रीतिकाल की सम्पूर्ण जानकारी (Reetikaal Ki Sampoorn Jaankaari)

रीतिकाल की सम्पूर्ण जानकारी (Reetikaal Ki Sampoorn Jaankaari):-

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हिन्दी साहित्य मैं रीतिकाल या अलंकार काल मैं जो भी काव्य रचनाएं हुई वह मुख्यतः अलंकार, शृंगार रस, गुण, ध्वनि, नायिका भेद आदि की काव्यशास्त्रीय प्रणालियों के आधार पर रचा गया था। इसस ब्लॉग पोस्ट मैं हम रीतिकाल के बिषय मैं बिस्तार से आलोचना करेंगे।

रीतिकाल का परिचय :-

रीतिकालीन काव्य रचना तथा काव्य रीति मैं केबल कविताओं की रचना करना ही प्रधान प्रवृत्ति हो गई थी, और “रीति”, “कबित्त रीति” आदि शब्दों का प्रचलन आरंभ हो गया था। और ये ही कारण है की आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने इन्ही प्रयोगों को ध्यान मैं रखते हुए इस काल को रीतिकाल की संज्ञा प्रदान की थी जिसमे “शृंगार रस” की प्रमुख प्रधानता रहा था।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सन 1700  से सन 1900 तक के कालखंड को रीतिकाल की संज्ञा प्रदान की है। इस काल के अधिकांश कवियों ने आचार्यत्व का निर्वाह करते हुए लक्षण ग्रंथों की परिपाटी पर रीति ग्रंथों की रचना की जिनमें अलंकार, रस, नायिका भेद, आदि काव्यांगों का विस्तृत विवेचन किया गया। अपनी काव्य प्रतिभा दिखाने के लिए इन कवियों के लिए लक्षण ग्रंथ लिखना अनिवार्य था।

राज्यश्रित काव्य तथा काव्यांग चर्चा में ये गौरव का अनुभव करते थे तथा इस युग में इस बात पर विवाद होते थे कि इस पंक्ति में कौन सा अलंकार, शब्द-शक्ति, रस या ध्वनि है।

काव्यांगों के लक्षण एवं स्वरचित उदाहरण प्रस्तुत करने वाले रीति ग्रंथों की प्रचुरता के कारण ही इस काल में रीति तत्व की प्रधानता परिलक्षित होती है और इसी कारण इस काल का नाम “रीतिकाल” रखा गया है।

रीति कालीन पृष्ठभूमि :-

इस काल में भक्ति में से धार्मिक प्रभाव का तत्त्व क्रमश: लोप होता गया। फलत: भक्ति, जो मूलरुप प्रेम है, धीरे-धीरे लौकिक श्रृंगार के रूप में परिवर्तित होती गई। दरबार में पहुँचकर वह व्यापक अर्थ में लौकिक प्रेम भी नहीं रह सकी। क्योंकि उस समय हिंदी क्षेत्र में छोटे-छोटे राजा और नवाब थे जो केंद्रीय शासन द्वारा अनुशासित होते थे, वे वीरगाथाकालीन सामंतों की तरह आपस में लड़ाई नहीं कर सकते थे।

वे अपने झूठे, पराक्रम, दान की प्रशंसापरक कविताएँ सुनने और भोग-विलास का उद्दीपन करने वाली रचनाओं में ही रुचि रखते थे और ऐसे ही काव्य दरबारी कहलाता था, जो आश्रयदाताओं की रुचि को ध्यान में रखकर उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए रचा जाता है।

दरबारी कविता में एकरसता तो होती ही है, उसमें प्रधानत: मुक्तक ही रचने का अवकाश होता है, क्योंकि कवियों में आश्रयदाता को तत्काल प्रसन्न करने की जल्दी होती है। इसीलिए धीरे -धीरे चमत्कार-प्रियता, अलंकारिता, अतिशयोक्ति आदि दरबारी कविता की प्रवृत्तियाँ बन जाती हैं।

शिवाजी, छत्रसाल जैसे आश्रयदाता पराक्रमी थे, तो भूषण की कविताएँ भी श्रृंगारहीन होकर भी वीरसात्मक भाव के कविता है। क्योंकि रीतिकालीन कविता मुख्य रूप से दरबारी कविता थी, इसीलिए इन कविताओं पर तत्कालीन सामंती परिवेश का पूरा प्रभाव पड़ा।

केबल कविताएं की बात नहीं पूरा ललित कलाएं भी उससे प्रेरित हुई। रीतिकालीन कविता की प्रमुख पृष्ठभूमि का विवेचन निम्न में किया गया है:

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:-

औरंगजेब के मृत्यु के पश्चात जब केंद्रीय शासन सत्ता का लोप होने लगा तब सारे छोटे छोटे राजा महाराजा अपने अपने शक्ति प्रदर्शन करके खुद ही सत्ता में आने के लिए लगातार प्रयास करने लगे। शासन से ज्यादा राजाओं ने अपने भोगबिलाश तथा शक्ति प्रदर्शन पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया, जगह जगह पर हरमखाने खुलने लगे, स्त्रीयों पर अत्याचार बढ़ने लगा।

इसके कुछ हद तक शुरूवात औरंगजेब के शासन के समय से ही हो चुका था। क्यों की बह एक क्रूर राजा था, तो ये जायस है की हिन्दुओं के।प्रति अत्याचार तथा अन्याय बढ़ने लगा, और इस का प्रभाव उसके बाद के राजाओं पर भी दिखाई दिया।

फलस्वरूप प्रजा विद्रोह करने पे आ गई और काल क्रमशः ये एक आम चीज में बदल गई। इसके साथ साथ बाहरी शत्रु के आक्रमण शुरू हो गए और उन्होंने इस मौके का फायदा बोहोत ही अच्छे से उठाया।

