लौकिक साहित्य और रासो साहित्य की सम्पूर्ण जानकारी (Loukik sahitya Aur Raaso sahitya Ki Sampoorn Jaankaari)

लौकिक साहित्य और रासो साहित्य की सम्पूर्ण जानकारी (Loukik sahitya Aur Raaso sahitya Ki Sampoorn Jaankaari):-

Contents

आदिकालीन हिन्दी साहित्य मैं सिद्ध, नाथ तथा जैन साहित्य के रचनाओं के बाबजूद हिन्दी साहित्य का क्रमबद्ध बिकास रासो साहित्य तथा लौकिक साहित्य के जनभाषी रूपी साहित्य के माध्यम से ही जाना जाता है। लौकिक साहित्य मैं रचनाकारों ने मुख्य रूप से जनभाषा या फिर तत्कालीन देशभाषा और जनभाषा को ही अपने रचना का मुख्य आधार बनाया।

जिसके कारण अपने प्रामाणिकता के अभाब के बाबाजूद लौकिक साहित्य के रचानाएं अभितक उक्त स्थानों के लोगों के मुख मैं अभितक जीबीत है।

तत्कालीन रचनाकारों ने मुख्य रूप से अपभ्रंश भाषा के साथ-साथ अपनी रचनाओं में देशभाषा का भी प्रयोग किया। दसवीं शताब्दी के बाद अपभ्रंश भाषा के साथ-साथ लोकभाषा का प्रयोग खुलकर होने लगा था। राजस्थान से मिथिला तक के राजदरबारों में देशी भाषाओं के साथ अपश्रंश भाषा को मिलाकर काव्य रचने की पद्धति प्रचलित हो चली थी।

इस प्रकार, अदिकाल में दो प्रकार की साहित्थिक प्रवृत्तियों का प्रारंभ होता है। प्रथम प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्ति को साहित्य के इतिहास में रासो काव्य के नाम जाना जाता है और दूसरे प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्ति को लौकिक साहित्य की संज्ञा दी गई है।

लौकिक साहित्य (Loukik Sahitya):

हिंदी साहित्य के आदिकालीन साहित्य मैं लौकिक साहित्य के रचना मुख्य रूप से तत्कालीन लोकभाषाओं में रचना किए गए साहित्य को समझाता है। इस साहित्य रचनाओं का इन रचनाओं का काव्य धारा तत्कालीन परिस्थितिओं से काफी अलग था, क्योंकि ये मुख्य रूप से लोक भाषा के उपर ही आश्रित था।

लिखित रूप से ना हो पाना और लोकाशृत होने के कारण धीरे धीरे ये साहित्य लुप्त होता चला गया और इसीलिए इन काव्यों का प्रामाणिकता का कोई ठोस सबूत नहीं मिल पाता, पर विभिन्न लोकगीतों के माध्यम से लोक में जो थोड़ा-बहुत शेष रह गया उससें इतना अवश्य ज्ञात होता है कि आदिकाल में लौकिक साहित्य भी लोक प्रचलित रहा है।

आदिकालीन साहित्य में धार्मिक साहित्य और चारणों की रचनाओं से भिन्न दूसरे प्रकार के साहित्य की लोकधारा भी प्रवाहित थी। लौकिक साहित्य की यह लोकधारा ही वास्तविक अर्थ में देशभाषा काव्य थी जो की हिंदी साहित्य के विकास के मूल में है।

चारण साहित्य को जब से राजाश्रय प्राप्त हो गया, तब से उसमें भी शास्त्रीय रूढ़ियों जैसे अभिजात तत्व से रासो साहित्य आच्छादित हो गया, ऐसी परिस्थिति में साहित्य में नवीनता का प्रादुर्भाव लोक साहित्य द्वारा संभव हो सकता था। लौकिक साहित्य ने जीवन की रची विषय वस्तु को अपने साहित्य का विषय बनाया इसलिए कविता या गद्य में अलंकरण न होकर जीवन की स्वाभाविक दशाओं का वर्णन है।

लौकिक साहित्य के विभिन्न अंग केवल शुद्ध साहित्धिक दृष्टि से ही अध्ययन के विषय न होकर सांस्कृतिक अर्थात् मानव विज्ञान तथा समाजशास्त्र की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। हिंदी साहित्य के आदिकाल में मुलतान, राजस्थान, दिल्ली, अवध और मिथिला से लौकिक साहित्य प्राप्त हुए है।

लौकिक साहित्य के प्रमुख रचानाएं (Loukik Sahitya Ke Pramukh Rachanaye) :-

हिन्दी साहित्य के आदिकाल मे जैन एवं सिद्ध साहित्य धर्मश्रित होने के कारण तथा रासो साहित्य राज्य आश्रित होने के कारण सुरक्षित रह गया. परंतु इस काल में इन दोनों काव्य धाराओं से भिन्न लौकिक साहित्य की भी रचना हुई लेकिन वह लोकाश्रित होने से सुरक्षित न रह सका।

