कुत्ते की कहानी : Munshi Premchand Ki Kahani

कुत्ते की कहानी : Munshi Premchand Ki Kahani :-

कुत्ते की कहानी : Munshi Premchand Ki Kahani :-

1
बालको! तुमने राजाओं और वीरों की कहानियां बहुत सुनी होंगी, लेकिन किसी कुत्ते की जीवन-कथा शायद ही सुनी हो। कुत्तों के जीवन में ऐसी बात ही कौन-सी होती है, जो सुनाई जा सके। न वह देवों से लड़ता है, न परियों के देश में जाता है, न बड़ी-बड़ी लड़ाइयां जीतता है; इसलिए भय है कि कहीं तुम मेरी कहानी को उठाकर फेंक न दो। किंतु मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मेरे जीवन में ऐसी कितनी ही बातें हुई हैं, जो बड़े-बड़े आदमियों के जीवन में भी न हुई होंगी।

इसीलिए मैं आज अपनी कथा सुनाने बैठा हूं। जिस तरह तुम कुत्तों को दुत्कार दिया करते हो, उसी भांति मेरी इस कथा को ठुकरा न देना। इसमें तुम्हें कितनी ही बातें मिलेंगी और अच्छी बातें जहां मिलें, तुरंत ले लेनी चाहिए। जब मेरा जन्म हुआ तो मेरी आंखें और कान बंद थे। इसलिए नहीं कह सकता कि बाजे-गाजे बजे या नहीं, गाना-बजाना हुआ या नहीं।

मुझे तो कुछ सुनाई नहीं दिया। हां, जिस बिछावन पर मैं लेटा था, वह रुई की भांति नर्म था। सर्दी जरा भी न लगती थी। मैं दिल में समझ रहा था कि किसी बड़े घर में मेरा जन्म हुआ है, लेकिन जब आंखें खुलीं तो मैंने देखा कि एक भाड़ की राख में अपनी माता की छाती से चिपटा हुआ पड़ा हूं। हम चार भाई थे। तीन लाल थे। मैं काला था, उस पर सबसे छोटा और सबसे कमजोर। munshi premchand ki kahani

माता भी हम लोगों के पास कम रहती थीं। उन्हें खाने की टोह में इधर-उधर दौड़ना पड़़ता था। वह रात-रात-भर जागकर गांव की रक्षा करती थीं। क्या मजाल कि कोई अनजान आदमी गांव में कदम रख सके! दूसरे गांव के कुत्तों को तो वह दूर ही से देखकर भगा देती थी। जब किसी खेत में कोई सांड़ घुसता तो उसे दूर तक भगा आतीं, मगर इतना सब-कुछ करने पर भी कोई उन्हें खाने को न देता।

बेचारी पेट की आग से जला करती थीं। उस पर हम लोगों की चिंता उन्हें और मार डालती थी। इसीलिए जब भूख सताती तो कभी-कभी वह चोरी से घरों में घुस जातीं और खाने की जो चीज मिल जाती, लेकर निकल भागतीं। उन्हें देखते ही लोग मारने दौड़ते और घरों के द्वार बंद कर लेते।

एक दिन बड़ी ठंड पड़ी। बादल छा गये और हवा चलने लगी। हमारे दो भाई ठंड न सह सके और मर गये। हम दो ही रह गये। माताजी बहुत रोयीं, मगर क्या करतीं? गांववालों को फिर भी उन पर दया न आयी। आदमी इतने मतलबी और बेदर्द होते हैं, यह मैंने पहली बार देखा। munshi premchand ki kahani

एक दिन गांव में उत्सव था। एक बनिए के यहां ब्राह्मण-भोज था। सैंकड़ों आदमी जमा थे। पूरियां बन रही थीं। माता जी बार-बार उधरजातीं, पर दुत्कार पाकर भाग आती थीं। किसी को इतनी दया न आती थी कि एक टुकड़ा उनकी ओर फेंक दे।

एक टुकड़ा दे देने से कुछ कमी न पड़ जाती, पर यह कौन समझाये? जब सब चीजें तैयार हो गयीं तो आंगन में पत्तल डाल दिए गये। लोग अपने-अपने आसन पर जा बैठे और भोजन परसा जाने लगा। उसी समय माता जी बहां पहुंचीं। माता जी भागीं नहीं, पूंछ हिलाने लगीं और वहीं बैठ गयीं। वह आदमी जब किसी काम से भीतर चला गया तो माता जी भी दबे पांव दालान में जा पहुंचीं। munshi premchand ki kahani

उन्हें देखकर चारों तरफ से धत्‌-धत्‌ का ऐसा कोलाहर मचा कि माता जी घबरा गयीं। दो-तीन आदमी डंडे लेकर दौड़े। माता जी को अगर दालान से निकल जाने का रास्ता मिलता तो वह उधर से बाहर निकल जातीं, लेकिन उधर लोग डंडे लिए खड़े थे, इसलिए माता जी बैठे हुए आदमियों के बीच से होकर मोरी के रास्ते बाहर निकल आयीं। मगर तमाशा तो देखिए कि माता जी के बाहर निकलते ही भोजन करनेवाले भी उठ खड़े हुए। जानते हो क्यों? माता जी के उधर से निकलने के कारण भोजन भ्रष्ट हो गया।

विचार होने लगा कि क्या किया जाये? बेचारा बनिया फूट-फूटकर रोने लगा। कुछ लोग कहते थे – इसमें दोष ही क्या है? कुतिया ने पत्तलों में मुंह तो डाला नहीं; छूने से क्या होता है? किंतु जो बहुत कुलीन थे, वे कुतिया का बीच से निकल जाना ही भोजन को भ्रष्ट करने के लिए काफी समझते थे। आखिर इन्हीं कुलीनों की जीत हुई और सारा भोजन गरीबों में बांट दिया गया। munshi premchand ki kahani

उस दिन माता जी ने खूब पेट-भर खाया। ऐसा सुख उन्हें जीवन में कभी न मिला था।लेकिन उस बेचारी के भाग्य में सुख लिखा ही न था। भोजन करके जरा लेटी ही थीं कि बनिया डंडा लिए आ पहुंचा और लगा पीटने। माता जी को भागने का अवसर न मिला। जोर-जोर से चिल्लाने लगीं। उनका विलाप सुन पत्थर भी पसीज जाता, पर उस निर्दयी को जरा भी दया नहीं आयी। मैं मन में कुढ़ रहा था।

अपना कुछ वश होता तो बनिए राम को इस बेदर्दी का मजा चखा देता। लेकिन जरा-सा बच्चा क्या करता! बस, यह विलाप सुनकर कुछ लोग जमा हो गये और समझाने लगे, “जाने दो भाई, भूख में तो आदमियों बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है, यह तो पशु है! इसे क्या मालूम, किसका फायदा हो रहा है, किसका नुकसान! अब तो जो हो गया, सो हो गया! इसे मारकर क्या पाओगे?” बनिए के चित्त में यह बात बैठ गयी और माता जी की जान छूटी। munshi premchand ki kahani

उसी दिन शाम को एक बटोही गांव में आकर ठहरा। उसने एक पेड़ के नीचे उपले जलाये और हांडी में दाल चढ़ाकर आटा गूंधने लगा। आटा गूंध चुकने पर उसने हांडी उतार दी और सामने के कुएं पर पानी लेने चला गया।

गूंधा आटा पत्तल पर रखा हुआ था। इतने में माता जी घूमती हुई वहां पहुंच गयीं और शायद यह समझकर कि आटे का कोई मालिक नहीं, वह खाने लगीं। मुसाफिर ने कुएं पर से ही धत्‌-धत्‌ करना शुरू किया, लेकिन माता जी ने फिर भी न देखा। बेचारा माथे पर हाथ धरकर रोने लगा। आज तीन दिनों का भूखा, थका-मांदा, उस पर भगवान की यह लीला! दो-तीन आदमियों ने समझाया, “भाई, तुम्हारा तो चार छः आने का नुकसान हुआ, कल तो इसने हजारों पर पानी फेर दिया।” munshi premchand ki kahani

मुसाफिर ने कहा, “मैं क्या जानता था कि चांडालिन घात में बैठी हुई है!” बूढ़े चौधरी बोले, “जान पड़ता है, आज का तुम्हारा भोजन उसी के भाग्य में था। मसल है – ‘शाह की मुहर आने-आने पर, खुदा की मुहर है दाने-दाने पर।’ फिर से बनाकर खा लो।” बेचारे मुसाफिर ने फिर से चौका लगाया और भोजन बनाने लगा। चौधरी वहीं बैठे रहे।

मुसाफिर ने पूछा, “बाबा, मैं आपकी उस कहावत का मतलब नहीं समझा! जरा समझा दीजिए।” चौधरी बोले, “एक फकीर यही कहकर सबके दरवाजे पर भीख मांगता फिरता था – ‘शाह की मुहर आने-आने पर, खुदा की मुहर दानेदो पर’।” “एक मनचले रईस ने उस फकीर से कहा – ‘साईं, यह बात समझ में नहीं आती, भला दानों पर कैसी मुहर।’ “साईं ने कहा – ‘नहीं बेटा, खुदा जिसको जो दाना देना चाहेगा, वही पा सकता है। munshi premchand ki kahani

दूसरा हरगिज नहीं पा सकता। इसकी जब चाहो तब परीक्षा कर सकते हो’।” “रईस ने कहा – ‘लीजिए, मैं अभी परीक्षा लेता हूं। अगर यह बात सच निकली तो मैं आपका गुलाम हो जाऊंगा’।” “रईस ने ज्वार का एक दाना हाथ में लिया और कहा – ‘देखिए, मैं इसे अपने मुंह में डालता हूं। अगर खुदा की इस पर मुहर है, किसी और को दे दे’।”

“यह कहकर उसने दाने को अपने मुंह में फेंका, पर दाना मुंह में न जाकर जमीन पर गिर पड़ा और एक चिड़िया उठाकर ले गयी। “रईस भौंचक्का-सा रह गया। बस, आप भी याद रखिए कि न तो कोई किसी को खिलाता है, और न किसी का खाता है। सबको खिलानेवाला ईश्वर है।”

2

जब हम दोनों भाई जरा बड़े हुए तो लड़कों ने हमें खिलाना शुरू किया। मैं बहुत खूबसूरत था। मुझे एक पंडित जी का एक लड़का पकड़ लाया। मेरे भाई को एक चफाली का लड़का पकड़ ले गया। मैं पंडित जी के घर पलने लगा। मेरा भाई डफाली के घर। उसे जकिया कहते थे और मुझे कल्लू। जाड़े का मौसम था। जब सब लड़के धूप में जमा हो जाते तो हमें गोद में ले लेते और चूमते। कोई कहता-हमारा बच्चा है। कोई कहता हमारा मुन्ना है। munshi premchand ki kahani

कोई लड़का एक कान पकड़कर उठाता और कहता-देखो भाई, चोर है या साह? जब तक कान दर्द न करते, मैं न बोलता। बस, सब कहने लगे-फेंको-फेंको, चोर है। मगर जब कान दुखने से चिल्ला उठता तो सब साह-साह कहकर हंस पड़ते। प्रायः यह खेल सैंकड़ों बार होता। कोई हमारे अगले पैरों को उठाकर कहता-मुरा मुन्ना दो पैर से चलता है।

यों चलाये जाने से हमारे पैर दर्द करने लगते थे, पर करते क्या? कभी-कभी छोटे-बड़े लड़के छोटे बच्चों को मेरी पीठ पर बिठाकर कहते-मेरा लल्लू हाथी पर बैठा है। भला मैं उन लड़कों का बोझ क्या उठाता! जब चिल्लाने लगता तो जान बचती। कोई-कोई लड़के तो मेरे गले में रस्सी बांधकर दौड़ाते! भला मैं उनके बराबर कैसे दौड़ता?

लेकिन वे अपनी धुन में मुझे घसीटते हुए ले जाते थे, इससे सारा बदन दुखने लगता था, मगर मुझ गरीब का वहां कौन मददगार बैठा था! कभी-कभी लड़के मुझे पासवाले गड्ढे में डाल देते और मेरी तैराकी का तमाशा देखते। जब मैं बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगता तो लड़के हंस-हंसकर कहते – देखो, कल्लू कैसा तैरता है! उस समय मैं डूबने-डूबने को हो जाता था। पांव जोर-जोर से चलाता हुआ किसी तरह किनारे आ जाता और मारे ठंड़ के कांपने लगता। munshi premchand ki kahani

जब धूप लगने से देह में कुछ गर्मी आती तो कोई शैतान लड़का बोल उठता – अबकी मेरी बारी है। सुनते ही मेरी जान-सी निकल जाती, मगर भागकर जाता कहां? कोई फिर पानी में डाल देता। क्या बतलाऊं कि उस समय किसना गुस्सा आता। बारबार यही जी में आ जाता था कि कोई इन दुष्टों को भी इसी तरह डुबकियां देता तो इनकी आंखें खुलतीं।

हम दोनों में से सुखी तो एक भी न था,पर जकिया की दशा मेरी दशा से अच्छी थी। पंडित जी के यहां मुझे रूखा-सूखा भोजन मिलता था और वह भी बहुत कम, इसलिए मुझे दूसरे द्वारों का चक्कर लगाना पड़ता था। डफाली मांस का प्रेमी था। रोजाना उसके घर मांस पका करता था, इसलिए जकिया को काफी भोजन मिल जाता था। munshi premchand ki kahani

उसे किसी दूसरे दरवाजे पर जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। कुछ तो बेफिक्री और कुछ पूरी खुराक मिलने की वजह से वह दिन-दिन ताकतवर और तंदुरुस्त बनने लगा। मैं कभी-कभी भूख से तंग आकर डफाली के दरवाजे पर पहुंच जाता कि शायद वहां कुछ मिल जाये। सोचता, आखिर जकिया भी अपना ही खून है, उससे आरजू-मिन्नत करूंगा तो जरूर कुछ-न-कुछ दे देगा। फिर उसका कोई नुकसान भी तो नहीं है।

मैं उसके खाने में हिस्सा लेने नहीं चाहता था, केवल उसकी जूठन चाहता था, पर वह मेरी परछाई देखते ही गुर्राकर मुझ पर ऐसा झपटता, जैसे मैं उसका दुश्मन हूं। वह था मुझसे ताकतवर, इसलिए मैं उसका सामना न कर सकता था।

वह दांतों से मुझे खूब काटता और नीचे गिराकर पेजों से खसोटता। जब मैं जोर से चिल्लाने लगता और पूंछ सिकोड़ लेता, तब कहीं जान बचती थी। उठकर ज्यों ही भागना चाहता कि डफाली कह उठता, “पंडित का भग्गू कुत्ता वह भागा! वह भागा!” इस पर मुझे बहुत ग्लानि होती थी। मैं फिर जाकर जकिया से उलझ पड़ता और इतनी मुस्तैदी देखकर देखनेवाले कहते, “वाह कल्लू! वाह! शाबास!” munshi premchand ki kahani

