प्रगतिशील साहित्य (Pragatisheel Sahitya)

प्रगतिशील साहित्य (Pragatisheel Sahitya):-

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इस इकाई में आप आधुनिक हिंदी साहित्य की एक प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्ति ‘प्रगतिशील साहित्य‘ का अध्यन करेंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप प्रगतिशील साहित्य के सैद्धांतिक परिप्रे्ष्य का विवेचन कर सकेंगे।

आप प्रगतिशील साहित्य के आंदोलन के उभार के कारणों को जान सकेंगें और साहित्य पर उसके प्रभाव की समीक्षा कर सकेंगे हिंदी साहित्य के संदर् में आप प्रगतिशील साहित्य के उदय की जानकारी प्राप्त करेंगे ।

वैसे तो प्रगतिशील आंदोलन ने साहित्य की सभी विधाओ को प्रभावित किया है लेकिन इस इकाई में हम मुख्यतः प्रगतिशील कविता की परंपरा का ही उल्लेख करेंगे।

इसके साथ यह भी आप पढ़कर समझ सकेंगे कि प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों कौन सी हैं और उनकी क्या विशेषताएँ हैं। इस तरह यह ब्लॉग पोस्टआपको प्रगतिशील साहित्य के विभिन्न पहलुओं की जानकारी देगी और उनको समझने और जाँचने की दृष्टि से भी परिचित कराएगी।

प्रस्तावना :-

जब हम आधुनिक साहित्य के संसार में प्रवेश करते हैं तो हमें इससे पूर्व के साहित्य से भिन्न तरह का साहित्य पढ़ने को मिलता है। हिंदी साहित्य में इससे पहले तक वीर, भक्ति और श्रंगार से संबंधित कविताएँ लिखी जाती थीं। लेकिन आधुनिक युग में हमें इन विषयों से मिन्न विषयों पर कवितारँ पढ़ने को मिलती हैं। यह मिन्नता लगातार बढ़ती जाती है।

अब मनुष्य के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैयक्तिक अनुभर्वों पर भी कविताएँ लिखी जाने लगीं। यही नहीं उसके अनुभव संसार में आने वाली हर वस्तु, भाव और विचार कविता के विषय होने लगे। यह साहित्य की दुनिया में एक बड़ा बदलाव था।

इस बदलाव को आपने पहले की इकाइयों में समझा होगा। यह बदलाव की प्रक्रिया निरंतर चलती रही है।

भारतेंदु युग में जिस तरह की कवितारएँ लिखी जाती रही हैं ठीक वैसी ही कविताएँ द्विवेदी यूग में नहीं लिखी गई। भिन्नता को हम छायावाद और छायावादोत्तर कविता में भी देख सकते हैं ।

हम इन बदलावों के बारे में यहाँ चर्चा नहीं करें गे क्योंकि आप उनको पढ़ चुके हैं। हमारे कहने का तात्पर्य यही है कि प्रगतिशील साहित्य परिवर्तन की इस प्रक्रिया का स्वाभाविक परिणाम है। यह परिवर्तन क्यों हुआ इसके ऐतिहासिक कारण क्या थे और ये परिवर्तन किस तरह के हैं, इस पर भी हम इस इकाई में चर्चा करेंगे।

आधुनिक साहित्य में दूसरा बड़ा बदलाब भाषा और शिल्प के स्तर पर हुआ। भाषा के स्तर पर दो बातें हुई। एक तो कविता के साथ-सारथ गद्य में भी रचनाएँ होने लर्गी और लेखकों ने ब्रज को त्याग कर खड़ी बोली हिंदी को अपनाना शुरू किया। पहले गद्य की भाषा खड़ी बोली हुई और बाद में कविता भी खड़ी बोली हिंदी में लिखी जाने लगी।

साहित्य में कई नई विधाओं में लेखन बढ़ा जिनमें निबंध, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचना के अलावा भी कई अन्य गद्य विधाएँ शामिल हैं।

लेकिन एक बात इस संदर्भ में गौर करने लायक है। भारतेंदु और द्विबेदी युग तक के साहित्य की दुनिया में होने वाले परिवर्तनों को हम कविता और गद्य में एक-सा पाते हैं। लेकिन छायावाद और उत्तर छायावादी कविता में हम ऐसा नहीं पाते।

जिस समय छायावाद के कवि जिस तरह की कविता कर रहे थे उस समय लिखा जाने वाला गद्य छायावादी गद्य साहित्य के रूप में नहीं पहचाना गया। इसी तरह उत्तर छायावादी कविता की तरह कोई उत्तर छायावादी गद्य साहित्य नहीं जन्मा।

इसका कारण क्या है, यह साहित्य के इतिहासकारों के विचार का मुद्दा हो सकता है। हम यहाँ फिलहाल इस पर विचार नहीं करें गे। हम सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि छायावाद के दौर में गद्य और पद्य में जो भेद उत्पन्न हो गया था वह प्रगतिशील आंदोलन के समय एक बार फिर मिट गया।

  1. साहित्य का प्रगतिशील साहित्य के आंदोलन सिर्फ कविता का आंदोलन नहीं था बल्कि उसकी अभिव्यक्ति साहित्य की सभी विधाओं में हो रही थी। यही नहीं, यह ऐसा आंदोलन भी था जो साहित्य से इतर कलाओं मसलन, थियेटर, चित्रकला, संगीत फिल्म आदि में भी अभिव्यक्त हो रहा था।
  2. इसके साथ ही यह सिर्फ हिंदी तक सीमित नहीं था बल्कि यह भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं के साहित्य में एक साथ प्रकाशित हो रहा था। प्रगतिशील साहित्य पर विचार करते हुए हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा।
  3. प्रगतिशील साहित्य का संबंध हमारे राष्ट्रीय आंदोलन से बहुत गहरा है। आजादी का आंदोलन आधुनिक साहित्य की अब तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों को प्रेरित और प्रभावित करता रहा है लेकिन प्रगतिशील आंदोलन ऐसा आंदोलन भी है जिसे हम विश्वव्यापी कह सकते हैं।
  4. यूरोप में फासीवाद के उभार के विरुद्ध संघर्ष के दौरान इस आंदोलन का जन्म हआ था, और भारत जैसे औपनिवेशिक देशों के लेखकों और कलाकारों ने इसे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन से जोड़ दिया। इस आंदोलन के पीछे माक्सवादी विचारधारा की शक्ति और सोवियत संघ के निर्माण की ताकत भी लगी हुई थी।
  5. इसने साहित्य के उद्देश्य से लेकर वस्तू और रूप तक के सवालों पर नये तरह की सोच को सामने रखा जो उस समय लेखकों और कलाकारों के बीच जीवंत बहस के मुद्दे बने। इस इकाई में हम इन सभी पहलुओं के बारे में विचार करेंगे।

जाहिर है कि हमारा मकसद हिंदी साहित्य के संदर्भ में प्रगतिशील साहित्य, विशेष रूप से प्रगतिशील कविता का परिचय प्राप्त करना है इसलिए मुख्य रूप से हम अपनी बातचीत को इसी पर केंद्रित रखेंगे।

प्रगतिशीलता का सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य:-

प्रगतिशील साहित्य पर विचार करते हुए इस समस्या का सबसे पहले सामना करना पड़ता है कि क्या प्रगतिशील और प्रगतिवाद में अंतर है? अंग्रेजी में जिसे प्रोग्रेसिव लिटरेचर कहते हैं और उर्दू में तरक्की पसंद अदब उसे ही हिंदी में प्रगतिशील साहित्य नाम दिया गया है।

