प्रयोगवाद युग (Prayogvad Yug) ||हिन्दी साहित्य का इतिहास

प्रयोगवाद युग (Prayogvad Yug) :-

आधुनिक हिंदी कविता में ‘प्रयोगवाद’ का जन्म छायावाद की अतिशय अशरीरी कल्पना, सूक्ष्मतावादी सौंदर्य-बोध और एकांगिता के विरोध से हुआ। लैकिन अगर हम ऐतिहासिक दृष्टि से ‘प्रयोगवाद’ का आरम्भ को अनुमान लगाएं तो प्रयोगवाद का प्रारंभअजेय के सम्पादकत्व में निकलने वाले काव्य संग्रह तारसप्तक से हुआ।

तारसप्तक की भूमिका (Prayogvad Yug) :-

‘तारसप्तक’ में विविध विचारधाराओं के कवि एक साथ एकत्रित हुए जिनमें अज्ञेय को छोड़कर ज्यादातर कवि प्रगतिशील विचाराधारा के समर्थक थे। किंतु प्रयोगवाद नाम इस काव्य-प्रवृ्ति के विरोधियों द्वारा दिया गया है। Prayogvad Yug

‘प्रयोगवाद’ के कवियों ने ‘प्रगतिवाद’ पर दो आरोप साफ तौर पर लगाए –

  1. प्रगतिवाद, साहित्य का संकीर्णतावादी आंदोलन है जिसमें रचनाकार की स्वतंत्रता का अपहरण किया जाता है; और
  2. प्रगतिवाद, विषय-वस्तु पर अत्यधिक बल देकर विचारधारा की नारेबाजी का पफार्मूला अपनाता है।

इसमें साहित्य की कलात्मकता औ रूप-विधान की भयंकर उपेक्षा होती है। अज्ञेय ने प्रगतिवाद’ से असंतुष्ट होकर ‘व्यक्ति स्वातंत्र्य सिद्धान् की स्थापना’ का अभियान प्रयोगवाद’ में चलाया। प्रगतिशील साहित्य में साहित्येतर मूल्यों को स्थान मिल था – किंतु प्रयोगवाद’ साहित्यिक मूल्यों को केन्द्र में रखकर आगे बढा।

फलतः ‘प्रयोगवाद’ के अतिवाद से बचने के चक्कर में प्रयोगवाद’ स्वयं अपने ही अंतर्विरोधों अतिवादों का शिकार होकर रूपवाद (फारमलिज्) के जाल में फंसता गया जिससे उसे मुक्ति नयी कविता आंदोलन में मिली।

इसी समय काव्य में प्रयोग को आधार बनाकर एक आंदोलन नकेनवादियों या प्रपद्यवादियों ने खड़ा कर दिया। ‘प्र्योग’ शब्द अंग्रेजी के ‘एक्सपेरीमेण्ट’ का हिंदी पर्याय है और इसका संबंध विज्ञान के प्रयोग’ से न होकर आधुनिक चित्रकला के प्रयोग से है। Prayogvad Yug

आधुनिक चित्रकला के प्रवर्तक चित्रकार सेजा ने आपने चित्रों को प्रयोग’ कहा – फिर क्या था कि चित्रकला से यह प्रयोग’ शब्द साहित्य में आया और चल पड़ा। अन्यरथा ‘प्रयोग या प्रयोगवाद‘ का ‘एक्सपेरीमेन्टलिज्म’ जैसा कोई समानांतर आधार पश्चिम में भी नही है।

नकेनवादियों ने ‘प्रयोग’ को काव्य में साध्य और साधन, दोनों घोषित किया। लेकिन ‘प्रयोगवाद’ के काफी पीछे ‘नकेनवाद’ आंदोलन चला। नकेनवादी काव्य “प्रपद्यद्वादश-सूत्री” तथा “फक्किका” के साथ छपकर आया और अंत में “पस्पशा” के अंतर्गत “प्रयोगवाद” का वास्तविक आरंभ नलिन जी की कविताओं से घोषित किया गया । Prayogvad Yug

इसमें “प्रयोग दश सूत्री” देकर अज्ञेय जी के विचारों की खुली आलोचना की गई तथा “दो सूत्र’ कहते हैं कि

  1. “प्रयोगवाद स्तंत्र स्वतंत्र है;
  2. उसके लिए शास्त्र या बल निर्धारण नियम अनुपयुक्त है।”