इससे तबीयत और भड़क जाती थी, और भी जोर लगाता, लेकिन आज मुझे भागना ही पड़ता था। तब सब तालियां बजाकर मुझ पर हंसने लगते। जोश ठंडा होने पर देखता तो लहूलुहान हो गया हूं। महीनों में जाकर कहीं घाव अच्छे होते थे। घाव अच्छा होने पर यही भी चाहता कि चलकर जकिया को पछाडूं और पंडित जी की बदनामी मिटाऊं, मगर अपनी हालत देखकर रह जाता।

एक दिन मैं जान पर खेलकर जकिया से उलझ पड़ा। वह भी पूरे जोश के साथ मुझसे लड़ने लगा। संयोग से पंडित जी भी वहां पहुंच गये। उनके पहुंचते ही और लोगों ने कहा, “कल्लू भग्गू कुत्ता है, कभी भी जकिया का सामना नहीं कर सकता।”

इस पर मैंने देखा कि पंडित जी का चेहरा फीका पड़ गया है। तब तो मैंने निश्चय कर लिया कि आज चाहे जान रहे या जाये, मगर जकिया को जरूर पछाडूंगा। कुछ ऐसे जीवट से लड़ा और ऐसे दांव-पेंच खेला कि बच्चे जकिया को छठी का दूध याद आ गया। देखनेवाले कहने लगे कि भई, आज तो कल्लू ने कमाल कर दिया! ठीक है, मालिक को देखकर उसकी छाती बढ़ती है। munshi premchand ki kahani

जकिया डफाली को देख-देखकर ही इसे रोज पछाड़ता था। आज पंडित जी को देखकर कल्लू ने नीचा दिखाया। मैंने देखा – पंडित जी का चेहरा उस समय खिल उठा था, मोनो मैंने उनकी लज्जा रख ली। अब उन्होंने मेरी खुराक कुछ बढ़ा दी। उधर जकिया पर डफाली और भी तवज्जह करने लगा।

एक दिन की बात है कि माता जी डफाली के दरवाजे पर पहुंच गयीं। उस समय जकिया वहां मौजूद न था। डफाली ने माता जी की दीन दशा देखकर एक टुकड़ा फेंक दिया। ज्यों ही माता जी टुकड़ा उठाने को आगे बढीं कि जकिया पहुंच गया और माता जी पर टूट ही तो पड़ा।

संयोग से वहीं पर मैं भी पहुंच गया। फिर क्या था! जकिया से जान बचाकर माता जी मुझसे भिड़ गयीं। मैं तो उन पर वार करना नहीं चाहता था, लेकिन वह पूरी ताकत से मुझ पर वार करने लगीं। उस समय मुझे बड़ी हंसी आती थी। पेट भी क्या चीज है! इसके लिए लोग अपने-पराये को भूल जाते हैं। नहीं तो अपनी सगी माता और अपना सगा भाई क्यों दुश्मन हो जाते? यह तो हम जानवरों की बातें हैं। मनुष्यों की ईश्वर जाने! munshi premchand ki kahani

3

मेरे पंडित जी के घर अनाज बहुत होता था। घर कच्चा था, और चूहों ने अपना अड्डा जमा लिया था। उनके उपद्रव से घरवालों का नाकों दम था। वे लोग चाहते थे कि चूहेदानी लगाकर इनका सर्वनाश कर दिया जाये। मगर पंडित जी यह कहकर टाल देते थे कि चूहे गणेश जी के वाहन है। इन्हें तकलीफ नहीं देनी चाहिए।

इनके खाने से कितना अनाज कम हो जायेगा? उनका विश्वास था कि चूहे जितना गल्ला नुकसान करते हैं, उसका चौगुना श्रीगणेश जी की दया से उपज में बढ़ जाता है, इसलिए जब वह किसी को चूहेदानी लगाते देखते तो उससे पचासों बातें कहते। पंडित जी की धाक लोगों पर खूब बैठ गयी। जब कहीं देवताओं की भक्ति की चर्चा होती तो पंडित जी का नाम पहले लिया जाता था। munshi premchand ki kahani

कैसे सज्जन हैं कि इतना नुकसान सहने पर भी चूहों को नहीं मारते! नहीं तो लोग आदमी की जान तक ले लेते हैं। जब तक चूहे अनाज की लूट मचाते रहे, तब तक तो पंडित जी अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहे, लेकिन जब उनके वार कपड़े-लत्ते पर भी होने लगे तो उनके आसन डोल गये। जाड़ों के कपड़े कुछ संदूकों में रखे हुए थे, कुछ अलगनियों पर।

गर्मियों में किसी ने उसका परवाह नहीं की। बरसात में जब उन्हें धूप में डालने के लिए निकाला गया तो सारे कपड़े कुतरे पड़े थे। उन्होंने लकड़ी का संदूक तक काट डाला था। पंडित जी की आंखों में खून उतर आया। चूहों ने एक-एक चीज में हजारों छेद कर दिये थे। दो-ढाई सौ रुपये पर पानी फिर गया था। अब तो पंडित जी न ठान लिया कि जैसे भी होगा, इन चूहों का सवर्नाश करके की छोड़ेगा।

उसी दिन एक बिल्ली पाली और तीन-चार चूहेदानियां मंगवाईं। फिर क्या था! रोजाना चूहे फंसने लगे। मुझे भी विनोद का मसला मिल गया। यों ता मैं पूरा शाकाहारी हो गया था, क्योंकि विशेष अन्न-जल खाना-पीना पडत़ा था। मांस पर रुचि ही न होती थी; लेकिन शिकार खेलने में बडा़ मजा आता था। मजा क्यों न आता, यह तो मेरी खानदानी बात थी। munshi premchand ki kahani

जब पंडित जी चूहेदानी खोलते, उस समय कल्लू-कल्लू पुकारते। मैं कहीं पर भी होता, तीर की तरह वहां पहुंच जाता था। उस समय मैं खिलवाड़ करता था, वह देखने ही लायक होता था। चूहों को खिलाखिलाकर जान से मार डालता था, पर खाता न था। मगर भाई जकिया रोज मांस खाता। वह भी उस शिकार में शामिल हो जाता था और कभी-कभी माता जी भी पहुंच जाती थीं।

उन दिनों उनका खूब पेट भरने लगा। फिर तो मां मन-ही-मन हम लोगों को आशीर्वाद देने लगीं। शायद उन्हें पिछले बच्चों की याद भी आने लगी हो। यदि वे भी जीते होते तो उनकी खूब सेवा करते। भाई साहब के जी में आता तो दो-एक चूहों को पेट में रख लेते, मगर मैं तो बाबा कालभैरव जी की शपथ खाकर कहता हूं कि खाने के लिए सूंघता भी न था। munshi premchand ki kahani

उस समय चूहों की जान लेने में हम लोगों को जरा भी दया न आती थी। यह ख्याल भी न होता था कि इनमें भी जान है। अब मैं सोचता हूं तो मालूम होता है कि बच्चे जो हम लोगों को अपने विनोद के लिए कष्ट देते थे, यह कोई निर्दयता का काम नहीं करते थे। विनोद में इन सब बातों पर ध्यान ही नहीं दिया जाता। पंडित जी बहुत खुश होते, जब हम लोग चंद मिनटों में पचासों चूहों को सदा के लिए बेहोश कर देते।

4

जिस गड्ढे में फेंक-फेंककर मुझसे लड़के खेलते थे, उसी में गांव के सभी छोटे-बड़े नहाते-धोते थे। गड्ढा था भी बहुत गहरा। इसीलिए बारहों महीना पानी भरा रहता था। कच्चा होने पर भी उसका पानी स्वच्छ था। पंडित जी की स्त्री अपने छोटे बच्चे को रोजाना सावधान करती थीं कि खबरदार! उस गड्ढे की ओर कभी न जाना, नहीं तो डूब जाओगे। munshi premchand ki kahani

प्रायः सभी मां-बाप अपने बच्चों को ऐसी चेतावनी देते रहते, मगर लड़के कब मानने लगे? मां-बाप की नजरें बचाकर गड्ढे पर पहुंच ही जाते और तरहतरह के खेल खेलते। कोई पानी में कत्तल फेंकता, कोई मेंढकों पर निशाना लगाता, कुछ सयाने लड़के पानी में कूद जाते और तैरने का अभ्यास करते। होनहार को कौन रोक सकता है? गांव के कुछ लड़के गड्ढे में तैर रहे थे। पंडित जी का छोटा लड़का भी पहुंच गया। पहले तो वह किनारे पर ही खेलता रहा, मगर उसके जी में क्या आया कि जरा मैं भी तैरूं।

आगे बढ़ा ही था कि पांव फिसल गये और डूबने लगा। सब लड़के घबराकर चिल्लाने लगे, “लड़का डूबा, लड़का डूबा!” मगर किसी की निकालने की हिम्मत न पड़ती थी। अगर कोई सयाना होता तो कुछ कोशिश भी करता। यों तो डूबते हुए को निकालने में सभी डरते हैं। डूबनेवाला बचानेवाले को इस तरह पकड़ लेता है कि दोनों डूबने लगते हैं।

इस काम के लिए बहुत होशियार आदमी की जरूरत होती है। यही बात वहां भी हुई। पंडित जी का बड़ा लड़का संयोग से नहाने आ रहा था। भाई को डूबते देखा तो तुरंत कूद पड़ा। पर छोटे लड़के ने बड़े लड़के को इस प्रकार पकड़ लिया कि दोनों डूबने लगे। फिर तो लड़कों ने और भी शोर मचाया। बात की बात में गांव-भर में शोर मच गया, “रामू और श्यामू दोनों डूब रहे हैं, चलो निकालो, नहीं तो एक भी न बचेगा!” चंद मिनटों में गड्ढे पर मर्दों और औरतों की भीड़ लग गयी। पर कूदने में सब पसोपेश कर रहे थे। इतने में मैं भी वहां पहुंच गया। munshi premchand ki kahani

सारी बातें झट समझ में आ गयीं। तुरंत पानी में तीर की तरह घुसा। उस समय प्रायः दोनों लड़के चूब चुके थे। सिर्फ जरा-जरा बाल दिखाई पड़ रहे थे। मैंने दातों से उनके बाल पकड़ लिए और पलक मारते किनारे पर खींच लाया। लोग मेरा यह साहस देखकर दंग रह गये। पंडित जी उस समय किसी काम से बाहर गये थे।

संयोग से वह भी उसी समय आ गये थे और आदमियों की भीड़ देखकर बाहर-ही-बाहर वहां पहुंच गये। क्षण-भर में उन्हें सब बातें ज्ञात हो गयीं। फिर तो उन्होंने मुझे उठाकर छाती से लगा लिया। पंडित जी के आने से पहले ही लोगों ने लड़कों के पेट से पानी बाहर कर दिया था। वे स्वस्थ हो गये थे। अब तो गांव-भर में मेरी खूब तारीफ होने लगी, “यह कुत्ता पूर्व-जन्म का कोई देवता है; किसी बात से चूका और कुत्ते का जन्म पा गया।” कोई कहता, “नहीं, पर इस पर भैरवनाथ का अवतार है। munshi premchand ki kahani

देवताओं की इच्छा ही तो है, जिस पर रीझ जायें।” उस दिन से पंडित जी मुझे अपनी जान से अधिक प्यार करने लगे। अभ मुझे पेट के लिए किसी दूसरे के दरवाजे पर नहीं जाना पड़ता था। उस समय जकिया भी वहां मौजूद था। उसकी मूर्खता तो देखिए, जिस समय लड़कों को निकालकर मैं बाहर आ रहा था, वह बड़े कर्कश स्वर में भौं-भौं चिल्ला रहा था।

इस पर कुछ लोगों ने उसे ठेले मार कर भगा दिया। ठीक ही था, कहां तो घवराये हुए लोग लड़कों की जान बचाने की कोशिश कर रहे थे, कहां यह व्यर्थ चिल्ला रहा था! डफाली उसकी यह हरकत देखकर चिढ़ गया। चिढ़ता क्यों न? उसकी तो यह उम्मीद थी कि उसका कुत्ता कभी नाम करेगा। उसने उसे खिलाने-पिलाने में कोई कसर न रखी थी, मगर वहां पर सबके मुंह से जकिया के लिए दुरदुर निकल रहा था। उसी दिन से न जाने क्यों वह मुझसे विशेष प्रेम करने लगा।

जहां देखता, उठा लेता और घंटों तक मेरी गर्दन सहलाता! उस पर उसे मैं धन्यवाद देना चाहता था, पर सिवा पूंछ हिलाने के और क्या कर सकता था! अब उसकी आंख जकिया की ओर से धीरे-धीरे फिरने लगी थी। मैं अपने भाई से वैर नहीं करना चाहता था, लेकिन जकिया मेरी जान का दुश्मन हो गया। जहां देखता, मुझसे भिड़ जाता। मजबूत था ही, मुझे हार माननी पड़ती। munshi premchand ki kahani

5

अब पंडित जी जो कुछ लाते, उसमें अपने लड़कों की तरह मेरा भी हिस्सा लगाते। मैं भी हर वक्त पंडित जी के साथ-ही-साथ रहता था। वह किसी काम से बाहर जाते तो मुझे बहुत दुख होता। जब वह लौटकर आ जाते तो पूंछ हिला-हिलाकर नाचने लगता। इससे शायद वह भी खिल उठते, क्योंकि उनके चेहरे पर प्रसन्नता की एक गहरी झलक दिखाई पड़ती थी।

एक दिन पंडित जी के मटर के खेत में एक गड़रिये की भेड़ें पड़ गयीं। पंडित जी ने देखा तो उसे डांट दिया। कुछ दिनों बाद गड़रिये ने फिर वही शरारत की। अब के पंडित जी ने डांट-फटकार के बाद दो-तीन थप्पड़ भी जमा दिए। मैंने समझा कि गड़रिया अब ऐसी भूल न करेगा, मगर दो-तीन दिन के बाद उसने फिर अपनी भेड़ें पंडित जी के खेत में डाल दीं। munshi premchand ki kahani

` उस दिन पंडित जी को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने उसे जमीन पर पटककर लातों और घूसों से खूब मारा। मैंने भी गुस्से में आकर उसे खूब काटा, नोचा। उस दिन तो गड़रिया चला गया, दूसरे दिन से वह मेरी खोज में रहने लगा।

मुझे पंडित जी के साथ देखता तो होंठ चबाकर रह जाता। मैं भी ताड़ गया था कि यह मुझे अकेला पाते ही अवश्य वार करेगा, इसलिए मैं पंडित जी का साथ कभी भूलकर भी न छोड़ता था। अब गड़रिये की भेड़ें पंडित जी के खेत में कभी न पड़ती थीं। गड़रिया अब बदला लेने पर तुला हुआ था।

एक दिन की बात सुनो – पंडित जी की ईख की खेती बहुत अच्छी थी। गांववाले अक्सर कहा करते थे कि इस साल पंडित जी सबसे बाजी मार ले जायेंगे। गड़रिये ने सोचा, “इस खेत में आग लगा दो, सारी कसर निकल जायेगी।” आधी रात के समय खेत पर पहुंच ही तो गया। बच्चू यह नहीं जानता था कि यहां पर भी मेरा ही पहरा रहता था। munshi premchand ki kahani

ज्यों ही आग की चिनगारी ईख में फेंककर उसने भागने का विचार किया कि मैंने झपटकर उसके पांव पकड़ लिए। वह अचकचाकर गिर पड़ा। क्यों न गिर पड़ता, चोरों का कलेजा ही कितना! बच्चू ने भागने की बहुत कोशिश की, मगर एक न चली। खैरियत यह थी कि खेत गांव से थोड़ी ही दूरी पर था। एकाएक ज्वाला उठी तो गांववाले चटपट पहुंच गये। मुझे गड़रिये का पैर पकड़े देखकर लोग समझ गये कि यह इसी की बदमाशी है।

जो आता, गड़रिये की पूजा (पिटाई) करके ही आग बुझाने जाता। उस बदमाश की ऐसी मरम्मत हुई कि मरने को हो गया। इतने पर भी लोगों को संतोष न हुआ। सलाह हुई कि इसे थाने ले चलो, मगर पंडित जी ने उसे यों ही छोड़ दिया। लोगों से कहा, “जब तक ईश्वर न बिगाड़ेगा, आदमी कुछ नहीं कर सकता। मसल हैजाको राखे साइयां मार सकिहैं कोय।’’ munshi premchand ki kahani

गांववालों को पंडित जी के इस व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि ऐसी दशा में उसे पूरा दंड दिलाये बिना कोई भी न छो़डता। मैं तो कहता हूं कि यदि सब ईख जल गयी होती और गड़रिया पकड़ लिया जाता तो पंडित जी जीता न छोडते, मगर यहां तो दयालुता का सिक्का जमाना था। क्यों न क्षमा कर जाते!

