आधुनिक काल की सम्पूर्ण जानकारी (Aadhunik Kaal Ki Sampoorn Jaankaari)

आधुनिक काल की सम्पूर्ण जानकारी (Aadhunik Kaal Ki Sampoorn Jaankaari):-

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हिन्दी साहित्य मैं आधुनिक काल पिछले सभी युगों से काफी अलग है। इसस काल मैं मुख्य रूप से गद्य साहित्य का बिकास हुआ था। इसस काल के बिषय मैं आगे बिस्तार रूप से आलोचना किया गया

आधुनिक काल के कुछ संदर्भ :-

आधूनिक हिन्दी साहित्य का आरंभ उन्नीसवीं सदी के मध्य से माना जाता है। उन्नीसवीं सर्दी भारतीय इतिहास में कई दृष्टियों से निर्णायक कही जा सकती है। आधूनिक से तात्पर्य मैं यह एक काल का सूचक होने के साथ साथ इसमें एक विशेष युग की अवधारणा जुड़ी हुई है जो प्राचीन और मध्य युग की अवधारणाओं से अलग है।

पर प्रश्न यह भी आता है की क्या जब भारतीय इतिहास के आधुनिक युग की शुरूआत होती है क्या तभी से हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग की भी शुरुआत होती है या उससे अलग समय में? यहाँ यह भी सवाल विचारणीय है कि जब पश्चिम में आधूनिक यूग का आरंभ हुआ क्या वही समय भारत में भी आधूनिकता का है?

आधुनिकता पश्चिम की अवाधारणा मानी जाती है, तो, क्या आधुनिकता की कोई भारतीय अवधारणा भी है? हिन्दी के खास संदर्भ में जब हम बात करते हैं तो यह प्रश्न भी पैदा होता है कि आधुनिक साहित्य किन अर्थों में अपने पूर्ववर्ती साहित्य से भिन्न है? यह भिन्नता मुख्यत: साहित्यिक है या साहित्येतर?

आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य में हम कुछ स्पष्ट परिवर्तनों को देख सकते हैं । पहली बार साहित्य में गद्य में रचना होने लगती है और उसे केन्द्रीय महत्व प्राप्त होने लगता है। यही वजह है कि अचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे गद्यकाल नाम देते हैं।

ब्रज का स्थान खड़ी बोली ले लेती है और इस खड़ी बोली के दो रूपों को हम दो भिन्न भाषाओं – हिन्दी और उर्दू और उनकी अलग-अलग साहित्य परंपराओं के रूप में उभरता और विकसित होता हुआ देखते हैं । साहित्य में पहली बार वीर, भक्ति और शृंगार से अन्य विषयों पर रचनाएँ होती हैं। कविता के साथ-साथ गद्य की कई नई विधाएँ हमारे सामने प्रकट होने लगती हैं।

निबंध, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि से पहली बार हिन्दी पाठकों का साक्षात्कार होता है । लोकनाट्य रूपों से अलग समकालीन सवालों से जूुड़े नाटक खेले जाते हैं और उसके लिए रंगमंच और रंग गतिविधियाँ आयोजित होने लगती हैं ।

इन नाटकों और इनके रंगमंच पर पाश्चात्य परंपरा का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। यही नहीं, स्वयं कविता की अंतर्वस्तू, छंद और भाषा में बदलाव आने लगता है और यह सवाल बहस का विषय बनने लगता है कि जब गद्य की भाषा खड़ी बोली है तो पद्य की भाषा का ब्रज में बना रहना कहाँ तक उचित है?

लेकिन इन परिवर्तनों का संबंध किन बातों से था? क्या ये सिर्क साहित्यिक परिवर्तन थे? क्या इनका संबंध साहित्पिक गतिविधियों और रूपों से ही था या ये परिवर्तन किसी अन्य महापरिवर्तन के हिस्से थे?

इस बात को समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि उस समय भारत और खास तौर पर उत्तर भारत में किस तरह के परिवर्तन घटित हो रोहे थे? आधुनिक काल, जिसकी शुरुआत रामचंद्र शुक्ल ने संवत् 1900 से मानी थी, क्या उसका साहित्य के इतिहास में ही नहीं भारतीय इतिहास में भी क्या कुछ विशेष महत्व है?

आधुनिक काल मैं देशभक्ति और राजभक्ति, हिन्दू और मुसलमान, धर्म और राजनीति, वर्ण व्यवस्था और जातीय एकता, आर्य गौरव और गौ रक्षा, समाज सुधार और अतीत के प्रति गौरव की भावना, स्त्री की दशा और उसकी उन्नति, हिन्दी और उर्दू, आधुनिक शिक्षा और नई टेक्नोलोजी जैसे कई नये प्रश्न तत्कालीन लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच बहस के मुद्दे बने हुए थे।

उन्नीसरवीं सदी के हिन्दी साहित्य में ये राष्ट्रीय प्रश्न किस सीमा तक और किन रूपों में व्यक्त हुए हैं यह जानने से हम आधुनिक हिन्दी साहित्य की बुनियाद को समझ सकते हैं जिसने कि उसे दूसरी भारतीय भाषाओं से अलग और विशिष्ट बनाया।

आधुनिक काल का आरंभ (Aadhunik kaal ka prarambh) :-


आधुनिक काल में ऐसी बहुत-सी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुई जिसने देश की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों को झकझोर दिया। 1849 ई. में सिक्खों को पराजित करने के बाद सम्पूर्ण देश पर अंग्रेजों का शासन हो गया था।

1857 की क्रांति एक महत्वपूर्ण घटना थी। डलहौजी द्वारा देशी राज्यों का विलय और अवध प्रदेश का अग्रेजी राज्य में समाहार महत्त्वपूर्ण घटनाएं थी।

अग्रेजों ने अपनी आर्थिक, शैक्षणिक एवं प्रशासनिक नीतियों में परिवर्तन किया। ईसाई धर्म प्रचारक भारतीय धर्म एवं समाज की मान्यताओं की खिल्ली उड़ा रहे थे।

वे भारतीय धर्म तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों का मजाक उड़ाकर भारतीयों को नीचा दिखाने का प्रयास कर रहे थे। यही नहीं अपित् आर्थिक लालच देकर भोले- भाले भारतीयों को ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित भी कर रहे थे।

आधुनिक काल मैं देवेन्द्रनाथ ठाकुर, केशवचन्द्र सेन, राजा राममोहन राय, ईश्वरच्द्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद आदि महापुरुपों ने सांस्कृतिक एवं सामाजिक रूप से भारतीय जनता को जाग्रत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

आधुनिक साहित्य के कुछ नए लक्षण:-

प्रेस की स्थापना:-


लेकिन यहां यह बताना ज़रूरी है कि अग्रेज़ी शासन का प्रभाव इससे पहले पड़ना शुरू हो चुका था। वे क्षेत्र जो पहले से ही अंग्रेजों के अधीन आ गये थे, वहाँ ऐसे परिवर्तन होने लगे थे जो एक नये और
आधूनिक भारत के निर्माण के सूचक बने ।

