उत्तर छायावाद युग:-
मुख्य रूप से उत्तर छायावाद युग के कविता के संज्ञा से छायावाद के उपरांत आने वाली काव्यधाराओं का बोध होता है। जिसमें बच्चन, दिनकर, अंचल, नवीन आदि की कविता से लेकर प्रगतिवाद, प्रयोगवाद तक के कुछ कवि भी शामिल हैं।
इसी कारण प्रस्तावित युग के लिए “उत्तर-छायावादी” संज्ञा का भी प्रयोग किया जाता है। उत्तर छायावाद युग मुख्य रूप से भारतीय इतिहास में एक धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन का नाम है। इस आन्दोलन का आरंभ 19वीं शताब्दी के अंत में हुआ था और इसका प्रभाव 20वीं शताब्दी के प्रारंभ तक फैला रहा।
अपने सामान्य अर्थ में यह नाम छायावाद के उत्तर चरण का बोध कराता है किंतु प्रयोग की दृष्टि से इसके अंतर्गत छायावादोपरांत रचित राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविताएँ तथा वैयक्तिक प्रगीतों की वह धारा आती है। इस युग के दौरान संस्कृति, धर्म, भाषा और सामाजिक आन्दोलन के माध्यम से लोगों को एकजुट किया गया। यह आन्दोलन भारत में राष्ट्रीयता के भाव का विकास करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाया।
पृष्ठभूमि:-
छायावाद एक आंदोलन है जो भारतीय पुनर्जागरण को दर्शाता है। यह पुनर्जागरण भारतीय सांस्कृतिक पहचान की अभिव्यक्ति था, और इसमें देश और समय की एक नई चेतना और एक आध्यात्मिक परिभाषा दोनों शामिल थी।
छायावाद आंदोलन की कविता में अक्सर एक मजबूत ऊर्जा और एक आध्यात्मिक अनुभूति होती है, और इसमें अक्सर सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह की परंपराएं शामिल होती हैं। नामवर सिंह ने छायावाद काव्य को अनेक प्रवृत्तियों की गठरी कहा है।
छायावादी कविता गहन एकाग्रता और प्रेरणा से भरी है, जो विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक, व्यक्तिगत, राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव पैदा कर सकती है। जागरण-गीत, जो अक्सर छायावादी कविता से प्रेरित होते हैं, इसका एक अच्छा उदाहरण हैं।
छायावादी कवियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और रचनात्मकता उनके राजनीतिक और सामाजिक इरादों को उनके आध्यात्मिक और सांस्कृतिक स्तरों के माध्यम से व्यक्त करने की अनुमति देती है।
1930 से भारत में चीजें बहुत बदल गईं क्योंकि बहुत सारे नए राजनीतिक आंदोलन हो रहे थे। एक ओर कुछ आन्दोलन ऐसे भी थे जो कुछ समझौते के बाद समाप्त नहीं हुए, और दूसरी ओर बहुत से जमीनी स्तर के किसान-मजदूर आन्दोलन और अन्य लोगों के आन्दोलन अपने हितों और उद्देश्यों को राजनीतिक स्वतंत्रता से जोड़कर देखने लगे।
इससे युवाओं में आशा और नई चेतना का संचार हुआ, जो इस बात का प्रमाण था कि नेहरू, सुभाष और भगत सिंह जैसे नए युवा नेता लोकप्रिय हुए।
