निर्गुण संत काव्यधारा की सम्पूर्ण जानकारी (Nirgun Sant Kavya Ki Sampurn Jankari)

निर्गुण संत काव्यधारा की सम्पूर्ण जानकारी (Nirgun Sant Kavya Ki Sampurn Jankari):-

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हिन्दी साहित्य के निर्गुण संत काव्यधारा कवियों की ज्ञान के आधारित निष्पक्षता, न्यायप्रियता, भक्तिभावना और काव्यधारा को साहित्य तथा जन जागरूकता मैं दृष्टिगत करने के लिए इसे ज्ञानमार्गी काव्यधारा की संज्ञा दी जाती है। इस काव्यधारा के लिए ‘संत काव्यधारा’ और ‘निर्गुण काव्यधारा’ तथा ‘निर्गुण संत काव्यधारा‘ आदि नाम भी दिए गए हैं।

भक्तिकाल प्रारम्भिक पर्याय की विषम राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में ज्ञान रूपी आशा की ज्योति प्रसारण का कार्य संत काव्यधारा के कवियों ने किया।

उन्होंने तत्कालीन धार्मिक मान्यताओं को अपने जीवन के व्यापक अनुभव के आधारों के वल पर जनसामान्य के लिए बोधगम्य बनाया। आगे हम इसी निर्गुण संत काव्यधारा प्रमुख प्रवृतियाँ, कवयशैली तथा संत मत और उनके सिद्धांतों के वारे मैं बिस्तार से आलोचना करेंगे।

निर्गुण संत काव्यधारा (Nirgun Sant Kavyadhaara):-

देखा जाए तो निर्गुण संत काव्यधारा के उद्भव में तत्कालीन युगीन परिवेश की सबल भूमिका रही है। इन कवियों ने हिन्दू और मुसलमान दोनों को समाज के अभिन्न अंग के रूप में मान्यता प्रदान करते हुए उनमें भावात्मक एकता लाने का प्रचुर प्रयास किया।

इन्होंने विभिन्न विवादों को छोड़कर निर्गुण के आधार पर राम और रहीम को एकाकार करने का अनूठा कार्य किया और धार्मिक सहिष्णुता को संत कवियों ने सामाजिक विकास के लिए आवश्यक माना। उनके साहित्य में आध्यात्मिक चेतना के साथ-साथ सामाजिक चेतना भी काफी सक्रिय थी।

संत काव्य का अध्ययन करते हुए आप पाएँंगे कि उनके काव्य में सामाजिक मूल्यों के प्रति गहरी चिन्ता मिलती है। सामंती समाज के वर्णवादी मूल्यों के प्रति उनमें आक्रोश है। वर्णवाद सामाजिक विषमता को पैदा करता है। इस सामाजिक विषमता के विरुद्ध संत कवि खड़े होते हैं। संत कवि वर्णवादी समाज को तोड़कर मानवतावादी समाज की स्थापना के लिए प्रपत्नशील थे।

संत शब्द का अर्थ (Sant Shabd Ka Arth):-

संत शब्द का प्रयोग प्रायः बुद्धिमान पवित्रात्मा, परोपकारी व सज्जन व्यक्ति के लिए किया जाता है। संत शब्द उस शुद्ध ‘अस्तित्व’ का बोधक है जो सदा एकरस तथा अविकृत भाव रूप में विद्यमान रहता है।

इस शब्द के सत् रूप का, ब्रह्म या परमात्मा के लिए किया गया प्रयोग बहुधा वैदिक साहित्य में भी पाया जाता है। अतएव संत शब्द, उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है जिसने सत् रूपी परमतत्व का अनुभव कर लिया हो और जो अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके साथ तद्रूप हो गया हो।

इसीलिए जो इस प्रकार जो सत्य का साक्षात्कार कर चुका हो, वही संत है । संत शब्द में व्यक्ति विशेष की ‘रहनी’ तथा ‘करनी’ का सुंदर सामंजस्य भी परिलक्षित होता हैं।

