किया, और सुन सुन कर ही अनेकों धार्मिक बातों का ज्ञान प्राप्त किया था, और उन्ही सत्संगों के ज्ञान के बदौलत उबहोने अपने काव्यों की रचना की और जंसमज को उपदेश देकर समाज मैं चल रहे दुर्नीति तथा शोषण को ठीक करने का प्रयश किया।
उनकी रचनाओं मैं हमें वेदांत के मायाबाद, इस्लाम के एकेश्वरबाद, तथा बैश्नबों का प्रगतिबाद के दर्शन होता है। उन्होंने अनेकों धर्म और संप्रदाय के तत्वों को इकठ्ठा कर को अपना एक नया संप्रदाय बनाया था।
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कबीरदास जी के गुरु (Kabirdas ji ke guru):-
कबीर का अपना पंथ या संप्रदाय क्या था. इसके बारे में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। वे रामानंद के शिष्य के रूप में विख्यात है। कबीरदास जी रामानन्द को अपने दीक्षा गुरु बनाना चाहते थे।इसीलिए उनसे नाम का मंत्र लेने के लिए ये पंचगंगा घाट की उन सीढ़ियों पर जा पड़े जहाँ से प्रात:काल रामानन्द स्नान करने जाते थे।
अंधेरे में रामानन्द के चरण कबीर साहब पर पड़ गए और रामानन्द जी बोल उठे “राम राम कह” । आगे चलकर यही मंत्र मानुष सत्य के महान् लक्ष्य की प्राप्ति में तथा वैषम्य के दुराग्रहों को छोड़कर सामाजिक न्याय और समानता की स्थापना में सहायक हुआ।
किंतु उनके “राम” रामानंद के “राम” नहीं हैं। शेख तकी नाम के सूफ़ी संत का भी कबीर का गुरु कहा जाता है, किंतु इसकी पुष्टि नहीं होती। संभवत: कबीर ने इन सबसे सत्संग किया होगा और इन सबसे वे किसी-न-किसी रूप में प्रभावित भी हुए होंगे।
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कबीरदास जी की भाषा(Kabirdas ji ki bhaasha):-
कबीरदास निरक्षर थे और मुख्य रूप से जनसमाज के कवि थे, इसीलिए उन्होंने अपने रचनाओं की भाषा सबसे साधारण रखा, जिसको सिंधी भाषा के रूप मैं जाना जाता है और यह भाषा तात्कालीन जनसामाज तथा जनश्रुतियों के साथ जुड़ा हुआ था।
इनकी इस भाषा में हिंदी भाषा की सभी बोलियों की भाषा सम्मिलित है। जैसे – राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा के शब्दों आदि की बहुलता प्रकट होती है, अतः इस भाषा को “पंचमेल खिचड़ी” अथवा “सधुक्कड़ी” भाषा कहा जाता है।
कबीर तथा अन्य निर्गुण संतों की उलटबाँसियाँ भी प्रसिद्ध हैं। उलटबासियों का पूर्व रूप हमें सिद्धों की ‘संधा भाषा’ में मिलता है। उलटबसियाँ अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों को असामान्य प्रतीकों में प्रकट करती हे। वे वर्णाश्रम व्यवस्था को माननेवाले संस्कारों को शक्त धक्का देती हैं और इन प्रतीकों का अर्थ खुलने पर ही उलटबासियों समझ में आती हैं।
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कबीरदास जी के ब्यक्तित्व (kabirdas ji ke byaktitwa):-
एक महान रहस्यवादी कवि, कबीर दास, भारत के प्रमुख आध्यात्मिक कवियों में से एक हैं जिन्होंने लोगों के जीवन को बढ़ावा देने के लिए अपने दार्शनिक विचार दिए हैं।
