मैथिली शरण गुप्त का जीवन परिचय (Maithili Sharan Gupt Ka Jeevan Parichay)

मैथिली शरण गुप्त का जीवन परिचय (Maithili Sharan Gupt Ka Jeevan Parichay)

मैथिली शरण गुप्त जी हिंदी साहित्य जगत में राष्ट्रकवि के रूप में और आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रथम कवि के रूप में माने जाते रहे हैं। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा आदि मैथिलीशरण गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हुआ करते थे। गुप्त जी की कीर्ति भारत में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय बहुत ही प्रभावशाली सिद्ध हुईं थी।

सन् 1909 में “रंग में भंग’ के प्रकाशन से लेकर सन् 1947 में प्रकाशित काव्य – रचना ‘विष्णुप्रिया’ तक की साहित्यिक गतिविधियों में महाकाव्य, खंडकाव्य, मुक्तक, या प्रगीत, एवं पद्य सृजन किया है ।

इसी कारण से महात्मा गांधी जी ने इन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि से सम्मानित किया था और आज भी हम सब लोग उनकी जयंती को एक कवि दिवस के रूप में मनाते हैं। सन् 1954 ई. में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

इस प्रकार मैथिली शरण गुप्त जी का काव्य-विकास, रचनाओं की विविधता और अनेकता को लिए हुए है जिसके मध्य राष्ट्रीयता, समाज सुधारने की भावना, अतीत गौरव का चित्रण, सांस्कृतिक जागरण, नैतिकता की भावना आदि विशिष्टताएँ उनके काव्य में दिखाई देती है ।

मैथिली शरण गुप्त जी युग चेतना और इसके विकसित रूप के प्रति सजग थे । इसकी स्पष्ट झलक इनके काव्य में मिलती है । मैथिली शरण गुप्त जी द्विवेदी युग के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने खड़ीबोली को काव्यभाषा का दर्जा दिलाया । वास्तव में उनकी भारत-भारती खड़ीबोली की विजय वैजयंती सिद्ध हुई।

तो आइये जानते हैं इनके जीवन से जुडी हुईं कुछ रोचक जानकारियाँ ……

नाममैथिलीशरण गुप्त
जन्म1886 ई.
जन्म स्थानचिरगांव, झांसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु1964 ई.
मृत्यु स्थानचिरगांव झांसी
पितासेठ रामचरण गुप्ता
माताकाशीबाई
गुरुमहावीरप्रसाद द्विवेदी
मुख्य रचनासाकेत
मैथिली शरण गुप्त का जीवन परिचय (Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay)

जीवन परिचय :-

हिंदी साहित्य की उज्जवल नक्षत्र एवं राष्ट्र कवि के रूप में विख्यात मैथिली शरण गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त 1886 ई० में झांसी जिले के चिरगांव में हुआ था। इनके पिता सेठ रामचरण और माता काशीबाई दोनों ही वैष्णव थे।

पिता राम चरण गुप्त प्रभु की भक्ति और अध्यात्म में रुझान के साथ साथ साहित्य में भी रूचि रखते थे। मैथिली शरण गुप्त के जीवन में इनके पिता के आचरणों का बहुत अधिक प्रभाव रहा। साहित्य के प्रति इनका रुझान देखकर इनके पिता ने इन्हे एक बड़ा कवि बनने का आशीर्वाद से अभिसिंचित किया। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

इनकी प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा इनके पैतृक गांव चिरगांव झाँसी में ही संपन्न हुई। इन्होंने स्कूली शिक्षा में सिर्फ नवी कक्षा तक की पढ़ाई की। परंतु इसके उपरांत इन्होंने अपने पिता के सहायता से स्वअध्धयन करके कई भाषाओं का ज्ञान अर्जित कर लिया और साहित्य के प्रति अपनी लेखनी निरंतर गतिमान रखी।

साहित्यिक जीवन परिचय :-

मैथिली शरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट – कूट कर भरे थे. इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओत – प्रोत हैं. राष्ट्र कवि गुप्त जी की प्रारभिक शिक्षा इनके अपने गाँव में ही संपन्न हुईं. इन्होंने मात्र 9 वर्ष की आयु में शिक्षा छोड़ दी थी. इसके उपरांत इन्होने स्वाध्याय द्वारा अनेक भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया था।

मैथिली शरण गुप्त जी का मार्गदर्शन मुंशी अजमेरी जी से हुआ और 12 वर्ष की आयु में ब्रजभाषा में ‘कनकलता’ नाम से पहली कविता लिखना आरंभ किया था. महादेवी वर्मा जी के संपर्क में आने से उनकी कवितायेँ खाड़ी बोली सरस्वती में प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गया था. प्रथम काव्य संग्रह “रंग में भंग” तथा बाद में “जयद्रथ वध” प्रकाशित हुई।

