सरहपा का जीवन परिचय (Sarhapa Ka Jivan Parichay)

सरहपा का जीवन परिचय (Sarhapa Ka Jivan Parichay) :-

सरहपा का जीवन परिचय (Sarhapa Ka Jivan Parichay) :-

प्रस्तावना :-

सरहपा हिन्दी साहित्य के आरम्भिक कवि हैं। सिध्द कवियों में सरहपा का स्थान मुख्य है। इनकी कर्मभूमि नालंदा (पटना के पास) विश्वविद्यालय थी। इनका नाम सरहपा (संस्कृत रूप शरहस्तपाद) पडने का कारण यह था कि ये शर (बाण) बनाने वाली एक नीच जाति की स्त्री के साथ रहते थे। सरहपा का समय 8वीं शताब्दी माना जाता है।

उनकी कोई भी रचना अपने मूल रूप में अब उपलब्ध नहीं है। उनकी रचनाएँ अनुवाद के रूप में उपलब्ध हैं। दोहाकोश का पुनरुनुवाद राहुल सांकृत्यायन ने अपभ्रंश में किया। उसी को मूलपाठ के रूप में हम पहचानते हैं। इस अनुवाद को वर्तमान पाठकों द्वारा पढ़ा जाना मुश्किल है। उन्हें खड़ी बोली के अनुवाद के साथ पढ़ा जा सकता है।

इस काल के रचनाकारों पर अनेक विद्वानों ने शोध कार्य किया है, जिनके प्रयासों से हम सरहपा और अन्य कवियों के बारे में जानकारी प्राप्‍त कर पाए हैं। इन्हीं के प्रयासों से इस प्राचीन साहित्य का थोड़ा-बहुत अंश आज उपलब्ध है। इनमें पिशेल, हरमन याकोबी, चन्द्रमोहन घोष, म. म. पण्डित विधुशेखर शास्‍त्री, महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्‍त्री, डॉ. प्रबोध कुमार बागची, मुनि जिनविजय, डॉ. शहीदुल्ला, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आदि मुख्य हैं। इनके प्रयासों से ही आज इस काल का साहित्य थोड़ा-बहुत उपलब्ध है।

मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन परिचय (Malik Muhammad Jaysi Ka Jivan Parichay)

सरहपा का जीवन :-

हिन्दी के अन्य प्राचीन कवियों की तरह सरहपा के जीवन के बारे में प्रमाणिक जानकारी बहुत कम है। जो जानकारियाँ उपलब्ध हैं, उनकी प्रमाणिकता भी निर्विवाद नहीं है। अधिकतर बातें अनुमान पर आधारित हैं।

उनका जन्म कब हुआ? मृत्यु कब हुई जैसे की पहले ही बोल गया है की इसकी कोई ठोस जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई। राहुल सांकृत्यायन ने इनका समय 8वीं शताब्दी माना है। उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है।

Sarhapa Ka Jivan Parichay
सरहपा का जीवन परिचय (Sarhapa Ka Jivan Parichay)

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। पर अभी इस नाम का गाँव अब नहीं है। राहुल सांस्कृतायन ने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवर्द्धन प्रदेश में होने का अनुमान किया है। अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है।

इनका बचपन का नाम राहुल भद्र था। वे ब्राह्मण थे तथा शास्‍त्र निपुण थे। राहुल जी का अनुमान है कि बाल्यकाल में उनकी शिक्षा-दीक्षा अपने नगर में ही हुई। यदि उनका कुल बौद्ध नहीं था, तो उनका अध्ययन ब्राह्मणों की तरह घर पर या किसी ब्राह्मण गुरु के पास हुआ। उन्होंने अपने वेद के साथ व्याकरण, कोश, काव्य का अध्ययन किया होगा। फिर उनकी न तृप्‍त होने वाली जिज्ञासा उन्हें किसी बौद्ध विद्वान के पास ले गई होगी। ” (दोहा कोश पृ. 11)

सिद्ध-साहित्य के जानकार विद्वानों का मत है कि वे वैदिक साहित्य के जानकार थे। वैदिक साहित्य से प्रभावित भी थे। आगे चलकर वे बौद्ध साहित्य और दर्शन के सम्पर्क में आए तथा बौद्ध-दर्शन का गम्भीर अध्ययन एवं मनन किया। वे सामान्य मनुष्य नहीं थे, थोड़े से असमान्य थे। वे बहुपठित और बहुश्रुत थे। उन्होंने अपने युग के बौद्धिक विचार-विमर्श में हिस्सा लिया था।

इसी क्रम में उन्होंने हीनयान, महायान, तन्त्र, मन्त्र और योग का गम्भीर अध्ययन किया। शैव, शाक्त, कापालिक, पाशुपत, वैष्णव सभी तरह के विचारकों से उनका बौद्धिक सम्पर्क हुआ था। ऐसा विश्‍वास किया जा सकता है। उनका यह विशद अध्ययन उनके लेखन में अभिव्यक्त होता है।