कबीर दास एक चिंतनशील इंसान थे। उनका ज्यादातर समय काव्य रचना व उसके लिए सोच-विचार पर जाता था। वह समाज में तथा उनपर व्याप्त बुराइयों पर अच्छी तरह चिंतन करके कटु काव्य खंडों की रचना करते ताकि वे उन बुराइयों को समाज से खत्म कर सकें।
कबीर दास की अधिकांश रचनाएं बहुत ही मार्मिक और स्पष्टवादी स्वभाब के हैं। अपने चिंतन से भाषा की कठिनाइयों को त्याग करके उन्होंने साधारण व लोकमानस में रचित होने वाली भाषा का प्रयोग किया। जिसकी वजह से उनकी काव्य आज तक जन मानस मैं जीबीत है।
कबीरदास जी ने गुरु को सबसे बड़ा बताया। उन्होंने गुरु को ही अपना सगा-संबंधी माना और उन्हीं के प्रति आसक्त रहे। पर गुरु रामनन्द जी के “राम” को उन्होंने अपने उपासीत “राम” से अलग समझ। कबीरदास जी के राम निराकार उनके लिए निराकार रूप मैं ही उपासीत होते थे।
ईश्वर में एकता के उनके दर्शन और वास्तविक धर्म के रूप में कर्म ने लोगों के मन को अच्छाई की ओर बदल दिया है। ईश्वर के प्रति उनका प्रेम और भक्ति हिंदू भक्ति और मुस्लिम सूफी दोनों की अवधारणा को पूरा करती है।
कबीरदास ने निराकार ब्रह्म को मान करके सांसारिक जीवन से सार्थकता पाने पर विश्वास जताया। निराकार ब्रह्म की अराधना से वे साधु की प्रवृत्ति में बदल गए। उन्होंने मूर्ति-पूजा व बाह्य आडंबरों को नकारते हुए कहा कि हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं। इसके पीछे उनका मकसद काफी हद तक हिन्दू व मुसलमानों के बीच तत्कालीन परिस्थिति मैं हो रही लड़ाई को खत्म करने के प्रयास मैं किया गया था।
कबीरदास का साहित्यिक परिचय (kabirdas ka sahityik parichay) :-
कबीर बहुत गहरी मानवीयता और सहृदयता के कवि हैं। उनका प्रमुख कवच निश्चयता और निर्भयता हैं, उनमें मानवीय करुणा, निरीहता, जगत के सौंदर्य से अभिभूत होने वाला हृदय विद्यमान है। कबीर की एक और विशेषता काल का तीब्र बोध है। वे काल को सर्वग्रासी रूप में चित्रित करते हैं और भक्ति को उस काल से बचने का मार्ग बताते हैं।
कबीर दास जी निर्गुण निराकार ब्रह्म के उपासक थे। उनकी रचनाओं में राम शब्द का प्रयोग हुआ है। निर्गुण ईश्वर की आराधना करते हुए भी कबीर दास महान समाज सुधारक माने जाते हैं। उन्होंने हिंदू और मुसलमान दोनों संप्रदाय के लोगों की कु रीतियों पर जमकर व्यंग किया।
कबीरदास जी का मानना था कि ईश्वर कण-कण में विद्यमान है। यही कारण है कि अवतारवाह तथा मूर्ति पूजा का खंडन करते थे। कबीर दास जी काव्य में समाज सुधार की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
कबीरदास के जन्म के समय मैं भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक स्थिति की झलक उनके दोहे से मिलती है। दोहे से पता चलता है कि उस समय की स्थिति कितनी गंभीर थी और शोचनीय भी थी।
एक ओर मुसलमान शासकों की धर्मांधता से समाज परेशान थी ही, और दूसरी तरफ हिंदू धर्म के विधि-विधान और पाखंड से लोगों का शोषण किया जा रहा था। जनता में भक्ति भावनाओं का अभाव था।
ऐसे संघर्ष के समय में कबीर दास ने अपने रचना को ही मुख्य माध्यम बनाया और अपने दोहे के माध्यम से उस समय के लोगों की जीवन में भक्ति भावना को जगाया। इस्लाम धर्म के आगमन से भारतीय धर्म और समाज व्यवस्था में उठापटक चालू था।
