कृष्ण भक्ति काव्य की सपूर्ण जानकारी (Krushn Bhakti Kavya Ki Sampurn Jankari)

कृष्ण भक्ति काव्य की सपूर्ण जानकारी (Krushn Bhakti Kavya Ki Sampurn Jankari):-

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल मैं सगुण भक्ति के कृष्ण भक्ति काव्य एकक अनन्य परंपरा का पालन करता है। इसस दौर मैं भगवान श्रीकृष्ण के सगुण रूप को पूजा जाता हैं तथा सारे काव्य रचना उनहीनके भक्ति के ऊपर ही रचा गया हैं। इसके अलावा भाषा शैलीगत विकास, काव्य प्रसंग का निर्माण हेतु यह दौर अपना काफी वर्जस्व रखता हैं। तो आइए कृष्ण भक्ति काव्य धारा के वारे मैं बिस्तार से आलोचना करें ..

प्रस्तावना :-

कृष्ण भक्ति काव्य एक लंबा समय पार करता है। कृष्ण का व्यक्तित्व प्राचीन है और उसमें परिवर्तन होते रहे हैं। इतिहास, गाथा, पुराण, मिथकीय जगत् सब उसमें सम्मिलित हुए हैं। महाभारत में वे सूत्रधार की भुमिका में हैं और यह उनकी असंदिग्ध स्वीकृति है। मध्यकाल तक आते-आते कृष्ण का अवतारी रूप भारतीय भाषाओं की रचनाशीलता में स्थापित हुआ।

कृष्ण भक्ति काव्य
कृष्ण भक्ति काव्य

भागवत को भक्ति का प्रस्थान ग्रंथ स्वीकार किया जाता है जहाँ कृष्णलीला के उत्स मौजूद हैं, राधा की अनुपस्थिति अवश्य आश्चर्य में डालती है। लगभग इसी समय नौवी शताब्दी के बीच तमिल आलवार संतों का दिव्यप्रबंधम है जहाँ कृष्णभक्ति को पूरी रागमयता में प्रस्तुत किया गया। पुराणों में कृष्ण का मानुषीकरण भक्तिकाव्य को नयी दिशाओं में अग्रसर करता है और उसे व्यापकता मिलती है। जयदेव से लेकर अष्टछापी कवियों, सूरदास आदि तक इसकी लीला का प्रसार है ।

कृष्ण का विकास (Krushn ka vikaas):-

भारतीय परंपरा में राम और कृष्ण दो ऐसे विशिष्ट चरित्र हैं, जिन्होंने संपूर्ण रचनाशीलता को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। उन्हें विष्णु के अवतार के रूप में देखा गया और भारतीय समाज में उन्हें व्यापक स्वीकृति मिली। प्राय: माना जाता है कि राम त्रेता के अवतार हैं और कृष्ण द्वापर के। पर विचारणीय तथ्य यह है कि कृष्ण के व्यक्तित्व का विकास कुछ चरणों में हुआ और मध्यकाल तक आते-आते उनमें इतिहास के साथ गाथा का ऐसा संयोजन हो चुका था कि उन्हें “सोलह कला अवतार” कहा गया।

भारतीय रचनाशीलता ने कृष्ण के बालकूप से लेकर महाभारत तक के उनके व्यक्तित्व का उपयोग किया और वे ऐसे चरित्र हैं जो केवल साहित्य तक सीमित नहीं हैं, नृत्य, संगीत, चित्र, मूर्तं, लोक समग्र रचना-संसार में उनकी उल्लेखनीय उपस्थिति है। कृष्ण का चरित्र इतिहास के लबे प्रवाह में रूपांतरित होता रहा है और महाभारत से लेकर पुराण तक उन्होंने जो स्वरूप ग्रहण किया, उससे उनका बहुरंगी व्यक्तित्व निर्मित हुआ। कवियों ने इसे अपने-अपने ढंग से ग्रहण किया।

कृष्ण लीला (Krushn leela):-

कृष्ण भक्ति काव्य में कृष्ण का लीला रूप प्रधान है जो जीवों के सुख के लिए है और जिसमें कृष्ण स्वयं दूहरी-तिहरी भूमिका में हैं। बाहर से देखने पर वे संलग्न लीलाभूमि पर हैं, जिसमें रासलीला का घनिष्ठ प्रकरण भी है। पर किसी बिंदू पर वे तटस्थ भी हैं, इसलिए रस के अवसर पर अंतर्धान हो जाते हैं।