नालंदा विश्वविद्यालय और विवाह और कुछ जनश्रुति :-

बौद्ध साहित्य और दर्शन के अध्ययन हेतु उन्होंने नालन्दा विश्‍वविद्यालय में प्रवेश लिया। आजकल के प्रतिष्ठित विश्‍वविद्यालयों की तरह नालन्दा की भी प्रवेश परीक्षा होती थी। राहुल जी का मत है कि “अत्यन्त कम अपवादों के साथ नालन्दा में उन्हीं छात्रों को प्रवेश मिलता था, जो वहाँ की ‘द्वार परीक्षा’ में उत्तीर्ण होते थे। यह परीक्षा काफी कठिन होती थी।

सरहपा ‘राहुलभद्र’ के रूप में कई वर्षों तक नालन्दा में रहे। यहाँ उन्होंने अध्ययन किया तथा अध्ययन के उपरान्त यहीं अध्यापक हो गए। अनुमान है कि वे यहाँ ‘बौद्ध शास्त्रों को पढ़ाते’ होंगे। इस तरह सम्पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन करने के उपरान्त उन्होंने सब कुछ छोड़ दिया और ‘शर-कार’ बनाने वाली एक लड़की अपने साथ रख ली और स्वयं भी सरकण्डों का शर बनाने लगे, जिससे उनका नाम सरह पड़ा। फिर भक्त लोगों ने अपनी श्रद्धा के प्रतीक शब्द ‘पाद’ को जोड़कर उन्हें ‘सरहपाद’ कहना शुरू किया।

इस तरह स्वयं एक ब्राह्मण होते हुए भी सरहपा ने किसी ब्राह्मण कन्या से विवाह नहीं किया। किसी अन्य स्‍त्री से भी विवाह नहीं किया। वह किसी अन्य जाति की स्‍त्री के साथ रहने लगे। यह सह-जीवन का अत्यन्त प्राचीन उदहारण है, जिसका वर्णन अज्ञेय ने नदी के द्वीप में किया है और आधुनिक महानगरों में यह काफी होने लगा है। सरहपा के इस जीवन व्यवहार को तत्कालीन ब्राह्मण समाज ने पसन्द नहीं किया, लेकिन सरहपा ने किसी की परवाह नहीं की और अपने निर्णय पर अडिग रहे।

कहते हैं कि तत्कालीन राजा ने उन्हें कष्ट दिया, परन्तु उन पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। फिर वे उस कन्या के साथ वहाँ से चले गए। कहाँ गए? आगे क्या हुआ? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। दोनों के बीच बहुत आत्मीय रिश्ते थे।

सिद्ध साहित्य के जानकार विद्वानों का कहना है कि एक बार सरहपा ने मूली खाने की इच्छा प्रकट की। पत्नी ने मूली की सब्जी बनाई और खिलाने के लिए उनके पास ले गई। तब तक सरहपा समाधिस्थ हो चुके। 12 वर्ष बाद जब उनकी समाधि भंग हुई तो उन्होंने मूली का शाक माँगा। कहते हैं कि उस समय मूली का शाक उपलब्ध नहीं था।

पत्नी ने इस पर हँसते-हँसते टिप्पणी की कि क्यों अपने शरीर को कष्ट देते हो। 12 वर्षों की तपस्या के बावजूद आप साधारण मूली का स्वाद नहीं भूल पाए। उसी को समाधि में भी याद रखा? तब इस तपस्या का क्या फायदा। सरहपा को सहज जीवन की प्रेरणा सम्भवतः इसी से मिली।

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय (Jayshankar Prasad Ka Jivan Parichay)

राहुल संस्कृतायन जी का मत :-

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सरहपा पहले बौद्धसिद्ध हैं जिन्होंने चर्यागीतों और दोहाकोश की रचना की। इन्हें सहोरुपाद, सरोज वज्र, राहुल वज्र भी कहा जाता था। राहुल सांकृत्यायन ने सरह का समय (770-815 ई.) निर्धारित किया है। उन्होंने अपने संपादकत्व में लिखे ग्रंथ ‘दोहाकोश’ में यह भी बताया है कि सरहपा राजा धर्मपाल के समकालीन थे। राजा धर्मपाल का शासन काल 764 -809 ई. तक था।

जैसे की पहले काह जा चुका हैं की सरहापा जी की कोई मूल रचना आज उपलब्ध नहीं है और जो भी है वह राहुल जी के द्वारा अनुवाद किया हुआ ही हैं। राहुल जी का मत है कि सरह आज की भाषा में अबनार्मल प्रतिभा के धनी थे। मूड आने पर वह कुछ गुनगुनाने लगते। शायद उन्होंने स्वयं इन पदों को लेखबद्ध नहीं किया।

यह काम उनके साथ रहने वाले सरह के भक्तों ने किया। यही कारण है, जो दोहाकोश के छन्दों के क्रम और संख्या में इतना अन्तर मिलता है। सरह जैसे पुरुष से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह अपनी धर्म की दुकान चलाएगा, पर, आगे वह चली और खूब चली, इसे कहने की आवश्यकता नहीं।”