पुराने साहित्य से नये साहित्य का प्रधान अंतर यह है कि पुराने साहित्यकार की पुस्तकें प्रचारित होने के अवसर कम पाती थीं। वह सिर्फ राजाओं की कृपा, विद्वानों की गुणग्राहिता, विद्यार्थियों के अध्ययन में उपयोगिता, इत्यादि द्वारा ही संभभ हो पाती थी।

अनेक बातें उनके प्रचार की सफलता का निर्धारण करती थीं। प्रेस हो जाने के बाद पुस्तकों के प्रचारित होने का कार्य सहज हो गया और फिर प्रेस के पहले गद्य की बहुत उपयोगिता नहीं थी।

आधुनिक काल मैं प्रेस होने से उसकी उपयोगिता बढ़ गई और विविध विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं। वस्तूत: प्रेस ने साहित्य को प्रजातांत्रिक रूप दिया। समाचार पत्र, उपन्यास, आधुनिक ढंग के निबंध और कहानियाँ, सब प्रेस के प्रचार के बाद ही लिखी जाने लगीं अब साहित्य के केंद्र में कोई राजा या रईस नहीं रहा बल्कि अपने घरों में बैठी हुई असंख्य अज्ञात जनता आ गई।

इस प्रकार प्रेस ने साहित्य के प्रचार में, उसकी अभिवृद्धि में, और उसकी नई- नई शाखाओं के उत्पन्न करने में ही सहायता नहीं दी बल्कि उसकी दृष्टि के समूल परिवर्तन में भी योग दिया। और बाद के समय मैं यही धारा अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाप भारतीय रचनाकरों के लिए एक प्रधान अस्त्र के रूप मैं विद्यमान हुई।

नये उद्योगों की स्थापना:-

अंग्रेज और दूसरी कई यूरोपीय जातियाँ भारत से व्यापार करने के इरादे से यहाँ आई थीं । औद्योगिक क्रांति से पहले तक भारत कई मामलों में युरोप के देशों से उन्नत था और अठारहवीं सदी के मध्य तक भारत में बने हुए मालों का निर्यात ज्यादा होता था।

लेकिन उन्नीसर्वी सदी में आधुनिक काल के दौरान स्थिति में बदलाव आया। यूरोप में जो परिवर्तन हुए उसके कारण भारत अब उनके लिए कच्चा माल खरीदने और इंग्लैंड में बना माल बेचने का बड़ा बाज़ार हो गया, जिसके लिए उन्होंने बड़े ही योजनाबद्ध ढंग से भारत के परंपरागत उद्योगों को नष्ट किया और उसे कच्चा माल पैदा करने वाले एक पिछडे देश में बदल दिया।

ऐसा करने में उन्हें कामयाबी इसलिए मिल सकी क्योंकि तबतक वे देश के बड़े हिस्से पर अपना शासन स्थापित करने में सफल रहे थे।

आधुनिक शिक्षा:-

आधुनिक काल के दौर में उस आधुनिक शिक्षा का प्रसार हुआ जिसने राष्ट्रब्यापी और सुधारवादी आंदेोलनों पर गहरा असर डाला। भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रसार विदेशी ईसाई मिशनरियों, ब्रिटिश सरकार और प्रगतिशील भारतीयों के प्रयत्न से हुआ।

ब्रिटिश सरकार ने अपनी राजनीतिक, अआर्थिक और प्रशासनिक जरूरतों के चलते आधुनिक शिक्षा का प्रसार किया। मैकाले जैसे अंग्रेज शासकों का विचार था कि अंग्रेज़ी शिक्षा के द्वारा भारतीयों को पूर्णत: प्िचमी सभ्यता में रंगा जा सकेगा और उनहें सदा के लिए राजभक्त बनाया जा सकेगा।

लेकिन अग्रेज़ शासकों की यह इच्छा एक हद तक ही पूरी हुई। इस शिक्षा ने एक सीमा तक ही भारतीयों को पश्चिमी सभ्यता के विकुत रूपों में रंगा, उन्हें औंग्रेजों जैसा बनने की प्रेरणा भी दी। जिससे यह भारतवर्ष के विकास के लिए साधित हो सका।

गद्य साहित्य का विकास:-

आधुनिक काल के पूर्व गद्य का उल्लेख और महत्त्व नगण्य है। आधुनिक काल में गद्य का महत्त्व बढ़ गया। गद्य का संबंध वैचारिकता से है। आधुनिकता इस काल में गद्य में ही नहीं, पद्य में भी व्यक्त हुई है। भारतेंदु -युग के बाद की कविता पर गद्यात्मक दबाव है।

आजकल तो कविता की भाषा लगभग गद्य हो गई है। गद्यात्मकता का दबाव भारतेंदु -युग से ही प्रारंभ हो गया था। आधुनिक युग में निबंध, नाटक, उपन्यास, कहानी, रेखाचित्र, आलोचना आदि गद्य की विधाएँ हैं। रीतिकालीन कविता में रीति, लय, संगीतात्मकता इत्यादि पर ध्यान है।

आधुनिक कालीन साहित्य का विभाजन मुख्य रूप से कुछ इस प्रकार किया गया है::

भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, छायावादी युग, प्रगतिबादी, प्रयोगबादी और नई कविता

खड़ी बोली गद्य का विकास (Khadiboli gadya ka vikash):-


मुगल शासन काल के अतिम दौर में खड़ी बोली गद्य को फ़ारसी रंग में ढालने का प्रयास हुआ। यह स्वाभाविक था। सामान्य से ऊपर उठा हुआ और उठने का आकांक्षी व्यक्त या समुदाय जीवन के अनेक क्षेत्रों में उच्च वर्ग का अनुकरण करता हैं।

भाषा से सामाजिक स्थिति को प्रकट करने का काम लिया जाता है। वस आजकल लोग बोलते समय बीच-बीच में अंग्रेजी शब्दों या वाक्यों का व्यवहार करते हैं, वैसे ही आधुनिक काल काल में लोग फ़ारसी का करते थे इससे खड़ी बोली की देशी शैली के समानांतर फ़ारसी शब्दावली वाली उर्दू शैली का जन्म हुआ। उर्दू शैली के विकास का कारण धार्मिक सांस्कृतिक और प्रशासनिक था।

1803 में फ़ोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता के हिदो-उदू अध्यापक गिलक्राइस्ट ने हिंदी और उर्द, दोनों में गद्य पुस्तकें तैयार कराई। इसी कॉलेज लल्लूलाल ने खड़ी बोली गद्य में प्रेमसागर और सदल मिश्र ने नासिकेत्तोपा लिखा।

इसके दो वर्ष पूर्व मुंशी सदासुखलाल ने ज्ञानोपदेश की एक पुस्तक और उर्दू के प्रसिद्ध कवि इंशाअल्ला खाँ ने रानी केतकी की कहानी लिखी थी। ये काम 1803 के आसपास हुआ। ये तीनों आधुनिक खड़ी बोली के प्रारंभिक् लेखक माने जाते हैं। इनका संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है।