अनेक कारणों से वह साहित्य लुप्त हो गया। उपलब्ध लौकिक साहित्य में “ढोला मारू रा दूहा”, “संदेश रासक'”, “बसन्त विलास”, “राउलवेल'”, “उक्ति व्यक्ति प्रकरण”, “‘वर्ण रत्नाकर”, को देखकर तत्कालीन लोक साहित्य के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है।

बसन्त विलास (Basant Bilas):-

डॉ. माताप्रसाद गूप्त ने विभिन्न प्रमाण देकर “बसन्त विलास’” का रचना-काल १३ वी १४वी शती के मध्य का माना है। इस कृति के रचयिता का पता नहीं चल पाया है। “”यह एक अत्यधिक सरस साहित्यिक कृति है और आधुनिक भारतीय आर्य – भाषा – साहित्य के आदिकाल के इतिहास में बेजोड़ है। ‘ इस रचना में चौरासी दोहों में बसन्त ऋतु और स्त्रियों पर उसके विलासपूर्ण प्रभाव का मनोहारी वर्णन हुआ हैं।

इस काव्य में प्रकृति और नारी दोनों का मदोन्मत्त रूप श्रृंगार रस की तीव्र धारा प्रवाहित करता है। डॉ. रामगोपाल शर्मा ‘दिनेश‘ के शब्दों में- ‘स्री-पूरूष -प्रकृति -तीनों में अजस्त्र बहती मदोन्मत्ता का इस काव्य में जैसा वर्णन मिलता है, वैसा रीतिकालीन हिन्दी कवि भी नहीं कर सके। इसकी भाषा सरस ब्रजभाषा है।

जिसका विकास परवर्तीं भक्तकालीन कृष्णकाव्य में और रीतिकाव्य में दिखाई देता है। “

राडलवेल (Raulbel):-

यह लौकिक साहित्य मैं एक प्रमुख रचना के रूप मैं माना जाता है। गद्य-पद्य मिश्रित चम्पू-काव्य की प्राचीनतम हिन्दी कृति है। इसका रचयिता रोद़ा नामक कवि माना जाता है। विद्वानों ने इसका रचना-काल दसवीं शताब्दी माना है। इसकी रचना “राउल” नायिका के नखशिख वर्णन के प्रसंग में हुई है।

आरम्भ में कवि ने राउल के सौंदर्य का वर्णन पद्य में किया है और फिर गद्य का प्रयोग किया गया है। इस कृति से ही हिन्दी में नखशिख वर्णन परम्परा आरम्भ होती है। इसकी भाषा में हिन्दी की सात बोलियों के शब्द मिलते है, जिनमें राजस्थानी प्रधान है।

कवि ने विषय वर्णन बड़ी तन्मयता से किया है। नायिका राउल का श्रृन्गार आकर्षण से भरा हुआ है। वह सहज रूप में जितनी सुन्दर है उतनी ही सहज-सुन्दर उसकी सज़ा भी है। इस सौन्दर्य के अनुकूल ही उसकी भाव- दशा भी है।

उक्ति-व्यक्ति प्रकरण (Ukti-Byakti Prakaran):-

इस ग्रन्थ की रचना दामोदर शर्मा ने की है। १२ वीं शताब्दी का यह एक महत्वपूर्ण “‘व्याकरण ग्रन्थ'” माना जाता है, इसमें बनारस और आसपास के प्रदेशों की तत्कालीन संस्कृति और भाषा आदि पर पर्याप्त प्रकाश ड्ाला गया है।

इसकी भाषा के अध्ययन से तत्कालीन गद्य और पद्य दोनों शैलियों की हिन्दी भाषा में तत्सम पदावली के प्रयोग की बढ़ती हुई प्रवृत्ति का पता चलता है। अत: हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक अध्ययन में यह ग्रन्थ अत्यन्त सहायक सिद्ध हुआ है।

वर्णरत्नाकर (Branratnakaar):-

लौकिक साहित्य के मैथिली हिन्दी में रचित गद्य का यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका लेखक ज्योतिशेखर ठाकुर नामक मैथिल कवि था। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के मतानुसार इसकी रचना चौदहवी शताब्दी में हुई होगी।

यह एक शब्दकोशनुमा ग्रन्थ है, परन्तु सौन्दर्य ग्राहिणी प्रतिभा भी उसमें निहित है। उसकी भाषा में कवित्व, अलंकारिकता, तथा शब्दों की तत्समता की प्रवृत्तियाँ मिलती है। हिन्दी गद्य के विकास में “राडलवेल” के पश्चात “वर्णरत्नाकर'” का योगदान भी कम नहीं कहा जा सकता।