युद्ध के बाद जब वास्तविकता बदली तो पुराने आदर्श और नई वास्तविकता के बीच की खाई चौड़ी होती गई। यह युद्ध के बाद आए विभिन्न काव्यों में देखा जाता है। इस कविता में से कुछ पुरानी और नई दुनिया के बीच की खाई को पाटने की कोशिश पर केंद्रित है, जबकि अन्य कविता लोगों के संघर्षों को दर्शाती है और नई वास्तविकता में जीने की कोशिश करती है।
सामान्य विशेषताएं :-
आधुनिक हिंदी कविता में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति तो भारतेंदु काल से ही आरंभ हो गई थी परंतू उसका स्वरूप क्रमशः बदलता रहा है। द्विवेदीयुगीन राष्ट्रीयता अरतीत-गौरव के बोध से परिचालित थी तो
छायावादयुगीन राष्ट्रीयता विशुद्ध मानव-ऐक्य का आदर्श लेकर चली है। विवेच्य काल की राष्ट्रीयता स्वतंत्रता-प्राप्ति की प्रत्याशा की तीव्रता और परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़ फेंकने के उत्साह से संवलित है।
इसके साथ ही उसमें एक सामाजिक चेतना का प्राधान्य भी देखने को मिलता है। वास्तविकता का आग्रह, यथार्थ – चेतना की प्रखरता के साथ-साथ संघर्षात्मकता की अभिव्यक्त और आवेग प्रधानता भी इन कविताओं की सामान्य विशेषताएँ के रूप मैं माना जाता है।
इस धारा के प्रमुख कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतु्वेदी, बालकृष्ण शर्मा “नवीन’ छायावाद एवं उससे पहले से ही इस प्रकार की कविताएँ लिख रहे थे।
इनमें मैथिलीशरण गुप्त के काव्य का उत्तमांश पहले ही प्रकाशित हो चुका था। इसके अलावा माखनलाल चतुर्वेदी के “एक भारतीय आत्मा” तथा बालकृष्ण शर्मा “नवीन” के कृतित्व में भी काफी समानता है। इन्होंने विद्रोह, देशभक्ति और प्रेम की कई कविताएँ लिखी हैं।
छायावाद युग की धाराएं :-
छायावाद-युग की परिव्याप्ति 1936 ई. तक मानी जाती है। 1936 ई. में प्रमुख छायावादी कवि पंत द्वारा रचित “युगांत’ के प्रकाशन के साथ ही छायावाद युग का औपचारिक अंत माना जाता है। यद्यपि
छायावादोत्तर काव्यधारा के लक्षण 1930-31 से ही प्रकट होने शुरू हो गए थे परंतु 1936 के बाद ही छायावादी काव्यधारा का विकास बहुमुखी रूप से हुआ।
राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविता, प्रेम और मस्ती का काव्य तथा प्रगतिवाद आदि काव्यधाराएँ प्रायः एक साथ अवतरित हुई। इनमें पहली दो काव्य-प्रवृत्तियां पूर्व्ती काव्य- प्रवृत्तियों का ही विकास हैं जबकि अन्य प्रबृतियों का आविर्भाव ऐतिहासिक दबावों के कारण छायावाद की प्रतिक्रिया और प्रभाव से हुआ।
मुख्यतः उत्तर-छायावादी काव्य में यही धाराएँ हैं। प्रगतिवादी, प्रयोगवादी कविताएँ जो छायावाद के विरोध और प्रतिक्रिया में अधिकांशतः लिखी गई सामान्यतः छायावादोत्तर काव्य के अंतर्गत आती है।
प्रेम काव्य :-
वैयक्तिक प्रेम और तत्समान निराशा के गीत छायावाद से ही रचे जाने आरंभ होगए थे किंतु इन गीतों का प्रेम नितांत लौकिक धरातल का प्रेम बनकर उत्तर -छायावादी काव्य में ही प्रकट होना शुरू हुआ। छायावाद की आदर्श चेतना लौकिक अनुभूति को आध्यात्मिक आभा दे देती थी या फिर उनका दार्शनिकीकरण करती थी जैसा कि प्रसाद के “ऑँसू” जैसे काव्यों मैं आसानी से देखा जा सकता है।