मुशी सदासुखलाल ‘नियाज़्’ (Munshi sada sukhlaal):-

ये दिल्ली के रहने वाले थे। ये उर्द्- फ़ारसी के भी लेखक थे। इन्होंने सुखसागर लिखा और एक ज्ञानोपदेश वाली पुस्तक लिखी जिसकी भाषा सहज एवं प्रवाहमयी है। इनकी खड़ी बोली के गद्य पर कथा-वाचकों तथा पंडितों की शैली का प्रभाव है। कितु इससे उनकी भाषा की सहजता नष्ट नहीं हुई।

इंशाअल्ला खाँ (Inshaalaah khaan):-

इंशाअल्ला खों उदू के प्रसिद्ध कवि थे। इन्होंने उदयभान चरित या रानी केतकी की कहानी लिखी। इनको भाषा चटकीली और मुहावरेदार है। उन दिनें किस्सागोई की कला काफ़ी प्रचलित थी। इंशाअल्ला खाँ के गद्य पर इस शैली का प्रभाव है।

भाषा तो इनकी नगरों की है, कितु शैली अलंकृत या चुलबुली है। बीच-बीच में पद्य जैसी तुकबंदी उन दिनों के उर्द् गद्य लेखन में मिलती है। वह लल्लूलाल के यहाँ भी है और इंशाअल्ला खाँ के यहाँ भी।

लल्लूलाल जी (Lallulaal ji):-

लल्लूलाल ने खड़ी बोली गद्य में प्रेमसागर लिखा। अरबी-फ़ारसी के शब्दों के इन्होंने अपने गद्य में बहिष्कार किया। भाषा की सजावट प्रेमसागर में पूरी विरामों पर तुकबंदी के अतिरिक्त वर्णनों में वाक्य भी बड़े-बड़े आए 6 अनुप्रास भी यत्र तत्र है। मुहावरों का प्रयोग कम है।

सदल मिश्र जी (Sadal mishra ji):-

इन्होंने भी लल्लूलाल जी की तरह तरह फोर्ट विलियम कॉलेज के लिए खड़ी बोली गद्य की पुस्तक तैयार की थी। पुस्तक का नाम है नासिकेतोपाख्यान था। इसकी भाषा में पूर्वीपन है। ये आरा (बिहार) के रहने वाले थे। इनकी भाषा बहुत कुछ व्यवहारोपयोगी है।

स्वामी दयानंद सरस्वती(Swami dayanand saraswati):-

स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्यसमाज की स्थापना की। वर्षों पूर्व से वैदिक धर्म का प्रचार करते थे। उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश परिमार्जित हिंदी गद्य में लिखा।

स्वामी जी गुजराती भाषी थे। इसके पहले हम देख चके हैं कि बंगाल में राजा राममोहन राय ने हिंदी गद्य का उपयोग किया धा और इसी प्रकार पश्चमोत्तर भारत के गुजराती भाषी स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदी गद्य को अपने मत-प्रचार का साधन बनाया।

खडी बोली हिंदी गद्य विकसित हो रहा था। यह विकास नई चेतना के प्रसार का माध्यम भी था। इस चेतना का दबाव केवल गद्य नहीं, पूरे साहित्य पर पड़ना था। हिंदी साहित्य में इस नई चेतना का प्रवेश भारतेंद-युग में हुआ।

भारतेंदु-युग का साहित्य( 1850-1900) (Bharatendu yug):-

भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी साहित्य में आधुनिकता का प्रवर्तक साहित्यकार माना जाता है। नई चेतना से युक्त होने के कारण हिंदी साहित्य रीतिबद्धता से मुक्त हुआ। वे कौन-सी परिस्थितियाँ थीं जिनके कारण आधुनिकता का जन्म हुआ और इसका ऐतिहासिक – सामाजिक आधार क्या था वह नीचे आलोचना किया जायेगा।

भारत में अठारहवीं सदी के उत्तरा्ई्ध से अंग्रेजों का वर्चस्व हो गया। उन्होंने भारत के उहद्योगों को नष्ट कर दिया। ज़मीन को अपने कब्जे में लेकर किसानों पर लगान का बोझ बहुत बढ़ा दिया। माल को ढोने और सेना को सुदूर प्रदेशों तक जल्दी पहुँचाने के लिए रेल-व्यवस्था कायम की।

देशी नरेशों से समझौता किया और उनके शोषण का समर्थन किया। लुटेरी व्यापार-नीति से भारतीया अर्थ-व्यवस्था के विकास को रोका। इसका परिणाम 1857 का सिपाही विद्रोह था जिसमे किसानों ने हिस्सा लिया था।

भारतेंदु और उनके मंडल के लेखकों पर इन स्थितियाों का प्रभाव है। वे देश की दशा पर द्रवित होते हैं। उनके साहित्य में नई विषयवस्तु जुड़ गई है। यह नई विषयवस्तु देश-प्रेम है जो देश के यथार्थ-बोध पर अधारित है। इसमें भाषा समाजसुधार, पाखंड-उद्घाटन बहुत कुछ है, लेकिन इसकी मुख्य विषयवस्तु आर्धिक है।

वे आर्धिक विषमता का वर्णन-चित्रण जिस स्वर से करते हैं, वह सिपाही विद्रोह के नेताओं के स्वर से वहुत मिलता-जुलता है। भारतेंदु ने आर्थिक विषमता, स्वाधीनता, नारी-शिक्षा, धार्मिक पाखंड, हिंदी भाषा, सब पर अपने विचार प्रकट किए।

उनका व्यक्तित्व आंदोलनकारी था। वे व्यक्ति नहीं, संस्था थे। इसीलिए वे नई चेतना के प्रतिनिधि या प्रतीक साहित्यकार बन सके। उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नए मार्ग पर खड़ा किया। वे साहित्य के नए युग के प्रवर्तक हुए।

19 बीं सदी में आगे-पीछे पूरे देश में नवजागरण की लहर दौड़ जाती है। इस नवजागरण पर दशा पारास्थातयों और यूरोप से संपर्क, दोनों का प्रभाव है।

हिंदी क्षेत्र के नवजागरण पर मुख्यत: अंग्रेज़्ों के शोषण, 1857 के सिपाही विद्रोह और राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस आदि का प्रभाव है और भारतेंदु इस नवजागरण के अग्रदूत थे। उनके समानधर्मा साहित्यकारों की रचनाओं से हिंदी साहित्य में आधुनिकता का प्रवर्तन हुआ। इस आधुनिकता के प्रधानत: तीन लक्षण हैं-