उन्होंने बंगाली भाषा के काव्य ग्रन्थ में ‘मेघनाथ बध’ अथवा ‘’ब्रजांगना’’ का भी अनुवाद किया था. 1912 व 1913 में राष्ट्रीयता की भावनाओं से परिपूर्ण ‘’भारत भारती’’ काव्य ग्रन्थ भी प्रकाशित हुआ था। इसमें गुप्त जी ने स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान में देश की दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का सम्पूर्ण प्रयोग किया था. संस्कृत भाषा का प्रमुख काव्य ग्रन्थ “स्वप्नवासवदत्ता”, महाकाव्य साकेत, उर्मिला आदि काव्य भी प्रकाशित हुए। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

मैथिली शरण गुप्त जी ने खड़ी बोली के स्वरूप के निर्धारण एवं विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। गुप्त जी की प्रारंभिक रचनाओं में इतिवृत्त कथन की अधिकता है। किंतु बाद की रचनाओं में लाक्षणिक वैचित्र्य एवं सुक्ष्म मनोभावों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।

मैथिली शरण गुप्त जी ने अपनी रचनाओं में प्रबंध के अंदर गीतिकाव्य का समावेश कर उन्हें उत्कृष्टता प्रदान की है। गुप्त जी की चरित्र कल्पना में कहीं भी अलौकिकता के लिए स्थान नहीं है। इनके सारे चरित्र मानव हैं उनमें देव एवं दानव नहीं है।

इनके राम, कृष्ण, गौतम आदि सभी प्राचीन और चिरकाल से हमारी श्रद्धा प्राप्त किए हुए पात्र हैं। इसलिए वे जीवन पर ना और स्फूर्ति प्रदान करते हैं। साकेत के राम ईश्वर होते हुए भी तुलसी की भांति आराध्य नहीं, हमारे ही बीच के एक व्यक्ति हैं।

हिंदी साहित्य मैं स्थान :-

मैथिली शरण गुप्त जी की राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत रचनाओं के कारण हिंदी साहित्य में इनका विशेष स्थान है। हिंदी काम राष्ट्रीय भावों की पुनीत गंगा को बहाने का श्रेय मैथिली शरण गुप्तजी को ही हैं। अतः ये सच्चे अर्थों में लोगों में राष्ट्रीय भावनाओं को भरकर उनमें जनजागृति लाने वाले राष्ट्रकवि हैं। इनके काव्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।

राष्ट्रप्रेम मैथिली शरण गुप्त जी की कविता का प्रमुख स्वर है। भारत भारती में प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रेरणाप्रद चित्रण हुआ है। इस रचना में व्यक्त स्वदेश प्रेम ही इनकी पर्वती रचनाओं में राष्ट्रप्रेम और नवीन राष्ट्रीय भावनाओं में परिणत हो गया। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

मैथिली शरण गुप्त जी की कविता में आज की समस्याओं और विचारों के स्पष्ट दर्शन होते हैं। गांधीवाद तथा कहीं-कहीं आर्य समाज का प्रभाव भी उन पर पड़ा है। अपने काव्य की कथावस्तु गुप्ता जी ने आज के जीवन से ना लेकर प्राचीन इतिहास अथवा पुराणों से ली है।

यह अतीत की गौरव गाथाओं को वर्तमान जीवन के लिए मानवतावादी एवं नैतिक प्रेरणा देने के उद्देश्य से ही अपना आते हैं। नारी के प्रति गुप्ता जी का हृदय सहानुभूति और करुणा से आप्लावित हैं। यशोधरा, उर्मिला, कैकयी, विधृता ।

साहित्यिक बिचार :-

द्विवेदी युग तक आते-आते साहित्य और समाज का यह द्वंद्व तीव्रतर होता दिखाई पड़ता है। राष्ट्रीय नवजागरण और राष्ट्रीय आंदोलन के आलोक में साहित्य नख-शिख वर्णन वाली रीतिवादी परम्परा से स्वयं को काफी हद तक मुक्त कर लेता है!

