आदिकाल की संपूर्ण जानकारी (Aadikaal Ki Sampurn Jaankaari)

आदिकाल की संपूर्ण जानकारी (Aadikaal Ki Sampurn Jaankaari) :

हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को आदिकाल कहा जाता है। आदिकाल के साहित्य को हिन्दी साहित्य के आरंभ का श्रेय दिया जाता है, क्योंकि अपभ्रंश भाषा के काब्य रचनाओं से आगे बढ़ कर हिन्दी भाषा मैं काव्य रचना का आरंभ होने का यही समय था माना जाता है।

कोई कोई इसे चारण काल, संधि काल और वीरगाथा काल भी कहते है। हिन्दी साहित्य के इस रचना समय को आदिकाल डॉ. हजारि प्रसाद द्विवेदी जी ने काहा है।

इस पोस्ट मैं हम आदिकाल, आदिकाल के सीमा निर्धारण, आदिकाल के नामकरण, सिद्ध साहित्य, जैन साहित्य, लौकिक साहित्य तथा रासो साहित्य के विषय मैं आलोचना करेंगे।

आदिकाल के सीमा निर्धारण :

हिंदी साहित्य के आरंभिक समय के साहित्यिक रचनाएं साहित्य के विकास के अध्ययन के लिए बोहोत ही आवश्यक है।

पर उस समय के साहित्यिक रचनाओं का उपलब्ध न होना तथा उनके प्रामाणिकता मैं संधिग्तता होना, आदिकाल के सीमा निर्धारण में मतभेद रहना आदि समस्यायों के साथ आदिकाल के विषय में साहित्य के विद्वानों के द्वारा एक व्यवस्थित धारणा बनाकर सबके सामने उपस्थित करना एक कुशलता का काम है।

आदिकाल के सीमा निर्धारण करने के लिए आने वाले दिक्कतों का मैं तत्कालीन प्रचलित भाषा मुख्य थी। जब हिंदी साहित्य का आदिकाल का प्रारंभ माना जाता है तब संस्कृत और अपभ्रंश भाषा प्रचलित थी।

जहाँ संस्कृत तत्कालीन समय के रचना में अपने चरम सीमा पर थी और अपभ्रंश भाषा जनभाषा से दूर हट कर साहित्यिक भाषा में प्रतिष्ठित हो रही थी। और जब अपभ्रंश जनभाषा से दूर हट गई, इसी जनभाषा से हिंदी भाषा का विकाश की शुरूवात हुई। इसीलिए चंद्रधर गुलेरी जी ने इसे ही पुरानी हिंदी कहा है। उनकी स्पष्ट घोषणा थी की उत्तर अपभ्रंश ही पुरानी हिंदी है ।

आचार्य शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य के आदिकाल का प्रारंभ 993 ई. से मानते है जब अपभ्रंश भाषा घिस घिस कर हिंदी भाषा विकसित करने मैं सक्षम हो रही थी ।

पर हिंदी के प्रारंभिक रूप का का आभास उन्हें बौद्ध तांत्रिकों और योगमार्गी बौद्ध संप्रदायिकों के रचनाओं से मिलगाया था, जिससे यह सिद्ध होता है को आदि काल का समय लगभग 1050 बीं से प्रारंभ माना गया है।

पर अगर हम सिर्फ हिंदी भाषा के साहित्य की बात करेंगे तो नाथ, सिद्ध तथा जैन रचनाकारों के साहित्य से हिंदी साहित्य का आरंभ माना जाता है , क्यों की हिंदी भाषा को विशिष्ट बनाने वाली भाषा प्रबृतियां इन्ही के रचनाओं में दिखाई पड़ता है ।

खास करके मुख्य अपभ्रंश शब्दों का रूपांतरण, परसर्ग उपयोग की बहुलता और तत्सम शब्दों का प्रयोग इन प्रवृतियों मैं मुख्य माने जाते है । इसी तत्सम शब्द के प्रयोग में हिंदी भाषा के प्रथम कवि सरहपा माने जाते है।