हिंदू धर्म के जाति व्यवस्था को पहली बार कोई दूसरा धर्म ठोकर मार रहा था। और इसी बीच बोहोत से उच्च वर्गीय लोग अपने अपने स्वार्थ के लिए साधारण लोगों का शोषण तीव्र रूप से कर रहे थे। इन समस्याओं को ठीक करने के लिए कबीर ने अपने दोहों के माध्यम से लोगों को अहिंसा का मार्ग दिखाया।
कबीरदास नाथपंथी थे, कपड़ा बुनकर ओर सूत कातकर या गोरखनाथ और भरथरी के नाम पर भीख माँगकर जीविका चलाया करते थे। इनमें निराकार भाव की उपासना प्रचलित थी, जाति-भेद और ब्राह्मण-श्रेष्ठता के प्रति उनकी कोई सहानुभूति नहीं थी और न ही अवतारवाद में कोई आस्था थी। क्योंकि वे भगवान के निर्गुण रूप पर ही विश्वास करते थे।
ये तो सच है की अपने गुरु रामानंद के “राम राम कह” शब्द को ही अपना धर्म बनालिया, पर उनके लिए ये “राम” शब्द गुरु रामानंद जी के “राम” से संपूर्ण भिन्न था। कबीर जी के “राम” गुणहीन है, मानवीय गुणों से युक्त है पर वे अवतार ग्रहण नहीं करते या लीला नहीं करते पर वे कृपालु, दयाबान और करुणाकार भी है।
आसपास के वृहत्तर हिंदू समाज की दृष्टि में ये नीच और अस्पृश्य थे। मुसलमानों के आने के बाद ये धीरे-धीरे मुसलमान होते रहे। पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में इनकी कई बस्तियों ने सामूहिक रूप से मुसलमानी धर्म ग्रहण किया। कबीरदास इन्हीं नवधर्मातरित लोगों में पालित हुए थे।
कबीर के काव्य पर इन सबका प्रभाव देखा जा सकता है। उनमें वेदांत का अद्वैत, नाथपंधियों की अंतस्साधनात्मक रहस्य- भावना, हठयोग, कुंडलिनी योग, सहज साधना, इस्लाम का एकेश्वरवाद सब कुछ मिलता है।
साधु संतों की संगति में रहने के कारण उनकी भाषा में पंजाबी, फारसी, राजस्थानी, ब्रज, भोजपुरी तथा खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग तो मिलता है, और इसलिए इनकी भाषा को सधुक्कड़ी तथा पंचमेल खिचड़ी कहा जाता है, पर इनके काव्य में दोहा शैली तथा गेय पदों में पद शैली का प्रयोग भी काफी हुआ है और शृंगार, शांत तथा हास्य रस का प्रयोग भी मिलता है।
इसके आलावा अंतस्साधनात्मक पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग उन्होंने खूब किया है, साथ ही अहिंसा की भावना और वैष्णव प्रतिवाद भी। कबीर की वाणी का संग्रह “बीजक” कहलाता है।
इसके तीन भाग हैं :- साखी, सबद एवं रामैनी। इनमे से रमैनी और सबद में गेय पद हैं पर साखी दोहों में है। रमैनी और सबद ब्रजभाषा में हैं, जो तत्कालीन मध्यदेश की काव्य-भाषा थी। साखियों में पूर्वी का प्रयोग अधिक है, जिसे स्थानीय या क्षेत्रीय प्रभाव मानना चाहिए।
कबीर साहसपूर्वक जन-बोली के शब्दों का प्रयोग अपनी कविता में करते हैं। बोली के ठेठ शब्दों के प्रयोग के कारण ही कबीर को “वाणी का डिक्टेटर” कहा जाता है। उनकी अनंत तेजस्वता उनकी भाषा शैली में भी प्रकट होता है। इसके अलावा कबीरदास ने जीवन पर आधारित 25 दोहे लिखे है।
उनके दोहों की गहरी रेखाएं जीवन और कर्म से जुड़े सभी सवालों का जवाब देती हैं। कोई भी उनके दोहों को पढ़ कर मंत्रमुग्ध हो सकता है।