सिद्ध परंपरा और सरहपा :-

सरहपा के बारे में और अधिक चर्चा करने से पूर्व बौद्धधर्म और सिद्धों के बारे में कुछ प्रारम्भिक तथ्य जान लेने चाहिए। बुद्ध के निर्वाण के पश्‍चात् बौद्धधर्म दो भागों में बँट गया­– हीनयान और महायान।

हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इनको समझाते कहा है- महायान अर्थात बड़ी गाड़ी के आरोहियों का दावा है कि वे ऊँचे-नीचे, छोटे-बड़े, सबको अपनी विशाल गाड़ी में बैठाकर निर्वाण तक पहुँचा सकते हैं, जहाँ हीनयान (या सँकरी गाड़ी) वाले केवल सन्यासियों और विरक्तों को को आश्रय दे सकते हैं। बाद में फिर महायान के भी कई टुकड़े हो गए। इनमें सबसे अन्तिम टुकड़े हैं वज्रयान और सहजयान।

Sarhapa Ka Jivan Parichay
सरहपा का जीवन परिचय (Sarhapa Ka Jivan Parichay) Credit -: Wikipedia

इसी तरह महायान की भी दो शाखाएँ हैं। द्विवेदी जी के अनुसार “एक मानती है कि संसार में सब कुछ शून्य है, किसी की भी सत्ता नहीं और दूसरी शाखा वाले मानते हैं कि जगत् के सभी पदार्थ बाह्यतः असत् है, पर चित् के निकट सभी सत् है। एक को शून्यवाद कहते हैं और दूसरी को विज्ञानवाद।” इतने सारे मतभेदों के बीच यह हम कह सकते हैं कि सरहपा का सम्बन्ध इसी सहजयान से है और सिद्ध इसी परम्परा में आते हैं।

नागरी प्रचारिणी सभा के शब्द-कोश के अनुसार सिद्ध वह होता है जिसने योग या तप द्वारा अलौकिक लाभ या सिद्धि प्राप्‍त की हो। सिद्धों का निवास स्थान भुवलोक कहा गया है। वायु पुराण के अनुसार उनकी संख्या अठासी हजार हैं और वे सूर्य के उत्तर और सप्‍तर्षि के दक्षिण अन्तरिक्ष में वास करते हैं। वे अमर कहे गए हैं पर केवल एक कल्प भर तक के लिए। कहीं-कहीं सिद्धों का निवास गंधर्व, किन्‍नर आदि के समान हिमालय पर्वत भी कहा गया है।

अलौकिक शक्तियों से युक्त व्यक्ति को सिद्ध माना जाता था। इन सिद्धों को सिद्धियाँ प्राप्‍त थी। विचारकों ने इस पर भी विचार किया है कि सिद्धियाँ क्या होती हैं? तथा कितनी होती हैं। भारतीय चिन्तकों ने अनेक सिद्धियों का वर्णन किया है। ब्रह्मवैवर्त में 34 सिद्धियाँ बताई गईं हैं।

कुछ विचारकों ने 18 और कुछ ने 24 सिद्धियों का जिक्र किया है; किन्तु हठयोग साधना में 8 प्रमुख सिद्धियाँ मानी जाती थी– अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्‍त‍ि, प्रकाम्या, ईशित्व, वशित्व तथा काम-वशायित्व। शैव परम्परा में 8 दूसरी सिद्धियाँ गिनाई गई हैं। कालान्तर में 8 सिद्धयाँ प्रसिद्ध हो गई। जो सिद्ध पुरुष इन सिद्धियों को प्राप्‍त कर ले, वह अजर-अमर तथा अपराजेय हो जाता है। चौरासी सिद्ध इन्हीं सिद्धियों के चमत्कार के लिए प्रसिद्ध थे।

इन सिद्धियों के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जैसे वर्षा की नदी की सभी दिशाएँ अवरुद्ध कर उसकी एक ही दिशा उद्घाटित कर दी जाए तो उसमें अपिरिचित बल आ जाता है, उसी प्रकार सभी ओर से चितवृत्तियों का निरोध करने से साधक में अदम्य शक्ति आ जाती है। इन लौकिक सिद्धियों के अलावा कुछ लोकोत्तर सिद्धियाँ भी होती है, जिन्हें अनुत्तर सिद्धि, महामुद्रा सिद्धियाँ, महासुख सिद्धि कहा जाता है।

भारत में 84 सिद्ध प्रसिद्ध हैं। सरहपा उन्हीं में से एक थे। कुछ विद्वानों का विचार है कि सरहपा आदि सिद्ध थे। सिद्धों का समय 800 से 1100 ईस्वी के बीच माना जाता है। धर्मवीर भारती के अनुसार साधना में निष्णात, अलौकिक शक्तियों से सम्पन्‍न, चमत्कारपूर्ण अति प्राकृतिक शक्तियों से युक्त व्यक्ति सिद्ध कहलाता था। ये अजर-अमर माने जाते थे। जरा और मरण का इन्हें भय नहीं था।