हिंदी में प्रगतिशील साहित्य के साथ-साथ प्रगतिवाद शब्द का भी प्रयोग होता रहा है। इस संदर्भ में भ्रम प्रगतिशील लेखकों और गैर प्रगतिशील लेखकों दोनों ने फैलाया है।

गैर प्रगतिशील लेखकों ने उस साहित्य को जो माक्सवादी सौंदर्यशास्त्र के अनुसार लिखा गया है प्रगतिवाद नाम दिया। कुछ ने कम्युनिस्ट पार्टी के दिशा निर्देश के अनुसार लिखे गये साहित्य को प्रगतिवाद कहा, तो कुछ ने प्रगतिशील लेखक संघ के निर्देश के अनुसार लिखे गये साहित्य को प्रगतिवाद नाम दिया।

प्रगतिशील साहित्य के लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्यकार स्वभावतः प्रणतिशील होता है इसलिए यह भी कहा गया कि लेखक को किसी संकीर्ण विचारधारा में बँधने की बजाए एक व्यापक मानवतावादी नजरिया अपनाना चाहिए।

प्रगतिशील साहित्य को प्रगतिवाद के विपरीत ऐसा साहित्य कहा गया जिसमें छायावाद के बाद की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को आधार बनाया गया हो और जो माक्सवादी या प्रगतिशील लेखक संघ से बँधा न हो। इस संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह की टिप्पणी गौरतलब है।

उन्होंने ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ’, नामक अपनी पुस्तक के ‘प्रगतिवाद’ नामक अध्याय में लिखा था कि “जिस तरह छायावाद और छायावादी कविता भिन्न नहीं है, उसी तरह प्रगतिवाद और प्रगतिशील साहित्य भी मिन्न नहीं है।

वाद की अपेक्षा शील’ को अधिक अच्छा समझकर इन दोनों में भेद करना कोरा बुद्धि -विलास है और कुछ लोगों की इस मान्यता के पीछे प्रगतिशील साहित्य का प्रच्छन्न विरोध-भाव छिपा है।”

प्रगतिवादी विचारधारा:-

प्रगतिवादी साहित्य कहा जाए या प्रगतिशील साहित्य बुनियादी तौर पर उनमें कोई भेद नहीं है। यह सही है कि प्रगतिशील लेखकों ने अपनी विचारधारात्मक प्रेरणा माक्सवाद से ग्रहण की लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रगतिशील साहित्य माक्सवाद का अनुवाद भर है।

इसी तरह यह सही है कि सन् 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद हिंदी, उर्दू के ही नहीं बल्कि दूसरी भाषाओं के भी अधिकांश लेखक इसके साथ जुड़े लेकिन इसी कारण यह समझना कि वे सभी एक ही तरह का साहित्य लिख रहे थे और लेखन के लिए वे इस संगठन से निर्देश प्राप्त करते थे अनैतिहासिक तथ्य है।

वस्तुतः लेखक प्रगतिशील साहित्य के लेखक संघ के झंडे तले इसलिए इकट्ठे हो रहे थे क्योंकि उन्हें यह महसूस हो रहा था कि देश को औपनिवेशिक दासता से मुक्त कराने के लिए और दुनिया को फासीवाद के खतरे से बचाने के लिए उन्हें भी उसी तरह संगठित होना चाहिए जिस तरह मजदूर, किसान और विद्यार्थी एकत्र हो रहे थे।

साहित्य और संस्कृति की स्वायत्ता और स्वतंत्रता पर फासीवाद और उपनिवेशवाद दोनों प्रहार कर रहे थे।

उस समय साहित्य में यह सवाल अहम् सवाल हो गया था कि तुय करो कि तुम किस ओर हो’। यह सवाल इस तरह भी पूछा जा रहा था कि ‘साहित्य किसलिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि यह दौर ही ऐसा था कि कोई भी लेखक तटस्थ होकर अपना लेखन नहीं कर सकता था।

अज्जेय जैसे लेखक जो कभी प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य नहीं रहे और जिन्होंने कभी माक्सवाद को विचारधारा के रूप में अंगीकार नहीं किया वे भी आजादी के संघर्ष में क्रांतिकारी के रूप में शामिल हुए थे और जेल की सजा भुगती थी।

यही नहीं उन्होंने फासीवाद के खिलाफ संघर्ष में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर काम किया था। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि जिस समय प्रगतिशील साहित्य आंदोलन का उदय हुआ था और जब वह अपने उत्कर्ष की तरफ बढ़ रहा था, तब देश और शेष विश्व की स्थितियाँ इसके अनुकूल थीं।

अब प्रश्न उठता है कि प्रगतिशील या प्रगतिवाद क्या है। प्रगतिवाद माक्र्सवाद का पर्याय नहीं है न ही यह समाजवाद और साम्यवाद का पर्याय है।

माक्सवाद और समाजवाद की बजाए लेखकों ने प्रगतिवाद शब्द चुना तो केवल इसलिए कि वे साहित्य और कला के क्षेत्र में उन सभी लेखकों और कलाकारों को एक साथ लाना चाहते थे जो मानव प्रगति और भाईचारे में विश्वास करते थे और जो यह मानते थे साहित्य का मकसद लोगों को हर तरह के शोषण और उत्पीड़न से मुक्त कराकर एक समतावादी समाज की स्थापना करने के लिए प्रेरित करना है।

इस विचार की एक सीमा यदि नवजागरण दौर के ज्ञानोदय की अवधारणा थी तो दूसरी सीमा माक्सवाद।

यूरोप में ज्ञानोदय ने जिस आधुनिक प्रगतिशील मानव-प्रेरित विचारों को सामने रखा था माक्सवाद ने उसे ही एक वैज्ञानिक और क्रांतिकारी रूप प्रदान किया। इसलिए यह स्वाभाविक है कि प्रगतिशील साहित्य पर विचार करते हुए उसके सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य के रूप में माक्सवाद पर विचार किया जाता।

कार्ल माक्स्स ने लिखा है कि अब तक दारशनिकों ने दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है जब कि जरूरत उसे बदलने की है। यही कारण है कि माक्सवादी, सामाजिक परिवर्तनों की जानकारी देने के
साथ ही सामाजिक रूपांतरण के लिए जरूरी तत्त्चों और प्रक्रियाओं की भी जानकारी देता है।

माक्सवाद सिर्फ इतिहास और वर्तमान की व्याख्या ही नहीं करता बल्कि वह भविष्य के लिए सुस्पष्ट संकल्पना भी प्रस्तुत करता है जिसे मानव सामूहिक प्रयत्नों द्वारा संभव बना सकता है। 1917 में हुई बोल्शेविक क्रांति ने इसी सत्य को प्रमाणित किया था।

प्रगतिवादी साहित्य चिंतन:-

माक्स्सवाद सिर्फ सामाजिक रूपांतरण का दर्शन ही नहीं है उसने साहित्य और कला के चिंतन को भी गहरे रूप से प्रभावित किया है।

माक्स्स और एंगेल्स को इतना अवसर नहीं मिला था कि वे साहित्य और कला पर लिखते लेकिन समय समय पर उन्होंने जो टिप्पणियाँ या पत्र लिखे उससे भाक्सवादी साहित्य चिंतन की आधारशिला निर्मित करने में मदद मिली।