पर उत्तर -छायावादी कविता मन और शरीर तक ही सीमित रही है। सुंदर के प्रति सहज आकर्षण, उसकी प्राप्ति की आकांक्षा तथा इस प्रयत्न की असफलता से उत्पन्न निराशा का सीधा सा क्रम इन कविताओं में भी देखा जा सकता है।
एक प्रकार की मस्ती या मादकता का आवेग इन कविताओं में साफ देखा जा सकता है और यही इन कविताओं की मुख्य विशेषता भी है। जीवन के अनुभवों की अकुंठ अभिव्यक्तियों जीवन के उद्देश्य या जीवन-दृष्टि का प्रश्न इनके सम्मुख प्रधान नहीं है।
सांस्कृतिक काव्य :-
आधुनिक हिंदी कविता में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति तो भारतेंदु काल से ही आरंभ हो गई थी परंतु उसका स्वरूप क्रमशः बदलता रहा है। द्विवेदीयुगीन राष्ट्रीयता अतीत-गौरव के बोध से परिचचालित थी तो
छायावादयुगीन राष्ट्रीयता विशुद्ध मानव-ऐक्य का आदर्श लेकर चली है।
द्विवेदीयुगीन राष्ट्रीयता और छायावादी राष्ट्रीयता का यह अंतर नंददुलारे वाजपेयी ने मैथिलीशरण गुप्त की कविता “नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है” तथा प्रसाद व निराला क्रमशः “अरुण यह मधुमय देश’ तथा “भारति जय-विजय करे” कविताओं की तुलना करते हुए दिखाया है कि छायावादी राष्ट्रीयता में प्रादेशिकता का आग्रह कम है और विशाल मानव-ऐक्य की भावना है ।
विवेच्य काल की राष्ट्रीयता स्वतंत्रता- प्राप्ति की प्रत्याशा तीव्रता और परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़ फेंकने के उत्साह से संवलित है। इसके साथ ही उसमें एक सामाजिक चेतना का प्राधान्य भी है। यद्यपि द्विवेदी युगीन प्रबंध- काव्यों की तरह इस युग मैं भी अतीत व पौराणिक्ता पर आश्रित प्रबंध काव्य लिखे गए किंतु उनमें अतीत के गौरव गान की अपेक्षा आधुनिक समस्याएँ ही प्रधान हैं।
वास्तविकता का आग्रह, यथार्थ – चेतना की प्रखरता के साथ-साथ संघर्षात्मकता की अभिव्यक्ति और आवेग प्रधानता इन कविताओं की सामान्य विशेषताएँ हैं।
इस धारा के प्रमुख कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा “नवीन” छायावाद एवं उससे पहले से ही इस प्रकार की कविताएँ लिख रहे थे। इनमें मैथिलीशरण गुप्त के काव्य का प्रथमंश पहले ही प्रकाशित हो चुका था। इसके अलावा माखनलाल चतुर्वेदी की “एक भारतीय आत्मा” तथा बालकृष्ण शर्मा “नवीन” के कृतित्व में भी काफी समानता पाया जाता है। इन्होंने भी विद्रोह, देशभक्ति और प्रेम की कई कविताएँ लिखी हैं।
कितु इस युग की धारा का सर्वाधिक प्रतिनिधित्व करने वाले कवि हैं रामधारी सिंह “दिनकर”‘। अपनी छोटी कविताओं तथा प्रबंध-काव्यों दोनों में ही दिनकर के काव्य का औज व वक्तृत्व कला उस युग की उग्र राष्ट्रीय चेतना का निर्वहण करती है।
राजनैतिक कविताओं में सियाराम शरण गुप्त व सोहनलाल द्विवेदी की कविताएँ गाँधीवादी चेतना की वाहक हैं –
“न हाथ एक शस्त्र हो, न साथ एक अस्त्र हो।
न अन्न नीर वस्त्र हो, हटो नहीं, डटो वहीं,
बढ़े चलो, बढ़े चलो”
