भाषाओं का वर्गीकरण (आकृतिमूलक) Bhasha Ka Vargikaran

भाषाओं का वर्गीकरण (आकृतिमूलक) Bhasha Ka Vargikaran :-

भाषाओं का वर्गीकरण :-

भाषाओं का वर्गीकरण :- संसार मैं जीतने भी भाषाएं बोले जाते हैं, उनमे से कुच्छ भाषाओं मैं आपस मैं काफी संबंध दिखने को मिलता है तो कुछ भाषाओं मैं आपसी संपर्क थोड़ा सा भी नही होता हैं। पर यह जरूर सत्य हैं की भाषाओं के बीच तुलनात्मक और ऐतिहासिक अध्ययन के लिए ही भाषाओं का वर्गीकरण किया जाता हैं। पर भाषाओं के वर्गीकरण को जानने से पहले चलिए हम भाषा के वारे मैं कुछ बातों के ऊपर रोशनी डाल लेते हैं।

भाषा :-

भाषा मनुष्य के लिए एक काफी आवश्यक कारक के रूप मैं कार्य करता हैं। भाषा के बिना मनुष्य समाज मैं बचना काफी असंभव सा हो जाता हैं क्योंकि भाषा ही वो माध्यम हैं जिसके द्वारा वो समाज मैं अन्य मनुष्यों के साथ अपने भाव तथा विचारों का आदान प्रदान अति आसानी से कर पाता हैं।

तो क्यों की भाषा को मनुष्य अति प्राचीन काल से व्यवहार करते आ रहा हैं, और इस समय के भीतर भाषा में काफी बदलाव आचुक3 हैं, चाहे वो व्याकरण के दृष्टि से हो या फिर लिपि के दृष्टि से या फिर एक भाषा से दूसरे भाषा के सृष्टि के दृष्टि से हो।

इसी लिए भाषा विज्ञान के अध्ययन के दौरान प्राचीन काल से विश्व मैं जितने भी भाषाओं के प्रचलन के भाषा विज्ञानियों को आभास मिला हैं, उन सभी भाषाओं को वर्गीकरण किया गया हैं।

Bhasha Ka Vargikaran

भाषाओं का वर्गीकरण भाषाओं के अध्ययन के लिए काफी आवश्यक हो जाता हैं, क्योंकि वर्गीकरण प्रक्रिया के द्वारा भाषा को काफी अच्छे से तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक प्रक्रिया के माध्यम से ज्यादा पारंगत तरीके से अध्ययन किया जा सकता हैं।

लगभग 2500 के आसपास संसार में भाषाएं बोली जाती हैं। और उनके अध्ययन के लिए उनका वर्गीकरण कुछ इस आधार पर किया जाता हैं :

  • महाद्वीप के आधार पर :
    जैसे एसियाई भाषाएं, यूरोपीय भाषाएं तथा अफ्रीकी भाषाएं।
  • देश के आधार पर :
    जैसे चीनी भाषाएं, तथा भारतीय भाषाएं आदि
  • धर्म के आधार पर :
    जैसे मुसलमानी भाषाएं, हिंदू भाषाएं तथा ईसाई भाषाएं,
  • काल के आधार पर :
    जैसे प्राचीन भाषाइलें, वैदिक भाषाएं, प्रागैतिहासिक भाषाएं, आदि
  • भाषाओं के आकृति के आधार पर:
    जैसे अयोगात्मक भाषाएं, योगात्मक भाषा
  • परिवार के आधार पर :
    जैसे भारोपिय भाषाएं, द्रविड़ परिवार की भाषाएं आदि
  • प्रभाव के आधार पर :
    जैसे संस्कृत प्रभावित भाषाएं, फारसी प्रभावित भाषाएं,

उपर्युक्त वर्गीकरण के सात आधारों मैं से सिर्फ अंतिम तीन भाषा विज्ञान के दृष्टि से सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। और उन अंतिम तीन मैं से भी अंतिम वर्गीकरण व्यवस्था अभी अपने आरंभावस्था मैं हैं। इस वर्गीकरण के अनुसार दो भाषाएं जो पारिवारिक या फिर आकृतिमूलक दृष्टि से आसपास नही हैं, इसके माध्यम से समीप आ जाते हैं और उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता हैं। उदाहरण के रूप मैं हिन्दी और तामिल मैं आकृतिमूलक दृष्टि से कोई संबंध नही हैं पर दोनों के संस्कृत के प्रभाव के कारण उनके बीच तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता हैं।