बाद में इसी के आधार पर लेनिन, माओ, के साथ साथ जार्ज लुकाच, ग्राम्सी, प्लेखानोव, ब्रेख्त, गोर्की आदि ने साहित्य और कला संबंधी विचार भी प्रस्तृत किये। साहित्य संबंधी इस चिंतन परंपरा का विवरण यहां देना न तो संभव है और न आवश्यक। लेकिन हम यहाँ इस सबंध में हिंदी के उन लेखकों के साहित्य संबंधी विचारों का परिचय प्राप्त करेंगे जिन्होंने प्रगतिशील साहित्य को प्रभावित किया है।

प्रेमचंद ने 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन का उद्घाटन करते हुए कहां था कि “साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है’ बल्कि उनके अनुसार “हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।

व्याख्यान में यह कहा था कि साहित्यकार और कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। लेकिन ऊपर के उद्धरण से यह स्पष्ट है कि वे सभी तरह के साहित्य का समर्थन नहीं करते। वे सिर्फ उस साहित्य को श्रेयस्कर मानते हैं जो हमें सुलाए नहीं बल्कि जगाए।

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए रामविलास शर्मा ने कहा है कि प्रगतिशील साहित्य वह है जो समाज को आगे बढ़ाता है मनुष्य के विकास में सहायक होता है इसका अर्थ यह भी नहीं है कि प्रगतिशील होने से ही साहित्य श्रेष्ठ हो जाता है।

वे साहित्य और कला के अंतःसंबंधों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि “हमें ऐसा साहित्य चाहिए जो एक तरफ तो कला की उपेक्षा न करे, रस -सिद्धांत के नियामक जिस आनंद की मांग करते हैं, वह साहित्य से मिलना चाहिए, भले ही उसका एकमात्र उदगम रसराज न हो, भले ही उसकी परिणति आत्मा की चिन्मयता और अखंडता मैं न हो।

कलात्मक सौष्ठव के साथ-साथ उस साहित्य में व्यक्ति और समाज के विकास और प्रगति में सहायक होने की क्षमता भी होनी चाहिए। तभी वह अभिनन्दनीय हो सकता है।” यह साहित्य में यथार्थवाद की स्थापना की अभिव्यक्ति थी।

प्रगतिवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि:-

प्रगतिशील साहित्य के उदय और विकास के कारणों को समझने के लिए हमें उन ऐतिहासिक परिस्थितियों को समझना होगा जिसने प्रगतिवादी सांस्कृतिक आंदोलन को जन्म दिया जैसा कि हम
पहले ही कह चुके हैं कि प्रगतिवादी आंदोलन सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलन नहीं था बल्कि अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन भी था। यह सन् 1930 के बाद की परिस्थितियों का परिणाम था।

इन परिस्थितियों को समझे बिना हम प्रगतिवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि को नहीं समझ सकते। सबसे पहले हमें उस समय अंतर्राष्ट्रीय परिरिथतियों को समझना होगा।

अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां:-

सन् 1917 में रूस में कामयाब बोल्शेविक क्रांति ने विश्व में एक नये युग का सूत्रपात किया। यह क्रांति जहाँ एक ओर दुनिया के समाजवादी चरण में प्रवेश की घोषणा थी, वहीं दूसरी ओर इसने पूँजीवाद के पतन की घोषणा भी की प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से पूुँजीवादी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ भयंकर संकट के दौर से गुजर रही थीं।

प्रसिद्ध समाजशास्त्री ए.आर. देसाई के अनुसार, इस संकट ने साभ्राज्यवादियों के बीच, साम्राज्यवादी राज्यों और पराधीन देशों के बीच, किसानों और जर्मींदारों के बीच, संक्षेप में पुँजीवाद में निहित सारे अंतर्विरोधों को बढ़ा दिया।

इन बढ़ते अंतर्विरोधों के परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर विभिन्न पुँजीवादी -साम्राज्यवादी देशों में विश्व पुँजीवादी अ्थनीतिक व्यवस्था पर अपना एकाधिकार कायम करने या बढ़ाने के लिए संघर्ष ती्र हुआ।

वहीं दूसरी ओर, औपनिवेशिक राष्ट्रों में राष्ट्रीय स्वाधीनता तथा जनता का जनवादी संघर्ष भी बढ़ने लगा। पहले वाले संघर्व ने साम्राज्यवादी देशों को दो शिविरों में बाँट दिया। एक औओर इटली, जर्मनी, जापान की फासिस्ट ताकतें थी तो दूसरी ओर ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका की साम्राज्यवादी ताकतं । इन दोनों के संघर्ष ने ही दूसरे भहायुद्ध का सूत्रपात किया।

लगभग छह साल तक जब्दस्त संघर्ष के बाद फासीवादी शक्तियों की पराजय हुई। सोवियत संघ की सेना ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए जर्मनी को न सिर्फ अपने देश से बाहर खदेड दिया बल्कि
उसे जर्मनी सहित पूर्वी यूरोप के देशों से भी बाहर कर दिया।

1945 में एक -एक कर फासीवाद देश पराजित होते गए। अमरीका ने जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम का प्रयोग किया जिससे लाखों निर्दोष लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। लाखों लोग जीवन भर के लिए लाइलाज बीमारियों से ग्रस्त हो गये।

पूर्वी यूरोप के देशों में वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में समाजवादी शासन की स्थापना हुई।

इसके पश्चात दूसरे विश्व युद्ध के बाद समाजवाद और साम्राज्यवाद के बीच संघर्ष बढ़ता गया। साम्राज्यवादी ताकतें अमरीकी नेतृत्व में सोवियत संघ के खिलाफ युद्धोन्मादी प्रचार में जुट गई । इसने शीतयुद्ध का माहौल बना दिया।

और इसका असर भारत पर भी पड़ा जो 1947 में आजादी हासिल कर चुका था। इसने लेखकों और बुद्धिजीवियों की उस एकता पर भी असर डाला जो फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान निर्मित हुई थीं।

राष्ट्रीय परिस्थिति :-

1857 के संघर्ष में पराजय के बाद अंग्रेजों के विरूद्ध भारतीय जनता का संघर्ष दूसरे दौर में प्रवेश कर गया | अब इस संघर्ष का अगुआ वह मध्यवर्ग था जो तेजी से हो रहे परिवर्तनों के कारण उभर रहा था। 1885 में कांग्रेस की स्थापना ने उसे इस संघर्ष के लिए एक मंच प्रदान किया।

हालांकि कांग्रेस ने अपने संघर्ष की शुरुआत भारतीयों के लिए अधिक अधिकारों की माँग से की थी, लेकिन यह संघर्ष बीसवीं सदी में तेज होने लगा और भारतीयों के लिए स्वायत्त अधिकार और फिर पूर्ण आजादी में बदल गया। गांधी और नेहरू के नेतृत्व में जो आंदोलन तेज हो रहा था उसमें धीरे-धीरे किसान और मजदूर भी शामिल हो रहे थे।