संदेश रासक (Sandesh Raasak):-

लौकिक साहित्य मैं संदेश रासक की रचना लगभग बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के बीच में मूल स्थान के आसपास हुई थी और इसकी रचना अपभ्रंश भाषा में हुई थी, परंतु वह अपभ्रंश भाषा बोलचाल के अधिक नज़दीक थी। कवि अब्दुल रहमाण प्राकृत और अपभ्रंश की परंपरा के अच्छे जानकार थे, फिर भी वे अपनी रचना को बोलचाल की भाषा के अधिक नज़दीक रखने का इस रचना मैं हरपाल प्रयत्न करते हैं।

बोलचाल की भाषा से जुड़ी होने के कारण ही संदेश रासक में लोक संवेदना का सहज विस्तार मिल पाया है। संदेश रासक मुख्य रूप से एक दूत काव्य है। दूत काव्य की परंपरा संस्कृत और प्राकृत में भी मिलती है और उसी काव्य चेतना का प्रसार अपम्रंश में भी मिलता है।

मेघदूत के पूर्व-मेघ और उत्तर-मेघ के समान “संदेश रासक” तीन प्रक्रमों में विभाजित है। प्रथम अंश प्रस्तावना रूप में है, द्वितीय अंश में वास्तविक कथा का प्रारंभ होता है और तृतीय अंश में षड़ऋतु का वर्णन किया गया है।

अब्दुल रहमाण ने नायिका की तीब्र विरहानुभूति को प्रभावकारी बनाने के लिए नाटकीय कौशल का सहारा लिया है। आज के सामाजिक जीवन में दूटते मानवीय संबंध की तुलना जब संदेश रासक के सहृदय पथिक की सहानुभूति से करते हैं तब हम पाते हैं कि आज के युग में मानवीय भावों का कितना ह्रास हुआ है। मानवीय करुणा और सहानुभूति के शीतल स्पर्श के कारण इस कृति की सार्थकता आज भी बनी हुई है।

ढोला मारू रा दूहा (Dhola Maru Ra Duha):-

ढोला मारू रा दूहा’ की रचना ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास पश्चिमी राजस्थान में हुई थी पर यह अज्ञात है कि इस कृति की रचना किस रूप में हुई थी। कुशललाभ ने कृति में कुछ चौपाइयों को जोड़कर काव्य कृति को एक आधार दिया।

“ढोला मारू रा दूहा” की रचना को देखा जाए तो ये लोककथा के आधार पर की गई थी। इस काव्य कृति में कथानक को इस प्रकार से बुना गया है कि कथा का मुख्य सूत्रधार राजकुमार ढोला ही प्रतीत होता है। यह काव्य पुरुष की स्वेच्छाचारी मनोवृत्ति को उद्घाटित करता है और उसके साथ ही नारी जीवन की पराधीनता और विवशता की ओर भी ध्यान आकृष्ट करता है।

क्योंकि ढोला मारू रा दूहा लोककथा है, इसलिए इसमें लोकजीवन और प्रकृति के आत्मीय रिश्तों को भी कृतिकार ने बोहोत ही अच्छे तरीके से रेखांकित किया है। इस काव्य में नारी जीवन की आशाएँ, स्मृतियाौं तथा चिताएँ ऋतु की संवेदनाओं के साथ जुड़ जाती हैं। हिंदी साहित्य में दोहा के विकास को समझने में ढोला मारू रा दूहा लौकिक साहित्य मैं एक प्रमुख भूमिका निर्वाह करता है और इसका व्यापक महत्त्व है।

लौकिक साहित्य के प्रमुख कवि (Loukik Sahitya Ke Pramukha Kavi) :-

1. विद्यापति (Vidyapati) :-

विद्यापति का रचनाकाल चौदहवी शताब्दी के आसपास था। लौकिक साहित्य को जनभाषा के रूप मैं परिबर्तन करने का प्रमुख श्रेय इनको भी जाता है। वे मैथिली और संस्कृत कवि, संगीतकार, लेखक, दरबारी के रूप मैं प्रसिद्ध थे। मैथिली भाषा के अमूल्य रचनाओं के कारण उन्हें ‘मैथिल कवि कोकिल’ (मैथिली के कवि कोयल) के नाम से भी जाना जाता है।

विद्यापति का प्रभाव केवल मैथिली और संस्कृत साहित्य तक ही सीमित नहीं था, बल्कि अन्य पूर्वी भारतीय साहित्यिक परम्पराओं तक भी था।

विद्यापति के काव्य में मानवीय सौदर्य का गहरा रंग है उनके द्वारा रचे गए सौदर्य के चित्र सघन हैं। राधा और कृषण के साथ शिव और पार्वती को भी विद्यापति ने मानवीय बनाकर प्रस्तुत किया है।

विद्यापति का काव्य जहां जयदेव के श्रृंगारी काव्य से प्रभावित है, वहीं दूसरी ओर उनपर कालिदास की स्वच्छंद अनुभूति का प्रभाव भी मिलता है। विद्यापति ने कुष्ण के अतिरिक्त, शिव को भी शृंगार रस का आलंबन बनाया है। कवि ने शिवं और कृष्ण के मिथक का आश्रय इसलिए लिया है कि प्रेम जैसी अनुभूति का तन्मयता से वर्णन हो सके।

