भाषा और भाषाविज्ञान – परिभाषा, प्रकार (Bhasha Vigyaan Ke Prakar)

भाषा और भाषाविज्ञान – परिभाषा, प्रकार (Bhasha Vigyaan Ke Prakar) :-

भाषा और भाषाविज्ञान – परिभाषा, प्रकार (Bhasha Vigyaan Ke Prakar) :-

इस ब्लॉग पोस्ट मैं हम आप पाठकों को भाषा तथा भाषाविज्ञान के बारे में संपूर्ण ज्ञान देने की कोशिश करेंगे, अगर आप लोग हमारे इस ब्लॉगपोस्ट पर से कुछ भी गुरुत्वपूर्ण संदेश पाते है, तथा यह आपके ज्ञान वर्धन के लिए सहायक हो सकता है तो अपने अनुभव को comment sections पे जरूर बताएं।

भाषा को हैं मनुष्य रहते समाज का एक मौलिक एकक के रूप मैं प्रथमतः समझ सकते हैं। भाषा को मनुष्य व्यवहार करता है, अपने मन के विचारों को सामने वाले मनुष्य को बयान करने के लिए, या फिर इसे आप भाषा को संप्रेषण (communication) प्रक्रिया के मूलतंत्र के रूप मैं भी सोच सकते हैं।

अभी के लिए अगर हम सिर्फ मनुष्यों के बारे में विचार करें तो भाषा को मनुष्य सदियों कालों से आपस में बातचीत तथा वभों के आदान प्रदान कार्य के लिए व्यवहार करता आ रहा है। सदियों काल से व्यवहृत हो रहे भाषा नहाने कितने अपने पुराने स्थितियों से गुजर कर आज हमारे सामने एक संश्लिष्ट रूप लिए खड़ा हुआ है। भाषा के इसी पुराने जीवन काल के सन्दर्भ मैं किए जाने अध्ययन को भाषाविज्ञान के रूप मैं आज जाना जाता हैं।

यूं तो अगर हम भाषा विज्ञान के अध्ययन प्रक्रिया को देखें, तो यह लगभग व्याकरण के अध्ययन जैसे ही कुछ कुछ है, पर भाषा विज्ञान मैं मुख्य रूप से हर एक वो भाषा के विषय में अध्ययन किया जा सकता है जो आज प्रचलित है या फिर बीते हुए समय में कभी प्रचलित हुआ करता था, काल के प्रवाह के कारण वह अभी हमारे सामने नहीं है।

आगे उभय भाषा तथा भाषाविज्ञान के विषय में विश्लेषित तरीके से आलोचना किया गया हैं।

तो चलिए पहले भाषा का अर्थ क्या है उसको जान लेते हैं…..

भाषाविज्ञान
भाषाविज्ञान

भाषा का क्या अर्थ होता है ? :-

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और एक सामाजिक प्राणी होने के हिसाब से उस समाज मैं उसको रहने के लिए तथा उस समाज मैं खुद को ढालने के लिए एक मनुष्य को अपने रहते हुए समाज के दूसरे और मनुष्यों के साथ अपने मन के भावों का आदान प्रदान करना काफी एक गुरुत्वपूर्ण प्रक्रिया हो जाता हैं।

इन्ही भावों के आदान प्रदान करने की प्रक्रिया मैं जो एकक मनुष्य द्वारा व्यवहृत होता हैं उसे “भाषा” कहा जाता हैं। ईसीए साधारण रूप मैं कहा जाएगा तो भाव की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त विविन्न साधनों को भाषा कहते हैं ।

भाषा शब्द “भाष्” धातु से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है – व्यक्त वाणी । भाषा मनुष्य का ईश्वरीय वरदान है । भाषा के कारण मनुष्य सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ जीव बन गया है ।

भाषा मुख्यतः एक प्रकार के प्राणियों के गोष्ठी मैं एक दूसरे के साथ संप्रेषण की प्रक्रिया के लिए ही व्यवहृत होता हैं। पर अगर सिर्फ संप्रेषण के अर्थ मैं ही भाषा को संज्ञा दिया जाएगा तो फिर इस अर्थ में पशु-पक्षियों की बोली भी भाषा है, कुत्ता, बिल्ली आदि विभिन्न प्रकार के स्वर निकालकर प्रेम, क्रोध और भय को प्रकट करते हैं वह भी भाषा हैं, इसके अलावा संसार के जो भी सजीव जीवित हैं पेड़ों के गोष्ठी को छोड़ के बाकी सभी सजीव जो अपने आप मैं संप्रेषण की प्रक्रिया करने के लिए जिस एकक को व्यवहार करते हैं, उसे भी हम भाषा कह सकते हैं।