उस दिन से पंडित जी मुझ पर और प्रेम करने लगे। सारे गांव पर मेरी धाक बंध गयी, लेकिन वह नर-पिशाच इसी फिक्र में रहता कि कब इसका अंत कर दूं। रात-दिन मेरी ही खोज में रहता, मगर ईश्वर की दया से मेरा बाल भी बांका न कर सका।

आखिर उसे एक तरकीब सूझ गयी। वह जकिया को खूब खिलाने पिलाने लगा। पहले तो डफाली ने जकिया को अपने घर से प्रायः निकाल ही दिया था। कभी-कभी दूसरे कुत्तों की तरह उसे भी कौर दे देता था। बात यह थी कि एक दिन एक पुलिस का आदमी उस डफाली के दरवाजे पर रात को गश्त करने आया था। उस समय जकिया ने उसे काट खाया था। munshi premchand ki kahani

पुलिस के आदमी ने डफाली को बहुत तंग किया था, तभी से डफाली को जकिया से घृणा हो गयी थी। उसकी तो ऐसी इच्छा हो गयी थी कि जकिया दरवाजे पर भी न रहे, मगर बहुत दिनों की मुहब्बत के सबब से उसे कुछ-न-कुछ देना ही पड़ता था। जकिया ताकतवर तो बहुत था, मगर उसे भले-बुरे का ज्ञान न था। जभी चाहता, बेसुरा राग छे़ड़ देता।

गुण उसमें यही था कि वह मजबूत बहुत था। क्या मजाल कि कोई दूसरे गांव का कुत्ता आ जाये! गीदड़ों की तो उसे देखते ही नानी मर जाती थी। हिरन और नीलगाएं जो पहले खेत तहस-नहस कर देते थे, अब गांव में आने का नाम न लेते। एक बंदर ने गांव में बड़ा उत्पात मचा रखा था। बच्चों के हाथ से रोटी छीन लेता, औरतों को रास्ते में रोक लेता और जो कुछ उनके पास होता, वह लिए बिना पिंड न छो़डता। लोगों को राह चलना मुश्किल हो गया था। munshi premchand ki kahani

गांव-भर की खपरैल उलट दी थी। जकिया ने उसे ऐसा झंझोड़ा कि बच्चू ने फिर सूरत ही न दिखाई। हां, तो गड़रिये ने जकिया को इसी इरादे से खिलाना-पिलाना शुरू किया कि वह मुझसे बदला ले, मगर जकिया भी छंटा हुआ था।

जो हमेशा मछली और मांस का आदी था, वह भला रूखे-सूखे सत्तू पर कैसे टिक सकता? गड़रिये की आंख बचाकर भेड़ों पर हाथ साफ करता। इस पर एक दिन गड़रिये ने उसे बांधकर खूब पीटा। तब से जकिया उसके यहां से भाग गया। अब वह किसी का नहीं था। कहलाता तो था डफाली वाला कुत्ता, मगर डफाली से उसका कुछ भी संबंध न था।

अब गड़रिये ने निश्चय किया कि जैसे भी होगा, मुझे जान से मार डालेगा, चाहे उसकी जान रहे या जाये। एक दिन उक कमबख्त ने जान पर खेलकर वार कर ही तो दिया। बात यह थी कि पंडित जी मंदिर में पूजा कर रहे थे और मैं नीचे बैठा झपकी ले रहा था।

पंडित जी आंख मूंदकर श्री शिवजी का ध्यान कर रहे थे। गड़रिये ने पूरी ताकत के साथ एक लाठी जमा ही दी! लाठी ऐसी घात से लगी कि मेरे मुंह से एक चीख निकल गयी। फिर मुझे कोई खबर न थी कि मैं कहां हूं। जब होश आया तो अपने को जानवरों से अस्पताल में पाया। कुछ दिनों में अच्छा होकर अस्पताल से चला आया, मगर मेरी कमर बहुत कमजोर हो गयी थी। तब-तब पूर्वी हवा चलती, जान ही निकल जाती थी। munshi premchand ki kahani

पीछे पंडित जी से पता लगा कि वह मेरी उस चीख को सुनकर पूजा छोड़ बाहर निकल आये और देखा कि गड़रिया दूसरा वार करना चाहता है। झट दौड़कर उसे पकड़ लिया और उसकी लाठे से उसे खूब पीटा। तब उसका चालान कराके छः महीने के लिए सजा करवा दी।

फिर तो जेल में उसकी जो दुर्गति या सुगति हुई होगी, उसका अनुभव तो वही करेगा जो कभी जेल गया होगा। ये सब बातें पंडित जी अपने मित्रों से कहतेथे तो मैं सुनता था। उस समय से पंडित जी पर मुझे बहुत ही गर्व रहने लगा। मेरा विश्वास था कि पंडित जी के रहते मुझे किसी प्रकार का कष्ट न होगा। कभी मैं पछताता कि आदमी क्यों न हुआ?
munshi premchand ki kahani
मेरी माता जी की दशा दिन-दिन खराब होती जाती थी। भूख, चिंता, मार, इन सब कारणों ने मिलकर उन्हें पागल बना दिया। एक खंडहर में अकेली पड़ी रहतीं। मैं एक बार उन्हें देखने गया था। मुझ पर इतनी तेजी से झपटीं कि मैं भाग न जाऊं तो मुझे जरूर काट खायें। उधर से लोगों ने आना बंद कर दिया। संयोग की बात, गड़रिया उसी दिन सजा भुगतकर निकला था। एकाएक उसी दिन रास्ते में माता जी मिल गयीं और उसके बहुत बचाने पर भी काट खाया।

माता जी के दांतों में इतना विष था कि दो-तीन दिनों में गड़रिया मर गया। किसी की मृत्यु पर खुश होना, चाहे वह अपना कट्टर शत्रु ही क्यों न हो, बुरी बात है, मगर मैं उछलने लगा। गड़रिया के मरने से मुझे बहुत खुशी हुई। अब मेरा कोई वैरी न था। मगर इस खुशी ने मुझे जितना हंसाया, उतना ही उस खबर ने रुलाया भी कि उसके दो-तीन दिन बाद पुलिस ने माता जी को गोली मार दी।

मैं कई दिन तक दुखी रहा। भला संसार में ऐसा कौन होगा, जिसे माता के मरने का मार्मिक शोक न हो? अब जकिया के सिवा कोई मेरा सगा न रह गया था। उस समय कभी-कभी मैं सोचता – देखें हम दोनों का अंत कैसा होता है। यद्यपि उस समय मैं खाने-पीने से सुखी था और जकिया दुखी, मगर संतोष इतना ही था कि कहने को भाई तो है।

कभी उसके भी दिन फिरेंगे! पहले उसने सुख भोगे, मैंने दुख झेले। अब मैं सुख भोग रहा हूं, और वह दुख। किसी के दिन बराबर नहीं जाते। जब कभी जकिया पंडित जी के दरवाजे पर आता तो मैं कभी चिढ़ता न था। वह तो डरता था कि कहीं यह बदला न ले, मगर मैं वहां से टल जाता कि वह निश्चिंत होकर खा ले। कभी-कभी मुझे अधिक भोजन मिल जाता तो मैं मुंह में रखकर जकिया के पास पहुंचा देता। वह दिखावे में तो प्रसन्न रहता, मगर दिल में मुझसे बराबर जला करता। munshi premchand ki kahani

6

अंधेरी रात थी, पंडित जी के घर के सभी लोग कहीं रिश्तेदारी में गये थे। घर पर मैं और पंडित जी ही थे। पंडित जी तो खर्राटे की नींद ले रहे थे, मगर मुझे नींद कहां? बार-बार घर का चक्कर लगाता रहता। चोरों ने समझा – आज सन्नाटा है। उन्होंने घर के नौकर से सारा भेद ले लिया था। मैं आहट पाकर पिछवाड़े गया तो देखा कि एक दरवाजा खुला हुआ है और कुछ आदमी वहां खड़े होकर चौकन्नी आंखों से इधर-उधर देखते हुए धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं।

मैं उनकी बात न सुन सकता था, क्योंकि वहां से दूर था। थोड़ी देर में देखा – कोई भीतर से थाली-लोटा, संदूक वगैरह निकाल-निकालकर बाहर के आदमियों को दे रहा है। अब तो सब बातें मेरी समझ में आ गयीं। मैं बड़े जोरों सेभौंकने लगा। इस पर चोरों ने मुझ पर ढेले फेंकने शुरू किये, मगर मुझे उन ढेलों की चिंता न थी। munshi premchand ki kahani

स्वामी का घर लुटा जा रहा है, भला यह कैसे देखा जाता! दौड़ता हुआ बरामदे में पंडित जी के पास गया और उनकी चादर दांतों से खींचने लगा। इस पर उन्होंने मुझे दो-तीन लातें जमा ही तो दीं, पर मैं बाज न आया। फिर चादर खींची और जोरजोर से भोंकने लगा। तब पंडित जी की नींद खुल गयी। अब उनको किस तरह समझाऊं कि तुम्हारा घर लूटा जा रहा है?

बार-बार पिछवाड़े जाता और उनके सामने आ-आकर जोरों से भौंकने लगता। इससे मेरी यही मंशा थी कि पंडित जी पिछवाड़े चलकर देखें कि उनका घर लुटा जा रहा है और उसके बचाने का प्रयत्न करें। मेरी चुस्ती से चोरों की हिम्मत न पड़ती थी कि समान लेकर भाग निकलें।

मैं रास्ता रोके हुए था। दूसरे, सवेरा होने में थोड़ी ही कसर थी, इसलिए सब माल-असबाब उसी पसवाले गढ़े में डुबोते जाते थे। उनकी मंशा शायद यही थी कि दूसरी रात में सब माल-असबाब उठा ले जायेंगे। भला गढ़े के अंदर कौन ढूंढ़ने जाता है। मुझे बार-बार गुस्सा आता था कि पंडित जी की बुद्धि पर आज पत्थर क्यों पड़ गया है?

वह मेरे इशारे क्यों नहीं समझ रहे हैं? संतोष यही था कि माल अभी बाहर नहीं गया था। आखिर मुझे एक उपाय सूझ गया। पलंग के नीचे पंडित जी की लाठी पड़ी थी। उसे मैंने मुंह में उठा लिया और पिछवाड़े की तरफ बढ़ा। अब पंडित जी मेरा इशारा समझ गये। तुरंत लाठी लेकर पिछवाड़े पहुंचे तो देखते हैं कि चोर सारा मालअसबाब उठाये लिए जा रहे है। munshi premchand ki kahani

बुरी तरह घबरा उठे। उनके मुंह से केवल इतना निकला, “चोर! चोर!” चोर का नाम सुनते ही “पकड़ो! पकड़ो!… आ पहुंचे! आ पहुंचे!” की आवाजें चारों ओर से आने लगीं। दम-भर में गांव के सब लोट लाठियां ले-लेकर इकट्ठे हो गये, मगर चोरों का पता नहीं था। अब यह फिक्र हुई कि चोर क्या-क्या ले गये। पंडित जी के तो होश-हवास ही ठिकाने न थे।

होश आने पर पंडित जी ने घर के अंदर जाकर देखा तो सबकुछ गायब था। सिर पर बिजली-सी गिर पड़ी। लोगों ने उन्हें संभाला और समझाने लगे, “भैया, इतना छोटा जी मत करो! रुपया-पैसा हाथ का मैला है। इसके जाने की क्या चिंता?” लेकिन पंडित जी बराबर हाय-हाय करते जाते थे। मेरी ओर कोई ताकता भी न था। मैं दौड़-दौड़कर गढ़े के पास जाता और जोरों से भौंकता। फिर आता और पंडित जी के पैरों पर मुंह रखकर पूंछ हिलाता, पर पंडित जी पैर खींच लेते थे। munshi premchand ki kahani

पैर खींच लेना तो कोई बात न थी, वह गुस्से में आकर लातें भी जमा देते थे, मगर मैं अपना काम बराबर किये जाता था। कब तक कोई इशारे को न समझेगा? सभी तरह के लोग थे। कुछ लोग पंडित जी को तसल्ली दे रहे थे, तो कुछ लोगों को हंसी उड़ाने की सूझ रही थी। कह रहे थे – इसी से कहा गया है कि अपनी कमाई में कुछ-न-कुछ दान अवश्य करना चाहिए।

जो लोग सब-कुछ अपने-आप हजम करना चाहते हैं उनका यही हाल होता है। पटवारी ने सलाह दी, “पंडित जी, पुलिस को इतल्ला कर दीजिए। शायद कुछ पता लग जाये!” चौधरी बोले, “अजी, पुलिस का ढकोसला बहुत बुरा होता है। वे भी आकर कुछ-न-कुछ चूसते ही हैं। मैंनो तो इतनी उम्र में सैंकड़ो बार इतल्लाएं कीं, मगर चोरी गयी हुई चीज कभी न मिली।” पंडित जी ने दिल कड़ा कर उत्तर दिया, “हां, चौधरी तुम ठीक कहते हो। munshi premchand ki kahani