इस धारा की कविताओं में पराधीनता के प्रति आक्रोश, राजनैतिक विद्रोह, अतीत का गौरव-गान, बलिदान की आकांक्षा, सामाजिक विषमता व कुरीतियों का विरोध, के साथ- साथ इस वर्ग की कविताओं में तात्कालिक समाधान के प्रति एक आग्रह दिखाई पड़ता है जो कि इन कविताओं में एक उद्दाम आवेग भरता है। इसी तात्कालिक समाधान की आशा के टूटने पर निराशा और हताशा के भी स्वर निकलते हैं-
“आज खड़ग की धार कुठित है खाली तूर्ीर हुआ ।
विजय-पताका झुकी हुई है लक्ष्य भ्रष्ट यह तीर हुआ।”
सांमाजिक चेतना के स्वर जिन कवियों में प्रमुख थे वे प्रगतिशील काव्यधारा से भी जुड़े यथा – शिवमंगल सिंह “सुमन’ अंचल, नरेन्द्र शर्मा आदि । सांस्कृतिक अतीत के गौरव-गान से अलग तात्कालिक राष्ट्रीय समस्याओं को अतीत में प्रक्षेपित कर कुछ महत्वपूर्ण प्रबंघध काव्य लिखे गए यथा – कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, जयभारत, नकुल, विक्रमादित्य आदि।
उत्तर-छायावादी काव्यभाषा व शिल्प:-
आधुनिक हिंदी कविता की सर्वाधिक लोकप्रिय काव्यधारा उत्तर छायावादी काव्यधारा ही रही है। इसका कारण एक तरफ इसकी सरल भाव प्रकाशन है तो दूसरी तरफ इसकी काव्यभाषा की सफाई और सरलता भी है। छायावाद से वैयक्तिक प्रगीतों की जो विरासत इसे मिली उसे इसको और भी समृद्ध किया। इसके अलावा प्रबंध काव्यों के स्वरूप में भी उत्तर -छयावादी कविता थोड़ा बदलाव लाती है।
काव्यभाषा:-
उत्तर छायावाद के कवियों ने अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए एक नई काव्यभाषा का निर्माण किया था। इस नई का्य-भाषा के पीछे छायावादी कवियों की नई सौंदर्याभिरुचि का भी हाथ था। खड़ी बोली कविता को कोमलकांत पदावली से समन्वित करने के लिए उन्होंने संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी से प्रभाव-ग्रहण किए, उन्हें खड़ी बोली के प्रकृति के अनुरूप ढाल कर उनका प्रयोग किया।
द्विवेदी युगीन तत्सम-बहुलता और छायावादी तत्सम -प्रधानता के बीच यह अंतर है। छायावाद के कवियों के सम्मुख भाषा की एक अवधारणा यह थी कि भाषा वास्तविकता का उद्धाटन करती है। भाषा वास्तविकता को प्रतिबिबित करती है, इस अवधारणा से इंकार न करते हुए भी छायावादियों ने इसकी उपेक्षा की।
उत्तर छायावाद युग मैं वास्तव में शब्द की पृथक अर्थ-छायाएँ होती हैं, जो वास्तविकता से संबद्ध होती हैं। भाषा की यह प्रतिभा उसकी आंतरिक प्रतिभा होती हैं। भाषा की इस आंतरिक प्रतिभा का उपयोग छायावादी कवियों ने वास्तविकता की संभावनाओं के उद्धाटन के लिए किया।
इस प्रवृत्ति के बलवती होने पर भाषा की आंतरिक प्रतिभा पर ही जोर पड़ने लगा और भाषा वस्तु-जगत से स्वाधीन होने लगी। फलतः काव्य में अमूर्तन और आत्मप्रस्तता आने लगी। उत्तर-छयावादी काव्यभाषा में इस अमूर्तन से मुक्ति के प्रयास स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।
उत्तर-छायावाद के काव्यभाषा में एक खुलेपन, एक सफाई का आग्रह स्पष्ट है। छायावादी तत्सम शब्दावली के इर्द- गिर्द एक प्रभामंडल सा व्याप्त होता है जो अर्थ की एक अन्य गौरवपूर्ण दुनिया बनाता