यथार्थ की बदली हुई परिस्थितियों मे भाषा, विषय और. कहने का ढंग, इन तीनों में नये रूप और नये विषय की तलाश द्विवेदी युग की एक मुख्य विशेषता रही है।

गद्य की भाषा तो 19वीं सदी में ही खड़ी बोली के रूप में अपने पाँव जमा चुकी थी अब पद्य की भाषा खड़ी बोली/बोलचाल की भाषा हो, इस का प्रयास द्विवेदी युग में होता दिखाई पड़ता है। साहित्य को जाँचने-परखने और सराहने की दृष्टि भी समय और समाज की ज़रुरतों की कसौटी पर कसी जाने लगती है।

अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना सन् 1885 में हुई थी और मैथिली शरण गुप्तजी का जन्म 1886 में। घर के वैष्णवी संस्कारों और निजी जीवन के अनुभवों के अलावा उनके काव्य-व्यक्तित्व को बनाने में तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन, समाज सुधार आंदोलन का भी मुख्य हाथ रहा है। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

मैथिली शरण गुप्त जी 1901 से स्वाधीनता प्राप्ति के बाद तक लिखते रहे। हिंदी में उर्दू, संस्कृत, बंगला से अनुवाद कार्य भी उन्होंने किया। उन की रचनाओं की सूची बहुत लम्बी है। आज़ादी के बाद तक वे लेखन में लगे रहे। प्रबंध काव्य, खण्ड काव्य, गीति काव्य, पद्य नाटक, रूपक कविताएँ इत्यादि काव्य रूपों में उन्होंने 50 से अधिक रचनाओं का सृजन किया।

1909 में उनकी प्रथम महत्वपूर्ण रचना ‘‘रंग में भंग” प्रकाशित हुई। अपनी रचनाओं के द्वारा तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए गुप्त जी ने जन-जन में राष्ट्रीय चेतना भरने का वृहत्तर कार्य ही नहीं किया बल्कि समाज में व्याप्त बुराईयों को लक्ष्य बनाकर उन्हें दूर करने का स्वर भी बुलंद किया।

भारतीय समाज की रीढ़ किसान जीवन भी उनकी चिंता का केंद्र बिंद्र बना है। गुप्तजी के काव्य में अभिव्यक्त राष्ट्रीय नवजागरण की इन्हीं मुख्य चिंताओं पर आगे हम विचार करेंगे।

साहित्यिक विशेषताएं :-

राष्ट्रीय नवजागरण :-

द्विवेदी जी के साथ गुप्त जी का संबंध गुरू शिष्य का था। गुप्त जी को काव्य संस्कार द्विवेदी जी से जितने प्राप्त हुए उतने किसी और से नहीं। द्विवेदी जी के कारण और आसपास के, जन जीवन के माहौल के कारण भी गुप्त जी एक सजग कवि के रूप में अपनी कविता को देश और जन जीवन के साथ जोड़कर विकसित करने के स्वप्न को पूरा करने की कोशिश करते हैं।

शुरू की उनकी कविताएँ जो अधिकांशतः सरस्वती में ही प्रकाशित हुई एक प्रकार से उनके काव्य संस्कारों को पुखा करने में सहायक की भूमिका के रूप में दिखाई पड़ती हैं। ब्रज छोड़कर खड़ी बोली में आना, कविता को तराशमाँज कर पूरा करना, विभिन्न विषयों का चयन आदि ये सब बातें उन्होंने द्विवेदी जी एवं सरस्वती के सानिध्य में ही सीखीं। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

इन्हीं दिनों द्विवेदी जी सरस्वती में चित्रों के नीचे छापने के लिए एकाध पंक्तियाँ लिखने का भी गुप्त जी को आदेश देते, जिसे वे तुरंत पूरा कर देते थे। कभी-कभी एक चित्र पर पूरी कविता ही लिख डालते थे।

सरस्वती में छपने वाले ये चित्र महाभारत के प्रसंगों पर ( उत्तरा से अभिमन्यु की विदा, द्रोपदी दुकूल, कीचक की नीचता, कुंती और कर्ण, शंकुन्तला को दुर्वासा का श्राप, रत्नावली आदि) अधिक होते थे। इनके साथ गुप्त जी द्वारा लिखित काव्यपंक्तियाँ छपी रहती थीं।

इन्हीं प्रयासों में कहीं गुप्त जी को जयद्रथ वध, भारत भारती आदि लिखने की प्रेरणा मिली होगी। 1909 में उनका प्रथम काव्य रंग में भंग प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति मिलती है।

राष्ट्रीय चेतना की यह परम्परा गुप्त जी को भारतेन्दु युग से मिली। किंतु भारतेन्दु युग की राष्ट्रीय चेतना और गुप्त जी की राष्ट्रीय चेतना में अंतर है, परिस्थितियों में भी अंतर हैं। गुप्त जी के समय में अंग्रेज़ों का चरित्र पूरी तरह खुल कर सामने आ गया था। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

उनसे सामना करने के लिए राजनीतिक स्तर पर कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। राजभक्ति का भारतेन्दु युग वाला द्वंद्व यहाँ नहीं था। इसलिए गुप्त जी की कविताओं में राष्ट्रीय नवजागरण के स्वर ज्यादा विकसित, ज्यादा उग्र एवं आक्रामक रूप से दिखाई पड़ते हैं।