  1. वह यथार्थ-बोध पर आधारित है। साहित्य काव्य-रूढ़ियों, कवि-शिक्षा या किसी निर्दिष्ट प्रणाली पर न चलकर अपनी संवेदना आसपास के जीवन से ग्रहण करने लगा।
  2. यथार्थ-बोध का वास्तविक अर्थ यथार्थ की विषमता का बोध होता है। इसीलिए इस युग के साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि विषमताओं एवं विरूपताओं का उद्घाटन किया।
  3. विषमता-बोध से उत्पन्न संवेदना में पीड़ा या छटपटाहट भी है। रचनाकार अपने साहित्य से इस विषमता को पाटने का उद्देश्य व्यंजित करने लगा।

इसलिए अधुनिक साहित्य रस -मग्न करने के स्थान पर आनंद के साथ कर्म की प्रेरणा भी देने लगा। साहित्य सामाजिक चेतना और उत्तरदायित्व से युक्त हो गया। रीतिवादी साहित्य से आधुनिक साहित्य की यही विशेषता थी, जिसका प्रवर्तन भारतेंदु ने किया।

नीचे भारतेंदु युग के कुछ प्रमुख रचनाकारों के विषय मैं संक्षेप मैं आलोचना किया जा रहा है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (Bharatendu harishchandra):-

इतिहास- प्रसिद्ध सेठ अमीचन्द की वंश-परंपरा में उत्पन्न हुए थे। उनके पिता बाबू गोपालचन्द्र ‘गिरिधरदास’ भी अपने समय के प्रसिद्ध कवि थे। हरिश्चन्द्र ने बाल्यकाल में अपनी काव्य प्रतिभा का लोहा मनवा लिया था। उस समय के साहित्यकारों ने उन्हें ‘भारतेन्दु’ की उपाधि से सम्मानित किया।

कवि होने के साथ भारतेन्द् पत्रकार भी थे – ‘कविवचनस्धा और ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रका’ पत्रिका का भी उन्होंने सम्पादन किया। उनकी काव्य-कृतियों की संख्या 70 है, जिनमें प्रेम –मालिका, ‘प्रेम- सरोवर’, ‘गीत गोविन्दानन्द’, ‘वर्षा-विनोद’, ‘विनय- प्रेम – पचासा, ‘प्रेम-फुलवारी’, ‘वेणु- गीति’ आदि विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने हिन्दी, ब्रज और उर्द् शैली में भी कविताएँ लिखी हैं।

इनकी कविताओं में जहाँ प्राचीन परंपरागत विशेषताएँ मिलती हैं वहीं नवीन काव्यधारा का भी प्रवर्तन किया है। राजभक्त होते हुए भी वे एक सच्चे देशभक्त थे। भारतेन्दु कविता के क्षेत्र में वे नवयुग के अग्रदूत थे।

बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ :-

भारतेन्दु-मण्डल के कवियों में ‘प्रेमघन (1855-1923) का प्रमुख स्थान है। उनका जन्म उत्तरप्रदेश के जिला मिर्जापुर के एक सम्पन्न ब्राहमण कुल में हुआ। भारतेन्द् की भाँति उन्होंने भी पद्य और गद्य दोनों में विपुल साहित्य – रचना की है। साप्ताहिक ‘नागरी नीरद’ और मासिक ‘आनन्दकादम्बिनी‘ के सम्पादन द्वारा उन्होंने तत्कालीन पत्रकारिता को भी नई दिशा दी।

‘जीर्ण जनपद’ आनन्द अरुणोदय’, ‘हार्दिक हर्षादर्श,. ‘मयंक-महिमा’, ‘अलौकिक लीला, ‘वरषा-बिन्दु’ आदि उनकी प्रसिद्ध काव्य- कृतियाँ हैं, जो अन्य रचनाओं के साथ ‘प्रेमघन-सर्वस्व के प्रथम भाग में संकलित हैं। इनकी कविताओं में शृंगारिकता के साथ-साथ जातीयता, समाज-दशा और देश-प्रेम की भी अभिव्यक्ति हुई है।

यद्यपि उन्होंने राजभक्ति संबंधी कविताओं की भी रचना की है, तथापि राष्ट्रीय भावना की नई लहर भी उनकी कविताओं में मिलती है।

प्रतापनारायण मिश्र(Pratap narayana mishra) :-

‘ब्राहमण’ के संपादक प्रतापनारायण मिश्र (1856-1894) का जन्म बैजेगांव, जिला उन्नाव में हुआ था। वे ज्योतिष का पैतृक व्यवसाय न अपनाकर साहित्य – रचना की ओर प्रवृत्त हुए।

कविता, निबंध और नाटक उनके मुख्य रचना- क्षेत्र हैं। ‘प्रेमपुष्पावली’, ‘मन की लहर’, ‘लोकोक्ति-शतक’, ‘तृप्यन्ताम्’ और ‘श्रृंगार विलास’ उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।

‘प्रताप -लहरी’ उनकी प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है। इन्होंने प्रेम की तुलना में समसामयिक देश-दशा और राजनीतिक चेतना का वर्णन अधिक मनोयोग से किया है।

जगन्मोहनरसिंह ठाकुर जगन्मोहनसिंह :-

मध्यप्रदेश की विजय – राघवगढ़ रियासत के राजकुमार थे। उन्होंने काशी में संस्कृत और अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की। शृंगार वर्णन और प्रकृति-सौंदर्य की अवतारणा उनकी मुख्य काव्य – प्रवृतियाँ हैं।

‘प्रेमसम्पत्तिलता’, “श्यामालता, “श्यामा- सरोजिनी और ‘देवयानी‘ इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। जगन्मोहनसिंह में काव्य-रचना की स्वाभाविक प्रतिभा थी और वे भावुक मनोवृत्ति के कवि थे। कल्पना-लालित्य, भावुकता, चित्र-शैली और सरस-मधुर ब्रजभाषा उनकी रचनाओं की अन्यतम विशेषताएं है।

अम्बिकादत व्यास –

काशी-निवासी कविवर दुर्गादत्त व्यास के पुत्र अम्बिकादत्त व्यास (1858-1900) सुकवि थे। वे संस्कृत और हिंदी के अच्छे विद्वान थे और दोनों भाषाओं में साहित्य-रचना करते थे। ये ‘पीयूष-प्रवाह’ पत्रिका का भी सम्पादन करते थे। ‘पावस पचासा’, ‘सुकवि सतसई’, और हो हो होरी‘ इनकी उल्लेखनीय रचनाएँ हैं ।

इनकी रचना ललित ब्रजभाषा में हुई है। उन्होंने खड़ी बोली में ‘कस-वध’ (अपूरण) शीर्षक प्रबंधकाव्य की रचना भी आरम्भ की थी, किन्तु इसके केवल तीन सर्ग ही लिखे जा सके। इन्होंने समस्थापूर्तियाँ भी लिखी हैं।

उनकी भारतीय संस्कृति में गहन अस्था थी। उन्होंने सरल और कोमल- कान्त पदावली के प्रयोग को वरीयता दी।

द्विवेदी युग (Dwivedi yug):-

इस युग को जागरण-सुधार- काल भी कहते हैं। इस काल के पथ प्रदर्शक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के नाम पर इस युग को द्विवेदी युग कहा गया।