विद्यापति की भाषा (Vidyapati Ki Bhasha):-

उस काल की देशभाषा को अपभ्रंश में मिलाकर रचने की प्रवृत्ति प्रचलित थी। विद्यापति ने भी इन रूढ़ियों का पालन किया, परंतु उनके काव्य में देशभाषा का स्वतंत्र विकास भी देखने को मिलता है। अपभ्रंश मिश्रित लोकभाषा जिसे विद्यापति ने अवहटृठ काहा है, तथा मिथलांचल प्रदेश में प्रचलित लोकभाषा मैथिली दोनों ही भाषाओं में विद्यापति ने रचना की।

यह अपश्रंश भाषा प्राकृत की रूढ़ियों में बंधी हुई प्रतीत नहीं होती। वस्तुतः विद्यापति के सामने कविता की दो धाराएँ थीं – एक प्राचीन मैथिली की और दूसरी उत्तरकालीन अवहट्ठ की। विद्यापति ने दोनों प्रकार की भाषाओं को मिलाकर एक नई शैली की उद्भावना की।

आश्रयदाताओं की प्रशंसा के बावजूद मैथिल – कोकिल ने लोक अनुभूति के मर्म से अपनी कविता को रचा। मिथिला का कोई पर्व-त्योहार, विवाह और अन्य लोकोत्सव मैथिल-कोकिल के गीत
के बिना अधूरा माना जाता है लोक-संवेदना में इतने गहरे स्तर तक हिंदी में किसी दूसरे कवि की पैठ नहीं मिलती। इसी अर्थ में डॉ. रामबिलाश शर्मा ने उन्हें मध्यकालीन नवजागरण का अग्रदूत माना है।

विद्यापति के रचानाएं (Vidyapati Ke Rachanaye):-

इनकी तीन रचनाएँ प्रसिद्ध हैं- कीर्तिलता, कीर्तिपताका एवं पदावली

कीर्तिलता ऐतिहासिक महत्त्व का छोटा-सा प्रबंध-काव्य है। विद्यापति ने इसे “कहाणी” कहा है। मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यक्तियों को आधार बनाकर जो काव्य लिखे गए हैं, वे ऐतिहासिकता से रहित होकर कथानक-रूढियों, किवदतियों, अनुश्रुतियों आदि के विषय बन गए हैं। इसी प्रकार घटनाओं को भी तोड़ा-मरोड़ा गया है।

कीर्तिलता इस दृष्टि से महत्तवपूर्ण अपवाद हैं। उसकी ऐतिहासिकता बहुत- कुछ सुरक्षित है। इसमें विद्यापति ने कीर्तिसिंह द्वारा अपने पिता का बदला लेने का वर्णन बहुत यथार्थपरक ढंग से किया है। कीर्तिलता को कवि ने “अवहट्ट’ भाषा में रचा है। अबाहट्ट ‘ देशी भाषा यानी मैथिल – युक्त विकसित अपभ्रंश है। इसके गद्य में तत्सम शब्दीं का प्रयोग खुलकर हुआ है।

पदावली विद्द्यापति के यश का आधार है। पदावली ऐसी रचना है, जो काव्योत्कर्ष और साहित्य का इतिहास, दोनों दृष्टियों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसमें राधा-कृष्ण अपना अलौकिकत्व छोड़कर लौकिक व्यक्तियों के समान प्रेम- भावना से परिपूर्ण होते हैं।

लोक में जिस प्रकार किशोरी दुर्निवार प्रियमिलन और लोकलाज के कारण तीव्र अंतर्दंद झेलती है, उसी प्रकार राधा को चित्रित किया गया है। कवि का मन वय:संधि का चित्रण करने में विशेष रूप से रमा है।

इसलिए इस बात को लेकर काफ़ी विवाद है कि पदावली भक्तिपरक रचना है या श्रुंगारपरक। वस्तुत: जयदेव का गीतगोविंद, विद्यापति की पदावली और सूरदास का सूरसागर एक ही कोटि की रचनाएँ हैं, जिनमें भक्ति का आधार शृंगार है। पदावली के एक पद की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

सरस बसंत समय भल पावलि दछिन पवन बह धीरे।
सपनहु रूप बचन इक भापिय मुख से दूरि करु चीरे।॥
तोहर ब्दन सम चौँद होअधि नाहिं के यो जतन बिह केला।
कै बेरि काटि बनावल नव कै तैयो तुलित नहिं भेला।।
भनइ विद्यापति सुन वर जोवित ई सम लछमि समाने।
राजा सिवसिंह रूप नरायन ‘लखिमा देई’ प्रति भाने॥