है। उत्तर-छायावादी काव्यभाषा में यह तत्सम -बहुलता उतनी नहीं है।
किंतु जैसा कि साही ने कहा है – “छायावाद ने संस्कृत शब्दों का प्रयोग उनके अभिधार्थ या लक्षणार्थ के ही लिए नहीं किया, बल्कि एक अलग प्रभामंडल के लिए किया जिसकी शर्त्त ही यही थी कि वह ठेठ शब्दों से स्रोत में ही अलग दीखे“। इसी बहुलता को कम करने का काम दिनकर आदि ने किया।
लेकिन स्रत के प्रभामंडल का अतिरिक्त लाभ उन्होंने भी उठाया।” किंतु कुल मिलाकर, उत्तर छायावाद कविता में तत्सम शब्दों के प्रयोग में कमी आयी और तत्सम शब्दों का प्रयोग धीरे धीरे बढ़ा।
छंद:-
उत्तर छायावाद युग मैं ब्यबहरुत किए गए छंदों से मुक्ति की प्रेरणा और लय का अनुधावन हिंदी कविता में छायावाद की देन है। छंदो की विविध ता और पुराने छंदों का समयानुकूल प्रयोग भी छायावाद की विशेषता है उत्तर-छायावादी कविता ने भी छंदों की इस विविधता को अपनाया है और अनेक रमणीय गीतों की रचना की है।
पद्धड़िया, मत्तगयंद, तथा मिश्रित छंदों के उदाहरण बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, भगवतीचरण वर्मा के गीतों में हैं। बच्चन ने उर्दू की रुबाइयों और गुजलों का प्रयोग अपने गीतों में किया है। छायावादी कविताओं में छंद या मुक्त-छंद की लय पूर्णतः प्रवाहपूर्ण नहीं है, उसके प्रवाह में कहीं-कहीं जोड़ मिलते हैं परंतु उत्तर छायावाद कवियों की लय का प्रवाह कहीं बाधित नहीं होता ।
प्रबंध रचना:-
“कामायनी” के उपरांत परंपरागत विधान में प्रबंध काव्य लिखना अप्रासंगिक हो गया। छायावाद ने प्रबंध कविता को अपनी एक देन “लंबी कविता” के रूप में भी दी। उत्तर-छायावादी कविता की प्रबंध
रचनाएँं द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता और छायावादी लाक्षणिकता मध्यभूमि पर रचित हैं । दिनकर की “कुरुक्षेत्र” व “उर्वशी” में प्रबंधत्व काफी क्षीण है।
उत्तर छायावाद के काव्य-रचना का कोई नया विधान इन उत्तर-छायावादी कवियों ने नहीं रचा। अपने युग की समस्याओं का समाधान जिस प्रकार पुराने आदर्शों व लक्ष्यों के स्वीकार के सरलीकरण के साथ किया, उसी प्रकार काव्य-विधान के पुराने रूपों को भी सहजता से अपना लिया।
शिल्प के स्तर पर महत्वपूर्ण अंतर सिर्फ काव्यभाषा के खुलेपन और प्रवाहमयता में है। यह अंतर भी वास्तविकता के बढ़ते दबाव के कारण उपस्थित हुआ।
दरअसल उत्तर छायावाद ने अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल जिस काव्य-विधान को निर्मित किया था, उसकी संभावनाओं का छायावादी कविता ने पूरा उपयोग स्वयं कर लिया था और निराला तथा पंत जैसे छायावादी भी स्वयं उस विधान को छोड़ रहे थे।
उत्तर -छायावादी कविता ने इस स्तर पर कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया। फिर भी संप्रेषणीयता का जो स्तर उन्होंने ग्रहण किया वह उनकी उपलब्धि कही जा सकती है।
प्रमुख कवि:-
