भक्तिकाल की संपूर्ण जानकारी (Bhaktikaal ki sampurn jaankaari):

भक्तिकाल की संपूर्ण जानकारी (Bhaktikaal ki sampurn jaankaari):

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भक्तिकाल या पूर्बमध्यकाल हिन्दी साहित्य के सबसे प्रमुख युग के रूप मैं जाना जाता है। सूरदास, तुलसीदास, जायसी, मीराबाई, और कबीरदास जैसे कविओं ने इस काल मैं काव्य रचना करके हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है और इसीलिए इसस काल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग काहा गया है।

इसस पोस्ट मैं हम भक्तिकाल, इस काल के प्रबरुती तथा इसस काल के प्रमुख कविओं के बारे मैं बिस्तार से आलोचना करेंगे।

भक्तिकाल का सामान्य परिचय (Bhaktikaal ka samanya parichay) :-

हिंदी साहित्य के इतिहास के सवर्ण या फिर स्वर्ण युग के रूप परिचित भक्तिकाल का आरम्भ अधिकांश विद्वान सन् 1350 से मानते हैं, किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी इसे सन् 1375 से मानते है। भक्तिकाल के काव्य भारत के भक्ति आंदोलन के उपर आधारित है।

यह आंदोलन सामाजिक भी है और वैचारिक भी है। भक्तिकाल मैं धर्म साधना का नहीं बल्कि भावना का विषय बन गया है, और इसीलिए भक्ति को धर्म का रसात्मक रूप कहा जाता है।

हिंदी भक्ति साहित्य की परम्पा का प्रथम अनुग्रह महाराष्ट्र मैं सन 1267 में जन्मे नामदेव से मिलने लगती है। भक्तिकाल मैं कबीर, सूरदास, तुलसीदास, जायसी, रैदास, और मीरा जैसे प्रतिभावान कवियों ने रचनाएँ की है। इन्ही के रचनाओं के बदौलत भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग कहा जाता है।

भक्ति काल को उपासना भेद की दृष्टि से इस काल के साहित्य को दो भागों में बाँटा गया है: सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति। निर्गुण के दो भेद है, संतो की निर्गुण उपासना(ज्ञानमार्गी शाखा) तथा सूफियों की निर्गुण उपासना (प्रेममार्गी शाखा)।

सगुण में विष्णु के दो अवतार राम और कृष्ण की उपासना के साहित्य रामभक्ति शाखा और कृष्ण भक्ति शाखा के रूप में जाने जाते है।

भक्तिकाल की पृष्ठभूमि (Bhaktikaal ki prusthbhumi):-

भक्तिकाल के ऐतिहासिक दरुस्ती से देखा जाए तो भक्ति-आंदोलन के विकास को दो चरणों में बाँटा जा सक्ता है। पहले चरण के अंतर्गत दक्षिण भारत का भक्ति-आंदोलन आता है। इस आंदोलन का काल छठी शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक का है।

दूसरे चरण में उत्तर भारत का भक्ति आंदोलन आता है। इसकी तेरहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक है। इसी चरण में भारत इस्लाम के संपर्क में आया और इसके बाद का भक्ति आंदोलन का संपर्क उत्तरी भक्ति आंदोलन से है।

राजनैतिक पृष्ठभूमि :-

राजनैतिक दृष्टि से हिंदी के भक्तिकाल का बिस्तार तुगलक वंश से आरंभ हो कर मुगल वंश के सम्राट शाहजहां के शासन काल तक था। इसीलिए भक्तिकाल।के राजनैतिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों को समझना बोहोत जरूरी है।

दसवीं शताब्दी में भारत के पश्चिमी और से तुर्को ने आक्रमण किया। राजपूतों की आपसी शत्रुता के तेहेत पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गोरी के हाथों और जयचंद कुतबुद्दीन के हाथो मारा गया, जिसके पश्चात दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई और काल क्रम में कुतुबुद्दीन ऐबक इसका शासन कार्यभार संभाला।

उसके बाद सन 1206 में दिल्ली शासन में थोड़ा उतार चढ़ाव आया और सन 1281 में बलबन के मृत्यु के बाद यहां अराजकता फैल गई और खिलजी वंश ने इसका फायदा उठा के शासनभार आपने हाथ में लेलिया। प्रजा के समर्थन के साथ ने आगे बढ़े और इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी ने क्रूरता पूर्वक शासन करके इसको पूरी तरह से बदल डाला।

उसके बाद सन 1320 से 1412 तक तुगलक वंश का शासन चला और लगभग सन 1506 में लोदी वंश ने शासन मैं आ कर आगरा शहर की नींव रखी और सन 1525 में बाबर ने शासन भार संभाल कर मुगल वंश की स्थापना की।

उन्होंने सारे भारत तथा राजपूतों पर भी विजय हासिल करके एक बड़े से मुगल साम्राज्य की नींव रखी और उसके बाद हुमायुं के थोड़े समय के शासन के बाद अकबर शासन भार मैं आकर कला, तथा स्थापत्य के क्षेत्र में पूरी बढ़ोतरी हासिल की।

मुगल साम्राज्य अकबर के शासन काल के दौरान राज्य मूलतः धर्म निरपेक्ष तथा सांकृतिक एकता को प्रोत्साहित करने वाला राज्य बन गया। इन अवधि में सम्राट जहांगीर और शाहजहां इन दो शासकों के कुशल नेतृत्व में रहा और इन दो शासकों ने आकबर के प्रसार किए गए प्रशासनिक व्यवस्था को और भी प्रसार किया। शाहजहां के बाद भक्तिकाल की भी समाप्ति हो गईं और रीतिकाल का दौर शुरू हो गया।

आर्थिक तथा सामाजिक पृष्ठभूमि :-

केंद्रीकृत शासन व्यवस्था:-

भक्तिकाल मैं तु्कों के द्वारा भारत में शासन कायम करने से लेकर शाहजहाँ तक के राजनीतिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य केंद्रीकृत शासन व्यवस्या है। तुर्कों के पतन और मुगल साम्राज्य के स्थापित होने के बीच के कुछ वर्षों को छोड़ दें तो पूरा उत्तर भारत एक केंद्रीकृत शासन व्यवस्था के अधीन रहा।

