नई कविता (Nayi Kavita) || हिन्दी साहित्य का इतिहास

नई कविता की परिचय :- (Nayi Kavita):-

प्रारंभ में ही इस बात को स्पष्ट करना जरुरी है की प्रयोगवादी तथा नई कविता में कुछ समानताएँ भी है तो विभिन्नताएँ भी किन्तु इसका उद्भव मात्र प्रयोगवाद के अस्वीकार में ही हुआ है। जैसा की नामवर सिंह ने कहा है, ‘प्रयोग’ शब्द को वाद – दूषित पाकर ‘नई कविता’ नामक संज्ञा का प्रचलन हुआ।

नई कविता हिन्दी साहित्य में सन् १९५१ के बाद की उन कविताओं को कहा गया, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया। यह प्रयोगवाद के बाद विकसित हुई हिन्दी कविता की नवीन धारा है।

नई कविता की शुरुआत :-

१९५१ में दूसरा सप्तक के प्रकाशन के साथ ‘नई कविता’ के जिन सिध्दांतो का सूत्रपात किया, गया उनका विस्तार तीसरा सप्तक के प्रकाशन- काल १९५९ तक अबाध गति से होता रहा।”

जगदीश गुप्त और लक्ष्मीकांत वर्मा ने प्रयोग’ से व्यापक भूमि पर ‘नयी कविता’ का नाम प्रचारित किया। इसके मुल में आधुनिक युग का वह संपूर्ण परिवेश उभर कर आया है। जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक, यांत्रिकता के साथ कुछ विदेशी काव्यांदोलन महत्वपूर्ण है। nayi kavita ke kavi

नयी कविता की पृष्ठभूमि को देवराज ने दो स्तरों पर रखकर देखा है एक राष्ट्रीय और दूसरी अन्तर-राष्ट्रीय। इसमें न केवल राजनीति है बल्की विदेशी साहित्यिक एवं सामाजिक, नैतिक मूल्यबोध भी है। नई कविता सामाजिकता के वैविध्यपूर्ण मानवमुल्यों की उदात्त परंपरा को लेकर चलती है।

स्वाधीनता के बाद देश के सामने अनेक समस्याएँ खड़ी हुई। एक और स्वाधीनता का उल्हास था तो दुसरी ओर हिंसा का तांडव।

‘साम्प्रदायिक दंगें एवं शरणार्थी की समस्याने भयंकर रुप ग्रहण किया।‘राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या’ के रुप में कश्मीर प्रश्न उलझता गया परिणामत. पहला भारत- पाक युध्द हुआ। ‘ जिसने भारत की आर्थिक स्थिति को पर्याप्त प्रभावित किया।

गांधी हत्या भारतीरयों के श्रध्दा, विश्वास, मूल्यो की हत्या साबित हुई। विकास योजनाओं ने सुखमय वातावरण पैदा तो किया परंतू शरणार्थियों ने आर्थिक संकट को जन्म दिया, खाद्यान्न के अभाव की समस्या सामने आयी, स्वतन्त्रता- प्राप्ति से पूर्व भारत में कार्यरत अंग्रज अधिकारियों के लिए साढ़े नौ करोड रुपये इग्लैंड को देने के लिए विवश होना पड़ा”।

गांधी के आग्रह पर पाकिस्तान को… करोड देने पड़े तथा साथ ही सरकार द्वारा देश में विदेश पुंजी निवेश की सुविधा प्रदान की। इससे भारतीय सम्पत्ति भारी मात्रा में विदेश जाने लगी। ‘ नेहरु युग से सामान्य जनता में आज़ादी आयेगी, खुशहाली आयेगी, दरिद्रता, गरीबी, भूखमारी, बीमारी दूर होगी का ‘भ्रम’ टुटता गया। ऐसे में सन १९६२ में चीन का आक्रमण, भारत को मिली असफलता, खोखली विदेश नीति का पर्दाफाश हुआ ।

फिर मार्च १९६५ में पाक ने भारत पर आक्रमण किया, भारतीय सेना ने जीत हासिल की परंतू रुस, अमरीका के हस्तक्षेप के कारण ताशकंद में शास्त्रीजी को असम्मानजनक समझौता करना पडा, कुछ घंटों बाद में वह काल के आधीन हो गये। इंदिरा गांधी सत्ता में आयी।

२० अगस्त १९६९ में राष्ट्रपती चुनाव ने कॉँग्रेस को विभाजित किया ‘इंदिरावाला इण्डीकेट’ और दुसरा सिण्डीकेट बना “यही से दलील तानाशाही और व्यक्तिपुजा के नये युग का प्रारंभ हुआ। ” फिर १९७१ में बांग्लादेश स्वतंत्रता के लिए भारत-पाक युध्द हुआ, १० हजार पाकिस्तानी सेना के साथ बड़ा भूभाग भारत के अधिकार में आया, इंदिरा का ‘दुर्गा’ रुप बाद वाले चुनाव में उसको भारी मतो से जीत दिला चुका, फिर एक बार ‘शिमला समझौते’ ने सेना की जीत को हार में बदल दिया।”

द्वितीय विश्वयुद्ध का समय :-

नयी कविता के समय मैं मानवमुल्यों की उदात्त परंपरा को लेकर चलती है। जिसमें त्रासदी, विडम्बना, घुटन, संत्रास, क्षणवाद, अस्तित्वबोध, अंतर्विरोध से उपजा ‘आत्मसंघर्ष’ एक ओर है तो दूसरी ओर इन नयी परिस्थितियों से उपजी संबेदनाओं की संप्रेषणीय अभिव्यक्ति का प्रश्न महत्वपूर्ण हो चुका है। इस काव्यधारा के विकास में राजनीतिक, सामाजिक, आध्थिक परिस्थितियाँ कारणभूत रही है।

द्वितीय विश्वयुध्द से उपजी मूल्यहीनता ने राजनीति से नैतिकता को खत्म किया। सामाजिक स्थिति में सोचनीय स्थिति उत्पन्न हो गयी। पारिवारीक, सामाजिक ढांचा प्रयः दह गया और प्रायः व्यक्तिवाद का जोर बढ़ता गया। भारतीय राजनीति में गांधी-नेहरु प्रभ्रति ने अपना-अपना अलग प्रभाव छोड़ा। स्वतंत्रता पूर्व स्थिति में स्वतंत्रता जैसे- जैसे नजदीक आती गई हमारे नेताओं में आन्तरिक संघर्ष ज्यादा होता गया।