1930 के दशक में कांग्रेस के सुधारवादी नेतृत्व के दुलमुलपने ने कांग्रेस के वामपंथियों को कांग्रेस सोशलिस्ट मंच की स्थापना को प्रेरित किया। इससे पहले 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हो चुकी थी। बीसवीं सदी के आरंभ में ही मजदूर संगठन बन चुका था जिस पर चौथे दशक में वामपंथियों का असर बढ़ गया था।

इस दशक में किसानों और विद्यार्थियों के संगठन बने और उनके अखिल भारतीय आंदोलन उभर कर सामने आए। कांग्रेस के नेतृत्व पर भी नेहरू और सुभाष जैसे वामपंथी विचार वाले नेताओं का वर्चस्व बढ़ने लगा था।

इस तरह आजादी का आंदोलन एक नये तरह के दौर में प्रवेश कर गया था। इसका असर लेखकों और बुद्धिजीवियों पर भी पड़ना स्वाभाविक था।

यह वह दौर था जब भारत का स्वतंत्रता संग्राम जन संग्राम में बदल गया था और जिसमें मध्यवर्ग के साथ-साथ किसानों और मजदूरों की भागीदारी भी बढ़ रही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्रता संग्राम के साथ किसानों और मजदूरों की माँगें भी शामिल होने लगीं।

कांग्रेस को इस बात पर विचार करना पड़ा कि आजादी के बाद का भारत किस तरह का होगा। सत्ता जमींदारों और पूँजीपतियों के हाथ में होगी या किसानों और मजदूरों के हाथ में। क्या जमींदारी प्रथा इसी तरह कायम रहेगी या जमीन उनकी होगी जो उसे जोतता है।

इसी दौर में कुछ नकारात्मक रुझान भी प्रकट हो रहे थे। मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए अधिक अधिकारों की माँग करते हुए पृथक देश की माँग की ओर बढ़ रही थी। हिंदू महासभा के बाद अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी हिंदुओं को सांप्रदायिक आधार पर संगठित कर रहा था।

नतीजतन देश में सांप्रदायिक दंगों की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही थी। इस सांप्रदायिक विभाजन के खिलाफ जनता को एकजुट रखने का भार भी वामपंथी दलों और गुटों पर था। लेकिन साम्राज्यवाद की साजिश और सांप्रदायिक संगठनों की हरकतों ने आखिरकार देश को विभाजन के कगार पर ला खड़ा किया।

आजादी के बाद नये हिन्दुस्तान बनाने के सवाल पर वामपंथी और कांग्रेस संगठन एक दूसरे के विरोध में खड़े हो गये। कांग्रेस ने जिस सत्ता की स्थापना की वह धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक थी लेकिन वह पूँजीपतियों और भूस्वामियों के हित में काम करने वाली सत्ता भी थी।

सवाल यह उपस्थित हो गया था कि देश का निर्माण किस रास्ते पर चलकर हो, पूँजीवाद के रास्ते पर या समाजवाद के रास्ते पर। इस विभाजन ने बुद्धिजीवियों और लेखकों को भी विभाजित कर दिया।

प्रगतिवादी आंदोलन का इतिहास:-

अप्रैल 1936 में लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन के भौके पर प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना सम्मेलन आयोजित हुआ। इसी अवसर पर अखिल भारतीय किसान सभा का अधिवेशन भी आयोजित किया गया था। यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी।

हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि किन राजनीतिक स्थितियों ने वामपंथी राजनीति के उभार को संभव बनाया। प्रगतिशी्ल लेखक संघ की स्थापना से के

लेखक संघ बनाने के आरंभिक प्रयास:-

प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की पृष्ठभूमि पर टिप्पणी करते हुए रेखा अवस्थी ने लिखा है, “प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के पहले के सृजनात्मक साहित्य को यदि ध्यान से देखें तो पता
चलता है कि सन् 30 के आसपास किसान समस्या और स्वाधीनता का प्रश्न लगभग यथार्थ के संपूर्ण द्वंद्ध के साथ अंकित करने की प्रवृत्ति बलवती हो जाती है।

हिंदी के मध्यमवर्गीय लेखक सहसा किसानों के प्रति गहरा लगाव क्यों अनुभव करने लगे? किसानों के प्रति बौद्धिक सहानुभूति अथवा क्रांतिकारी एकात्मकता’ का यह भाव अचानक सुसंगत रूप में क्यों व्यक्त होने लगा? जैसे इन प्रृत्तियों के मूल कारण तत्कालीन परिस्थितियों में निहित हैं, उसी तरह प्रगतिशील लेखक संघ‘ के गठन की भावना भी उन्हीं परिस्थतियों में पैदा हुई थी।

” सन् तीस के आसपास हिंदी के साहित्य पर नजर डालें तो हम पाते कि उस समय के प्रमुख लेखक और कवियों के साहित्य में महत्तवपूर्ण बदलाव आ रहे थे। निराला और पंत की कविता छायावादी रूमानियत को छोड़कर यथार्थवाद की ओर उन्मुख हो रही थी।

स्वयं प्रसाद भी अपने कथा साहित्य में तितली’ और कंकाल‘ जैसे उपन्यास लिख रहे थे। कहानियों में भी वे आकाश-दीप’ और ‘पुरस्कार‘ की बजाए गुंडा’ और ‘मधुआ‘ जैसे कहानियां लिख रहे थे। प्रेमचंद जो प्रेमाश्रम’ की रचना से किसानों के जीवन को रचनात्मक अभिव्यक्ति दे रहे थे, अब अपने फलक को और व्यापक करते हुए ‘निर्मला’ और ‘गबन जैसे उपन्यास लिख रहे थे।

बाद में वे किसान जीवन के महाकाव्य काहे जाने वाले उपन्यास ‘गोदान की रचना कर सके। इसलिए यह समझना भूल होगी कि 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ अचानक हिंदी में किसान, मजदूर प्रति सहानुभूति व्यक्त करने वाला यथार्थवादी साहित्य लिखा जाने लगा था। वस्तृतः इससे पहले ही उसके लिए आधारभूमि तैयार होने लगी थी।

प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना:-

1933 में जर्मनी में हिटलर के सत्तासीन होने के बाद से दुनिया भर के लेखक और बुद्धिजीवी फासीवाद के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत महसूस करने लगे थे। उस दौर में मैक्सिम गोर्की जैसे लेखकों ने यह सवाल उठाया था कि ‘किस ओर हो तुम‘।

1934 में सोवियत संघ में लेखक संघ की स्थापना हो चुकी थी। उसके बाद लेखकों को संगठित करने का ऐसा ही एक व्यापक प्रयत्न जुलाई 1935 में हेनरी बारबूज के नेतृत्व में पेरिस में हुआ। इस अवसर पर संस्कृति की रक्षा के लिए विश्व लेखक सम्मेलन बुलाया गया।

‘इस अधिवेशन ने फारसिज्म के खिलाफ तथा उत्पीड़ित राष्ट्र के शोषित जनगण के समर्थन में एवं विचार स्वातंत्र्य की रक्षा के लिए लेखकों की आवाज बुलंद की’। इसी अधिवेशन के अवसर पर ही प्रगतिशील लेखकों की एक स्थायी समिति बनाई गई जिसके अध्यक्ष अंग्रेजी के उपन्यासकार ई.एम. फोरस्टर को बनाया गया।

इस घटना से प्रेरित होकर 1935 में ही लंदन में पढ़ने और रहने वाले कुछ भारतीय लेखकों और बुद्विजीवियों ने भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ’ बनाने का फैसला किया। मुल्कराज आनंद उसके अध्यक्ष चुने गये और सज्जाद जहीर इसके सचिव बनाए गये।