कभी -कभी तो साम्राज्य का विस्तार दक्षिण भारत और बंगाल तक फैल गया। केंद्रीकृत और स्थिर शासन का अर्थ-व्यवस्था पर सबसे अच्छा प्रभाव पड़ता है।

तुर्कों ने शासन-व्यवस्था को सूचारू रूप से चलाने के लिए केंद्रीय प्रशासन और स्थानीय प्रशासन की व्यवस्था की आय और व्यय का हिसाब रखने के लिए अधिकारियों की नियूक्तियाँ की गई। साम्राज्य को विभिन्न सुबों में बाँटा गया और फिर सूबों को भी विभाजित किया गया, जिसे उस समय शिक कहा जाता था।

शिक के नीचे परगने होते थे। गाँव में खुत, मुकहम, पटवारी के माध्यम से भू-राजस्व की वसूली की जाती थी। इस तरह केंद्र से लेकर गाँव तक एक सूचारू व्यवस्या कायम हुई। तुकों द्वारा स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था आगे के शासकों द्वारा भी कुछ सुधारों के साथ अपनाई जाती रही।

शहरी समाज एबं व्यापार :-

भक्तिकाल मैं तुर्कों के आने के बाद दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन है शहरों का उदय है। भक्तिकाल के दौरान दिल्ली, आगरा, बनारस, इलाहाबाद, पटना आदि कई शहरों का उदय हुआ जो आगे चलकर प्रमुख व्यापार केंद्र बने।

तुर्कों के साथ नई तकनीक भारत आई इनमें चरखा, धुनकी, रहट, कागज, चुम्बकीय कुतुबनुमा, समय-सूचक उपकरण, घुड़सवार सेना, प्रौद्योगिकी प्रमुख हैं। नई तकनीकों का प्रभाव उद्योग तथा व्यापार पर पड़ा। चरखे के आने से वस्त्र उद्योग में काफी बढ़ोतरी हुई।

कारीगर की क्षमता बढ़ जाने से वस्त्र उद्योग भारत का सबसे बड़ा उद्योग हो गया। धुनकी के आने से रुई से बीज निकालने की प्रक्रिया में भी तेजी आईजिससे वस्त्र के कारोबारी मैं बढ़ोतरी हुई । नील एवं अन्य वनस्पतिक रंजकों से अनेक चमकीले रंग बनाए जाते थे।

इस तरह देखें तो वस्त्र उद्योग से भारी संख्या में लोगों को रोज़गार मिला। मुहम्मद बिन तुगलक के कारखानों में लगभग 4000 रेशमकर्मी थे जो भिन्न-भिन्न प्रकार की पोशाकों और वस्त्रों की बूनाई और कसीदाकारी करते थे। कबीरदास का संबंध इसी उद्योग से था। क्बीर के साहित्य में कई रूपक बुनाई उद्योग से हैं। “झीनी झीनी बीनी चदरिया” इसका प्रसिद्ध उदाहरण है।

इस दौर में सड़कों के निर्माण का कार्य बड़े पैमाने पर हुआ । तुर्क शासक शेरशाह, मुगल शासक सभी ने सड़कें बनवार्यीं और सड़कों के किनारे सराय बनाकर यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था की। इसका सीधा प्रभाव व्यापार पर हुआ। इन शासकों ने व्यापार के विकास पर बहुत ध्यान दिया ।

उन्होंने व्यापारिक मागों पर सुरकषा की व्यवस्था की। राहजनी की घटनाओं को रोकने के लिए विशेष कानून बनाया गया, जिसका सख्ती के साथ पालन किया जाता था। इस काल में शुरू होने वाला नया उद्योग कागज निर्माण का था। इसका सीधा प्रभाव व्यापार पर हुआ।

हुंडी के माध्यम से सुरक्षित व्यापार का रास्ता खुल गया। इसके अतिरिक्त भवन-निर्माण उस काल में काफी हुआ। तुक्कों के आने के बाद से लेकर मुगल काल तक कईनगर बसे । किलों और महलों का निर्माण भी बहुत हुआ, जिसके परिणामस्वरूप राजमिस्त्री एवं पत्यर तराशियों का महत्व काफी बढ़ गया। कुल मिला कर देखें तो इस काल में नए शिल्पी वर्ग का उदय हुआ।

धार्मिक पृष्ठभूमि :-

साधारणत: भक्तिकाल के समय में इस्लाम स्वीकार करने के लिए बल का प्रयोग नहीं किया जाता था। धर्म परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार करने का कारण राजनीति और आर्थिक लाभ की आशा अथवा सामाजिक प्रतिष्छा प्राप्त करने की ललक धी।

कभी-कभी जब कोई प्रसिद्ध शासक या जनजाति का प्रधान धर्म परिवर्तन करता था तो उसकी प्रजा उसका अनुकरण करती थी। मुसलमान शासकों ने अनुभव किया था कि हिंदुओं में घार्मिक विश्वास इतना दृढ़ है कि बल प्रयोग द्वारा उसे नष्ट नहीं किया जा सकता था।

मुसलमानों की उस समयकम जनसंख्या इसका प्रमाण है।हिंदू धर्म का इस्लाम से संपर्क तुर्कों के आने से बहुत पहले आरंभ हो चुका था। तुर्कों के भारत आगमन के बाद यह प्रक्या तेज हो गई। हिंदू और मुसलमान दोनों में कुछ कट्टर लोग घर्माधिता फैला रहे थे।

वे लोग दोनों धमों के बीच आभासित होने वाली परस्पर विरोधी प्रकृति को रेखाकित कर रहे थे। इस सबके बावजूद पारस्परिक सामंजस्य और मेल-मिलाप की धीमी प्रक्रिया आरंभ हुई। यह प्रक्रिया वास्तुकला, साहित्य, संगीत, आदि क्षेत्रों में अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रही थी।