नादिरशाह और अहमदशाह ने दिल्ली पर कब्जा करना चाहा और काफी हद तक सफल भी हुए, क्यों की इनलोगो की मुकाबला का जवाब न तो केंद्रीय सत्ता के पास था और ना ही छोटे सामंती राजाओं के पास। जब इसका फायदा अंग्रेजों ने उठाया और देश के पूर्वी हिस्से को अपने कब्जे में लिया, उसके साथ साथ ही रीतिकालीन काव्य का उपसंहार होगया।

दरबारी पृष्ठभूमि:-

प्राचीन काल के लगभग हर सम्राटों की सभाओं में विद्वान, कवि, गायक, विदूषक, इतिहास पुराण के ज्ञाता आदि रहते थे। इन्हें आश्रय और सम्मान देकर आश्रयदाता भी यश और सम्मान प्राप्त करता था। विक्रमादित्य और भोज ऐसे ही गुणज्र शासक थे ।

किंतु धीरे-धीरे राजाओों की गुणज्ञता क्षीण होने लगी और उनके दरबारों मे रूढ़िबद्धता बढने लगी। भाव की गंभीरता और व्यापकता के स्थान पर काव्यों में अलंकरण और प्रदर्शन की प्रवृत्ति ही शेष रह गई।

मुगल दरबार में संगीतज्ञ, शिल्पी, चित्रकार और विविध भाषाओं के कवि रहते ये। अब्युल रहीम खानखाना जैसे प्रतिभा सम्पन्न प्रशासक, कवि और गुणज्ञ व्यक्ति थे जिनका सम्पर्क तुलसीदास, केशवदास और वैष्णव भक्तों से बना हुआ था। तानसेन, गंग, बीरबल आदि “अकबर के अनेक दरबारी कवि थे।

जहाँगीर के दरबार में केशव मिश्र तथा शाहजहा के दरबार में सुंदर, कुलपति मिश्र, चिंतामणि और आचार्य पंडितराज जगन्नाथ रहते थे। किंतु उसके बाद औरंगजेब की कट्टरता के कारण सारे कवि तथा कलाकार मुगल दरबार से चले गए।

जो स्थिति मुगल दरबार की थी वही स्थिति उत्तर भारत के सभी राज दरबारों की भी थी। अकबर के द्वारा स्थापित समृद्ध राज्य के उत्तराधिकारी विलासी और दिखावे के प्रिय हो गए।

उसके प्रभाव से देशी राजाओं में भी इसका  का प्रचलन बढ़ा। रीतिकालीन कवि इस दरबारी वातावरण से पूरी तरह प्रभावित हुए। रीतिबद्ध कवि तो उसके अभिन्न अंग थे ही, पर रीतिमुक्त कवि भी उससे दूर नहीं रह पाए।  बाद में अपनी स्वच्छंदवृत्ति के कारण ये कवि दरबारों से मुक्त होकर स्वतंत्रतापू्वक काव्य रचना में लगे।

सामाजिक पृष्टभूमि:-

क्योंकि देश में पौरुषहीन बिलासपूर्ण और वैभव के प्रदर्शन की प्रवृत्ति व्याप्त हो चुका था इसीलिए सामाजिक सुव्यवस्था भी इससे प्रभावित हुआ था। समाज में शासक और शासित के बीच दूरियां बढ़ती जा रही थी। शासन- तंत्र निरंकुश और शोषक बन गया था।

प्रजा की दयनीय दशा की तरफ ध्यान देने वाला कोई नहीं था। शोषक शासकों का समूह बढ़ता जा रहा था और शोषित प्रजा हर प्रकार के अत्याचार को सहने के लिए विवश होती जा रही थी।

कवि-कलाकार उत्पन्न  प्रजा -वर्ग के बीच में होते थे, किंतु उन्हें अपनी कला के लिए सम्मान और अपनी जीविका के लिए सामन्त या राजवर्ग की शरण लेनी पड़ती थी। ऐसी स्थिति में वे अपने आश्रयदाता की रुचि के अनुकूल अपनी कला तथा रचना को ढालते थे।

सामान्य जन में न तो कला की परख थी और न कलाकार को पुरस्कृत करने की क्षमता । उसके लिए तो परिवार का पेट भरना ही कठिन था। सारा जीवन घोर परिश्रम में ही बीत जाता था। रचनाकारों को जहाँ से पोषण मिलता था, वे उसी वातावरण से प्रेरणा लेते थे। रीतिकाल के कवियों को राजदरबार में सामंतों के संसर्ग में रहना पड़ता था।

सांस्कृतिक पृष्टभूमि:-

रीतिकालीन कविता जिस संस्कृति से थी, उस पर तत्कालीन राज दरबारों का गहरा प्रभाव मिलता है। दरबारों में ही संगीत कला, चित्रकला और स्थापत्यकला का पोषण हो रहा था। दरबार चाहे मुगलों का हो,  नवाबों का हो या राजा तथा महाराजाओं का, कलाकारों को हीं प्रश्र्य मिलता था।

उस समय मुगल दरबारों में फारसी भाषा ही प्रचलित थी, इसीलिए उनकी कलात्मक अभिरुचि ईरानी शैली से प्रभावित थी।

हिंदू दरबारों में जिन कलाओं को संरक्षण मिला उन पर भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का प्रभाव मिलता है, किंतु उन पर धीरे-धीरे ईरानी शैली अपना रंग चढ़ाती गई। खास कर मुगल सम्राटों मैं अकबर, जहांगीर, शाहजहां ने कला , स्थापत्य, संगीत तथा चित्रकला पर बोहोत ज्यादा निवेश करते हुए पाया जाता है।

अकबर के दरबार के संगीतज्ञ तानसेन,लाल पत्थरों से बने हुए किले, सम्राट शाहजहां द्वारा ताजमहल आदि सब इन स्थापत्यों का मुख्य प्रमाण है।

साहित्यिक पृष्ठभूमि:-

रीतिकालीन साहित्य के रचना लगभग भक्तिकाल के अंत होते होते ही आरंभ हो गया था। भक्ति काल की अंतिम रचनाएँ काव्य दृष्टि से शृंगार की ही रचनाएँ हैं, भले ही उसे हम लौकिक श्रृंगार की सीमा में न घेर सकें पर वह श्रृंगार का ही ईश्वर से संबद्ध रूप हो गई हैं।