इने आलवा शेष दो पारिवारिक और आकृतिमूलक वर्गीकरण को ही भाषा विज्ञान मैं ज्यादा प्राधान्य दिया जाता हैं, जिनमे से इस ब्लॉगपोस्ट मैं हम भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण के विषय मैं यहाँ विस्तार से अध्ययन करेंगे।

तो आगे इस ब्लॉग पोस्ट मैं हम भाषाओं का आकृतिमुलक वर्गीकरण के बारे में विस्तार से बताया गया हैं। भाषाओं के पारिवारिक वर्गीकरण के बारे में हम इसके बाद के ब्लॉग पोस्ट मैं विस्तार से आलोचना किया जाएगा।

भाषाओं के आकृतिमुलक वर्गीकरण (Bhasha Ka Aakrutimulak vargikaran) :-

जो वर्गीकरण प्रक्रिया शब्द के संबंधतत्व और पदरचना का संबंध व्याकरण या भाषा की रूपरचना से होता है, उस प्रकार के वर्गीकरण प्रक्रिया को आकृतिमुलक वर्गीकरण कहा जाता हैं। इस प्रकार के वर्गीकरण को रूपात्मक वर्गीकरण भी कहा जाता हैं।

इस वर्गीकरण की प्रक्रिया के मूलरूप प्रक्रिया मैं मूलशब्द से एक भाषा रूप की बनाने की प्रक्रिया के आधार पर जो भाषाएं आपस में समानता रखती है उनके अनुसार उन सभी भाषाओं को एक वर्ग में रखा जाता हैं। bhasha ki aakrutimulak vargikaran

जिस कारण इसे व्याकारणिक वर्गीकरण तथा रचनात्मक वर्गीकरण भी कहा जाता हैं। इसके अलावा यह वर्गीकरण प्रक्रिया वाक्य के रूपों के आधार पर भी बनती हैं, जिस कारण इसे व्याक्यात्मक या फिर व्याक्यामुलक वर्गीकरण भी कहा जाता हैं। इसके अलावा इस प्रकार वर्गीकरण को रूपाश्रित, पदात्मक, तथा पदाश्रित वर्गीकरण भी कहा जाता हैं। Bhasha Ka Vargikaran

अंग्रेजी में इस प्रकार के वर्गीकरण को syntactical, morphological, typical, typological तथा geneological या historical classification आदि नाम से जाना जाता हैं।

भाषाओं का वर्गीकरण
भाषाओं का वर्गीकरण (Bhasha Ka Vargikaran)

इस वर्गीकरण का आधार मुख्य रूप से पद, संबन्धतत्व, और शैली को माना जाता हैं।

अर्थतत्व और संबंधतत्व :-

भाषा मैं जो भी वाक्य होते हैं, अथक अगर उनको समझ पाता है तो उसमे सबसे ज्यादा महत्व अर्थतत्व और संबंधतत्त्व का रहता हैं। संबंधतत्व जहां वाक्य में कर्म और कार्य को आपस में जोड़ रखता है वहीं अर्थतत्व वाक्य मैं व्यवहृत्त अर्थ को स्पष्ट कर पाता हैं।

जैसे हरी ने नरेश को मारा इस वाक्य मैं हरी नरेश और मारना ये तीन अर्थतत्व हैं जहां ने और को यह इन तीनों अर्थ को आपस में बनाए रखने के लिए व्यवहृत् हुए हैं। जिस कारण ने और को यह दोनो संबंधतत्व के दायरे में आएंगे।

आकृतिमूलक वर्गीकरण के बाद शब्द के आकृति या फिर रूप के दृष्टि से भाषाओं को मुख्य रूप से दो वर्गों में भाग किया जाता हैं।

  • अयोगात्मक भाषाएं
  • योगात्मक भाषाएं

अयोगत्मक भाषाएं -:

अयोगात्माक भाषा में शब्द मैं कोई भी उपसर्ग या प्रत्यय जोड़ कर अन्य वाक्य मैं व्यवहृत लायक शब्द बनाया नही जा सकता हैं, बल्कि अयोगात्मक शब्द मैं अंतरभुक्त प्रत्येक शब्द का अपना एक स्वतंत्र सत्ता विद्यमान रहता हैं। इसी कारण से इस वर्ग के भाषा में प्रत्येक शब्द स्वतंत्र रीति से अलग अलग प्रयुक्त होते हुए जान पड़ते हैं। Bhasha Ka Vargikaran

