कुत्सा : Munshi Premchand Ki Kahani

कुत्सा : Munshi Premchand Ki Kahani :-

कुत्सा : Munshi Premchand Ki Kahani :-

अपने घर में आदमी बादशाह को भी गाली देता है। एक दिन मैं अपने दो-तीन मित्रों के साथ बैठा हुआ एक राष्ट्रीय संस्था के व्यक्तियों की आलोचना कर रहा था। हमारे विचार में राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को स्वार्थ और लोभ से ऊपर रहना चाहिए। ऊँचा और पवित्र आदर्श सामने रख कर ही राष्ट्र की सच्ची सेवा की जा सकती है।

कई व्यक्तियों के आचरण ने हमें क्षुब्ध कर दिया था और हम इस समय बैठे अपने दिल का गुबार निकाल रहे थे। संभव था, उस परिस्थिति में पड़कर हम और भी गिर जाते, लेकिन उस वक्त तो हम विचारक के स्थान पर बैठे हुए थे और विचारक उदार बनने लगे, तो न्याय कौन करे? विचारक को यह भूल जाने में विलम्ब नहीं होता कि उसमें भी कमजोरियाँ हैं।

उस में और अभियुक्त में केवल इतना ही अन्तर है कि यो तो विचारक महाशय उस परिस्थिति में पड़े ही नहीं, या पड़कर भी अपने चतुराई से बेदाग निकल गये।
पद्मादेवी ने कहा — महाशय ‘क’ काम तो बड़े उत्साह से करते हैं, लेकिन अगर हिसाब देखा जाय, तो उन के जिम्मे एक हजार से कम न निकलेगा। munshi premchand ki kahani

उर्मिलादेवी बोली — खैर ‘क’ को तो क्षमा किया जा सकता है। उसके बाल-बच्चे है, आखिर उनका पालन-पोषण कैसे करे? जब वह चौबीसों घंटे सेवा-कार्य में ही लगा रहता है, तो उसे कुछ-न-कुछ तो मिलना ही चाहिए। उस योग्यता का आदमी 500) वेतन पर भी न मिलता। अगर इस साल-भर में उसने एक हजार खर्च कर डाला, तो बहुत नहीं है। महाशय ‘ख’ तो बहुत निहंग हैं। ‘जोरू न जाँता अल्लाह मियाँ से नाता’, पर उनके जिम्मे भी एक हजार से कम न होंगे। किसी को क्या अधिकार है कि वह गरीबों का धन मोटर की सवारी और यार-दोस्तों की दावत में उड़ा दे?

श्यामादेवी उद्दण्ड होकर बोलीं — महाशय ‘ग’ को इसका जवाब देना पड़ेगा, भाई साहब! यों बचकर नहीं निकल सकते। हम लोग भिक्षा माँग-माँगकर पैसे लाते हैं; इसीलिए कि यार-दोस्तों की दावतें हों, शराबें उड़ायी जायँ और मुजरे देखे जायँ? रोज सिनेमा की सैर होती है। गरीबों का धन यों उड़ाने के लिए नहीं है। यहाँ पाई-पाई का लेखा समझना पड़ेगा। मैं भरी सभा में रगेदूँगी। उन्हें जहाँ पाँच सौ वेतन मिलता हो, वहाँ चले जायँ। राष्ट्र के सेवक बहुतेरे निकल आवेंगे। munshi premchand ki kahani

मैं भी एक बार इसी संस्था का मन्त्री रह चुका हूँ। मुझे गर्व है कि मेरे ऊपर किसी ने इस तरह का आक्षेप नहीं किया, पर न-जाने क्यों लोग मेरे मन्त्रित्व से सन्तुष्ट नहीं थे। लोगों का खयाल था कि मैं बहुत कम समय देता हूँ और मेरे समय में संस्था ने कोई गौरव बढ़ाने वाला कार्य नहीं किया, इसीलिए मैंने रूठ कर इस्तीफा दे दिया था। मैं उसी पद से बेलौस रहकर भी निकाला गया।