लेकिन बिहार की भूमि से उठा यह काव्य – आंदोलन शेष हिंदी क्षेत्रों में भान्यता प्राप्त नहीं कर सका। नकेनवाद का भाव और व्यंजना स्थापत्य तथा “प्रपद्यवाद की दार्शनिक पृष्ठभूमि’ को ये रचनाकार स्वयं स्पष्ट नहीं कर सके।

फलस्वरूप नतीजा यह हुआ कि काव्य-आंदोलन एकदम किनारे पड़कर विलुप्त हो गया।

प्रयोगवादः उद्भव की पृष्ठभूमि : –

१९४३ मे अज्ञेय जी के संपादकत्त्व में ‘तार सप्तक’ प्रथम का संपादन हिन्दी कविता मे ‘प्रयोग’ प्रवृत्ति को लेकर, महत्त्वपूर्ण घटना रही है। वस्तुत: यह कालखंड अनेक नामों से जाना जाता है ‘प्रयोगवाद’, ‘प्रप्यवाद’, ‘नई कविता’ आदि ।

बिहार के तीन कवियों नलिनविमोचन, केशरी नारायण शुक्ल, नरेश ने ‘नकेनवाद’, या ‘प्रपद्यवाद’ का प्रवर्तन किया।

यह प्रयोगवाद का विरोधी होते हुए भी उसी की एक शाखा है। जिस पर अनेक विदेशी वादों का प्रभाव स्पष्ट रहा है। जिसमे प्रमुख है अति यथार्यवाद, प्रतीकवाद , बिंबवाद , दादावाद , अस्तित्व्वाद मनोविश्लेषण आदी। इसका मतलब यह है की हिन्दी साहित्य पर पाश्चात्यवादों का प्रभाव पड़ने लगा था, या यों भी कहा जा सकता है कि हिन्दी के कवि, कथाकार पाश्चातों की साहित्य प्रवृत्तियों का अनुकरण ‘प्रयोग’ कर रहे थे । Prayogvad Yug

इसके अलावा अगर हम तारसप्तक का वैशिष्ट्य को ही देखेन तो वह आदिकाल हो या भक्ति, रीति, छायावाद, प्रगतिवाद हो। कोई भी काल या काव्यांदोलन नये प्रयोग के बगैर स्थापित नहीं होता।

अज्ञेय ने कुछ नये और अनजाने कवियों को लेकर प्रथम सप्तक का प्रकाशन किया। जिसके कवि है-

प्रथम सप्तक में –

  1. अज्ञेय
  2. गजानन माधव मुक्तिबोध
  3. गिरिजाकुमार माथुर,
  4. प्रभाकर माचवे,
  5. नेमिचन्द्र जैन,
  6. भारत भूषण अग्रवाल,
  7. रामविलास शर्मा

दुसरे सप्तक में-

  1. भवानी प्रसाद मिश्र,
  2. शकुन्तला माथुर,
  3. हरिनारायण व्यास,
  4. शमशेर बहादूर सिंह,
  5. नरेश कुमार मेहता,
  6. रघुवीर सहाय,
  7. धर्मवीर

तीसरा सप्तक में-

  1. प्रयागनारायण त्रिपाठी,
  2. कीर्ति चौधरी,
  3. मदन वात्स्यायन,
  4. केदारनाथ सिंह,
  5. कुँवरनारायण,
  6. विजयदेव नारायण साही,
  7. स्वेश्वरदयाल सक्सेना

हम जानते है की उपर्युक्त सभी कवि ‘प्रयोगवाद’ काल में प्रकाशित’ तार सप्तक’ से हिन्दी जगत में आये परंतू गौर कि जानेवाली बात यह भी है कि परवर्ती काल में वे उसी के साथ प्रतिबध्द नहीं रहे। अज्ञेय ने मात्र ‘नये प्रयोगकाल’ का प्रवर्तन किया।

काव्य के वण्य विषय तथा शिल्प में कुछ नयापन लाया और नये प्रयोगधर्मीता से एक आंदोलन चलाया गया। अज्ञेय की कविता जिस समय – क्रोड की उपज है उसे ध्यान में रखकर ही प्रयोगवाद को जाना जा सकता है। इस पर कठोर दोषारोप करनेवाले बहत से प्रतिष्ठित आलोचकों ने इसके मूल्यहीन होने की घोषणा है।

अज्ञेय का व्यक्तित्व, व्यक्ति स्वतंत्रता से लबालब भरा है। उसे ही वे सर्जनात्मकता की कसौटी भी मानते है और ‘सत्य का अन्वेषण’ उसी से संभव है, सामाजिकता की परख भी उसी से की जा सकती है का दावा करते है।