निर्गुण संत काव्यधारा के संत मत (Nirgun Sant Kavyadhaara Ke Sant Mat):-

संत मत पहले से निश्चित किसी सिद्धवान्त या मत का संग्रह मात्र नहीं है। इसका प्रसार भिन्न संतों द्वारा समय-समय पर दिए उपदेशों से भी नहीं हुआ है। यह परम्परा, अनुभव से ज्ञान का संधान कर प्रसार को प्राप्त करती है।

कबीरदास बोलते है :- “सतगुरु तत कह्यौ बिचार, मूल गह्यौ अनभ विस्तार।’ तत्व का ग्रहण कर, अनुभव और विवेक के समन्वय से ही यह मत अस्तित्व में आया।

और बुद्धदेव बोलते है :- “कोई बात इसलिए न मानो, कि वह किताबों में लिखी है, कि वह तुम्हारे मत के अनुरूप है, कहने वाला सुवेश है, अधिक पढ़ा-लिखा है, वयोवृद्ध है, तुम्हारा श्रद्धेय है। जब तुम मर्म विवेचन से यह जान लो कि वह जो कुछ कह रहा है, उसमें तुम्हारा ही नहीं दूसरों का भी कल्याण है, तभी मानो” या “अपना दीपक स्वयं बनो”

कबीर आदि संतों ने भी आअनुभव और विवेक को तरजीह दी है। राम नाम के महत्व का स्वीकार तो अन्य मत भी करते हैं, किन्तु करकीरदासादि संत. इसका मर्म जान लेने को महत्व देते हैं । इसके रहस्य का परिचय प्राप्त कर लेने की बात कहते हैं।

संत कवि ईश्वर से तादात्म्य करने के लिए नामोपासना की पद्धति को स्वीकार करते हैं। परमतत्व के विषय में किसी प्रकार का दारशनिक विवेचन इन्होंने महीं किया। इसे ये कवि राम, खुदा, रहीम, ब्रह्म आदि अनेक नामों से पुकारते तो हैं, पर सबका लक्ष्य परमतत्त्व का साक्षात्कार करना ही है।

नामस्मरण की विशेषता है कि इसमें साधक का ध्यान बराबर अपने इष्ट देव में लगा रहता है, उसे एक क्षण के लिए भी अपनी साधना को छोड़ना नहीं होता है । इसके लिए किसी प्रकार के बाह्य कर्मकाण्डगत उपकरणों की आवश्यकता नहीं पड़ती। उन्हें सदैव ईस्वर की ही स्मृति रहती है।

संतों की यह साधना पद्धति अजपाजाप के नाम से प्रसिद्ध है। संतों की बानियों में योगसाधना के प्रतीकों की चर्चा भी मिलती है। कुंडलिनी, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाड़ियाँ और छः चक्र – मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूरक चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्, आज्ञा चक्र एवं सहम्नार चक्र का उल्लेख भी इनके काव्य में मिलता है।

संतों ने अष्टांग योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि में से भी प्राय: सभी का उल्लेख किसी न किसी प्रकार किया है। संतों की निर्गुण निराकार की उपासना पद्धति को ‘अभेद’ शक्ति का नाम दिया जाता है।

किन्तु यह नहीं मानना चाहिए कि उनकी भक्ति पूर्णत: भावात्मक है। भक्ति के आलम्बन राम निर्गुण निराकार हो सकते हैं पर उपासना के क्षेत्र में आते ही वे अनुपम व्यक्तित्व से मंडित हो जातेि हैं। इस प्रकार राम की उपासना की विधि बताकर संत कवि मनुष्य के मन में ‘सत्‘ का विकास करना चाहते हैं।

उनका लक्ष्य है कि दया, ममता, स्नेह, परोपकार जैसे कोमल भाव मनुष्य के हृदय की सम्पत्ति होने चाहिए, इनके लिए हमें किसी अवतारी राम या कृष्ण की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। अवतारवाद, परावलम्बन की माँग करता है, जबकि मनुष्य का विकास, विश्व कल्याण स्वावलंबन एवं परदुःखकातरता की भावना से ही हो सकता है।