आगे चलकर यह प्रक्रिया धर्म के क्षेत्र में भक्ति-आदोलन और सूफ़ीवाद के रूप में दिखाई देने लगी। यह प्रक्रिया 15वीं सदी में तेजी से चली और मुगल काल (16वीं-17वीं सदी) में काफी प्रबल हो गई।

इतना होते हुए भी यह मान लेना गलत होगा कि टकराव खत्म हो गया था। बल्कि मेल-मिलाप की प्रक्रिया एवं टकराव साथ-साथ चलते रहे। कुछ शासकों के काल में मेल-मिलाप की इस प्रक्रिया को धक्का लगता था, जबकि कुछ अन्य शासकों के काल में अधिक तेजी से इसका विकास होता था।

यह टकराव और मेल मिलाप विशेषाधिकारी एवं शक्तिशाली लोगों तथा मानवतावादी विचारों से प्रभावित आम जनता के बीच संघर्ष का रूप था।

भक्तिकाल हिन्दी साहित्य के स्वर्णयुग :-

अपने रचनाओं के कारण भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल काहा जाता है। इसके अलावा भी कुछ और बिचरें हैं जो की भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णकाल कहलाने का कथा को यथार्थ साबित करती है ।

भक्ति काल के कवियों की प्रथम विशेषता यह है कि उन्होंने कोई दबाव में रचना नहीं की।आदि काल और रीतिकाल के कवि मुख्य रूप से दरबारी थे क्योंकि वे अपने आश्रयदाताओं के मनोरंजन के लिए काव्य-रचना किया करते थे।वे अपने मार्मिक भावों की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं कर सकते थे।

पर उनके विपरीत भक्ति कालीन कवियों को राजाश्रय की चिंता नहीं रहती थीऔर न ही उन्हें प्राकृत जन का गुणगान करना पड़ता था। इन कवियों ने स्व रचित काव्य से अपने हृदय का रस घोलकर उनको अपने इच्छानुसार गान किया है जिसमे भक्ति को बोहोत बड़ा श्रेय जाता है।

भक्तिकाल की द्वितीय विशेषता यह है कि इन रचनाओं को अपने देश तथा माटी के रक्षा के हेतु लिखा गया था। क्योंकि भक्तिकाल के प्रारम्भिक काल में सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिस्थितियां बड़ी ही भयावह थी और इन्हीं विषम परिस्थितियों में देश और समाज की रक्षा करने वाला यह भक्तिकालीन साहित्य निश्चय ही उच्च कोटि का माना जाना चाहिए।

आप कह सकते है की भक्तिकाल के कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा, रसखान आदि कवियों ने अपने प्रेरणादायक रचनाओं द्वारा देश के जनताओं को जागृत कर देश को पूर्ण रूप से बचा लिया।

भक्तिकाल की तीसरी विशेषता इसके भाव पक्ष और कला पक्ष का दोनों परिप्रेक्ष से उत्तम होना।सूर और तुलसी ने उत्तम भाव अपनी रचनाओं में दर्शाये है, वे अन्यत्र दुर्लभ है।मानव स्वभाव के जैसे सुंदर चित्र इनकी रचनाओं में सहज सुलभ है, वैसे आपको कहीं नही मिलेंगे। रस और अलंकार की दृष्टि से इस काल की रचनाओं में उच्च कोटि के काव्य के दर्शन होते हैं।

इस काल की चौथी विशेषता इसकी संगीतात्मकता है। सर्वप्रथम हिंदी में गीति-काव्य की रचना भक्तिकाल में ही हुई। जो की गीतिकाव्य के लिए सबल आत्म विश्वास आवश्यक है और यह गुण इस काल के कवियों में पूर्ण रूप में पाया जाता है।

इस काल की कविता की पाँचबीं विशेषता यह है कि इसके द्वारा भारतीय संस्कृति और आचार-विचार की पूर्ण रूप से रक्षा की गई है।मुसलमानों के शासन-काल में जब हिन्दू धर्म पर चारों तरफ से आक्रमण हो रहे थे तब भक्ति काव्य द्वारा हिन्दू जाति और धर्म की रक्षा हुई।भक्त कवियों ने हिंदुओं को अपने आचार-विचार पर दृढ़ रहने के हेतु अपने कविताओं के माध्यम से प्रेरित किया।

अतः इन सभी विशेषताओं के तहत भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य के स्वर्णयुग कहना यथार्थ है।

इन्हें भी देखें :- हिन्दी साहित्य का इतिहास, कालबिभाजन, नामकरण और चार युग

भक्तिकाल का विभाजन (Bhaktikaal ka bibhaajan):-

भक्तिकाल का विभाजन तथा भक्तिकाल के रचनाओं के तहत दो वर्ग मैं किया गया है :-

1. सगुण काब्याधारा 2. निर्गुण काब्यधारा

निर्गुण काब्यधारा के दो शाखाएं है :1. संत काब्यधारा 2. सूफी काब्यधारा

सगुण काब्याधारा के दो शाखाएं है :1. रामभक्ति काब्यधारा 2. कृष्णभक्ति काब्यधारा

निर्गुण काब्यधारा (Nirgun kavyadhaara):-

निर्गुण काब्यधारा के काव्य में ईश्वर के निराकार रूप को विश्वास किया जाता है । निर्गुण भक्ति का मार्ग ज्ञानमर्गी है, जिसमे जाती, बर्नभेद तथा छुआछूत की कोई स्थान ही नही था। निर्गुण भक्ति के लिए गुरु की एक विशेष महत्व है, क्योंकि उनके मुताबिक प्रेम के बिना भक्ति संभव नहीं है ।

निर्गुण भक्ति के राम गुणहीन है, मानवीय गुणों से युक्त है पर वे अवतार ग्रहण नहीं करते या लीला नहीं करते पर वे कृपालु, दयाबान और करुणाकार भी है।