इस बैठक में उन्होंने एक घोषणापत्र भी तैयार किया जिसे उन्होंने सभी प्रमुख भारतीय लेखकों को भेजा। प्रेमचंद जो पहले से ही लेखक संघ बनाने के लिए प्रयत्नरत थे, उन्होंने इसका स्वागत किया और जनवरी 1936 के हंस’ में उन्होंने इस घोषणापत्र का सारांश प्रकाशित किया।

प्रगतिवादी आंदोलन का विस्तार और अवसान:-

प्रगतिशील लेखक संघ का दूसरा सम्मेलन 1938 में कलकत्ता में हुआ। इसका सभापति रवींद्रनाथ ठाकुर को बनाया गया। हालांकि बीमारी के कारण वे सम्मेलन में उपस्थित न हो सके लेकिन उन्होंने अपना लिखित संदेश भेजा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि “जनता से अलग रहकर हम बिल्कूल अजनबी बन जाएँगे

साहित्यकारों को मिलजुल कर उनहें पहचानना है।.अगर साहित्य मानवता से तादात्य स्थापित न कर सका तो वह अपने लक्ष्य और आकांक्षाओं को पाने में विफल रहेगा।”

प्रगतिशील लेखक संघ के विस्तार के साथ लेखकों के व्यापक संयुक्त मोर्चे सदाल भी उपस्थित हुआ। प्रगतिशील लेखकों के मोर्चे में किस तरह के लेखकों को शामिल किया जाना चाहिए. इसको लेकर बहस चल पड़ी।

माक्सवादी और गैरमाक्सवादी लेखकों में ही नहीं स्वयं माक्सवादी लेखकों में भी इस बारे में तीखे मतभेद थे। इस बात पर भी बहसें चल रही थीं कि कौन लेखक प्रगतिशील है और कौन प्रतिक्रियावादी। कौन सी साहित्यिक प्रवृत्ति प्रगतिशील है और कौन सी प्रगतिविरोधी।

प्रगतिशील लेखक संघ ने आजादी के संघर्ष के उस दौर मे लेखकों में जनता से जुड़े सवालों के प्रति गहरी वचनबद्धता का माहौल बनाने में जर्बदस्त पहल की थी और जिसका प्रभाव उस समय के लेखन पर साफ तौर पर देखा जा सकता था ।

इस दौर में बहुत सा ऐसा साहित्य भी लिखा गया जो अंग्रेज सरकार का कोपभाजन बना, जिन पर प्रतिबंध लगाया गया या जिन पर अश्लीलता के आरोप लगाकर मुकदमे दायर किए गये। इसके बावजूद कई नई पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। लेखकों को ऐसे मंच मिले जिनके द्वारा वे नये तरह के साहित्य को जनता तक पहुँचा सकें ।

प्रगतिवाद का यह आंदोलन सिर्फ साहित्य तक सीमित नहीं रहा। प्रगतिशील लेखक संघ की पहल से 1943 में भारतीय जन नाट्य संघ की स्थापना बंबई में की गई। थोड़े समय में ही इप्टा की
टोलियाँ देश के कोने-कोने में स्थापित हो गई और उनके द्वारा फासीवाद, अकाल और भुखमरी और साम्राज्यवादी दमन के विरुद्ध नाटक खेले गये।

आजादी के बाद नाटक और सिनेमा की अधिकांश महत्वपूर्ण हरस्तियाँ इप्टा से ही जुड़ी थीं। सोवियत संघ पर फासीवाद हमले के बाद फासीदाद के विरुद्ध जगह-जगह सम्मेलन आयोजित हुए जिसमें प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा ने बढचढ़ कर हिस्सा लिया।

प्रगतिशील साहित्य का उदय:-

हिंदी में प्रगतिशील साहित्य का उदय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ शुरू हुआ यह समझना सही नहीं है। प्रगतिशील साहित्य की रचना उससे पहले ही होनी शुरू हो गई थी।

यदि देखें तो इसकी परंपरा भारतेंद् युग से दिखाई देती है जब उस दौर के लेखकों ने भक्ति और श्रुंगारपरक साहित्य रचने के साथ साथ अपने समय और समाज के ज्यादा बृहत्तर सवालों पर साहित्य लिखना आरंभ किया।

कविता में तो इस नये रुझान की अभिव्यक्ति धीरे-धीरे हुई लेकिन गद्य की विधाओं में तो नये सवाल ही प्रमुखता से उभर कर सामने आए यह प्रवृत्ति लगातार दृढ़ होती गई ।

प्रेमचंद, प्रसाद, सुदर्शन, विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक आदि लेखकों की कहानियों, उपन्यासों और नाटकों में राष्ट्रीय मुक्ति और जागरण की भावना से ओतप्रोत साहित्य रचा जाने लगा था। यह प्रगतिशील साहित्य ही था।

यदि यह साहित्य नहीं रचा जाता तो हिंदी में प्रगतिशील साहित्य की बुनिक्षाद खड़ी नहीं होती। प्रगतिशील साहित्य को विदेशी प्रभाव बताने वाले लेखकों के कुतर्क का जवाब यही जनोन्मुखी परंपरा है।

इसी ने प्रगतिशील साहित्य के लेखन के लिए अनुकूल माहौल बनाया। इस इकाई में हम प्रगतिशील साहित्य की सभी विधाओं का परिचय नहीं देंगे और अपने को सिर्फ कविता तक ही सीमित रखेंगें क्योंकि कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना और अन्थ गद्य विधाओं के विकास का अध्ययन आप आगे की इकाइयों में करेंगे।

प्रगतिशील साहित्य के रचनाकारों ने अपने उपन्यासों और कहानियों में सिर्फ किसान और मजदूरों के जीवन को ही नहीं प्रस्तुत किया बल्कि अधिकतम के जीवन की वेदना को भी चित्रित किया। उन्होंने स्त्री- पुर संबंधों क नये दृष्टिकोण से पेश किया उनके चित्रण में कई बार मध्यवर्गीय कुंठाओं की अभिव्यक्ति हो लेकिन वे कई तरह की वर्जनाओं को तोड़ने में कामयाब रहे।

हिंदी में प्रगतिशील काव्य की परंपरा:-

1930 के दशक तक आते-आते जब स्वाधीनता आंदोलन में किसान-मजदूर जनता की भागीदारी बढ़ने लगी थी, तब छायावाद की प्रासंगिकता भी समाप्त होने लगी थी। दूसरे शब्दों में छायावाद का पतन अवश्यंभावी हो गया था।

छायावाद के उत्तरकाल में राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कविताएँ लिखने की प्रेरणा लेकर जो कवि सामने आए उनमें माखनलाल घतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, रामधारी सिंह दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहन लाल द्विवेदी आदि प्रमुख थे।

उन्होंने ऐसी कविताएँ लिखीं जिनमें क्रांतिकारी भावनाओं का प्रभाव था और जो समाजवादी विचारों के प्रभाव में भी थे। पंत और निराला की कविताओं में परिवर्तन के संकेत मिलने लगे थे। पंत अब युगांत युगवाणी और ग्राम्या के माध्यम से साम्यवादी प्रभाव में एक नये तरह का समाज बनाने का स्वप्न व्यक्त कर रहे थे। हालांकि उनकी कविताओं में सामान्य जन के प्रति सहानुभूति बौद्धिक ही अधिक थी लेकिन उस समय इसका भी महत्व था।