कृष्णलीला में माखन-चोरी, वृन्दावनलीला, रास आदि की प्रमुख भूमिका है जहाँ कृष्ण मानुष-फूप में संचरित है। प्रसंग रूप-माधुरी से आरंभ होता है, पर क्रमशः उसमें गुणों का संयोजन होता है। मिथकीय, निजन्धरी कथाओं के चमत्कार एक ओर हैं, पर कृष्ण की मुरली उनके व्यक्तित्व को नई दीप्ति देती है। कृष्ण-लीला के विस्तार में इसका यौोगदान सर्वोपरि है।

कृष्ण-लीला में स्वकीया- परकीया जैसे प्रध्न उठाए जाते रहे हैं जो आज बहुत प्रासंगिक नहीं हैं। राधा के प्रसंग में यह चर्चा पर्याप्त विवाद उपजाती रही है। राधा विशिष्ट गोपी है उसे रासेश्वरी रूप में चित्रित किया गया है, कृष्ण के समतुल्य । राधा अपरूप रूप है, जिसका बखान जयदेव, विद्यापति आदि ने भी किया है। कृष्णभक्त कवियों को राधा के प्रसंग में एक साथ कई भूमिकाऊओं का निर्वाह करना है। वल्लभ सम्प्रदाय में राधा कृष्ण की आहलादिनी शक्ति है और कृष्ण में संयोजित है। राधा – कृष्ण का प्रेम बालजीवन, किशोरावस्था के निश्छल समय में अंकुरित-विकसित होता है।

लोक रक्षक तथा लोक रंजक रूप Krushn ke rup) :-

कृष्ण भक्ति काव्य के संदर्भ में अरसे तक यह कहा जाता रहा है कि राम का जन्म लोकरक्षक का है और कृष्ण का लोकरंजन का। रचना में इस प्रकार का विभाजन एक सीमा तक ही उपयोगी हो सकता है, विशेषतया भक्तिकाव्य के संदर्भ में । कवियों की राग -दृष्टि ने अपना ध्यान गोकुल-वृन्दावन तक केंद्रित रखा और कृष्ण का महाभारत रूप, पृष्ठभूमि में घला गया।

कृष्ण भक्ति काव्य में वर्णनात्मक ढंग से महाभारत के कुछ प्रसंगों का उल्लेख कर दिया गया है, पर कवियों की रुचि उसमें रमती नहीं प्रतीत होती। वास्तविक्ता यह है कि कृष्ण के बाल -किशोर जीवन की जो चमत्कारी घटनाएँ वर्णित हुई हैं, उनमें भी कवि उस संलाग्नता के साथ उपस्थित नहीं है, जिसके लिए बाल-लीलाओं का उल्लेख किया जाता है।

लोकरंजन से ही कृष्ण भक्त काव्य के कवि अपनी अभीप्सा की पूर्ति करना चाहते हैं, कृष्ण की भक्ति ही उनका प्रमुख प्रयोजन है। पूतना वध, कालीदह से लेकर मथुरा-प्रसंग तक कृष्ण के वीरत्व के जो कार्य हैं, वे प्रमुखता नहीं प्राप्त करते, जबकि कृष्ण की अन्य लीलाएँ कृष्ण भक्तिकाव्य में विस्तार से आई हैं। यहाँ कृष्णगाथा के एक प्रसंग का उल्लेख विशेष रूप से करना होगा।

सूरसागर के दशम स्कंध में गौवर्धन प्रसंग विस्तार से आया है – लगभग पौने दो सौ पदों में और इसी के अनन्तर रास्पंचाध्यायी का आरंभ होता है। भारत मूलत: कृषि-समाज है और इन्द्र-पूजन की परंपरा यहाँ पर्याप्त प्राचीन है। ब्रजमंडल में इन्हें कुलदेव माना गया और इनके पूजन की आदरपूर्ण व्यवस्था थी। पर कृष्ण इस प्रचलित परंपरा को चुनौती देते हैं और कहते हैं कि अगोचर इन्द्र की पूजा व्यर्थ है।

सगुण भक्ति (Sagun Bhakti) :-

कृष्ण भक्ति काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों पर विचार करते हुए हमें यह ध्यान रखना होगा कि कवियों की अपनी दृष्टि के अनुसार आग्रहों में आंशिक परिवर्तन देखे जा सकते हैं, पर समानता के सूत्र अधिक हैं । कृष्ण का मानुषीकरण लीलाओं के माध्यम से व्यक्त हुआ है, और वह भी अपनी पूरी रसमयता में। यहाँ आग्रह माधुर्य भाव पर है और कृष्ण अपनी रसिक छवि में अद्वितीय हैं। कृष्णकाव्य एक प्रकार से सगुणोपासना का आग्रह इस सीमा तक करता है कि निर्गुण की अस्वीकृति के उसके अपने तर्क है।