2. आमिर खुसरो (Aamir Khusro):-

अमीर खुसरो इस युग के अत्यंत महत्त्वपू्ण एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति हैं। उनके काव्योत्कर्ष का प्रमाण उनकी फ़ारसी रचनाएँ हैं। वे संगीतज्ञ, इतिहासकार, कोशकार, बहुभाषाविद्, सूफ़ी औलिया, कवि -बहुत कुछ थे।

उन्हें विविध विधाओं में निपुणता हासिल थी। इतिहास, कविता, संगीत आदि विविध विषयों पर उन्होंने लेखनी चलाई। वे कई भाषाओं के जानकार थे। फारसी, ऊर्दू, ब्रजभाषा, खड़ीबोली तथा कई अन्य भाषाओं में वे समान अधिकार के साथ लिख सकते थे।

खुसरो मिलनसार तथा खुशमिज़ाज़ स्वभाव के थे। उन्होंने जनता में राचालित पद्य तथा लोकोक्ति तथा मुकरियों को अपनाया। उनके दोहे तथा पहेलियों में एक खास प्रकार की तुकबंदी है। कहीं- कहीं तो उन्होंने फारसी भाषा और ब्रजभाषा की संगीतात्मक ध्वनि को एक-साथ पिरो दिया।

दो भिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के छंद को एक- साथ मिलाने का असाधारण कार्य कोई दृष्टि-सम्पन्न अध्येता ही कर सकता है।

आमिर खुसरो कि भाषा (Aamir Khusro Ki Bhasha):-

खुसरों के काव्य में सामान्य भारतीय मनुष्य की सहजता है। अमीर खुसरों दरबार के फारसी पांडित्य से अलग लोकभाषा में जनता की अनुभूति को अभिव्यक्त करते हैं। उन्होंने जनता की भाषा को अपना बनाया था, इसलिए जनता भी उन्हें आज तक नहीं भूली है।

मध्यदेश की भाषा खड़ी बोली और ब्रजभाषा के विकास को समझने में खुसरो की रचनाओं से काफी मदद मिलती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि काव्यभाषा का ढाँचा अधिकतम शौरसेनी या पुरानी ब्रजभाषा का ही बहुत काल से चला आता था ।

अतः जिन पश्चिमी प्रदेशों की बोलचाल खड़ी होती थी, उनमें भी जनता के बीच प्रचलित पद्यों, तुकबंदियों आदि की भाषा ब्रजभाषा की ओर झुकी रहती थी। अब भी यह बात पाई जाती है| इसी से खुसरो की हिंदी रचनाओं में भी दो प्रकार की भाषा पाई जाती है।

ठेठ खड़ी बोलचाल की भाषा पहेलियों, मुकरियों और दो सुखनों में ही मिलती है-यद्यपि उनमें भी कहीं-कहीं ब्रजभाषा की झलक है। पर गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुख प्रचलित काव्यभाषा ही है। मध्यदेश के जनमानस में प्रचलित भाषा और जनता की सोच-समझ को जानने के लिए आदिकालीन हिंदी साहित्य में खुसरो का महत्व अतुलनीय है।

अमीर खुसरो ने अनेक काव्यों को रचा, जिसमें ऐतिहासिक प्रेमाख्यान भी हैं। उन्होंने सभी काव्य-शैलियों का प्रयोग किया उन्होंने एक नई फारसी शैली का निर्माण किया जो बाद में सबक-ए-हिंदी या भारतीय शैली कहलाई।

आमिर खुसरो-काब्यरचना (Aamir Khusro-Kavyarachana):-

खुसरो द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या सौ बताई जाती है, जिनमें मुस्किल से बीस या फिर इक्कीस ही उपलब्ध हैं। उनकी हिंदी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय रही हैं। उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने अभी तक लोगों की जबान पर हैं। उनके नाम से निम्नलिखित दोहा बहुत प्रसिद्ध है:

गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहूँ देस ॥।

किंतु उनकी हिंदी रचनाओं का ऐतिहासिक महत्त्व अधिक है। उनकी भाषा, हिंदी की आधुनिक काव्यभाषा के रूप में पूर्णत: प्रतिष्ठित होने का संकेत देती है।

उनका व्यक्तित्व और उनकी हिंदी इस बात को प्रमाणित करती है कि हिंदी काव्य प्रारंभ से ही मध्य देश की मिली-जूली संस्कति का चित्र रहा है। उन्होंने ऐसी पंक्तियाँ रची हैं, जिनमें फ़ारसी और हिंदी को एक ही ध्वनि प्रवाह में गुफित कर दिया गया है। यह कला संस्कृति-साधक को ही सिद्ध हो सकती:

जे हाल मिसकी मकुन तगाफुूल दुराय नैना, बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिज्रों न दारम ऐ जॉ! न लेह काहे लगाय छतियाँ।।
शबाने हिज्राँ दराज्ञ चूं ज़ल्फ़ व रोज्े वसलत चूं उम्र कोतह।
सखी! पिया को जो में न देखं तो कैसे काट्ू अँधेरी रतियाँ॥।