संकट का बोध, सत्य की खोज़ की ओर व्यक्ति को प्रवृत्त करता है और रचनाकार आत्मरक्षा हेतू व्यक्तिवादीता की ओर बढ़ने लगता है।

अज्ञेय में यह संकट-बोध भीतरी एवं बाहरी दोनो प्रकार का है। भीतरी संकट समाज में कवि को न मिलनेवाला सम्मानजनक स्थान रहा है। व्यक्तिवादी प्रवृत्ति में सन्मान पाने की ‘युयुत्सता’ होती है और न मिलने पर लेखक पलायन कर जाता है परंतू इसमें सामाजिक प्रतिरोध, पीड़ा-बोध में व्यक्त होता है। ‘पीड़ा, दुःख और जीवन की अपूर्णता’ पर मध्यवर्ग और उच्चवर्ग से उपर उठकर सोचने की कोशिश अज्ञेय करते है।

अज्ञेय के भीतर कही पर भी जड़ न पाने की विवशता प्रबल है। ‘नदी के द्रीप’ उसका उदाहरण है। डॉ नामवर सिंह ने कहा है- अपने वर्ग के धनी-मानी और प्रतिष्ठित लोग निर्धन कवि को अपने बीच सम्मान देते नहीं और किसान-मजदूरों के बीच उतरकर सम्मानित होना उसके लिए हेठी ही है; न वह इनका गीत गा सकता है, न उनका। Prayogvad Yug

इसलिए वह इन सबसे परे रहकर काल्पनिक ‘निष्पक्षता’ का व्रत लेता है। लेकिन धीरे-धीरे इस ‘निष्पक्षता’ का भी वृत्त टूटता है और वह अंत में अपनी मंशा साफ -साफ इन शब्दों में प्रकट करता है कि वह ‘परिस्थिति’ के भीतर ही अपने लिए एक ‘संतोषजनक’ परिस्थिति गढ़ सकता है। यह ‘परिस्थिति’ और कुछ नहीं वस्तुत: वह मध्यवर्गीय प्रवृत्ति ही है।

इस कवि की सारी जागरुकता यही सिखाती है कि किसी नवीन समाज-व्यवस्था में ही किसी तरह दिल बहलाने की चेष्टा करनी चाहिए या तो वह समाज-व्यवस्था थोड़ी और भी लचीली होकर कवि के अनुकुल हो जाये अथवा स्वयं कवि ही थोड़ा-सा और झुककर उस समाज-व्यवस्था के अनुकुल हो जाए।

दूसरे शब्दों में किसी प्रकार निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति की आर्थिक और सामाजिक स्थिति कुछ अच्छी हो जाए-वह सेठों की तरह धनी भले न हो, परंतू स्वत: समर्थ अवश्य हो जाये। मतलब यह कि किसान-मजदूर चुल्हें -भाड़ में जाएँ, निम्न मध्यवर्ग का यह बुद्धिजीवी व्यक्ति कुछ और ऊँचे चढ़ जाए।

“मध्यवर्ग से उसका शत्रु भाव खत्म हुआ इस प्रस्ताव पर’, उसे संरक्षण प्राप्त हो’ केवल इस ट्रकड़े पर उच्च-मध्यवर्ग का सारा अत्याचार और अपनी सारी पीड़ा भुलाई जा सकती है। ” फिर मध्यवर्गीय कवि के साथ धोखा हुआ, उसका मोहभंग हुआ उसकी इस एकाकी याचना पर मध्यवर्ग ने ध्यान नहीं दिया।

ऐसी स्थिति में उसने अपने को सर्वथ: “नि:सहाय अनुभव किया ” “विस्थापित हुआ’. मध्यवर्गीय परिवेश से सामाजिक रुप में कटकर भी मानसिक रुप से यह कवि उसके मोह को छोड़ने में जितना असमर्थ है, उतना ती असमर्थ जन-जीवन के साथ तदाकार होने में भी है। फलत: इस प्लावन के सम्मुख उसका ‘स्थिर समर्पण’ है। इस ‘स्थिर समर्पण’ में भी बैंक व्यक्तित्व ‘ऐठ’ निहित है।”