यह संघर्ष केवल नेताओं में ही नहीं. नेताओं और जनता के बीच तथा बूढ़ी और युवा पीढ़ी के बीच, भी उभरकर आया। जब तक गांधी का नेतृत्व नई पीढ़ी ने पाया तब तक ठीक था परंतू बाद में नवयुवकों का शोषण होने लगा, प्रत्येक नेता अपने स्वार्थ के लिए उन्हें प्रयुक्त करने की फिराक में रहने लगा। ताकी उनका पलड़ा भारी हो”।

“सन १९४२ की क्रांन्ति में ही आंदोलन की तीन शक्ले थी, एक तो उनकी जो नवयुवको को केवल खपनेवाली सामग्री समझकर, उनका इस्तेमाल करके, उन्हें फेंक देने में विश्वास करनेवाली नेता पीढ़ी थी तो दुसरे वे थे जो उनकी सच्ची और

इमानदार भावनाओं को तोड-फोडकर जन – युग और जन – युध्द के नाम पर अंग्रेजी सरकार की खिदमतगारी करने और कराने के लिए तत्पर थे अर्थात यह र्ग कम्यूनिस्ट पार्टी का था, जो सही और सच्चे अथ्थों में अंग्रेजी शासन के प्रति वद्रोह करने वालों को खुले आम अराजकतावादी और जंगखोर के नाम से संबोधित करता था।

इसके अतिरिक्त एक तीसरा वर्ग भी था, जो उस समय देश के नवयुवकों में ऐसा उत्साह भरना चाहता था, जो सब कुछ देकर बढती हुई अंग्रेजों की गुलामी की प्रक्रिया को समाप्त करने में सहायक हो। ” लक्ष्मीकांत वर्मा- हिन्दी साहित्य के पिछले वीस वर्ष-३, कल्पना- मई १९६७ अंक ५. पृ-१२’ से उद्धूत परिणाम यह हुआ की राजनीति में “सुविधापरकता’ तथा ‘मूल्यहिनता’ का उद्भव गांधी के समय ही हो चुका था।

नई कविता मैं समाज एवं साहित्य में भी वह प्रवेश कर गये। देवराज ने इसे सन १९३५ से १९४५ के बीच पैदा हुए संक्रमणकालीन स्थिति में साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में उत्पन्न भ्रमात्मक मूल्यों का विकास’ कहा है। जिसमें एक ओर गांधी की गतिशील राष्ट्रीयिता तो दुसरी और नेहरु की शब्दाडम्बर वाली काल्पनिक किन्तु बड़े जोर शोर से स्थापित अंतर्राष्ट्रीयता की दो धाराओं का विकास हुआ ऐसा मानते है।

उसके परिणाम लक्ष्मीकांत वर्मा के शब्दों में कई अगंभीर किन्तू गंभीरता का परिचिय देकर नये वाद स्थापित हुए वे, यथार्थ वाद के नाम पर संपूर्ण जीवन के व्याख्याता कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका लाभ उठाया, परिणामत: प्रगतिवाद ने अपने नितांत आत्मविश्वास के कारण और व्यापक वृत्त का आधार छोडकर विशुध्द पार्टी की राजनीति के आधार पर अपने वृत्त में लेखक वर्ग को कसना शुरु किया।

खास कर नई कविता मैं इसी को आधार मानकर जो प्रगतिवादी आंदोलन खड़ा हुआ वह राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक संदर्भ से हटकर एक विशिष्ट राजनैतिक स्वर में ढ़लने लगा, फिर अनिवार्यता बौद्धिक वर्ग को साहित्यिक स्तर पर उन मूल्यों की ओर उन्मुख होना पड़ा जो साहित्य की विधागत एवं संपूर्णता को स्थायित्व देती है।”

सामाजिक कारण :-

द्वितीय विश्वयुध्द के भयंकर परिणाम राजनीति के साथ सामाजिक जीवन में उभरकर आये। सामाजिक, पारिवारिक, विवाह संस्था का विघटन हुआ। मूल्यों का विघटन इस समय की बड़ी समस्या के रुप में सामने आयी।

परिणामत: राजनीतिक ताण्ड़व से भरा कोलाहलपूर्ण वातावरण एक और था तो दूसरी और ‘चरमरा चूका सामाजिक ढ़ांचा था। जिसमे प्रयोगवादीयों में पलायन की भावना उभरी तो नई कविता के कवि ने उसका विश्लेषण कविता में किया।

परंपरा विरुध्द आधुनिकता, नये और पुराने मुल्य, नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी, नव संस्कृति और पूरानी ‘बूर्जआ’ संस्कृति’ के भीतर की टकराहट ने व्यक्ति और समाज के भीतर तनाव भरा संघर्ष उत्पन्न किया नयी कविता इसी भावभूमि में पली-बढ़ी है।

व्यक्तिवाद का जोर था तो परंपरागत तथा आधुनिक मूल्य हास्यास्पद हो चुके थे। औद्योगिकरण के साथ नागरीकरण बढ़ता गया। गाँव उजडते गये , मुल्यू टुटते गये। व्यवसायों में परिवर्तन आया। संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ, एकल परिवार बढ़ते गये। एक और भीड़ बढ़ी परंतू दूसरी ओर उस भीड़ में भी व्यक्त अकेला हो गया।

व्यक्ति-व्यक्ति के भीतरी ‘रागात्मक’ संबंध तथा ‘घनिष्ठता‘ का अभाव बढ़ता गया। भीड़ में अपरिचयता के कारण बिश्रुंखल हुई। जहाँ पहले जुआ, शराब, नशा, बूरी समझा गया वहाँ यह खुले रुप में
खाना- पीना के रूप में आम हो गया। साधारण सी बात हो गयी।

‘यौन-जीवन अनियंत्रित हो गया बाद में इसी अनियंत्रितता ने ‘फ्रि सेक्स’ आन्दोलन को जन्म दिया। ” एक तरह से जीवन में अव्यवस्था आयी। औद्योगिकरण ने सामाजिक विघटन भले ही लाया हो किन्तु कुछ नये मुल्यों का विकास भी किया। विभिन्न जाती – धर्मों के लोग जो पहले गाँव में कटघरे में थे वे यहाँ खुले हो
गये। पारस्पारिक परिचय और नजदीकियाँ उनमें बढ़ती गयी।