रासो साहित्य (Raaso Sahitya) :-

बास्तबिक हिंदी साहित्य का आरम्भ तथा आदिकालीन उपयुक्त प्रामाणिकता के साथ मिले हुए काव्यों में रासो साहित्य के काव्य सर्वाधिक पाए जाते है। यद्यपि सिद्ध, नाथ और जैन रचनाकारों की रचनात्मक संवेदना में हिंदी भाषा के प्रारंभिक रूप का प्रादुर्भाव हो चुका था, तथापि हिंदी साहित्य का क्रमबद्ध विकास रासो साहित्य के आविर्भाव से ही माना जाता है।

सिद्ध, नाथ और जैन रचनाकारों की मूल भाषा अपभ्रंश ही थी परंतु उन्होंने अपभ्रंश भाषा के साथ अपनी रचनाओं में देशभाषा तथा जनभाशाओं का भी प्रयोग किया था। 

दसवीं शताब्दी के बाद अपभ्रंश भाषा के साथ लोकभाषा का प्रयोग खुलकर होने लगा था। राजस्थान से मिथिला तक के राजदरबारों में देशी भाषाओं के साथ अपभ्रंश भाषा को मिलाकर काव्य रचने की पद्धति अपने चरम सीमा पर थी।

इस प्रकार, अदिकाल में मुख्य रूप से दो प्रकार की साहित्थिक प्रवृत्तियों का प्रारंभ होता है । प्रथम प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्ति को साहित्य के इतिहास में रासो काव्य के नाम से जाना जाता है और दूसरे प्रकार की साहित्यिक प्रृत्ति को लौकिक साहित्य की संज्ञ दी जाती है।

रासो साहित्य और लौकिक साहित्य की रचना एक विशेष प्रकार की सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था के बीच हुई थी।

रासो काव्य की पृष्ठभूमि (Raso Kavya Ki Prusthbhumi):-

रासो काव्य से मुख्य तात्पर्य आदिकालीन साहित्य की वीरगाथात्मक कृतियों से है। आदिकालीन साहित्य में रास ग्रंथ और रासो ग्रंथ आदि  दोनों प्रकार की रचनाओं की चर्चा मिलती है। रास साहित्य और रासो साहित्य का मुख्य अन्तर भावों के वर्णन को लेकर है।

रास साहित्य की संवेदना मुख्यतः धार्मिक अनुभूति या फिर लौकिक प्रेम की अनुभूति से जुड़ी हुई है। रास काव्य का प्रसार जैन साहित्य में देखने को मिलता है। “संदेश रासक” इसी तरह के साहित्य का एक प्रमुख उदाहरण है।

  पर अगर रासो साहित्य को समझने की कोशिश करेंगे तो रासो साहित्य की रचना चारणों द्वारा हुई थी। चारणों का साहित्य में आगमन सामंतवादी व्यवस्था का आरंभ होना तथा सामंतो प्रशस्तिगान के लिए चारणों की आवश्यकता होना, प्रशस्तिगान में चारण अधिकतर आश्रयदाता सामंतों की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करना तथा इन्ही के आसपास अपने काव्यों का रचना करना।

प्रशर्तिगान की विषय वस्तु बहुत ही सीमित थी। सामंतों के जीवन में दो बातों की प्रधानता वे थी युद्ध और प्रेम । इसलिए चारणों के साहित्य में भी इन्हीं दो विषयों की प्रमुखता मिलती है। पृथ्वीराज रासो और बीसलदेव रासो में इस प्रकार काव्यों में सबसे प्रथम आते है।

राजनीतिक कारणों से हुए युद्धों के स्थान पर चारणों ने काव्य में रूपवती स्त्री को ही युद्ध का कारण परिकल्पित किया है। पृथ्वीराज और शहाबुद्दीन गौरी (मुहम्मद घोरी) के बीच युद्ध का कारण एक रूपवती स्त्री को बताया गया है।

रासो साहित्य के संदर्भ में इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि यह साहित्य युद्ध और शृंगार तक ही क्यों सीमित है और इस प्रश्न का सीधा जवाब है कि तब साहित्य बहुत कुछ सामाज़िक संरचना पर निर्भर करता है। सामाजिक संस्था की बनावट का असर साहित्य पर भी दृष्टिगोचर होता है।

सामंती व्यवस्था में चारण कवियों ने जीवन के उन पक्षों को अनदेखा किया जिसका संबंध जीवन के अभावों से है, इसीलिए य्यवस्था से शोषित सामान्य मानव के घरेलू जीवन और उसकी समस्याओं की ओर उनका ध्यान नहीं है। इन विषयों से सामंतों का मनोरंजन भी नहीं हो सकता था।

आदिकालीन रासो साहित्य में साहित्य का उद्देश्य सामंतों का मनोरंजन था, इसलिए रासो साहित्य में युद्ध और श्रृंगार को प्रमुख विषय बनाया गया ।