भारतीय मर्थादा को ध्यान में रखकर प्रेम के आलंबन श्रीकृष्ण और राधा ही रखे गए। घोर वासनापूर्ण रचना करने वालों ने भी भक्ति की श्रुंगारिकता का आवरण बनाए रखा। इन कृष्ण भक्त कवियों ने

अपने भगवत् प्रेम की पुष्टि के लिए जिस श्रृंगारमयी लोकोत्तर छटा और आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना से जनता को रचनाएं दी, उसका लौकिक स्थूल दृष्टि रखने वाले विषय वासना पूर्ण जीवों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसकी ओर उन्होंने ध्यान न दिया।

फलत: रीतिकालीन कविता में राधा-कृष्ण के नाम के साथ उनकी वे सारी लीलाएँ भी आ गई जो तत्कालीन बिलास अभियक्ति में सहायक हुई। रीतिकालीन कबियों ने इस प्रसंग को अपने रचनाओं मैं बिलासता तथा भोग के सामग्री के रूप इस्तेमाल किया।

वास्तव में रीतिकाल भक्तिकाल का ही परिबिस्तार है, बस अंतर ये है की भक्तिकाल के काव्य रचानाओं मैं लोकजीवन के निकट के कारण और भाबाबेग तथा भाव बिस्तर और धार्मिक भावना का  समावेश ज्यादा है।

जब की उसके परवर्ती साहित्य रीतिकालीन काव्य रचानाओं मैं साहित्य सीमित दरबारी पारी इस मैं ही लिखा गया, जिस से ये साहित्य मैं से धार्मिक भावना तो दूर हो गई, और उसके साथ ये जन जीवन से दूर भी चली गई।

रीतिकालीन कविताओं की प्रमुख विशेषताएं :-

रीतिकालीन रचानाओं मैं जितने भी मुख्य प्रबृत्तियाँ पाए जाते है वे सब तत्कालिन परिस्थितियों पूर्ण रूप से सामंजस्य रखते है। इन काव्यों की रचना सामंती और दरबारी छत्रछाया में हुई, अत: उसमें वे सभी विशेषताएँ पाई जाती हैं, जो दरबारी काव्य में होनी चाहिए।

रीतिकाल का कवि जनता के कवि न होकर ‘राजदरबार’ का कवि थे। अत: उसके काव्य में अलंकरण की प्रधानता, चमत्कार प्रदर्शन की प्रवृत्ति एवं श्रृंगारिकता का सहजपुट आना स्वाभाविक ही था।

रीति निरूपण:-

रीतिकालीन कवियों की प्रधान प्रवृत्ति ‘रीति निरूपण’ अर्थात् लक्षण ग्रथों की रचना करना है। इस प्रवृत्ति को प्रधान मानकर ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने इस काल का नाम “रीतिकाल” रखा है। और इसमें संस्कृत काव्यशास्त्र को हिंदी में रूपांतरित करने का काम रीतिकालीन आचायों द्वारा किया गया है।

विभिन्न काव्यांगों के लक्षण एवं उदाहरण देते हुए अनेक कवियों ने लक्षण ग्रंथों की रचना की गई है । सामान्य पाठकों को काव्यशास्त्र की जानकारी कराना तथा कारव्यशास्त्र की मर्मज्ञता का प्रदर्शन करना ही इन ग्रंथों के प्रधान उद्देश्य रहा। इन कवियों ने संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों

को आधार बनाकर अपने लक्षण ग्रंथों की रचना तो की, किंतु संस्कृत काव्यशास्त्र में जो सूक्ष्म चिंतन एवं विश्लेषण है, उसका यहाँ प्रचुर अभाव मिलता है। रीतिकालीन आचारयों द्वारा काव्यशास्त्र के क्षेत्र में कोई मौलिक उपलब्धि प्राप्त नहीं की जा सकी। यही नहीं अपितू कहीं – कहीं इनके द्वारा प्रस्तुत किए गए लक्षण भ्रम मूलक हैं।

श्रृंगारिकता :-

रीतिकालीन कवियों के काव्यों का मुख्य भाव शृंगार रस है। इस काव्य में नखशिख के द्वारा नायिका के रूप-सौंदर्य की उदाहरण  प्रस्तुत की गई है तथा राधा- कृष्ण की प्रेम लीलाओं का विविध प्रकार से चित्रण किया गया है, जिसमें भक्ति भावना का कही कोई चिन्ह नहीं है। नायिका-भेद के अंतर्गत भी श्रृंगार ही प्रमुख प्रतिपाद्य रहा है।

रीतिकालीन दरबारी परिवेश एवं कामुक मनोवृत्ति के कारण शृंगार एवं उससे संबंधित विषय ही इन कवियों को विशेष प्रिय रहे हैं। इनकी श्रृंगरिकता में रूप लिप्सा, कामना एवं शरीर सुख की लालसा ही दिखाई पड़ती है। रीतिकालीन लक्षण ग्रंथकारों ने शृंगार रस के वर्णन में ही अपनी रुचि अधिक दिखाई है।

अलंकारिकता:-

दरबारी काव्य होने के कारण रीतिकालीन काव्य में अलंकारों की प्रधानता है। कविगण कविताओं को अलंकारों से सुसज्जित करने में अपने काब्यपरंगमता समझते थे।

विलास दरबारी मनोवृत्ति के कारण भी कवियों को काव्य में सहजता के स्थान पर कृत्रिम अलंकारिकता क समावेश करना पडा। अलंकारों के प्रति इनका मोह अति प्रबल था। वे प्रयत्नपूर्वक काव्य में अलंकारों को समाविष्ट करते थे और इस प्रकार अपनी बुद्धि का लोहा मनमाने को विवश करते थे।

आश्रयदाताओं की प्रशंसा:

रीतिकाल के अधिकांश कवि मुख्य रूप से राजदरबारों के आश्रय में रहते थे। बिहारी, देव, भूषण, सूदन, केशव, मतिराम, आदि सभी प्रसिद्ध कवि राजदरबारों से बृत्ति प्राप्त करते थे, अतः यह स्वाभाविक था कि वे अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा में काव्य रचना करते। ‘देव’ ने अपने आश्रयदाता भवानी सिंह के लिए ‘भवानी-विलास‘ तथा कुशल सिंह के लिए ‘कुशल विलास’ की रचना

की तो ‘सूदन’ ने भरतपुर के राजा सुजान सिंह की प्रशंसा में “सुजान चरित’ लिखा। वीर रस के प्रसिद्ध कवि ‘ भूषण’ ने शिवाजी की प्रशंसा में ‘शिवराज भूषण’, ‘शिवा बावनी‘ की रचना किए थे। इन वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिंदू जनता स्मरण करती है, उसी की व्यंजना भूषण ने की है।

परंतु यदि भूषण जैसे कुछ कवियों को छोड़ दिया जाए, तो रीतिकाल के अधिकांश कवियों के द्वारा की गई आश्रयदाताओं की प्रशंसा अतिशयोक्तिपूर्ण है। ‘देव’ जैसे प्रसिद्ध कवि को कई आश्रयदाता बदलने पडे, पर उन्हें कभी स्थायी आश्रय प्राप्त नही हुआ।

भक्ति एवं नीति :-

रीतिकाव्य का प्रमुख प्रतिपाद्य तो शृंगार है ही , तथापि उसमें भक्ति एवं नीति संबंधी अनेकों कड़ियां पाई जाती है।

रीतिकालीन कवियों ने राधा- कृष्ण की प्रेम लीलाओं वर्णन करते हुए जो रचनाएँ प्रस्तुत की हैं, उनमें श्रृंगारिकता के साथ-साथ भक्ति- भावना भी विद्यमान है। ये एक भक्ति काब्यपरक से उद्भाबन का प्रमुख उदाहरण है।

पर ये नही है की इन काव्यों पर भक्तिपरक भावना प्रमुख है प्रधान तो शृंगार रस ही है पर भक्तिभावना के रचना से उद्भव के कारण इन काव्यों में भक्तिभावना पाया जात है।

बस्तुतः उनके मन में राधा कृष्ण के लिए भक्तिकालिन कवियों के जैसे भक्ति भावना नहीं है।पर क्यूं की उनको इस प्रसंग को श्रृंगारिकता के आधार के तौर पर काव्य  रचना करनी है, इसीलिए वे राधा कृष्ण के काव्य के प्रसंग पर ज्यादा ध्यान देते थे।

इसके आलावा अधिकांश रीति कवियों ने अपने जीवन के संध्याकाल में भक्त एवं वैराग्य से ओतप्रोत रचनाएँ लिखी।

नारी के प्रति कामुक भावना का चित्रण :-

नारी विषयक दष्टिकोण: रीतिकालीन साहित्य में नारी के प्रति यह दष्टिकोण रहा है कि उसे केवल भोग्या एवं भोग-विलास का साधन ही माना जाए।

राज्याश्रित कवि भी अपनी कविता का केन्द्र नारी का नख-शिख वर्णन मानते रहे। सौदर्य का नग्न चित्रण ही उन्हें प्रिय रहा।

नारी के बाह्य रूप-रंग को ही महत्त्व दिया जाता रहा। नारी जीवन के प्रति रीति कवियों का ऐसा संकुचित एवं एकांगी दृष्टिकोण निश्चित रूप से केंद्रीय सत्ता के टूटने के बाद जो भी राजा तथा महाराजाओं के भोग बिलासी शासन की परिणाम है।

प्रकृति का चित्रण :-

रीतिकालीन काव्य रचानाओं मैं प्रकृति की उद्दीपनामुलक चित्रण कवियों के द्वारा किया गया है, जो की नारी चित्रण के साथ इस युग के कवियों की एक प्रधान रुचि रही है।

क्योंकी नारी चित्रण को प्रकृति के साथ जोड़ा जाता था, और ये ही तत्कालीन दरबारी कविताओं में आश्रयदाताओं के लिए आकर्षण का केंद्र हुआ करता था, और इसमें प्रकृति को संबोधित करके उसको रमणीय बनाने का अधिकतम प्रयास किया जाता था।

और ये ही एक कारण है जिसके लिए रीतिकालीन काब्याें में प्रकृति का स्वतंत्र तथा आलंबन चित्रण बहुत काम किया गया है।

मुक्तक काव्य शैली का प्रयोग:-

काव्यरूपों तथा काव्यशैलियों की दष्टि से सोचा जाए तो रीतिकालीन रचनाकारों ने प्रबंध काव्य की अपेक्षा मुक्तक काव्यशैली को प्रमुखता प्रदान की।

तत्कालीन आश्रयदाताओं को तुरंत प्रसन्न करने के लिए मुक्तक काव्यशैली की प्रवत्ति का खूब प्रसार हुआ क्योंकि मुक्तक काव्य चुने हुए फूलों का गुलदस्ता होता है जिससे दरबार को आसनी से मोहित एवं प्रसन्न किया जा सकता है।

ब्रजभाषा की प्रधानता:-

भक्तिकाल के समय काव्यभाषा के रूप मैं आरंभ हुआ था और रीकिलिन काव्य रचनाओं के आरंभ होते होते ब्रजभाषा पूर्ण रूप से काव्य भाषा के रूप मैं प्रतिष्ठित हो चुकी थी। ब्रजभाषा का शब्द भंडार खास करके रीतिकाल में ही ज्यादा समृद्ध हुआ है।

भाषागत और बनानगत त्रुटि होने के बाबजूद रीतिकालीन कवियों ने सवैया, कबित्त छंदों की प्रयोग से भाषा के अर्थ को उन्नतमानर बनाने का पूर्ण प्रयास किया है।

