राम भक्ति काव्य (Ram Bhakti Kavya)

राम भक्ति काव्य (Ram Bhakti Kavya) :-

राम भक्ति काव्य (Ram Bhakti Kavya) :-

हिन्दी साहित्य में राम भक्ति काव्य धारा ने सागुण भक्ति और भक्ति आंदोलन की मूल संवेदना को लोक-भाव-भूमि पर द्रढ़ता से प्रतिष्ठित किया है । दक्षिण भारत में भक्ति-आंदोलन और उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन दोनों की चेतना को तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में देखना होगा।

 सगुण काव्यधारा के अंतर्गत भगवान विष्णु के दो अवतारों कृष्ण और राम को आराध्य मानकर कवियों ने साहित्य सृजन किया। स्वामी वल्लभाचार्य के पुष्टि मार्ग के संरक्षण में कृष्ण भक्ति शाखा पल्लवित-पोषित हुई तो स्वामी रामानंद ने संपूर्ण उत्तरी भारत में रामभक्ति लहर का प्रवर्तन किया। रामानंद के प्रयासों से ही हिंदी के भक्तिकालीन साहित्य में रामभक्ति साहित्य का विकास हुआ।

इस में हम चिन्तन-परम्परा के परिप्रेक्य में यह भी समझेंगे कि इसमें रामानंद की क्या भूमिका रही है और उन्हें रामकाव्य परम्परा के चिंतन का मेरुदण्ड क्यों कहा जाता है? रामानन्द का रूढ़धिवाद-पूरोहितवाद विरोधी चिन्तन ही कबीर और तुलसीदास में रचनात्मक निष्पति पाता है।

रामानन्द ने शास्त्र परम्परा और संस्कृत भाषा के स्थान पर लोक-जागरण, लोक-कल्याण के लिए लोकभाषा में काव्य-सृजन की भूमिका तैयार की इसी भूमिका पर कबीर और तुलसी की भक्ति- चेतना, लोक-संवेदना का निर्माण विस्तार हुआ। वाल्मीकि रामायण की परम्परा ने समय के साथ परिवर्तनों को स्वीकार किया, उसी का नया सृजन-चिंतन राम-भक्ति काव्य में देखने को मिलता है।

श्री संप्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य के शिष्य राघवानंद ने उनके विचारों के प्रचार उत्तरभारत में किया था। राघवानंद ने उनके सिद्धांतों का कुछ संशोधन भी किया था जैसे की वैष्णव भक्ति के दौरान जाती पाती के भेद को निषेध करना लक्ष्मी-नारायण के उपासना के रूप मैं राम सीता का भी उपासना करना
भक्ति को योग के साथ समन्वित करना आदि महत्वपूर्ण है।

राघवानंद के शिष्य श्री रामानंद थे जिन्होंने लगभग 14बीं सदी के आसपास श्री संप्रदाय का प्रचार रामभक्ति के रूप मैं किया जिन्होंने वर्णों तथा वर्गों के लोगों को भी भक्ति के अधिकारी के रूप मैं बताया। इसके पश्चात निम्न वर्गों के लोगों के साथ खान पान पर निषेध का विरोध भी किया, जिससे ये भक्ति धारा एक नए मोड़ पर चलने लगा।

उन्होंने ने ब्रह्म के उभय निर्गुण तथा सगुण रूपों को भक्ति करने का उपदेश दिया। उनके अनुसार

सगुण ब्रह्म को ज्ञान और वैराग्य मुक्त प्रेमयोग तथा

निर्गुण ब्रह्म को प्रेम और वैराग्य मुक्त ज्ञानयोग

से प्राप्त किया जा सकता है। यही एक विशेष कारण था जिसके लिए रामानंद उभय निर्गुण संत तथा सगुण भक्तों को अपने शिष्य तथा अनुगाई के रूप मैं प्राप्त कर सके।

Ram Bhakti Kavya

रामकाव्य परंपरा का प्रारंभ (Ramkavya parampara ka prarambh) :-

हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में निर्गुण और सगुण दो काव्यधाराएँ विकसित हुई। सगुण काव्यधारा के अंतर्गत भगवान विष्णु के दो अवतारों कृष्ण और राम को आराध्य मानकर कवियों ने साहित्य सृजन किया।

स्वामी वल्लभाचार्य के पुष्टि मार्ग के संरक्षण में कृष्ण भक्ति शाखा पल्लवित-पोषित हुई तो स्वामी रामानंद ने संपूर्ण उत्तरी भारत में रामभक्ति लहर का प्रवर्तन किया। रामानंद के प्रयासों से ही हिंदी के भक्तिकालीन साहित्य में रामभक्ति साहित्य का विकास हुआ।