धार्मिक – जातिगत संकिर्णता दूर होती गयी। “सांस्कृतिक अज्ञानता और अजनबीपन की स्थिति समाप्त हुई तथा एक ऐसी संस्कृति का विकास हुआ जिसमें रुढ़ियों, सामाजिक -धार्मिक दूराग्रहों‘” और परंपरागत संकीर्णता में बांधने वाले सामाजिक मूल्यों का कोई स्थान नहीं रहा। परिणामत: नयी कविता को औद्योगिक युग के तनाव असन्तोष, नये सत्यों की खोज की व्यग्रता और यांत्रिकता ने प्रभावित किया।

साहित्यिक वातावरण :-

छायावादी व्यक्तिगतता से निकलकर प्रगतिवादी सामाजिकता में तो हम पहुँचे थे परंतू उसका प्रभाव समाप्त होता गया। नई कविता मैं नये ‘ प्रयोग’ के स्वर भी मंद हो चुके थे। ‘वाद’ की प्रवृत्ति से कविता को बाहर कर जनता के बीच, जनता के दरबार में लाना कवियों को अभिप्रेत था।

नयी कविता में प्रगतिवाद का सामाजिक भावबोध है तो प्रयोगवाद की शिल्पगत विशिष्टता प्रयोगवादियों की आत्मकेंद्रितता, निराशा को उन्होने सामाजिक व्यापकता का आधार दिया। नयी कविता की भिन्नता यही है।

लक्ष्मीकांत वर्मा ने ‘दूसरा सप्तक के बाद के कवियों ने सारी कविता को दुसरा सप्तक के निकटवतीं पाते हुए किन्हीं अर्थों में कुछ भिन्नता का अनुभव किया'” ये वही सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक भिन्नता है जो नयी कविता प्रवृत्तियों में विकसित हुई।

साथ ही विदेशी वादों का प्रभाव भी उस पर रहा है। खासकर वाद विषय में मनोविश्लेषण का तो अभिव्यक्ति क्षेत्र में बिंब प्रतिक का। निराला द्वारा ‘खून सींचा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर मंडरा रहा है कैपिटलिस्ट'” की घोषणा ने परिस्थिति की वास्तविकता को पहचाना था। जिसमे यथार्थ का दामन पकड़कर प्रगतिवाद उभरकर आया। वही प्रयोगवाद में सामाजिक अतियथार्थवाद, में अपनी कुंठा की व्यंजना साहित्य में करता रहा।

नयी कविता मात्र सभी प्रकार के दूषणों से मुक्त प्रांगण में आयी। प्रयोगवाद को नई कविता की भूमिका कहा जा सकता है। देवराज ने सही कहा है की, ‘इन कविताओं को नयी कविता की पूर्ववर्ती कहा जा सकता है, इन कविताओं की प्रकृति का अध्यन करने से इसमें और ‘नई कविता’ आन्दोलन की काव्य-चेतना में अंतर स्पष्ट परिलक्षित हो जाता है, किन्तु यह अन्तर विरोधी नही है, यह विकास प्रक्रिया का अन्तर है।’

इसलिए देवराज इसे नयी कविता भी नहीं कहते उन्हें ‘ संक्रमणकालीन कविताएँ कहते है किन्तु ‘नई कविता‘ नाम अब उसके लिए एक बार चल पड़ा सो वही रहा है।

नई कविता का नामकरण :-

‘नई कविता’ यह नाम बडा भ्रामक है इसमे अतिव्यक्त का दोष है। इसलिए की यह किसी भी युग में उभरी नई भावना, प्रवृत्ति, संवेदना के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। फिर वह छायावाद हो या प्रगतिवाद, प्रयोगवाद हो या हालावाद वस्तुत: कविता के क्षेत्र में यह नये आंदोलन ही है।

नई ‘नया’ यह विशेषण अपने समय संदभ्भों को व्यक्त करनेवाला है। हिन्दी में प्रयोगवाद के बाद की कविता के लिए ‘नई कविता’ के नाम से जाना जाता है। कुछ आलोचक प्रयोगवाद एवं नई कविता को एक ही मानते है परंतू स्वंय अज्ञेय ने ‘प्रतीक के जून १९५१ के अंक में ‘नई कविता’ शब्द का प्रयोग किया है।

उन्हें नई कविता के लिए ‘प्रयोगवाद‘ शब्द अपूर्ण, अव्याप्त और पूर्वग्रह युक्त लगा। नई कविता शब्द प्रयोग दुसरा सप्तक से ही प्रारंभ हुआ। बाद में अज्ञेय ने इन कवियों की भत्सना भी की किन्तु प्रयोगवाद के बाद की काव्य प्रवृत्ति ‘नई कविता’ के रुप में अब जानी जाती है।

जैसा की हमने पहले ही कहा है की ‘प्रयोग’ शब्द को वाद-दूषित पाकर ‘नई कविता’ नामक संज्ञा का प्रचलन हुआ। १९५१ में दुसरा सप्तक के प्रकाशन के साथ ‘नई कविता’ के जिन सिध्दांतों का सूत्रपात किया गया उनका विस्तार तीसरा सप्तक के प्रकाशन-काल तक (१९५९) अबाध गति से होता रहा। जिसे जगदिश गुप्त तथा रामस्वरूप चतुर्वेदी ने १९५४ में अर्धवार्षिक ‘नयी कविता’ पत्रिका संपादीत की इसके साथ उसे प्रतिष्ठा भी मिली।

लक्ष्मीकांत वर्मा ने उसे अधिक व्यापक क्षेत्र प्रदान करते हुए. कहा की, ऐतिहासिक दृष्टि से नई कविता ‘दूसरा सप्तक (१९५१) के बाद की कविता को कहा जा सकता है, किन्तु इस ऐतिहासिक क्रम के अतिरिक्त भी नई कविता का वास्तविक रुप उस समय प्रतिष्ठित हुआ, जब ‘दूसरे सप्तक‘ के बाद के कवियों ने सारी कविता को ‘दुसरा सप्तक’ के निकटवर्ती पाते हुए, किन्हीं अर्थोंमें भिन्नता का अनुभव भी किया। कुछ आलोचकों ने नई कविता का विकास निराला के ‘नये पत्ते’ से मानते है।

“प्रवृत्तिगत वैविध्य के अतिरिक्त निराला के दीर्घकाव्य – विकास में अगले रचना आंदोलनों- प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नयी कविता के बीज मिल जातें है। उनके संकलन ‘नये पत्ते’ (१९४६) से चलने वाले अंतिम दौर में इस प्रकार की अनेक कविताएँ दृष्ष्य है। “