निर्गुण संत साहित्य की प्रमुख प्रवृतियाँ (Nirgun San Sahity ki Pramukh Pravrutiyan):-

निर्गुण संत काव्यधारा के साहित्य का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि लगभग सभी संत कवियों ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल देते हुए सामान्य जन को निर्गुण राम की उपासना का व्रत देकर, निर्गुण पंथ के इन कवियों ने भक्ति को, लोक में समटिल्य के रूप मैं स्थापित करने का माध्यम बनाया। निर्गुण संत काव्यधारा के मुताबिक निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति सद्गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान से ही हो सकती है।

उनके अनुसार लोक में फैले माया जाल के आवरण को भेद कर ज्ञान के चक्षुओं को खोल कर साक्षात् सत्य रूपी परब्रह्म का साक्षात्कार सद्गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान से ही संभव है। इस ज्ञान के महात्म्य ने समाज की वैषम्यतामूलक स्थिति की ओर संत कवियों का ध्यान आकृष्ट किया।

लोक प्रवर्तित यही दृष्टि आगे चलकर समन्वित रूप में लोकधर्म के रूप में प्रचलित हुई। आइए, अब हम संत काव्य की प्रमुख प्रवृ्तियों की चर्चा करें :-

भक्ति निरूपण (Bhakti nirupan):-

निर्गुण संत काव्यधारा के कवियों के लिए भक्ति शान्ति की खोज में आए साधक की शरणभूमि न थी। यह उनकी कर्मभूमि थी। इसी से वे लोक हृदय को आस्था का संबल दे सके तथा सामाजिक ऐक्य की स्थापना के लक्षय की ओर प्रयत्नशील हो सके।

प्रचलित सामान्य आर्थ में ईश्वर के प्रति सहज आसक्ति ही भक्ति है। इसमें श्रद्धा और प्रेम के तत्वों का योग आवश्यक है।

निर्गुण संत काव्यधारा के कवियों ने भक्ति के अनुभूति-पक्ष को ही प्रधान रूप से चित्रित किया है। निर्गुण ब्रह्म की प्रतीति ज्ञान के द्वारा ही की जा सकती है। इसी हेतु इन कवियों को ज्ञानमार्गी कहा जाता है। इन्होंने सगुणवाद, अवतारवाद और मूर्तिपूजा आदि को सर्व्था त्याज्य बताया और केवल निर्गुण ब्रह्म की सत्ता को ही स्वीकार किया।

निर्गुण संत काव्यधारा के संतों की भक्त के उपास्य परब्रह्म परमेश्वर हैं। इन्होंने एकमात्र उन्हीं की भक्ति को भवसागर से मुक्ति का एकमात्र साधन बताया है। ईश्वर के प्रति अनुराग प्रकट करने के लिए इनकी साधना पद्धति स्वानुभूतिपरक, आत्मनिवेदन तथा नामस्मरण की साधना को स्वीकार करती है।

अपने ईश्वर के प्रति वे दास्य, दैन्य, सख्य, रति, वात्सल्य आदि सभी भावों से अपना हृदय जुड़ाते हैं। निर्गुण संत काव्यधारा के संत कवियों के भक्ति भाव में सबसे पहले अहम् का त्याग आवश्यक है। अहम् का नाश होते ही भक्त और भगवान का अन्तर समाप्त हो जाता है।

इस प्रकार की भक्ति साघना निश्चय ही बहुत दुष्कर है क्योंकि इसमें साधक को अपने शरीर के भीतर के शत्रुओं से जीतना पड़ता है।

सामाजिक चेतना (Samajik Chetana):-

जहां एक और हिंदू समाज की शास्त्रीय धर्म पर आधारित वर्णाश्रमवादी व्यवस्था थी जिसका विरोध बौद्ध सिद्ध-नाथ आदि ने भी किया, तो दूसरी ओर इस्लाम की धार्मिक, उग्रता और सामाजिक विषमता थी। इन दोनों ही स्थितियों में व्यवस्था के दुष्चक्र में आम आदमी पिस रहा था ।