फिर भी उसमें दृढ़ विश्वास है की उसका अस्तित्व सुरक्षित रहेगा। अपनी इस ‘त्रिशंकू’ स्थिति के प्रति उसमें ‘स्थिर समर्पण,’ एकाकीपन ‘और’ निष्रिय परितृप्ति’ में डूबे ‘” रहना पड़ा, अपने आपको गौवन्वित करने के लिए उसने ‘दुःख’ का ‘फलसफ़ा’ गढ़ा’।

यही उनका दार्शनिक सुत्र है- ‘दुःख सब को मॉजता है। “इस प्रकार उनकी आंतरिक बनावट-बुनावट उन्हे अकेलापन, विद्रोह, भौंडा-यौन- प्रदर्शन, मनोविज्ञान आदि से जोड़ता है। अपना ‘अहं’, “क्षणवाद’, निराशा, पलायनवृत्ती, ‘सामाजिक अनुपयोगिता’ के विरुध्द अपनी उपयोगिता को प्रमाणित करने’ का प्रयत्न वह करते है।

प्रयोगवाद : पाश्चात्य प्रभाव (Prayogvad Ki Visheshta) :-

वस्तुत: प्रयोगवादी कवियों की नई पीढ़ी पाश्चात्य भाषा, साहित्य एवं संवेदनाओं की जानकार थी। उसी के कुछ प्रयोग हिन्दी साहित्य के इस युग में हुए है। स्वयं अज्ञेय पर अस्तित्ववादी, मनोविश्लेषणवादी, टि. एस. इलिएट, डी. एच. लारेन्स, के साथ जपानी अदि कवि एवं कविता का प्रभाव स्पाष्ट है।

भोलाभाई पटेल ने अपने शोध ग्रंथ ‘अज्ञेय एक अध्ययन’ में उसका विस्तार से विचार किया है। गणपतिचंद्र गुप्त ने भी बिंबवाद, दासवाद, प्रतिकवाद, अतियथार्थवाद, अस्तित्ववाद, मनोविश्लेषणवाद जैसे विभिन्न सांप्रदायो के प्रभाव का उल्लेख प्रयोगवाद तथा ‘नई कविता’ के संदर्भों में किया है।

फ्रायड़ की दमित वासना, कुंठा, अस्तित्ववाद का क्षणवाद, निराश, लघु मानव की प्रतिष्ठित, प्रतिकवादियों की वैयक्तिकता, रुगणता दुरुहता, भाषा रुपों का प्रयोग, दादावादियों की तरह परंपरागत, संस्कृति एवं सभ्यता का विरोध प्रयोगवाद में हुआ हैं।

इसलिए उसे कभी ‘रुपवाद’, कभी ‘प्रपद्यवाद’, कभी ‘नई कविता के नाम से जाना गया दार्शनिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव सिधा अज्ञेय पर रहा। अन्य कवियों ने शायद उनसे ग्रहण किया होगा। इसलिए परवर्ति काव्य में जिस तरह छायावाद को छोड़कर कुछ कवि प्रगतिवाद को अपना चुके थे उसी तरह प्रगतिवादीयों ने प्रयोग को अपनाया और कुछ प्रयोगवादी भी अंत: तक प्रयोगवादी नहीं रहे, कुछ प्रगतिवादी, जड़ो की और लौटे तो कुछ ‘नयी कविता’ में उग आये।

अज्ञेय का प्रगति के विरुध्द “प्रयोग’, वाद के विरुध्द विद्रोह, ‘अहं’ से ‘ऐठ‘ से भरा ही क्यों न हो हिन्दी साहित्य जगत में मात्र चर्चित एवं विलक्षण प्रभावी रहा है। मध्यवर्ग के यथार्थ, उनकी सर्व प्रकार की हासोन्मुखता और कुंठा, उदासी, निराशा, आस्था से भरा यह काव्य आत्मनिष्ठ संकीर्णता के बावजूद महत्वपूर्ण हो चुका है। उसकी सामान्य प्रृत्तियों को देखना यहाँ हमारा अभिष्ट है।

भाव-बोध (Prayogvad Ki Visheshta) :-

प्रयोगवाद और नयी कविता के लगभग सभी कवियों के प्रेरणा केन्द्र सूर्यकांत त्रिपाठी निराला रहे हैं। अज्ञेय “तारसप्तक’ की प्रति निराला के पास भेजते हैं – निराला जी तत्काल “तारसप्तक” के सहयोगी
कवि रामविलास शर्मा को पत्र लिखते हैं-“कल तारसप्तक संग्रह निला। अध्छा निकला है। इन रचनाओं का रूप मेरी दृष्टि से निखर रहा है।’ निराला की प्रसन्नता के अनेक अर्थ किए जा सकते हैं ।