रामधारी सिंह “दिनकर” (Ramdhari Singh Dinkar):-
हिंदी भाषा के प्रमुख कवि, परम देशभक्त और संसद सदस्य, रामधारी सिंह दिनकर भारत के इतिहास में एक क्रांतिकारी कवि के रूप मैं जाने जाते हैं। हिंदी कविता की क्रांति की दुनिया में रामधारी सिंह दिनकर का योगदान आधुनिक समय के महानतम कवियों में से एक है, जिसके लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।
एक गरीब परिवार मैं जन्मे दिनकर जी ने अपने दम पर सासद की सदस्यता प्राप्त की, पर इसके वारंट उन्होंने साहित्य को नहीं छोड़ा। उनके अदम्य साहित्य रचना के द्वारा उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। खास कर आधुनिक हिंदी गद्य साहित्य तथा क्रांतिकारी कविता की रचना करके उन्होंने हिंदी साहित्य को ऊंचा स्थान प्राप्त करने में काफी मदद की।
खास के उनके रचनाकाल के समय मैं तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार ब्रिटिश साम्राज्य के द्वारा भराइयों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफावाज उठाने के लिए देशवासियों को प्रेरणात्मक उद्बोधन देने के लिए उन्होंने अपने कविताओं को ही चुना।
छायावादी तथा उत्तर छायावाद के कविता के सर्वप्रमुख कवियों में दिनकर माने जाते हैं। दिनकर मुख्यतः अपनी कविताओं में वक्तृत्व-कला के लिए विख्यात हैं। ओज प्रधान राष्ट्रीयता और सामाजिक कु-रीतियों पर प्रहार इनकी कविताओं का मुख्य स्वर है।
साथ ही दिनकर प्रेम की मस्ती के भी गीतकार हैं। उर्वशी तथा गीत- अगीत के रचयिता दिनकर का मुख्य स्वर हुँकार, रेणुका, चक्रवाल, कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा जैसे काव्यों में साफ दिखाई देता है।
हरिवशराय “बच्चन” (Haribanshray Bacchan):-
एक भारतीय कवि, लेखक और निबंधक के रूप मैं हरिवंशराय बच्चन जी को हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल है। उनकी रचनाएं जीवन के सभी पहलुओं को समावेश करती हैं – प्रेम, जीवन के मकसद, संघर्ष और आत्म-उन्नयन।
प्रारंभिक समय मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की पढ़ाई पूरी करने के बाद उसी विश्वविद्यालय से वे एक शास्त्रीय उपाधि और एक डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करते हैं।
इसके पश्चात उन्होंने अपने जीवन के अधिकांश समय भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय में विभिन्न पदों पर काम किया। दिनकर के साथ-साथ बच्चन भी इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। बच्चन मुख्यतः प्रेम और मस्ती के गायक हैं।
उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद, मधुशाला, मधुकलश जैसी रचनाओं की मधुचर्या के कारण इनके काव्य को उपहासवश “हालावाद” भी कहा गया। “निशा -निमंत्रण'”, “एकांत-संगीत”, “आकृल- अंतर’ के गीतों में बच्चन प्रेम की निराशा, कुंठा के साथ जगत् के बंधन और अपनी निश्छलता के गीत गाते दिखाई पड़ते हैं।