निर्गुण संत काव्यधारा के कुछ प्रमुख कवि (Nirgun Kabyadhaara Ke Pramukh Kavi):-

भक्तिकाल के निर्गुण काव्य धारा के दो शाखाएं है :- संत काव्यधारा और सूफि काव्यधारा। संत काव्य धारा मुख्य रूप से ज्ञानमार्गी और सूफी काव्यधारा प्रेममार्गी धारा को अनुशारं करते है यानि इस धाराओं के कवि मुख्यतः उसी काव्यरूप से काव्य रचना करते है। नीचे संत काव्य धारा के कुछ प्रमुख कविओं के बारे मैं आलोचना किया गया है।

कबीरदास (Kabirdas)(1398 से 1518) :-

कबीरदास के जन्म और माता-पिता को लेकर बहुत विवाद है। लेकिन यह स्पष्ट है कि कबीर जुलाहा थे, क्योंकि ये उन्होंने कई बार अपने कविताओं में उल्लेख किया है। कहा जाता है कि वे विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसे लोकापवाद के भय से जनमते ही काशी के लहरतारा ताल के पास फेंक दिया गया था।

अली या नीरू नामक जूुलाहा बच्चे को अपने यहाँ उठा लाया। इस प्रकार कबीर ब्राह्मणी के पेट से पैदा हुए थे, लेकिन उनका पालन-पोषण जुलाहे के यहाँ हुआ। बाद में वे जुलाहा के रूप मैं ही प्रसिद्ध हुए। कबीर की मृत्यु के बारे में भी कहा जाता है की हिंदू उनके शव को जलाना चाहते थे और मुसलमान उन्हें दफ़नाना चाहते थे।

इस पर विवाद हुआ, किंतु पाया गया कि कबीर का शव अंतर्धान हो गया है। वहाँ कुछ फूल पड़े मिले। उनमें से कुछ फूलों को हिंदुआ ने अग्नि के हवाले किया और कुछ पफूलों को मुसलमानों ने जमीन में दफना दिया। कबीर की मृत्यु मगहर ज़िला बस्ती में सनु् 1518 में हुई। कबीरदास जी “स्वामी रामानंद” के शिष्य के रूप में विख्यात है, किंतु उनके “राम” रामानंद के “राम” नहीं है।

इसके अलावा शेख ताकि नाम के सूफी संत को भी कबीर दास जी के गुरु के रूप मैं माना जाता है पर इसकी पुष्टि नहीं होती। कबीर के काव्य मैं वेदांत का अद्धैत, नाथरपथियों की अंतस्साधनात्मक रहस्य- भावना, हठयोग, कुंडलिनी योग,सहज साधना, इस्लाम का एकेश्वरवाद सब कुछ मिलता है।

अंतस्साधनात्मक पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग उन्होंने खुब किया है, साथ ही अहिंसा की भावना और वैष्णव प्रतिवाद भी। कबीर की वाणी का संग्रह बीजक कहलाता है। इसके तीन भाग हैं – 1. रमैनी, 2. सबद और 3. साखी। रमैनी और सबद में गेय पद हैं, साखी दोहों में है।

रमैनी और सबद ब्रजभाषा में हैं, जो तत्कालीन मध्यदेश की काव्य-भाषा थी। साखियों में पूर्वी का प्रयोग अधिक है, जिसे स्थानीय या क्षेत्रीय प्रभाव मानना चाहिए। कबीर साहसपूर्वक जन – बोली के शब्दों का प्रयोग अपनी कविता करते हैं।

बोली के ठेठ शब्दों के प्रयोग के कारण ही कबीर को ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा जाता है। उनकी अनंत तेजस्विता उनकी भाषा-शैली में भी प्रकट है। कबीर तथा अन्य निर्गुण संतों की उलटबॉसियाँ प्रसिद्ध हैं।उलटबाँसियों का पूर्व रूप हमें सिद्धों की ‘संधा भाषा’ में मिलता है।

उलटबॉसियाँ अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों को असामान्य प्रतीकों में प्रकट करती हैं। वे वर्णाश्रम व्यवस्था को मानने वाले संस्कारों को धक्का देती हैं। इन प्रतीकों का अर्थ खुलने पर ही उलटबासियौँ समझ में आती हैं।

रैदास (Raidas)(1388 – 1518):-

मध्ययुगीन साधकों में संत रैदास अथवा रविदास के जीवनकाल की तिथि के विषय में कुछ निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता। इनके समकालीन धन्ना और मीरा ने अपनी रचनाओं में बहुत श्रद्धा के साथ इनका नामोल्लेख किया है। ऐसा माना जाता है कि ये कबीर के समकालीन थे।

रैदास की परिचई’ में उनके जन्मकाल का उल्लेख नहीं है। अत: समकालीन व्यक्तियों को प्रमाण मानकर कहा जा सकता है कि इनका जन्म संभवत: 15बीं शताब्दी में हुआ होगा।

रैदास की कविता में सामाजिक विषमता के प्रति विरोध है। उन्होंने वर्णवादी व्यवस्था की असमानता के प्रति आक्रोश प्रकट किया है। वह कविता में बार-बार अपने को चमार कहकर संबोधित करते हैं। यह एक प्रकार से कवि का प्रतिरोध ही है।

जाति-प्रथा और कर्मकाण्ड को उन्होंने तोड़ने का उपदेश दिया। उनकी कविता में मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा आदि बाह्य विधान का विरोध किया गया है। रैदास ने जन सामान्य को निश्छल भाव से भक्ति की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न किया ।

संत दादूदयाल (Sant Dadudayal)(1601- 1660):-

दादू पंथ के प्रवेतक दादू दयाल का जन्म गुजरात प्रदेश के अहमदाबाद नगर में सन 1601 में माना जाता है और मृत्यु सन 1660 को राजस्थान प्रान्त के नराणा गाँव में हुई। ये जाति के धूनिया थे। दादू को परम ब्रह्म सम्प्रदाय’ का प्रवर्तक माना जाताहै।

बाद में इस परमब्रह्म संप्रदाय को “दादूपंथ” के नाम से संबोधित किया गया। इनके गुरु कौन थे, इस विषय में कुद्छ अधिक ज्ञात नहीं है। इनकी आध्यात्मिक अनुभूति बड़ी तीर थी। इनकी बानियों का संग्रह “हरडेवाणी” के नाम से जगन्नाथ दास ने प्रस्तुत किया।