भक्तिकाल में जो ब्रजभाषा कृष्ण काव्य तक सीमित रही, वह रीतिकाल में आकर पूर्णतः काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई और लगभग दो सौ वर्षों तक हिंदी काव्य जगत पर एकछत्र शासन करती रही।

रीतिकाल में केवल ब्रज क्षेत्र के कवियों ने ही नहीं अपितु् संपूर्ण हिंदी क्षेत्र के कवियों ने ब्रजभाषा में ही कारव्य रचना की।

मराठी मैं भूषण ने, पंजाब में गुरु गोविंद सिंह ने, बुंदेली क्षेत्र में केशव ने तथा राजस्थानी क्षेत्र में बिहारी ने ब्रजभाषा में ही अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की। निष्कष्ष यह की रीतिकाल तक आते-आते ब्रजभाषा व्यापक काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई थी।

रीतिकालीन कविताओं का स्वरूप:-

रीतिकालीन कविताओं को मुख्य रूप से तीन धाराओं में बांटा गया है :- रीतिबद्ध धारा, रीतिसिद्ध धारा, रीतिमुक्त धारा

रीतिबद्ध धारा (Reetibadhh Dhara):-

रीतिबद्ध कावय मुख्कत: शास्त्रीय स्वरूप के उद्धाटन में नियोजित था। जिसके परिणाम स्वरूप उसमें विभिन्न काव्यरीतियों का बंधन पाया जाता है। कवि को अपनी भावना के प्रसार के लिए व्यापक भूमि नहीं मिली।

शुक्लजी की मर्यादावादी दृष्टि समग्रजीवन के विविध भावों का पूर्ण उत्कर्ष रीतिकाव्य में न पाकर, इसे वासनात्मक और चमत्कार प्रधान एवम् रूढ़िग्रस्त मानती है किन्तु शृंगार रस के कोमल – ललित भावों का अपूर्व भंडार भी घोषित करती है।

वस्तुत: रीतिबद्ध कविता में शास्त्रीयता और शृंगारिकता का अद्भुत संयोग देखने को मिलता है।

इस काव्य प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि में दरबारी मानसिकता कार्यरत थी । दरबार में कविता को संगीत और नृत्य की तरह मनोरंजन का साधन समझा जाने लगा। सामंत का मनोरंजन कविता का उद्देश्य हो गया। सामंत की रुचि का महत्त्व काव्य-प्रृत्ति का रुझान बन गया।

सामंत की रुचि शृंगार रस से पूर्ण छंद में तथा सामान्य शास्त्रीय जानकारी तक सीमित थी। इसलिए रीतिबद्ध काव्य में चमत्कार की प्रमुखता हो गई जिससे आश्रयदाताओं को चौंकाया जा सके।

इस चमत्कार के फलस्वरूप रीतिबद्ध काव्य में सघनता, लघुता और शृंगरिक उत्तेजना का प्रसार भिलता है।

रीतिकाल में काव्यशास्त्र – विवेचन का लक्ष्य दूसरा था। ये संस्कृत के आचा्यों की तरह बौद्धिक विश्लेषण में रुचि न ले सके क्योंकि इन्हें तो सामान्य रसिक सामन्तों को हिन्दी भाषा के माध्यम से काव्यशास्त्र का साधारण ज्ञन कराना और रमणीय उदाहरणों के द्वारा उनका मनोरंजन करना था।

ये आचार्य – कर्म के बहाने अपने काव्य कौशल का प्रदर्शन करना चाहते थे।

इसीलिए इन्हें न तो संस्कृत के उद्भावक आचार्य की तरह नवीन सिद्धांतों की स्थापना करनी थी और न ही व्याख्याता आचार्यों की तरह स्थापित सिद्धांतों की तर्कपूर्ण शैली में व्याख्या ही करनी थी।

ये मूलत: कवि-शिक्षक थे। अतः लक्षणों को केंद्रित करके रचना करने पर कोमतल तथा मादक मनोभावों को प्रस्तुत करना ही इनका लक्ष्य था जिसमें इन्हें पर्याप्त सफलता मिली।

इस धारा के कवियों ने अलंकार, नायिका-भेद, आदि के लक्षण बताकर उनके उदाहरणस्वरूप काव्य रचे हैं-जैसे केशव, पद्माकर, मतिराम आदि। ये लक्षण-ग्रंथकार मूल रूप से कवि थे।

आचार्य केशव दास (Acharya Keshab Das):-

इनकी चर्चा साहित्य के इतिहासकारों ने भक्तिकाल के फुटकल कवियों में की है। किन्तु बिना केशवदास का श्रद्धापूर्वक स्मरण किए हिंदी रीति साहित्य की भूमिका का प्रारंभ कोई न कर सका।

पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी के अनुसार से केशव की रचना में इनके तीन रूप दिखाई देते हैं-आचार्य का, महाकवि का और इतिहासकार का । अपने कब्याराचना के आधार पर हिन्दी के प्रथम आचार्य हैं।

इन्होंने ही हिन्दी में संस्कृत की परंपरा की व्यवस्थापूर्वक स्थापना की थी। केशवदास द्वारा रचित सात ग्रंथ मिलते हैं – कविप्रिया, रसिकप्रिया, रामचंद्रिका, वीरसिंह चरित, विज्ञान गीता, रतन बावनी और जहाँगीर-जस चंद्रिका जहां कविप्रिया और रसिकप्रिया काव्यशास्त्रीय पुस्तकें हैं।

कहा जाता है कि कविप्रिया की रचना महाराजा इंद्रसिंह की पतिव्रता गणिका रायप्रवीण को शिक्षा देने के लिए हुई थी।

मतिराम (Matiram):-

मतिराम रीतिकाल के विशिष्टांग (रस, अलंकार, छंद) निरूपक आचार्यों में प्रमुख थे। इनका ग्रंथ ललितललाम‘ प्रसिद्ध अलंकार एनलिरूपक ग्रंथ “कवलयानंद” के आधार पर निर्मित है। इनकी “सतसई” में 703 दोहे हैं जिनमें पर्व निर्मित ग्रंथों के भी दौहे संगृहीत हैं।