प्रगतिशील कवियों ने कविता में विषय वस्तु के महत्व को समझते हुए यह जान लिया था कि कविता सिर्फ जनता के प्रति गहरी प्रतिबद्धता और प्रगतिशील विषयों पर लिखी जाकर ही महान नहीं बनती यदि कवि की प्रतिबद्धता सच्ची और गहरी है तो वह अपनी बात को साहित्य के माध्यम से प्रभावशाली रूप में कहने के लिए कविता के उपकरणों का प्रयोग भी वैसी ही गहरी प्रतिबद्धता के साथ करेगा।

वह अपनी बात कहने के लिए अब तक आजमाए गए काव्य उपकरणों का अनुकरण ही नहीं करेगा बल्कि नए उपकरणों की खोज भी करेगा। यही कारण है कि प्रगतिशील कविता के प्रमुख स्तंभ नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि में से किसी की भी कविता दूसरों की कविता का अनुकरण नहीं है। विषय- वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टियों से प्रगतिशील कविता की विविधता हिंदी काव्य परंपरा की समृद्धि का प्रतीक कही जा सकती है।

एक आंदोलन के रूप में प्रगतिवाद का अवसान भले ही पचास के आसपास हो गया हो, लेकिन प्रगतिशील कविता का अवसान कभी नहीं हुआ। प्रयोगदाद, नयी कविता के दौर में प्रगतिशील कविता
विचार और शिल्प दोनों स्तरों पर अपनी अभिव्यक्त के लिए संघर्ष करती रही और अंततः सत्तर के दशक में एकबार फिर प्रगतिशील और जनवादी कविता व्यक्तिवादी काव्यधारा को पीछे धकेलती हुए अपने को स्थापित करने में कामयाब रही।

हिंदी में प्रगतिशील कविता की परंपरा के संक्षिप्त परिचय के बाद आइए, हम प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों का परिचय प्राप्त करें।

प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियोँ:-

राष्ट्रीयता की भावना की अभिव्यक्ति:-

प्रगतिवाद में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति एक प्रमुख विशेषता रही है। यह वह दौर था जब देश अंग्रेजी राजसत्ता के अधीन था और उससे मुक्ति का संघर्ष दिन-ब-दिन तेज होता जा रहा था। इस संघर्ष
में जनता के व्यापक हिस्से शामिल होते जा रहे थे।

उत्तर छायाबादी कविता में तो देशभक्त एक अहमू मसला हो गया था। उस समय के कई लेखक स्वयं भी राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे। कविता करना और आजादी के संघर्ष में भाग लेना उनके लिए अलग-अलग बातें नहीं थी। छायावाद के दौर से यह एक महत्त्वपूर्ण बदलाव था।

सुभद्रा कुमारी चौहान, नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर ही नहीं बाद में प्रगतिवाद से जुड़े राहुल सांकृत्यायन, नागारजुन, शील, यशपाल, शिव वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त, हंसराज रहबर आदि कई साहित्यकार राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए।

आजादी के बाद की निराशाजनक तस्वीर ने प्रगतिशील रचनाकारों को उस समय की राष्ट्रीय सरकार की आलोचना करने को प्रेरित किया। लेकिन मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग का एक हिस्सा इससे भिन्न ढंग से सोच रहा था।

वे किसान-मजदूरों के हितों से ज्यादा आअपने हितों को तरजीह दे रहे थे और उन्हें उम्मीद थी कि ऐसे बदलाव होंगे जो उनके हित में जाएँगे। यही कारण है कि जल्दी ही कवियों का एक हिस्सा देशभक्ति और जनता के प्रति लगाव का भाव भूल गया और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति पर ज्यादा
बल देने लगा।

वामपंथी विचारधारा और राजनीति का प्रभाव:-

प्रगतिशील कविता पर माक्सवाद के प्रभाव का कारण सन् ’30 के बाद की परिस्थितियों हैं। 1917 में रूस की बोल्शेविक क्रांति और सोवियत संघ के असतित्व में आने ने दुनिया भर के कलाकारों और
बुद्धिजीवियों को प्रभावित और प्रेरित किया था।

सोवियत संघ ने उपनिवेशवाद के खिलाफ संधर्ष को अपना समर्थन दिया और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान फासीवाद पर सोवियत संघ की लाल सेना की निर्णायक जीत ने दुनिया भर की दामपंथी और प्रगतिशील ताकतों के हौंसले बुलंद किये।

इसका असर भारत के लेखकों और बुद्धिजीवियों पर भी पड़ना स्वाभाविक था। मैथिलीशरण गुप्त से लेकर सुमित्रनंदन पंत ने माक्स और माक्सवाद के प्रति कविताओं के माध्यम से अपने श्रद्धाभाव का इजहार किया। जब हिटलर की सेना सोवियत संघ में मास्को तक पहुँच गई और बाद में उसे बर्लिन तक खदेड़ा गया तो इस ऐतिहासिक संधर्ष को लेकर हिंदी कवियों ने वेरों कविताएँ लिखीं।

मास्को -मुक्त पर मुक्तियोध ने लाल सलाम कविता लिखी, शमशेर ने वाम वाम वाम दिशा कविता द्वारा वामपंथ की अपरिहार्यता को रैखांकित किया :

सोवियत रूस में जो नया देश और नया मानव निर्मित हो रहा था, उसी ने यह विश्वास उत्पन्न किया था कि आज का समय साम्यवादी है।

लेकिन बाद में जब सोवियत सेना ने चेकोस्तलोदाकिया और हंगरी में वहाँ की समाजवादी सरकारों को बचाने के लिए प्रवेश किया, जब स्टालिन के शासन के कई नकारात्मक पहलू सामने आए और जब अमरीका के नेतृत्व में शीतयुद्ध का प्रभाव तीसरी दुनिया के देशों के बुद्धिजीवियों में बढ़ने लगा तो सोवियत संघ ही नहीं माक्सवाद के प्रति लेखकों और बुद्धिजीवियों का आकर्षण कम होने लगा। कई ऐसे कवि जो आरंभ में प्रगतिबाद के साथ थे, बाद में उससे अलग ही नहीं उसके विरोधी भी हो गये।

शोषित-उत्पीरड़ित जनता से जुड़ाव:-

प्रगतिशील कविता में पहली बार किसान-मजदूरों के प्रति गहरी सहानुभूति और लगाव की अभिव्यक्ति हुई और शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति के सामूहिक प्रयासों की जरूरत को रेखांकित ही नहीं किया बल्कि यह भी बताया कि जन क्रांति इसका एकमात्र रास्ता है।

मुक्तिबोध ने इस संदर्भ में यह भी प्रश्न उठाया कि मध्यवर्ग को यह तय करना होगा कि वे इस संघर्ष में किस ओर है प्रगतिशील कविता के दौर में ऐसी बहुत सी कविताएँ लिखी गई जिनमें जनता के वेदना की ही अभिव्यक्ति ही नहीं थी बल्कि उनकी संधर्ष क्षमता को भी बाणी दी गई थी। कवियों ने इस बात को खास तौर पर रेखांकित किया था कि एक रचनाकार के लिए मुक्ति का रास्ता जनता के साथ जुड़ने में ही है।

पराम्य जीवन के प्रति लगाव:-

हिंदी के अधिकांश प्रगतिशील साहित्य के कवियों का संबंध गाँवों से था इसलिए यह स्वाभाविक था कि उनकी कविता में ग्राम्य जीवन के चित्रण पर अधिक बल होता। नरेंद्र शर्मा, केदार, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, त्रिलोचन, शील आदि की कविताओं में ग्राम्य जीवन की प्रमुखता का यही कारण था। प्रगतिवाद से पूर्व के काव्य में ग्राम्य जीवन की अभिव्यक्ति आमतौर पर रूमानी किस्म की थी, जिसका मूल भाव कुछ इस तरह का होता अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है?