उस कठिन समय में खतरा मनुष्यता को ही था। ऐसे समय भारतीय संस्कृति को आस्था का सम्बल प्रदान करने का श्रेयस्कारी कार्य निर्गुण संत काव्यधारा के संत कवियों द्वारा हुआ। इनकी मनुष्यता में अटूट आस्था थी और निर्भीकता इनकी सम्पत्ति थी।

मनुष सत्य’ सन्त कवियों का ही नहीं, समग्र भक्तिकाल के कवियों का मानव मूल्य था। निर्गुण संत काव्यधारा के संत कवि ईष्य, क्रूरता, कामुकता, कपट, लोभ, मोह, अहंकार की आलोचना करते थे और प्रेम, स्नेह, करुणा, दया, ममता, उदारता, अहिंसा और समता का विकास चाहते थे।

इनकी रचनाएँ सामाजिक अव्यवस्था, अनैतिकता तथा अनावश्यक विडम्बनाओं के विरोध में रची जाती थीं। अर्थात् भक्ति के क्षेत्र में तो सब समान हैं, किन्तु सांसारिक विधि-विधानों का पालन करना भी आवश्यक है अत: जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था का महत्व भी है।

निर्गुण संत काव्यधारा के संत कवियों ने उस दोहरे आचरण की व्यवस्था पर तिलमिला देने वाले प्रश्नों की बौछार की। उन्होंने स्पष्ट किया कि सत्य विभाजित नहीं हो सकता। क्योंकि उस समय समाज को खतरा शास्त्रीय आडम्बरों और कर्मकाण्डों से ही नहीं, लोकाचार संबंधी कुरीतियों से भी था।

कबीर, नामदेव, सुंदरदास, गुरुनानक देव आदि संतों ने इसे भली भाँति पहचाना। इस प्रथाओं के खिलाओ अपने आवाज बुलंद की और लोगों को इसके विरुद्ध खड़े होने के लिए साहस दिया।

सदगुरु की महत्ता (Sadguru Ki Mahatwa):-

संत कवियों ने सांसारिक माया के आवरण से अतीत परब्रह्म निरुपाधि ईश्वर के साक्षात्कार के लिए सद्गुरु के महत्व को स्वीकारा है। यह सदगुरु लोक वेद की असारता द्योतित करते हुए ज्ञान रूपी प्रकाश के दीप को प्रज्ज्वलित करता है।

जिस दिन से संत कबीर ने गुरू रामानन्द से राम नाम की दीक्ष ली, उस दिन से उन्होंने श्रेष्ठ सहज समाधि में भी दीक्षा ली। उनका चलना ही परिक्रमा रूप हो गया और काम-काज ही सेवा हो गए, सोना ही प्रणाम बन गया और बोलना ही नाम सुमिरन हो गया। यह सब गुरू की कृपा से ही हुआ। अतः भक्ति के मार्ग पर सदगुरु ही ऐसा है जो चंचल मन को पंग् बना देता है और सबसे उज्वलल दिखाई देता है।

रहस्यवाद (Rahasyavaad):-

“रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तरहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक आत्मा से अपना शान्त और निश्छल सम्बंध जोडना चाहती है। यह संबंध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कोई अन्तर नहीं रहता आत्मा में परमात्मा के गुणों का प्रदर्शन होने लगता है और परमात्मा में आत्मा के गुणों का प्रदर्शन । दर्शन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।

आत्मा द्वारा परमात्मा के तदाकार के तीन चरण हैं। प्रथम चरण में आत्मा परमात्मा की ओर आकर्षित होती है। द्वितीय चरण में आत्मा परमात्मा से प्रेम करने लगती है। यह प्रेम इतना तीव्र होता है कि सांसारिक वस्तूएँ मायाजन्य एवं नश्वर प्रतीत होने लगती हैं।

तृतीय चरण में आत्मा और परमात्मा में अभिन्न संबंध स्थापित हो जाता है। संतकाव्य में रहस्यवाद, शंकर के अद्वैतवाद, नाथों की योग साधना और सुफियों की प्रेम साधना द्वारा आया। और इसी मार्ग को संत कवियों ने अपने बनियों का मार्ग दर्शक बनाया है।