महाभारत के प्रसंगों वाले चित्रों पर कविता पंक्तियाँ लिखते हुए अपने अतीत, अपनी संस्कृति, अपना इतिहास और अपने गौरव का महाभाव उनकी रचनाओं का आधार बन जाता है। राष्ट्रीय नवजागरण के लिए वे अतीत की इसी मिथकीय दुनिया को संस्कारों से, सामूहिक स्वप्नों से निकाल कर वर्तमान में प्रक्षेपित करते हैं। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

मैथिली शरण गुप्त जी ने भारत भारती इस दृष्टि से उनकी बहुत लोकप्रिय एवं चर्चित रचना रही है।

खण्ड काव्य के रूप में इस रचना की प्रेरणा चाहे उन्हें हाली के मुसद्दस से मिली किंतु सन् 1912 में प्रकाशित इस रचना में राष्ट्र के प्रति उनकी संवेदना बहुत मुखर होकर सामने आती है।

भारत भारती में अतीत, वर्तमान एवं भविष्य तीन खंड हैं, जिनमें अतीत खण्ड में गुप्त जी ने बहुत विस्तार से भारत के अतीत का वर्णन कर देशवासियों को अपने स्वर्णिम इतिहास, जातीय पहचान का परिचय देकर उन्हें इज्ज़त और सम्मान से खड़े होने की प्रेरणा देने का कार्य किया है।

मुसद्दस और भारत भारती दोनों अपने वर्णित विषय में और उद्देश्य में समान हैं किंतु भिन्न देश-काल के कारण उनमें निहित दृष्टिकोण और भावना में कुछ मौलिक अंतर भी आ गया है। ‘मुसहस’ भारत भारती से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व लिखी गयी थी।

इसकी भूमिका में हाली लिखते हैं जमाने का नया ठाठ देखकर पुरानी शायरी से दिल भर गया था और झूठे ढकोसले बाँधने से शर्म आने लगी थी। कौम के एक सच्चे खैरख्वाह ने आकर मलामत (झिड़कना) की और गैरत (शर्म) दिलाई कि हैवानेनातिक (मुँह से बोल लेने वाला जीव) होने का दावा करना और खुदा की दी हुई जुबान से कुछ काम न लेना बड़े शर्म की बात है।

“कौम का यह सच्चा खैरख्वाह” सर सैयद अहमद खाँ था जो 1857 की क्रांति की विफलता के बाद मुसलमानों में छायी निराशा, पस्ती और अंग्रेज़ विरोधी माहौल में मुसलमानों में एक बहुत बड़े सांस्कृतिक आंदोलन की अगुवाई कर रहा था।

किसान जीवन :-

किसान जीवन के यथार्थ को अपवाद स्वरूप गुप्तजी ने बिना, अतीत का सहारा लिए ठोस सामाजिक भूमिका पर रखकर निर्मित किया है। कहा जा सकता है कि ‘किसान’ (1915) खण्ड काव्य के द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन में किसान और किसान के जीवन को वे एक मुख्य प्रश्न बनाकर चिंताओं के केन्द्र में लाये।

हालाँकि इसकी प्रेरणा भी उन्हें 19वीं सदी में ही देश में किसानों की बदतर जीवन स्थिति से ही मिली होगी। जमींदारी प्रथा के चलते किसानों के जीवन की स्थिति इतनी अधिक बिगड़ गई थी कि वे खेत मज़दूर बनकर भी रोजी-रोटी पूरी नहीं कर पाते थे। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

इसलिए रोजी-रोटी की तलाश में उन्हें घर छोड़कर बाहर निकलना पड़ा और अनेकों किसान शर्तबंद कुली बनाकर भारत से बाहर फीजी, मारिशस, ट्रिनीडाड आदि द्वीपों पर भेजे जाने लगे।

इस पर देश में राजनीतिक स्तर पर भी प्रतिक्रिया हुई। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मजदूरों पर होने वाले अत्याचारों का गांधी जी ने विरोध किया। 1914 में तातेराम सनाद्य के फीजी संस्मरणों को श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने फीजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष शीर्षक से लिखा।

यह पुस्तक बहुत चर्चित हुई और अंग्रेज़ी सरकार से यह माँग की जाने लगी कि वह भारतीय किसान मजदूरों को विदेश भेजना बंद करे और भेजे गये मज़दूरों को वापिस बुलाया जाए। इसी अवसर पर गुप्त जी ने किसान खण्डकाव्य लिखा।