1858 के विद्रोह के पश्चात् महारानी विक्टोरिया के सहृदयतापूर्ण घोषणा-पत्र ने भारतीयों में कुछ आशा जगाई थी किन्तु बाद में वे आशाएँ खरी नहीं उतरीं। फलस्वरूप जनता में असंतोष और क्षोभ की आग भड़कती चली गई।

आर्थिक दृष्टि से भी अंग्रेजों की नीति भारत के लिए अहितकर थी। यहाँ से कच्चा माल बाहर जाता था और वहाँ के बने माल की बिकाऊ भारत में होती थी। देश का धन निरन्तर बाहर जाने से भारत निर्धन हो गया। इस कारण असंतोष फैला। पूरे भारत में आंदोलन होने लगे।

देश को गोपालचन्द्र गोखले तथा बालगंगाधर तिलक जैसे नेता मिले। भारतिन्दु युग में जहाँ भारत की दुर्दशा का दुःख प्रकट करके चुप रह गए वहाँ द्विवेदीकालीन कवि-मनीषियों ने देश की दुर्दशा के चित्रण के साथ -साथ देशवासियों को स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रेरणा भी दी।

काव्य रचना :-

यद्यपि भारतेन्दु काल में ब्रजभाषा के अतिरिक्त खड़ी बोली में भी रचनाएँ की जाने लगी थी। किंतु उसे काव्योपयुक्त नहीं समझा गया। सुयोग से इसी समय जनता की रुचि एवं आकाक्षताओं के पारखी तथा साहित्य के दिशा-निदेशक आचार्य के रूप में पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी का प्रादुर्भाव हुआ।

जून 1900 की ‘सरस्वती‘ में प्रकाशित ‘हे कविते’ शीर्षक अपनी कविता में उन्होंने जनरुचि का प्रतिनिधित्व करते हुए ही ब्रजभाषा के प्रयोग पर क्षोभ प्रकट किया था।

सन् 1903 में आचार्य द्विवेदी ‘सरस्वती’ के सम्पादक बने। उन्होंने नायिकाभेद को छोड़कर विविध विषयों पर कविताएँ लिखने के लिए कवियों को प्रेरित किया। उनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन के परिणामस्वरूप कई कवि आगे आए जिनमें मैथिलीशरण गुप्त, गोपालशरण सिंह, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही, लोचनप्रसाद पाण्डेय प्रमुख हैं।

कुछ कवियों ने भी अपना रास्ता बदला जो परंपरागत ब्रज में अपनी कविताएँ लिख रहे थे, जिनमें अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध’, नाथूराम शर्मा शंकर तथा राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ प्रमुख हैं। इस युग की कविता में विषय की दृष्टि से विविधिता और नवीनता आई।

द्विवेदी जी के प्रयत्नों से खड़ीबोली काव्य की मुख्य भाषा बन गई। द्विवेदी जी भाषा की शुद्धि एवं वर्तनी की एकरूपता के प्रबल समर्थक थे। अतएव उन्होंने काव्य-भाषा का व्याकरण की दृष्टि से परिमार्जित किया।

इन्हें भी देखें :-

कबीरदास का जीवन परिचय

प्रमुख कवि:-

नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ -:

इनका जन्म हरदुआगंज, जिला अलीगढ़ में हुआ था। ये हिंदी, उर्दू, फारसी तथा संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे। इन्होंने ‘सरस्वती’ के मुख्य कवियों में स्थान पाया। देश-प्रेम, स्वदेशी- प्रयोग, समाज-सुधार, हिंदी-अनुराग, तथा विधवाओं तथा अछूतोद्धार इनकी कविताओं के मुख्य विषय रहे।

सामाजिक कुरीतियों, आडम्बरों, अंधविश्वासों, बाल-विवाह आदि पर इन्होंने बड़े तीखे व्यंग्य किए। अनुरागरत्न’, ‘शंकर-सरोज, ‘गर्भरण्डा-रहस्य तथा ‘शंकर-सर्वस्व’ इनके प्रमुख काव्य ग्रंथ हैं।

श्रीधर पाठक(Sridhar pathak) :-

इनका जन्म आगरा जिले के जोंघरी गाँव में हुआ था। खड़ीबोली के तो ये प्रथम समर्थ कवि भी कहे जा सकते हैं। इन्होंने ‘सरस्वती’ से पूर्व ही खड़ीबोली में कविताएँ लिखकर अपनी स्वच्छन्द वृत्ति का परिचय दिया था। देश-प्रेम, समाजसुधार तथा प्रकृति चित्रण इनकी कविता के मुख्य विषय रहे।

इनका सर्वाधिक सफलता प्रकृति चित्रण में मिली। इन्होंने रूढ़ि का परित्याग कर प्रकृति का स्वतंत्र रूप में मनोहारी चित्रण किया है। पाठक जी कुशल अनुवादक भी थे।

इन्होंने कालिदास की ‘ऋतुसंहार और गोल्डसिमिथ की ‘हरमिट’, ‘डेजर्टेड विलेज‘ तथा ‘द ट्रैवेलर’ का ‘एकान्तवासी योगी’, ‘ऊजड़ ग्राम’ और ‘श्रान्त पथिक’ शीर्षक से काव्यानुवाद किया। इनकी मौलिक कृतियों में ‘वनाष्टक, ‘कश्मीर सुषमा’, ‘देहरादून और ‘भारत गीत’ विशेष उल्लेखनीय हैं ।

महावीर प्रसाद द्विवेदी (Mhavir prashad dwivedi) :-

इनका जन्म जिला रायबरेली के दौलतपुर नामक ग्राम में हुआ था। इन्होंने रेलवे में नौकरी की किन्तु अधिकारियों के साथ कहासुनी होने पर नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। सन् 1903 में ये ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक बने और 1920 तक बड़े परिश्रम और लगन से यह कार्य करते रहे।

‘सरस्वती’ के संपादक के रूप में इन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य के उत्थान के लिए जो कार्य किया, वह चिरस्मरणीय रहेगा। ये कवि, आलोचक, निबंधकार, अनुवादक तथा सम्पादकाचार्य थे। इनके मौलिक गद्य-पद्य ग्रंथों की संख्या लगभग 80 है।

गद्य लेखन के क्षेत्र में इन्हें विशेष सफलता मिली “काव्य-मंजूषा, ‘सुमन, ‘कान्यकुब्ज-अबला – विलाप (मौलिक पद्य), ‘गंगालहरी’, ‘ऋतु-तरंगिणी, ‘कुमारसम्भवसार’ ( अनुदित ) द्विवेदी जी की उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। इनकी कविता सहज, सरल और प्रायः उद्देश्यपूर्ण होती थी।

अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (Ayodhya singh upadhyay):-

हरिऔध जी द्विवेदी युग के प्रख्यात कवि होने के साथ-साथ उपन्यासकार, आलोचक एवं इतिहासकार भी थे। इनका जन्म निजामाबाद, जिला आज़मगढ़ में हुआ था। 1923 में सरकारी नौकरी से अवकाश ग्रहण कर शेष जीवन साहित्य-सेवा को समर्पित कर दिया।