अद्वैतवाद (Adaitvaad):-

संत कवियों की बानी पर शंकराचार्य के अद्वैतवाद का प्रभाव भी लक्षित होता है। शंकर के अद्वैतवाद में आत्मा और परमात्मा में कोई मूलभूत अंतर नहीं माना गया। आत्मा और परमात्मा, उनके मध्य की दूरी मायो के आवरण के कारण ही है।

कबीर आदि संत भी माया के आवरण को इसी रूप मानते है और बोलते है कि जिस दिन माया का यह आवरण हट जाएगा उसी दिन आत्मा और परमात्मा का एकीकरण संभक है।

निर्गुण के अर्थ एवं स्वरूप (Nirgun Ke Arth Eban Swarup):-

जैसाकि आप जानते हैं कि निर्गुण शब्द का शाब्दिक अर्थ गुण रहित होता है। किन्तु संतों के काव्य में निर्गुण साहित्य का य्योतक न होकर, गुणातीत की ओर संकेत करता है। इनके यहाँ यह किसी निषेधात्मक संत्ता का वाचक न होकर उस परंब्रह्म के लिए प्रयुक्त हुआ है : जो सत्व, रजस और तमस तीनों गुणों से अतीत है, वाणी जिसके स्वकूप का वर्णन करने में असमर्थ है अर्थात जो गूँगे के गुड़ के समान अनुभूति का विषय है; जो रंग, रूप, रेखा से परे है।

परम्परा में भारतीय चिन्तक भी जिसके स्वरूप का वर्णन करने में असमर्थ रहकर नेति-नेति का आश्रय ले बैठे। यह निर्गुण ब्रह्म घट -घट वासी है, फिर भी इन्द्रियों से परे है। वह अवर्ण होकर भी सभी वर्णों में है। अरूप होकर भी सभी रूपों में विद्यमान है। वह देश-काल से परे है, आदि अन्त से रहित है, फिर भी पिंड और ब्रह्मांड सभी में व्याप्त है।

कबीर के अनुसार लोग उसे अजर कहते हैं, अमर कहते हैं, पर वास्तविकता यह है कि वह अलक्ष्य है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसका कोई स्वरूप नहीं है कोई वर्ण नहीं है वह सभी रूपों और सभी वर्णों में है।

उसका न तो आदि है और न अंत। अत: जो पिंड और ब्रह्मांड से भी परे है, वही हरि है। ऐसा हरि जिसका रूप नहीं, रेखा नहीं, जो सूर्य, चन्द्र, पवन, पानी भी नहीं वही संत कवियों का निर्गुण’ है। इसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ब्रह्म’ का पर्याय मानते हैं दृश्यमान जगत से विलक्षण, सबसे न्यारा यह निर्गुण प्रेम से प्राप्य है, अनुभूति का विषय है और भावना की कोमल नाल से भावित है।

भक्ति आंदोलन और निर्गुण संत (Bhakti aandolan Aur Nirgun Sant):-

मध्यकाल में भारतीय संस्कृति के समक्ष इस्लामी आकरमणकारियों के रूप में एक ऐसी विद्रोही शक्ति थी जिसकी अपनी सांस्कृतिक जड़ें काफी गहरी थीं। जिसका उद्देप्य भारत में आकर लूटमार करना मात्र नहीं था।

कुछ क्रूर अत्याचारों से लोगों को जितना चाटे थे तो कुछ औरों की मनीषा समय भर इस पर हुकूमत करना भी था। पर अभी तक जिस समाज के लोगों के लिए कोई विशेष नाम नहीं था, अब उन्हें हिंदू कहा जाने लगा। हिंदू अर्थात गैर इस्लामी।

इस्लाम धर्म पूरी उदारता के साथ हिंदू वर्णाश्रम धर्म आधारित व्यवस्था में आचरण भ्रष्ट समझी जाने वाली जातियों एवं अन्त्यजों को अपनाकर समानता का अधिकार देने को लालायित था।