कबीरदास जी के साहित्यिक चिंतन पक्ष (Kabirdas ji ke sahityik chintan paksh):-
कबीर भक्ति के बिना सारी साधनाओं को व्यर्थ और अनर्थक मानते हैं। इसी प्रेम एवं भक्ति के बल पर वे तत्कालीन युग के सारे मिथ्याचार, कर्मकांड, अमानवीयता, हिंसा, पर-पीड़ा को चुनौती देते रहे जो उनके काव्यों पर साफ झलकता रहा।उनके काव्य, उनके व्यक्तित्व और उनकी साधना में जो निर्भीकता है वह भी इसी भक्ति या नीर्भिकता के कारण ही है।
वे पूर्व-साधनाओं की पारिभाषिक शब्दावली को अपनाकर भी उसमें जो नई अर्थवत्ता भरते हैं, वह भी वस्तुत: प्रेम-भक्ति की ही अर्थवत्ता है। कबीर अपने अनुभव, पर्यवेक्षण और बुद्धि को निर्णायक मानते हैं, शास्त्र को नहीं। इस दृष्टि से उन्हे यथार्थ-बोध के रचनाकार माना जाता है।
उनके यहाँ जो व्यंग्य की तीव्रता और धार है वह भी उनके कथनी-करनी के अंतर को देख पाने की क्षमता के कारण है। अपने देखने या अनुभव को न झुठलाने के कारण ही वे परंपरा द्वारा दिए गए समाधान को अस्वीकार करके नए प्रश्न पूछते हैं
चलन-चलन सब लोग कहत हैं, न जानों बैकुंठ कहाँ है?
या न जाने तेरा साहब कैसा है?
परंपरा पर संदेह, यथार्थ-बोध, व्यंग्य, काल-बोध की तीव्रता और गहरी मानवीय करुणा के कारण कबीर आधुनिक भाव-बोध के बहुत निकट लगते हैं। कितु कबीर में अंतस्साधनात्मक रहस्य भावना भी है और राम में अनन्य भक्ति तो उनकी मूल भाव-भूमि ही है।
नाद, बिंदु, कुंडलिनी, पड्चक्रभेदन आदि का बार-बार वर्णन कबीर-काव्य का अंतस्साधनात्मक रहस्यवादी पक्ष हैं। कबीर में स्वाभाविक रहस्य -भावना को बड़े ही मार्मिक तौर पर व्यक्त की है।
कबीर में जीवन के दृंद्धात्मक पक्ष को समझ लेने की अदुभुत क्षमता थी। इस परस्पर-विरोधिता को न समझने पर कबीर का मर्म नहीं खुलता। जिसे जीना कहा जाता है, वह वस्तुत: जीवित रहने और मृत्यु की ओर निरंतर बढ़ते रहने की प्रक्रिया है। फिर भी लोग कुशल पूछते हैं और कुशल बताते हैं। लोग जीने का केवल एक पक्ष देखते हैं, दूसरा नहीं। कबीर इसपर व्यंग्य करते हैं, हँसते हैं और
करुणा करते हैं-
कुसल – कुसल ही पूछते, कुसल रहा न कोय।
जरा मुई न भय मुआ, कुसल कहाँ ते होय॥
कबीर विशाल गतिशील बिंब प्रस्तुत करते हुए आकाश और धरती को चक्की के दो पाट बताते हैं-
चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय॥
इससे प्रकट होता है कि कबीर की जाति के विषय में यह दुविधा बराबर बनी रही है। इसका कारण उनके व्यक्तित्व, उनकी साधना और काव्य में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो हिंदू या मुसलमान कहने भर से प्रकट नहीं होती। उनका व्यक्तित्व दोनों में से किसी एक में नहीं समाता।
कबीरदास के कुछ प्रसिध्द दोहे (Kabirdas Ke Dohe) :-
पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत ।
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ॥
अर्थ : पतिव्रता स्त्री यदि तन से मैली भी हो भी अच्छी है. चाहे उसके गले में केवल कांच के मोती की माला ही क्यों न हो. फिर भी वह अपनी सभी सखियों के बीच सूर्य के तेज के समान चमकती है!