इसकी प्रेरणा गुप्त जी को द्विवेदी जी के किसानों की हालत का बयान करने वाले निबंधों से मिली होगी लेकिन देश की वस्तुस्थिति किसी से भी छिपी नहीं थी। भारतीय जीवन की आधारभूत आर्थिक नींव खेती ही रही है। अंग्रेज़ी सत्ता के शोषण के चक्र बले सबसे अधिक नुकसान सामान्य किसानों का ही हुआ।

अंग्रेज़, मनसबदार, बड़े बड़े जमींदार, नवाब, रैयतदार इन सब के शोषण का शिकार वह किसान ही बना जो अपनी मेहनत से जमीन जोत कर दो जून की रोटी का इंतज़ाम करता था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने “संपत्तिशास्त्र’ नामक एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी।

इसी पुस्तक में किसानी जीवन का ज़िक्र करते हुए उन्होंने लिखा: “खेतिहरों का व्यवसाय या पेशा खेती करना है और खेती खेतों में होती है। (हिन्दी) प्रांतों में जितनी ज़मीन खेती करने लायक है, कुछ को छोड़कर बाकी सभी के मालिक जमींदार, ताल्लुकेदार, नंबरदार और राजा रईश बन बैठे हैं।

वे काश्तकारों से खूब लगान लेते हैं, उसे समय-समय पर बढ़ाते भी हैं और कारण उपस्थित हो जाने पर उन्हें खेतों से बेदखल भी कर देते हैं। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

इस संबंध में जो कानून बने हैं वे काश्तकारों के सुभीते के कम और जमींदारों के सुभीते के अधिक हैं जब पैदावार बहुत कम हो जाती है और लगान बेबाक नहीं होता तब कर्ज़ लेना पड़ता है। कम से कम कर्ज़ की मात्रा बढ़ती जाती है और एक दिन घर द्वार, बैल बछिया सब नीलाम हो जाते हैं।

खेती ही प्रधान व्यवसाय ठहरा।’ इसी प्रकार उन्हीं दिनों “सरस्वती’ में किसान जीवन पर अन्य लेखकों के भी सारगर्भित लेख, निबंध छपते रहते थे। गुप्त जी की नज़रों से भी किसानी जीवन अछूता नहीं था।

वे भी यह जानते थे कि किसानों की ऐसी हालत का कारण अंग्रेज़ी सरकार की यहाँ से अन्न विदेशों में ले जाने की नीति ही थी। इन सभी चित्रों का वर्णन उन्होंने भारत भारती मैं बड़े ही अच्छे तरीके से किया है।

“बरसा रहा है रवि अनल भूतल तवा-सा जल रहा,

है चल रहा सन-सन पवन, तन से पसीना बह रहा,

देखो कृषक शोषित सुखाकर हल तथापि चला रहे,

किस लोभ से इस अर्चि में वे निजशरीर जला रहे।

मध्यातन है उनकी स्त्रियाँ ले रोटियाँ पहुँची वहीं, ,

हैं रोटियाँ रूखी, खबर है शाक की उनको नहीं।

संतोष से खाकर उन्हें वे, काम में फिर लग गयीं,

भरपेट भोजन पा गये तो भाग्य मानो जग गये।”

इसी प्रकार “बाल्य और विवाह” में किसान के कैशोर्य जीवन का चित्रण है, “सर्वस्वान्त” में किसान के हृदय की चीत्कार सुनाई पड़ती है। फिजी में किसानों द्वारा देश छोड़ अनजाने द्वीपों पर पापी पेट की खातिर जाने की व्यथा का मार्मिक वर्णन है। कुल मिलाकर किसान कृति भारतीय किसान के वास्तविक जीवन की पीड़ा को एक महत्वपूर्ण प्रश्न बनाकर सामने रखती है।

संक्षेप में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन में नवजागरण के जो भी प्रश्न उठते रहे, देशभक्ति का प्रश्न, सभी भाषा-भाषी, सम्प्रदाय, जाति, संस्कृतियों में एकता का प्रश्न, स्त्री शिक्षा, पुरुषों के साथ स्त्री समानता का प्रश्न आदि सभी प्रश्नों को गुप्त जी ने अपनी रचना का विषय बनाया और काफी उग्र एवं आक्रामक ढंग से सामाजिक बुराइयों को उजागर करते हुए उनमें सुधार की इच्छा व्यक्त की है। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

सरल, सहज, गद्यमयी एकअर्थीय भाषा में लिखने के कारण उनकी रचनाएँ लोकप्रिय भी खूब हुई। राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों को अपनी रचना में उठाने के कारण गाँधी जी ने उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि भी दी।