इस श्रृंगार में भी उत्तेजना है, इसमें प्रेम से अधिक काम का वर्णन है। प्रकृति वर्णन को भी काव्य में काम की उत्तेजना को बढ़ाने का साधन माना गया है। इसीलिए रासो काव्यों को आदिकाल साहित्य के अंश मानने मैं कई विद्वानों के मतभेद रहा है। पर सत्य यही है कि रासो-काव्यों की रचना आदिकाल में ही हुई थी। उनमें जो अंश उत्तरवर्ती राजाओं से संबंधित हैं, वे प्रक्षिप्त हैं।

रासो साहित्य-कथात्मक सरंचना Raso Sahitya-Kathatmak Saranchana) :-

रासो काव्य का ढाँचा मुख्य रूप से प्रबंधात्मक रहा है। तत्कालीन दौर में मुक्तक रचनाएँ भी हुई, परंतु वे मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। कथानक के धारावाहिक विकास के कारण काव्य में प्रबंधत्व का विकास विशेष रूप से हुआ है।

इसी कारण से आदिकाल की प्रबंध कृतियों का किसी एक कवि की रचना होने पर भी संदेह अभिव्यक्त किया जाता है।

इस प्रकार आदिकाल में रचे गए प्रबंध काव्य का ढाँचा लगातार बदलता रहा है। उसमें नए प्रसंगों की आगमन होती रही है। कई कवियों द्वारा कई प्रसंगों की उद्भावन एक साथ प्रबंध योजना में ही संभव हो सकती है।

प्रबंध काव्य रचने का दूसरा सबसे बड़ा कारण चारणों द्वारा किया गया अतिरंजनापूर्ण वर्णन भी था। किसी भी काव्य में कथानक को अतिरंजनापूर्ण बनाने के लिए उसमें प्रसंगों की विविधता आवश्यक हो जाती है।

प्रसंग की विविधता के क्रम में कथानक में फैलाव आता जाता है, जिसे मुक्तक में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। रासो काव्य के प्रबंधत्व में लोकतत्व और कथानक रूढ़ियों का समावेश भी खास तौर से मिलता है।

कथानक रूढियां (Kathanak Rudhiyaan):-

काव्य में प्रेम संबंधी कथानक रूढ़ियों का प्रयोग कई रासो ग्रंथों में मिलता है। “पृथ्वीराज रासो” में ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं, जिसमें नायक तथा नायिका किसी दूसरे के मुख से गुणगान को सुनकर परस्पर आकर्षित होते हैं।

पृथ्वीराज नट से शशिव्रता के रूप की प्रशंसा को सुनकर तथा शशिब्रता गाना सिखाने वाली शिक्षिका से पृथ्वीराज की प्रशंसा को सुनकर एक दूसरे के प्रति आकृष्ट होते हैं इस प्रकार की कथानक रूढ़ियों का प्रयोग प्रेम काव्यों में बहुत अधिक मिलता है।

इसी प्रकार, कन्या-हरण का प्रसंग भी बहुत सामान्य सी कथानक रूढ़ि है। प्रेम संबंधी कथानक रूद़ियों के अध्ययन से यह पता चलता है कि इस प्रकार के प्रेम में स्वाभाविक अनुभूति और मार्मिकता नही है। ऋतु-वर्णन भी प्रेम-संबंधी कथानक रूढ़ियों का एक हिस्सा है। ‘पृथ्थीराज रासो’ में संयोगकालीन उद्दीपक ऋतु वर्णन की पुरानी प्रथा को भी काफी दफा अपनाया गया है।

रासो काव्य (Raso Kavya):-

उपर आलोचना किए गए मान्यताओं के आधार पर हम रासो- ग्रंथों को आदिकाल का साहित्य स्वीकार करके यहाँ उनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।

खुमाण रासो (Khuman raso):-

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने इसको नवीं शताब्दी की रचना माना है, क्योंकि इसमें नवीं शती के चित्तौड़ नरेश खुमाण के युद्धों का चित्रण पाया जाता है। राजस्थान के वृत्त-संग्राहकों ने इसको सत्रवहीं शताब्दी की रचना बताया है, क्योंकि इसमें सत्रहवीं शताब्दी के चित्तौड़ नरेश राजसिंह तक के राजाओं का वर्णन मिलता है और इसी आधार पर वे इसको आदिकाल की रचना नहीं मानना चाहते।

वास्तविकता यह है कि इस काव्य का मूल रूप नवीं शताब्दी में ही लिखा गया था। तत्कालीन राजाओं के सजीव वर्णन, उस समय की परिस्थितियों के यथार्थ ज्ञान तथा भाषा के ‘आरंभिक हिंदी-ूप’ के प्रयोग से इसी तथ्य के प्रमाण मिलते हैं।