वाल्मीकि ने देवताओं पर काव्य रचने की परंपरा को अस्वीकार करते हुए मानव की महिमा को प्रतिष्ठित करने के लिए नर-काव्य ‘आदिकाव्य’ का सृजन किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘भारतवर्ष में इतिहास धारा’ नामक निबंध में कहा है कि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम नरकाव्य परंपरा का प्रवर्तन किया।

रामकाव्य परंपरा को सम्पूर्ण रूप से भगवान राम जो की रामायण के नायक थे तथा उनके सगुण रूप के साथ विद्यमान कराया जाता है। राम जो भारतीय संस्कृति के भाव नायक है, पुरानपुरुष है, मिथक नायक है भावनायक है तथा लोकनायक भी है।

वैदिक काल के बाद संभवत: छठी शताब्दी में इक्ष्वाकुवंश के सूत्रों द्वारा रामकथा-विषयक गाथाओं की सृष्टि होने लगी। फलत: चौथी शताब्दी तक राम का चरित्र स्फुट आख्यान-काव्यों में रचा जाने लगा। इसलिए रामकथा के विद्वानों की एक बड़ी संख्या यह मानती है कि आदिकवि वाल्मीकि से कई शताब्दी पूर्व राम-कथा को लेकर आख्यान-काव्य-परम्परा मिलती है।

किन्तु यह वाचिक परम्परा थी अत: इसका साहित्य आज अप्राप्य है। ऐसी स्थिति के कारण वाल्मीकिकृत रामायण प्राचीनतम उपलब्ध रामकाव्य है।

वाल्मीकि ने देवताओं पर काव्य रचने की परंपरा को अस्वीकार करते हुए मानव की महिमा को प्रतिष्ठित करने के लिए नर-काव्य ‘आदिकाव्य’ का सृजन किया। रवीन्द्रनाथ टैगेोर ने ‘भारतवरषर्ष में इतिहास धारा’ नामक निबंध में कहा है कि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम नरकाव्य परंपरा का प्रवर्तन किया।

राम कौन थे, सीता कौन थी, इनका जन्म विवाह कब कहाँ हुआ, रावण कौन था, रावण के बाद राम-सीता का जीवन कैसा रहा, लोक में उठे इन तमाम प्रश्नों जिज्ञासाओं को शान्त करने के लिए ‘आदिकाव्य’ में बालकांड तथा उत्तरकांड को प्रक्षिप्त रूप में जोड़ दिया गया।

इस प्रकार राम-कथा राम का अयन अर्थात राम का भ्रमण न रहकर सम्पूर्ण राम चरित के रूप में विकसित हुई। तुलसीदास का यह कहना मास आदि कवि पुंगव नाना। जिन भाषा हरि चरित बखाना’ तथा ‘राम कथा की मिति जग नाहीं’ इसी सत्य की ओर संकेत करता है।

रामभक्ति विकास के सम्यक अध्ययन से राम के रूप के विकास की तीन अवस्थाएं स्पष्ट परिलक्षित होती है- ऐतिहासिक, साहित्यिक और सांप्रदायिक। राम का ऐतिहासिक रूप लगभग पाँच शताब्दी ईसा पूर्व वाल्मीकि रामायण में अक्षुण्ण है। उनका साहित्यिक रूप एक शताब्दी ईसा पूर्व भाग से लेकर कालिदास आदि संस्कृत कवियों द्वारा रचा गया है।

रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा में राम भक्ति के सांप्रदायिक विकास को देखा जा सकता है। रामानुजाचार्य के शिष्य स्वामी रामानंद ने ‘श्री संप्रदाय’ की स्थापना की तथा समस्त जनमानस के लिए रामभक्ति के कपाट खोल दिए।

रामानंद और उनके शिष्यों द्वारा प्रचारित राम कथा के वातावरण में गोस्वामी तुलसीदास का महान रामकाव्य सामने आया। रामभक्ति के विकास में तुलसीदास का सर्वाधिक योगदान है। इनके द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ हिंदी साहित्य का गौरव ग्रंथ है।

Ram Bhakti Kavya

रामभक्ति काव्य और रामानन्द (Rambhakti kavya aur ramaananad) :-

रामानंद को राम भक्ति काव्य परम्परा के चिंतन का मेरुदण्ड कहा जा सकता है। उन्होंने ही सर्वप्रथम लोक भाषा में रचना कर्म करने की प्रेरणा दी। रामानंद की दो भुजाएँ – निर्गुण धारा में कबीर और सगुणधारा में तुलसीदास दोनों ही रामानंद के मानस-शिष्य हैं और दोनों ही दो परम्पराओं के प्रवर्तक और अपने-अपने ढंग के लोकमंगलवादी हैं।