प्रगति-प्रयोग से फूटती “आधुनिक संवेदना” की धारा मैं कहीं न कहीं निराला अपनी विजय देखते हैं – अपनी प्रयोगशीलता की विजय। प्रयोगवाद और नयी कविता के भाव-बोध को हम इतिहास की इस
प्रक्रिया में समझ सकते हैं कि आधुनिक चिंतन में निरंतर बदलता हुआ मनुष्य और समग्र मनुष्य की अवधारणा ही सारे उपक्रम का आधार है।

द्वितीय विश्व- युद्धोत्तर संसार की केन्द्रीय चिंता रही है – मानवीय मूल्यों का विघटन और अनास्था – यंत्रणा-पीड़ा की असहनीय स्थितियों से साक्षात्कार । यह तीखा अहसास कि मूल्यों की सर्जनात्मकता के आधार जैसे टूट-फुटकर “वेस्टरलैण्ड में बिखर गए हैं – बाँझ ऊसर का निपट अकेलापन ।

इस स्थिति को लाने में साम्राज्यवादी और विज्ञान की प्रविधि ने भूमिका अदा की है – धर्म, परिवार, नैतिकता, परम्परागत मूल्य सभी को विज्ञान ने लील लिया है। फिर महाशक्तियों ने शीत-युद्ध छेड़ दिया है।

मानव पर संकटकालीन बादल और तेजी से छा रहे हैं। विज्ञान-टेक्नोलॉजी से जीवन की ऊपरी गति बढ़ी है पर मानव के भीतर का धर्म और ईश्वर मर गया है। प्रकृति और इतिहास के अलगाव से आत्मनिर्वासन, अकेलापन, ऊब, अंधकार, निराशा पैदा हुई है।

विज्ञान की प्रविधियों से गति इतनी बढ़ गयी है कि सभी मानवीय संबंध डगमगा गए हैं और प्रेम, सेक्स, धर्म, आचरण – सभी मर्यादाएँ नष्ट हो गई हैं। Prayogvad Yug

धर्मवीर भारती ने “अंधायुग” में इसी दूटन की पीड़ा को बृहत्तर मानवीय संदर्भों में अभिव्यक्ति दी है – मूल्यांधता का युग -अंधायुग – “हम सबके मन में गहरा उतर गया है युग / अश्वत्थामा है संजय है – अंधियारा / है दास वृत्ति, उन दोनों वृद्ध प्रहरियों की / अंधा संशय है/ लज्जाजनक पराजय है।”

जहाँ आदमी आदमी को चीर-फाड़कर खुश है – संस्कृति नदी उदास-विकृत “नदी कधू की नथ का मोती चील ले गई” माँस-लोभी चील-कौए–गिद्ध जीवन पर मंडराने लगे – मानव को उपजाया सूरज ही उसे निगल गया। समय का रथी चक्रव्यूह में फँसकर हाँफ रहा है, विवशता-असहायता परिवेश में तन गई है।

यंत्र दानव के प्रचार-प्रसार ने सम्प्रेषण की सहज प्रकृत गतियों को घेरकर अर्थहीन कर दिया है। प्रकृति, मनुष्य, इतिहास और यंत्र के बीच जो रिश्ता बना है, अवमानवीकरण अपराधीकरण, अप-संस्कृति उसी की देन है।

नए संसार की इसी कुशल समस्या से प्रयोगवाद-नयी कविता के कवि जूझते रहे हैं। गजानन माधव मुक्तिबोध के शब्दों में ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की संश्लिष्टता से निर्मित नयी कविता मूलभूत संवेदनशक्ति में विलक्षण प्रवृ्ति अपनाती है। यह पूरी कविता कुछ अपवादों को छोड़कर परिवेश के साथ द्वन्ध-सि्थिति में है।