तकदीर से उठी हुई चीज फिर कहां मिलती है!” उधर तो ये बातें हो रही थीं, इधर मेरा काम जारी था। कुछ लोग मेरी हरकत देखकर कहने लगे, “देखो, पंडित जी के साथ-साथ कुत्ता भी खबरा गया है। पंडित जी समझदार होने के कारण शांत है, मगर यह बेसमझ कुत्ता बौखला उठा है।” ये बातें सुनकर मुझे उन पर हंसी आती थी।

बेसमझ ये सब हैं कि मैं? घंटों से इशारे कर रहा हूं। पर किसी की समझ में बात नहीं आती, फिर भी अपने को समझदार कहते हैं। क्या कहूं? कहीं मैं भी आदमी दोता तो दिखा देता! एकाएक मुझे एक उपाय सूझ गया। मैं भीड़ को चीरता हुआ पानी में कूद पड़ा और एकदम नीचे घुसकर तह तक पहुंच गया। संयोग से एक करोटी मुंह में आ गयी। munshi premchand ki kahani

उसे लेकर बाहर निकला तो मेरी बात सबकी समझ में आ गयी। फिर क्या था! कई आदमी पानी में कूद पड़े और थोड़ी देर में सब सामान मिल गया। पंडित जी इतने खुश हुए कि मुझे बार-बार उठा-उठाकर छाती से लगाने लगे। सब यही करते थे कि कुत्ते में ऐसी समझ बहुत कम देखने में आयी है। जरूर यह पूर्व-जन्म का कोई विद्वान रहा होगा। किसी पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए इस योनि में आया है।

एक महाशय बोले, “पुराने जमाने में जानवर आदमी की तरह बातें करते थे और आदमियों की बातें समझ भी जाते थे।” इस पर चौधरी बोले, “बिलकुल सत्य कहते हो भाई! रामायण में लिखा है – एक कुत्ते ने श्रीरामचंद्रजी से अपनी कहानी कही थी।

एक दिन श्रीरामचंद्र जी का दरबार लगा हुआ था, छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सब जी खोलकर अपना-अपना हाल सुना रहे थे। इतने में एक कुत्ता भी आ पहुंचा और हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया। “श्रीरामचंद्रजी ने पूछा – ‘तू क्या कहना चाहता है?’ munshi premchand ki kahani

“कुत्ते ने कहा – ‘भगवन्‌! आज मेरे जीवन का अंतिम दिन है। इसलिए उचित समझता हूं कि आपके सम्मुख आपकी प्रजा को अपने अनुभव की कुछ बातें समझा दूं, जिससे वे अपने-अपने जीवन में बहुतसी बुराइयों से बच जायें।’ “कुत्ते की यह ज्ञान से भरी बातें सुनकर सब लोग चकित हो गये। दरबार में सन्नाटा छा गया।“श्रीरामचंद्रजी बोले – ‘तुम्हारा यह विचार सराहने योग्य है। अगर सभी लोग इस तरह के ज्ञानोपदेश किया करें तो मनुष्य का उससे बड़ा उपकार हो सकता है।

पहले तुम बताओ कि तुमने यह कैसे जाना कि तुम आज ही मर जाओगे?’ “कुत्ते ने उत्तर दिया – ‘महाराज, यह तो मैं नहीं बतलाना चाहता था, लेकिन जब आपने पूछा है तो मुझे बतलाना ही पडेगा। मेरा विश्वास है जो जैसा करता है, वैसा ही फल भोगता है। आप कृपा कर गुण नामक ब्राह्मण के लड़के को बुलाकर पूछिए कि उसने आज मुझ निरपराध को क्यों लाठी से मारा? munshi premchand ki kahani

अब हुक्म हो तो मैं बैठ जाऊं और बैठकर बातें करूं, क्योंकि मेरी कमर टूट गयी है और अब मैं खड़ा नहीं रह सकता। चोट ऐसी गहरी पड़ी है कि जान पड़ता है, आज ही मेरा अंत हो जायेगा।’ “थोड़ी ही देर में सिपाहियों ने अपराधी लो लाकर खड़ा कर दिया। जब उससे पूछा गया कि तुमने कुत्ते को क्यों मारा तो उसने हाथ जोड़़कर कहा – ‘दीनबंधु, मैं अपनी राह चला जा रहा था। munshi premchand ki kahani

बीच रास्ते में यह कुत्ते बैठा था। मैंने इसे हटने के लिए कई बार कहा, मगर यह हटा नहीं। इस पर मुझे गुस्सा आया और मैंने एक लाठी तानकर जमा दी।’ “श्री रामचंद्र जी ने पूछा – ‘अगर यह कुत्ता रास्ते में बैठा था तो तुम किनारे से क्यों नहीं निकल गये?’ ‘भगवन्‌, मुझसे यह भूल हुई।’ “श्रीरामचंद्रजी – ‘और गुस्सा भी आया तो लाठी इतने जोर से क्यों मारी कि इसकी कमर टूट गयी?’

‘महाराज, मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूं। प्रभु जी जो दंड उचित समझें, दें।’ “श्रीरामचंद्रजी ने कुत्ते से पूछा – ‘तू इसे क्या दंड देना चाहता है?’ “कुत्ते ने जवाब दिया – ‘न्याय जो दंड दिलाये, वह दिया जाये।’ “श्रीरामचंद्रजी – ‘हम उसका फैसला तुम्हारे ऊपर छोड़ते हैं।’ “कुत्ता – ‘तो इसे एक हाथी पर बिठाकर घर भेज दिया जाये और नगर के राजमंदिर का महंत बना दिया जाये।’ munshi premchand ki kahani

“यह सुनकर सब लोग अचंभे में आ गये। यह दंड है या पुरस्कार? श्रीरामंच्दरजी भी यह रहस्य न समझ सके। पूछा – ‘यह क्या बात है कि जिसने तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार किया, उसे तुम यह पुरस्कार दे रहे हो?’ “कुत्ता – ‘भगवन्‌, इसे पुरस्कार न समझिए, यह भयानक दंड है। यह ब्राह्मण-बालक अच्छे आचरण का होता तो देवता हो जाता, मगर महंत होने पर यह कुत्ता होगा।’ “श्रीरामचंद्रजी – ‘यह क्यों?’ “कुत्ता – ‘यही तो मुझ पर बीत चुकी है।

वही कथा कहने के लिए तो मैं आपकी सेवा में आया हूं। इसके पहले मेरा जन्म भी ब्राह्मणकुल में हुआ था। मेरे पिता भी एक मंदिर के महंत थे। जिस दिन कोई धनी-मानी आदमी मंदिर में आनेवाला होता, उस दिन तो ठाकुर जी खूब सजाये जाते, मगर जिस दिन कोई आनेवाला न होता, उस दिन मंदिर का दरवाजा भी न खुलता। एक दिन ऐसा ही कोई रईस, ठाकुर जी के दर्शन को आया था। munshi premchand ki kahani

पिताजी ने तरह-तरह की मिठाइयां बनाकर ठाकुर जी को भोग लगाया था। जब वह घर आये तो मैं रो रहा था। माता जी दूध और चावल गर्म कर रही थीं। पिता जी को देखते ही मैं मचल गया कि इन्हीं के हाथों दूध-भात खाऊंगा। पिता जी मुझे बहुत प्यार करते थे। मुझे तुरंत गोद में उठा लिया और खिलाने लगे। उस समय वह ठाकुर जी की पूजा करके आये थे, इसलिए उनके नाखूनों में घी लगा हुआ था। गर्म दूध में पिघलकर घी उसमें मिल गया। munshi premchand ki kahani

मुझे क्या मालूम था कि जरा-सा घी मिल जाने के कारण मुझे इतना कठोर दंड मिलेगा। मैंने वेद पढ़ा और पढ़ाया, यज्ञ कराये और बड़ी निष्ठा से अपने धर्म का पालन करता रहा, मगर जब यमराज के पास पहुंचा तो उन्होंने कहा कि एक तो यह पाखंडी महंत का लड़का है, दूसरे, इसने उसका कमाया हुआ अन्न खाया है, तीसरे, ठाकुर जी के चढ़ाये हुए घी को जूठा कर दिया, इसलिए इसे कुत्ते की योनि में भेजा जाये।

मैं बहुत रोया, मगर किसी ने मेरी न सुनी। मैं वही कुत्ता हूं। अतः आप लोग समझ सकते हैं कि मैंने दंड दिया या पुरस्कार।’ “इतना कहकर कुत्ता बेहोश हो गया और ऐसा गिरा कि फिर न उठा।” सवेरा हो रहा था, सब लोगों ने अपने-अपने घर की राह ली। munshi premchand ki kahani

कुत्ते की वह कथा सुनकर मुझे अपनी दशा पर बहुत दुख हुआ। एक समय वह था कि पशुओं के साथ भी न्याय किया जाता था। एक समय यह है कि पशुओं की जान का कोई मूल्य ही नहीं। इसके साथ ही यह संतोष भी हुआ कि पशु होने पर भी मैं ऐसे धूर्त महंतों से तो अच्छा ही हूं। पंडित जी उस दिन से मुझसे और भी स्नेह करने लगे। किसी से भेंट होती तो मेरी ही चर्चा करने लगते – यह कुत्ता नहीं, मेरे पूर्वजन्म की संतान है।

7

उन्हीं दिनों गांव में कई जंगली सूअर आ गये। उनके उत्पात से सारे गांव में हाहाकार मच उठा। जिस खेत में वे घुस जाते, उसे बरबाद ही करके छोड़ते। किसमें इतनी हिम्मत थी कि उनका सामना करता? शामही से रास्ता बंद हो जाता था। मेरे जी में तो यह उमंग आती थी कि एक बार जान पर खेलकर उन दुष्टों पर झपट पडूं, पर मेरी कमर अभी अच्छी न हुई थी। munshi premchand ki kahani

मैं भला उन भयंकर जंतुओं से क्या भिड़ता? लाचार था। हां, जकिया खूब मोटा-ताजा था, वह हिम्मत करता तो एकाध को मारकर ही छोड़ता, पर वह एक ही कायर था। सूअरों की सूरत देखते ही कोसों भागता और जब समझ जाता कि यहां तक सूअर न आ सकेंगे तो गला फाड़-फाड़कर चिल्लाता। सबसे बड़ा खेद तो यह था कि गांव में सैंकड़ों आदमी थे, पर किसी में इतना साहस नहीं कि उन्हें ललकारे। कुत्तों को मारने में तो सभी शेर थे, पर सूअरों के सामने सब-के-सब बिल्ली बने हुए थे।

आखिर एक दिन लोगों ने थाने में जाकर फरियाद की। थाने का सबसे बड़ा अफसर अच्छा शिकारी था। उसे खबर मिली तो एक दिन कई कुत्ते लेकर गांव आ पहुंचा। गांव के सब आदमी तमाशा देखने के लिए जमा हो गये। पंडित जी भी मुझे अपने साथ लेकर चले। उनका लड़का भी चलने को तैयार हुआ, पर पंडित जी ने उसे साथ ले चलना मंजूर न किया। munshi premchand ki kahani

बोले, “वहां क्या मिठाई बंट रही है कि जाकर ले लोगे? कहीं सूअरों के सामने आ गये तो प्राण न बचेंगे। मैं तो गांव का मुखिया ठहरा, मजबूर हूं, तुम जान-बूझककर क्यों अपनी जान जोखिम में डालते हो?” यह बात सुनकर लड़का सहम उठा और साथ चलने का नाम न लिया।

जब मैं साहब के समीप पहुंचा तो पहले-पहल मेरी निगाह उन कुत्तों पर पड़ी, जो साहब के साथ आये हुए थे। वे सब एक गाड़ी पर बैठे हुए थे, जिसे लोग मोटर कहते थे। अपने उन भाग्यवान भाइयों को देखकर मैं गर्व से फूल उठा। मेरी जाति में भी ऐसे लोग हैं, जो इतने बड़े अफसर के साथ मोटर में बैठते हैं। सब-के-सब किसने साफ-सुथरे थे! यहां तो वर्षों से नहाने की नौबत नहीं आयी थी। munshi premchand ki kahani

बालों में हजारों किलनियां भरी हुई थीं। मैं तो अपने भाइयों को देखकर आनंद से फूला न समाता था, और मूर्ख जकिया उन्हें देखदेखकर ऐसा भों-भों कर रहा था, मानो उसके लिए और कोई काम ही न था। गांव के लोग बराबर मना करते, डांटते, पत्थर मारते, पर वह किसी तरह चुप न होता था। मालूम नहीं, उसके मन में क्या बात थी। munshi premchand ki kahani

क्या वह इतना भी नहीं समझता था कि ये लोग गांव का अहित करने नहीं आये हैं? नहीं तो क्यां गांव में आदमी उन्हें मार न भगाते? इसके सिवा और क्या कहा जाये कि उसकी मूर्खता थी। मैंने अपनी जाति में यह बहुत बड़ा ऐब देखा है कि एक-दूसरे दो देखकर ऐसा काट खाने को दौड़ते हैं, गोया उनके जानी दुश्मन हों। कभी-कभी अपने उजड्ड भाइयों को देखकर मुझे क्रोध आ जाता है, पर मैं जब्त कर लेता हूं। मैंने पशुओं को देखा है ऐसे जो आपस में प्यार से मिलते हैं, एक-साथ सोते हैं, कोई चूं तक नहीं करता।

मेरी जाति में यह बुराई कहां से आ गयी कुछ समझ में नहीं आता। अनुमान से यह कह सकता हूं कि यह बुराई हमने आदमियों से ही सीखी है। आदमियों ही में यह दस्तूर है कि भाईसे भाई लड़ता है, बाप बेटे से, भाई बहन से।

भाई एक-दूसरे की गर्दन तक काट डालते हैं, बेटा बाप के खून का प्यासा हो जाता है, दोस्त दोस्त का गला काटता है, नौकर मालिक को धोखा देता है। हम तो आदमियों के ही सेवक हैं, उन्हीं के साथ रहते हैं। उनकी देखा-देखी अगर यह बुराई हममें आ गयी तो अचरज की कौन सी बात है? कम-से-कम हममें इतना गुण तो है कि अपने स्वामी के लिए प्राण तक देने को तैयार रहते हैं। जहां उसका पसीना गिरे, वहां अपना खून तक बहा देते हैं। munshi premchand ki kahani

आदमियों में तो इतना भी नहीं। आखिर ये साहब के कुत्ते भी तो कुत्ते ही हैं। वे क्यों नहीं भौंकते? क्यों इतने सभ्य और गंभीर हैं? इसका कारण यही है कि जिसके साथ वे रहते हैं, उनमें इतनी फूट और भेद नहीं है। मुझे तो वे सब देवताओं-से लगते थे। उनके मुख पर कितनी प्रतिभा थी, कितनी शराफत थी!