रामानंद सम्प्रदाय की स्थापना आज से छह सौ वर्ष पूर्व हुई थी। इस सम्प्रदाय या मत के प्रवर्तक स्वामी रामानंद का पूर्व-सम्बंध रामानुजाचार्य (11वीं शताब्दी) के सम्प्रदाय से रहा। इस बात की पुष्टि नाभादासकृत ‘भक्तमाल’ से भी होती है।

हिन्दी में सगुण रामकाव्य परंपरा और आँय कवि (Hindi sagun ramkavya parampara):-

राम भक्ति काव्य या रामभक्ति शाखा में रामकाव्य के महत्वपूर्ण कवि तुलसीदास के अतिरिक्त भी कुछ कवि हैं। इन कवियों ने तुलसीदास की तरह सार्वदशिक और सार्वकालिक रचना तो नहीं की परंतु उनका महत्व भी रामभक्ति शाखा के इतिहास में है।

उन रामभक्त कवियों में रामानंद का नाम आता है। रामानंद ने भक्ति को शास्त्रीय मर्यादा के बंधन से मुक्त माना। जाति और वर्ण के भेदभाव से ऊपर उठकर भक्ति को जनसामान्य से जोड़ने का प्रयत्न किया।

इसलिए रामानंद की शिष्य परंपरा का संबंध रामभक्ति शाखा के तपसी और उदासी सम्प्रदाय से जोड़ा जाता है, वहीं निर्गुण भक्ति के ज्ञानमार्गी परंपरा से भी उनका संबंध संकेतित किया जाता है। रामानंद के कुछ पद हनुमान जी की स्तुति के रूप में प्रचलित हैं।

“आरति कीजै हनुमान लला की, दुष्ट दलन रघुनाथ कला की। ‘”

दूसरे रामभक्त कवियों में अग्रदास का नाम प्रमुख है। अग्रदास ने रामभक्ति को कृष्ण भक्ति के लोकानुरंजन के समीप लाने का प्रयत्न किया। उनके काव्य में अष्टयाम अथवा रामाष्टयाम को मुख्य माना जाता है। Ram Bhakti Kavya

राम के ऐश्वर्य रूप की झकी इन लीलाओं में स्पष्ट दिखाई देती है। इन्होंने सखी सम्प्रदाय के लिए रास्ता साफ कर दिया। ईश्वर दास भी रामभक्त कवि थे। राम कथा से संबद्ध उनकी रचनाओं में ‘भरत मिलाप’ और अंगद पैज’ प्रमुख हैं। भरत मिलाप में उन्होंने करूण प्रसंग को तन्मन्यता से रचा है।

नाभादास तुलसीदास के समकालीन रामभक्त कवि थे। नाभादास अग्रदास के शिष्य थे। भक्तमाल की
रचना नाभादास ने की थी । भक्त माल हिंदी साहित्य के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें मध्मकाल के भक्त कवियों पर टिप्पणी की गई है। इस ग्रंथ से तत्कालीन समाज की मानसिकता का पता चलता है। Ram Bhakti Kavya

भक्त कवियों का जनता पर क्या प्रभाव था इसकी भी सूचना हमें मिलती है। अन्य राम भक्त कवियों में
प्राणचंद चौहान का और हृदयराम का उल्लेख किया जाता है। प्राणचंद चौहान ने रामायण महानाटक
और हृदयराम ने भाषा हनुमान नाटक लिखा।

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रामकाव्य परम्परा में लोक जीवन और लोक संघर्ष (Ramkavya main lokjivan aur loksangharsh):-

राम भक्ति काव्य में लोक-धर्म’, ‘लोक चिन्ता’, लोक मानस’, लोकरक्षा’ तथा लोक मंगल’ की भावना का प्राधान्य है। प्रमुख राम भक्त कवि तुलसी ने लोक संघर्ष अर्थात साधारण जनता के जीवन संघर्ष्ष का चित्रण बोहोत ही सुंदरता के साथ किया है। तुलसी काव्य के नैतिक मूल्यों का संघर्ष साधारण जन संघर्ष से जुड़ा संघर्ष है।

स्वयं तुलसी ने भूख-गरीबी, अकाल, काम, क्रोध से संघर्ष किया है और इस आत्म संघर्ष के चित्र कवितावली, गीतावली, दोहावली, विनय पत्रिका में विशेष रूप से पाए जाते हैं। तुलसी काम से लड़ते हैं तो उसे नष्ट् करने के लिए, उसे ‘मर्यादित’ करने के लिए लड़ते हैं।