पर क्या यह सही हैं ? क्या उनके भाषा और मनुष्य जो भाषा को व्यवहार करते हैं उनमे कोई अन्तर नही है ? तो जवाब जरूर आए ग की मनुष्यों के सिवाय लगभग बाकी सभी सजीव प्राणी केवल सीमित स्थिति में सीमित भावों को परंपरा से सीखकर अपने भावों को व्यक्त करते हैं ।

फिलहाल तो हम यहाँ पर सिर्फ मनुष्यों द्वारा व्यवहृत भाषाओं के विषय मैं अध्ययन कर रहें हैं, तो पहले भाषा के कुछ परिभाषाओं को देख लेते हैं जो की दुनिया के कुछ भाषयबिज्ञानी द्वारा दिए गये हैं, फिर आगे मनुष्यों द्वारा व्यवहृत भाषाओं के थोड़ा और विश्लेषित भाव से अध्ययन कर पाएंगे।

भाषा की कुछ परिभाषाएं :-

  • भाषा यादूच्छिक ध्वनि – प्रतीकों की वह व्यवस्था है जिसके सहारे कोई सामाजिक समुदाय परस्पर सहयोग करता है ।
  • भाषा वाक् ध्वनियों के माध्यम से विचारों की अभिव्यक्ति है ।
  • विचारों की अभिव्यक्ति के लिए ध्वनि – प्रतीकों के प्रयोग को भाषा कहते हैं ।
  • विचारों, भावनाओं और इच्छाओं को स्वेच्छा से उत्पन्न प्रतीकों के माध्यम से संप्रेषिता करने की विशुद्ध मानवीय और यत्नज पद्धति को भाषा कहते हैं ।
  • भाषा का सारतत्व यह है कि वह एक मानवीय सक्रियता है मनुष्य – मनुष्य के बीच पारस्परिक बोध के लिए एक सक्रियता, ताकि वक्ता के मन की बात को श्रोता समझ सके ।
  • भाषा ऐसे परंपरागत चिन्हों की व्ययबस्था है, जिन्हें स्वेच्छता से मनुष्य कभी भी उत्पन्न कर सकता हैं।
  • भाषा सीमित ध्वनियों से संयोजित व्यवस्था है, जिसका उद्देश्य अभिव्यक्ति होता है ।
  • सामान्य भाषा विज्ञान जिसकी सहायता से मनुष्य परस्पर विचार विनिमय या सहयोग करता है, उस यादृच्छिक रूढ़ ध्वनि – संकेत – प्रणाली को भाषा कहते हैं ।
  • मनुष्य मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते हैं ।
  • भाषा उच्चारण अवयवों से उच्चारित मूलत: प्राय: यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा किसी भाषा – समाज के लोग आपस में विचारों का आदाम -प्रदान करते हैं ।

मनुष्यों मैं भाषा के कुछ अलग प्रकार :-

मनुष्य शारीरिक चेष्टाओं द्वारा भी भाव व्यक्त कर सकता है । हाथ हिलाकर बुलाना या मना करना, आँख के इशारे से क्रोध या प्रेम प्रकट करना, सिर को नीचा करके स्वीकृति और दाएँ – बाएँ हिलाकर अस्वीकृति देना तो संभव है । पर ये सूक्ष्म और अमूर्त्त भावों को व्यक्त नहीं कर सकते । इनका क्षेत्र भी सीमित है ।

मनुष्य विभिन्न संकेतों के माध्यम से भाव भी व्यक्त कर सकता है । दरवाजा खोलने के लिए दरवाजे पर ठकठक करके, पानी के लिए गिलास हिलाकर भाव प्रकट किया जा सकता है । चौराहे पर लाल बत्ती और हरी बत्ती रुकने और जाने का संकेत देती है ।

ये संकेत स्वयं शक्तिमान नहीं होते । इन पर शक्ति का आरोप किया जाता है । संकेत संदर्भ से शक्ति प्राप्त करता है । इस दृष्टि से चौराहे की लालबत्ती और पूजा स्थल भी लाल बत्ती के अर्थ में अंतर है । बस के कडंक्टर की सीटी और शिशु की सीटी भिन्न अर्थ द्योतक हैं ।