उपर लिखे परिस्थितियों के अलावा इस तरह के भाषा में में शब्द का स्थान परवर्तित होने से अर्थ भी परिवर्तित हो जाता है। इसके अतिरिक्त शब्द संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया विशेषण आदि भेद भी नहीं होता है। जिस कारण से इन शब्दों को स्थान प्रधान भी कहा जाता हैं।

इस प्रसंग मैं हम एक हिन्दी का उदाहरण देखें तो,

सीता राम कहती हैं।
राम सीता कहती हैं।

इन दोनो वाक्यों में शब्द बिल्कुल समान है, उनमें कोई भी परिवर्तन नहीं है, पर सीता और राम के स्थान परिवर्तन करदेने पर वाक्य का पूरा अर्थ बदल जाता हैं।

इसका सर्वोत्तम उदाहरण चीनी भाषा हैं, उदाहरण के चीनी भाषा का एक उदाहरणनीचे लिया गया हैं

चीनी भाषा में,

न्गी तनि = हम तु्हें मारते हैं।
न तन्गो = तुम मुझे मारते हो

ता लेन = बड़ा आदमी
लेन ता = आदमी बड़ा (हैं)

तो एक निष्कर्ष के रूप मैं यह कहा जा सकता हैं की आए भाषा में संबंधतत्व का बोध शब्दों मैं कुछ जोड़ कर या उनमें कुछ भीतरी विकार या परिवर्तन लाके नही कराया जाता हैं, बल्कि संबंधतत्व बोधक शब्दों को जोड़ कर या मात्र स्थान विशेष पर मूल शब्दों को रख कर किया जाता हैं।

अयोगत्मक भाषाओं मैं शब्द क्रम का महत्व के साथ यह तान (सुर) का भी महत्व होता है, और उसके साथ निपात (particle) का भी काफी महत्व रहता हैं।

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योगात्माक भाषाएं :-

जहां अयोगतामक भाषा के शब्दों मैं अर्थतत्व और संबंधतत्व में कोई योग नही होता, और कभी कभी संबंधतत्व के आवश्यकता भी नहीं पड़ता, बस शब्द के स्थान से ही संबंध तत्व का पता चल जाता है, वहीं योगात्मक भाषाओं के शब्दों मैं अर्थतत्व और संबंधतत्व दोनो का मिलित योग से शब्द का निर्माण या फिर शब्दों के बीच के संबंध आपस में जुड़े रहने से ही पता लग जाता हैं।

जैसे राम ने हाथ से खाना खाया, यहां पे अर्थ तत्व और संबंध तत्व का में हुआ हैं। अभी समाज मैं जो भी कुछ भाषाएं चल रही है या फिर चलती आ रही थी उनमें से काफी शब्द योगात्मक भाषाओं के सीमा मैं आती हैं।

योग के आकृति के आधार पर योगात्मक भाषा को मुख्य रूप से तीन वर्गों में भाग किया जाता हैं

  • प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषा
  • अश्लिष्ट योगात्मक भाषा
  • श्लिष्ट योगात्मक भाषा
1) प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषा

इन भाषाओं के शब्द मैं अर्थ तत्व और संबंध तत्व इतने मिले जुले रहते हैं की उनको पहचानना तथा अलग करना संभव नहीं हो पाता हैं। इस वर्ग के भाषा में अर्थ तत्व और रचना तत्व्व इस तरह मिश्रित हो जाता है कि उसमें पृथकीकरण संभव नहीं है। इस में अनेक अर्थ तत्व का थोड़ा-थोड़ा अंश काट कर एक शब्द बनाया जाता हैं। और शब्द मात्र एक शब्द का अर्थ नहीं बता कर पूरे वाक्य का अर्थ बताता है।