सतसई के अंत में आश्रयदाता भोगनाथ की प्रशंसा की गई है । भाषा के ही समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम हैं और न उनके व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ कृत्रिम है।

वास्तव में इनकी प्रसिद्धि का मूल कारण इनके द्वारा दिए गए उदाहरणों की स्वाभाविक सरसता ही है। मतिराम के काव्य में स्वाभाविकता है।

रीतिकाल के अन्य कवियों की तरह उन्होंने वैचित्र्य को अपने काव्य में स्थान नहीं दिया है। रीति काल की परिपाटी का पालन करते हुए भी वे रू़ियों से मुक्त हैं।

उनकी कविता में नायिका के रूप वर्णन अथवा कार्य व्यापार के जो चित्र मिलते हैं, उसमें गृहस्थ जीवन की झलक मिलती है।

पद्माकर (Padmakar):-

कवि पद्माकर रीतिकाल के विशिष्टांग निरूपक आचार्य के रूप में विख्यात हैं। इन्होंने जगद्विनोद‘ नामक नवरस-निरूपक ग्रंथ की रचना की। इन्होंने हिम्मतबहादुर विरुदावली‘ नाम की वीर रस की एक बहुत ही फड़कती हुई पुस्तक लिखी।

डॉ. बच्चन सिंह ने इनके रीतिकाव्य ग्रंथों की सराहना की है पर प्रशस्तिपरक और भक्तिपरक काव्य को काव्याभास’ माना है, क्योंकि इनमें काव्य-रूढ़ियों का निर्वाह अधिक है।

किंतु शुक्लजी ने पूर्ण रूप से पद्माकर की नूतन कल्पना, दृश्यात्मकता और भाषा की अनेक रूपता की प्रशंसा की है। इनका अलंकार ग्रंथ पद्मभरण लक्षणों की स्पष्टता और उदाहरणों की सरसता के कारण अधिक प्रसिद्ध हुआ।

इन्होंने मुक्तक तथा प्रबंध दोनों शैलियों में रचना की। इनकी भाषा में प्रवाहमयता है तथा वह सरस एवं व्याकरण के अनुकूल पाए जाते है।

रीतिसिद्ध धारा (Reetisidhh Dhara):

 रीतिसिद्ध काव्य में काव्यशास्त्रीयता इतनी अधिक है कि लगता है कवि रस, अलंकार, ध्वनि, नायक-नायिका भेद आदि के उदाहरण स्वरूप काव्य-रचना कर रहा हो।

आचार्य शुक्ल ने मूलत: रीतिकालीन कवियों को दो वर्गों में विभाजित किया – प्रथम और प्रमुख वर्ग लक्षणग्रंथकारों का रखा जिनकी संख्या 57 है। दूसरे वर्ग के कवियों को फुूटकल श्रृंगार परक पद्यकार या अन्य प्रकार की रचना करने वाला माना।

वास्तव में “बिहारी” इसी वर्ग में आते हैं क्योंकि इन्होंने रीतिग्रंथ की रचना नहीं की, लेकिन शुक्लजी ने इन्हें प्रतिनिधि, रीतिग्रंथकारों के वर्ग में रखा है क्योंकि इनका काव्य लक्षणानुसारी है।

अतः ये प्रतिनिधि कवियों में ही समाहित कर लिए गए। वास्तव में, रीतिसिद्ध कवियों को आचार्य या कवि-शिक्षक बनने की अभिलाषा नहीं थी।

इन्होंने अपने काव्य कौशल के प्रदर्शन पर विशेष ध्यान दिया। इनमें स्वानुभूति की प्रधानता मिलती है जिसे अलंकृत शैली में प्रस्तुत किया गया है।

यों तो संपूर्ण रीतिकाव्य मुक्तक शैली में निर्मित हुआ है किन्तु रीतिसिद्ध कवियों ने संस्कृत, प्राकृतादि की मुक्तक परंपरा से सीधे प्रभाव ग्रहण किया है।

ये कवि विद्यापति, चंडीदास, सूरदास, रहीम, तुलसीदास आदि भाषा कवियों से भी प्रेरित हुए हैं। इनकी काव्य-दृरष्टि तत्कालीन सामंती परिवेश से ही निर्मित है।

इसलिए इन पर फारसी काव्य का भी प्रभाव पाया जाता है। रीतिसिद्ध काव्य यद्यपि विलास प्रधान है, फलत: उसके केन्द्र में नारी का रूपाकर्षण प्रमुख है फिर भी उसका क्षेत्र रीतिबद्ध की अपेक्षा विस्तृत है ।

इनमें भ्रृगार के साथ-साथ भक्ति, प्रशस्ति, नीति, ज्ञान-वैराग्य और प्रकृति के आलंबन तथा उ्दीपक रूपों का भी वर्णन प्राप्त होता है।

बिहारी (Bihari):-

विहारी का जन्म सन् 1606 के आसपास हुआ। शुक्ल जी का अनुमान हैं कि वे 1665 तक रचनाकाल मैं रहे। बिहारी रीतिकल के सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय कवि मैं से एक हैं। वे रौति काव्य के प्रतिनिधि कवि कहे जा सकते हैं। उन्होंने काव्यांग को निरूपण नहीं किया है, परंतु उनकी रचना में काव्य रीति रची तथा बड़ी हुई है।

विहारी के यश का आधार उनकी सतसई है। इतना कम लिखकर इतना अधिक यश कम साहित्यकारों को मिला होगा। बिहारी सतसई की लोकप्रियता का यह हाल् है कि इसकी पचासों टीकाएँ लिखी जा चुकी है और फिर भी यह काम अभी बंदनाही हुआ है।

विहारी मूल रूप से शृंगार रस के कवि हैं, तथापि उन्होंने भक्ति और नीति के भी मार्मिक दोहे रचे हैं। बिहारी के शृंगारी दोहों में सिर्फ सामंती जीवन का वैभव-विलास ही नहीं रेखांकित है बल्कि वे सामान्य गृहस्थ के दैनंदिन जीवन के भी सरस चित्र खींचते हैं।