संकेत दृश्य अथवा श्रव्य हो सकता है । इसके लिए संकेत दाता और संकेत ग्रहीता – दोनों की उपस्थिति अनिवार्य है ।

ये सभी भाषा के गौण रूप हैं । इनके माध्यम से सीमित भाषा को व्यक्त किया जा है । ये संपूर्ण अनिश्चित और अस्पष्ट भी होते हैं । इनके माध्यम से गंभीर और अमूर्त बातों को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है।

तो इन सभी विश्लेषणों के साथ यह निष्कर्ष मिलता हैं की

वागेन्द्रीय से उच्चरित जिन ध्वनि तथा संकेतों की सहायता से मनुष्य अपने भावों और विचारों को व्यक्त कर सकता है, वही वास्तव में भाषा है और यही भाषा का मुख्य रूपभी है । ध्वनि संकेतों की भाषा के माध्यम से सारे भावों और विचारों को पूर्णता और स्पष्टता के साथ अभिव्यक्त किया जा सकता है ।

वागिन्द्रिय से असीमित ध्वनियाँ उत्पन्न की जा सकती हैं । उनमें से कुछ ध्वनियों को कोई भाषा ग्रहण करती है और उन पर एक व्यवस्था का आरोप करती है । भाषिक ध्वनियाँ भाषा -व्यवस्था के अंतर्गत आती हैं । उनके उच्चारण के लिए निश्चित स्थान और प्रयत्न रहता है । डॉक्टर के सामने मुँह खोलते समय रोगी जब पीड़ा सूचक ‘आ’ कहता है तब वह सामान्य ध्वनि कहलाती है । जब एक भाषा में ‘आ’ आने का आदेश व्यक्त करता है तब वह उस भाषा की भाषिक ध्वनि कहलाती है ।

भाषाविज्ञान का प्रारंभ :-

आधुनिक युग तक वैयाकरण अपनी अपनी भाषाओं का विशद, वैज्ञानिक अध्ययन करते रहे और पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ जैसे अत्यंत सुगठित व्याकरण ग्रंथों की रचना हुई । आधुनिक युग में विभिन्न भाषाओं के ज्ञान के साथ उनकी तुलना करने की जिज्ञासा पैदा हुई जिससे उनकी संबद्धता का विश्लेषण किया जा सके।

इससे भाषाओं के इतिहास को जानने की जिज्ञासा पैदा हुई जिससे भाषा में हुए परिवर्तनों को समझा जा सके। फिर विद्वान भाषाओं की रचना के विश्लेषण की ओर बढ़े, जिससे विश्व की भाषाओं के अध्ययन का एक वैज्ञानिक ढाँचा तैयार किया जा सके।

आधुनिक युग वैज्ञानिक अध्ययन का युग है। पूर्व युग में चिंतकों और विचाराकें ने विविध विषयों पर चिंतन-मनन किया । आधुनिक युग में ही समाजविज्ञान, इतिहास, मनोविज्ञान आदि विशिष्ट अध्ययन क्षेत्रों की नींव पड़ी, जिससे विशेषज्ञता के अनुरूप विषय का विधि विज्ञान तैयार किया जा सके। इसी सिलसिले में भाषाओं के अध्ययन के लिए भाषाविज्ञान का निर्माण हुआ।

वैसे तो भाषाओं की रचना और प्रकार्यों में चिंतकों की रुचि आदि काल से रही है, लेकिन उस सम[य उनका ध्यान एक ही भाषा तथा उसके मानक रूप पर ही रहा । भाषा मात्र के अध्ययन के लिए, विशेषकर भाषाओं के अध्ययन के लिए एक संरचनात्मक ढाँचे के निर्माण के लिए प्रयास आधुनिक काल की ही देन है।

यों कह सकते हैं कि भाषाविज्ञान भाषाओं के अध्ययन और वर्णन के लिए एक व्यवस्थित आधार देता है, जिससे संसार की भाषाओं का समान रूप से व्याकरण तैयार किया जा सके। अब भाषावैज्ञानिकों का यह यत्न है कि संसार की भाषाओं के लिए सार्वभौम व्याकरण की रूपरेखा प्रस्तुत की जा सके, क्योंकि भाषा मानव मन की क्षमता है ओर मन के विचार सभी भाषाओं में संरचना के स्तर पर समान ढंग से व्यक्त होते हैं।