इनका काव्य ग्रंथों में ‘प्रियप्रवास, ‘पद्यप्रसून, ‘चुभते चौपदे’, चोखे चौपदे’, ‘बोलचाल’, ‘रसकलश तथा ‘वैदेही- वनवास प्रसिद्ध हैं। इनमें से ‘प्रियप्रवास खड़ीबोली में लिखा गया प्रथम महाकाव्य है। ‘प्रियप्रवास’ पर इन्हें हिंदी का सर्वोत्तम पुरस्कार ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्रदान किया गया।

मैथिलीशरण गुप्त (Maithili sharan gupt):-

इनका जन्म चिरगांव (झांसी) में हुआ था। ये द्विवेदी काल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि थे। द्विवेदी के स्नेह और प्रोत्साहन से इनकी काव्य-कला में निखार आया। इनकी प्रथम पुस्तक ‘रंग में भंग’ (1909) है किन्तु इनकी ख्याति का मूलाधार भारत-भारती’ है।

उत्तर-भारत में राष्ट्रीयता के प्रचार और प्रसार में ‘भारत-भारती’ के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। ‘भारत-भारती‘ ने हिंदी-मनीषियों में जाति और देश के प्रति गर्व और गौरव की भावनाएँ उत्पन्न की और तभी से ये राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात हुए।

ये रामभक्त कवि भी थे। ‘मानस के पश्चात् हिंदी में रामकाव्य का दूसरा स्तम्भ इनके द्वारा रचित
‘साकेत’ ही है। खड़ीबोली के स्वरूप -निर्धारण और विकास में इनका अन्यतम योगदान है।

गुप्त जी के प्रमुख काव्य ग्रंथ हैं ‘जयद्रथ वध (1910), भारत-भारती (1912 ). ‘पंचवटी’ ( 1925). झंकार’ (1929 ), “साकेत’ (1931), ‘यशोधरा’ (1932), ‘द्वापर (1936), ‘जयभारत (1952 ), ‘विष्णुप्रिया (1957) आदि। ‘प्लासी का युद्ध, ‘मेघनाद-वध’, ‘वृत्र-संहार, अदि इनके अनूदित काव्य हैं।

छायाबाद युग (1918-1936)(Chhayavaad yug):-

छायावाद का समय सन् 1918 से सन 1938 तक माना जा सकता है। रामचन्द्र शुक्ल ने छायावाद का आरंभ सन् 1918 से माना है। इस काल के आस -पास साहित्य में एक नए मोड़ का आरंभ हो गया था, जो पुरानी काव्य-पद्धति को छोड़कर एक नई पद्धति के निर्माण का सूचक था।

निराला की ‘जूही की कली (1916) और पंत की ‘पल्लव की कुछ कविताएँ सन् 1920 के आसपास आ चुकी थीं। छायावाद के लगभग 20 सालों में विपुल साहित्य रचा गया।

एक ओर प्रसाद, निराला आदि कवि भी इसी युग में हुए जिनका प्रधान लक्ष्य साहित्य- साधना था और दूसरी ओर माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि रचनाकार भी हुए जो अपने युग के आंदोलनों में सक्रिय भाग लेते थे और कविताएँ भी करते थे। इनकी काव्य साधना जीवन को केंद्र बनाकर चलती थी।

इनके अतिरिक्त बच्चन, नरेन्द्र शर्मा और अंचल की अनेक रचनाएँ भी इस युग में रची गई। छायावाद के इस काल में कवित्व की दृष्टि से अनुभूति की तीव्रता, सूक्ष्मता और अभिव्यंजना-शिल्प के उत्कर्ष की दृष्टि से यह काव्य श्रेष्ठ है।

इस काल के काव्य में प्राचीन भारतीय परंपरा के जीवन्त तत्वों का ही समावेश नहीं हुआ, वरन् उसने परवर्ती काव्य के विकास को भी काफी प्रभावित किया। छायावादी काव्य में ही अपने युग के जन-जीवन की समग्रता की अभिव्यक्ति मिलती है- यह काव्य पूर्ण और सर्वागीण जीवन के उच्चतम आदर्श को व्यक्त करने का प्रयास करता है। छायावाद का युग भारत के अस्मिता की खोज का युग है।

इस युग की एक प्रमुख प्रवृत्ति है – राष्ट्रीय और सांस्कृतिक काव्य का सृजन। इस राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा के मुख्य कवि हैं। माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन, सुभद्राकुमारी चौहान आदि।

माखनलाल चतुर्वेदी (1889-1968) का जन्म मध्यप्रदेश के जिला होशंगाबाद के गाँव बाबई में हुआ। इन्होंने ‘प्रभा’, ‘प्रताप’ तथा ‘कर्मवीर’ पत्रिकाओं का संपादन किया।

इनका उपनाम ‘एकभारतीय आत्मा’ था। इनके कविता संग्रह ‘हिमकिरीटिनी’ और ‘हिमतरंगिनी’ हैं । इनकी रचनाओं में देश के प्रति गम्भीर प्रेम और देश-कल्याण के लिए आत्मोत्सर्ग की उत्कट भावना दिखाई देती है।पुष्प की अभिलाषा’ इनकी प्रसिद्ध कविता है।

प्रमुख कवि :-

सियारामशरण गुप्त :-

का जन्म उत्तरप्रदेश के जिला झाँसी के चिरगाँव नामक ग्राम में हुआ। ये मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई थे। ये समरसता और नम्रता की प्रतिमूर्ति थे।

इनकी पहली रचना सन् 1910 में ‘इन्दु’ पत्रिका में प्रकाशित हुई। ‘मौर्य विजय, ‘अनाथ, दूर्वादल, विषाद, ‘आ्रां, पाथेय, ‘मृण्मयी’, ‘बापू, ‘दैनिकी आदि इनके प्रसिद्ध काव्य संग्रह हैं। इनकी सभी रचनाओं पर अहिंसा, सत्य, करुणा, विश्वबन्धुत्व, शांति और गाँधीवादी मूल्यों का गहरा प्रभाव दिखाई देता है।

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ (Baalkrushn sharma):-

का जन्म ग्वालियर के भयाना गाँव में हुआ था। इन्होंने ‘प्रभा’ तथा ‘प्रताप’ पत्रिकाओं का भी संपादन किया। ‘कुंकुम’ (1939 ) इनका पहला कविता-संग्रह है। ‘उम्मिला’ काव्य इन्होंने (1934) में ही लिख लिया था किंतु उसका प्रकाशन 1975 ई. में हुआ।

इनके अन्य काव्य ग्रंथ हैं – ‘अपलक’, ‘रश्मिरेखा, ‘क्वासि’ तथा हम विषपायी जनम के। ‘नवीन’ जी की रचनाओं में प्रणय और राष्ट्रप्रेम दोनों भावों की उत्तम अभिव्यक्ति हुई है। ये स्वच्छदाता, प्रेम और मस्ती के कवि के रूप में अधिक जाने जाते हैं।