ये देवों, यक्षों, डंकिनियों के स्वामी होते थे। अधिकांश सिद्ध पूर्वी भारत में हुए। विद्वानों ने इस पर भी विचार किया है कि सिद्ध 84 ही क्यों थे? 85 या 83 क्यों नहीं थे? या बाद में सिद्ध क्यों नहीं हुए? इस पर कोई तर्क संगत उत्तर नहीं मिलता। कुछ विद्वानों ने अनुमान लगाया कि 12 राशियों और 7 नक्षत्रों का गुणनफल 84 होता है।

सिद्ध बौद्धधर्म की वज्रयान शाखा में हुए थे। हालाँकि नाथपन्थ में भी 84 सिद्धों का उल्लेख मिलता है, परन्तु सामान्य मान्यता है कि बौद्धधर्म की सहजयानी शाखा के अनुयायी सिद्ध और शैव सम्प्रदाय अनुयायी के नाथ कहलाते हैं। अतः 9 नाथ और 84 सिद्ध प्रसिद्ध हुए। कौन कब पैदा हुआ? इनका काल क्रम क्या था? इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 84 सहजयानी की सूची दी है; जो इस प्रकार है-

  • लूहिपा,
  • लोल्लप,
  • विरूपा,
  • डोम्भीपा,
  • शबरीपा,
  • सरहपा,
  • कंकालीपा,
  • मीनपा,
  • गोरक्षपा,
  • चोरंगीपा,
  • वीणापा,
  • शांतिपा,
  • तंतिपा,
  • चमरिपा,
  • खंड्‍पा,
  • नागार्जुन,
  • कराहपा,
  • कर्णरिया,
  • थगनपा,
  • नारोपा,
  • शलिपा,
  • तिलोपा,
  • छत्रपा,
  • भद्रपा,
  • दोखंधिपा,
  • अजोगिपा,
  • कालपा,
  • घोम्भिपा,
  • कंकणपा,
  • कमरिपा,
  • डेंगिपा,
  • भदेपा,
  • तंघेपा,
  • कुकरिपा,
  • कुसूलिपा,
  • धर्मपा,
  • महीपा,
  • अचिंतिपा,
  • भलहपा,
  • नलिनपा,
  • भुसुकपा,
  • इंद्रभूति,
  • मेकोपा,
  • कुड़ालिया,
  • कमरिपा,
  • जालंधरपा,
  • राहुलपा,
  • धर्मरिया,
  • धोकरिया,
  • मेदिनीपा,
  • पंकजपा,
  • घटापा,
  • जोगीपा,
  • चेलुकपा,
  • गुंडरिया,
  • लुचिकपा,
  • निर्गुणपा,
  • जयानंत,
  • चर्पटीपा,
  • चंपकपा,
  • भिखनपा,
  • भलिपा,
  • कुमरिया,
  • जबरिया,
  • मणिभद्रा,
  • मेखला,
  • कनखलपा,
  • कलकलपा,
  • कंतलिया,
  • धहुलिपा,
  • उधलिपा,
  • कपालपा,
  • किलपा,
  • सागरपा,
  • सर्वभक्षपा,
  • नागोबोधिपा,
  • दारिकपा,
  • पुतलिपा,
  • पनहपा,
  • कोकालिपा,
  • अनंगपा,
  • लक्ष्मीकरा,
  • समुदपा
  • भलिपा

सरहपा के रचनाएं (sarhapa ki rachna) :-

प्राप्‍त जानकारी के अनुसार सरहपा ने संस्कृत और अपभ्रंश में कई रचनाएँ की। राहुल सांकृत्यायन ने उनकी सात संस्कृत रचनाओं की सूची दोहाकोश की भूमिका में दी है। इनके अलावा सरहपा की ‘अनुवादित 16 अपभ्रंश’ की रचनाओं का उल्लेख भी राहुल जी ने किया है। तभी सरहपाद की मूल रचना उपलब्ध नहीं हुई है। “उसके तिब्बती अनुवाद से ही” राहुल जी ने उन पर विचार किया है। (पाठकों को अधिक जानकारी प्राप्‍त करने के लिए राहुल सांकृत्यायन द्वारा सम्पादित दोहाकोश की भूमिका का अध्ययन करना चाहिए। )

डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय ने उन पर दो प्रामाणिक पुस्तकें सरहपा (विनिबंध, 1996 ई.) तथा सिद्ध सरहपा (उपन्यास, 2003 ई.)लिख कर प्रकाशित करवाई हैं। तिब्बती ग्रंथ स्तन्-ग्युर में सरहपा की 21 कृतियाँ संगृहीत हैं। इनमें से 16
कृतियाँ अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी में हैं, जिनके अनुवाद भोट भाषा में मिलते हैं :