छायावाद युग की सम्पूर्ण जानकारी 

प्रयोगवाद की प्रमुख प्रवृत्तियां (Prayogvad Ki Visheshta) :-

  • प्रगतिवाद और नयी कविता एक ओर तो द्वितीय विश्व युद्ध की भयावह चेतना से दूसरी ओर स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद के परिवेश से प्रभावित और आंदोलित रही है।
  • अस्तित्ववाद-आधुनिकतावाद, माक्सवाद और गांधी- लोहियावाद के विचारों ने इन रचनाकारों में एक ऐसी अंतर्दृष्टि उत्पन्न की है जो जीवन-जगत के गतिशील और जटिल यथार्थ को नए कोणों से अभिव्यक्तित देती है।
  • मनोविश्लेषणशास्त्र और अस्तित्ववाद के प्रभाव-दबाव ने मानव की निराशा – पराजय -मृत्युबोध को रचना में ढाला है।
  • मध्य वर्ग की आशाओं-आकाक्षाओं ने काव्य-सृजन में शहरीकरण से उत्पन्न समस्याओं के साथ संस्कृति तथा परम्परा के भीतर से निकली आधुनिकता-बोध की प्रक्रिया और व्यक्ति के आत्म-निर्वासन की पीड़ा को तीव्र किया है।
  • पुराने मूल्यों के मोह -भंग ने इस कविता में राजनीति और व्यवस्था के मानवद्रोही चरित्र को व्यंगय-वक्रोक्ति, विसंगति और विडम्बना की काव्य-भाषा में इस ढंग से उजागर किया है कि पूरे परिवेश की समझ पैदा होती है।

इस काव्य -धारा की प्रमुख विशेषताओं या प्रवृत्तियों को इस प्रकार निरूपित किया जा सकता है:

व्यक्तिवाद (Prayogvad Ki Visheshta) :-

प्रयोगवादी व्यक्तिवाद छायावादी व्यक्तिवाद से अलग है। प्रयोगवादी घोर व्यक्तिवादी है। उनका व्यक्तिवाद “दो सीमान्तों के बीच फैला हुआ है। उनमें से एक सीमान्त है।

मध्यवर्गीय परिवेश के प्रति मध्यवर्गीय कवि का वैयक्तिक असंतोष और दूसरा सीमान्त है- जन-जागरण से डरे हुए कवि की आत्मरक्षा की भावना। कुल मिलाकर यह चरम व्यक्तिवाद ही प्रयोगवाद का केन्द्र-बिंदू है और विभिन्न राजनैतिक, नैतिक, सामाजिक मान्यताओं के रुप में यह संकीर्ण व्यक्तिवाद अपने को व्यक्त करता है।’ Prayogvad Yug

प्रयोगवादी कवि अपने आपको मध्यवर्ग से कटा हुआ महसूस करता है। जिसके परिणाम स्वरूप वह अधिक अहं वादी, आत्मकेंद्रित होता गया आत्मरक्षा के लिए ही वह अपने आप में सिमटकर रहने लगा।

उनका अस्तित्व उन्हें कहीं नहीं दिख रहा था। हर जगह सामुहिकता के दबाव में वह बौनापन महसूस कर रहा था। इससे दूर करने की चाह भी उनमे रहीं है। ऐसे में छोटा हो कर रहना और विराट व्यक्तित्व धारण कर लेने का भाव प्रयोगवाद की विशेषता है।

बौद्धिकता का प्राधान्य:-

प्रयोगवादी कवियों ने अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति में बौद्धिकता का अधिक प्रयोग किया। भावना या रागात्मकता कहीं पर भी नहीं है जहाँ है वहाँ वह प्रश्नांकित है। इसी प्रश्न को धर्मवीर भारती ने बौद्धिकता कहा है। बौद्धिक युग में बौद्धिक दृष्टि का स्वीकार यह कवि करते है।

अज्ञेय ने अपनी कविता ‘हरी घास पर क्षण भर’ में बौद्धिकता को प्रतिष्ठित किया है। समाज से ये भयभीत मन प्रेम की भावूकता की जगह बौद्धिकता या ‘विशेष तर्कवाद’ को व्यक्त करते- है की दुनिया सोच सकती है’।

इसलिए वह कहते है- बौद्धिकता का परिणाम ही है की वह छायावाद की किशोर भावूकता को छोड़कर अपनी प्रिया को ‘कलगी बाजरे’ की कहता है-

अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका

अब नहीं कहता, यह शरद के भोर की नीहार न्हायी कुँई

टटकी कली चम्पे की, वगैरेह तो

नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सुना है

या कि मेरा प्यार मैला है

बल्कि केवल यही थे उपमान मैले हो गये है

देवता इन प्रतीकों के कर गए है कूच।”

द्विवेदी युग की सम्पूर्ण जानकारी 

यथार्थ की कुरूपता का चित्रण (Prayogvad Ki Visheshta) : –

प्रयोगवादी कवि अतियथार्थवादीता को ग्रहण कर जीवन की कुरुपता को, विकृति को सहीं ढंग से सामाजिकों के सामने लाना चाहता हैं। आलोचकों ने इसे नग्र सौंदर्य चेतना या विकृत रुचि भी कहा है किन्तु इस प्रकार की कुरुपता का, असुंदरता के चित्रण में भी वह सौँदर्य-रुची दिखाता है।