सुभद्राकुमारी चौहान (Subhadra kumari chauhaan):-

का जन्म प्रयाग के निहालपुर गाँव में हुआ था। ये शिक्षा अधूरी छोड़ कर स्वतंत्रता के आंदोलन में कूद पड़ीं। स्वतंत्रता आंदोलन के समय ये कई बार जेल भी गई।

इनकी कविताएँ ‘त्रिधारा’ और ‘मुकुल’ में संकलित हैं। इनकी कविता ‘झांसी की रानी’ तो सामान्य जन-जन में बहुत प्रसिद्ध हुई। इन्होंने राष्ट्रप्रेम के साथ- साथ पारिवारिक परिदृश्य पर भी रचनाएँ लिखीं।

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला (Suryakant tripathi niraala):-

का जन्म महिषादल स्टेट मेदिनीपुरी (बंगाल) में बसंत पंचमी को हुआ। इनका जीवन अनेक अभावों एवं विपत्तियों से भरा रहा। ये अपनी धुन के पक्के और फक्कड़ स्वभाव के व्यक्ति थे।

इनकी रचनाएँ हैं – ‘जूही की कली’ (1916), ‘अनामिका’ (1923), ‘परिमल’ (1930) ‘गीतिका’ (1936), ‘तुलसीदास’ (1937)। इन्होंने ‘मतवाला’ और ‘समन्वय’ का संपादन भी किया। इनकी लम्बी कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ इनकी ही नहीं वरन् संपूर्ण छायावादी काव्य की एक उत्कृष्ट उपलब्धि है।

जयशंकर प्रसाद (Jayshankar prashad):-

का जन्म काशी के एक सम्पन्न घराने में हुआ था, जो ‘सुंघनी साहु’ के नाम से प्रसिद्ध था। कवि होने के साथ- साथ ये गंभीर चिंतक भी थे।

‘कामायनी’ (1935) इनका प्रसिद्ध महाकाव्य है। इनकी काव्य रचनाएँ हैं ‘वनमिलन (1909), ‘प्रेमराज्य’ (1909 ), अयोध्या का उद्धार’ (1910 ), ‘शोकोच्छ्वास’ (1910), ‘वभ्रुवाहन’ (1911), ‘कानन कुसुम (1913), “प्रेम पथिक’ (1913 ), ‘करुणालय’ (1913 ), ‘महाराणा का महत्त्व (1914), ‘झरना’ (1918), ‘आंसू (1924). ‘लहर’ (1933)।

इनकी कविताओं में स्वार्थ का निषेध कर भारतीय समाज और विश्व के कल्याण की प्रतिष्ठा की गई है।

सुमित्रानन्दन पंत (Sumitranandan pant):-

का जन्म उत्तरप्रदेश के जिला उल्मोड़ा के कौसानी ग्राम में हुआ था। बचपन में मात्स्नेह से वंचित हुए बालक पंत का मन अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा की ओर आकृष्ट हुआ। पंत की पहली कविता ‘गिरजे का घण्टा’ (1916) है।

अनके काव्य ग्रंथ हैं – ‘उच्छवास (1920 ), ‘ग्रन्थि’ (1920 ), वीणा (1927), ‘पल्लव’ (1928), और ‘गुंजन (1932)। ‘वीणा’ इनका अंतिम छायावादी काव्य-संग्रह कहा जा सकता है।

पन्त के का्य में प्रकृति के मनोरम रूपों का मधुर और सरस चित्रण मिलता है।

महादेवी वर्मा (Mahadevi verma):-

का जन्म उत्तरप्रदेश के फरुखाबाद में हुआ। इनकी काव्य संग्रह हैं – ‘नीहार (1930), ‘रश्मि’ (1932), ‘नीरजा (1935) और ‘सान्ध्यगीत (1936)। ‘यामा (1940) में ‘नीहार’, ‘रश्मि’, ‘नीरजा’ और ‘सान्ध्यगीत‘ के सभी गीतों का संग्रह है।

प्रगतिवाद युग (Pragativaad yug):-

जो काव्य माक्सवादी दर्शन को सामाजिक चेतना और भावबोध को अपना लक्ष्य बनाकर चला उसे प्रगतिवाद कहा गया। इसके विकास में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिथतियाँ तो सहायक हुई साथ ही छायावाद की वायवी काव्यधारा भी इसमें सहायक सिद्ध हुई।

उस समय राजनीतिक दासता देश में एक ओर पूंजीवाद और सामन्तवाद की शोषक शक्तियाँ अपना जाल फैला रही थीं, दूसरी ओर जन-सामान्य के लिए अपार भयावह गरीबी, अशिक्षा, असुविधा और अपमान की सृष्टि कर रही थीं।

युद्ध के दबाव में जनता और भी आक्रांत हो रही थी। जगती हुई उग्र जन-चेतना, रूस में स्थापित समाजवाद तथा पश्चिम के अन्य देशों में प्रचारित साम्यवाद के कारण भारत में 1935 ई. के आस -पास साम्यवादी आन्दोलन उठने लगा।

सन् 1935 ई. में एम. फार्ट्टर के सभापतित्व में पेरिस में प्रोगेसिव राइटर्स एसोसियेशन’ नामक अन्तर्राष्रीय संस्था का प्रथम अधिवेशन हुआ। भारत में भी 1936 ई. में इस संस्था की एक शाखा खुली और प्रेमचंद की अध्यक्षता में लखनऊ में प्रथम अधिवेशन हुआ।

प्रगतिवाद के प्रमुख कवि और रचनाएँ इस प्रकार हैं – ‘युगवाणी’, ‘ग्राम्या’ (पंत), ‘कुकुरमुत्ता’ (निराला), ‘युग की गंगा (केदारनाथ अग्रवाल), ‘युगधारा (नागार्जुन), धरती’ (त्रिलोचन), ‘जीवन के गान’, ‘प्रलय सृजन (शिवमंगलसिंह सुमन), ‘अजिय खंडहर’, ‘पिघलते पत्थर’, ‘मेधावी’ (रांघेय राघव), ‘मुक्तिमार्ग, ‘जागते रहो (भारतभूषण अग्रवाल)

निराला के गीत छायावाद से अलग न हटकर उसकी सम्भावनाओं से निर्मित हैं। उनमें एक बहुत बड़ी शक्ति का विकास होता है, वह है -लोकोन्मुखता।

निराला जी व्यक्तिगत प्रणय के ही गीत न गाकर लोक-जीवन के सुख-दुःख को, यातना और संघर्ष को गहराई से उभारते हैं। निराला जी ने छायावाद से एकदम हटकर प्रगतिशील कविताएँ लिखीं तथा छायावादी कविताओं से हटकर लोकपरक कविताएँ लिखीं।