महाशय ‘ग’ हजारों हड़प कर भी उसी पद पर जमे हुए हैं। क्या यह मेरे उनसे कुनह रखने की वजह न थी? मैं चतुर खिलाड़ी की भान्ति खुद तो कुछ न करना चाहता था, किन्तु परदे की आड़ में से रस्सी खींचता रहता था। munshi premchand ki kahani

मैने रद्दा जमाया — देवीजी, आप अन्याय कर रही हैं। महाशय ‘ग’ से ज्यादा दिलेर और…
उर्मिला ने मेरी बात काटकर कहा — मैं ऐसे आदमी को दिलेर नहीं कहती जो छिपकर जनता के रुपये से शराब पिये। जिन शराब की दूकानों पर हम धरना देने जाते थे, उन्हीं दूकानों से उनके लिए शराब आती थी। इससे बढ़कर बेवफाई और क्या हो सकती है? मैं ऐसे आदमी को देशद्रोही कहती हूँ।

मैंने और खींची — लेकिन यह तो तुम मानती हो कि महाशय ‘ग’ केवल अपने प्रभाव से हजारों रुपये चन्दा वसूल कर लाते हैं। विलायती कपड़े को रोकने का उन्हें जितना श्रेय दिया जाय, थोड़ा है।

उर्मिला देवी कब मानने वाली थीं। बोलीं — उन्हें चन्दे इस संस्था के नाम पर मिलते हैं, व्यक्तिगत रूप से एक धेला भी लावें तो कहूँ। रहा विलायती कपड़ा। जनता नामों को पूजती है और महाशय की तारीफें हो रही हैं, पर सच पूछिए तो यह श्रेय हमें मिलना चाहिए। वह तो कभी किसी दूकान पर गये भी नहीं। आज सारे शहर में इस बात की चर्चा हो रही है।

जहाँ चन्दा माँगने जाओ, वहीं लोग यही आक्षेप करने लगते हैं। किस-किसका मुँह बन्द कीजिएगा आप बनते तो हैं जाति के सेवक; मगर आचरण ऐसा कि शोहदों का भी न होगा। देश का उद्धार ऐसे विलासियों के हाथों नहीं हो सकता। उसके लिए त्याग होना चाहिए। munshi premchand ki kahani

यही आलोचनाएँ हो रही थीं कि दूसरी देवी आयीं, भगवती! बेचारी चन्दा माँगने आयी थीं। थकी माँदी चली आ रही थीं। यहाँ जो पंचायत देखी, तो रम गयीं। उसके साथ उनकी बालिका भी थी। कोई दस साल उम्र रही होगी, इन कामों में बराबर रहती थी। उसे जोर की भूख लगी हुई थी। घर की कुंजी भी भगवती देवी के पास थी। पतिदेव दफ्तर से आ गये होंगे। घर का खुलना भी जरूरी था, इसलिए मैं ने बालिका को उसके घर पहुँचाने की सेवा स्वीकार की। premchand ki kahani

कुछ दूर चलकर बालिका ने कहा — आपको मालूम है, महाशय ‘ग’ शराब पीते हैं?
मैं इस आक्षेप का समर्थन न कर सका। भोली-भाली बालिका के हृदय में कटुता, द्वेष और प्रपंच का विष बोना मेरी ईर्ष्यालु प्रकृति को भी रुचिकर न जान पड़ा। जहाँ कोमलता का सारल्य, विश्वास और माधुर्य का राज्य होना चाहिए, वहाँ कुत्सा और क्षुद्रता का मर्यादित होना कौन पसन्द करेगा? देवता के गले में काँटों की माला कौन पहनाएगा? munshi premchand ki kahani