आगे रामस्वरुप चतुर्वेदी ने यह भी स्पष्ट किया है की “नई कविता'” आधुनिकता का तीसरा दौर है जो, स्मरण रहे, स्वाधीन भारत की पहली रचनात्मकता है। नई कविता में अनुभव का जनतंत्र पहली बार स्थापित होता है, और जीवन तथा काव्यानुभव दोनों में आधुनिक भाव-बोध पूरी तरह समरस हो जाता है।”

वस्तुत: नई कविता छायावाद , प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की उपलब्धियों को समेटे हुए है। शायद यही कारण है की प्रयोगवाद एवं प्रगतिवाद के कई कवि अपनी सीमाओं को लाँघकर नई कविता की गतिमान, जनतांत्रिक धारा के साथ हो गये।

नई कविता: काव्य प्रवृत्तियाँ (Nayi Kavita Ki Visheshta) :-

आज़ादी के बाद मध्यवर्ग तथा निम्नवर्ग मैं आया स्खलन कई समस्याओं को जन्म दे चुका। महंगाई, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, कालाबाजारी, जातियता, साम्प्रदायिकता, धर्माधता, यंत्रयुग के कारण बढ़ती बेरोजगारी, यौन जीवन में आया खुलापन, टूटते पारिवारीक संबंध, व्यक्ति मन में बढ़ता तनाव, आदि ने यथार्थ के क्षण की महत्ता को रेखांकित किया।

लघुमानव के बहाने उसकी प्रतिष्ठा, महत्ता जरुरी लगी। कलाकारों, कवियों की नैतिक जिम्मेदारी ने उनमे बैचैनी, छटपटाहट, नैराश्य , तणाव और इन सबके विरुध्द प्रतिबध्द संघर्ष की अभिव्यक्ति नयी कविता में हुई।

मानवीय संबंधों के साथ अनुभूति व्यक्ति के लिए नयी भाषा का निर्माण हुआ जो जन-जन की भावना, क्रांती, संघर्ष, आस्था को लेकर सपाटबयानी, गद्यात्मकता, मुक्तछंद का प्रयोग किया जाने लगा। युगीन परिस्थिति और व्यक्ति के पारस्पारिक संघर्ष और समन्वय को काव्य विषय के रुप में नयी कविता ने स्विकार किया।

डॉ. रघुवंश ने लिखा है- “नयी कविता अपनी अभिव्यव्ति, प्रेषणीयता तथा उपलब्धि की दृष्टि से प्रयोगशील कविता के आगे की स्थिति है ।

प्रयोगशील कविता ने परम्परा से विद्रोह के रुप में प्रयोग तथा अन्वेषण का मार्ग स्वीकार किया था, पर नयी कविता के संदर्भ में वे उसकी प्रवृत्ति के सूचक है। प्रयोग युग का कवि अपने संघर्ष के प्रति निश्चित नहीं था, आज का कवि अपनी सारी शंकाओं के बीच अपने व्यक्तित्व के प्रति आस्थावान है। स्वतंत्रता के बाद आज़ादी से उसका मोहभंग हो गया।

बाद में भी उसकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति में कोई सुधार नही हो पाया। परिणामत: मध्यर्ग में अपनी स्थिति के प्रति संघर्ष भाव उत्पन्न हुआ। इसमें भी उसने विरोध को पाया, “एक ओर राष्ट्रीय स्वाधीनता और उन्नति से उसके मन में आस्था और विश्वास निर्माण हो रहा तो दुसरी ओर अपनी बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति न होने से निराशा और अवसाद से वह घिर रहा था। कुछ ऐसी ही जटिल समस्याएँ उनके सामने आर्यी इसी प्रकार के बदलते मनुष्य तथा समाज को नयी कविता ने व्यक्त किया। उसकी प्रवृत्तियाँ निम्न है। nayi kavita ki visheshta

लघु मानव के व्यक्तित्व की खोज और स्थापना (Nayi Kavita Ki Visheshta) :-

लघु मानव का कल्पना-बोध नयी कविता की विशिष्टता है। नई कविता ने जिस मानव की कल्पना की वह व्यापक मानव-आत्मा का लघुतम बोध कहा गया है। ‘नयी कविता’ किसी भी प्रकार के विराटत्व के समक्ष मनुष्य के अस्तित्व को नष्ट नहीं करना चाहती” विराटत्व के सामने व्यक्ति के अस्तित्व को कवियों ने संकट में पाया इसलिए उन्होने उसकी महत्ता को कविता में रेखांकित कर उसके अस्तित्व को बचाना चाहा। इसी नये मन्ष्य को लक्ष्मीकांत वर्मा ने ‘लघु मानव’ कहा।

और उसकी सबसे बड़ी विशेषता है, उसकी ‘संवेदना भीड़ की संवेदना नहीं है’.. वह विवेक और आत्मसाक्षात्कार पर आधारित संवेदना है’, वह चाहे जितनी नगण्य हो, चाहे जितनी अवहेलना के योग्य हो, उस समुहवाद से अधिक मुल्यवान है, जो केवल यंत्र द्वारा हमारी इंद्रियों को चालित करके अपना मन्तव्य तो सिध्द कर लेना है किन्तु जो उस भीड़ की हर इकाई को खोखला ढूंढ बनाकर छोड़ देता है।”

नये लोकतंत्र और अद्योगिक व्यवस्था से निर्मित जो संस्कृति-समाज नये कवियों को मिला उसमें उसका विवेक और स्वतंत्रता आहत हो गयी। उनमें कुंठा पैदा हुई और अपनी इस संपूर्ण स्थिति एवं ‘परंपरागत सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था’ प्रति विद्रोह का जन्म हुआ और ‘ऐसे में मनुष्य की कल्पना को प्रोत्साहन दिया जो सारी व्यवस्था के सामने छोटा होता हुआ भी अपनी स्वतंत्रता और विवेक का नियन्ता’ वह हो गया।