नारद मोह प्रसंग’ में नारद की खिल्ली उड़ाते हैं तो शूर्पणला की काम-उट्रण्डता पर दण्ड देते हैं और रावण को काम’ मर्यादा अस्वीकार करने के कारण ही मरण-दण्ड ये दर्शाते है। तुलसीदास वैराग्य का उपदेश नहीं देते पर लोक मर्यादा के पालन का संदेश देते हैं। तुलसी ने लोक को संघर्ष करने का उपदेश दिया है। Ram Bhakti Kavya

यह संसार झूठा मिथ्या नहीं है सत्य है, इसमें कर्म सौदर्य ही सत्य है। झूठो है झूठो है’ कहने वालों पर तुलसी ने व्यंग्य किया है और इस संसार को सीय राम मय सब जग जानी’ अर्थात सीता-राम का यथार्थ रूप माना है। नीच कर्म में पड़े ब्राह्यण-पुरोहित, जातिवाद में पागल व्यक्ति की वे निंदा करते हैं। ‘राम राज्य’ की आदर्श-कल्पना में प्रजा के सूखी सम्पन्न जीवन का स्वप्न है।

तुलसी के समय ‘कालि बारहि बार अकाल परै’, खेती न किसान को भिखारी को भीख बलि, बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी‘ की चर्चा है – दारिद-दसानन‘ ने दरिद्रता रूपी रावण ने जनता को बेहाल कर दिया है। गरीबी – भुखमरी-दरिद्रता का जितना वर्णन अकेले तुलसी ने अपनी रचनाओं में किया है उतना मध्ययुग के किसी अन्य कवि ने नहीं।

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रामकाव्य परम्परा में नारी :-

राम भक्ति काव्य में नारी को लेकर जो बातें कही गई, दुर्भाग्यवश उनका गलत प्रचार किया गया है । तुलसी की तो नारी कविरोधी छवि ही बना डाली है। जबकि राम भक्तिथारा नैतिक्तावादी-मर्यादावादी मूल्यों पर ही टिकी विचारधारा है और तुलसी के ग्रंथ लोक-जीवन में आचार-शास्त्र का काम करते रहे हैं ।

यह भी कहा जाता है कि तुलसी ने मीराबाई को पत्र-लिखकर जीवन का रास्ता दिखाया था –

जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिए ताहि कोटि वैरी सम जद्यपि परम सनेही।

ऐसे तुलसीदास को नारी-विरोधी कहने का क्या अर्थ हो सकता है? इस बात पर आज गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। तुलसी के ‘रामचरित मानस‘ कवितावली’ को बिना पढ़े, बिना सही संदर्भ में समझने प्राय: तुलसी की निंदा की जाती है।

“वन्दौ कौसल्या दिशि प्राची”

कह कर राम की माता की वन्दना करते हैं – सीता को जगत-जननी कहते हैं और शिव के साथ पार्वती का आदर करते हैं। Ram Bhakti Kavya

रामचरित मानस‘ के कथा-प्रसंगों में कई बार ‘सुनहु सती तब नारि सभाऊ’ की चर्चा विशेष सन्दर्भ में आती है – पार्वती शिव से छल करती हैं तब शिव नारी स्वभाव में छल की बात उठाते हैं।

राम के सामने शबरी विनय-वश कहती है – ‘अधम ते अधम अधम अति नारी’ यहाँ नारी को अधम सिद्ध करना कवि का उद्देश्य नहीं है। भरत जैसा भहान चरित्र एक बार क्रोध में नारियों को सकल कपट अघ अवगुन खानी कह देता है पर यह सामान्य-भाव धारणा नहीं है।

रावण को नीच-वचनों में एक नारि स्वभाव के ‘आठ अवगुन’ आते हैं पर सोचने की बात है कि तुलसी के मन में रावण के प्रति कौन सा भाव है तुलसीदास नारी के माता रूप पर प्रहार नहीं करते। कभी कभार नारी के कामिनी-कामान्ध रूप पर प्रहार करते हैं ।

नारि निबिड़ रजनी अंधियारी’

कभी कभार जिमि स्वतंत्र होई बिगरहि नारी’ या ढोल गँवार शुद्र पशु नारी’ जैसे वचन आते हैं। तुलसी सतीनारी और कुलटा नारी में लोकमन के हिसाब से भेद् करते हैं। राम और रावण में भी भेद करते हैं। नारी के प्रति तुलसी में अपार आदर न होता तो राम-कथा में राम, सीता के लिए भारे-मारे न फिरते । रावण द्वारा हरण करने पर सीता के लिए मछली की तरह न तड़पते।