इनकी प्रगतिवादी कविताओं में ‘कुकुरमुत्ता, ‘गर्म पकौड़ी’, ‘प्रेम-संगीत, ‘रानी और कानी’, ‘खजोहरा’, ‘मास्को डायलाग्य’, ‘स्फटिक शिला’, और ‘नये पत्ते प्रमुख है। सुमित्रानन्दन पंत ने सन् 1936 ई. में ‘युगान्त की घोषणा कर 1939 ई. में ‘युगवाणी’ और सन 1940 में ‘ग्राम्या’ लिखी। पंत ने माक्सवादी दर्शन को चिन्तन के स्तर पर स्वीकार किया।

केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 9 जुलाई सन् 1911 को कमासिन, जिला बांदा में हुआ। ये प्रगतिवादी वर्ग के सशक्त कवि हैं। ‘माझी न बजाओ वंशी’, ‘बसन्ती हवा’ आदि प्रतिनिधि कविताएँ ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ में संगृहीत हैं। रामविलास शर्मा का जन्म 1912 में झांसी में हुआ।

ये प्रख्यात प्रगतिवादी समीक्षक हैं। ये प्रगतिशील लेखक संघ के मंत्री तथा हंस’ के सम्पादक भी रहे।

नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र है। इनका जन्म 1910 में तरौनी (दरभंगा) में हुआ था। ‘बादल को घिरते देखा, ‘पाषाणी, ‘चन्दना, ‘रवीन्द्र के प्रति’, ‘सिन्दूर तिलकित भाल’, ‘तुम्हारी दंतुरित मुस्कान’ आदि कविताएँ इनकी उत्तम प्रगतिवादी कविताएँ हैं।

इन्हें भी देखें :-

सूरदास का जीवन परिचय

प्रयोगवाद युग (Prayogvaad yug):-

हिंदी काळ्य में ‘प्रयोगवाद’ का प्रारंभ सन् 1943 में अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ के प्रकाशन से माना जाता है। जो कविताएँ नए बोध, संवेदनाओं तथा शिल्पगत चमत्कारों के साथ सामने आई उन कविताओं के लिए ‘प्रयोगवाद’ शब्द रूढ़ हो गया।

वैसे ‘प्रयोगवाद’ शब्द भ्रामक है।इससे यह आशय कदापि नहीं निकलता कि कविताओं में नए-नए प्रयोग करना ही कवियों का प्रमुख उद्देश्य है। अंज्ञेय जी ने प्रयोगवाद को स्पष्ट करते हुए कहा है “प्रयोग अपने आप में इष्टनहीं है, वरन वह साधन है; दोहरा साधन है।

एक तो वह उस सत्य को जानने का साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है..दुसरे वह उस प्रेषण-क्रिया को और उसके साधनों को जानने का साधन है।” इस समय के कवियों के दृष्टिकोण और कथ्य एक ही प्रकार के नहीं हैं। प्रयोगवादी कविताओं में हासोन्मुख मध्यवर्गीय समाज के जीवन का चित्रण है।

  1. प्रथम ‘तार सप्तक ( 1943 ) के 7 कवि नेमिचन्द जैन, गजानन माधव मुक्तिबोध, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथ्र, रामविलास शर्मा तथा अज्ञेय हैं।
  2. द्वितीय ‘तार सप्तक’ (1951) के 7 कवि भवानीप्रसाद मिश्र, शकुन्तला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती हैं।

अज्ञेय के सम्पादकत्व में ही तीसरा ‘तार सप्तक’ (1959) निकला, जिसके कवि हैं – प्रयागनारायण त्रिपाठी, कुंवर नारायण, कीर्ति चौधरी, केदारनाथ सिंह, मदन वात्स्यायन, विजयदेवनारायण साही, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना।प्रयोगवादी कवि यथार्थवादी हैं।

वे भावुकता के स्थान पर ठोस बौद्धिकता को स्वीकार करते हैं। वे कवि मध्यवर्गीय व्यक्ति के जीवन की समस्त जड़ता, कुण्ठा, अनास्था, पराजय और मानसिक संघर्ष के सत्य को बड़ी बौद्धिकता के साथ उदघाटित करते हैं।

छायावादी कवियों की तुलना में प्रयोगवादी धारा के कवियों ने दमित यौन- वासना के नग्न रूप को प्रस्तुत किया।

नई कविता (Nai kavita):-


प्रयोगवाद का विकास ही कालान्तर में ‘नई कविता के रूप में हुआ। वस्तुतः प्रयोगवाद और नई कविता में कोई सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती। बहुत से कवि जो पहले प्रयोगवादी रहे, बाद में नई कविता के प्रमृख हस्ताक्षर बन गए।

इस प्रकार ये दोनों एक ही काव्यधारा के विकास की दो अवस्थाएँ हैं। सन 1943 ई. से 1953 ई. तक की कविताओं में जो नवीन प्रयोग हुए, नई कविता उन्हीं का परिणाम है। 1943 से 1953 तक की कविता को प्रयोगवादी एवं 1953 के बाद की कविता को नई कविता की संज्ञा दी जा सकती है।

नई कविता की पहली विशेषता जीवन के प्रति उसकी आस्था है। इन कविताओं में आज की क्षणवार्दी और लघु-मानववादी दृष्टि जीवन-मूल्यों के प्रति नकारात्मक नहीं, सकारात्मक स्वीकृति है। नई कविता में जीवन को पूर्णरूप से स्वीकार करके उसे भोगने की लालसा दिखाई देती है।

अनुभूति की सच्चाई नई कविता में दिखाई देती है। समाज की अनुभूति कवि की अनुभूति बनकर ही कविता में व्यक्त हुई है। नई कविता जीवन के एक-एक क्षण को सत्य मानती है और उस सत्य को पूरी हार्दिकता और पूरी चेतना से भोगने का समर्थन करती है।

नई कविता में जीवन-मूल्यों की फिर से नए दृष्टिकोण से व्याख्या की गई है। नई कविता में व्यंग्य के रूप में पुराने मूल्यों को अस्वीकार किया गया है।

लोक- सम्पृक्ति नई कविता की खास विशेषता है। वह सहज लोक-जीवन के करीब पहुँचने का प्रयत्न करती है। कुल मिलाकर नई कविता में नवीनता, बौद्धिकता, अतिशय वैयक्तिकता, क्षणवादिता, भोग एवं वासना, यथार्थवादिता, आधुनिक युग बोध, प्रणयानुभूति, लोक संस्कृति, नया शिल्य विधान आदि विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं।

अंतिम कुछ शब्द :-

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इन्हें भी देखें :-

  1. हिन्दी साहित्य का इतिहास, कालबिभाजन, नामकरण और चार युग
  2. आदिकाल की संपूर्ण जानकारी
  3. सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य की सम्पूर्ण जानकारी
  4. लौकिक साहित्य और रासो साहित्य की सम्पूर्ण जानकारी
  5. भक्तिकाल की संपूर्ण जानकारी
  6. रीतिकाल की सम्पूर्ण जानकारी
  7. कबीरदास का जीवन परिचय
  8. सूरदास का जीवन परिचय

Wikipedia Page:- आधुनिक काल

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