लक्ष्मीकांत वर्मा के अनुसार लघु मानव की निम्न विशेषताएँ है।

  1. लघु मानव के लघु परिवेश की बात इन कुंठाओं से पृथक है और मानवानुभूति और मानव सार्थकता के महत्व से संबंध्द है।
  2. लघु मानव का परिवेश अनुभूति की गहराई और विवेक की मर्यादा से प्रशासित होता
  3. भविष्य के प्रति वह अपनी अस्था तो रखता ही है, किन्तु लघु परिवेश की सार्थकता के साथ।
  4. उसकी अभिव्यक्ति में यह विश्वास भी निहित है कि उसका भावबोध किसी पूर्व निश्चित निय्यतिवाद या चमत्कार से प्रभावित नही है।
  5. स्वतंत्रता की कोई और परिभाषा बिना इस मानवीय स्तर के अर्थात लघु-मानव ऑर उसके लघु परिवेश के पूरी नही होती।
  6. वह जीवन क्रियाशील के (या क्रियाशील जीवन के) उस रुप को चाहता है, जिसमें समग्रता हो, संकीर्णता न हो।
  7. जीवन की समग्रता का व्यवहारिक रुप एक-दूसरे को सहन करने में है न कि उस अव्यावहारिक आधिपत्य में, जिसमें विरोधों का नाश करके केवल एक सत्ता रुढ़ व्यक्ति के प्रति समस्त चेतना अर्पित हो जाए।

इससे लघु-मानव की एक ऐसी ‘छबी’ उभरकर आती है जो ‘अपने लघु परिवेश, स्वतंत्रता, विवेक और जीवन पध्दति के प्रति पूर्णतः सजग है।’ उन्होने घोषणा की मानव इकाई को पूर्ण सम्मान'” दिया जाए। अर्थात नयी कविता जीवन प्रती स्वाभिमान, सदवृत्ति. अस्था रखता है और ऐसे ही मनुष्य को सजग-लघु मानव कहा गया।

जगदीश गुप्त के शब्दों में कहे तो –

“नया मनुष्य रुढिग्रस्त चेतना से मुक्त, मानव मूल्यों के रुप में स्वातंत्र्य के प्रति सजग, अपने भीतर, अनारोपित सामाजिक दायित्व का स्वंय अनुभव करनेवाला, समाज को समस्त मानवता के हित में परिवर्तित करके नया रुप देने के लिए कृत-संकल्प, कुटिल स्वार्थ भावना से विरत, मानवमात्र के प्रति क्षोभ का अनुभव करते वाला, हर मनुष्य को जन्मत: समान माननेवाला मानव व्यक्तित्व को उपेक्षित, निर्थक और नगण्य सिध्द करनेवाली किसी भी दैविक शक्तित या राजनैतिक सत्ता के आगे अनवरत, मनुष्य की अंतरंग-सदवृत्ति के प्रति आस्थावान, प्रत्येक व्यक्ति के स्वाभिमान के प्रति सजग, दृढ़ एवं संगठित अन्त: करण संयुक्त, सक्रिय किन्तु अपीड़क, सत्यनिष्ठ तथा विवेकसंपन्न होगा।””

नई कविता में उसी मानव को महत्व दिया गया है, जो किसी प्रकार भी अलौकिक शक्ति से असंपन्न हो, साधारण जी्ीविषू हो। मानवेत्तर नहीं मानवी हो, कृत्रिम नही स्वाभाविक वृत्ति वाला हो। लघु-बनकर, रहकर ही संघर्ष संभव है।

विराट, सुपरमैन से संघर्ष नहीं चमत्कार होता है। जो मनुष्य अस्तित्व को नकारता है। नई कविता उसके उपेक्षित, हेय, अस्तित्व में स्वतंत्रता भाव का प्रतिपादन करती है। देवराज ने लघु-मानव और नये मनुष्य को संतुलित दृष्टि से देखते हुए उसकी विशेषताओं को व्यक्त किया है।

आधुनिकता बोध की पहचान (Nayi Kavita Ki Visheshta) : –

नई कविता में आधुनिकता बोध की पह्चान का तात्पर्य है- ‘मानव स्थिति के साक्षात्कार की नितांत नवीन जागरुक पध्दति’, जीवन की समझ की गत्यात्मक प्रकृति’ अपने काल को आत्मसात करने की अर्थपूर्ण चेतना’, ‘अर्थपूर्ण जीवन – मूल्यों को प्राप्त करने की विधि,’ ‘परिवेश के प्रति व्यक्ति की सतत सजगता’ आदि।

इनका आधुनिकता बोध परिवर्तनीय है, इसमें कोई’रुढ़’ या ‘जड़’ धारणा नहीं। जो रुद़ियाँ, परम्पराएँ परिवर्तन व ‘मनुष्य स्वतंत्रता का विकास’ साधने नहीं देती उसका विरोधी काव्य है नयी कविता।

उसका यह अर्थ भी नहीं की वह समृध्द अतीत परंपरा के कटी है। बल्की उसके गतीशील तत्वचों, मूल्यों, विश्वासों, को नये सृजनात्मक संघर्षक्षमता से उपजीव्य बनाती है। यही उसका स्वतंत्र विवेक है, समय के प्रती प्रतिबध्दता एवं सजगता है।

“इससे” आधुनिकता बोध व्यक्ति को अपना सही दायित्व निबाहने की ओर प्रेरित करता है। आधुनिकता की दृष्टि विवेकपूर्ण दृषधिकोन की स्थापना करती है। व्यक्ति अपने परिवेश को संवारने की दिशा में क्रियाशील रहे और किस गति से किस ओर जा रहा है यह सब सोचने की शक्ति आधुनिकता बोध की शर्त है।’

डॉ. नरेंदर मोहनः आधुनिकता और समकालीन कविता सप्तसिंधू अर्थात यह केवल भौतिक विकास साधने की नही मानसिक उन्नती पाने की कोशिश भर है।

इसलिए उसमें ‘एक ओर स्वीकृति है, तो दूसरी ओर अस्वीकृति।’वह जीवन को गती, विकास प्रदान कर रही है की उसके आअस्तित्व का नाश कर रही है, इसी की तलाश है नयी कविता। डॉ. देवराज के अनुसार उसकी विशेषताएँ

  1. आधुनिकता बोध वह सहज; स्वाभाविक और गतिशील प्रक्रिया है, जो जीवन को सही संदर्भमें समझने की दृष्टि प्रदान करती है।
  2. यह मूल रुप में परस्परविरोधी नहीं है- प्रत्युत व्यवस्थामुलक मुक्ति की भावना प्रधान होती है।
  3. आधुनिकता बोध वह दृष्ट है जो मनुष्य में छिपी सर्जनात्मकता को मुखरित करती है, और उसे सत्य से सीधे साक्षात्कार के लिए तैयार करती है।
  4. आधुनिकता बोध में संकीर्णताओं के लिए कोई स्थान नहीं होता, उसके मूल में मानवतावादी दृषटि होती है।
  5. आधुनिक्ता -बोध कोई बाह्यारोपित तत्व नही है, बल्कि प्रगतिशील जीवन के विकास-क्रम के अनन्तर प्राप्त चेतना है, जो मूल्य न होते हुए भी वास्तविक जीवन-मूल्यों के प्रति सचेत करती है।