यद्यपि पंतजी ने अपनी प्रगतिशील साहित्य के कविता की शुरुआत ग्राम्य जीवन की अभिव्यक्ति से ही की थी और निराला की कविताओं में भी ग्राम्य जीवन के प्रभावशाली चित्र भौजूद हैं लेकिन ग्राम्य जीवन में व्याप्त विषमताओं, विडंबनाओं और संघर्षों का जैसा चिक्रण प्रगतिशील कविता में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ग्राम्य जीवन के चित्रण में विविधता का अभाव है।

प्रगतिशील साहित्य के कवियों ने ग्राम प्रकृति और ग्राम परिवेश कै भी बहुरंगी चित्र अपनी कविताओं में अंकित किए हैं । इस दृष्टि से नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन की कविताएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। नागा्जून की कविता में मिथिलांचल, केदार के यहां बुंदेलखंड और त्रिलोचन की कविता में अवध जनपद का सौंदर्य जैसे मूर्तिमान हो उठा है।

ये कवि प्रकृति का चित्रण करते हुए भी कभी भी वहाँ के लोगों और वहाँ के सामाजिक जीवन को नहीं भूलते। केदार की कविता का यह अंश इसका ज्वलंत प्रमाण है:

शोषक सत्ता का विरोध:-

प्रगतिशील साहित्य के कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति यह है कि इसमें पूँजीवादी, सामंतवादी और साम्राज्यवादी शोषक सत्ता का विरोध लगातार दिखाई देता है। जब प्रगतिशील कवि मेहनतकश जनता के समर्थन में खड़े होते हैं और उनका तका शोषण- उत्पीड़न करने वाले वर्गों का विरोध करते हैं तो र जाहिर है कि वे पूँज़ीवाद, सामंतवाद और साम्राज्यवाद का विरोध करेंगे।

आजादी के पहले प्रगतिशील कविता की मुख्य धारा पूजीवादी-साम्राज्यवादी ब्रटिश सत्ता के विरुद्ध थी लेकिन आजादी के बाद उनकी धारा सामंतवादी-पूंजीवादी भारतीय राजसत्ता के खिलाफ हो गई। इसका अर्थ यह नहीं था कि आजादी से पहले प्रगतिवाद ने सामंतवाद का विरोध नहीं किया और न ही इसका मतलब यह है कि आजादी के बाद साम्राज्यवाद का विरोध समाप्त हो गया। फिर भी, प्रगतिशील साहित्य में तत्कालीन राजसत्ता का विरोध एक भुख्य मुदा था।

सामंतवाद का विरोध नवजागरण के दौर से ही हिंदी साहित्य का एक ज्वलंत विषय रहा है। हम पाते हैं कि हिंदी कविता छायावाद तक सामंतवाद का विरोध करते हुए लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता और समानता के आधुनिक जीवन मूल्यों की तरफ बढ़ रही थी, लेकिन प्रगतिवाद से पूर्व की कविताओं में सामंतवादी जीवन मूल्यों से पूरी तरह मूक्ति भी नहीं मिल पाई थी।

पुनरुत्थानवादी प्रभाव की बात इसी परिप्रेक्ष्य में कही जाती रही है। लेकिन प्रगतिशील आंदोलन ने सामंतवाद और पूँजीवाद के प्रति संघधर्ष को मुख्य भेद बनाया जिसकी अभिव्यक्ति निराला जैसे कवियों के यहाँ भी हम देख सकते हैं । निराला की बादल राग कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है जो प्रगतिशील आंदोलन से पूर्व ही लिखी जा चुकी थी।

निराला के यहाँ प्रगतिशील काव्यांदोलन के दौर में तो इस तरह की कविताएँ मुख्य स्वर बन गई। बाद में, नागार्जून, केदार, शील आदि की कविताओं में सामंतवादी शोषण के विभिन्न रूपों पर तीखा प्रहार किया गया है।

सामाजिक परिवर्तन पर बल:-

प्रगतिशील साहित्य के कविता की एक अन्य प्रवृत्ति रही है सामाजिक यथार्थ के चित्रण पर बल। इस संदर्भ में नामवर सह की यह बात खास तौर पर उल्लेखनीय है। उनका कहना है, “जिस तरह कल्पनाप्रवण अंतर्दूष्टि
यावाद की विशेषता है और अंतर्मुखी बौद्धिक दृष्टि प्रयोगवाद की उसी तरह सामाजिक यथार्थ दृष्ट गतिवाद की विशेषता है।”

इसी सामाजिक यथार्थ दृष्टि के कारण ही वे समाज में व्याप्त कई ऐसी वकृतियों का विरोध करने मैें सक्षम हो सके जिसके कारण समाज का एक बड़ा हिस्सा नारकीय और राधीन जीवन जीने के लिए अभिशप्त था। नारी की पराधीनता, दलितों का उत्पीड़न तथा शोषण और सांप्रदिक विद्वेष के खिलाफ प्रणतिशील कवियों ने लगातार आवाज उठाई।

वे यहह जानते थे कि ये जें सिर्फ पूँजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ जहर उगलने से ही समाप्त नहीं होंगी और न जनीतिक परिवर्तनों से ही जातिवाद, सांप्रदायिकता और नारी मुक्ति के प्रश्न एक बारगी हल हो सकते। इसके लिए जनता की चेतना को बदलने की भी जरूरत है। यही कारण है कि प्रगतिशील कविता में न विषर्यों पर अत्यंत मार्मक कविताएँ लिखी गई जिनका मकसद यही था कि जनता में जाति, धर्म, लंग और भाषा की भिन्नताओं के बावजूद व्यापक एकता कायम हो सकी।

प्रगतिशील साहित्य के कवियों ने ऐसी सामाजिक विषमताओं, रू़ियों और बंधनों का भी विरोध किया जिनके कारण लोगों में नरक से निकलने की इथ्छा शक्त भी समाप्त हो जाती है। वे अपने जीवन में आने वाली सारी मुश्किलों को ईश्वर और भाग्य का खेल समझकर चुपचाप झेलते रहते हैं।

प्रगतिशील कविता ने सामाजिक यथार्थ के कुछ अनछुए और स्वस्थ चित्र भी प्रस्तुत किए हैं, खासतौर पर पति -पत्नी के संबंध, पिता-पुत्र के संबंध और इसी तरह के आत्मीय संबंधों के चित्र उनकी कविता को आत्मीय भावबोध से भर देते हैं।

प्रगतिशील साहित्य के कविता के बारे में आमतौर पर यह धारणा फैली हुई है कि वह राजनीतिक कविता है और जिसका काम प्रचार करना है। लेकिन यह सच नहीं है। सच्याई यह है कि प्रणतिवाद जीवन के व्यापक और विराट सत्य को अभिव्यक्त करता है।