कबीर मिरतक देखकर, मति धरो विश्वास |
कबहुँ जागै भूत है करे पिड़का नाश ||
अर्थ : ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो। अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा।
मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ |
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ||
अर्थ : संसार – शरीर में जो मैं – मेरापन की अहंता – ममता हो रही है – ज्ञान की आग बत्ती हाथ में लेकर इस घर को जला डालो। अपना अहंकार ही अपने घर को जला डालता है।
शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल |
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ||
अर्थ : गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है। उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ : बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं। कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वास |
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस ||
अर्थ : मन को मृतक (शांत) देखकर यह विश्वास न करो कि वह अब धोखा नहीं देगा। असावधान होने पर वह फिर से चंचल हो सकता है इसलिए विवेकी संत मन में तब तक भय रखते हैं, जब तक शरीर में सांस चलती है।
भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय |
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ||
अर्थ : जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे संत भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त – अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी लाख योनियों के बाज़ार में बिकने जा रहे हैं।
जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय |
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय ||
अर्थ : जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता। इसलिए शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रूपी मैदान में विराजना चाहिए।
जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय |
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ||
अर्थ : जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो। मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजय -अमर हो जाता है। शरीर रहते-रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना – विजयी ही जीवनमुक्त हो पाते है।
अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार |
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार ||
अर्थ : आज भी तेरा संकट मिट सकता है यदि संसार से हार मानकर निरभिमानी हो जा। तुम्हारे अंधकाररूपी घर में को काम, क्रोधा आदि का झगड़ा हो रहा है, उसे ज्ञान की अग्नि से जला डालो।
सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार |
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीं विकार ||
अर्थ : सत्संग सूप के ही समान है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है। तुम भी गुरु से ज्ञान लो, जिससे बुराइयां बाहर हो जाएंगी।
मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत |
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ||
अर्थ : भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ। मरने के बाद भी उठकर मेरे पीछे लग पड़ा, ऐसा यह मेरा मन बालक की तरह है।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
कबीरदास जी के कुछ अन्य दोहें (Kabirdas ji ke kuchh anya dohen):-
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥
मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ॥
तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत ।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत ॥
मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥
जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार को पडा रहन दो म्यान ॥
काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत ।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ॥
जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार को पडा रहन दो म्यान ॥
जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ॥
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ॥