(1) दोहा कोश-गीति,
(2) दोहाकोश नाम चर्यागीति,
(3) दोहाकोशोपदेश गीति,
(4) क.ख. दोहा नाम,
(5) क.ख. दोहाटिप्पण,
(6) कायकोशामृतवज्रगीति,
(7) वाक्कोशरुचिरस्वरवज्रगीति,
(8) चित्तकोशाजवज्रगीति,
(9) कायवाक्चित्तामनसिकार,
(10) दोहाकोश महामुद्रोपदेश,
(11) द्वादशोपदेशगाथा,
(12) स्वाधिष्ठानक्रम,
(13) तत्त्वोपदेशशिखरदोहागीतिका,
(14) भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीति,
(15) वसंत- तिलकदोहाकोशगीतिका तथा
(16) महामुद्रोपदेशवज्रगुह्यगीति।

उक्त कृतियों में सर्वाधिक प्रसिद्धि दोहाकोश को ही मिली है। अन्य पाँच कृतियाँ उनकी संस्कृत रचनाएँ हैं -:

(1) बुद्धकपालतंत्रपंजिका,
(2) बुद्धकपालसाधन,
(3) बुद्धकपालमंडलविधि,
(4)त्रैलोक्यवशंकरलोकेश्वरसाधन एवं
(5) त्रैलोक्यवशंकरावलोकितेश्वरसाधन।

राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें सरह की प्रारंभिक रचनाएँ माना है, जिनमें से चौथी कृति के दो और अंशों के भिन्न अनुवादकों द्वारा किए गए अनुवाद स्तन्-ग्युर में शामिल हैं, जिन्हें स्वतंत्र कृतियाँ मानकर राहुलजी सरह की सात संस्कृत कृतियों का उल्लेख करते हैं।

सरहपा की मान्यताएँ :-

यहाँ यह प्रश्‍न उठ सकता है कि जब सरहपा ब्राह्मण थे और वेद-शास्‍त्र के ज्ञाता थे, वेदों को कुछ-कुछ मानते भी थे, तब इनका जिक्र दलित रचनाकारों के साथ कैसे किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में यह यह ध्यान रखना चाहिए कि सरहपा ने ब्राह्मणों की तत्कालीन व्यवस्था को अंगीकार नहीं किया था। वे एक गैर ब्राह्मण कन्या के साथ रहने लगे थे, जिसे ब्राह्मणों ने कभी स्वीकार नहीं किया।

वैचारिक रूप से भी सरहपा ने जात-पाँत की व्यवस्था का कभी समर्थन नहीं किया तथा ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की धारणा का खंडन ही किया है। सिध्दों की परंपरा में जो वस्तु ब्राह्मण धर्म में बुरी मानी जाती थी, उसे ये अच्छी मानते थे। इनके मत में डोंबी, धोबिन, चांडाली या बालरंडा के साथ भोग करना विहित था। सरहपा की उक्तियाँ कण्ह की अपेक्षा अधिक तीखी हैं। इन्होंने भस्मपोत आचार्यों, पूजा-पाठ करते पंडितों, जैन क्षपणकों आदि सभी की निंदा की है।

Sarhapa Ka Jivan Parichay
सरहपा का जीवन परिचय (Sarhapa Ka Jivan Parichay) Credit -: kavitakosh

वैदिक परम्परा के अनुसार ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से हुई है। इसलिए जो कुछ भी इनके मुख में जाता है वह देवता ग्रहण करते हैं। इसलिए तुलसीदास ने ब्राह्मणों को पृथ्वी का देवता कहा है। ये पवित्र हैं तथा श्रेष्ठ हैं। सरहपा ने इस धारणा का खंडन किया तथा कहा–

ब्रह्मणेहि म जानन्तहि भेउ। एवी पढ़िअउ ए च्चउवेउ। ।
मट्टि त्पाणि कुस लई पढन्त। धरहिं बहसी अगगि हुणन्तं। ।
कज्जे विरहिअ हुअवह हेम्में। अक्खि ड़हा विअ कुडुअें घूमें। ।
एक दण्डि त्रिदण्डि भअवै वेसें। विणुआ होइअई हँस उएसे। ।
मिच्छेहि जग वाहिअ भुल्लें। धम्माधम्म ण जाणिअ तुल्ले। ।

अर्थात वे ब्राह्मण बिना ज्ञान के चारों वेद पढ़ते हैं। ये लोग वेद के भेद को तो जानते ही नहीं। मिट्टी,पानी, हरी दूब सामने रखकर तथा अग्नि प्रज्ज्वलित कर पूजा करने बैठ जाते हैं।

ये लोग बिना मतलब के अग्‍न‍ि में हवन-सामग्री जलाते हैं तथा उससे उत्पन्‍न धुँए से आखों से आँसू बहाए जाते हैं। कभी ये एक दण्ड पर खड़े होते हैं तो कभी तीन दण्ड पर खड़े होते हैं। भगवा वेश इनका आभूषण है।