आस्था का स्वर (Nayi Kavita Ki Visheshta) :-

नई कविता के कवि का अपने व्यक्तित्व पर भरोसा करते है। वे कठिण से कठिण विपदा में भी अपनी आस्था के बल उसे सहने एवं दूर करने का भाव उनमें है। भविष्य की उज्जवता पर उनका दृढ़ विश्वास है। जीवन के यथार्थ पक्ष को भी वे इसी दृष्टि से देखते है।

इसी कारण वे जीवन-संघर्ष से छायावादीयो तथा प्रयोगवादीयो जैसा पतलायन नहीं करते। उसे अपनाकर उनमें भरी विट्रृपता को दूर करते है। ऐसे समय उनकी कविता में व्यंग धार -धार प्रवाहित होता है। आधुनिक जीवन से सहानूुभूति और सौहाद्र प्रायः समाप्त हो चुका है. मानव-मानव में झूठ और घूणा का व्यवहार चलता जा रहा है।

जीवन यथाथ्थ की अभिव्यक्ति करते हुए केवल आस्था ही उनमे है ऐसा नही, डर. भय, अनास्था, शंका, निराशा, अविश्वास भी उनमें है। जैसे मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ का नायक उन सभी स्थितियों से गुजरकर अपने ‘गुरु’ का ‘शिष्य’ होता है। तथा ‘ब्रह्मराक्षस’ ‘जीवनमूल्यों की खोज में भटकते संशोधक की कहानी, दुःख दर्द के साथ व्यक्त हुई है।

आधुनिक सामान्य व्यक्ति की यह ‘ट्रैजडी’ भी है तो ‘बुध्दिजीविता’ भी। जीवन चुनैतियों का स्विकार भी नया कवि करता है उसमे उत्पन्न विषाक्त मनःस्थिति को भी। पफिर भी वह जीवन में आस्था रखता है।

क्षण- बोध की अभिव्यक्ति (Nayi Kavita Ki Visheshta):-

नई कविता क्षणानुभूति को अधिक महत्व देती है। सूजन के लिए क्षण ही बोध जगाते है। क्षण बोध की अनुभूति ही उन कवियों के लिए सत्य है। जीवन क्षण-संवेदना से भरा है। उसी में उसे जीवन के सुख दुःख मिलते है।

उससे ही जीवन सतत परिववर्तनशील होता है। क्षण की संवेदना को अनुभव करना काव्य में उसे सुरक्षित करना फिर किसी दुसरे क्षण- संवेदना को जीना, “इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक क्षण अपनी सीमा में ही गहन अनुभूतिमुक्त होता है और इसी कारण नई कविता में क्षणानुभूति के अंकन को पर्याप्त महत्व दिया गया है।

परिवेश के प्रति सजगता (Nayi Kavita Ki Visheshta) :-

आधुनिकता बोध और अनुभव की प्रामाणिकता के कारण नयी कविता परिवेश के प्रति सजग है। जिसके कारण सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन हुआ है। अपने परिकेश प्रति वह दायित्वबोध को स्विकारते है। लघु मानव की दृष्टि को महत्व देने के पीछे की भूमिका यह भी रही है क्योंकि आधुनिक काल में सर्वाधिक उपेक्षित, त्रासद, विडम्बना से युक्त जीवन उसी के हिस्से में आया है।

उसके मन में उभरकर आया नैराश्य, संत्रास, संकटबोध, संघर्ष की अभिव्यक्ति की सशक्तता ने नई कविता को जीवन के साथ जोड़ दिया है। समाज अकेलेपन और वेदना के कारण सबसे बड़ा दुभ्भार्यशाली लघु मानव ही रहा है।

छायावाद से लेकर प्रयोगवाद में व्यक्ति की स्थिति-गति में जो बदलाव आया उसके साथ नई कविता-समय मं वह निपट अकेला एवं त्रासद जीवन जीता रहा है। रघूवीर सहाय ने कहा है-

“कितना अच्छा था छायावादी
एक दुःख लेकर वह एक गान देता था
कितना कुशल था प्रगतिवादी
हर दुःख का कारण वह पहचानता था
कितना महान था गीतकार
जो दुःख के मारे अपनी जान लेता था
कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में
जहाँ सदा मरता है एक और मतदाता। “

यथार्थवादी दृष्टि (Nayi Kavita Ki Visheshta) : –

यथार्थ का प्रतिपादन प्रत्येक काल का कवि करता है परंतू उसके प्रति उसकी विभिन्न दृष्टि का आग्रह भी होता है। प्रगतिवादीयों में सामाजिक यथार्थ था तो प्रयोगवादीयों में व्यक्ति यथार्थ, या अतियथार्थ वाद परंतू नई कविता में समय यथार्थ में बनते-बिगडते व्यक्तित्व के यथार्थ को काव्य में प्रतिपादित किया है।

‘मनुष्य का दर्द मुलत: एक ही है और आज का कवि बड़ी इमानदारी के साथ उसे संवेदनापूर्ण ढंग से व्यक्त करता है।

अज्ञेय ने कहा

“…. ये असंख्य
ऑँखे थी
दर्द सभी में था
जीवन का दर्द सभी ने जाना”

प्रगतिशीलों की तरह केवल कुंठाओ आत्मकेद्रितता एवं यौन वर्जनाओं को यथार्थ के रुप में न स्विकारते हुए उसे समग्र सामुहिक रुप में अपनाया है।

जीवनानुभवों के प्रति इमानदार (Nayi Kavita Ki Visheshta) : –

परिवेश प्रती सजगता और सामुहिक यथार्थ के चलते जीवनानुभवों प्रति वह सजग है। आधुनिक व्यक्ति में छिपकर दूसरों पर अक्रमण करनेवाले हिंख्र पशुत्व कवि मन में भी कैसे जागता है, उसका उदाहरण मुक्तिबोध की कविता ‘औरांग-उटाँग’ में आया है।

जीवन की अनेक समस्याओं को देखकर वह विकट स्थिति में पड़ जाता है। जीवन में आयी हुई अस्थिरता का बोध भी उनमें जगता है। ऐसी कठिणाईयों के विरुध्द भी वह खड़ा होता है।