विहारी का रचना विषय सीमित है, लेंकिन आधारफलक और रचना के प्रसार सीमित नहीं। शृंगार अन्य प्रकार के मनोविक्रारों से टकराता नहीं, इस लिए कभी कभी संकीर्ण मनोभाबिक लगता है। बिहारी बहुज्ञ थे, उन्होंने अपनी विस्तृत जानकारी का उपयोग अपनी रचनाओं में खूब ढंग से किया है।

देव (Dev):-

देव का जन्म 1673 के आसपास हुआ था और इनकी मृत्यु 1767 के आसपास माना जाता है। ये अनेक आश्रयदाताओं के यहाँ रहे और इन्होंने उनकी रुचि के अनुकूल रचनाएँ की। इनके रचे ग्रंथों की संख्या काफ़ी है।

उनमें कुछ इस प्रकार हैं- भावविलास, भवानीविलास, रसविलास, सुखसागर तरंग, अष्टयाम, प्रेमचंद्रिका और काव्यरसायन। देव रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से हैं। इनकी तुलना बिहारी से की गई है।

विहारी बड़े थे कि देव, इसे लेकर हिंदी आलोचना में काफ़ी लिखा गया है। देव ने भी लक्षण-ग्रंथ लिखे हैं। अत: इन्हें भी रीतिकाल के आचार्य कवियों की कोटि में रखा जा सकता है। कितु देव मूलत: आचार्य नहीं, कवि ही थे। देव में मौलिक रचनाकार की प्रतिभा और सहृदयता प्रचुर मात्रा में था।

भूषण (Bhushan):-

भूषण रीतिकाल के दो प्रसिद्ध कवियों, चिंतामणि और मतिराम के सगे भाई थे। चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें ‘कवि भूषण’ कहा।

फिर ये इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। ये रीतिकालीन श्रुंगरिक साहित्य मैं वीर रस के कवि थे। रीतिकाल में प्रमुख काव्य रचना का रस शृंगार रस होते हुए भी उन्होंने बीररस से ही रचना की। इन्होंने रीतिकाल को परंपरा में एक अलंकार ग्रंथ शिवराज भूषण भी लिखा है।

इनके जो अन्य ग्रंथ मिलते हैं. वे हैं- शिवा बावनी और छत्रसाल दसक। रीतिकालीन कविता का प्रधान स्वर श्रंगार है, पर भूषण का स्वर वीरता का है, जिसके लिए वे रीत्तिकाल के विशिष्ट कवि हैं, लेकिन भूषण के महतव पर विचार करते समय कुछ और बातों की ओर भी ध्यान जाता है।

भूषण ने अपनी काव्य पक्तियों में अनेक ऐतिहासिक बातों का उल्लेख किया है, जैसे सूरत पर शिवाजी का अधिकार, अफ़जल खां का शिशवाजी द्वारा मारा जाना, दारा की औरंगजेब द्वारा हत्या, खजुवा का युद्ध शिवाजी का औरंगज्ञंब के दरबार में जाना आदि इसके अंतर्गत पाए जाते है।

रीतिमुक्त धारा (Reetimukt Kaavyadhara):

इस धारा के कवि लक्षण-उदाहरण की न तो पद्धति अपनाते हैं, न ही लक्षणों का ध्यान रखते हैं। ये प्रेम के, विशेषत: विरह के उन्मत्त गायक कवि हैं। ये कवि स्वाभिमानी भी हैं। इनमें रीतिबद्धता और दरबारीपन के प्रति विद्रोह का भाव है। इस काल की प्रमुख काव्यभाषा ब्रज ही है।

कवित्त, सवैया, दोहा आदि प्रमुख छद हैं। रीतिकालीन कविता के दरबारीपन पर फ़ारसी काव्यों का थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। दरबारी कविता प्रधानत: मुक्तकों में है और अलंकार-बहुल है।

रीतिमुक्त या स्वच्छन्द धारा के कवि अपने समकालीन रीतिबद्ध कवियों से वर्र्प विष्य और वर्णन प्रणाली में भी भिन्न थे।

रीतिबद्ध काव्य में शास्त्रीयता ज्यादा थी। उन्होंने प्राचीन काव्य प्रणाली को अपना आदर्श माना, जब कि स्वच्छन्द काव्य कर्ता शास्त्रीय चौखटों को अस्वीकार करके आत्मानुभूति के आवेग में रचना करते थे।

इनकी रचनाओं में बिचारनीयता की प्रधानता थी जबकि दूसरे लोग निर्वैयक्तिक अथवा तटस्थता पूर्वक काव्यशास्त्रीय लक्षणों के उदाहरण प्रस्तुत किया करते थे।

ये सामाजिक या दरबारी मर्यादा में बंधकर रचना करने वाले नहीं थे। इस धारा के सभी कवि प्रेममार्ग के पथिक थे। उनका प्रेम स्थूल जगत से उत्पन्न होने वाला था किन्तु अपनी गहनता और व्यापकता में अलौकिक ऊँचाइयों का स्पर्श करने लगता था।

अतः उस पर सूफी प्रेम की पीर’ का प्रभाव तो था ही साथ ही इश्क मजाजी की इश्क हकीकी में परिणति भी थी। इनका प्रेम एकोन्मुख और विषम था। इन कवियों पर इसी कारण फारसी प्रेम-पद्धति का भी प्रभाव पाया जाता है।

रीतिबद्ध कवियों का संयोग मांसल और स्थूल था जबकि रीतिमुक्त का संयोग मानसिक था। इन कवियों ने संयोग की अपेक्षा वियोग का वर्णन पे अधिक रचना किया है। रीतिबद्ध कवियों ने प्राय:राधाकृष्ण के शृंगार का वर्णन मुक्तकों में किया है जबकि इन कवियों ने मुक्तकों और प्रबंधों दोनों विधाओं को अपनाया है।