भाषाविज्ञान का सूत्रपात :-

हम यह कह सकते हैं कि भाषा मात्र के अध्ययन के लिए एक विज्ञान के रूप में भाषाविज्ञान का आविर्भाव आधुनिक काल में ही हुआ – विशेषकर 19वीं सदी में पूर्व युगों में विद्वानों ने व्याकरण लिखा तो किसी एक भाषा का । उस समय उनका एक से अधिक भाषाओं से वास्ता भी शायद नहीं पड़ता था । अध्ययन के क्षेत्र में केवल पुरानी (Classic) भाषाओं की ही आवश्यकता होती थी, अतः बोलचाल की भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन की आवश्यकता नहीं थी ।

आधुनिक युग में दो नई बातें सामने आई। एक ओर देशों या समुदायों का एक दूसरे से संपर्क बढ़ा और भाषाएँ जानने के अवसर बढ़े और सीखने की आवश्यकता बढ़ी। दो आधुनिक युग में बोलचाल की भाषाओं को पुरानी भाषाओं से अधिक महत्व मिला और उनके व्याकरण लिखने की आवश्यकता हुई।

 लेकिन आधुनिक भाषाओं के व्याकरण लिखने की कोई परंपरा न होने के कारण पुरानी भाषाओं के व्याकरण को ही आधार बनाया गया। पहली बात से तुलनात्मक और उसी आधार पर ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का प्रारंभ हुआ। दूसरी बात से वर्णनात्मक भाषाविज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ।

भाषा विज्ञान के कुछ अन्य नाम :-

भाषा विज्ञान के लिए प्रारंभिक समय में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया था, उनमें से “Comparative grammer” ka naam उल्लेखनीय माना जाता है। क्यों शायद यह माना जाता हैं की उस समय जब भाषा विज्ञान अपने प्रारंभिक भाग मैं शुरू हो रहा था, तब लोग भाषा विज्ञान और व्याकरण को एक ही समझते थे, और यह लगभग कुछ सामान भी कभी कभी विद्यमान होता हैं।

भाषा विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र मैं बस एक ही विशेषता है की यहां हम भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन काफी हद तक लगभग पूर्ण रूप से कर पाते हैं, पर जब जब यह स्पष्ट होगया की भाषा विज्ञान सिर्फ भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के उपर नही है, तब यह नाम को छोड़ दिया गया था।

इसी तरह जब तक भाषा विज्ञान के सम्पूर्ण अध्ययन क्षमता को पहचाना नहीं गया था, तब तक भाषा विज्ञान को ऐसे कई नए नए नाम मिले जिनमें से comparative philology, glossology, glottology, philology, philologia, filologia, linguistic आदि नामों का प्रचलन बिभिन्न विद्वानों के मतों के हिसाब से चला, और फिर कुछ समय पश्चात उस नाम के उपयुक्त कारण न पाकर बिलीन भी हो गया। पर अंतिम शब्द linguistic ka प्रचलन अंग्रेजी भाषा में कुछ कुछ अभी तक भी चलते हुए हम देख सकते हैं।

आज के आधुनिक भारत मैं बोहोत से शब्द जैसे भाषा विचार, भाषा शास्त्र, शब्द शास्त्र, भाषा तत्व, शब्द तत्व आदि शब्दों का प्रयोग चलता रहा, पर अंत में फिलोलोजी के लगभग समानार्थी शब्द भाषा विज्ञान और linguistic का लगभग आसपास समनार्थी शब्द भाषा तत्व को ही भाषा विज्ञान के अध्ययन के क्षेत्र मैं व्यव्हृत होते हुए हम देख सकते हैं।

व्याकरण के साथ समता:

किसी भी भाषा के लिए व्याकरण शब्द का अर्थ है उस भाषा को जितना चाहे तोड़ मरोड़ कर टुकड़े टुकड़े करके उसके अपने मूल स्वरूप को सामने लाना तथा उसका अध्ययन करना है। इस प्रक्रिया मैं उस भाषा के अन्य भाषाओं के निर्माण कार्य कैसे भाषा के हर शब्द, अक्षर, तथा वर्णों से संबंधित है, इन सभी का लगभग अध्ययन रहता हैं।