साहब बहादुर अपने कुत्तों को साथ लिए वहां पहुंचे, जहां सूअरों का अड्डा था। वहां पहुंचकर उन्होंने सीटी बजाई और सभी कुत्ते चौकन्ने हो गये। उनकी आंखें चमकने लगीं, नथुने फड़कने लगे, छातियां फूल उठीं, मानो सब-के-सब साहब का इशारा पाने के लिए अधीर हो रहे थे। उनका उत्साह अब उनके रोके न रुकता था। सूअरों ने भी शायद समझ लिया था कि आज कुशल नहीं। munshi premchand ki kahani

एक भी बाहर न निकला। जब गांववालों ने ईख के खेतों में घुस-घुसकर शोर मचाना शुरू किया तो एक सूअर बाहर निकला। यह जमघट देखकर वहकुछ घबरा गया। शायद देख रहा था कि किसी तरफ से भाग निकलने का मौका है या नहीं। एकाएक साहब के कुत्ते उस पर टूट ही पड़े! देखते-देखते सूअर का काम तमाम हो गया।

उनकी यह बहादुरी देखकर लोग वाह-वाह करने लगे। मेरे मुंह से भी निकल गया – शाबास भाइयों! सच्चे मर्द तुम्हीं हो। अब मेरे दिल में भी उमंग उठी। सोचा – एक-न-एक दिन मरना तो है ही। आज कुछ कर दिखाना चाहिए। आपस में लड़कर या आदमियों के डंडे खाकर मर जाने में कौन बहादुरी है? मैदान में मर भी जाऊंगा तो नाम तो रह जायेगा! इन कुत्तों को भी मालूम हो जाये कि इस गांव में कोई वीर है। इतने में एक दूसरा सूअर सामने आता दिखाई दिया। munshi premchand ki kahani

विलायती कुत्ते दौड़े। साथ ही मैं भी चला। वे सब चाहते थे कि पहले हम शिकार तक पहुंचे, मैं चाहता था मैं पहूंचुं। हम सभी जी तोड़कर दौड़े, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि सूअर पर पहला वार मेरा ही हुआ, शेष सब कुत्ते पीछे रह गये। अगर सूअर डटकर खड़ा हो जाता तो शायद मुझे भागना ही पड़ता, मगर वह हम लोगों को देखकर कुछ ऐसा घबराया कि सीधा भागा। फिर क्या था! हमने उसे पीछे से नोचना शुरू कर दिया। munshi premchand ki kahani

सबके-सब कुछ इस तरह चिपटे कि उसे मारकर ही छोड़ा। अब लोगों को भी मालूम हुआ कि मुझमें भी जीवट है। साहब भी खुश हुए। उन्होंने मुझे बुलाकर मेरा सिर थपथपाया। पंडित जी भी साहब के पास ही खड़े थे।मेरा सम्मान देखकर खिल उठे। साहब ने पूछा, “वेल, यह किसका कुत्ता है?” पंडित जी ने हाथ जोड़कर कहा, “हुजूर, यह मेरे ही यहां रहता है।” साहब-“आपका कुत्ता बड़ा बहादुर है?” पंडित जी ने कहा, “सरकार का इकबाल है।”

बात पूरी भी न निकल पायी थी एकाएक तीसरा सूअर निकला और साहब पर झपटा। साहब के हाथ-पांव फूल गये। यदि एक क्षण की और देरी होती तो सूअर उन्हें जरूर मार डालता। उनके हाथ में बंदूत तो थी, पर वह ऐसे घबरा गये थे कि उसे चला न सकते थे। मैंने देखा कि मामला नाजुक है, अन्य कुत्ते दूर थे, मैं वहां अकेला ही खड़ा था। munshi premchand ki kahani

सूअर से भिड़ना जान-जोखिम था, पर साहब की प्राण-रक्षा करना जरूरी था। मैंने पीछे से लपककर सूअर की टांग पकड़ ली। उसका पीछे फिरना था कि साहब संभल गये और बंदूक चलाई। सूअर तो गिर पड़ा, लेकिन मुझे बुरी तरह घायल कर गया। घंटों होश न रहा कि कहां हूं। जब होश आया तो देखा कि मैं रुई के गद्दे पर लेटा हुआ हूं और दो-तीन आदमी मेरे घावों को धो रहे हैं।

8

साहब के बंगले पर मुझे ऐसी-ऐसी चीजें खाने को मिलने लगीं, जिनका ख्याल मुझे स्वप्न में भी न था। पहले कभी-कभी सौभाग्य से कोई हड्डी मिल जाती थी, अब दोनों वक्त ताजा मांस खाने को मिलता। कभी-कभी दूध भी मिल जाता। खानसामा रोज साबुन लगाकर नहलाता। पहले तो मुझे साबुन का नाम भी नहीं मालूम था, क्योंकि पंडित जी के यहां साबुन लगाने का रिवाज न था। munshi premchand ki kahani

अब जब साहब नौकर से कहते – ‘कल्लू को सोप से नहलाओ’ तो वह कोई टिकिया-सी चीज लेकर मेरे गीले बदन पर रगड़ता। उस वक्त मेरे बदन से सफेद फेन निकलने लगता था, ठीक वैसा ही जैसा दूध का फेन होता है।

उस फेन से ऐसी खुशबू निकलती थी कि जी खुश हो जाता था। साहब शाम के वक्त मुझे मोटर पर बिठाकर हवा खिलाने ले जाते। मेम साहब भी साथ होतीं। उस वक्त उनकी बात तो मेरी समझ में न आती, लेकिन बार-बार कल्लू का नाम सुनकर समझ जाता कि मेरी ही चर्चा हो रही है। मेम साहब कभी कभी मुझे गोद में उठा लेतीं और मेरा मुंह चूमतीं।

उस समय मुझे कितना आनंद मिलता था, कह नहीं सकता। मैं भी पूंछ हिलाता और उनकी गरदन से लिपट जाता। अगर वह मेरी बोली समझ सकतीं तो उन्हें मालूम हो जाता कि हम लोग प्यार का जवाब देने में आदमी से कम नहीं हैं। कुछ दिन मुझे पंडित जी की याद बराबर सताती रही, लेकिन धीरे धीरे सारी पिछली बातें भूल गयी। सुख में दुख की बातें किसे याद रहती हैं!

एक दिन शाम के वक्त हम लोग सैर करने जा रहे थे तो क्या देखता हूं कि बेचारे पंडित जी चले आ रहे हैं। पंडित जी को देखते ही मुझे पिछले दिन याद आ यगे, मोटर से कूद पड़ा और उनके पैर पर मुंह रखकर पूंछ हिलाने लगा। munshi premchand ki kahani

पंडित जी ने मेरे सिर पर हाथ फेरा तो मैंने देखा कि उनकी आंखें डबडबा आयी हैं। उनके मुंह पर धूल जमी हुई थी, होंठ सूख गये थे और पैरों पर मानों गर्द जमी हुई थी। कपडे मैले हो गये थे। मुझे उन पर दया आ रही थी। साहब ने पूछा, “वेल पंडित, हैं तो अच्छी तरह?” पंडित, “सरकार की दया है!” साहब, “क्या काम है?” पंडित, “हजूर, अपने कल्लू को देखने आया हूं। सरकार, क्या कहूं, जब से यह चला आया है, मेरे दुर्दिन आ गये।

एक क्षण के लिए भी इसकी सुध नहीं भूलती। इसकी जगह खाली देखकर रोया करता हूं। सरकार, यह मेरे घर का रक्षक था। मुझ पर दया कीजिए।” साहब, “तो क्या चाहता है?” पंडित, “यही चाहता हूं कि सरकार कल्लू को अब मुझे दे दें। परमात्मा आपका कल्याण करेगा। इसके बिन मैं कहीं का नहीं रहूंगा।” साहब, “ओ पंडित, तुम बड़ा मक्कर करता है। munshi premchand ki kahani

हम यह कुत्ता तुमको नहीं दे सकता। इसके बदले में मेरा कोई विलायती कुत्ता ले जाओ।” मैं इस समय बड़ी दुविधा में था। पंडित जी का प्रेम देखखर इच्छा थी कि इन्हीं के साथ चलूं, पर यहां के सुखों की याद करके जी कुछ हिचक जाता था।

साहब ने नहीं कर दी तो पंडित जी निराश होकर बोले, “जैसी सरकार की मर्जी। जब कल्लू ही नहीं हैं तो विलायती कुत्ता लेकर मैं क्या करूंगा?” यह कहकर पंडित जी रो पड़े। उस समय मैंने निश्चय किया कि यहां रहते हुए भी मैं पंडित जी के घर की रक्षा करने के लिए रोज चला जाया करूंगा। यहां कुत्तों की क्या कमी! साहब ने कहा, “हम जानता है कि तुम इस कुत्ता को बहुत प्यार करता है और हम तुमको देता, लेकिन हम बहुत जल्द अपने देश जानेवाला है। munshi premchand ki kahani

हां, तुम इसका जो दाम मांगो वह हम दे सकता है।” पंडित जी ने इसका जवाब कुछ न दिया। साहब को सलाम किया और लौट पड़े। एकाएक उन्हें कोई बात याद आ गयी। लौटकर बोले, “सरकार, विलायत से कब लौटेंगे?” साहब, “ठीक नहीं कह सकता, मगर जब हम आयेगा तो तुमको इतल्ला देगा।” अगर साहब ने मेरे विलायत जाने की बात न कही होती तो मैं पंडित जी के साथ जरूर चला जाता। उनका दुख मुझसे देखा न जाता था। पंडितजी ने एक बार मुझे प्रेम-भरी आंखों से देखा और चल पड़े।

अब मुझसे न रहा गया। मेम साहब के प्रेम, विलायत की सैर, अच्छा-अच्छा भोजन, सब मेरी आंखों में तुच्छ जान पड़े। मन ने कहा, “तू कितना बेवफा है। जिसने तुझे बचपन से पाला, ब्राह्मण होकर भी जिसने तुझे गोद में खिलाया, जिसने कभी डांटा तक नहीं, उसे तू भोग-विलास के पीछए छोड़ रहा है?” फिर मुझे कुछ सुध न रही। मैं बरामदे से कूदकर पंडित जी के पीछे चल पड़ा। munshi premchand ki kahani

मगर बीस कदम भी न गया हूंगा कि खानसामा ने आकर मुझे पकड़ लिया और मेरे गले में जंजीर डाल दी। उस समय मुझे इतना क्रोध आया कि मैं खानसामा को काटने लपका, लेकिन गले में जंजीर पड़ी थी, क्या कर सकता था! पंडित जी की ओर लाचारी की निगाह से देखने लगा। पंडितजी भी बार-बार पीछे मुड़-मुड़कर देखते जाते थे। यहां तक कि आंखों से ओझल हो गये। उस दिन मैंने भोजन न किया। बार-बार पंडित जी की याद आती रही।

munshi premchand ki kahani

9

यहां कुछ दिन और रहने के बाद साहब अपनी मेम के साथ अपने देश चले। मुझे भी साथ ले लिया। रास्ते में क्या-क्या देखा, कहां-कहां ठहरा, कैसे-कैसे आदमियों से भेंट हुई, यह सब बातें कहने लगूं तो बड़ी देर होगी। लगभग एक महीने तक जहाज पर रहा। यह लकड़ी का एक बड़ा ऊंचा मकान था, जो पानी पर तैरता चला जाता था। munshi premchand ki kahani

पहले जब जहाज पर सवार हुआ तो मुझे डर लगा। जहां तक निगाह जाती थी, ऊपर नीला आकाश दिखाई देता था, नीचे नीला पानी और उसमें यह लकड़ी का घर बिल्कुल ऐसा ही मालूम होता था, जैसे आकाश में कोई पतंग उड़ता जाता हो। कई दिनों के बाद हम एक ऐसे देश में पहुंचे, जहां के आदमी लंबे-लंबे कुरते पहने हुए थे और औरतें सिर से पांव तक एक उजले गिलाफ में लिपटी हुई चली जाती थीं।

केवल आंखों की जगह बनी हुई थी। जहाज पर बैठे मुझे बार-बार जकिया की याद आने लगी। कहीं वह भी मेरे साथ होता तो कितने आराम से कटती! न जाने उस बेचारे पर क्या बीत रही होगी। मगर अच्छा हुआ कि वह मेरे साथ न था, क्योंकि यहां उससे एक क्षण भी न बैठा जाता। जहाज पर हमारे गांव की तरह का एक आदमी भी न था। सब-के-सब हमारे साहब ही की तरह थे। munshi premchand ki kahani

एक दिन की बात सुनिए – रात का समय था, मैं फर्श पर लेटा हुआ था कि एकाएक मुझे ऐसा मालूम हुआ, कमरे में कोई गा रहा है। वहां कोई आदमी न था। मैं चौंककर उठ बैठा और इधर-उधर देखने लगा, पर कोई न दिखाई दिया। munshi premchand ki kahani

अब मुझसे चुप न रहा गया। जोर-जोर से भोंकने लगा। मेम साहब और साहब दोनों मेरा भौंकना सुनकर जाग पड़े और मुझे चुप करने की कोशिश करने लगे। उन्हें देखकर मेरी शंका दूर हुई। लेकिन अब भी मेरी समझ में यह बात न आयी कि कौन गा रहा था। इसी तरह एक दिन दूसरी घटना हो गयी। जब शाम होती थी, सब कमरों में आप-ही-आप रोशनी हो जाती थी।

दीवार में एक गोलसी डिबिया बनी हुई थी, उस डिबिया में एक पीतल की घुंडी थी। कभी साहब और कभी मेम साहब उस घुंडी को छू देते थे। बस, कमरा जगमगा उठता था। मुझे यह देखकर बड़ा अचंभा होता था। मैं सोचता, क्या मैं भी घूंडी छू दूं तो इसी तरह रोशनी हो जायेगी? अगर कहीं मैं रोशनी कर सकूं तो सब लोग कितने खुश होंगे।

मैं घुंडी तक पहुंचूं कैसे? वह बहुत ऊंचाई पर थी। आखिर एक दिन मैंने उसको छूने की एक हिकमत निकाली। मैं दोनों पैरौं पर खड़ा होकर एक पांव से उस घुंडी को छुआ। छूना था कि ऐसा मालूम हुआ, मेरे पांव में आग की चिनगारी लग गयी और सारी देह में दौड़ गयी। मैं कुर्सी से नीचे गिर पड़ा और चिल्लाता हुआ भागा। थोड़ी देर के बाद जब जरा चित्त शांत हुआ तो मैं सोचने लगा कि इस घुंडी में जरूर कोई-न-कोई जादू है।

साहब या मेम साहब छुएंगे, तो उन्हें भी ऐसी चोट लगेगी। मैंने निश्चय किया, उन्हें किसी तरह न छूने दूंगा। जब अंधेरा हो गया और साहब घुंडी की तरफ चले तो मैं उनके सामने खड़ा हो गया। वह मुझे हटाकर घुंडी के पास बार-बार जाते थे और मैं बार-बार उनका रास्ता रोक लेता था। आखिर साहब ने मुझे पकड़कर बांध दिया और घुंडी दबा दी। कमरे में उजाला हो गया। उन्हें जरा भी चोट न लगी। munshi premchand ki kahani

कई दिनों के बाद एक दिन बादल घिर आये और आंधी चलने लगी। जरा देर में सारा आकाश लाल हो गया और आंधी का जोर इतना बढ़ा कि समुद्र की लहरें बांसों उछलने लगीं। हमारा जहाज लहरों पर इस तरह तले-ऊपर हो रहा था, जैसे कोई शराबी आदमी लड़खड़ाता हुआ चलता है।