फिर भी परिस्थितियों में किसी प्रकार सुधार न हो सका। हिंदू जाति वर्णाश्रम धर्म की जटिलताओं से युक्त थी, तो इस्लाम भी धार्मिक कट्टरता की भावना से ग्रस्त था। उधर उत्तर भारत में सिद्धों, नायों के कर्मकाण्ड के कारण सच्ची धर्म भावना का हास हो रहा था। व्यवस्था के इस दुष्चक्र की चक्की में सामान्य जन लगातार पिस रहा था।

इसीबिच दक्षिण से आनेवाली भक्ति की लहर ने हिंदू-मुसलमान दोनों को प्रभावित किया। भक्ति आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण से हुआ। हिन्दी की अनुश्रति इस ओर संकेत करती है: स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में भक्ति के प्रणेता रामानन्द थे और इसे उत्तर में कबीर ने प्रसारित किया।

इनके पहले आलवारों और नयनारों ने दक्षिण भारत में ही भक्ति का प्रयोग बौद्धों के प्रभाव को कम करने के लिए किया था। इन्हीं आलवारों से होती हुई भक्ति की यह धारा नाथमुनि, यमुनाचार्य, रामानुजाचार्य, रामानन्द, बल्लभाचार्य, मध्वाचार्य और विष्णुस्वामी आदि तक में प्रवाहित हुई।

शैवों में वर्तमान भक्ति की धारा नयनारों के बीच विकसित हुई तथा महाराष्ट्र की ओर बह चली।

‘भक्तिकाल की पृष्ठभूमि’ के अनुसार एक आचार्य भक्ति की प्रवृत्ति के प्रवर्तन के लिए मुसलमानों के आक्रमण को महत्व देते हैं, तो दूसरे आचार्य इसे लोकधर्म के बीच से स्वरूप ग्रहण करता हुआ बताते हैं । वस्तुतः दोनों ही भक्ति के उत्कर्ष के लिए इस्लाम की मौजूदगी को किसी न किसी रूप में स्वीकारते हैं ।

इस्लाम की यह मौजूदगी भक्त कवियों के काव्य में दर्ज है। किसी सीमा तक यह आन्दोलन सामाजिक कुरीतियों, अमानवीय व्यवस्था तथा शोषण चक्र के विरुद्ध सामान्य जन के सात्विक रोष की अभिव्यक्ति था।

आबिद हुसैन ने ठीक ही लिखा है कि अगर यूनानियों की तरह, जो दूसरी शती ईस्वी में बख्तर से आए थे, अपने और अपनी संस्कृति के आरंभ स्थान से बहुत अरसे तक उनका नाता टूटा रहता अथवा अगर उनकी संस्कृति सीरियन और हूणों की तरह आदिम होती, तो वे हिंदू समाज में घुल-मिल कर एकात्म हो जाते।

लेकिन पहले तो वे एक समुन्नत अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति के प्रतिनिधि थे, दूसरे वे भारत के बाहर उस संस्कृति के केन्द्रों से थे जिनमे इस्लामी जगत का राजनीतिक केन्द्र बगदाद भी शामिल था, जिसका महत्व आज नाम मात्र को रह गया है, बराबर सम्पक्क बनाए रहे। इन कारणों से उन्हें पूरी तरह भारतीय होने में समय लगा।

काव्यों की अभिव्यक्ति (Kavyon Ki Abhibyakti):-

निर्गुण संत काव्यधारा के संत कवियों की वाणियों में हृदय के सहज, सरल अनुभूतिगम्य भावों के वो पक्ष व्यक्त हुए हैं जो की अधिकांशत: निम्न जाति से संबद्ध थे तथा तदयुगीन विषमता के चलते, जिनके लिए शिक्षा-दीक्षा के पर्याप्त अवसर भी न थे।

अनुभूति प्रेरित इनकी कविता प्रकृति के समान सहज और मुख्य रूप से हर तरह के कलावादी संस्कारों से अछूती थी। मनीषियों द्वारा विवेचित अभिव्यंजना की विविध युक्तियाँ संतों के लिए साधन थे, साध्य नहीं।