बीसलदेव रासो (Bisaldev Raso) :-

इसका रचना कई विद्वान 1272 भी मानते, ज्यादातर विद्वान इसे 1292 ही स्वीकार किया है। “बीसलदेव रासो’ हिंदी के आदिकाल की एक श्रेष्ठ काव्य-कृति है। इसमें भोज परमार की पुत्री राजमती और अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव तृतीय के विवाह, वियोग एवं पुनर्मिलन की कथा सरस शैली में प्रस्तुत की गई है।

राजमती की बातों से रुष्ट होकर स्वाभिमानी राजा उड़ीसा चला जाता है। बारह वर्ष तक राजमती उसके विरह में दूःखी रहती है। वह राजभवन की दीवारों को कोसती हुई वन में रहने की कामना करती है। सामंती जीवन के प्रति गहरी अरुचि का सजीव चित्र इस काव्य में मिलता है।

इस काव्य में श्रृंगार के वियोग और संयोग पक्षों के अत्यंत मार्मिंक चित्र कवि ने प्रस्तुत किए हैं। राजमती में एक कुलीना गृहिणी का स्वाभिमान है, जो विरह के चित्रों को कांतिमय बनाता है। संयोग के समय भी यही कांति काव्य-सौंदर्य की वृद्ध करती है।

हम्मीर रासो (Hammir Raso):-

‘प्राकृत-पैंगलम‘ में इस काव्य के कुछ छंद मिले थे और उन्हीं के आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसके अस्तित्व की कल्पना की थी।

उनका अनुमान था कि इसमें हम्मीर और अलाउद्दीन के युद्धों का वर्णन तथा हम्मीर की प्रशंसा चित्रित होगी। किंतु राहुल सांकृत्यायन जी ने उन पद्यों को “जज्जल”नामक किसी कवि की रचना घोषित किया है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का कथन है कि “हम्मीर” शब्द “अमीर” का विकृत रूप है, जो किसी पात्र का नाम न होकर एक विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता रहा है।

परमाल रासो (Parmaal Raso):-

परमाल रासो के रचयिता जगनिक नामक कवि माना जाता है, जो महोबा के राजा परमर्दिदेव का आश्रित था। उसने इस काव्य में आल्हा और ऊदल नामक दो वीर सरदारों की वीरतापूर्ण लडाइयों का वर्णन किया है। इसी आधार पर इसका रचना-काल तेरहवीं शती का आरंभ माना जाता है।

इसमें वीर-भावना का जितना प्रौद रूप मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। आज भी जब इसे गायक संगीत के साथ गाते हैं, तब दर्बलों में भी तलवार चलाने की स्फूर्ति आ जाती है। विवाह और शत्र्-प्रतिशोध वीरता के प्रदर्शन का आधार रहे हैं।

युद्धरों के अत्यंत प्रभावशाली वर्णनों की इस काव्य में भरमार है। भावों के अनुसार ही भाषा भी चली है और उसमें एक विशेष शब्द-ध्वनि सर्वत्र व्याप्त हो गई है। गेयता का गुण इस काव्य को विकासशील लोकगाथा- काव्य की श्रेणी में ले जाता है, किंतु इसकी रचना लोक-गाथा के खूप में न होकर शुद्ध काव्य के रूप में ही हुई है।

पृथ्वीराज रासो (Pruthwiraj Raso) :-

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि चंदबरदाई हिंदी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका ‘पृथ्वीराज रासो’ हिंदी का प्रथम महाकाव्य है।” उन्होंने चंदवरदायी को दिल्ली – नरेश पृथ्वीराज चौहान का सामंत और राजकवि माना है।

महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार चंदबरदायी का जन्म लाहौर में हुआ था। इनके जन्म-काल के संबंध में कई धारणाएँ हैं। शुक्ल जी ने इनका जन्म-वर्ष 1168 ई. माना है। इनके पूर्वजों की भूमि पंजाब थी, जहाँ लाहौर में इनका जन्म हुआ था।

इनका और महाराज पृथ्वीराज का जन्म एक ही दिन हुआ था और दोनों ने एक ही दिन यह संसार भी छोड़ा था।'” शुक्ल जी ने हरप्रसाद शास्त्री द्वारा प्राप्त चंदबरदाई का एक वंश-वृक्ष भी प्रस्तुत किया है। उसके कथनानुसार चंद के चार पुत्र थे, जिनमें से चतुर्थ पुत्र जल्ल था।

जिस समय पृथ्वीराज को मुहम्मद गोरी बंदी बनाकर अपने देश ले जा रहा था, उस समय चंद भी महाराज के साथ गया था तथा अपने पुत्र जल्ल को ‘पृथ्वीराज रासो’ सौंप गया था। इस संबंध में यह उक्ति प्रसिद्ध है-” पुस्तक जल्हण हत्थ दै, चलि गज्जन नृप काज।” कहा जाता है कि जल्ल ने चंद के अधूरे महाकाव्य को पूर्ण किया था।

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