अति नम्न यथार्थवाद : –

छायावादी कवियों ने अपनी नग्न भावनाओं को प्रकृति सौंदर्य के भीतर व्यक्त किया है। शायद कवि सामाजिक बंधनों को स्वीकार्य समझता हो परंतू प्रयोगवादी कवियों ने सामाजिक द्ष्टि से प्रतिबंधित या अव्यक्त काम वासना के नग्र यथार्थ को अपनी कविता में लाया है।

अपनी कुंठाओं, दमित वासनाओं अतृप्त इच्छाओं का खुलकर वर्णन प्रयोगवाद की विशेषत: है। काम जीवन का उत्स है, परंतू प्रयोगवादी कविता में बह विकृत भौंडे रुप में प्रस्तुत किया है। वस्तुत: अज्ञेय आदि पर फ्रायड, लारेन्स का प्रभाव अत्याधिक रहा है।

प्रेम का स्वरुप (Prayogvad Ki Visheshta) :-

प्रयोगवादीयों के प्रेम में नग्नता, मांसल -बोध, अधिक है। छायावादी कवियों का प्रेम शालीनता में बंधा था, इसलिए उन्होंने चिर विरह को व्यक्त किया किन्तु प्रयोगवादी कवि विरह नहीं चाहता वह मांसल उत्तप्त शरीर पाने के लिए उत्सुक है। प्रेम का यह नया रुप फ्रायड, लारेन्स के प्रभाव से हिन्दी में आया।

प्रणय के खुलकर चित्रण के साथ प्रेम में बौद्धिकता आयी है। अज्ञेय ने ‘तारसप्तक‘ की भूमिका में कहा है,” आधुनिक युग का साधारण व्यक्ति सेक्स संबंधी वर्जनाओं ने आक्रांत हैं, उसका मस्तिष्क दमन की गई सेक्स की भावनाओं से भरा हुआ था। इसलिए उसकी सौंदर्य भावना भी सेक्स से पीड़ित है।

और यही कारण है कि प्रयोगवादी कवि में न तो प्रेम का सामाजिक रुप है, न रहस्यात्मक आवरणवाला और न छायावाद का-सा सुक्ष्म एवं भावात्मक।’‘ मनोविश्लेषण का स्वच्छंद रुप इनकी कविताओं में भरा पड़ा है।

विद्रोह की भावना : –

प्रयोगवादीयों का विद्रोह काव्य के कला एवं भाव पक्ष दोनों के प्रति है। मध्यवर्ग ने मध्यवर्गीय कवि की ओर ध्यान ही उस काल में नहीं दिया तो मध्यवर्ग का यह कवि विद्रोह के तीव्र उद्गार व्यक्त करता है।

वस्तुतः छायावाद की कल्पना और सौंदर्य से मुक्त कमनीय भाव-भाषा और प्रगतिवाद की अत्याधिक सामाजिकता के प्रती प्रयोगवाद का विद्रोह व्यक्त हुआ है। निराला के ‘कुकुरमुत्ता’ का द्रोही समय और समाज प्रयोगवादी काल में भी रहा है।

शिल्प की नवीनता :-

प्रयोगवादी कविता का कलापक्ष अभिव्यंजना की दृष्टी से हिन्दी कविता के लिए एक ओर बेहद जटिल, दुरुहता से भरा है तो दुसरी और विलक्षणता के चमत्कार हेतू सपाटबयानी से। शब्द प्रयोग की दृष्टि से वह बडा बौद्धिक क्रियाएँ करता है। कभी रीतिकालीन कवि केशव ने किया था।

अज्ञेय ने उनकी तुलना अंग्रेजी कवि बेन जानसन से की है। यही कारण है की उन्होंने नयी प्रतिक योजना, काव्य में की टेढ़ी-मेढी, आडी, तिरछी, डैश जैसी रेखाओं का प्रयोग किया है।

अज्ञेय ने ही तार सप्तक की भूमिका में कहा था की उलझी हुई अनुभूतियों को परंपरागत भाषा, प्रतीक, उपमायँ, रुपक आदि के द्वारा व्यक्त करना कठिन है। इसीलिए उन्होंने नयी भाषा-शिल्प को भी गढ़ा। भाषा, बिम्ब, प्रतीक, नवीन उपमानों के साथ शैली के नये-नये प्रयोग प्रयोगवादी कला पक्ष का विशिष्टता है।