वास्तव में यह किसी भाषा के टुकड़े टुकड़े करके उसके ठीक मूल स्वरूप को दिखाता हैं। किसी भाषा के सम्यक ज्ञान को अगर प्रपात करना हो तो, पहले उसके व्याकरण को सीखना ज्यादा आवश्यक हैं। और इस दृष्टि से व्याकरण भाषाविज्ञान के अध्ययन से संपूर्ण भिन्न है। अतः जिस भ्रम से पुरातन के लोग/विद्वान व्याकरण को ही भाषा विज्ञान मानते थे वह काफी हद तक भूल। साबित हो चुका हैं।

व्याकरण का सीमा या कह सकते है अध्ययन क्षेत्र काफी हद तक सीमित नजर आता हैं। उसका ध्यान एक भाषा के रूप पर प्रायतः रहता हैं, पर इस विवेचन मैं अगर भाषा विज्ञान को देखा जाए तो उसमे एकाधिक भाषाओं की आवश्यकता पड़ती हैं।

इसके साथ ही वह अनेक भाषाओं के अनेक प्रकार के अध्ययनों के द्वारा अनेक शास्त्रों, कलाओं तथा विज्ञानों से सहायता लेता हैं और अपने सामान्य सिद्धांतों का भी निर्धारण करता हैं। पर व्याकरण मैं यह सब अंतर्गत नहीं हो पाता।

भाषा विज्ञान के प्रकार :

भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन को ही भाषाविज्ञान कहा जाता हैं। इस अध्ययन के अंतर्गत भाषा के उभय बाहरी तथा भीतरी रूप तथा इसके विकास के संपर्क मैं अध्ययन करने से होता हैं। अगर आप साधारण रूप से जाने की कोशिश करेंगे की भाषा विज्ञान के प्रकार क्या क्या हैं, तो ज्यादातर उत्तर कुछ इस प्रकार आएगा,

अर्थ विज्ञान, ध्वनि विज्ञान, पदविज्ञान, वाक्यविज्ञान, प्रोक्तिविज्ञान, समाजविज्ञान आदि

ये उत्तर संपूर्ण रूप से गलत नही है, मेरे खुद के अध्ययन के हिसाब से यह सब भाषाविज्ञान के अभिन्न अंग है, जिनको साल दर साल अध्ययन के चलते एक एक अन्य मार्ग के हिसाब से घोषित करके इनके संपर्क मैं ज्यादा अच्छे से अध्ययन करने के लिए ही इनको शामिल किया गया हैं। अगर आपलोग जरा सा भी सोच कर देखेंगे तो जान पाएंगे की ये सभी भाषाविज्ञान के ही अभिन्न अंग हैं, तथा इनका अध्ययन संपर्की सारे रास्ते भाषाविज्ञान के अंतर्गत से ही गुजरते हैं।

भाषाविज्ञान को अगर पूर्ण रूप से संपूर्ण अध्ययन के हिसाब से देखा जाए तो भाषा विज्ञान के 4 प्रमुख प्रकार होते हैं जिनके बलबुत्ते पर भाषाविज्ञान की संपूर्ण अध्ययन को ही अंजाम दिया जाता है, यानी भाषा विज्ञान के अंतर्गत जितने भी सारे

उप भाषाविज्ञान के विषय पाए जाते हैं, उन सबका निरूपण भी कही न कही इन्ही 4 प्रकारों पर निर्भर करता हैं।

वे हैं

  1. वर्णनात्मक भाषाविज्ञान,
  2. ऐतिहासिक भाषाविज्ञान
  3. तुलनात्मक भाषाविज्ञान
  4. प्रायोगिक भाषाविज्ञान

तो आइए इन सभी के बारे में थोड़े अच्छे से जानते हैं…..

1) वर्णनात्मक भाषाविज्ञान

इसके अंग्रेजी में डिस्क्रिप्टिव लिंग्विस्टिक के नाम से भी जाना जाता हैं। इस भाषविज्ञान के प्रकार मैं किसी भी एक भाषा को किसी एक काल में वर्णन किया जाता हैं। इसमें उस काल में उस भाषा के लिए कौनसी ध्वनि प्रचलित थी, कौनसा प्रकृति प्रचलित था, भाषा का कौनसा रूप प्रचलित था, उसमे रचना कैसे होती थी तथा तब के वाक्य गठन, भाषा के अनुसार तत्प्रचलित लोकभाषा कैसा था, क्या लोकभाषा तत्कालीन भाषा के प्रभाव मैं ज्यादा था की काम, वह भाषा आने वाले भाषा को कैसे अनुप्राणित कर रही थी आदि।