योग और भोग के द्ंदध में जगत की नश्वरता का ज्ञान इन्हें भोग की ओर ही प्रेरित करता है। छायावादियों के विपरीत ये “इस पार” के कवि हैं। “सूत की माला” की इनकी कविताओं में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक स्वर भी सुनाई पड़ता है।
माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा “नवीन'” (Makhanlal Chaturvedi):-
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी जी का नाम छायावाद की उन हस्तियों में से है जिनके कारण ही वह युग विशेष हो गया। उस युग के कवि कुदरत को स्वयं के करीब महसूस कर लिखा करते थे। चतुर्वेदी जी की भी कई रचनाएं ऐसी ही हैं जहां उन्होंने प्रकृति के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त करके अपने रचनाओं को अंजाम दिया है।
और फिर बच्चन जी और चतुर्वेदी जी के काव्य में काफी समानताएँ हैं। ये दोनों छायावाद युग से ही कवि कर्म में रत थे। इसके अलावा ये दोनों ही सक्रिय राजनीति से जुड़े हुए थे। छायावादी काव्य में प्रकृति एक अभिनव जीवंत रूप में चित्रित की गयी है।
माखनलाल जी की कविताओं में प्रकृति चित्रण का भी एक विशेष महत्त्व है। मध्य प्रदेश की धरती का उनके मन में एक विशेष आकर्षण है। यह सही है कि कवि प्रकृति के रूप आकृष्ट करते हैं किंतु उसका मन दूसरी समस्याओं में इतना उलझा है कि उन्हें प्रकृति में रमने का अवकाश नहीं है।
इस कारण प्रकृति उनके काव्य में उद्दीपन बनकर ही रह गयी है, चाहे राष्ट्रीय अध: पतन से उत्पन्न ग्लानि में शस्य-श्यामला भूमिकी दुरवस्था को सोचते समय, चाहे बन्दीखाने के सीकचों से जन्मभूमि को याद करते समय। छायावादी कवियों की तरह प्रकृति में सब कुछ खोजने का इन्हें अवकाश ही न था।
दोनों की कविताओं में राष्ट्रीयता का स्वर प्रबल है किंतु दोनों ने ही प्रेम और मस्ती के तराने भी लिखे हैं। माखनलाल चतुर्वेदी उर्फ “भारतीय आत्मा” की रचनाएँ हैं- “माता”, “समर्पण”, “युगचरण”‘। इनकी “कैदी और कोकिला तथा “पुष्प की अभिलाषा” कविताएँ काफी प्रसिद्ध हैं। बालकुष्ण शर्मा “नवीन” ने “अपलक”, क्वासि”, ‘”हम विषपायी जनम के” आदि कृतियों की रचना की है।
नरेन्द्र शर्मा (Narendra Shaerma):-
पंडित नरेंद्र शर्मा हिंदी के प्रसिद्ध कवि, लेखक, गीतकार और संपादक थे। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य मे अपना एमए डिग्री हासिल किया। पण्डित नरेन्द्र शर्मा छायावादोत्तर काल के ऐसे गीतकार रहे है, जिनके गीतों में रागात्मक संवेदना है ।
उनके गीतों का सुख-दु:ख सीधे-सीधे अपने प्रिय को सम्बोधन देता है, जिनके बीच में न कोई छल है और न बन्धन। उनके गीतों का परिवेश हमारे निकट का है । प्रकृति सौन्दर्य, मानवीय सौन्दर्य और उससे उत्पन्न विरह मिलन की अनुभूतियां उनकी रचनाओं का विषय है । व्यक्तिगत सुख-दु:ख के साथ उनकी रचनाओं का स्वर सामाजिक यथार्थवादी है ।