इनके प्रमुख शिष्य रज्जब जी ने इसमें पायी जानेवाली त्रुटियों को सुधार कर इसे ‘अंगबधु’ नाम से प्रस्तुत किया।

दादू जी की एक अन्य रचना “कायाबेलि” है। इन रचनाओं में दादू के संत हृदय की स्पष्ट छाप मिलती है। इनकी बानी में ईश्वर की सर्वव्यापकता, सद्गुरु महिमा, आत्मबोध, संसार की अनित्यता का निरूपण हुआ है। रचानाओ के मुताबिक संत दादू की विचारधारा कबीर से प्रभावित है।

परन्तु दादू की कविता में टकराहट का भाव नहीं मिलता है।उन्होंने सगुण और निर्गुण की बौद्धिक टकराहट से कविता को दूर रखा। उनकी कविता में प्रेमभाव की अभिव्य्याक्ति है। यह प्रेम निर्गुणनिराकार ईश्वर के प्रति है ।

गुरुनानक देव जी (Gurunanak dev ji) :-

नानक पंथ के प्रवर्तक गुरुनानक देव जी का जन्म सं. 1526 के वैशाख मास की तृतीया को तिलवंडी ग्राम में हुआ था। गुरुनानक देव की बचपन से ही अध्यात्म में रुचि थी। अत: वै ऐसे मत की ओर सहज रूप से आकर्षित हो गए जिसकी उपासना पद्धति साम्प्रदायिक न हो।

कबीर दास प्रवर्तित निर्गुण संतमत इन्हेंअपने विचारों के अनुकल जान पड़ा। इनकी बानियों का संग्रह ‘आदिग्रंथ’ के महला’ नामक खंड में हुआ है। इनमें शब्द’ और सलोकु’ के साथ, ‘जपुजी’, ‘आसादीवार’, ‘रहिरास’ एवं सोहिला’ का भी संग्रह है।

इनकी रचनाओं में धार्मिक विश्वास, नाम स्मरण, एकेश्वरवाद, परमात्मा की सर्वब्यापकता, विश्व प्रेम, नाम की महत्ता आदि परिचय मिलता है।

निर्गुण भक्ति काव्य प्रेममार्गी शाखा :-

इस भक्तिकाब्याधार के कवियों को सूफी कवि कहजाता है। सुफी काव्यधारा ने अपने उदार मानवीय दर्शन के द्वारा ही अपने रचनाओं को वर्णन किया । इस कविता का न केवल अंतव्य्यापी-सूत्र वरन् उसकी परंपरा भी इस कथन की पुष्टि करती है।

“प्रेम की पीर” की यह काव्य-परंपरा अपनी विकास-प्रक्रिया के दौरान हर उदार मानवीय एवं कवि हुदय को अपने में इस कदर समाती चली गई, बिना संप्रदाय, मत या दर्शन की परवाह किए मानवीय आवेगों ने संकीर्णताओं को बहा दिया और मानवतावादी दृष्ट की एक दृढ़ नींव की स्थापना की।

हर स्तर पर व्याप्त बाह्याचार एवं कर्मकांडों की दुनिया में यही उदार दृष्टि इस काव्यधारा का महत्वपूर्ण प्रदेय है जो इसके कालजयी होने का प्रमुख कारण भी है। अनेकों के द्वारा इस “सूफी” शब्द के अनेक अर्थ निकलते है पर असल में इस शब्द का अर्थ चबूतरा या पढ़ी माना जाता है ।

इन्हें भी देखें :- आदिकाल की संपूर्ण जानकारी

निर्गुण प्रेममार्गी शाखा के प्रमुख कवि (Nirgun premmargi shakha ke pramukh kavi):-

नीचे निर्गुण काव्यधारा के प्रेम मार्गीशाखा के कुछ प्रमुख कविओं के बारे मैं आलोचना किया गया है।

कुतुबन (Kutbun):-

कुतुबन ने मिरगावत की रचना 1503 – 04 में की थी। ये सोहरावर्दी पंथ के ज्ञात होते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ये जोनपुर के वादशाह हसैन शाह के आश्रित थे। मिरगावत में नायक मुगी- रूपी नायिका पर मोहित हो जाता है और उसकी खोज में निकल पड़ता है।

अंत में शिकार खेलते समय मिंह के द्वारा मारा जाता है। यह रचना अनेक कथानक-रूढ़ियों से युक्त है और इसकी भाषा प्रवाहमयी है।

मल्लिक मुहम्मद जायसी (Mallik muhammad jayasi):-

हिंदी में सृफ़ी काव्य परंपरा के श्रेप्ठ कवि के रूप मैं मलिक मृहम्मद जायसी माने जाते हैं। ये अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे, इसलिए इन्हें जायसी कहा जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मुताबिक जायसी अपने समय के सिद्ध फ़कीरों में गिने जाते थे।

अमेठी के राजघराने में इनका बहत मान था। इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं- अखरावट, आखिरी कलाम और पद्यावत। कहते हैं कि एक नवोपलब्ध काव्य “कन्हावत” भी इन्हीं की रचना है। किंतु कन्हावत का पाठ प्रामाणिक नहीं लगता।

अखरावट में देवनागरी वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर सैद्धोंतिक बातें कही गई हैं। आखिरी कलाम में कयामत का वर्णन है। कवि के यश का आधार है पद्मावत। इसकी रचना कवि ने 1520 के आसपास की थी। ।

मंझन (Manjhan):-

मंझन ने 1545 में मधुमालती की रचना की थी। ये जायसी के परवर्ती थे। मधुमालती के कथानक में नायक को अप्सराएँ उड़ाकर मधुमालती की चित्रसारी में पहुँचा देती हैं और वहीं नायक – नायिका को देखता है। इसमें मनोहर और मधुमालती की प्रेम-कथा के समानांतर प्रेमा और ताराचंद की भी प्रेम – कथा चलती है। इसमें प्रेम का बहुत उच्च आदर्श सामने रखा गया है।