इसीलिए व्यापक दृष्टि से विचार करें तो साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण की अपनी धारणाएँ हैं। मध्यकाल में कर्मकांड-पुरोहितवाद जिस ढंग से विकृत हो रहे थे और समाज में आडम्बर, मिथ्याचार आदि का प्रचार था, उससे मुक्ति का उपाय खोजते हुए, विचारक निर्गुण-निराकार का आग्रह करते हैं। मूर्ति को केंद्र में रखकर कर्मकांड उपजता है और कई प्रकार के संघर्ष भी होते हैं। इसलिए निर्गुणियों का आग्रह ज्ञान पर है।

पर कृष्ण भक्ति काव्य धारा मैं सगुण मतमबलंबियां, विशेषतया कृष्ण भक्तिकाव्य के अपने तर्क हैं। उनका कहना है कि मन यों ही चंचल है, उसे स्थिर एकाग्र करने के लिए कोई आश्रय चाहिए। निर्गुण ज्ञानमार्गियों के लिए तो संभव है, पर सामान्यजन के लिए तो साकार-सगुण ही गम्य है, सहज है। इस विषय में सूरदास का तर्क यही है कि जो वर्णनातीत है, उसका साक्षात्कार कैसे हो। इसके लिए आकार-प्रकार चाहिए।

“अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यौ गूंगै मीठे फल की रस अंतरगत ही भावै।
परम स्वाद सबही स निरंतर अमित तोष उपजावै।
मन-बानी को अगम-अगोचर, सो जाने जो पावै।
रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिन निरालंब कत धावै ।
सब बिधि अगम बिचार हिं तातै सूर सगुन पद गावै।”

भ्रमर गीत प्रसंग Bhramar geet ):-

कृष्ण भक्ति काव्य में भ्रमरगीत प्रसंग का विशेष महत्व है, जिसका उल्लेख भागवत में मिलता है और अधिकांश कवियों ने इसका उपयोग किया है। सूरदास ने सूरसागर के दशम स्कंध में विस्तार से इसका वर्णन किया है।

भ्रमरगीत में कृष्ण भक्तकवियों ने गोपिकाओं के प्रगाढ़ प्रेमभाव को व्यक्त किया है और इसे विप्रलंभ शृंगार के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं। ज्ञान-गर्व-परिचालित उद्धव, गोपिकाओं को निर्गुण-निराकार की शिक्षा देकर कृष्ण से उनका ध्यान हटाना चाहते हैं। पर वे अनेक रूपों में कृष्ण का स्मरण करती हुई, उन्हें अपना सर्वस्व मानती हैं ।

बात्सल्य और शृंगार वर्णन:-

कृष्ण भक्ति काव्य के संवेदन-संसार की निश्चित रेखाएँ हैं और गीत काव्य उसका प्रिय माध्यम है। वात्सल्य और शृंगार उसकी दो प्रमुख भूमियाँ हैं और निर्विवाद है कि जहाँ तक वात्सल्य का प्रश्न है कृष्णकाव्य विश्व की रचनाशीलता में प्रमुख स्थान का अधिकारी है।

प्रयोजन है कृष्ण की बाल-लीलाओं के माध्यम से सहज सौंदर्य को उद्घाटित करना, जिससे सब आकृष्ट होते हैं। बाल छवि का निरपेक्ष वर्णन यहाँ कवियों का अभिप्राय नहीं है, इसमें उनकी अनेक लीलाएँ सम्मिलित हैं। नन्द-यशोदा के साथ गोकुल के ग्वाल-बाल, गोपियाँ सब इस सुख में निमग्न हैं। बार-बार कहा गया है कि इस सुख के समक्ष त्रैलोक्य का वैभव व्यर्थ है।

अष्टछाप (Ashtachhap):-

कृष्ण भक्त काव्य के कवियों में अष्टछाप का विशेष उल्लेख किया जाता है। वल्लभाचार्य ने विशिष्टाद्वितवादी पुष्टिमार्ग की स्थापनम की थी। आगे चलकर बिट्ठलनाथ ने अष्टछाप कवियों की परिकल्पना की, जिन्हें कृष्णसखा भी कहा गया जिनमे चार वल्लभाचार्य के शिष्य हैं सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास और कृष्णदास तथा बिट्ठलनाय के शिष्य चार हैं नन्ददास, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी और चत्रभुजदास।