जैसे शिशु से शैशव।

प्रश्लिष्ट योगत्मक भाषाओं को दो भागों में विभाग किया जाता हैं,

  • पूर्ण प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाएं :-

इस भाषाओं के शब्द मैं संबंधतत्व और अर्थतत्व का योग इतना पूर्ण रहता हैं की पूरा वाक्य लगभग एक ही शब्द के रूप मैं जान पड़ता हैं। इस प्रकार भाषा में एक सबसे बड़ी विशेषता यही है की जब वाक्य बनते है, तो उसमे पूरे शब्द नही आ पाते, बल्कि शब्द के छोटे छोटे अंश ही आ पाते है और बाकी शब्द का अंश छूट जाता हैं।

पर वही आधे अंशों के साथ यह एक लंबा सा शब्द ही बाद में वाक्य के रूप मैं दिखाई देने लग जाता हैं। इस तरह के भाषाओं के प्रमुख उदाहरण ग्रीनलैंड और अमेरिकी भाषाओं मैं पाए जाते हैं ।

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  • आंशिक प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाएं :-

इस प्रकार भाषाओं के शब्द मैं सर्वनाम और क्रियाओं का ऐसा अम्मिलन हो जाता है की क्रिया अपने अस्तित्व हर कर सर्वनाम का पूरक बन जाती हैं।

इस में स्वतंत्र शब्द भी होता है और ये पृथक भी व्यवहार में आता है। यूरोप के एक भाषा का शब्द ‘दकारकिओत’ का अर्थ होता है तुम मुझे ले जा रहे हो। आंशिक समास कभी-कभी प्रत्यय प्रधान और विभक्ति प्रधान भाषा में भी काम में आता है।

जबकि पूर्ण प्रशिलिष्ट में संज्ञा, विशेषण, क्रिया और अव्यय आदि सब का योग संभव नहीं होता है। भारोपीय परिवार की भाषा में भी इसका कुछ उदाहरण मिलता है। भारोपीय परैवार के कुछ भाषा जैसे गुजराती भाषा में मे कहु जे का मकुजे (मैंने वो कहा), मेरठ की स्थानीय भाषा में उन्नेका – उसने कहा।

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2) अश्लिष्ट योगात्मक भाषाए :-

इस प्रकार के भाषाओं के शब्दों मैं अर्थ तत्व और संबंध तत्व कुछ इस प्रकार से जुड़े हुए रहते हैं की उनमें अंतर कुछ हद तक साफ नजर पड़ता हैं। इस प्रत्यय प्रधान तथा समय प्रधान भी कहा जाता हैं। हिंदी मैं इस प्रकार के भाषा ज्यादा कही पाई नही जाती पर कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं

सुंदरता (सुंदर+ता)
करेगा (करे+ गा)

इन उदाहरणों में आप साफ देख सकते है की अर्थ और संबंध तत्व स्पष्ट दिखाई दे रहा हैं, और इसी स्पष्टता के कारण भाषाओं की रूप रचना मैं काफी आसानी होती हैं। इसके बाद इसके कई वर्गों में विभाजन किया जाता हैं :

  • पूर्वायोगात्मक
  • मध्य योगात्मक
  • पूर्वान्त योगात्मक
  • अंत योगात्मक
  • आंशिक योगात्मक
  • सर्व योगात्मक
  • पूर्व योगात्मक या पुनः प्रत्यय प्रधान

इस तरह के भाषाओं के शब्दों मैं प्रत्यय के स्थान पर उपसर्ग को व्यवहार किया जाता हैं।इस के साथ साथ इस भाषाओं मैं शब्द वाक्य के अंतर्गत सर्वदा अलग-अलग होता है, क्यों की शब्दों की रूपरचना में संबंध तत्वच मात्र आरंभ में लगता है। इसीलिए इसे पूर्व योगात्मक कहा जाता है। इs प्रकार भाषा का प्रमुख उदाहरण अफ्रीका के बाँटू भाषा में देखा स्पष्ट जा सकता है।

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इसी के जुलू भाषा का उदाहरण नीचे देखा जा सकता है ;
उमुन्तु = एक इंसान
अबन्तु = अनेक इंसान

यहाँ पर ‘उमु एकवचन चिन्ह और ‘अब’ बहुवचन चिन्ह है, जिसके मिलने से उपर्युक्त शब्द बना है और दोनों की स्थिति भी स्पष्ट है।

  • मध्य योगात्मक भाषा :-

इस तरह के भाषा के शब्दों में मुख्य रूप से दो अक्षरों होते हैं और संबंधतत्व दोनो अक्षरों के मध्य में पाए जाते हैं। जैसे की नाम एक मध्य योगात्मक शब्द हैं।