सूफ़ी काव्यों में नायक की प्रायः दो पंक्तियां होती हैं, किन्तु इसमें मनोहर अपने द्वारा उपकृत प्रेमा से बहन का संबंध स्थापित करता है। इसमें जन्म – जन्मांतर के बीच प्रेम की अखंडता प्रकट की गई है। इस दृष्टि से इसमें भारतीय पुनर्जन्मवाद की बात कही गई है। लोक के वर्णन द्वारा अलोकिक सत्ता को संकेत सभी सूफ़ी काव्यों के समान इसमें भी पाया जाता है।

राम भक्ति काव्य धारा (Ram bhakti kavya dhaara hai):-

भक्तिकाल मैं राम की उपासना निर्गुण और सगुण, दोनों भक्त करते रहे हैं, कबीर और तुलसी, दोनों करते हैं, बस अंतर ‘राम’ के स्वरूप तथा आराध्य को लेकर है। कबीर के राम दशरथ के सुत नहीं, किंतु तुलसी के राम दशरथ के सुत हैं।

तुलसीदास जी के राम अवतार ग्रहण करके, मनुष्यताबाद को जीवित रखने का सशरीर करते है वही कबीरदास जी के राम निर्गुण स्वरूप के है, जिनका कोई शरीर नहीं है। इसी सगुण शरीर राम के आराधना के केंद्रित भक्तिकाल के कुछ प्रसिद्ध कवियों ने अप्रतिम रचनाएं की है।

रामभक्ति काब्यधारा के प्रमुख कवि (Rambhakti kavyadhaara ke pramukh kavi) :

तुलसीदास (Tulsidas):-

गोस्वामी तुलसीदास हिंदी के अत्यंत लोकप्रिय कवि हैं। उन्हें हिंदी का जातीय कवि कहा जाता है। उन्होंने हिंदी क्षेत्र की मध्यकाल में प्रचलित दोनों कान भाषाओं- ब्रजभाषा और अवधी में समान अधिकार से रचना की है। तुलसीदास जी का जन्म 1497 में हुआ था। तुलसीदास मध्यकाल के उन काबियों में से थे, जिन्होंने अपने बारे में जो कुछ लिखा है, बो बहुत कम तो है पर बहुत काम का है।

तुलसीदास ने अपने जीवन और अपने युग के विषय में हिंदी के किसी भी मध्यकालीन कवि से अधिक लिखा है। तुलसी राम के सगुण भक्त थे, लेकिन उनकी भक्ति में लोकोन्मुखता थी। वे राम के अनन्य भक्त थे। राम ही उनकी कविता विषय हैं।

नाना काव्य-रूपों में उन्होंने राम का ही गुणगान किया है, किंतु उनके राम परमब्रह्म होते हुए भी मनुज हैं और अपने देशकाल के आदशों से निर्मित हैं।

तुलसी के राम ब्रह्म भी हैं और मानव भी। रामचरितमानस में अनेक मार्मिक अवसरों पर तुलसी पाठक को टोककर सावधान कर देते हैं कि राम लीला कर रहे हैं, इन्हें सचमुच मनुष्य न समझ लेना। कारण यह है कि राम ब्रह्म होते हुए भी अवतार ग्रहण करके मानवी लीला में प्रवृत्त हैं।

वस्तुतः रामचरितमानस के प्रारंभ में ही तुलसी ने कौशलपूर्वक राम के ब्रह्मत्व और मनुजत्व की सह -स्थिति के विषय में पार्वती द्वारा शंकर से प्रश्न करा दिया है और रामचरितमानस की पूरी कथा शंकर ने पार्वती को इस शंका के निवारणार्थ सुनाई है।

एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने मध्यकाल में व्यवह्त प्रायः सभी काव्य-रूपों का उपयोग किया है। केवल तुलसीदास की ही रचनाओं को देखकर समझा जा सकता है कि मध्यकालीन हिंदी साहित्य किन काव्य-रूपों में रचनाएँ होती थीं।

उन्होंने वीरगाथा कारव्य की छप्पय- पद्धति, विद्यापति और सूरदास की गीत-पद्धति, गंग आदि कवियों की कवित्त-सवैया पद्धति, रहीम के समान दोहे और बरवै, जायसी की तरह चौपाई- दोहे के क्रम से प्रबंध-काव्य रचे।

पं. रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में, “हिंदी काव्य की सब प्रकार की रचना-शैली के ऊपर तुलसीदास जी ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।” गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 12 ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं- दोहावली, कवित्त रामायण (कवितावली), गीतावली, रामचरितमानस, रामाज्ञाप्रश्न, विनयपत्रिका, रामललानहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपिनी एवं श्रीकृष्णगीतावली।

नाभादास (Nabhadas):-

कृष्णदास पयहारी के शिष्य प्रसिद्ध भक्त नाभादास थे। नाभादास की रचना भक्तमाल का हिंदी साहित्य में अभूतपूर्व ऐतिहासिक महत्त्व है। इसकी रचना नाभादास ने 1585 के आसपास की। इसको टीका के रूप मैं प्रियादास ने 1712 में लिखी। इसमें 200 भक्तों के चरित 316 छ्पयों में वर्णित हैं।

इसका उदेश्य तो जनता में भक्ति का प्रचार था, किंतु आधुनिक इतिहासकार्रों के लिए यह हिंदी साहित्य के इतिहास का महत्त्वपूर्ण आधार- ग्रंथ सिद्ध हुआ। अवश्य ही इसमें भक्तों के चरित्र का वर्णन चमत्कारपूर्ण है, किंतु उसे मध्यकालीन वर्णन शैली के रूप में ग्रहण करना उचित है। इन चमत्कारिक वर्णनों से तत्कालीन जनता की मानसिकता का पता चलता है।