इसमें यह कुछ कहना जरूरी होगा की पाश्चात्य विद्वानों को यह सारा ज्ञान पाणिनी के अष्टाध्यायो से ही मिला है, जिसका प्रमाण खुद वो ग्रंथ हैं, जिनको खुद यूरोप के कुछ भाषावित ने स्वीकार भी किया हैं। पर यह भी सत्य है की वर्णनात्मक भाषा विज्ञान मैं तत्कालीन जीवित भाषाओं के साथ साथ पुरातन भाषाओं का भी अध्ययन संभव हो सकता हैं, पर काफी विद्वान इस भाषा विज्ञान के साथ भाषा के ध्वनि, रूप, वाक्य के अध्ययन के लिए तो सहमत हैं पर उस भाषा के अर्थ के अध्ययन को इस क्षेत्र से बाहर मानते हैं।

2) ऐतिहासिक भाषाविज्ञान :-

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के प्रादुर्भाव का आधार कालक्रम के साथ भाषा के स्वरूप में निरंतर परिवर्तन होता है, जिसकी तुलना नदी के प्रवाह के साथ की जाती है। नदी का अस्तित्व नित्य है, लेकिन उसकी स्थिति और स्वरूप मैं बराबर परिवर्तन होता है।

भाषा के संदर्भ में ‘सरित प्रवाह’, ‘बहता नीर’ आदि उक्तियाँ इसी का इंगित करती हैं। परिवर्तन के वैज्ञानिक विश्लेषण तथा विवरण से भाषा के इतिहास (यानी क्रमिक विकास) का ज्ञान मिलता है। इस तरह भाषा में परिवर्तनों का अध्ययन ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का सबसे प्रमुख लक्ष्य है।

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान वैसे तो एक ही भाषा के इतिहास और उसमें हुए परिवर्तनों का अध्ययन करता है। इससे मिले तथ्यों का तुलनात्मक भाषाविज्ञान में फिर उपयोग किया जाता है। इस तरह बाद में दोनों मिलकर समान लक्ष्य की खोज में कार्य करते हैं। इस कारण दोनों को मिलाकर तुलनात्मक ऐतिहासिक विश्लेषण नामक समन्वित अध्ययन का क्षेत्र विकसित किया गया।

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान अपने मैं उपयोगी अध्ययन क्षेत्र है। विद्वानों ने इसके अनुप्रयोगों की परिकल्पना की और भाषा के मूल उत्स तक पहुँचने का प्रयास किया। हम जानते हैं कि संस्कृत, लैटिन, ग्रीक भगिनी भाषाएँ हैं।

इस बात की भी संभावना की जा सकती है कि ये भाषाएँ किसी एक मूल भाषा से परिवर्तनों के कारण अलग हुई हों। परिवार की सभी भाषाओं के इतिहासक्रम से हम संम्भवतः अनुमानित रूप से उस पूर्ववर्ती (कल्पित) भाषा का पुनर्निर्माण कर सकते हैं, जिसका कोई प्रमाण या ऐतिहासिक प्रलेख उपलब्ध नहीं है। इस अध्ययन की शाखा को पूर्वरूप निर्धारण (glottochhronology) की संज्ञा दी जाती है।

उदाहरण के तौर पर भाषावैज्ञानिक भारोपीय परिवार के संदर्भ में किसी प्राक भारोपीय भाषा (Proto-Indo European) की कल्पना करते हैं, उसके स्वरूप का निर्धारण करते हैं और उससे संस्कृत आदि भाषाओं के ऐतिहासिक क्रम का अनुमान करते हैं।

भाषा के पूर्व रूपों के अध्ययन के लिए ऐतिहासिक भाषाविज्ञान ने कई प्रविधियों का विकास भी किया है। शब्दावली सांख्यिकी (Lexicostatistics) इसी प्रकार का एक साधन है जो भाषाओं के अलग होने के समय को ठीक से बताने का दावा करता है। हम जानते हैं कि भाषाओं में ध्वनि परिवर्तन कम ही होते हैं और शब्दों की तुलना से उन्हें ढूँढ़ा जा सकता है। इसी तरह भाषा के आधारभूत शब्दों में बहुत कम परिवर्तन होते हैं।