थकानभरी सीता को देखकर पिय की अँखिया‘ आँसू न टपकातीं। राम के अवध् लौटने पर नारियां ही
आगे हैं – नारि-समुद्र उमड़ पड़ा है। कैकेपी से राम क्षमा न माँगते – प्रथम तासु घर गए भवानी’ । इस
प्रकार राम-कथा में नारी की महिमा है यही महिमा गान मैथिलीशरण के साकेत‘ और निराला की ‘राम
की शक्तिपूजा’
और तुलसीदास‘ काव्य की शक्ति बना है।

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राम काव्य में समन्वय की भावना (Ramkavya main samanwaya ki bhavana):-

हिन्दी में राम भक्ति काव्य धारा अपनी उदार समन्वय साधना के कारण बड़े आदर से याद की जाती है। इस समन्वय साधना का सर्वोत्तम रूप तुलसीदास के रचना-कर्म में प्रतिफलिंत हुआ है। आ.हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि लोक-नायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके।

राम भक्ति काव्य में ध्यान में रखने की बात है कि विरुद्धों में सामन्जस्य स्थापित करना सरल कार्य नहीं है, उसके लिए अक्ल और धीरज चाहिए। यह अक्ल और धीरज, समन्वय के साधक तुलसीदास में है – ‘उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है, लोक-शास्त्र का समन्वय, गाहस्थ्य और वैराग्य का सभन्वय, भाषा और संस्कृत का समन्वय, ब्राह्मण और चाण्डाल का समन्वय, निर्गुण और सगूण का समन्वय, कथा तत्वज्ञान का समन्वय, पाण्डित्य और अपाण्डित्य का समन्वय – ‘रामचरित मानस’ शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है। Ram Bhakti Kavya

‘हिन्दी में आगम-निगम परम्परा का इतना बड़ा जानकार और समन्वयकार कोई दूसरा नहीं। विद्वानों ने ठीक कहा है कि गौतम बुद्ध के बाद तुलसीदास ही भारत में सबसे बड़े लोक नायक हुए। इस कवि ने अपने समय में प्रचलित देवी-देव्ताओं, दार्शीनिक विचारधाराओं, अवधी, ब्रजी की भाषा परम्पराओं का समन्वय किया। Ram Bhakti Kavya

शैव-शाक्त चिन्तन परम्परा से वैष्णव-चिन्तन परम्परा का पुराना झगड़ा चला आ रहा था। इस कलह का शमन जरूरी था। मानस’ में राम सीता को आदर दिया गया है। राम कहते हैं – शिव-द्रोही मेरा दास मुझे एकदम नापसन्द है। शिव द्रोही मम दास कहाना। जोजन मोहि सपनेहूं नहिं माना’।

मध्ययूगीन भारतीय विचारधारा में अनेक मत-मतान्तर थे और उनका परस्पर विरोध कभी भी प्रबल हो जाता था। विद्रोह के मूल में सामाजिक -धार्मिक विषमता थी। धर्म, जाति, द्र्शन और उपासना के रगड़े-झगड़े थे। कर्मकाण्डी पुरोहितरवर्ग भक्तिवादियों से झगड़ रहा था। आर्य और आर्पेतर विचारधाराएँ टकरा रही थीं तुलसी जब गोरख जगाओ जोग भगति भगाओ लोक’ कहते हैं तो यों ही नहीं कहते।

उसके पीछे भक्ति आंदोलन का पूरा अनुभव बोलता है। सिद्धों-नाथों-कापालिकों – तान्श्रिकों के चमत्कारवाद, गुह्य – साधना, कृच्छ-साधना से भव्ति मार्ग के साधकों को टकराकर नया मार्ग निकालना पड़ा। वाममार्गी मद्य, भांस, मत्स्य, मुद्रा और मैधुन – इन पाँच मकारों की उपासना करते थे, तुलसी ने इस शाक्त-मत का विरोध किया – तजि म्रुतिपंथ वामपंथ चलहीं’ । Ram Bhakti Kavya

राम भक्ति काव्य मैं रामानंद ने वैष्णव भक्ति के द्वार निचली जातियों के लिए खोलकर बहुत बड़ा सामाजिक उपकार किया। कबीर और तुलसी , निर्गुण और सगुण दोनों को मिला देने का नतीजा सुखदायक सिद्ध हुआ। भक्ति काव्य की एक मूल विचार ध्वनि है – प्रेम (पिमो पुमर्थों महान), प्रेम ही मानव-जीवन का अमुत है । इसी मंत्र से तुलसी ने सियाराम मय सब जग जानी’ का प्रतिपादन किया ।

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सूरदास का जीवन परिचय

रामकाव्य में तुलसीदास जी का अवदान (Ram Bhakti Kavya main Tulsidas ji ka avdaan):–