मूल्यांकन:-

प्रयोगवाद और नयी कविता के वस्त् और रूप का नया काव्य- मुहावरा सान् 1960 तक पहुँ चते-पहुँ चते अपना आकर्षण खोने लगा। अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद, क्षणवाद से भी पाठक ऊबने लगे। संन् 1862 के भारत -चीन युद्ध ने नेहरूयुग का जाल-जंजाल समाप्त कर दिया।

कविता, भूखी पीड़ी की कविता, पोस्टर कविता, युगुत्सावादी कविताओं के नारे उढे। युवा कवियों ने नई तराह की कविता, नए युग-यथार्थ को लेकर लिखी, जिसे मं किसी अन्य सही नाम के अभाव में “समसामयिक कविता” कह दिया गया। नयी कविता ने व्यंग्य-वक्रोक्ति की प्रवृत्ति को निर्भयता से अपनाया और उसे व्यवस्था या सत्ता-विरोध की ताकत दी।

नयी कविता की उपलब्धियाँ अर्थ-भूमि के विस्तार में देखी जा सकती है और सीभाएँ रूपवादी-कलावादी रुझानों में झाँकती मिलती हैं। कुछ भी कहिए, प्रयोगवाद और नयी कविता ने पुरानी सौन्दय्याभिरुचियों को बदलने-परिष्চत करने के साथ हिंदी पाठक की चेतना को जीवन-जगत् व नए सत्यों से जोड़े रखा है।

रीतिकाल की सम्पूर्ण जानकारी

सारांश :-

मुख्य रूप से प्रयोगवादी कविता के कवियों ने अपने पूर्ववर्ती कवियों से एक अलग प्रकार मनोभूमि को निर्मित किया। “तारसप्तक प्रयोगवादी काव्य की मनोभूमि को प्रतिनिधित्व करने वाला काव्य संग्रह है। Prayogvad Yug

अज्ञेय कविता को केवल प्रयोग के रूपं मैं प्रस्तावित करना चाहते थे, लेकिन आलोचकों ने उसे प्रयोगवाद बना दिया। किसी भी साहित्यिक धारा की तरह प्रयोगवाद में अंतरबिरोध की र्थिति उत्पन्न हुई थी। नकेनवादी उसी अंतर्विरोध का जीवित प्रमाण था सभी प्रयोगवादी कवि इस बिंदू पर सहमत थे कि वे राही नहीं राहों के अन्वेषी हैं।”

प्रयोगवाद के चमत्कारी रूपवाद से कविता को मुक्त करने का प्रयास होने लगा। नयी कविता उसी चमत्कारी रूपवाद से मुक्त का स्वप्न है। ‘नयी कविता’ का क्षेत्र प्रयोगवाद की अरपेक्षा अधिक व्यापक और गहरा था। नयी कविता में कई तरह की विचारधाराओं का समन्वय हुआ।

परस्पर विपरीत विचारधारा के कवि भी नयी कविता के अंतर्गत अपनी काव्य रचना करते रहे। नयी कविता के प्रतिनिधि कवि अज्ञेय और मुक्तिबोध थे। नयी कविता की स्थापनाओं को प्रतिपादित करने के लिए समय समय पर साहित्यिक संस्था और साहित्यिक पत्रिका को प्रस्तावित किया गया था। प्रयोगवाद और नयी कविता की काव्य प्रवृति भी अलग-अलग हैं।

काव्य प्रवृति में कुछ कवियों ने गैर-रोमान्टिक प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया तो कुछ कवियों ने रोमानी प्रवृत्ति को नए अंदाज में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया व्यक्तिवादी और समाजवादी दोनों प्रकार के चिंतन से कविता की काव्यानुभूति को निर्मित किया गया ।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की विडम्बना, घुटन और विसंगति को नयी कविता में देखा जा सकता है। अस्तित्ववाद की धीमी लहर को भी नयी कविता में रेखांकित किया जा सकता है। तमाम सीमाओं के बावजूद नयी कविता ने अनुभूति की ईमानदारी को प्रामाणिक रूप से रचने का संकल्प नहीं छोड़ा।

शिल्प के धरातल पर जितने प्रकार के प्रयोग नयी कविता में हुए हैं शायद ही किसी साहित्यिक आंदोलन में हुए होंगे।

अंतिम कुछ शब्द :-

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