नारी भावना :-

राष्ट्रीय नवजागरण के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक प्रश्न समाज में नारी की स्थिति पर पुनर्विचार का भी सामने आया था। समाज सुधार के लिए 19वीं शती में जो आंदोलन चलाए गए उनमें ब्रह्म समाज, आर्य समाज प्रमुख थे।

इन आंदोलनों और राजा राममोहन राय, विवेकानंद, दयानंद आदि समाज सुधारकों ने स्त्री की सामाजिक प्रस्थिति का डटकर विरोध किया। साहित्येतिहास में मध्यकाल के बाद रीतिकाल में तो नारी की स्थिति भोग्या मात्र ही बन कर रह गई थी, जिसका तीव्र विरोध राष्ट्रीय नवजागरण के दौरान दिखाई पड़ता है।

व्यक्ति स्वतंत्रता की भावना ने नारी स्वतंत्रता की भावना को भी बल दिया। राष्ट्रीय आंदोलन में नारी माथलीशरण गुप्त का काव्य भी पुरुष के समकक्ष बढ़-चढ़कर हिस्सा ले सकती है, इस भावना को बल मिला।

नारी के बारे में बदले हुए इस विचार का मैथिलीशरण गुप्त पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। “साकेत”, “यशोधरा”, “जैयिनी” “हिडिम्बा” जैसे उनके काव्यग्रंथ उनकी नारी भावना को विस्तार से व्याख्यायित करते हैं।

मैथिलीशरण गुप्त नारी जीवन के प्रति अपार सहानुभूति रखने वाले कवि हैं। लेकिन उनके सभी नारी पात्र समाज के एक विशेष वर्ग (सवर्ण) से आए हैं। उनकी लगभग नारी पात्र ऐसी हैं, जिनके पति किसी कार्य के उद्देश्य से उन्हें छोड़कर चले गए हैं। इसलिए वे सभी “उपेक्षिता” हैं। नारी चित्रण के माध्यम से, इनके दुख-दर्द और पीड़ा की अभिव्यक्ति के माध्यम से गुप्त जी समाज में नारी की स्थिति बदलना चाहते हैं।

गुप्त जी के स्मरणीय नारी पात्र “साकेत”, “यशोधरा” आदि प्रबंध काव्यों में हैं। “साकेत’ की रचना की प्रेरणा गुप्त जी को कवीन्द्र रवीन्द्र के निबंध “काव्येर उपेक्षिता” तथा आचार्य द्विवेदी जी के लेख “कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ से मिली थी। प्रारंभ में “साकेत’ का नामकरण “उर्मिलाउत्ताप” था बाद में बदल कर इसका नाम गुप्त जी ने “साकेत” किया। “साकेत” पूरा करने में कवि को सोलह वर्ष लगे।

रामकथा पर आधारित “साकेत” को गुप्तजी ने यथासंभव राष्ट्रीय आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। “साकेत” का केंद्रबिंदु “उर्मिला’ है जो मूल राम कथाओं में एक उपेक्षित पात्र की तरह ही चित्रित हुई हैं।

गुप्त जी को “उर्मिला” की व्यथा, विरह, वेदना, त्याग और व्यक्तित्व की दृढ़ता ने प्रभावित किया है। “उर्मिला” के इन अछूते व्यक्तित्व के पक्षों को उन्होंने आधुनिक संदर्भो में उद्घाटित किया है। गांधी युग में जब गुप्त जी रचनारत थे तब समाज में व्यक्ति का महत्व उतना स्थापित नहीं हो पाया था और परिवार समाज की एक प्रमुख इकाई था।

इसलिए भी नारी के व्यक्तित्व के जिन पक्षों पर उनका अधिक ध्यान गया वे थे उसका मातृत्व, पत्नीत्व और इसी संदर्भ में उसकी स्वतंत्र सत्ता और महत्ता।

साकेत में “उर्मिला’ के चरित्र को गुप्त जी ने स्वाभिमानी, जागृता, शक्तिरूपा, वीरांगना के रूप में चित्रित करने का प्रयत्न किया है जो सैनिकों में मातृभूमि के प्रति मर मिटने का हौसला पैदा करने की प्रेरणा शक्ति देती है। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

सीताहरण और शक्ति के प्रहार से लक्ष्मण की मूर्ण के प्रसंग को जब हनुमान सुनाते हैं तब साकेत के सभी निवासी रावण से युद्ध करने के लिए निकल पड़ते हैं और सीता को कारागार से मुक्त करके शत्रुघ्न प्रजा को रावण की लंका लूटने का आदेश देते हैं, तब उर्मिला माथे पर सिंदूर लगा, हाथ में माला लेकर दुर्गा का वेश धारण करके गरजती हुई उनके सामने आ खड़ी होती है और तेजस्वी वाणी में घोषणा करती है :