जन भाषा में काव्य रचना करने वाले कबीरादि संत भाषा के सामने लाचार नहीं थे, बल्कि भाषा पर इन्होंने ऐसा अधिकार कर लिया था, कि इनके उन्न सहजता में भी तीखापन था, सादगी में भी प्रखरता थी। उनके इन्ही काव्य सरंचना शैलियों पर आगे हम आलोचना करेंगे।

काव्य भाषा (Kaavyabhasha):-

निर्गुण संत काव्यधारा के संत कवियों की भाषा पर विचार करते समय प्राय: उसे अव्याकरणिक, अशुद्ध, अव्यवस्थित और अकाव्यात्मक कहा जाता है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सन्त कवियों की भाषा अपने समय के समाज की भाषा है, वह लोक व्यवहार की सादगी और उत्साह को समेटे हुए है।

इन कवियों ने अभिव्यक्ति के लिए ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अरबी-फारसी, उर्दू, सिंधी, निमाड़ी की शब्दावली का प्रयोग निस्संकोच भाव से किया है। भाषा के इस विस्तार से ज्ञात होता है कि संत कवि इस देश की भाषिक विविधता से परिचित थे तथा वे व्यापक समाज से जुड़ने को इच्छुक थे।

उन्होंने भारतीय समाज के सुख-दु:ख, आशा-आकांक्षा, विरह-वेदना, नैतिकता, शील आदि को व्यक्त करने के लिए देव भाषा संस्कृत का प्रयोग नहीं किया, अपितु जन व्यवहार की भाषा को ही अपनाया। आलोचकों ने इस भाषा की शक्ति एवं तेवर को लक्षित न करके इस पर आक्षेप किया है।

उलटबाँसी शैली मैं रचना (Ulatbaanshi shaili Main Rachana):-

कबीर तथा अन्य निर्गुण कवियों की उलटबासियाँ प्रसिद्ध हैं। पूर्व में इसे ‘संध्या भाषा’ के नाम से जाना जाता था। ‘संध्या भाषा’ से तात्पर्य ऐसी भाषा से है जिसका कुछ अर्थ समझ में आए तथा कुछ अस्पष्ट हो, किन्तु इसके प्रतीक खुलने पर ज्ञान के दीपक से सब स्पष्ट हो जाए।

योगियों के पारिभाषिक शब्दों में उलटी बानी को प्रभावोत्पादक बनाने की क्षमता है। कबीर दास उलटबाँसी शैली का प्रयोग उस योगी को फटकारने के लिए करते हैं जो स्वयं को तीन लोक से न्यारा कहता है। कबीर के अनेक विचार उलटबाँसियों में अभिव्यक्त हुए हैं। विषय की दृष्टि से उलटबाँसियों के निम्न प्रकार हो सकते हैं – संसार से संबंधित, प्रेम साधना से संबंधित, योग से संबंधित तथा आत्मा-परमात्मा से संबंधित।

काव्यों मैं छंद का प्रयोग (Kavyon Main Chhandon Ka Prayog) :-

निर्गुण संत काव्यधारा के संत कवियों ने विविध छंदों में रचना करके भी कविता में वैविध्य का परिचय दिया है। उन्होंने प्राय: रमैनी में दोहा, चौपाई और सोरठा का प्रयोग किया है। साखी अधिकतर दोहों में मिलती है। सबद में राग-रागनियों । और पदों का प्रयोग किया गया है।

इसके अतिरिक्त सोरठा, सार, हरिपद, चौतीसी, बेली, कवित्त, कुंडलियाँ आदि चांदों का प्रयोग भी संतों की बानी में देखने को मिलते हैं। संतों के लिए छन्द साध्य नहीं थे, साधन मात्र थे। सन्त कवियों में सुन्दरदास को काव्य सिद्धान्तों का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने सवैया में भी रचनाएँ की हैं।

काव्य कौशलता (Kavya Koushalata):-

अनुभूत सत्य को सहज सरल रूप में कहने के लिए निर्गुण संत काव्यधारा के संत कवियों को प्रबंधकार कवि के समान भावविधायिनी कल्पना की आवश्यकता न थी।