इन भाषाओं के प्रमुख उदाहरण भारत की तथा हिंद महासागर के द्वीपों से लेकर अफ्रीका के पास माडागासकर आदि द्वीपों मैं फैले हुए भाषाओं मैं पाए जाते हैं।

उनके बीच संथाली भाषा में इसका उदाहरण देखा जा सकता
मञ्झि = मुखिया,
मपञ्झि = बहुत मुखिया; मपञ्झि ; यहाँ ‘प’ बहुवचन चिन्ह है।

इस प्रकार से “दल” = मारना और दपल = परस्पर मारना

  • पूर्वान्त योगात्मक :-

इस श्रेणी के भाषा में संबंध तत्व या अर्थ तत्व शब्द के आगे-पीछे पूर्व और अंत दोनों जगह में लगाया जाता है, इसीलिए इसे पूर्वान्त
योगात्मक भाषा कहा जाता है।

इसका प्रमुख उदाहरण न्यू गिनी के मकोर भाष में मिलता है।

उदाहरण – म्न्फ़ू शब्द का अर्थ होता है सुनना, इसी शब्द के आरंभ में ‘ज’ और अंत में उ’ जोड़ देने पर इसका अर्थ मैं तुम्हारी बात सुनता हूँ हो जाता है यानी कि – जम्न्फ़-उ।

  • अंत योगात्मक :-

इस वर्ग के भाषा में योग क्रिया या फिर संबंध तत्व केबल अंत में जोड़ा जाता हैं जिस लिए इस प्रकार के भाषा को अंत योगात्मक भाषा कहा जाता हैं । भारत के द्रविड़ भाषा तथा यूराल-अल्टाइक परिवार की भाषा इसी वर्ग के अंतर्गत आते है। Bhasha Ka Vargikaran

उदाहरण के लिए, कन्नड़ भाषा का ‘सेवक’ और तुर्की भाषा का “एव” शब्द लिया जा सकता है।

सेवक (बहुवचन)
करता – सेवक -रू,
कारण – सेवक -रिंद,
संबंध – सेवक – र
एवं = घर,
एवलेर = कितना घर,
एवलेइरम = हमारा घर

  • आंशिक योगात्मक :-

इस प्रकार के भाषा में योग और अयोग दोनों भाषाओं का यथार्तः परिचय मिलता है या फिर चिन्ह मिलता है। यह भाषा अशिलिष्ट योगात्मक भाषा से भी कुछ तरीके से समानता रखता है, पर क्यूं की यह भाषा योगात्मक भाषाओं के साथ कुछ थोड़ा ज्यादा समानता रखा है, जिससे इसे आंशिक योगात्मक भाषा का नाम दिया गया हैं।
वास्क, हौसा, न्यूजीलैंड तथा हवाई द्वीप के भाषा में इसका उदाहरण ढूंढा जा सकता है;

वास्क,
जल्दी = घोड़ा, जल्दी अ = वह घोडा

  • सर्व योगात्मक और सर्व प्रत्यय प्रधान –

इस भाषा में आदि, मध्य एवं अंत तीन प्रकार का योग होता है जैसे कि, मलय परिवार के तगल भाषा में सुलत = लिखेगे, सुंग-
सुलत = लिेख लिया।

(3) शिलिष्ट योगात्मक :-

शिलिष्ट योगात्मक वर्ग में वे सभी भाषाएँ आती है जिस-जिस में रचनात्मक योग से मूल या अर्थ तत्व के कुछ अंश में परिवर्तन आ जाता है। इस प्रकार के भाषाओं मैं संबंधतत्व को जोड़ने के कारण अर्थतत्व वाले भाग मैं कुछ विकार पैदा हो जाता हैं, पर इसके साथ साथ संबंध तत्व का पहचान भी अलग से किया जा सकता हैं, क्यों की विकार आने के बाद भी संबंधतत्व अलग रह नही पाता हैं।

जैसे कि – वेद, देह, नीति, देह, आदि शब्द से ‘इक’ प्रत्यय लगाने पर क्रमशः वैदिक, नैतिक, दैहिक, आदि शब्द बनता है। Bhasha Ka Vargikaran

यहाँ रचना तत्व ‘इक’ के योग से अर्थ वाला अंश में परिवर्तन हो गया इसके बावजूद भी अर्थ तत्व्व एवं रचना तत्व को पहचानने में कोई समस्या नहीं आती हैं।