घनानंद (Ghananda) :-

अन्य कवियों के मुकाबले घनानंद मैं सबसे अधिक स्फूट रूप में स्वच्छंदधारा के प्रमुख गुण-भावात्मक वक्रता, लाक्षणिकता, भावों की वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, मार्मिकता, स्वच्छंद आदि परिलक्षित होते है। 

आचार्य रामचंद्र शुक्लजी ने भी घनानंद को साक्षात् रसमूर्ति और ब्रजभाषा के काव्य के प्रधान स्तंभों में माना है। घनानंद के काव्य में अनुभूति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष का सम्यक् संयोजन प्राप्त होता है । इन्होंने विभाव पक्ष का वर्णन कम और भावों का अधिक किया है।

इन भावों में रीझ, विषाद, उलझन, अभिलाष, भूल आदि प्रमुख हैं । इन्होंने प्रेम – व्यापार मूल उपादान नेत्रों और प्राणों का मानवीकरण करके भावों को सहज तथा विस्तारित रूप जैसा ही बना दिया है।

उन्होंने स्नेह के मार्ग को अत्यंत सीधा और सरल बताया है जिसमे किसी प्रकार के छल कपट की गुंजाइश नहीं है। प्रेम परस्पर आत्मदान की वस्तु है। घनानंद आत्मदान तो देते हैं, परंतु सुजान से स्नेह मिलने की संभावना के प्रति उत्सूक नहीं हैं।

आत्मानुभूति के कारण ही घनानंद की भाषा में लाक्षणिक सौंदर्य है। हृदय की अनुभूति जब काव्य भाषा को रचती है तो भाषा में अनूठी भाव भंगिमा का संचार होता है जिसका ज्वलंत उदाहरण उनके काव्यों में पाए जाते है। उनके काव्यभाषा बहुत कुछ छायावादी कवियों की तरह है।

ठाकुर ( Thakur): 

ठाकुर का जन्म ओरछा मैं हुआ था। उनकी कविता के मुख्य रूप मैं दो तेवर हैं। एक उनका क्षुद्रताओं और अमानवीयता से टक्कर लेने वाला रूप है, जहां वे आक्रामक होते हैं। उनकी कविता से यह प्रकट

होता है कि वे भाव-बोध का चालूपना नहीं सह पाते थे। वे कविता को हृदय की सच्ची उमंग की अनुभूति मानते थे। इसीलिए उन्होंने लिखा है कि –

मीन मृग खंजन जैसे उपमानों का प्रयोग सीख लेने से कविता नहीं आती। पर ठाकुर का दूसरा तेवर अत्यंत मानवीय, करुण, कोमल एवं सूक्ष्म संवेदनशील है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि व्यक्तित्व के दोनों परस्परविरोधी तेवर वस्तुतः एक-दूसरे के पूरक हैं। वे मध्यकाल के उन्न दुर्लभ कवियों मैं से थे जो जिनकी प्रेम आधुनिक भाव से जुड़ी रहती थी।

आलम (Aalam) :

आलम का काव्य ही नहीं जीवन भी स्वच्छंद एवं मुक्त रूप मैं था। ये ब्राह्मण थे, पर शेख नामक रंगरेजिन के प्रेम में पड़कर उससे विवाह कर लिया। शेख रंगरेजिन स्वयं एक सुकबायित्री थीं और इनका उससे प्रेम कविता के कारण हुआ। आलम 18 वीं शती के कवि हैं।

शेख की काव्य चातुरी और वाग्विदग्धता के विषय मैं अनेक अनुश्चतियाँ प्रचलित हैं। आलम औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम के आश्रय में रहते थे। इनकी कविताओं के संग्रह का नाम “आलम किलि” है। उसमें आलम के साथ शेख के भी कवित्त हैं।आलम प्रेम की दीवानगी के कवि हैं।

वे घनानंद, रसखान की कोटि के कवि हैं। मनोवेग जीवन के सामान्य आचरण में व्यक्त होता,और संयोग तथा वियोग में क्या अंतर पड़ जाता है, इसे कवि उनके काव्य में उचित रूप से चित्रित किया है।

अकसर पूछे जाने वाले सवाल:-

रीतिकाल से आप क्या समझते हैं?

रीतिकाल हिंदी साहित्य के एक समय अवधि का नाम है जिस समय सीमा के अन्दर एक निर्दिष्ट प्रकार के काव्य रचना किया गया है, जो की जो अलंकार, रस, गुण, ध्वनि, नायिका भेद आदि की काव्यशास्त्रीय प्रणालियों के आधार पर रचा गया हो।

रीतिकाल का आरंभ कब हुआ?

प्रयातः सभी विद्वान रीतीकाल का आरंभ 1700 से 1900 ई को मानते है ।

रीतिकाल के प्रथम कवि कौन है?

आचार्य केशबदास जी को रीतिकाल।के प्रथम कवि माना जाता है।

रीतिकाल के अन्य 2 नाम क्या क्या है?

रीतिकाल।के अन्य नाम है : श्रुंगारकाल, अलंकार काल, कला काल

रीतिमुक्त कवि का नाम क्या है?

रीतिमुक्त कवि के अंदर घनानंद, ठाकुर, बोला, आलम आदि का नाम श्रेष्ठ है।

रीतिकाल की दो प्रमुख प्रवृतियां क्या है?

रीतिकाल की दो मुख्य प्रवृत्तियां मैं आश्रयदाताओं का प्रशंसा और अलंकार रस का प्रयोग माना जाता है।

रीतिकाल के प्रतिनिधि कौन है?

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी और आचार्य केशबदास माने जाते है।

रीतिकाल का समय क्या है?

रीतिकाल का समय 1700 ई से 1900 ई तक माना जाता है ।

रीतिकाल के प्रवर्तक आचार्य कौन हैं?

रीतिकाल के प्रवर्तक आचार्य केशबदास को माना जाता है l

अंतिम कुछ शब्द :-

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Wikipedia Page :- रीतिकाल

hindisikhya.in

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