नरेन्द्र शर्माजी ने हिन्दी साहित्य की 23 पुस्तकें लिखकर हिंदी साहित्य की समृद्धि की है। जिनमें प्रमुख हैं:- प्रवासी के गीत, मिट्टी और फूल, अग्निशस्य, प्यासा निर्झर, मुठ्ठी बंद रहस्य, मनोकामिनी, द्रौपदी, उत्तरजय सुवर्णा, आधुनिक कवि, लाल निशान, ज्वाला-परचूनी, मोहनदास कर्मचंद गांधी:एक प्रेरक जीवनी, सांस्कृतिक संक्राति और संभावना ।
लगभग 55 फ़िल्मों में 650 गीत एवं ‘महाभारत’ का पटकथा-लेखन और गीत-रचना। प्रभात फेरी, प्रवासी के गीत, पलाशवन, मिट्टी के फूल, कदलीवन जैसी कृतियों के रचयिता नरेन्द्र शर्मा के गीतों में प्रकृति-प्रेम, मानव-सौदर्य, तज्जन्य विरह -मिलन की अनुभूतियाँ बड़ी आत्मीयता और सरल प्रवहमान भाषा में व्यक्त हुई हैं।
रूमानी दृष्टि के साथ – साथ इनकी कविताओं में सामाजिक स्वर भी सुनाई पड़ता है।
भगवतीचरण वर्मा (Bhagabaticharan Sherma):-
भगवतीचरण वर्मा की कविताओं में मस्ती और प्रेम तथा यौवन का उल्लास है। “वे अनासक्त भोक्ता की भाषा में सुंदर के सौँदर्य की महिमा और अपनी मस्ती के गान गाते हैं। “मधुकण”, “प्रम-संगीत’,
“मानव’ और “एक दिन” इनकी काव्य रचनाएँ हैं।
इनके अलावा रामेश्वर शुक्ल “अंचल”, गोपाल सिंह “नेपाली”, आरसी प्रसाद सिंह, सियारामशरण गुप्त, सोहनलाल द्विवेदी, उदयशंकर भट्ट आदि इस धारा के अन्य प्रमुख कवि हैं।
सारांश:-
इस इकाई में आपने उत्तर छायावादी कविता का अध्ययन किया। उत्तर-छायावादी कविता का सर्वाधिक प्रभाव काव्यभाषा के क्षेत्र में है। भाषा की सफाई, संप्रेषणीयता इस कविता की उपलब्धियाँ हैं। काव्य भाषा को वस्तु जगत और यथाथ से इस कविता ने सहज ही जोड़ा है।
इसके अलावा राष्ट्रीयता और प्रेम या वैयक्तिक भावनाओं के क्षेत्र में जिस विद्रोह भावना या स्वछंदता के पथ पर यह कविता चली उसने इसे अत्यंत जन-प्रिय बनाया।
दिनकर, नवीन, बच्चन की कविताएं कई पीढ़ियों तक युवकों के कंठ पर चढ़ी रहीं । इन कविताओं का प्रवाह युवा – मन को प्रभावित करने में अभी समर्थ है। प्रम का उद्दाम आवेग और उसकी सहज-अकुंठ अभिव्यक्ति या उसकी असफलता की व्यथा जिस सरलता से अभिव्यक्त हुई है, वह आरंभिक तौर पर अत्यंत आकर्षक है।
स्वच्छंदतावाद की इस प्रवृत्ति ने छायावादी आस्था का आवरण ओढ़े रखा जिसके कारण यह रोमैंटिक कविता पश्चिम की तरह किसी “अपराध-बोध” की प्रेरक नहीं बन पाई।
उत्तर-छायावाद के कवि स्थापित नीति-मर्यादाओं की उपेक्षा करते हुए भी किसी अनैतिकता का उद्घोष नहीं करते बल्कि दिनकर जैसे कवियों में तो नैतिकता का अंकुश भी मिलता है।
उत्तर छायावाद के सांस्कृतिक प्रतीकों और आदर्शों को मानते हुए भी उत्तर -छायावादी कविता उस “आंतरिक लय” को पकड़ने का प्रयास करती है, जिससे ये प्रतीक व आदर्श जन्मते हैं। इस प्रकार उत्तर-छायावादी कविता आगामी नयी कविता के लिए भाषा और भाव -भूमि दोनों ही स्तरों पर जमीन तैयार करती है। यही इसका ऐतिहासिक दाय भी है।
अंतिम कुछ शब्द :-
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Wikipedia Page :- उत्तर छायावाद युग
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