अपने को विद्वान समझकर हँस को उपदेश देते हैं। (दोहाकोश; भाषा वैज्ञानिक अध्ययन– पृ. 29 और 41) सरहपा के इन विचारों की गूँजे हमें कबीर और अन्य निर्गुण भक्त कवियों की रचनाओं में भी मिलती हैं। सरह ने चूँकि इनकी कार्य प्रणाली को स्वयं बारीकी से देखा था। अतः उनकी रचनाओं में उपस्थित वर्णन यथार्थ प्रतीत होता है।

सरहपा ने सिर्फ ब्राह्मणवाद का ही खण्डन नहीं किया, अन्य सम्प्रदायों की भी आलोचना की है। इन आलोचनाओं की अनुगूँजे आगे चलकर कबीर, दादू आदि निर्गुण सन्तों की वाणियों में सुनाई पड़ती हैं। पाशुपत मत के खण्डन में इन्होनें लिखा कि ये सर पर लम्बी-लम्बी जटाएँ धारण किए रहते हैं। (ऐसा लगता है मानो इसका भी कोई अर्थ हो, जो कि नहीं है)

घर ही बइसी दीवा जाली। कोणहिं बइसी घण्टा चाली। ।
अख्खि णिवेसी आसण बन्धी। कण्णेहिं खुसखुसाइ जण धन्धी। ।

अर्थात ये लोग घर में बैठकर दीपक जलाते हैं और एक कोने में बैठकर घण्टी बजाते हैं। फिर आँखे बन्द करके आसन लगा देते हैं। यहाँ भी पता नहीं यह ढोंग क्यों करते हैं? फिर सरहपा आगे कहते हैं कि ये इस अन्धी (मूर्ख) जनता को ठगने के लिए कानों में फुसफुसाते हैं।

सरहपा कहना चाहते हैं कि इन उपायों से ये ठग लोग ‘जनता को भुलावे में रखते हैं। इन लोगों के ऐसे बाह्याचार इन्हें विशिष्ट बनाते हैं, ताकि इनके स्वार्थ की सिद्धि हो सके। जैनियों के बारे में सरहपा का मत है कि ये बड़े-बड़े नाखून वाले नंगे घूमते रहते हैं तथा सारे शरीर के बाल उखड़वाते हैं। सरहपा टिप्पणी करते हैं कि–

जइ णग् गाविअ होइ मुत्ति, ता सुणह सिआलह ।।

यदि नंगे रहने से मुक्ति मिलती है तो कुत्ते और सियार को भी मुक्ति मिल ही जाती होगी। वे तो नंगे ही रहते है हैं। अपना शरीर नहीं ढकते। सरहपा का मानना है कि इनसे मोक्ष प्राप्‍त नहीं होता।

सरहपा ने पारम्परिक बौद्धों की भी आलोचना की है जो तपस्या करने के लिए जंगलों में जाते हैं। वे आगाह करते हैं, चेतावनी देते हैं:

किन्तहि न्तित्थ तपोवण जाइ। मोक्ख कि लब्भइ (पाणीन्हाइ। ।
च्छड्डहु रे आलीका बंधा)। सो मुञ्चहु जो (अच्छहु धन्धा)। ।

मोक्ष जंगल में तपस्या करने से नहीं मिलता और न जल में नहाने से मिलता है। सरहपा इन सबको पाखंडी मानते हैं और उन्हें सलाह देते हैं कि इन मिथ्या प्रपंचों को छोड़ दो और तुम्हारे भीतर मूढ़ता व्याप्‍त है, उसे छोड़ दो।

इस तरह सरहपा ने अपने समय में व्याप्‍त पाखण्ड और बाह्याचार का खण्डन किया। इस खण्डन से पूर्व सरहपा ने इन पर गहन विचार किया होगा, तब निष्कर्ष रूप में अपनी बात कही होगी। यहाँ बहस की कोई संभावना नहीं है। सरहपा ने उनसे प्रश्‍न नहीं पूछा, बल्कि उनको बताया है। यह दृढ़ता उनके आत्मचिन्तन से आई है, इसमें कोई सन्देह नहीं।

सरहपा के युग में दर्शन की अनेक उलझी हुई गुत्थियाँ देखने को मिलती हैं। उनकी बारीकियों को जानना बहुत मुश्किल है। जीवन, जगत, माया, शरीर, तन्त्र-मन्त्र, आचार-विचार, मुक्ति, गुरु सबके बारे में अनेक आचार्यों के भिन्‍न-भिन्‍न मत मिलते हैं। उन सबका अति संक्षिप्‍त परिचय देना भी यहाँ सम्भव नहीं है। इसलिए उन सबको स्थगित करते हुए दोहाकोश में कही गई सरहपा की उक्तियों का सार-संक्षेप करने का प्रयास करते हैं।