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ॥
पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट ।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥
पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत ।
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ॥
साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ॥
हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार ॥
मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ॥
एकही बार परखिये ना वा बारम्बार ।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार॥
प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई ॥
कबीर संगति साध की, कड़े न निर्फल होई ।
चन्दन होसी बावना, नीब न कहसी कोई ॥
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥
रात गंवाई सोय कर दिवस गंवायो खाय ।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥
हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध ।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ॥
हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार ॥
मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ॥
कबीरदास जी की कविताएं (Kabirdas ji ki kabitaayen):-
समाजसेवा के लिए दोहों के रचना के अलाबा कबीरदास जी ने अनेकों काव्यों का रचना भी किया है, उनमे कुछ कविताओं का नाम निम्न मैं दिया गया:-
- साधो ये मुरदों का गांव
- मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा
- कौन ठगवा नगरिया लूटल हो
- अवधूता युगन युगन हम योगी
- निरंजन धन तुम्हरा दरबार
- उपदेश का अंग
- मेरी चुनरी में परिगयो दाग पिया
- अंखियां तो छाई परी
- माया महा ठगनी हम जानी
- ऋतु फागुन नियरानी हो
- चितावणी का अंग
- भेष का अंग
- घूँघट के पट
- गुरुदेव का अंग
- सुमिरण का अंग
- विरह का अंग
- काहे री नलिनी तू कुमिलानी
- मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै
- रहना नहिं देस बिराना है
- कबीर की साखियाँ
- हमन है इश्क मस्ताना
- कबीर के पद
- नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार
- राम बिनु तन को ताप न जाई
- करम गति टारै नाहिं टरी
- तेरा मेरा मनुवां
- बहुरि नहिं आवना या देस
- बीत गये दिन भजन बिना रे
- साधो, देखो जग बौराना
- सहज मिले अविनासी
- जर्णा का अंग
- पतिव्रता का अंग
- कामी का अंग
- चांणक का अंग
- रस का अंग
- माया का अंग
- कथनी-करणी का अंग
- सांच का अंग
- केहि समुझावौ सब जग अन्धा
- नीति के दोहे
- मोको कहां
- मन का अंग
- साध का अंग
- मधि का अंग
- बेसास का अंग
- भजो रे भैया राम गोविंद हरी
- दिवाने मन, भजन बिना दुख पैहौ
- झीनी झीनी बीनी चदरिया
- साध-असाध का अंग
- संगति का अंग
कबीरदास का जीवन इतिहास (Kabirdas ka jivan itihas) :-
कबीरदास के जीबन भर मैं कुछ ऐसे रोचक बातें तथा घटनाएं घटे है, और उन्ही घटनाओं पर हम यहाँ थोड़ा प्रकाश डालना चाहेंगे।
कबीरचौरा मठ मुलगाड़ी की परंपरा:-
कबीरचौरा मठ मुलगड़ी संत-शिरोमणि कबीर दास का घर है, ऐतिहासिक ध्यान स्थान और कार्य स्थल है। वह अपने प्रकार के एकमात्र संत थे, और वे “सब संतान सरताज” के नाम से जाने जाते थे।
कहीं कहीं ऐसा माना जाता है कि कबीरचौरा मठ मुलगाड़ी के बिना मानवता का इतिहास बेकार है जैसे संत कबीर के बिना सभी संत बेकार हैं क्योंकि कबीरचौरा मठ मुलगड़ी की अपनी समृद्ध परंपराएं और प्रभावी इतिहास है। यह कबीर का घर होने के साथ-साथ सभी संतों के लिए साहसी विद्यापीठ भी है।
काहा जाता है की मध्यकाल भारत के भारतीय सभी संतों ने अपनी आध्यात्मिक शिक्षा इसी स्थान से प्राप्त कीथी। मानव परंपरा के इतिहास में यह साबित हो चुका है कि गहन ध्यान के लिए सिर्फ और सिर्फ हिमालय जाना जरूरी नहीं है, बल्कि समाज में रहकर सभी लोगों के बीच रहकर उन्ही के लिए यह किया जा सकता है। कबीर दास स्वयं इसी आदर्श संकेत थे। वह भक्ति का वास्तविक संकेत थे।
सामान्य मानव जीवन के साथ रह कर उन्होंने पत्थर की पूजा करने के बजाय लोगों को मुक्त भक्ति का रास्ता दिखाया। कबीर मठ में कबीर के साथ-साथ उनकी परंपरा के अन्य संतों की उपयोग की गई चीजें अभी भी सुरक्षित रखी गई हैं।
कबीर मठ में उनकी बुनाई की मशीन, खडौ, रुद्राक्ष की माला (जो की उनके गुरु स्वामी रामानंद से प्राप्त थी), जंग रहित त्रिशूल और कबीर द्वारा उपयोग की जाने वाली अन्य काफी चीजें उपलब्ध हैं।