जीवन और जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं है जो प्रणतिशील कविता के बाहर है। हॉ, हर कविता में उनकी मुख्य प्रतिज्ञा जनता के प्रति गहरी आस्था और उसकी मुक्ति की कामना है।

प्रगतिशील कविता की शिल्पगत प्रवृतियाँ:-

प्रगतिशील साहित्य के कविता के बारे में उनके आलोचकों का आरोप है कि वे कविता में शिल्प पक्ष की उपेक्षा करते हैं और वस्तु को ही प्रभुखता देते हैं इसके कारण उनकी कविताएँ प्रचारात्मक ज्यादा हो जाती हैं और उनका कलात्मक मूल्य कम हो जाता है।

यह बात प्रणतिवाद के आरभिक दौर के लिए हो सकता है कुछ हद तक सत्य हो, लेकिन इसे आज नकारने के लिए विशेष प्रमाण देने की जरूरत नहीं है। नागार्जून, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, मुक्तिबोध ही नहीं दूसरे भी कई प्रगतिशील कवियों की कविताएँ इस बात का प्रमाण है कि प्रगतिशील कविता में रूप और शिल्प की कभी उपेक्षा नहीं हुई।

हॉ, यह जरूर है कि किसी भी काब्य प्रवृत्ति में सभी कवि एक सी प्रतिभा के नहीं होते और न ही सभी कवियों की कविताएँ एक समान उकृष्ट् होती हैं। इस संदर्भ मैं. नामवर सिंह का उक्त कथन उल्लेखनीय है, “प्रगतिशील कविता के बारे में अक्सर कहा जाता है कि उसमें कलापक्ष की अवहेलना की जाती है; यदि इसका अर्थ यह है कि प्रगतिशील कवि प्रयोगवादियों की तरह कलापक्ष पर बहुत जोर नहीं देते तो यह ठीक है।

बहुत सजाव-सिंगार और पेथीदगी प्रणतिशील कविता में नहीं मिलती अपनी बात को कितना सुलझाकर उसे कितने सहज ढंग से काह दिया जाए-यही प्रगतिशील कवि का प्रयत्न रहता है उसके
भावों की तरह भाषा भी गाँठ रहित होती है। प्रगतिशील कवि अपना हर शब्द और हर वाक्य चमत्कारपूर्ण बनाने की चेष्टा नहीं करता।”

लेकिन अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए प्रगतिशील कवि कविता के सभी तरह के उपकरणों का प्रयोग करने से संकोच नहीं करता। छंदब्द्ध और छंदमुक्त, देशी और विदेशी, लोक और अभिजात सभी तरह के शिल्प प्रयोग हमे प्रगतिशील कविता में देखने को मिल जाएँगे। भाषा के प्रयोग के |

प्रगतिशील साहित्य के कवि बहुत सावधान रहते हैं। वे के प्रयोग में किसी तरह के को स्वीकार नहीं करते। तत्सम, तदुभव, देशज, विदेशी किसी भी ऐसे शब्दों का प्रयोग वै कर सकते हैं। जिनसे कि उनकी बात प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त हो सके। कविता में जितने तरह के बिंबों और
प्रतीकों का प्रयोग प्रगतिशील कवियों ने किया है, वह अनुपम है।

यदि नागार्जून की कविता में व्यंग्य का उत्कर्ष नजर आता है, तो मुक्तिबोध ने फैंटेसी जैसे बिल्कुल नये शिल्पविधान का प्रयोग कर हिंदी कविता को ऐसी ऊँचाई दी है, जिसकी बराबरी करना आसान नहीं है। त्रिलोचन ने हिंदी में सानेट जैसे विदेशी छंद को लोक छंद का रूप दे दिया है तो शमशेर की कविता के बिंबों के आगे प्रयोगवादियों के बिंब फीके नजर आने लगते हैं।

प्रगतिशील साहित्य के कविता ने हिंदी कविता की भाषा को तत्सम शब्दावली के अभिजात कुहासे से निकालकर आम बोलचाल के नजदीक ला दिया। नागाजुन, केदार, त्रिलोचन आदि ने तो उसे जनपदीय भाषा से सभृद्द्ध कर नयी प्ाणशक्ति प्रदान की

सारांश:-

इस इकाई में आपने प्रगतिशील साहित्य का परिचय प्राप्त किया है। सबसे पहले हभने प्रगतिशीलता के सैद्धांतिक परिप्रे्य को समझाने का प्रयास किया है।

प्रगतिवाद क्या है, माक्सवाद से उसका क्या संबंध है और प्रगतिवादी साहित्य सिद्वांत की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं, इस संदर्भ में हमने बताया कि माक्स समाज के विकास की एक वैज्ञानिक विचारधारा है जो सामाजिक परिवर्तनों की व्याख्या ही नहीं करती बल्कि उसके रूपांतरण के उपायों को भी प्रस्तुत करती है प्रगतिवादी साहित्य सिद्धांत बताता है कि साहित्य का उद्देश्य क्या होना चाहिए।

वह जनता की भावनाओं, आकांकओं और सपनों को व्यक्त करने पर बल देता है। वह वस्तुू पर बल देकर भी रूप की उपेक्षा नहीं करता। प्रगतिवाद ने आंदोलन का रूप बीसवीं सदी के तीसरे दशक में लिया था, जब दुनिया में फासीवाद के उदय के कारण विश्वयुद्ध का आसन्न संकट उपस्थित हो गया था।

हमारे यहाँ आजादी का आंदोलन भी मध्यवर्ग की सीमाओं से पार जाकर जनता का आंदोलन बन गया था। किसानों और मजदरों की भागीदारी ने आंदोलन के चरित्र को बदल डाला था और देश में वामपंथ की ताकतें उभरने लगी थीं।

प्रगतिशील साहित्य के लेखक संघ की स्थापना 1936 में लखनऊ में हुई थी जिसका सभापतित्व ्रेमचंद ने किया था। लेकिन लेखक संघ बनाने के प्रयास इससे पहले से शुरू हो गये थे। दुनिया के दृूसरे देशों में फासीवाद के विरूद्ध संस्कृतिकर्मीं संगठित हो रहे थे। भारत में भी उपनिवेशवाद के विरुद्ध लेखक प्रणतिशाली लेखक संध के इझंडे तले एकत्र हुए।

प्रगतिशील साहित्य के लेखक संघ अखिल भारतीय आंदोलन था। इसमें सभी भारतीय भाषाओं के लेखक शामिल थे। प्रले. सं. ने भारतीय जन नाद्य संध की स्थापना की भी प्रेरणा दी।

आजादी के कुछ सालों बाद इस आदोलन में राजसत के चरित्र को लेकर और साहित्यकारों को संगठित करने के सवाल पर बढ़ते मतभेदों के कारण संगठन बिखरने लगा। प्रगतिशील साहित्य का उदय प्रणतिशील लेखक संघ की स्थापना से पहले ही होने लगा था। इसने साहित्य को गहरे तक प्रभावित किया।

प्रगतिशील साहित्य सभी विधाओं में अपने को अभिव्यक्त कर रहा था लेकिन इस इकाई में हमने कविता का ही विस्तार से परिचय दिया है।

अंतिम कुछ शब्द :-

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