राम भारतीय-संस्कृति के भाव-नायक हैं। इस भाव-नायक की कथा में हर युग कुछ न कुछ जोड़ता चला आया है। राम ऐतिहासिक पुरुष नहीं है- पुराण पुरुष हैं, मिथक नायक है- भावनायक और लोकनायक। देश और काल के परिवर्तन चक्रों में पड़े राम को लोकनायक बनने में हजारों वर्ष लग गए। वैदिक काल के बाद संभवतः छठी शताब्दी ई. पू. में इक्ष्वाकुवंश के सूत्रों द्वारा रामकथा-विषयक गाथाओं की सृष्टि होने लगी।

राम भक्ति काव्य मैं रामकथा के विद्वानों की एक बड़ी संख्या यह मानती है कि आदिकवि वाल्मीकि से कई शताब्दी पूर्व राम कथा को लेकर आख्यान काव्य परंपरा मिलती है। किन्तु वह वाचिक परंपरा थी अतः इसका साहित्य आज अप्राप्य है।

ऐसी स्थिति के कारण वाल्मीकि कृत रामायण प्रचीनतम उपलब्ध रामकाव्य है। भारतीय परंपरा वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ और रामायण को ‘आदिकाव्य’ मानती है। यह भी इस बात का प्रमाण है कि काव्य रूप में रामायण को ही सर्वप्रथम लोकप्रतिष्ठा प्राप्त हुई है।

बौद्धों ने कई शताब्दियों पूर्व राम को ‘बोधिसत्त्व’ मानकर रामकाव्य को जातक साहित्य में स्थान दिया है। बौद्धों की भांति जैनियों ने भी राम कथा को अपनाया। जैन कवि विमलसूरी ने ‘पउमचरिय’ प्राकृत भाषा में लिखकर रामकथा को जैन धर्म के साँचे में ढाल दिया। संस्कृत के सृजनात्मक साहित्य में रामकथा को लेकर महाकाव्य एवं नाटकों की एक विशाल परंपरा मिलती है।

कालिदास ने रघुवंश में पूरी रघुवंश की परंपरा का उल्लेख किया। इस परंपरा का श्रेष्ठ रूप भवभूति के ‘महावीरचरित्र’ तथा ‘उत्तररामचरित्र’ में मिलता है। भवभूति ने राम तथा अयोध्या की जनता के सामने सीता- चरित्र संबंधी करुण कथा के अभिनय की योजना की एवं यह सिद्ध किया कि मानव मन को स्पश्श करने में करुण रस जैसा दूसरा कोई रस नहीं है।

भारतीय भाषाओं में राम काव्य की परंपरा बहुत विशाल हैं। दक्षिण की भाषाओं में प्राचीनतम प्राप्त रामकथा कम्बन कृत तमिल रामायण है। उत्तरी भारत में तुलसी रचित ‘रामचरितमानस तथा ‘कृतिवासीय रामायण दोनों बहुत लोकप्रिय हैं।

रामानंद को रामभक्त परंपरा के चिंतन का मेरूदण्ड कहा जा सकता है। उन्होंने ही सर्वप्रथम लोक भाषा में रचना कर्म करने की प्रेरणा दी। रामानंद जी राघवानंद के शिष्य एवं रामानुजाचार्य की परंपरा के आचार्य थे। रामानंद की दो भुजाएँ – निर्गुण धारा में कबीर और सगुणधारा में तुलसीदास दोनों ही रामानंद के मानस शिष्य हैं। रामानंद के अराध्य हैं- श्रीराम । वे शील शक्त एवं सौन्दर्य के केन्द्र है। रामानंद का यही प्रतिमान तुलसी ने ‘मानस में अपनाया है।

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रामानंद संप्रदाय का मानना है कि संसार में एकमात्र कत्ता पालक एवं संहर्ता राम ही हैं- जीव उनका ही अंश है। सीता, राम की अनादि सहचरी आद्याशक्ति है। सीता राम की एकाग्र भाव से भक्ति ही भव-मोक्ष का साधन है। इस संप्रदाय की मुख्य भक्ति दास भाव की है।

भक्ति के अधिकारी ब्राह्मण, शुद्र सभी हैं। यहाँ कर्मकांड एवं वर्ण-व्यवरस्था को व्यर्थ बताया गया है। उन्होंने भक्ति को सभी प्रकार की संकीर्णवादिता से दूर करके इतना व्यापक बनाया कि उसमें गरीब-अमीर, स्त्री – पुरुष, निर्गुण-सगुण, सवर्ण-अवर्ण, हिन्दू -मुसलमान, सभी आ सकें।