ऐतिहासिक कुआं:-
कबीर मठ में यहां एक ऐतिहासिक कुआं है, जिसका पानीउनकी साधना के अमृत रस में मिला हुआ माना जाता है। इसका अनुमान सबसे पहले दक्षिण भारत के महान पंडित सर्वानंद ने किया था। वह यहाँ कबीर से वाद-विवाद करने आए थे। प्यास लगने के कारण उन्होंने इसस कुएं से पानी पिया और कमाली से कबीरदास जी का पता पूछा। कमाली ने उसे कबीरदास का पता बताया पर दोहों के माध्यम से।
कबीर का घर शिखर पर,जहाँ सिलहली गैल ।
पाँव न टिके पपीलका, तहाँ खलकन लादे बैल।।
उसके बाद वह बहस करने के लिए कबीरदास के पास गए लेकिन कबीर कभी इसके लिए तैयार नहीं हुए और अपनी हार को लिखित रूप में स्वीकार कर सर्वानंद को दे दिए। सर्वानंद अपने घर लौट आए और हार का वह कागज जब अपनी मां को दिखाए तब अचानक उन्होंने देखा कि बयान बिल्कुल विपरीत हो चुका है।
वह उस सत्य से बहुत प्रभावित हुए और पुन: काशी में कबीर मठ लौट आए और कबीर दास के शिष्य बन गए। वे इतने महान स्तर से प्रभावित थे कि उन्होंने जीवन भर कभी किसी पुस्तक को छुआ तक नहीं। बाद में सर्वानंद आचार्य सुर्तिगोपाल साहब के नाम से प्रसिद्ध हुए और कबीर के बाद वे कबीर मठ के मुखिया बने।
क्षमा मांगने आए थे काशी नरेश:-
एक बार की बात है काशी नरेश, राजा वीरदेव सिंह जू देव अपनी पत्नी के साथ कबीरदास जी के मठ में अपना राज्य छोड़कर क्षमा याचना के लिए आए थे। इतिहास है: एक बार, काशी राजा ने कबीर दास के बारे में बहुत कुछ सुनकर उनको अपने राज्य में बुलाया।
जब कबीर दास अपने छोटे से पानी के घड़े को लेकर अकेले ही पहुँचे तब उन्होंने छोटे घड़े से सारा पानी अपने पैरों पर डाल दिया, थोड़ा सा पानी बहुत दूर तक जमीन पर बहने लगा और पूरा राज्य पानी से भर गया, तो कबीर से उसके बारे में पूछा गया।
तब उन्होंने कहा कि जगन्नाथपुई में एक भक्त पांडा अपनी झोपड़ी में खाना बना रहा था, जिसमें वहाँ आग लग गई और मैंने जो पानी डाला, वह झोंपड़ी को जलने से बचाने के लिए था। आग गंभीर थी इसलिए छोटी बोतल से अधिक पानी लाना बहुत जरूरी था।
लेकिन राजा और उनके अनुयायियों ने उस कथन को कभी स्वीकार नहीं किया और वे एक वास्तविक गवाह चाहते थे। उन्हें लगा कि उड़ीसा शहर में आग लग गई है और कबीर यहां काशी में पानी डाल रहे हैं। उसके बाद राजा ने अपने एक अनुयायी को जांच के लिए भेजा।
जब अनुयायी ने लौटकर बताया कि कबीर का सब कथन सत्य था तब राजा को बहुत अफ़सोस हुआ और उसने और उसकी पत्नी ने क्षमा पाने के लिए कबीर मठ जाने का फैसला किया। पर क्षमा न मिलने पर उन्होंने जब अपने प्राण हारने का फैसला किया तब, उन्हें क्षमा मिल गई और उसी दिन से राजा भी कबीरचौरा मठ के एक दैनंदिन सदस्य बन गए।
समाधि मंदिर :-
समाधि मंदिर का निर्माण उसी स्थान पर किया गया है जहाँ कबीर अपनी साधना किया करते थे। साधना से समाधि तक की यात्रा तब मानी जाती है जब कोई संत इस स्थान पर जाता है। आज भी यह वह स्थान है जहां संतों को अपार सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव होता है।
यह जगह शांति और ऊर्जा के लिए दुनिया भर में मशहूर है। ऐसा काहा जाता है कि, उनकी मृत्यु के बाद, लोग उनके शरीर को जब अंतिम संस्कार के लिए लेने को लेकर झगड़ रहे थे। लेकिन, जब उनके समाधि का दरवाजा खोला गया, तो वहाँ केवल दो फूल थे, जो उनके हिंदू मुस्लिम शिष्यों के बीच अंतिम संस्कार के लिए वितरित किए गए थे।
कबीरदास जी के मृत्यु (Kabirdas ji ke mrutyu):-
इतिहासकारों के मुताबिक, कबीर दास जी की मृत्यु सन् 1518 ईस्वी को 120 वर्ष की उम्र में वर्तमान उत्तर-प्रदेश राज्य के मगहर नगर में हुई थी। कबीर की मृत्यु के बारे कुछ कुछ जनश्रुतियाँ है कि हिंदू उनके शव को जलाना चाहते थे और मुसलमान दफ़नाना।
इस पर विवाद हुआ, किंतू पाया गया कि कबीर का शव अंतर्धान हो गया है। वहाँ कुछ फूल पड़े मिले। इस तरह के अलौकिक दृश्य को देखकर सभी लोगों ने माना कि कबीर दास जी स्वर्ग सिधार गए हैं।
उनमें से कुछ फूलों को हिंदुआ ने अग्नि के हवाले किया और कुछ फुलों को मुसलमानों ने जमीन में दफ़ना दिया।कबीर दास जी की मृत्यु जिस जिले में हुई थी उस जिले का नाम संतकबीरनगर रखा गया।
अक्सर पूछे जाने बाले सवाल (FAQs) :-
कबीरदास के माता-पिता का क्या नाम है?