 ऐतिहासिक भाषावैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि हजार वर्ष में आधारभूत शब्दावली में लगभग 4.507. शब्द बदल सकते हैं। इस तरह दो भाषाओं की आधारभूत शब्दावली में अंतर के आधार पर उनके अलगाव की गणना की जा सकती है। यूरोपीय भाषाविदों ने गणना की है कि अंग्रेज़ी और जर्मन भाषाएँ पहले एक थीं और आज लगभग 1600 साल पहले ई.400 के आसपास अलग हुई।

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के और भी कई अनुप्रयोग हैं। न केवल हम भाषा के क्रमिक विकास का इतिहास लिख सकते हैं, इस अध्ययन से प्राप्त सूचनाओं को शब्दकोश में समाविष्ट कर सकते हैं। भाषा का इतिहास पूर्ववर्ती साहित्य के अध्ययन के लिए भी आवश्यक है।

भाषा परिवर्तन ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का प्रमुख लक्ष्य है।

3) तुलनात्मक भाषाविज्ञान :-

भाषाओं के बीच तुलनात्मक अध्ययन के मुताबिक भाषा के शब्द या फिर शब्दरूप के बीच मैं एक तुलनात्मक ढंग से विचार कर तुलनात्मक अध्ययन के दो आधार हो सकते हैं। हम किसी एक भाषा के ऐतिहासिक विकास से भाषा में हुए परिवर्तनों को समझ सकते हैं।

जैसे, हिंदी में ‘सत्य’ से ‘सच्च’ और ‘सच’ बना। इससे अनुमान कर सकते हैं कि / त्य/ का समीकरण और तालव्यीकरण की प्रक्रिया से /च्च / में परिवर्तन होता है।

अगर यह अनुमान सही है तो हमें अन्य शब्दों में भी इसी प्रकार के परिवर्तन दिखाई देने चाहिए। हिंदी में इस परिवर्तन के जयादा परिचित अन्य उदाहरण तो नहीं मिलते, हाँ /त/ वर्ग की अन्य ध्वनियों में इसकी पुष्टि मिलती है।

भाषा के आंतरिक परिवर्तन के अध्ययन के लिए लिखित आधार की आवश्यकता पड़ती है। विभिन्न कालों में उस भाषा के रूपों के अध्ययन से हम परिवर्तन की दिशाओं को समझ सकते हैं। इसी अध्ययन को ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की संज्ञा दी जाती है।

4) प्रायोगिक भाषाविज्ञान

उपर के तीन भाषाविज्ञान के प्रकार के साथ समय चलते एक नए प्रकार के रूप का भी विकास हो गया है जिसे प्रायोगिक भाषाविज्ञान कहा जाता हैं। इसमें विदेशी भाषा को कैसे पढ़ा जाता हैं, कैसे अनुवाद किया जाता है, अन्य भाषाओं के साथ उस भाषा के व्यवस्था को, उस भाषा के व्याकरण को तथा शुद्ध उच्चारण आदि के विषय मैं ज्यादा ध्यान दिया जाता हैं।

अंतिम कुछ शब्द :-

दोस्तों मै आशा करता हूँ आपको “भाषा और भाषाविज्ञान – परिभाषा, प्रकार (Bhasha Vigyaan Ke Prakar)” Blog पसंद आया होगा अगर आपको मेरा ये Blog पसंद आया हो तो अपने दोस्तों और अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर शेयर करे अन्य लोगो को भी इसकी जानकारी दे। यह Blog Post मुख्य रूप से अध्यायनकारों के लिए तैयार किया गया है, हालांकि सभी लोग इसे पढ़कर ज्ञान आरोहण कर सकते है।

अगर आपको लगता है की हमसे पोस्ट मैं कुछ गलती हुई है या फिर आपकी कोई प्रतिकिर्याएँ हे तो हमे आप About Us में जाकर ईमेल कर सकते है। जल्दी ही आपसे एक नए ब्लॉग के साथ मुलाकात होगी तब तक के मेरे ब्लॉग पर बने रहने के लिए ”धन्यवाद”

भाषा के वर्गीकरण के उपर हम आगे ब्लॉगपोस्ट मैं आलोचना करेंगे।

भाषाविज्ञान :- विकिपिडिया पेज

इसस संदर्व मैं कुछ आवश्यकीय प्रश्न :-

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