स्वामी रामानंद(Swami Ramanand):-

वैषणब संप्रदाय के स्वामी राघबानंद के शिष्य के रूप मैं स्वामी रामानद प्रसिद्ध थे। उनका जन्म सन 1400 और मृत्यु सन 1470 में हुआ था। भक्ति को सब का आस्था मानते हुए उन्होंने नम्नबर्ग के भक्ति को भी भक्ति के मार्ग में दीक्षित करवाये । उनके शिष्यों में कबीर, रैदास, थाना, पीपा आदि थे । उन्होंने “श्रीरामार्जुन पद्धति” के नाम से संस्कृत में एक प्रमुख ग्रंथ की रचना की है। उनके भक्तिमार्ग के प्रभाव राम भक्ति काव्य धारा में साफ दिखाई देता है। तुलसी दास जी भी इनके विचारधारा से प्रभावित थे।

इन्हें भी देखें :- सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य की सम्पूर्ण जानकारी

कृष्ण भक्ति काव्य धारा (Krushn bhakti kavya dhaara):-

महाप्रभु वल्लभाचार्य ने कृष्ण- भक्तिकाल की काव्यधारा की दार्शनिक पीठिका तैयार की और देशाटन करके इस भक्तिमार्ग का प्रचार किया ।भागवत धर्म का उदय प्राचीनकाल में ही हो गया था। ग्रंथ श्रीमद्भागवत के व्यापक प्रचार से माधुर्य भक्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ।

वल्लभाचार्य ने दार्शनिक प्रतिपादन और प्रचार से उस रास्ते को सामान्य जन-सुलभ बनाया। वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित मार्ग को “पुष्टिमार्ग” कहते हैं।

वल्लभाचार्य के अनुसार यह सारी सृष्टि लीला के लिए ब्रह्म की आत्मकृति है। जीव व्रह्म का अंश है। महाप्रभु वल्लभाचार्य परम विद्वान, सत्संगी एवं परदुखकातर व्यक्ति थे। उन्होंने देश के विभिन्न क्षेत्रों में घूमकर जन-संपर्क और शास्त्रार्थ किया।

श्रीकृष्ण की जन्मभूमि में गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी का विशाल गोवर्धन मंदिर बनवाया और वहीं अपनी गह्दी भी स्थापित की। इस मंदिर में श्रीकृष्ण की जो उपासना होती थी उससे हिंदी साहित्य की कृष्ण-भक्ति धारा का बहुत गहरा संबंध है।

कृष्ण काव्य धारा के प्रमुख कवि (Krushna kavya dhaara ke pramukh kavi) :-

सूरदास (Surdas):-

हिंदी साहित्य में श्रेष्ठ कृष्णभक्त कवि सूरदास का जन्म 1478 के आसपास हुआ था और मृत्यु अनुमानतः 1583 के आसपास हुई। इनके बारे में भक्तमाल और चौरासी वैष्णवन की वार्ता से थोडी-बहत जानकारी मिल जाती है। भक्तमाल में इनकी भक्ति, कविता एवं गु्णों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है। चौरासी वैष्णवन की वार्ता के अनुसार वे आगरा और मथ्रा के बीच साधू या स्वामी के रूप में रहते थे।

वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे। कालांतर श्रीनाथ जी के मंदिर निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौप दिया था।उनके रचयिता कुछ प्रमुख ग्रंथ है : सूरसागर, सुरसाराबली, भ्रमरगीत, साहित्यालहरी, गोबर्धनलीला, सरपचीसी, सूरसागर सार आदि ।

नंददास (Nand das):-

नंददास सोलहवीं शती के ओतिम चरण में विद्यमान थे। दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता के अनुसार ये तुलसीदास के भाई थे, किंतु अब यह बात प्रामाणिक नहीं मानी जाती।इससे प्रकट होता है कि इनके काव्य का कला-पक्ष महत्त्वपूर्ण है।

इनकी प्रमुख कृतियों के नाम इस प्रकार हैं- रासपंचाध्यायी, सिद्धांत पंचाध्यायी, भागवत् दशम स्कंध, रुक्मिणीमंगल, रूपमंजरी, रसमंजरी, दानलीला, मानलीला आदि। इनके यश का आधार रासपंचाध्यायी है। रासपंचाध्यायी भागवत् के ‘रासपंचाध्यायी’ अंश पर आधारित है। यह रोला छंद में रचित है।

मीराबाई (Meerabai):-

हिंदी भक्तिकालीन साहित्य की श्रेष्ठ कवयित्री मीरा का जन्म 1516 में हुआ था। इनके व्यक्तित्व के इर्द-गर्द अनेक किंवदतियाँ गढ़ ली गई हैं। ये बाबर से मोर्चा लेने वाले महाराणा सॉगा की पुत्रवधू और महाराणा कुमार भोजराज की पत्नी थीं।

कहा जाता है कि विवाह के कुछ वर्षों के बाद जब इनके पति का देहांत हो गया तो ये साधू-संतोके बीच भजन-कीर्तन करने लगीं।

इस पर इनके परिवार के लोग, विशेषकर देवर राणा विक्रमादित्य बहुत रुष्ट हुए। उन्होंने इन्हें नाना प्रकार की यातनाएँ दीं। उन्होंने इन्हें विष तक दिया जिससे खिन्न होकर इन्होंने राजकल छोड़ दिया। इनकी मृत्यु 1546 में द्वारिका में हुई। मीरा भक्त कवि हैं।

उनकी व्याकुलता एवं वेदना उनकी कविता में निश्छल अभिव्यक्ति पाती है। मीरा की कविता में रूप, रस और ध्वनि के प्रभावशाली बिंब हैं। वे अपनी कविता में निहित वेदना को श्रोताओं और पाठकों के अनुभव के माध्यम से संघोषित करती है। उनकी ग्रंथो मे राग गोविन्द, राग सोरठ, मीराबाई की मल्हार आदि प्रमुख है।

कृष्णदास (Krushnadas):-

कृष्णदास जन्मना शूद्र होते हुए भी वल्लभाचार्य के कृपा-पात्र थे और मदिर के प्रधान हो गए थे। इनका रचा हुआ जुगमान चरित नामक ग्रथ मिलता है। परमानंट दास (16वीं शती) के 835 पद परमानंद सागर में संकलित हैं। इनकी कवितारँ सरसता के कारण प्रसिद्ध हैं।