उनके असली माता-पिता का नाम अज्ञात है, लेकिन नीरू और नीमा ने उन्हें वाराणसी में एक तालाब के किनारे पड़ा पाया। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म काशी की एक विघवा ब्राह्मणी के घर में हुआ था। किन्तु लोकभय से वह इन्हें लहरतारा ताल के निकट छोड़ आई। उसके बाद इनका पालन-पोषण नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने किया।
कबीरदास के गुरु कौन थे?
कबीरदास जी के गुरु का नया रमानंद था और वे एक हिन्दू जन-नेता थे।
कबीरदास ने कितने दोहे लिखे?
कबीरदास जी ने कुल 25 दोहे लिखे है।
कबीर दास की प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ क्या हैं?
कबीर ने कुल 72 रचानाएं की है पर उनमे से बीजक नामक ग्रंथ उनका सबसे प्रसिद्ध है।
कबीर की भाषा शैली कैसी थी?
कबीरदास जी के भाषा को “पंचमेल खिचड़ी” अथवा “सधुक्कड़ी” भाषा कहा जाता है। यह भाषा राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा के समाहार को कहा जाता है।
कबीर की भाषा को साधु कड़ी किसने कहा है?
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कबीर दास के भाषा को साधुक्कड़ी भाषा कहा है।
कबीरदास जी के 5 दोहे?
जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार को पडा रहन दो म्यान ॥
काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत ।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ॥
जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार को पडा रहन दो म्यान ॥
जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ॥
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ॥
कबीर दास जी की दो रचनाएं?
कबीरदास जी के दो प्रमुख रचानाएं साखी और शबाद है जो उनके बीजक नामक ग्रंथ के अंश है।
कबीर भगवान कौन है?
कबीरदास जी के भगबान निर्गुण राम है।
कबीर दास जी किसके अवतार थे?
जी नहीं कबीर दास जी किसी के आबतार नहीं थे पर कुछ जनश्रुति यह है की संत कबीर अपने पिछले जन्म में ऋषि कश्यप और दिति के पुत्र थे, उनका नाम इला था।
कबीरदास जी के जन्म और मृत्यु कब हुई थी ?
कबीरदास जी का जन्म सन 1398 के आसपास और मृत्यु सन 1518 मैं 120 बर्ष की आयु मैं हुई थी।
कबीर दास जी के बीटी का नाम क्या था ?
कबीरदास जी के बेटी का नाम कमाली था और बेटे का नाम कमाल था ।
कबीरदास किसकी भक्ति करते थे?
कबीरदास निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे वे एक ही ईश्वर को मानते थे वे अंधविश्वास, धर्म व पूजा के नाम पर होने वाले प्रथाओं के विरोधी थे।
कबीर दास जी ने सबसे बड़ा पाप किसे कहा है?
कबीर ने अपनी रचनाओं में कहा है झूठ बोलने से बड़ा कोई पाप नहीं है अर्थात उनके मुताबिक झूठ बोलना ही सबसे बड़ा पाप है।
कबीर दास जी की मृत्यु?
कबीरदास जी ने काशी के निकट मगहर में अपने प्राण त्याग दिए।
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