कबीर, तुलसी, मैथिलीशरण पर रामानंदी विचारधारा का गहरा प्रभाव है। तुलसीदास हिन्दी रामभक्ति शाखा के सिरमौर हैं। तुलसी से पूर्व और पश्चात हिन्दी के अनेक कवियों ने राम-कथा को आधार बनाकर का्य रचना की। यहँ राम भक्त कवियों और उनकी रचनाओं संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।

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भक्तिकाल की संपूर्ण जानकारी

तुलसी परवर्ती राम काव्य परम्परा (Tulsidas paravarti ramkaavya):-

तुलसीदास ने राम भक्ति काव्य को इतना उत्कर्ष प्रदान किया कि आगे के कवियों के लिए नवीन सर्जनात्मक सम्भावनाएँ लगभग समाप्त हो गई। यह भी सच है कि तुलसी के पश्चात राम-भक्त कवि अधिक नहीं हुए। अग्नदास ने ‘कुण्डलिया रामायण’ और ‘ध्यानमंजरी’ में राम-कथा का वर्णन किया है। प्राणचन्द चौहान ने ‘रामायण-महानाटक’ तथा हृदयराम ने ‘हनुमन्नाटक’ का सृजन किया।

लालदास ने ‘अवध-विलास’ लिखी। रामभक्त कवियों की संख्या बहुत कम है। वैयक्तिक अनुभूतियों के स्वच्छन्द विलास के लिए कृपाण का चरित्र-अधिक उपयुक्त था। रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने कृष्ण राधा को ‘शृंगार को सार किसोर-किसोरी’ कहकर अपनी कविता का विषय बनाया है।

तुलसीदास तथा परवर्ती भक्त कवियों के पश्चात रामकाव्य का सृजन करने वाले कवियों में केशवदास का नाम उल्लेखनीय है। विद्वानों का मत है कि केशव ने बाल्मीकि रामायण और तुलसी के ‘रामचरित मानस’ से प्रेरणा ग्रहण करते हुए ‘रामचन्द्रिका’ की रचना की। केशव विद्वान और आचार्य तो थे – पर उन्हें कवि-हृदय नहीं मिला था। Ram Bhakti Kavya

राम भक्ति काव्य प्रबन्ध काव्य के लिए कथा के मर्मस्पर्शी स्थलों की उन्हें पहचान नहीं थी। केशव ने राम को मर्यादा-पुरुषोत्तम के रूप में नहीं, एक रीतिकालीन वैभवसम्पन्न सामन्त के रूप में प्रस्तुत किया। अलंकार और द्वन्द्वकला के प्रदर्शनकारी चमत्कारवाद के कारण ‘रामचन्द्रिका’ आभाहीन होती गई। फिर केशव का समय तो भक्तिकाल है, पर प्रवृत्तियाँ रीतिकालीन हैं। पंडिगई उनके लिए बोझ है जिसके नीचे उनका कवि दबकर रह गया है। Ram Bhakti Kavya

रीतिकाल में राधा-कृष्ण के सुमिरन के बहाने श्रृंगार को अतिशय महत्व मिला। राम का लोकसंग्रही रूप रीतिकालीन कवियों की मनोवृत्ति के अनुकूल नहीं पड़ सका। यही कारण है कि इस काल में बहुत कम रचनाएँ राम को लेकर लिखी गई हैं।

रीवां नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह ने रामस्वयंवर’ तथा ‘आनन्दरघुनन्दन नाटक’, महन्त रामचरण दास ने ‘कवितावली रामायण’ आदि राम कथा की रचनाएँ की हैं। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि रामचरण दास ने राम-सीता के श्रृंगार का वर्णन करके राम भक्ति में माधुर्य भाव को स्थान दिया। आधुनिक काल में नवजागरण की चेतना से प्रेरणा पाकर अनेक रचनाकार रामकाव्य के सृजन कर्म में प्रवृत्त हुए हैं।

इनमें भारतेन्दु, रामचरित उपाध्याय, रामनाथ ज्योतिषी अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, आ. बलदेवप्रसाद मिश्र, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

आधुनिक साहित्य की रामकाव्य-परम्परा में सर्वाधिक महत्व मैथिलीशरण गुप्त के महाकाव्य ‘साकेत’ और खण्डकाव्य ‘पंचवटी’ को मिला है। साकेत पर वैष्णव चिन्तन और गाँधी-विचार दर्शन की गहरी छाप है। ‘साकेत’ का कथा विधान नए युग की विचारधाराओं से आन्दोलित है। तुलसी के ‘मानस’ के बाद रामकाव्य परम्परा में ‘साकेत’ और ‘पंचवटी’ का अविस्मरणीय स्थान है।