कुंभनदास परमानंद दास के समकालीन थे। ये अत्यंते स्वाभिमानी भक्त थे। इनका कोई प्रामाणिक ग्रंथ नहीं मिलता बस फुटकल पद ही मिलते है।

रसखान (Raskhaan):-

रसखान का वर्णन दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता में मिलता है और इसीके वर्णन मैं प्रकट है की ये लौकिक प्रेमी कृष्ण प्रेम की और उन्मुख हुए। रसखान ने कृष्ण का लीलागान गेयपदों में नहीं, सवैयों में किया है। रसखान को स्वेया छंद सिद्ध था।

जितने सरस, सहज, प्रवाहमय सवैये रसखान के हैं, उतने शायद ही किसी अन्य कवि के हों। रसखान का कोई ऐसा सवैया नहीं मिलता जो उच्च स्तर का न हो। उनके सवैयों की मारमिंकता का बहुत बड़ा आधार दृश्यों और बाह्यांतर स्थितियों की योजना में है।

वही योजना रसखान के सवैयों के ध्वनि-प्रवाह में भी है। ब्रजभाषा का ऐसा सहज प्रवाह अन्यंत्र बहुत कम मिलता है।

रसखान सूफ़ियों का हृदय लेकर कृष्ण की लीला पर काव्य रचते हैं। उनमें उल्लास, मादकता और उत्कृष्टता, तीनों का संयोग है। ब्रज- भूमि के प्रति जो मोह रसखान की कविताओं में दिखलाई पड़ता है, वह उनकी विशेषता है। रसखान प्रेम- भावना की अछूती स्थितियों की योजना करते हैं।

इसलिए रसखान के यहाँ दूसरों की कही बातें कम मिलेगी। रसखान के प्रसिद्ध कृति में प्रेमबाटिका, जिसका रचनाकाल 1614 माना जाता है।

रहीम (Rahim):-

रहीम जी का पूरा नाम अबुर्रमान खानखाना था और उनका जन्म जन्म 1556 के आसपास हुआ था। उनकी गणना कृष्णभक्तकवियों में ही की जा सकती हैं। रहोम ने बरव नाविका भेद् भी लिखा है, ज़िससे उनकी यह रचना तो नश्चित रूप से रीति काव्य की कोटि में रखी जाएगी, किंतु रहीम को भक्त हृदय मिला था।

उनके भक्तिपरक दाहे उनके व्यक्ति और रचनाकार का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं। कहते हैं, उनके मित्र तुलसी ने बरवै रामायण की रचना रहीम क “बरवे” काव्य से उत्साहित होकर की थी।

रहीम सम्राट अकबर के प्रसिद्ध सेनार्पति बैरम खाँ के पूत्र थे। वे स्वयं योद्धा थे। रहीम अरबी, फ़ारसी, संस्कृत आदि कई भाषाओं के जानकार थे। वे बहुत उदार, दानी और करुणावान थे। अंत में उनकी मुगल दरखार से नहीं पटी, और अनुश्रुति के अनुसार उनके अंतिम दिन बड़े ही तंगी में गुजरे।

रहीम की अन्य रचनाएँ हैं – रहीम दोहावली या सतसई, शृंगार सोरठा, और रासपंचाध्यायी। उन्होंने खेल कौतृकम् नामक ज्योतिष का भी ग्रंथ रचा है, जिसकी भाषा संस्कृत- फ़ारसी मिश्रित है। रहीम ने तुलसी के समान अवधी और ब्रज, दोनों में अधिकारपूर्वक काव्य-रचना की है।

अक्सर पूछे जाने वाल्व सवाल (FAQs):-

भक्तिकाल का अर्थ क्या है?

भक्तिकाल के काव्यों की प्रमुख कारण भगवान की भक्ति से उनकी कृपा और अनुग्रह की प्राप्ति करना।

भक्तिकाल की शुरुआत कब हुई?

भक्तिकाल का आरम्भ अधिकांश विद्वान सन् 1350 से मानते हैं, किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी इसे सन् 1375 से मानते है।

भक्तिकाल के प्रमुख कवि कौन है?

भक्तिकाल के प्रमुख कविओं मैं कबीर, रैदास, नानक, दादूदयाल, सुंदर दास, मलूकदास, कुतबन, मंझन, जायसी, उसमान, सूरदास, परमानंददास, कुंभनदास, नंददास,  हरिदास, रसखान, ध्रुवदास, मीराबाई, तुलसीदास, अग्रदास, नाभादास आदि आते है।

भक्तिकाल के प्रथम कवि कौन है?

भक्तिकाल के प्रथम कवि निर्गुण भक्ति काव्यधार के संत कबीरदास को माना जाता हैं।

भक्तिकाल का काल बिभाजन ?

भक्तिकाल का विभाजन तथा भक्तिकाल के रचनाओं के तहत दो वर्ग मैं किया गया है :- सगुण काब्याधारा और निर्गुण काब्यधारा। निर्गुण काब्यधारा के दो शाखाएं है : संत काब्यधारा और सूफी काब्यधारा तथा सगुण काब्याधारा के दो शाखाएं है : रामभक्ति काब्यधारा और कृष्णभक्ति काब्यधारा

भक्तिकाल की विशेषता क्या है?

भक्तिकाल के प्रमुख विशेषता भक्तिपरक काव्य है।

भक्तिकाल मैं काव्यों की भाषा क्या है?

भक्तिकाल के कवों की प्रमुख भाषा ब्रजभाषा है ।

भक्तिकाल मैं निर्गुण भक्ति क्या है?

निर्गुण भक्ति ईश्वर के निर्गुण रूप को उपासना करना है ।

भक्तिकाल मैं सगुण भक्ति क्या है?

सगुण भक्ति ईश्वर के सगुण रूप को उपासना करना है ।

अंतिम कुछ शब्द :-

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Wikipedia Page :- भक्तिकाल

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