उपेक्षित जनसाधारण का काव्य (Nayi Kavita Ki Visheshta) : –

रामस्वरुप चतुर्वेदी के अनुसार “नई कविता आधुनिकता का तीसरा दौर है जो स्वाधीन भारत की पहली रचनात्मकता है। स्पष्ट ही अब तक राष्ट्रीयता का आग्रह मंद हो चुका है, और उस के स्थान पर व्यापक जन-चेतना का दबाब बढ़ा है।

इस रुप में एक तरह से राष्ट्र की अवधारणा सामान्य जनसमूह से एकाकार हुई है, विशेषतः जनसमूह् के उस हिस्से से जो अपेक्षाकृत साधनहीन है। रचना- चिंतना में साधनहीन उपेक्षित जनसमुह के केन्द्र में आने के पीछे भी एक लंबी प्रक्रिया निहिन है।

व्यंग की प्रधानता (Nayi Kavita Ki Visheshta) :-

व्यंन्य सुधार की भावना से प्रेरित होता है। “नई कविता में व्यक्ति, समाज और युग तीनों की विषम- दयनीय स्थितियों पर व्यंस्य किए गए है। अज्ञेय की ‘साँप’ और भवानीप्रसाद मिश्र की ‘गीत फरोश’ जैसी कविताओं में मानवीय असामंजस्यों की चिन्तनीय स्थिति का चित्रण किया गया है।

जगदीश गुप्त ने कहा है,

“नवलेखन में एक प्रधान स्वर व्यंप्प और विद्रप का है, जिसका संबंध देश की विषय परिस्थितियों तथा मूल्यहीनता की दयनीय दशाओं से है, छोटी-मोटी इधर की रचनाओं ने अत्यन्त साहस के साथ इन पर गहरी चोट की है।”

व्यंग्य के जरिए वह समाज को बदलना चाहता है, नैतिकता में सुधार लाना चाहता है।

भाषा शैली :-

नये कवियों में यह विचार पनपा की ‘ परम्परागत भाषा से युग-जीवन के सही चित्रण की आशा नहीं की जा सकती थी। मूल रुप में यही कारण था जिससें नये कवि को भाषा संस्कार की आवश्यकता पड़ी। ”

नई कविता भाषा की विशेषता यह है की वह किसी एक पध्दति में बंधकर नहीं चलती’ किन्तु प्रभावि एवं सशक्त अभिव्यक्ति के लिए उत्कृष्ट कवि बोलचाल की भाषा-प्रयोग को प्राधान्य देता है। नई कविता भी उसी का स्वीकार करती है। भवानी प्रसाद की ‘सतपुड़ा के जंगल’ कविता जंगल प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों को सामने लाती है।

संस्कृत, अंग्रेजी उर्दू, जनपदीय बोली- शब्द का प्रयोग नई कविता में हुआ है। त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, धुमिल, सर्वेश्वर आदि में यह देखे जाते हैं। ‘लोक भाषा, लोक धून’ और ‘लोक संस्कृति’ का प्रयोग ‘गीति साहित्य‘ में हुआ है। nayi kavita ke kavi

अज्ञेय की कलगी बाजरे की कविता उत्कृष्ट उदा है। नई कविता के नये मुहावरे भाषा को ‘सार्वजनीक‘ बनाते है। भाषा का साधारणीकरण नयी कविता की विशिकष्टता है। कहीं कही सपाटबयानी या ‘ वक्तव्य नुभा’ भाषा का प्रयोग भी प्रचुर हुआ है। धुमिल आदि की भाषा इसी प्रकार की है।

मुक्तछंद का, मुक्तक शैली का स्वीकार नयी कविता के धारा में हुआ है। जटिल एवं उलझी हुई आनुभूतियों को व्यक्त करते समय जैसा चाहा वैसा प्रयोग हुआ है। इसकों देवराज भाषा क्षेत्र में ‘विद्रोह‘ कहते है और इसके पीछे ‘चमत्कार की अपेक्षा विवशता’ की अधिकता मानते है।

‘बदले हुए परिवश को चित्रित करने के लिए उन्होंने ‘एक ऐसा मुहावरा स्वीकार कर लिया था, जिसके अनुसार आपाद-मस्तक कीचड़ से भरे मानव को भी मानव तुम सबसे सुंदरतम कहना जरुरी था।” इसलिए उन्होंने ने भाषा को ही नये संस्कार दिये। प्रगति – प्रयोग काल की अपेक्षा नयी कविता की भाषा-शैली नयी ही रही है।

प्रतीक:-

नयी कविता में परंपरागत तथा नये प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। कुछ कवियों के कविता शीर्षक ही प्रतीकात्मक है अज्ञेय की ‘नदी के द्वीप‘, सागर तट की सीपियाँ, मुक्तिबोध की ‘ब्रहमराक्षस’, ‘भूल-गलती’ ‘लकड़ी का रावण’ अंधेरे में ‘अंधेरा, काला पहाड, तिलक की मुर्ती, गांधी, आकाश में तालस्ताय आदि प्रतीक ही है।

नई कविता में तीन प्रतीक रुपों का प्रयोग हुआ है। एक जिनका संबंध भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा से है। इनमें प्राकृतिक, पैराणिक, ऐतिहासिक, अन्योक्ति मूलक, रुपक मूलक और बिम्ब मूलक आदि आते है।

दुसरे वे प्रतीक है जिन्हें नये कवियों ने गढ़ा है। और तीसरे वे प्रतीक है जो भारतीय साहित्य में किसी एक भाव-बोध के प्रतिनिधि है तथा दूसरे देशों के साहित्य में किसी दूसरे भाव-बोध के किन्तु नये कवियों ने दूसरे देश की मान्यता के आधार पर ही उन्हें अपने काव्य में प्रयुक्त किया है –

“लो क्षितिज के पास-
वह उठा तारा, अरे! वह लाल तारा नयन का तारा हमारा
सर्वहारा का सहारा”

लय, तुक और छंदः-

लय, तुक और छंद की अवधारणा छायावाद से हटने लगी है। निराला ने मूक्त छंद की घोषणा की पंत ने भी नयी काव्य भाषा को अपनाया। नई कविता ने तो छंद को अस्वीकृत ही किया परंतृू उसके नये प्रयोग भी हुए है।

देवराज ने ठीक कहा है- नई कविता में छन्द को केवल घोर अस्वीकृति ही मिली हो- यह बात नहीं है, बल्कि वहाँ इस क्षेत्र में विविध प्रयोग भी किए गए है। इस संबंध में पहला प्रयोग हिन्दी के पुराने छंदों को तोड़कर नया मुक्त छंद बनाया गया, जैसे गिरिजाकुमार ने कवित्त व सवैया में तोड़-फोड़ की रामविलास शर्मा ने छनाक्षरी से रुबाई का निर्माण किया दूसरे प्रयोग में विविशध देशी-विदेशी भाषाऔं के छंदों को नयी कविता में लाया गया।