छायावाद के और आधुनिक हिन्दी कविता के सबसे क्रान्तिकारी कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के प्रिय कवि तुलसीदास रहे हैं। निराला जी ने जीवन भर काव्य सृजन किया। सर्वाधित प्रतिभा का विस्फोट उनकी दो रचनाओं में हुआ – ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘तुलसीदास’ हिन्दी प्रदेश का नवजागरण निराला जी की जातीय प्रतिभा में नया अर्थ-सन्दर्भ पाता है और इस अर्थ सन्दर्भ को सामने लाने का माध्यम है – रामकथा। Ram Bhakti Kavya

इस परम्परा में आगे चलकर सुमित्रानन्दन पंत, नरेश मेहता और जगदीश गुप्त के नाम भी उल्लेखनीय हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि राम भक्ति काव्य परम्परा आज भी हिन्दी कविता में नए रूपों और रंगों को लेकर निरन्तरता और परिवर्तन के साथ दिखाई देती है।

तुलसीदास के अतिरिक्त अग्रदास, प्राणचंद चौहान, हृदय शर्मा, माधवदास, मलूकदास, लालदास तथा नाभादास, केशवदास आदि कवि रामकाव्य धारा के अन्य महत्त्वपूर्ण कवि हैं। इन कवियों की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार है-

  1. अग्रदासः अष्टायाम
  2. प्राणचंद चौहानः रामायण महानाटक
  3. हृदयशर्माः हनुमाननाटक
  4. माधवदासः गुणरामरासो
  5. मलूकदासः रामावतार लीला
  6. लालदासः अवधविलास
  7. नाभादासः भक्तमाल
  8. केशवदासः रामचंद्रिका

Ram Bhakti Kavya

कृष्ण भक्ति काव्य की सपूर्ण जानकारी (Krushn Bhakti Kavya Ki Sampurn Jankari)

रामभक्ति काव्य धारा की सामान्य विशेषताएं (Rambhakti kaavydhaara ki pramukh viseshatayen) :-

सगुण राम भक्ति काव्य में सामजिक मर्यादा के साथ लोक-चिंता, लोक मानस लोकरक्षा तथा लोकमंगल की भावना का प्राधान्य है। इस काव्यधारा के कवियों ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम को अपना आराध्य माना है। राम ही उनकी कविता के विषय है।

नाना काव्यरूपों में उन्होंने राम का ही गुणगान किया है किन्तु उनके राम परमब्रह्म होते हुए भी मनुज हैं और अपने देशकाल के आदर्शों से निर्मित हैं। वे अपार मानवीय करुणा वाले हैं, गरीब निवाज हैं, तथा दरिद्रता रूपी रावण का नाश करने वाले हैं।

रामचरितमानस में तुलसीदास ने जिस आदर्श व्यवस्था के रूप में रामराज्य का स्वप्न बुनते हैं उसमें जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, अमीर- गरीब, अपनी पृथक सत्ता खो देते हैं।

राम भक्ति काव्य परंपरा ने लोक और शास्तर दोनों के सामंजस्य से अपना पथ प्रशस्त किया। ऊपर से उनकी रचना स्वांतः सुखाय, आत्म निवेदनात्मक, आत्मप्रबोध के लिए दिखाई देती हैं, लेकिन गहराई में हम पाते हैं कि लोक धर्म एवं लोकमंगल ही इस रचना कर्म की प्रेरणा भूमि है।

ये सभी भक्त कवि भव्ति को लोक कल्याण के के परिष्कार का माध्यम मानते हैं। भारत के राममय होने का कारण भी यही है कि संत कवि तुलसीदास ने परंपरा के अमृत तत्त्वों को उसमें भर दिया है।

राम भक्ति काव्य शाखा के कवियों ने अपने काव्य के लिए प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनों शैलियों को अपनाया किन्तु इनका रूझान प्रबन्ध की ओर अधिक था। गेयपद और दोहा- चौपाई में निबद्ध कड़वक बद्धता उसके प्रधान रचना रूप है।

इन कवियों ने अवधी एवं ब्रजभाषा दोनों में काव्य का सृजन किया। छप्पय, सवैया, कवित्त, भुजंगप्रयात, बरवै आदि रामकाव्य के बहुप्रयुक्त छंद हैं। तुलसीदास ऐसे भक्त कवि हैं, जिनके यहाँ मध्यकाल में प्रचलित प्रायः सभी काव्यरूप मिल जाते हैं। वास्तविकता यह है कि रामकथा समस्त भारतीय सौन्दर्य का प्रतिमान है।

Ram Bhakti Kavya

अंतिम कुछ शब्द :-

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Wikipedia Page :- राम भक्ति काव्य

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