Amir Khusro Ka Jivan Parichay| अमिर खुसरो का जीवन परिचय | Amir Khusro Poetry

सरहपा का दर्शन :-

सरहपा परमात्मा में विश्‍वास नहीं करते, इसलिए वे आत्मा में भी विश्‍वास नहीं करते। वे कहते हैं कि परम् तत्त्व न एक है और न दो है। न अद्वैत है न द्वैत है न विशिष्टाद्वैत है। वह अनेक भी नहीं है। आगे उन्होंने कहा कि इस परमपद का न आदि है और न अन्त है। न इसका कोई मध्य है। न यह उत्पन्‍न होता है और न ही निर्वाण होता है।

यह किसी दूसरे का नहीं है, तो अपना भी नहीं है। वह तो बस है। इस तरह सरहपा इसको समझने का प्रयास करते हैं। ऐसा लगता है कि जो समझाना चाह रहे हैं, उसे व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। वह अभिव्यक्ति से परे है। सिद्धों के रहस्यवाद के मूल में उनकी परमतत्त्व सम्बन्धी अवधारणा है।

सरहपा कहते हैं कि आत्मा शून्य है और संसार भी शून्य है। शून्य और निरंजन ही परम पद है। इसमें पाप और पुण्य कुछ नहीं होता। परमपद का ज्ञान प्राप्‍त होने पर ही आपको सिद्धि मिल सकती है। परमपद महासुख की एक अवस्था का नाम है। यह महासुख देता कौन है? इस पर सरहपा ने कहा कि महामुद्रा ही महासुख दिलाती है। इसको प्राप्‍त करने के लिए पवित्र या अपवित्र का विचार नहीं करना चाहिए। महासुख की प्राप्‍त‍ि के पश्‍चात चित्त का भटकना बन्द हो जाता है। महामुद्रा का कोई विकल्प नहीं है।

यहाँ सरहपा एक और दार्शनिक स्थापना करते हैं। वे कहते हैं कि चित्त एक मूल बीज है। इसलिए चित्त देवता है, मन और चित्त अलग-अलग होता है। मन चंचल होता है, परन्तु चित्त स्थिर होता है। इसलिए सरहपा कहते हैं कि चित्त से चिन्ता को निकाल देना चाहिए। इस चित्त को ‘जबर्दस्ती बाँधना’ गलत है और बिलकुल स्वतन्त्र छोड़ना भी गलत है।

चित्त की इस सहज अवस्था को न तो गुरु बता सकता है और न शिष्य समझ सकता है। यह सहज अमृत के समान है। जहाँ इन्द्रियाँ समाहित हो जाती हैं, विषय की इच्छा भी नष्ट हो जाती है, चित्त का अन्तर भी मिट जाता है : वहाँ जो आनन्द प्राप्‍त होता है, वही महासुख है। इसलिए सरहपा कहते हैं कि घर में रहिए, पत्नी के साथ रहिए, साधुवेश और ध्यान सब छोड़ दीजिए।

बालक की तरह रहिए। बच्‍चा जैसा चाहता है, वैसा ही करता है। यदि चित्त के विपरीत कार्य किया तो दुःख अवश्य मिलेगा। इसलिए नाचो, गाओ और अच्छी तरह विलास करो। उसी में योग की उपलब्धि होगी।

इस प्रकरण में सरहपा उपदेश देते हैं कि मनुष्य को सहज जीवन जीना चाहिए। कठोर नियमों में मन और शरीर को बाँधकर जीवन को कष्टमय नहीं बनाना चाहिए। जो चित्त को अच्छा लगे, वह कीजिए। चित्त तो राजा है। उसका स्वभाव स्वछन्द है। यही मनुष्य का मुक्तिदाता है। सरहपा भोग का विरोध नहीं करते। वह कहते हैं कि निष्काम भाव से भोग करना चाहिए। इस प्रकरण में वे कहते हैं– यदि आपने मन के विपरीत कार्य किया तो आप व्यवस्थित नहीं रह पाएँगे। अतः भोग करें परन्तु उससे मुक्त हो जाएँ। यह सहज साधना है।

इस तरह सरहपा अन्त में जीवन की स्वाभाविक प्रकृति का उपदेश देते हैं। वे विवाह का विरोध नहीं करते। आप विवाहित रहकर सहज मार्ग अपना सकते हैं। सहज मार्ग गुरु के ज्ञान से दिखाई देता है, चित्त की अपनी प्रकृति से सहज ही प्राप्‍त हो जाता है। और यह सब काया के भीतर विद्यमान है।