जैसे शराबी कभी गिरने-गिरने को हो जाता है, उसी तरह जहाज कभी-कभी इस तरह करवट लेता था कि शंका होती थी कि अब उलट जायेगा। सभी आदमी घबराये हुए इधर-उधर दौड़ रहे थे। बिजनी इतनी जोर से तड़पती थी कि मालूम होता था कि हमारे सिर पर आ गयी। बड़ा भयंकर दृश्य था। ऐसी आंधी मेरे जीवन में एक बार आयी थी। सैंकडों मकान गिरने से हजारों जानवर मर गये थे। जहां-तहां हजारों उखड़े हुए पेड़ मिलते थे, पर समुद्री आंधी उस आंधी से कहीं प्रचंड़ थी। munshi premchand ki kahani

अब तक तो जहाज में उजाला था, सहसा सब दीपक बुझ गये और चारों ओर अंधकार छा गया, ठीक सावन-भादों की अंधेरी रात के समान। चारों ओर घबराहट थी। कोई ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था। स्त्रियां अपने बालकों को छाती से लगाये दुबकी-सिमटी खड़ी थीं। मुझे उस अंधेरे में उनकी दशा साफ नजर आती थी। munshi premchand ki kahani

अवश्य ही कोई भारी संकट आनेवाला था। एकाएक जहाज किसी चीज से टकराया और भयंकर शब्द हुआ। वह नीचे बैठा जा रहा था। मेरे साहब और मेम दोनों एक-दूसरे से मिलकर रो रहे थे। अब मैं समझ गया कि जहाज डूबा जा रहा है। ये सब आदमी जरा देर में समुद्र के नीचे पहुंच जायेंगे। समुद्र जहाज की छाती पर चढ़ बैठेगा।

शायद यह जहाज की गुस्ताखी का बदला ले रहा है। जहाज के कान होते तो मैं कहता – तुम अपनी विजय पर कितना घमंड़ कर रहे थे! कैसा घमंड़ टूट गया! अपने साथ इतने आदमियों को ले डूबे! अपने साहब और मेम के लिए मेरा कलेजा फटा जा रहा था। कैसे उन्हें बचाऊं? अगर दोनों जनों को पीठ पर बैठा सकता तो बिठाकर समुद्र में कूद पड़ता! कहीं तो जा पहुंचता।

क्या उस पहाड़ पर, जिसने जहाज का घमंड़ तोड़ा था, हमें आश्रय न मिलेगा? लेकिन क्या मैं उन दोनों को पकड़कर उठा न सकता था? मैं अपने स्वामी को ढाढ़स देना चाहता था। उनके पास जाकर कूं-कूं करता, पूंछ हिलाता, पर उस घबराहट में उन लोगों की समझ में मेरी बात न आती थी। प्रतिक्षण जहाज नीचे चला जा रहा था। munshi premchand ki kahani

स्त्रियों और बच्चों की चीख-पुकार सुन-सुन मेरे दिल के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते थे। पानी इतने जोर से गिर रहा था, मानो समुद्र आकाश पर चढ़कर वहां से जहाज पर गोले बरसा रहा हो। ईश्वर! यह क्या? जहाज समुद्र के अंदर चला गया, और मैं पानी में बहा जा रहा था।

मेरे साहब और मेम का कहीं पता नहीं। कोई कहीं बहा जाता था, कोई कहीं। मैं कितनी दूर बहा चला गया, कह नहीं सकता। साहब और मेम को याद करके मुझे रोना आ रहा था। सोचता, मुझे उस वक्त भी वह मिल जाते तो उन्हें बचाने की कोशिश करता।

आखिर भगवान ने मेरी विनती सुन ली। बिजली चमकी तो मैंने देखा कि एक मर्द और एक औरत एक-दूसरे से लिपटे हुए, एक तरफ बहे जा रहे हैं। मैं जोर मारकर उनके समीप जा पहुंचा। देखा तो वह मेरे साहब और मेम थे।

उस वक्त बदन में न मालूम कितना बल आ गया! मैं तो कभी बलवान न था। मैंने साहब का हाथ मुंह में ले लिया और हवा के रुख पर चला। दिल में ठान लिया कि जब तक हम रहेगा, इन्हें न छोडूंगा। साहब और मेम दोनों बेहोश थे, मगर जान बाकी थी। उनकी देह गर्म थी। ईश्वर से मनाता था कि किसी तरह दिन निकले। munshi premchand ki kahani

न जाने कितनी बड़ी रात थी! उस घोर अंधकार में क्या पता चलता! लहरों पर मैं यों थपेड़े खाता, जैसे आंधी में कोई पत्ती। कभी तो बहुत नीचे, कभी ऊपर, कभी एक रेले में दस हाथ आगे, तो दूसरे रेले में पचासों गज पीछे! भला इस तूफ़ान के मुकाबले में मैं क्या करता! मेरी बिसात ही क्या! तिस पर इस छोटी-सी देह में जान का कहीं पता नहीं।

मुझे खुद भय हो रहा था कि कहीं डूब न जाऊं। वह रात पहाड़ हो गयी। ऐसा जान पड़ता था कि सूरज भी मारे डर के कहीं मुंह छिपाए पड़ा है। देह इतनी बेदम होती जाती थी कि जान पड़ता था, अब प्राण न बचेंगे। अगर साहब और मेम का ख्याल न होता तो मैं अपने को लहरों की दया पर छोड़ देता और लहरें एक मिनट में मुझे निगल जातीं। सबसे ज्यादा भय जल-जंतुओं का था। प्राण जैसे आंखों में थे। क्षण-क्षण पर मालूम होता था, अब मरे! munshi premchand ki kahani

कह नहीं सकता, यह दशा कितनी देर रही। कम-से-कम चार-पांच घंटे जरूर रही होगी। आखिर हवा का जोर कम होने लगा। लहरों के थपेड़े भी कुछ कम हुए और कुछ-कुछ प्रकाश होने लगा। मेरी हिम्मत बंध गयी। आकाश पर बादल भी कुछ छंटने लगे थे। कुछ दूरी पर भेड़ों का झुंड दिखाई दिया। जरूर कोई टापू है।

मेरा दिल खुशी से उछलने लगा। मैं उन्हीं भेड़ों की ओर चला। अब मैंने देखा कि साहब और मेम एक रेशमी चादर से बंधे हुए हैं। इसी से अब तक लिपटे हुए थे। एकाएक मुझे एक छोटी-सी नाव दिखाई दी। उस पर दो-तीन भयानक, काली, जंगली सूरतवाले आदमी बैठे हुए थे। उनका रंग कोयले की तरह काला था। मुंह लाल रंग से रंगे हुए थे। munshi premchand ki kahani

उनके सिर पर पत्तियों के ऊंचे टोप थे। वे केवल चमड़े के जांघिए पहने हुए थे। उनके पास एक-एक भाला था। मैं उन्हें देखकर डर गया और उस वक्त भी भौंक उठा। हम लोगों को देखते ही वे हमारी तरफ लपके और हम तीनों को अपनी डोंगी में बिठा लिया। मैं मारे डर से सूखा जाता था, पर करता क्या! अगर डोंगी में न बैठता तो घंटे-आधे घंटे में डूबकर मर जाता; क्योंकि मेरे हाथ-पांव में ताकत न थी।

नाव के एक कोने में खड़ा होकर थर-थर कांपने लगा, फिर भी पूंछ हिलाता जाता था कि वे सब मुझे भालों से मार न डालें। ऐसे काले भयंकर आदमी मैंने कहीं न देखे थे। उन लोगों ने डोंगी में बिठाकर पेड़ों के झुंड की तरफ नाव चलाई। जरूर वहां आदमी रहते होंगे। munshi premchand ki kahani

कोई घंटे भर में डोंगी वहां पहुंच गयी। समुद्र के किनारे एक ऊंचा पहाड़ था। उसके ऊपर के पेड़ नजर आते थे। पहाड़ के नीचे एक जगह नाव रुकी। उन्होंने उसे एक पेड़ से बांध दिया, और साहब और मेम को उतारकर जमीन पर ले गये।

उन्हें देखते ही वैसी ही सूरतों की कई औरतें निकल आयीं, और सभी ने खुश होकर चिल्लाना शुरू किया। फिर साहब और मेम को उठाता और गांव में चले। कुछ ऊंचाई पर चढ़कर कई झोपडियां बनी हुई थीं। यही उनका गांव था। हम ज्यों ही वहां पहुंचे, सैंकड़ों आदमियों ने मुझे घेर लिया, और मेम और साहब के कंधे पकड़कर हिलाने लगे।

कोई उनकी नाक दबाता था, कोई उनकी छाती पर सवार होकर घुटनों से कुचलता था। मैं डर के मारे दुबका खड़ा था। आवाज निकालने की हिम्मत न पड़ती थी। कहीं ये सब साहब-मेम को मार तो नहीं रहे हैं? मगर कोई आधे घंटे के हिलाने-डुलाने के बाद दोनों आदमी होश में आये। उनकी आंखें खुल गयीं। हाथ-पांव हिलाने लगे, पर अभी उठ न सके थे। अब मैं अपनी खुशी को न दबा सका। उनके पास आकर धीरे-धीरे भौंकने लगा। munshi premchand ki kahani

उन काले आदमियों ने अब नाचनागाना शुरू किया। मालूम नहीं, वे क्यों इतने खुश थे। उनका नाच भी कितना भद्दा था! उनकी उछल-कूद देखकर मुझे बड़ी हंसी आती थी। लेकिन मैं बहुत देर तक खुश न रह सका।

ज्यों ही साहब और मेम बातें करने लगे, उन काले आदमियों ने उन्हें एक कोठरी में कैद कर दिया। कैद ही करना था तो समुद्र में क्यों न डूब जाने दिया? इन दिनों में हम तीनों ने अन्न के दाने की सूरत तक न देखी थी। भूख के मारे पेट कुलबुला रहा था। बेचारे मेम और साहब का भी यही हाल होगा। यह सब उनको खाने-पीने को देंगे या उस काल-कोठरी में बंद करके मार डालेंगे? munshi premchand ki kahani

मेरे लिए तो वहां भोजन की कमी न थी। इधर-उधर मांस की बोटियां पड़ी हुई थीं। हड्डियों का तो ढेर लगा हुआ था। जंगली आदमी मांस ही झाते थे। मैंने वहां कहीं खेत नहीं देखे। एक पेड़ के नीचे मांस का एक टुकड़ा देखकर जी ललचाया कि खा लूं, पर फिर यह खयाल आया कि साहब और मेम कभी के भूखे पड़े होंगे। munshi premchand ki kahani

और मैं अपना पेट भरूं, यह नीचता की बात है। धीरे-धीरे दिन बीतने लगा। यहां बहुत गर्मी न थी। साहब लोग जहां कैद थे, उसी झोंपड़ी के सामने मैं एक पेड़ के नीचे बैठा देखता रहा कि ये लोग उनके कैसा बर्ताव करते है। कुछ खाने को देते हैं या नहीं। दोपहर हुई; शाम हो गयी। मगर झोंपड़ी एक बार भी न खुली।

दो आदमी बराबर झोंपड़ी के दरवाजे पर बैठे जैसे पहरा दे रहे हों। धीरे-धीरे रात गुजरने लगी, मगर कैदखाना न खुला। अब मैंने मन में ठान लिया कि चाहे जैसे हो, एक बार इस झोंपड़ी में जरूर जाऊंगा। सभी झोंपड़ियों में मांस रखा था। मैं चुपके से एक झोंपड़ी में घुस गया और मांस का एक बड़ा-सा टुकड़ा उठा लाया। munshi premchand ki kahani

ये लोग मांस चूल्हे पर पतीली में नहीं पकाते थे; आग पर भून लेते थे। मैंने एक बड़ी-सी भुनी हुई टांग ली और बाहर लाकर पत्तियों में छिपा दी और सोचने लगा – साहब की झोंपड़ी में कैसे जाऊं? वे दोनों यमदूत अभी तक वहीं बैठे हैं। जब तक ये हट न जायें या सो न जायें, मेरा जाना मुश्किल था। फिर द्वार कैसे खोलूंगा?

मुंह पर एक बड़ा-सा पत्थर भी तो खड़ा कर रखा था। मैं उस पत्थर को कैसे हटा सकूंगा? इस चिंता में बड़ी देर तक बैठा रहा। सारी देह चूर-चूर हो रही थी। बार-बार आंखें झपकी जाती थीं, पर एक क्षण ही में चौंक पड़ता था। इस तरह कोई आधी रात बीत गई। गीदड़ों ने दूसरे पहर की हांक लगाई। मैं धीरे से और दबे पांव झोंपड़ी के द्वार पर गया। दोनों यमदूत वहीं जमीन पर पड़े थे। उनकी नाक जोर-जोर से बज रही थी।

कोई दूर से सुनता तो जान पड़ता, दो बिल्लियां लड़ रही हैं। मैं जान पर खेलकर उस पत्थर को खिसकाने लगा। पूरी चट्टान थी। कितना ही जोर पंजों से लगाता, पर वह जगह से हिलती तक न थी। उधर डर भी लगा हुआ था कि जरा भी खटका हुआ तो ये दोनों जाग पड़ेंगे और शायद मुझे जीता न छोड़ें। मैं सोचने लगा – आखिर इतनी बड़ी और भारी चट्टान ये कैसे हटा लेते हैं? munshi premchand ki kahani

अब तक मैं उसे उठाने की कोशिश कर रहा था। अब मुझे यह सूझी कि चट्टान को लंबान में ढकेल दूं। शायद खिसक जाये। ज्यों ही मैंने भरपूर जोर लगाया, चट्टान जरा-सी आगे को खिसक गयी। बस, उसकी कल मुझे मिल गयी। कई बार के ढकेलने से चट्टान द्वार से हट गयी। बायीं ओर ऐसी चीज लगी थी, जिससे वह दाहिनेबाएं की ओर न हिल सकती थी; सीधे-सीधे खिसक सकती थी।

पत्थर हटते ही मैंने धीरे से द्वार खोला। जाकर गोश्त का टुकड़ा लाया। झोंपड़ी के अंदर पहुंचा। देखा, साहब और मेम जमीन पर बेदम पड़े थे। मैंने उनके पैरों को मुंह से चाटकर जगाया। दोनों घबराकर उठ बैठे और मारे डर के कोने की तरफ भागे, मगर कूं-कूं किया तो समझ गये, कल्लू है। दोनों मेरे गले से लिपट गये और मेरा सिर थपथपाकर प्यार करने लगे। munshi premchand ki kahani

मैंने मांस का टुकड़ा साहब के हाथ में रख दिया। उसकी गंध पाते ही वे खाने लगे। उस वक्त मुझे जितना आनंद हो रहा था, कह नहीं सकता। दोनों खाते जाते थे और बार-बार मुझे प्यार करते जाते थे। जब वे खा चुके, तो बचा हुआ टुकड़ा मुझे दे दिया। मैंने उसे वहीं खाया। अब पानी कहां से आवे?