नहीं, नहीं पापी का सोना

यहाँ न लाना, भले सिंधु में वहीं डुबोना

जाते हो तो मान हेतु तुम सब जाओ।

विंध्य-हिमाचल-भाल भला। झुक जाये धीरो,

चंद्र-सूर्य-कुल-कीर्ति-कला रुक जाय न वीरों

यशोधरा के विरहणी व्यक्तित्व में उसका मातृत्व भी जुड़ा हुआ है। इसलिए गुप्त जी ने उसके मातृत्व रूप को, पुत्र-वधु के रूप को उसके विरहणी व्यक्तित्व के साथ-साथ विकसित किया है।

यशोधरा, उर्मिला, सीता आदि जितने भी गुप्त जी के नारी पात्र हैं, वे विरही हो कर भी मध्यकालीन विरहिणियों की तरह से दीन-दुनिया भूलकर ज़ार-ज़ार आँसू नहीं बहाते बल्कि विरह का दुख उन्हें द्रवित करके जगत के दुखों के प्रति संवेदनशील बनाता है और वे कर्मठ बन कर जनता के साथ तादात्म्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं।

“साकेत’ में सीता का चरित्र भी इसी प्रकार विकसित हुआ है। हालाँकि गुप्त जी की सीता तुलसीदास की सीता से प्रेरित और प्रभावित है किंतु गाँधी-युग में रचित होने के कारण वे स्वदेशी आंदोलन के वातावरण में रंगी हुई है। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

इसलिए तुलसी की सीता जहाँ सामंती माहौल की ऐसी नारी के घेरे में मानवी का अभिनय करती है, वहाँ गुप्त जी की सीता स्वतंत्रता आंदोलन में नारी की आदर्शमूर्ति बनने लगती है।

स्वतंत्रता आंदोलन में नारी की आदर्शमूर्ति वह है जहाँ वह पत्नी, प्रेमिका, माँ, बहन के रूपों के साथ-साथ श्रमशील, आर्थिक रूप से स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी है। इसलिए गुप्त जी की सीता का कहना है :

औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ

अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ

श्रमवारि बिंदु फल स्वास्थ्य शुचि फलती हूँ

अपने अंचल से व्यंजन आप झलती हूँ

तनुजात-सफलता-स्वादु आज ही आया

मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया

हिन्दी काव्य-जगत में गप्तजी का योगदान

मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविताओं के माध्यम से भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीयता की भावना के प्रचार-प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान किया है। भारतेन्दु बाबू ने हिन्दी कविता को भारतीय जनजीवन के साथ जोड़ने का भरपूर प्रयास किया, लेकिन मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’, हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ को भी अपनी लोकप्रियता में पीछे छोड़ गयी थी।

इसका प्रमुख कारण है कि गुप्तजी ने भारतीय जनता को उसकी समग्रता में समझा-पहचाना था, उसका अत्यंत प्रभावशाली ढंग से नेतृत्व किया था। यह नेतृत्व क्षमता छायावादी कवियों के लिए तो दूर की बात है ही, दिनकर को छोड़कर राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्यधारा और प्रगतिशील कवियों में भी नहीं मिलती।

नयी कविता और उसके बाद आने वाली हिन्दी कविता के लिए इस प्रकार की क्षमता का सर्वथा अभाव मिलता है। इस दृष्टि से मैथिलीशरण गुप्त को आधुनिक काल का तुलसीदास कहा जा सकता है। मध्य काल के कवि तुलसीदास का लोकनायकत्व आधुनिक काल के मैथिलीशरण गुप्त में ही उपलब्ध होता है। Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay

जनभाषा को साहित्य की भाषा बनाने का जो अभियान भारतेन्दु ने छेड़ा था, उसे पूर्णता प्रदान करने में पूर्ण सफलता मैथिलीशरण गुप्त को ही मिली है। अतीत की विरासत को लेकर नवीन के निर्माण में जिस निपुणता के साथ मैथिलीशरण गुप्त अग्रसर हुए हैं, इसे हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में विरल ही माना जाएगा।

गर्हित सामंतवादी प्रवृत्तियों के साथ ही साम्राज्यवाद की जनविरोधी प्रकृति के समुचित उद्घाटन का सूत्रपात भी गुप्त जी द्वारा ही हुआ है। इन सभी दृष्टियों से मैथिलीशरण गुप्त का एक ऐतिहासिक महत्व है।