इसीलिए समाज के मार्मिक बिन्दुओं की पूरी पहचान रखते हुए निर्गुण संत काव्यधारा के कवियों ने अभिव्यक्ति का माध्यम ‘मुक्तक काव्य को बनाया। दो शब्दों में समाज के यथार्थ को उद्घाटित करने का इससे बेहतर साधन न था।

मुक्तक काव्य के अन्तर्गत सबसे अधिक सबद, साखी और रमैनी की रचना की गई। आत्मनिवेदन के लिए गेय पद (सबद) का आश्रय संत कवियों ने लिया है। साखी का अर्थ होता है – चश्मदीद गवाह या साक्षी। अत: संत काव्य में सामाजिक आध्यात्मिक अनुभव को साखी के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।

निष्कर्ष (Conclusion):-

मध्यकालीन निर्गुण संत काव्यधारा ने भक्ति को व्यापक धार्मिक सांस्कृतिक आन्दोलन का स्वरूप प्रदान किया । जिसके फलतः सामाजिक अस्थिरता के उस युग में हिन्दू और मुसलमान के लिए सामान्य भक्ति मार्ग की उद्भावना संभव हो सकी।

यह धर्म का ऐसा स्वरूप था जो प्रमुख रूप से साधना, प्रेम भावना, अहिंसा प्रवृत्ति का, समन्वय का, लोक हृदयों में सामाजिक समरसता की स्थापना की आशा की किरण सुलगा गया। अपनी उपासना पद्धति में सहज, सरल और निर्विकार आत्मा के महत्व का प्रतिपादन करके भक्ति युग की संत काव्य धारा ने मानवता और मानूष सत्य को अपना लक्ष्य बना लिया।

इनकी वाणियों में तीक्ष्णता अवश्य देखने को मिली अरंतु आत्मा का स्वरूप आधा अधूरा ही रह गया। इनका मुख्य लक्ष्य समाज के सभी वर्ग एवं वर्ण के मनुष्यों को ऊध्धान्मुली विकास के लिए समान धरातल प्रदान करना था।

संतों की वाणी काव्यत्व की दृष्टि से भी उत्तनी ही सशक्त है, जिसका प्रमुख कारण भाषागत सहजता और लोकभाषा की ओर झुकाव था। वास्तव में निर्गुण ज्ञानमार्गी संत काव्यधारा भक्ति आंदोलन के आने वाले समय के लिए तत्कालीन जन समाज को जागृत कर एक सशक्त पृष्ठभूमि तैयार करने में सक्षम हो सका था।

अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs) :-

  • निर्गुण संत काव्यधारा के प्रमुख संत कवि कौन है?

निर्गुण संत काव्यधारा के प्रमुख कवि कबीर, रैदास, दादू दयाल, नानक तथा मलूकदास आदि को माना जाता हैं।

  • निर्गुण संत काव्यधारा क्या है?

निर्गुण संत काव्यधारा से तात्पर्य भक्तिकाल के अंतर्गत विकसित उस काव्य धारा से है जो ज्ञानमार्ग से होकर सृष्टि के नियामक और सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपासना करना है जो की निर्गुण रूप मैं चारों और बिद्यामान है ।

  • निर्गुण संत काव्यधारा का दूसरा नाम क्या है?

निर्गुण संत काव्यधारा का दूसरा नाम ज्ञान मार्गी संत काव्यधार है।

  • निर्गुण संत काव्यधारा के प्रवर्तक कौन है?

निर्गुण संत काव्यधारा के प्रवर्तक संत कवि कबीरदा को माना जाता हैं ।

  • सगुण और निर्गुण संत परंपरा में मुख्य अंतर क्या था?

निर्गुण भक्ति में ईश्वर के निर्गुण रूप की आराधना की जाती है परंतु सगुण भक्ति में ईश्वर के सगुण रूप की उपासना की जाती है।

अंतिम कुछ शब्द :-

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Wikipedia Page :- निर्गुण संत काव्यधारा

hindisikhya.in

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