मैंने पूछा — तुमसे किसने कहा कि महाशय ‘ग’ शराब पीते हैं?
‘वाह पीते ही हैं, आप क्या जानें?’
‘तुम्हें कैसे मालूम हुआ?’
‘सारे शहर के लोग कह रहे हैं।’
‘शहर वाले झूठ बोल रहे हैं।’
बालिका ने मेरी ओर अविश्वास की आँखों से देखा, शायद वह समझी, मैं भी महाशय ‘ग’ के ही भाई-बन्दों में से हूँ।

‘आप कह सकते हैं, महाशय ‘ग’ शराब नहीं पीते?’
‘हाँ वह कभी शराब नहीं पीते।’
‘और महाशय ‘क’ ने जनता के रुपये भी नहीं उड़ाए?’
‘यह भी असत्य है।’
‘और महाशय ‘ख’ मोटर पर हवा खाने नहीं जाते?’
‘मोटर पर हवा खाना अपराध नहीं है।’

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‘अपराध नहीं है, राजाओं के लिए, रईसों के लिए। अफसरों के लिए जो जनता का खून चूसते हैं, देश भक्ति का दम भरने वालों के लिए वह बहुत बड़ा अपराध है।’
‘लेकिन यह तो सोचो, इन लोगों को कितना दौड़ना पड़ता है। पैदल कहाँ तक दौड़ें?’

‘पैरगाड़ी पर तो चल सकते हैं। पर कुछ बात नहीं है। ये लोग शान दिखाना चाहते हैं, जिससे लोग समझें कि यह भी बहुत बड़े आदमी हैं। हमारी संस्था गरीबों की संस्था है। यहाँ मोटर पर उसी वक्त बैठना चाहिए, जब और किसी तरह काम ही न चल सके और शराबियों के लिए तो यहाँ स्थान न होना चाहिए। आप तो चंदे माँगने जाते नहीं। हमें कितना लज्जित होना पड़ता है, आपको क्या मालूम!’

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मैने गम्भीर होकर कहा — तुम्हें लोगों से कह देना चाहिए, यह सरासर गलत है। हम और तुम इस संस्था के शुभचिन्तक हैं। हमें अपने कार्यकर्त्ताओं का अपमान करना उचित नहीं। हमें तो इतना ही देखना चाहिए कि वे हमारी कितनी सेवा करते हैं। premchand ki kahani

मैं यह नहीं कहता कि क, ख, ग, में बुराइयाँ नहीं हैं। संसार में ऐसा कौन है, जिसमें बुराइयाँ न हों, लेकिन बुराइयों के मुकाबले में उनमें गुण कितने हैं, यह तो देखो। हम सभी स्वार्थ पर जान देते हैं — मकान बनाते हैं, जायदाद खरीदते हैं। और कुछ नहीं तो आराम से घर में सोते हैं। ये बेचारे चौबीसों घंटे देश हित की फिक्र में डूबे रहते हैं। तीनों ही साल-साल भर की सजा काटकर, कई महीने हुए, लौटे हैं। munshi premchand ki kahani

तीनों ही के उद्योग से अस्पताल और पुस्तकालय खुले। इन्हीं वीरों ने आन्दोलन करके किसानों का लगान कम कराया। अगर इन्हें शराब पीना और धन कमाना होता, तो इस क्षेत्र में आते ही क्यों?
बालिका ने विचारपूर्ण दृष्टि से मुझे देखा। फिर बोली — यह बतलाइए, महाशय ‘ग’ शराब पीते हैं या नहीं?
मैंने निश्चयपूर्वक कहा — नहीं। जो यह कहता है, वह झूठ बोलता है। munshi premchand ki kahani

भगवतीदेवी का मकान आ गया। बालिका चली गई। मैं आज झूठ बोलकर जितना प्रसन्न था, उतना कभी सच बोलकर भी न हुआ था। मैंने बालिका के निर्मल हृदय को कुत्सा के पंक में गिरने से बचा लिया था!

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