कृष्ण भक्ति काव्य धारा के वल्लभ सम्प्रदाय में अष्टछाप कवियों का विशेष स्थान है और कहा जाता है कि जब गोवर्धन में श्रीनाथ की प्रतिष्ठा हो गई, तब्ब ये भक्तकवि अष्टछाप सेवा में संलग्न रहते थे – मंगलाचरण-शृंगार से लेकर सन्ध्या आरती और शयन तक। अष्टछाप के इन कवियों में सुरदास सर्वोपरि हैं जिन्हें भक्तिकाव्य में तुलसी के समकक्ष माना जाता है।

तुलसीदास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के प्रिय कवि हैं, पर उन्होंने भी स्वीकार किया है कि माधुर्य भाव में ‘सूरसागर’ रससागर है और जहाँ तक वात्सल्य तथा शृंगार का प्रश्न है, सूर सर्वोपरि हैं। अष्टदछाप के कवियों में परमानन्ददास ने कृष्ण की बाललीला को लेकर अपना ध्यान केद्रित किया और माधूर्य गुण को प्रमुखता दी। नन्ददास पंडित कवि हैं और उनके भंवरगीत में शास्त्र ज्ञान का परिचय मिलता है। उन्हें अलंकृत अथवा ‘जड़िया कवि’ कहकर संबोधित किया गया।

काव्य विधान (Sagun bhakti kaavya):-

कृष्ण भक्ति काव्य का शिल्प विधान इस दृष्टि से विचारणीय है कि प्रमुख पद मंदिरों में गायन-परंपरा का अंग बन गए और इस प्रकार व्यापक प्रचार-प्रसार पा गए। उन्हें राग-रागिनियों में बाँधा गया और एक ओर वे शास्त्रीय गायन में स्वीकृत हुए, दूसरी ओर लोकगायन में प्रचलित हुए। कृष्ण भक्ति काव्य का यह दुर्लभ पक्ष है कि अपने माधुर्य गुण के कारण उसे व्यापक स्वीकृति मिली। यों तो लगभग सभी भाषाओं के भक्ति-काव्य के भजन-गायन की व्यवस्था रही है और दिव्यप्रबंधम से लेकर मीरा के पदों तक रहा है। चैतन्य महाप्रभु, चण्डीदास आदि ने प्रार्थना-कीर्तन भाव से भक्ति को व्यापकता दी और असम में शंकरदेव ने उसे विस्तार दिया।

कृष्ण भक्ति काव्य मुख्यतया गीत सृष्टि है और गेयता इसका सराहनीय गुण है। गीतिकाव्य की लंबी परंपरा में कृष्ण भक्तिकाव्य को लीला पदों की सुविधा है, जहाँ माधुर्य भाव की प्रधानता की सहायता से भाव-संचार हो सका है। ब्रजभाषा का लालित्य यहाँ पूर्णता पर पहुँचता है और संगीतमयता उसमें सहज भाव से आ जाती है।

कृष्णभक्त काव्य के कवि की भावप्रवणता गीतसृष्टि का प्रस्थान है और एक पद में एक भाव-विशेष को संग्रंथित किया गया है। भाव बिखरने नहीं पाते और अभिव्यक्ति अपने प्रयोजन में सफलता प्राप्त करती है। विनय पदों से लेकर कृष्ण के लीला पदों तक इस संग्रंथन को देखा जा सकता है।

भाषा शैली:-

भक्तिकाव्य के सफल निर्वाह के लिए जिस संवेदन सम्पन्न, मधूुर, लयात्मक भाषा की अपेक्षा होती है, उसके लिए ब्रजभाषा समर्थ है और कृष्ण भक्त काव्य के कवियों ने उसका सक्षम उपयोग किया। यहाँ भाषा का वह रूप है जो लोकप्रचलित है और जिसे कवियों ने काव्योपयोगी बनाया। यह कार्य कठिन है और सर्जनात्मक प्रतिभा की माँग करता है। भाषा एक प्रकार से लोकसम्पत्ति होती है जिसमें लोक स्वयं को अभिव्यक्ति देता है।

इस दृष्टि से वह एक संस्कृति की वाहक भी होती है। कृष्ण भक्ति काव्य ब्रज संस्कृति का प्रतिनिधित्त्व करता है क्योंकि कृष्ण के व्यक्तित्व का मुख्यांश उससे संबद्ध है और जिन्हें कृष्ण भक्ति अष्टछापी कवि कहा जाता है वे इससे जुड़े हुए हैं । सूर जैसे कवियों ने लोकभाषा ब्रजभाषा को वैसे ही काव्योपयोगी बनाया जैसे जायसी ने अवधी को। तुलसीदास में अवधी का स्वरूप किचित भिन्न है, क्योंकि उस पर संस्कृत की छाया भी है।