सिद्ध सरहपा के लिए कुछ प्रमुख कथन :-

“आज की भाषा में अबनार्मल प्रतिभा के धनी थे मूड आने पर वह कुछ गुनगुनाने लगते। शायद उन्होंने स्वयं इन पदों को लेखबद्ध नहीं किया। यह काम उनके साथ रहने वाले सरह के भक्तों ने किया। यही कारण है, जो ‘दोहा-कोश के छन्दों के क्रम और संख्या में इतना अन्तर मिलता है। सरह जैसे पुरुष से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह अपनी धर्म की दूकान चलाएगा, पर, आगे वह चली और खूब चली, इसे कहने की आवश्यकता नहीं।” –महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“जब उन्हें वहाँ का जीवन दमघोंटू लगने लगा, तो उन्होंने सब कुछ को लात मारी, भिक्षुओं का बाना छोड़ा, अपनी नहीं, किसी दूसरी छोटी जाति की तरुणी को लेकर खुल्लमखुल्ला सहजयान का रास्ता पकड़ा।” – महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“सिद्ध-सामंत युग की कविताओं की सृष्टि आकाश में नहीं हुई है वे हमारे देश की ठोस धरती की उपज हैं। इन कवियों ने जो खास-खास शैली भाव को लेकर कविताएँ की, वे देश की तत्कालीन परिस्थितियों के कारण ही।” –महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में ही दिखाई देता है।“ –डॉ. बच्चन सिंह

अकसार पूछे जाने वाले सवाल (FAQs) :-

सरहपा का जन्म कब हुआ था?

768-809 माना जाता है।


चौरासी सिद्धों में प्रथम सिद्ध कौन है?

राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामो का उल्लेख किया है। सिद्ध साहित्य का आरम्भ सिद्ध सरहपा से होता है। सरहपा को प्रथम सिद्ध माना जाता है। इन सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा तथा कुक्कुरिपा हिन्दी के प्रमुख सिद्ध कवि हैं।


सरहपा के गुरु का क्या नाम था?

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, सरहपाद सबसे प्राचीन सिद्ध या सिद्धाचार्य थे तथा वे उड़िया, और हिन्दी के ‘आदि कवि’ हैं। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सरहपाद, हरिभद्र नामक बौद्ध दार्शनिक के शिष्य थे जो स्वयं शान्तरक्षित के शिष्य थे।

सरहपा सिद्ध कवि की कौनसी रचना हैं?

ज्ञात अपभ्रंश प्रबंध काव्यों में स्वयंभू की प्रथम दो रचनाएँ ही सर्वप्राचीन, उत्कृष्ट और विशाल पाई जाती हैं और इसीलिए उन्हें अपभ्रंश का आदि महाकवि भी कहा गया है। सरह या सरहपा या सिद्ध सरहपा हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है।


सरहपा की काव्य भाषा कौन सी है?

प्राप्‍त जानकारी के अनुसार सरहपा ने संस्कृत और अपभ्रंश में कई रचनाएँ की। राहुल सांकृत्यायन ने उनकी सात संस्कृत रचनाओं की सूची दोहाकोश की भूमिका में दी है। इनके अलावा सरहपा की ‘अनुवादित 16 अपभ्रंश’ की रचनाओं का उल्लेख भी राहुल जी ने किया है। तभी सरहपाद की मूल रचना उपलब्ध नहीं हुई है।

निष्कर्ष :-

सरहपा भारत के 84 सिद्धों में से एक हैं। वे ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मणों की तत्कालीन व्यवस्था को अंगीकार नहीं करते थे। वे ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का खण्डन करते हैं। साथ ही जातिभेद का भी समर्थन नहीं करते। दार्शनिक रूप में वे मनुष्य को सहज जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं और कर्मकाण्ड, बाह्याचार आदि का खण्डन करते हैं।

अंतिम कुछ शब्द :-

दोस्तों मै आशा करता हूँ आपको ” सरहपा का जीवन परिचय (Sarhapa Ka Jivan Parichay)” Blog पसंद आया होगा। अगर आपको मेरा ये Blog पसंद आया हो तो अपने दोस्तों और अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर शेयर करे अन्य लोगो को भी इसकी जानकारी दे। यह Blog Post मुख्य रूप से अध्यायनकारों के लिए तैयार किया गया है, हालांकि सभी लोग इसे पढ़कर ज्ञान आरोहण कर सकते है।

अगर आपको लगता है की हमसे पोस्ट मैं कुछ गलती हुई है या फिर आपकी कोई प्रतिकिर्याएँ हे तो हमे आप About Us में जाकर ईमेल कर सकते है। जल्दी ही आपसे एक नए ब्लॉग के साथ मुलाकात होगी तब तक के मेरे ब्लॉग पर बने रहने के लिए ”धन्यवाद”

इसस ब्लॉग पोस्ट के बीबरण का स्रोत :-

1. अपनी माटी ब्लॉगपोस्ट
2. inflibnet ब्लॉगपोस्ट (डालित साहित्य)
3. Reference of Quora posts
4. अपभ्रंश भाषा और साहित्य (राजमाणी शर्मा)

अन्य कुछ keywords :-

  • Sarhapa ka jivan parichay
  • Sarhapa ka jivan parichay pdf
  • सरहपा PDF
  • सरहपा की रचनाएँ
  • सरहपा का काव्यगत विशेषताएँ
  • सरहपा का जीवन परिचय
  • सरहपा किस काल के कवि हैं
  • सरहपा के दोहे का अर्थ

Leave a Comment