खाने के बाद पानी पीने की आदत मेरी तो न थी, मगर आदमी तो खाते समय थोड़ा-बहुत पानी जरूर ही पीते हैं। उस वक्त मुझे यह बात याद आयी। मैं बाहर निकला और पानी की तलाश करने लगा। वहां उस झोंपड़ी के सिवा और किसी झोंपड़ी में किवाड़ न थे। munshi premchand ki kahani

झोंपड़ियां खुली थीं, लोग उनके द्वार पर सो रहे थे। मैं एक झोंपड़ी में घुस गया और पानी के लिए कोई बर्तन खोजने लगा। मिट्टी या दूध के बरतन वहां न थे। जानवरों की बड़ी खोपड़ियों में पानी रखा था। छोटी-छोटी खोपड़ियों में पानी निकालकर लोग पीते थे। मैंने भी एक छोटी खोपड़ी पानी से भरी और उसे दांतों में दबाये साहब के पास पहुंचा।

दोनों पानी देखते ही उस पर टूट पड़े और एक ही सांस में पी गये। मैं खोपड़ी लेकर फिर गया और पानी भर लाया। इस तरह पांच-छः बार के आने-जाने में मालिकों की प्यास बुझी। दोनों को खिला-पिलाकर मैं धीरे के निकल आया और द्वार बंद कर फिर चट्टान को ज्यों-का-त्यों खिसका दिया। मैं चाहता तो मालिकों को भी उसी तरह निकाल लाता, पर जाता कहां? munshi premchand ki kahani

बेगाने देश में रात को कहां भटकते फिरते? ये काले आदमी फिर पकड़ लेते तो जान लेकर ही छोड़ते, इसलिए जब तक उस देश को अच्छी तरह देख-भालकर निकल भागने का मार्ग न निकाल लूं, मैंने उनका यहीं पड़े रहना अच्छा समझा। यही मेरा रोज का दस्तूर हो गया। मैं दिन-भर इधर-उधर देखभाल करता। रात को साहबों को खिलाता-पिलाता और सो रहता।

कोई मुझे पकड़ न सकता था, न कोई भांप ही सकता था। मैंने इस वक्त तक कभी चोरी नहीं की थी, लेकिन इस चोरी को मैं पाप नहीं समझता। अगर मैं ऐसा न करता तो साहब-मेम जरूर भूखों मर जाते। ये काले आदमी इस तरह साहबों को क्यों कैद किये हुए थे यह मेरी समझ में न आता था। शायद वे समझते थे कि ये लोग हमें पकड़ने आये हैं। munshi premchand ki kahani

या समझते हों कि कोई-न-कोई इनकी तलाश करने तो आयेगा ही। उससे अच्छी-अच्छी चीजें ऐठेंगे; मगर ढंग से ऐसा जान पड़ता था कि वे साहब और मेम को देवता समझते हैं। वह झोंपड़ी देवताओं का मंदर थीं, क्योंकि प्रातःकाल सब-के-सब झोंपड़ी के सामने एक बार नाचने जाते थे। शायद यही उनकी पूजा थी। शायद उनका खयाल था कि देवताओं को खाने-पीने की जरूरत ही नहीं होती।

10

उस देश में हम लोग लगभग एक महीना रहे। जंगली लोगों ने साहबों को कभी बाहर न निकाला। बातचीत भला क्या करते! शायद वे सब समझते थे कि इन देवताओं को बाहर निकाला गया तो न मालूम उस देश को किस आफत में डाल दें। देवताओं को वे कोई भयानक जीव समझते थे, जिसने नुकसान के सिवाय कोई फायदा नहीं पहुंच सकता। munshi premchand ki kahani

इस एक महीने में मैंने देश की अच्छी तरह छानबीन कर ली। उसके एक तरफ तो समुद्र था। पश्चिम की तरफ एक बहुत ऊंचा पहाड़ था, जिस पर बर्फ जमी हुई थी। दक्षिण की तरफ पथरीला मैदान था, जहां मीलों तक घास के सिवा कोई चीज न थी। यहां से भागें भी तो जायें कहां? मुझे यह फिक्र बराबर सताया करती थी।

समुद्र के किनारे जंगली लोग बराबर आते-जाते रहते थे, इसलिए उधर जाने में फिर पकड़ लिए जाने का भय था! ऊंचे पहाड़ पर चढ़ना बहुत कठिन था और फिर कौन जानता है उस पार क्या हो! उस पार पहुंचना भी असंभव जान पड़ता था। उसी मैदान की तरफ भागने का रास्ता था। सौ-पचास कोस भागने पर शायद कोई दूसरा देश मिल जाये, जहां के आदमी ऐसे जंगली न हों। यही मैंने निश्चय किया। munshi premchand ki kahani

एक दिन बड़ी ठंड पड़ रही थी। चारों ओर कुहरा छाया हुआ था। आज साहब की झोंपड़ी के सामने दोनों पहरे वाले ठंड के मारे अपनी झोंपड़ियों में सोये हुए थे। मैदान साफ था। मैंने सोचा, इस अवसर हो हाथ से न जाने देना चाहिए।

ऐसा अवसर फिर शायद ही मिले। जब सब लोग सो गये तो मैंने पत्थर खिसकाया और झोंपड़ी का द्वार खोलकर साहब-मेम को बाहर निकलने का इशारा किया। साहब मेरे इशारे खूब समझने लगे थे। दोनों प्राणी तुरंत निकल खड़े हुए। मैं आगे-आगे चला। दो दिन का खाना मैंने पहले ही से लाकर साहब को दे दिया था। munshi premchand ki kahani

इसकी चिंता न थी। बस, फिक्र यही थी कि हम लोगों का यहां न पाकर वे जंगली आदमी हमारा पीछा न करें; इसलिए रात-भर में हमसे जितना चला जा सके, उतना चलना चाहिए। खूब अंधेरा छाया हुआ था। मैं तो बेखटके चला जाता था, पर साहबों को बड़ा कष्ट हो रहा था। मेम साहब तो थोड़ी-थोड़ी दूर पर बैठ जातीं थीं, साहब के बहुत कहने-सुनने पर ही उठती थीं।

एक बार मेम साहब झुंझलाकर बोलीं, “आखिर इस तरह हम लोग कब तक चलेंगे?” साहब-“जब तक चला जाये।” मेम, “यहीं ठहर क्यों नहीं जाते, सवेरे चलेंगे।” साहब-“और जो सवेरे पकड़ लिए गए तो?” मेम ने इसका कुछ जवाब न दिया। फिर चलीं, मगर भुनभुना रही थीं कि इससे तो हमारी कैद ही अच्छी थी कि आराम से पड़े तो थे। munshi premchand ki kahani

यहां लाकर न जाने किस जंगल में डाल दिया कि प्यासे मर जायें। कहीं बस्ती का नाम नहीं। इस तरह हम लोग आधे घंटे तक लगे होंगे कि पीछे से बहुत से आदमियों का शोर सुनाई दिया। मालूम होता था, सैंकड़ों आदमी दौड़े चले आते हैं। मैं समझ गया कि हमारे भागने का भेद खुल गया है और वही लोग हमें पकड़ने चले आ रहे हैं।

साहब ने मेम से कहा, “लगता है वही शैतान हैं, हम लोग पकड़ लिए जायेंगे।” मेम-“हां-हां, मालूम तो होता है।” साहब-“बेचारा कल्लू यहां तक तो ले आया, अब हमारे नसीब ही फूटे हों तो वह क्या कर सकता है?” मेम-“हम लोग भी दौड़ें। शायद कहीं कोई ठिकाना मिल जाये।” दोनों आदमी दौड़े। वही मेम साहब जिन्हें एक-एक पग चलना दूभर हो रहा था, दौ़डने लगीं। munshi premchand ki kahani

हिम्मत में इतना बल है! सबसे बड़ी बात यह थी कि पूरब की ओर अब कुछ प्रकाश दिखाई देने लगा ता। जरा देर में दिन निकल आयेगा, तब हमें यह तो मालूम हो जायेगा कि हम जा किधर रहे हैं, मगर साथ-ही-साथ हम दौड़ते जाते थे। इस तरह आधा घंटा और गुजरा। अब पौ फटने लगी थी। रास्ता साफ नजर आने लगा, मगर पीछा करनेवाले भी बहुत समीप पहुंच गये।

उनकी आवाज साफ सुनाई देती थी। भूमि बराबर होती तो शायद वे दिखाई भी देने लगते हैं। मैं यह सोचता हुआ दौड़ रहा था कि अगर सबों ने आ पकड़ा तो हम कैसे अपनी रक्षा करेंगे? सहसा हमें एक गहरी गार-सी नजर आयी। munshi premchand ki kahani

मैंने सोचा, इस गार में छिप जायें और उसके मुंह को घास-फूस से छिपा दें तो शायद उन काले आदमियों से जान बच जाये। अगर पकड़ लिए गये तो फिर उसी काल-कोठरी में सड़ेंगे; बच गये तो दिन-भर में न जाने हम कितनी दूर निकल जायेंगे। यह सोचकर मैं उस गार के अंदर घुसा। मेम और साहब दोनों मेरा मतलब समझ गये। मेरे पीछे-पीछे वे दोनों भी गार में घुसे, पर दोनों डर रहे थे कि कहीं शेर या चिता अंदर न बैठा हो। मैं आगे था।

थोड़ी ही दूर गया हूंगा कि दो दीपक-से उस अंधकार में जलते दिखाई दिये। मैं जोर से चिल्लाकर पीछे हटा। सामने सचमुच एक शेर बैठा हुआ था। अब क्या करूं? मेरे तो जैसे होश-हवास गुम हो गये – मैं न आगे जा सकता था, न पीछे, बस, वहीं पत्थर की मूर्ति की भांति खड़ा था। साहब और मेम दोनों बेहोश होकर गिर पड़े। मैं तो भला खड़ा रहा, पर उन दोनों जनों की तो जान ही निकल-सी गयी। अब मेरे होश ठिकाने हुए।

अपना डर जाता रहा। जाकर उन दोनों को सूंघा। मरे न थे। जान बाकी थी। सोचने लगा – अब क्या करूं? एक आफत से तो मर-मर के बचे थे, यह नयी मुसीबत पड़ गयी! मगर यह बात क्या है कि शेर अपनी जगह से हिला तक नहीं, कूदकर झपटना तो दूर रहा। चुपचाप मेरी ओर ताक रहा था। मुझे उसकी आंखों में कुछ ऐसी बात नजर आयी कि मेरा खौफ जाता रहा।

मैं डरते-डरते एक कदम और आगे बढ़ा, फिर भी शेर अपनी जगह से न हिला। अब मेरे कानों में धीरे-धीरे कराहने की आवाज हुई। समझ गया बीमार है। जरा और पास गया तो शेर ने दर्द-भरी आवाज मुंह से निकाली और अपना अगला दाहिना पैर उठाया। वह बुरी तरह फूला हुआ था। अब समझ में आ गया। इसी वजह से यह महाशय दम साधे बैठे हुए थे। बार-बार पूंछ हिलाते थे, जम्हाइयां लेते थे और हम लोगों को कूं-कूं करते थे। munshi premchand ki kahani

जरूर इसके पांव में कांटा चुभा हुआ है। मगर मैं कैसे निकालता? यहां भी तो दांत बिल्कुल शेरों ही जैसे हैं। पहले तो जी में आया कि यह कुछ कर तो सकते नहीं, इन्हें यहीं पड़ा रहने दूं। कहीं ऐसा न हो कि कांटा निकलते ही इनका मिजाज बदल जाये और एक ही जस्त में हम तीनों को चट कर जायें। मगर फिर दया आयी।

ऐसा तो हम लोग कभी नहीं करते की किसी का एहसान भूल जायें। यह भी तो हमारी बिरादरी का जीव है। यह सोचकर मैं साहब के होश में आने की राह देखने लगा। आखिर थोड़ी देर में उनकी आंखें खुलीं। मुझे शेर के पास बैठे देखकर कुछ हिम्मत हुई। वहां से भागे नहीं। शेर ने उन्हें देखकर भी पूंछ हिलाना शुरू किया और बार-बार अपना सूजा पंजा उठाने लगा। munshi premchand ki kahani

साहब भी समझ गये कि शेर लंगड़ा है। साहब ने मेम को कई बार झिंझोड़ा। जब मेम को भी होश आ गया तो दोनों आपस में कुछ देर तक बातें करते रहे।तब साहब ने शेर के पास जाकर उसका पंजा उठाया और धीरे-धीरे कांटा निकाल दिया। शेर का दर्द जाता रहा। उसने साहब के पैरों पर सिर रख दिया और पूंछ हिलाने लगा।

एकाएक बाहर आदमियों के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। मैं समझ गया कि जंगली लोग हमारा पीछा करते हुए आ पहुंचे हैं। मैं जाकर द्वार पर खड़ा हो गया – यहां तो किसी को आने न दूंगा, चाहे मर ही क्यों न जाउं? मैं द्वार पर आया ही था कि दस-बारह आदमी लंबे-लंबे भाले लिए, मुंह पर लाल रंग लगाये सामने आ खड़े हुए और मुझे देखते ही तालियां बजाकर खुश होने लगे। खुश हो रहे थे कि अब मार लिया, बचकर कहां जा सकते हैं। munshi premchand ki kahani

दो-तीन आदमी गार में पैठने की कोशिश करने लगे। उस भाले और ढाल के सामने मेरी क्या चलती! बस खड़ा भौंक रहा था। अरे! क्या आसमान फट पड़ा! या दो पहाड़ लड़ गये? ऐसे जोर की गरज हुई कि सारी गुफा हिल गयी। शेर की गरज थी। आदमियों को द्वार पर देखते ही उसने एक जस्त मारी और द्वार पर आ पहुंचा। कुछ न पूछो, उन दुष्टों में कैसी भगदड़ मच गयी।

भाले और ढालें छोड़ छोड़ कर एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते भागे, मगर एक को शेर ने दबोच लिया और हमारे सामने ही उसे चट कर गया। मेरे तो रोयें खड़े हो गये और मेम साहब ने आंखें बंद कर लीं। मैं सोचने लगा – किसी तरह यहां से भाग जाना चाहिए। इस भयानक जानवर का क्या ठिकाना? न जाने कब इसका मिजाज बदल जाये और हमारी तुक्का-बोटी कर डाले। munshi premchand ki kahani

कोई घंटे-भर तो मैं वहां जब्त किए बैठा रहा। जब मैंने बाहर आकर देख लिया कि उन आदमियों में से एक का भी बता नहीं, तब मैंने साहब से चलने का इशारा किया। वे दोनों डरते-डरते निकले और फिर उसी तरफ चल पड़े।

शेर सिर झुकाये हमारे आगे इस तरह चला जा रहा था, जैसे गाय हो। फिर भी मेरा तो यही जी चाहता था कि यह महाशय अब हमारे ऊपर दया करते और हमें अपनी राह जाने जेते। शाम होते-होते हम लोग एक जंगल में पहुंच गये।