पर सूरू जैसे कवि भाषा की वर्णनात्मकता को पार करते हैं क्योंकि गीत उनका प्रमुख माध्यम है। कृष्ण भक्त कवियों ने भाषा के मुहावरे को मुख्य रूप से जीवन संसक्ति से प्रप्त किया, पर ब्रज का परिवेश इस कार्य में उनकी सहायता करता है। इसलिए संस्कार, उत्सव सब यहाँ पूरी रसमयता में आए हैं। उल्लेखनीय यह है कि यहाँ प्रकृति की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं। वास्तविकता तेो यह है कि लोकजीवन में प्रकृति भी सम्मिलित है, और जहाँ तक भाषा-सम्पदा का प्रपन है, वह कविता को विशेष सम्पन्नता प्रदान करती है।

इस प्रसंग में माखनलीला, वृन्दावन विहार, रासलीला आदि का उल्लेख विशेष रूप से किया जा सकता है, जहाँ प्रकृति के खुले मंच पर सब कुछ आयोजित होता है। प्रचलित लोकोक्तियों और मुहावरों से कृष्ण भक्तिकाव्य ने स्वयं को लोकसमीपी बनाया है । अभिव्यक्ति की सहजता यहाँ विशेष आकर्षण उत्पन्न करती है।

मध्यकाल में प्रचलित फारसी-अरबी शब्द भी यहाँ आए हैं, पर वे काव्यभाषा की मुख्यधारा में प्राय: अन्तर्मुक्त हो गए हैं, बाहरी प्रतीत नहीं होते । सूरदास जैसे सिद्ध कवियों ने काव्यभाषा को इस ऊँचाई पर पहुँचा दिया कि वह बिम्ब, रूपक -निर्माण में सफल हो सकी। जिसे सांगरूपक अथवा संपूर्ण चित्र कहा गया, उसका निर्माण इस अर्थगामी भाषषा के सहारे ही संभव था। ‘अद्भुत एक अनूपम बाग’ जैसे पद में यमुना के माध्यम से वियोग का संपूर्ण चित्र विचारणीय है।

ललित कलाएँ:

कृष्ण भक्ति काव्य धारा के कलाओं का अन्तरावलम्बन रचनाशीलता को गति देता है, इसे मध्यकाल, विशेषतया कृष्ण भक्तिकाव्य के संदर्भ में देखा-समझा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि जब विभिन्न कलाएँ एक-दूसरे से संवाद की स्थिति में होती हैं, तब संपूर्ण कला-संसार में एक नई उठान आती है। प्राचीनकाल में दृश्यकाव्य की प्रमुखता थी और साहित्य रंगमंच से जुड़कर अधिक प्रसार पाता था।

मध्यकाल का यह विचारणीय पक्ष है कि कविता, संगीत, चित्र एक दूसरे के निकट हैं और इसका आधार कृष्ण का लीला-संसार है, जैसे फारस से प्रभावित मुगल कला में आभिजात्य की प्रमुखता है और उसके विषय उसी के अनुसार हैं। पर इसी के समानान्तर जो राजपूत, पहाड़ी शैलियाँ विकसित हुईं, उनका क्षेत्र राजस्थान से लेकर हिमाचल तथा उत्तराखंड तक है। पहले महाभारत फिर भागवत इसके प्रेरणास्रोत रहे हैं और कृष्ण भक्तिकाव्य इसे नई सक्रियता देता है।

सारांश:-

कृष्ण भक्ति काव्य के भक्त कवियों में अनुभूति की तन्मयता थी। अनुभूति की तन्मयता ने कवियों में संगीतात्मक चेतना का प्रसार किया। अधिकतर कृष्ण भक्त काव्य के कवियों के काव्य में लयात्मक सौंन्दर्य मिलता है। इसी कारण कृष्ण भक्त काव्य के कवि जनता में लोकप्रिय हुए। कृष्णभक्त कवियों के प्रभाव से ब्रजभाषा का विकास अखिल भारतीय स्तर पर हुआ । कृष्णभक्त कवियों ने सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में कृष्ण काव्य को प्रस्तावित किया था।

अंतिम कुछ शब्द :-

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Wikipedia Page :- कृष्ण भक्ति काव्य

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