देशी भाषा में, बंगला, मराठी, संस्कृत और विविध लोक-भाषाओं के छंद समय – समय पर प्रयोग किए गए। विदेशी भाषाओं में अंग्रेजी के ‘सॉनेट’, ‘बैलेड’, जपानी का ‘हायकू’ और चीनी फ्रेच और अमरीकी कविता के चित्रों को नयी कविता में प्रयोग किया गया। ‘ छंद का संबंध संगीत से रहा है और संगीत तुक, लय से जुड़ा है।

नयी मुक्त छंद कविता ‘गीत कविता’ के रुप में विकसित हुई है परंतू इन गीतो में केवल भावानुकुलता नहीं जीवन की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व मनोवैज्ञानिक स्थितियों का अंकन है।

“गीत’ नयी कविता की महत्वपूर्ण विशेषता मानी जाती है। जो लोकगीत ‘लोकधुनों’ लोक परंपराओं, लोक संस्कृति’ से जुड़ा है।

मूल्यांकन:-

नई कविता संबंधी इस विस्तृत चर्चा के बाद यह कहा जायेगा की उसका वर्ण-विषय क्षेत्र काफी विस्तृत है। आधुनिक मनुष्य की ‘ट्रेजडी’ से यह जुड़ी रही। इसलिए जीवन के सभी प्रसंगों, अच्छे-बूरे, कुरुप-विरुप, की संपूर्णता उसमें आयी है।

व्यंग्य का प्रयोग इसी कारण कविता में प्रखरता के साथ हुआ है। लघु मानव की कल्पना विशेष ने उसे वर्तमान के साथ जोड़ा है। काव्य भाषा के रुप में यह पूर्ववर्ती कविता से विशेष है। छंद के साथ उसके बंधंनों को तोड़कर यह सपाटबयानी, वक्तव्य की भूमी पर पहुँची है।

“नये अर्थ के लिए नवनिर्मित शब्दों का प्रयोग’ हुआ है। फिर एक बाद यह कविता जनोन्मुखता की ओर लौट पड़ी है। बिम्ब, प्रतीक, अलंकारीकता के मोह से वह मुक्त हो रही है। केदारनाथ सिंह की कविताएँ उसका प्रमाण है। फिर भी उसमें विदवानों, के साथ नये कवियों ने ही कुई दोष पाये है।

स्वंय मुक्तिबोध ने कहा है, ‘नई कविता में, बहुत बार, ऐसे भाव-विचार प्रकट किये जाते है जो नितान्त प्रतिक्रियावादी है, ‘ नई कविता को पश्चिमी विचार ने सिखाया की “जनता समूह है – वह अंधकार है, अन्यकर- ग्रस्त है, वह जल्दी ही भीड़ बन जाती है।

उसका साथ मत दो। तुम सचेत व्यक्तित्वशाली प्राण-केंद्र हो। उसमें अपने-आपको विलीन मत को। अपने अन्तिम निष्कर्ष में यह विचारधारा अत्यन्त प्रक्रियावादी है, वह जन के प्रति घृणा पर आधारित है, और बुध्दिजीवियों को जनता से अलग करके ररखने का उपाय है।”

इसलिए वे फिर कहते है- मैं ‘जुलूम में शामिल हो जाऊँगा; लेकिन ‘भीड़’ और ‘जुलूम’ तो मनुष्य के व्यक्तित्व के परिहार का, अन्तव्यक्तित्व के संहार का सूचक है, इसलिए मेरी मुक्तित कहीं भी नहीं है। ” फिर भी समुह ‘असाधारण कार्य करता’ है ब शर्ते उसका एकत्रित होना उद्देश्यपूर्ण हो का विचार भी वह
रखते हुए कहते है की मुक्ति अकेले में नहीं होती।

सारांश :-

नई कविता जनता की और जनता के साथ की कविता है। वह परंपरा से विच्छेद होने के बावजूद परंपरा से मुक्त नही है। इस कविता आंदोलन से हिन्दी साहित्य में मुक्तिबोध, भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर बहादूर सिंह, कीर्ति चौधरी, भारतभूषण अग्रवाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केदारनाथ अग्रवाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, जगदीश गुप्त, मुद्रा राक्षस, नेमिचंद्र जैन, प्रभाकर माचवे, राजकमल चौधरी, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, दुष्यन्तकुमार, धूमिल, कुंवर नारायण, कैलाश वाजपेयी, श्रीराम वर्मा, दुधनाथ सिंह जैसे सशक्त महत्वपूर्ण कवि उभरकर आये।

देवराज ने कहा है की ‘इस कविता‘ ने ही पहली बार व्यक्ति को व्यक्ति की परंपरा में रखकर देखने का प्रयास किया। भक्तिकाल से लेकर प्रगतिवाद तक व्यक्ति को मंदिर, महल, स्वर्ग, आकाश, और माक्स की तथाकथित माक्र्स वादियों द्वारा स्वयं की गई अस्वाभाविक व्याख्याओं के रंगीन पटों में लपेटा जा रहा है।

नई कविता ने ही उसे आम जिन्दरगी की अच्छाइ्यों और बुराइयों के बीच मनोवैज्ञानिक रुप में चित्रित किया है। अतः नयी कविता ने व्यक्ति को परंपरा से काटा नहीं, बल्कि जोड़ा है।

“यह मत सही भी प्रतित होता हो परंतू कबीर जैसे कवियों ने जनता की बात जनता की भाषा में कही है, वह हिन्दी साहित्य में पहला कवि और उसकी कविता है जिसने जनाभिव्यक्ति’ को पूर्ण रुपेन स्विकार किया था।

नई कविता में यह परंपरा फिर विकसित होती है। यह उसकी कटी परंपरा से जुड़ी भावनाएँ है ऐसा कहा जायेगा। ‘भक्ति काल’ शब्द प्रयोग जब देवराज करते है तो कबीर उसी काल में आते हैं। और उन्हें यों खारिज करना, अयोग्य होगा, क्योकि शुक्लजी के अनुसार ‘ऊँच-नीच और जाति-पॉती के भाव का त्याग और भक्ति के लिए मनुष्य मात्र के समानाधिकार का स्वीकार था।

अंतिम कुछ शब्द :-

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WIKIPEDIA PAGE : नई कविता

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