मैथिली शरण गुप्त जी की रचनाएं (Maithili Sharan Gupt Ki Rachna) :-

महाकाव्य-

  • साकेत 1931,
  • यशोधरा 1932

खण्डकाव्य:-

  • जयद्रथ वध 1910
  • भारत-भारती 1912
  • पंचवटी 1925
  • द्वापर 1936
  • सिद्धराज
  • नहुष
  • अंजलि और अर्घ्य
  • अजित
  • अर्जन और विसर्जन
  • काबा और कर्बला
  • किसान 1917
  • कुणाल गीत
  • गुरु तेग बहादुर
  • गुरुकुल 1929
  • जय भारत 1952
  • युद्ध
  • झंकार 1929
  • पृथ्वीपुत्र
  • वक संहार
  • शकुंतला
  • विश्व वेदना
  • राजा प्रजा,
  • विष्णुप्रिया,
  • उर्मिला
  • लीला
  • प्रदक्षिणा
  • दिवोदास
  • भूमि-भाग

नाटक -:

  • रंग में भंग 1909,
  • राजा-प्रजा
  • वन वैभव
  • विकट भट
  • विरहिणी
  • वैतालिक
  • शक्ति
  • सैरन्ध्री
  • स्वदेश संगीत
  • हिड़िम्बा
  • हिन्दू
  • चंद्रहास

फुटकर रचनाएँ

  • केशों की कथा
  • स्वर्गसहोदर

अन्य भाषा की रचानाएं :-

  • स्वप्नवासवदत्ता
  • प्रतिमा
  • अभिषेक
  • अविमारक रत्नावली
  • मेघनाथ वध
  • विहरिणी वज्रांगना
  • पलासी का युद्ध

अन्य रचानाएं :-

  • जीवन की ही जय हो
  • नहुष का पतन
  • चारु चंद्र की चंचल किरणें
  • सखि वे मुझसे कह कर जाते
  • आर्य
  • किसान
  • नर हो, न निराश करो मन को
  • कुशलगीत
  • अर्जुन की प्रतिज्ञा
  • दोनों ओर प्रेम पलता है
  • मनुष्यता
  • प्रतिशोध
  • मुझे फूल मत मारो
  • शिशिर न फिर गिरि वन में
  • निरख सखी ये खंजन आए
  • मातृभूमि
  • भारत माता का मंदिर यह

काविताओं का संग्रह –

  • उच्छवास

पत्रों का संग्रह

  • पत्रावली

अक्सर पूछे जाने वाले सवाल FAQs :-


मैथिली शरण गुप्त को राष्ट्रीय कवि क्यों कहा जाता है?

गुप्त राष्ट्रकवि केवल इसलिए नहीं हुए कि देश की आजादी के पहले राष्ट्रीयता की भावना से लिखते रहे। वह देश के कवि बने क्योंकि वह हमारी चेतना, हमारी बातचीत, हमारे आंदोलनों की भाषा बन गए। व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण उन्हें 1941 में जेल जाना पड़ा. तब तक वह हिंदी के सबसे प्रतिष्ठित कवि बन चुके थे।

मैथिलीशरण गुप्त की पहली रचना कौन सी है?

गुप्त जी की सबसे पहली रचना  रसिछेंद और सरस्वती को माना जाता है। इसके अलावा रंग मैं भंग भी उनकी प्राथमिक कृतियों मैं से एक माना जाता है।

मैथिलीशरण गुप्त की प्रमुख रचनाएं कौन सी मानी जाती है ?

जयद्रथवध, साकेत, पंचवटी, सैरन्ध्री, बक संहार, यशोधरा, द्वापर, नहुष, जयभारत, हिडिम्बा, विष्णुप्रिया एवं रत्नावली आदि रचनाएं गुप्त जी की सबसे अधिक लोकप्रिय मानी जाती है।

अंतिम कुछ शब्द :-

दोस्तों मै आशा करता हूँ आपको ” मैथिली शरण गुप्त का जीवन परिचय (Maithili Sharan Gupt Ka Jivan Parichay) “ Blog पसंद आया होगा। अगर आपको मेरा ये Blog पसंद आया हो तो अपने दोस्तों और अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर शेयर करे अन्य लोगो को भी इसकी जानकारी दे। यह Blog Post मुख्य रूप से अध्यायनकारों के लिए तैयार किया गया है, हालांकि सभी लोग इसे पढ़कर ज्ञान आरोहण कर सकते है।

अगर आपको लगता है की हमसे पोस्ट मैं कुछ गलती हुई है या फिर आपकी कोई प्रतिकिर्याएँ हे तो हमे आप About Us में जाकर ईमेल कर सकते है। जल्दी ही आपसे एक नए ब्लॉग के साथ मुलाकात होगी तब तक के मेरे ब्लॉग पर बने रहने के लिए ”धन्यवाद”

WIKIPEDIA PAGE : मैथिली शरण गुप्त का जीवन परिचय

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