इतना घना जंगल था कि कुछ सुझाइ न देता था। शेर के पीछे-पीछे चले जाते थे। एकाएक वह कोई आहट पाकर ठिठक गया। फिर कान खड़े कर लिए और आहिस्ता-आहिस्ता गुर्राने लगा। सहसा सामने एक शेर आ गया। मेरी तो जान निकल गयी और साहब और मेम दोनों एक पेड़ की आड़ में दुबक गये, मगर उस शैतान ने हमें देख लिया था। munshi premchand ki kahani

वह जोर से गरजकर साहब की तरफ चला कि हमारे शेर ने लपककर उस पर हमला किया। दोनों गुंथ गये। हमारे प्राण सूखे जाते थे। कहीं उसने हमारे मित्र शेर को मार लिया तो फिर हम लोगों की खैरियत नहीं। मैं चाहता तो भाग जाता, पर साहब और मेम को छोड़कर कैसे भागता? पेड़ इतने सीधे और घने थे कि उन पर चढ़ना मुश्किल था। मन में मना रहे थे कि हमारे शेर की जीत हो। कभी वह दबा लेता, कभी यह; कभी पंजों से लड़ते, कभी दांतों से।

दोनों पंजों से लड़ते-लड़ते खड़े हो जाते। मुंह और बदन सेखून बह रहा था, दोनों की आंखों से ज्वाला निकल रही थी, दोनों गरज रहे थे और हम सांस रोके हुए यह लड़ाई देख रहे थे। घंटे-भर की लड़ाई के बाद आखिर हमारे मित्र की जीत हुई। munshi premchand ki kahani

उसने उसे चित गिरा दिया और पंजे से उसका पेट फाड़ डाला। हम तीनों खुशी से नाचने लगे, मगर हमारे मित्र शेर का भी कचूमर निकल गया था। सारी देह जख्मों से चूर हो रही थी। वहीं लेट गये।

हमने भी वहीं रात काटी। खाने को कुछ न मिला। साहब और मेम ने रास्ते में कोई फल खाया था, पर मुझे फलों से क्या मतलब? मुझे तो शिकार चाहिए और अंधेरे में कोई शिकार करना कठिन था। मैं उपासा ही रह गया। दूसरे दिन हम लोग समुद्र के किनारे पहुंचे, मगर अफसोस! मैं समुद्र के किनारे किसी शिकार की टोह में था कि हमारे मित्र शेर ने, जो थककर एक चट्टान की आड़ में बैठा था, धीरे धीरे कराहना शुरू किया।

मैंने जाकर देखा तो उसकी आंखें पथरा गयी थीं। थोड़ी देर में वह वहीं मरगया। कल की लड़ाई में वह बहुत घायल हो गया था। मैं बड़ी देर तक उसकी लाश पर बैठा रोता रहा। मेम और साहब भी बहुत दुखी हुए, मगर समुद्र के किनारे पहुंचने की खुशी में वह गम जल्द भूल गया। मैं अभी शिकार की तलाश में ही था कि सहसा किसी चीज के घरघराने की आवाज कानों में आयी। munshi premchand ki kahani

ऐसी आवाज मैंने कभी नहीं सुनी थी। रेल की आवाज सुन चुका था – भक्‌-भक्‌-भक्‌-भक्‌; मोटरकार की आवाज सुन चुका था। यह आवाज उन सभी से अलग थी, जैसे आसमान पर कोई पवन-चक्की चल रही हो।

साहब और मेम साहब आवाज सुनते ही आसमान की ओर देखने लगे। मैंने भी ऊपर देखा। कोई बड़ी चीलसी दिखाई दी! साहब ने अपनी टोपी उतारकर हवा में उछाली, मेम साहब भी अपना रूमाल हिलाने लगीं। दोनों तालियां बजाते थे, नाचते थे। मेरी समझ में कुछ न आता था – ये लोग क्यों इतने खुश हो रहे हैं? munshi premchand ki kahani

मगर यह क्या बात है? वह आसमान में उड़नेवाली चिड़िया तो नीचे उतरने लगी। ओह! कितनी बड़ी चिड़िया थी! मैंने कभी इतनी भीमकाय चिड़िया न देखी थी। अजायबखाने में शुतुरमुर्ग देखा था, मगर वह भी इसके सामने ऐसा था, जैसे छोटा-सा कबूतर। देखते-देखते वह नीचे आया और उसमें से दो आदमी उतर पड़े।

पीछे मुझे मालूम हुआ कि यह भी एक तरह की सवारी है, जो आदमियों को लेकर हवा में उड़ती है। उन दोनों ने हमारे साहब और मेम के साथ हाथ मिलाया, कुछ बातें कीं और फिर उसी सवारी में जा बैठे।

एक क्षण में साहब ने मुझे गोद में उठा लिया और मेरा मुंह चूमकर उसी सवारी में बिठा दिया। फिर मेम और वह भी आकर बैठ गये। मेरी तो मारे डर के जान सूखी जाती थी। क्या हम हवा में उड़ेंगे? कहीं यह कल बिगड़ जाये तो हमारी हड्डी-पसली का भी पता न चले। मगर साहब बार-बार मेरा सिर थपथपाकर मेरी हिम्मत बंधाते जाते थे। munshi premchand ki kahani

फिर चारों आदमी मेज पर बैठकर खाना खाने लगे। मुझे भी मांस का एक टुकड़ा दिया। मैं खाना खाने में ऐसा मस्त हुआ कि सारा भय दिल से जाता रहा। शोर इतना हो रहा था कि मेरा कलेजा कांपने लगा था। कई बार तो उसने ऐसी करवट ली की मुझे ऐसा लगा कि यह उलटना चाहती है। मैं चिल्लाने लगा। लेकिन जरा देर में वह संभल गयी। हम एक रात और एक दिन उसी सवारी में रहे।

कभी तो वह इतनी ऊंची उठती मालूम होती कि सीधे तारों से टक्कर लेगी। साहब और मेम दोनों सो रहे थे, लेकिन मुझे नींद कहां! मैं तो बराबर ‘भगवान-भगवान’ कर रहा था कि किसी तरह वह संकट टले। munshi premchand ki kahani

दूसरे दिन प्रातःकाल बड़े ज़ोर का तूफान आया। यह यंत्र भंवर में पड़ी हुई किश्ती के समान चक्कर खाने लगा। बिजली इतने जोर से कड़कती थी कि जान पड़ता था – सिर पर गिरी। चमक इतनी तेज थी कि आंखें झपक जातीं थीं। यंत्र कभी दाएं करवट हो जाता, कभी बाएं। कभी-कभी तो उसके पंख रुक जाते, और जान पड़ता वह नीचे की ओर गिरा जा रहा है। चारों आदमी घबराये हुए थे और ईश्वर-ईश्वर कर रहे थे।

मेम साहब तो आंखों पर रूमाल रखे रो रही थीं। घबराया मैं भी कुछ कम न था, मगर मेम साहब के रोने पर मुझे हंसी आ गयी। पूछो, उनके रोने से क्या तूफान चला जायेगा? वह समय रोने का नहीं, दिल को मजबूत करके खतरे का सामना करने का था, लेकिन समझाता कौन? munshi premchand ki kahani

आखिर एक घंटे में अंधड़ शांत हो गया और यंत्र सीधा चलने लगा। दोपहर होते-होते वह एक बड़े मैदान में उतरा, जहां झंडियां गड़ी हुई थीं और उसी तरह के कंई और यंत्र रखे हुए थे।

साहब ने मुझे गोद में लेकर उतारा और एक मोटरकार पर बैठकर चले। अब मैंने देखा तो हम साहब के बंगले की ओर जा रहे थे। मेरे कितने ही दोस्त पुरानी सड़कों पर घूमते नजर आये। मेरा जी चाहता था, इनके पास जाकर गले मिलूं, उनका कुशल-क्षेम पूछुं और अपनी यात्रा का वृत्तांत सुनाऊं; लेकिन मोटर भागी जा रही थी। एक क्षण में हम बंगले पर पहुंचे। munshi premchand ki kahani

मैं अभी नींद भी न लेने पाया था कि नौकर ने आकर मुझे नहलाना शुरू कर दिया। फिर उसने मेरे गले में एक रेशमी पट्टा डाला और मुझे लाकर साहब के मुलाकाती कमरे में एक सोफा पर बिठा दिया। मेम साहब प्लेट में मेरा भोजन लायीं और अपने हाथों से खिलाने लगीं। उस वक्त मुझे ऐसा अभिमान हुआ कि क्या कहूं? जी चाहता था, मेरी बिरादरी वाले आकर देखें और मुझ पर गर्व करें।

मुझ में कोई सुर्खाब के पर नहीं लग गये हैं। मैं आज भी वही कल्लू हूं – वही कमजोर, मरियल कल्लू। मगर मैंने अपने कर्तव्यपालन में कभी चूक नहीं की, सच्चाई को कभी हाथ से नहीं जाने दिया, मैत्री को हमेशा निभाया और एहसान कभी नहीं भूला। अवसर पड़ने पर खतरों का निडर होकर, हथेली पर जान रखकर, सामना किया।

जो कुछ सत्य समझा उसकी रक्षा में प्राण तक देने को तैयार रहा, और उसी की बरकत है कि मैं आज इतना स्नेह और आदर पा रहा हूं। दूसरे दिन मैंने देखा कि कमरे के द्वार पर परदा डाल दिया गया है और वहां पर एक चपरासी बिठा दिया गया है। शहर के बड़े-बड़े आदमी मुझे देखने आ रहे हैं, और मुझ पर फूलों की वर्षा कर रहे हैं। munshi premchand ki kahani

अच्छे-अच्छे जेंटलमैन कोट पतलून पहने, अच्छी-अच्छी महिलाएं गाउन और हैट से सुशोभित, बड़े-बड़े सेठ-साहूकार, बड़े-बड़े घरों की देवियां, स्कूलों और कालेजों के लड़के, फौजों के सिपाही, सभी आ-आकर मुझे देखते हैं और मेरी प्रशंसा करते हैं – कोई फूल चढ़ाता है, कोई डंडौत करता है, कोई हाथ जोड़ता है।

शायद सब समझ रहे थे, यह कोई देवता है और इस रूप में संसार का कल्याण करने आया है। जेंटलमैन लोग देवता का अर्थ तो न समझते थे, पर कोई गैर-मामूली, चमत्कारी जीव अवश्य समझ रहे थे। कई देवियों ने तो मेरे पांव भी छुए। मुझे उनकी मूर्खता पर हंसी आ रही थी। आदमियों में भी ऐसे-ऐसे अक्ल के अंधे मौजूद हैं। दिन-भर तो यही लीला होती रही।

शाम को मैं अपने जन्म-स्थान की ओर भागा। मगर ज्यों ही नजदीक पहुंचा कि मेरे भाइयों का एक गोल मुझ पर झपटा। अभागे शायद यह समझ रहे थे कि मैं उनकी हड्डियां छीनने आया हूं। यह नहीं जानते कि अब मैं वह कल्लू नहीं हूं, मेरी पूजा होती है। मैंने दुम दबा ली और दांत निकालकर और नाक सिकोड़कर प्राणदान मांगा; पर उन बेरहमों को मुझ पर जरास भी दया न आयी। ऐसा जान पड़ता था, इनसे कभी की जान-पहचान ही नहीं है। munshi premchand ki kahani

मैं तो उनसे अपना दुख-सुख कहने और कुछ उपदेश देने आया था। उसका मुझे यह पुरस्कार मिल रहा था। ठीक उसी वक्त मेरे पुराने स्वामी पंडित जी लठिया टेकते चले आ रहे थे। उन्हें देखते ही जैसे मेरे बदन में नयी शक्ति आ गयी। दौड़कर पंडित जी के पास पहुंचा और दुम हिलाने लगा। पंडित जी मुझे देखते ही पहचान गये और तुरंत मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझे दुआ दी और प्रसन्न मुख होकर बोले, “तो अब बहुत बड़े ऋषि हो गये कल्लू! तुम्हारी तो अखबारों में तारीफ हो रही है।

तुम इन गधों के बीच में कैसे आ फंसे?” और उन्होंने डंडा तानकर उन दुष्टों को धमकाया जो अभी तक मुझ पर झपटने को तैयार थे, मगर डंडा देखते ही सब-के-सब चूहों की तरह भागे। munshi premchand ki kahani

मैं पंडित जी के पीछे-पीछे हो लिया और बचपन के क्रीड़ा-क्षेत्र की सैर करता हुआ पंडित जी के घर गया। बार-बार जकिया और माता जी की याद आ रही थी। यह आदर-सम्मान उनके बिना हेय था। पंडित जी के घर में मेरा पहुंचना था कि पंडिताइन ने दौडकर मुझे हाथ जोड़े। जरा देर में मुहल्ले में मेरे आने की खबर फैल गयी। फिर क्या था! लोग दर्शनों को आने लगे और कइयों ने तो मुझ पर पैसे और रुपये और मिठाइयां चढ़ाईं।

जब मैंने देखा कि भीड़ बढ़ती जा रही है तो वहां से चल खड़ा हुआ और सीधा अपने बंगले पर चला गया। और तब से कई नुमाइशों में जा चुका हूं, कई राजाओं का मेहमान रह चुका हूं। सुना है, मेरी कीमत एक लाख तक लग लयी है, मगर साहब मुझे किसी दाम पर भी अलग नहीं करना चाहते। मेरी खातिर दिनदिन ज्यादा होती जा रही है। munshi premchand ki kahani

मुझे रोज शाम-सवेरे दो आदमी सैर कराने ले जाते हैं; नित्य मुझे स्नान कराया जाता है और बड़ा स्वादिष्ट और बलवर्धक भोजन दिया जाता है। मैं अकेला कहीं नहीं जा सकता। मगर अब यह मान-सम्मान मुझे बहुत अखरने लगा है।

यह बड़प्पन मेरे लिए कैद से कम नहीं है। उस आजादी के लिए जी तड़पता रहता है, जब मैं चारों तरफ मस्त घूमा करता था। न जाने आदमी साधु बनकर मुफ्त का माल कैसे उड़ाता है! मुझे तो सेवा करने में जो आनंद मिलता है, वह सेवा पाने में नहीं मिलता, शतांश भी नहीं। munshi premchand ki kahani

premchand ki kahani

munshi premchand ki kahani

मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय

मुंशी प्रेमचंद की अन्य रचानाएं

Quieres Solved :-

  • Munshi Premchand Ki Kahani
  • munshi premchand kahani
  • premchand ki kahani

सभी कहानियाँ को हिन्दी कहानी से प्रस्तुत किया गया हैं।

premchand ki kahani munshi premchand ki kahani munshi premchand ki kahani premchand ki kahani munshi premchand ki kahani munshi premchand ki kahani

premchand ki kahani munshi premchand ki kahani munshi premchand ki kahani premchand ki kahani munshi premchand ki kahani munshi premchand ki kahani

Leave a Comment