इसी प्रकार से अरबी में निम्नलिखित उदाहरण द्रष्टव्य है – अरबी में क, त, ब, थातु से अनेक शब्द बनता है कत्ब= अभिलेख, कतीब = लिखा हुआ, किताब = पोथी, कल = हत्या या वध।

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संस्कृत के अतिरिक्त लैटिन, ग्रीक, अवेस्ता, रूसी आदि की रचना प्रणाली इसी के सदृश है। ये सब संयोगावस्था से वियोगावस्था की तरफ जाने की प्रवृति रखता है। जैसे, संस्कृत से हिन्दी, लातिनी से
फ्रांसीसी।

इस वर्ग के भाषाएं संसार में सबसे उन्नत माने जाते हैं। सामी हामी और भारोपीय परिवार के भाषाएं प्रमुख रूप से इसके अंतर्गत आ जाते हैं।

शिलिष्ट योगात्मक को दो उपवर्ग में बांटा गया है।

  • अंतर्मुखी
  • वहिर्मुखी

(1) अंतर्मुखी –

इस वर्ग के भाषा में जोड़ा गया भाग प्रधानतः मूल भाग (अर्थ तत्व) के पश्चात आता है। सीमेटिक परिवार की प्रमुख भाषा अरबी इसी प्रकार का होता है। अरबी भाषा के क़त्ल तथा कत्ब का उदाहरण ऊपर बताया गया है। संस्कृत और अरबी को ध्यान में रखकर अंतर्मुखी को भी दो भागों में बांटा जाता है;

(1) संयोगात्मक जैसे कि अरबी और
(2) वियोगात्मक जैसे कि हिब्रू।

वर्तमान में इस वर्ग का भाषा भी शिलिष्ट योगात्मक भाषा होता जा रहा है, संस्कृत और हिन्दी के विकास इसका अच्छा उदाहरण है। संस्कृति में विभक्ति साथ ही लगता था इसीलिए वह योगात्मक था, लेकिन हिन्दी में ऐसा नहीं होता है क्योंकि उस में विभक्ति अलग से लगाया जाता है।

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(2) वहिर्मुखी –

यह मुख्य रूप से विभक्ति प्रधान भाषाएं होती हैं। क्यों की इस में विभक्ति (प्रत्यय) आकृति के बाहर से जुड़ता है। ये आकृति के पूर्व में जुड़ सकता है और बाद में भी। भारोपीय परिवार के भाषा संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, अवेस्ता आदि इसी वर्ग के भाषा हैं।

उदाहरण – ‘भविता यहोँ भू (भाव) धातु से ‘अ’ विकिरण तथा ‘वी’ प्रत्यय विभक्ति के बाद में आकृति के बाहर लगा हुआ है। इसको भी दो वगों में बांटा जाता है;

(1) संयोगात्मक – भारोपीय परिवार के प्राचीन भाषा ग्रीक, लैटिन, संस्कृत, अवेस्ता आदि संयोगात्मक होता है, शब्द में ही संबंध तत्व लगा हुआ होता है।
उदाहरण-संस्कृत में सः पठती = वह पढ़ता है।

(2) वियोगात्मक – भारोपीय परिवार का ज्यादा भाषा आधुनिक समय में वियोगात्मक हो गया है। बहुत पहले ही उसका विभक्ति प्रायः लुप्त हो गया एवं सहायक क्रिया के रूप में शब्द रखा जाने लगा है।

अंग्रेजी, हिन्दी एवं बांग्ला आदि वियोगात्मक है।

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कुल मिलाकर आकृतिमूलक वर्गीकरण मुख्य रूप से विश्लेषण पर आधारित होता है इसीलिए इसका महत्व स्वयं-सिद्ध है। और ये संयोगात्मक से वियोगात्मक की तरफ बढ़ता है एवं पूर्णतः वियोगात्मक हो जाने पर ये फिर से संयोगात्मक होना शुरू होता हैं और इस तरह से भाषा का चक्र चलता रहता हैं।

इसके बाद के ब्लॉग पोस्ट मैं हम भाषाओं का पारिवारिक वर्गीकरण के विषय मैं विस्तार से पढ़ेंगे, इसीलिए हमारे वेबसाईट के साथ जरूर जुड़े रहें।।।

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