पर जिसतरह आदिकाल के परारंभिक सीमा निर्धारण में मतभेद है इसीतरह इस काल के अंतिम सीमा निर्धारण में भी मतभेद रहा है । मिश्रबंधु इस को 1529 बीं तक मानते है बही ग्रियर्सन इसको 1400 बीं तक मानते है पर शुक्ल जी इसको 1318 बीं तक मानते है परंतु विद्यापति जी को इस काल के अंतर्गत रखते है ।

क्यों की वे एक माननीय प्रेम तथा श्रुंगारिक कवि माने जाते है उनको हम भक्तिकाल मैं नहीं रखसकते और उनके रचनाओं का समय भी 1318 बीं के बाद का है ।

इसलिए आदिकाल के अंतिम सीमा के सुसंगत विभाजन के लिया हमे सीमा को आगे ले जाना पड़ा और अतः 1400 बीं को ही इस काल का अंतिम सीमा माना गया जिसमे अमीर खुसरो के रचनाओं को भी स्थान दिया जा सका। इसलिए आदिकाल का अंतिम सीमा विद्वानों के द्वारा 1400 बीं ही माना गया है ।

भक्तिकाल की संपूर्ण जानकारी

आदिकाल का नामकरण (Aadikal Ka Namkaran) :

हिन्दी साहित्य के आदिकाल जिसे हम चारणकाल, बीजवपन काल, वीरगाथा काल आदि नामों से जानते है, यह हिन्दी का सबसे मतभेदग्रस्त काल रहा है । चाहे आदिकाल का नामकरण हो या फिर आदिकाल के सीमा निर्धारण में या फिर इसके प्रथम कवि चुनने में सभी परिप्रेक्ष में विद्वानों के अपने मतभेद रहे है।

जहां रचनाओं की बात किया जाए तो आदिकाल के तत्कालीन समय में एक तरफ संस्कृत की रचनाएँ संस्कृत काव्य-परम्परा की चरम सीमा पर पहुँच गयी थी एवं दूसरी ओर अपभ्रंश भाषा साहित्य रचना में अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों के द्वारा अपने मार्मिक भाव प्रकट कर रहा था ।

वस्तुतः एक ओर सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य का निर्माण हुआ और दूसरी ओर राजस्थान के चारण कवियों द्वारा चरित साहित्यिक काब्यों की रचना हुई । परन्तु इन दोनों काव्य-धाराओं से अलग एक साहित्य लोक साहित्य की भी रचना किया गया पर यह लोकाश्रित होकर लुप्तता की और बढ़ने लगा । जिनसे भाषा के विकाश मैं बोहोत ज्यादा अभिवृद्धि हुई ।

आदिकाल की प्रमुख प्रबृत्तियाँ :

  1. आदिकालिन साहित्य के रचनाकार अपने रचनाओं में युद्धों का सजीव वर्णन करते थे, क्यों की उस समय रचनाकार राजाओं के दरबार में रहते थे और युद्ध के दौरान युद्ध लड़ने जाया करते थे, जिसको वे अपने काव्यों में सजीव रूप से वर्णन करते थे ।
  2. आदिकालीन साहित्य मैं खास कर रासो साहित्य मैं ऐतिहासिकता का अभाव दिखाई देता है, क्योंकि इन ग्रन्थों में तथ्य का परिमाण बोहोत कम और कल्पना का परिमाण अधिक है, जिनसे अनेको ऐतिहासिक भरंतिधारणाओ का सृष्टि होता है ।
  3. ग्रंथो का अधिकांश वर्णन लटकालीन इतिहास वर्णन से मेल नहीं खाते । चरण कवियों ने भी अतिशयोक्ति को ध्यान में रख कर ज्यादातर वर्णन कल्पनाओं के adahar पर ही किया है जिससे इस काल के साहित्यों का ऐतिहासिकता मैं घोर अभाव परिलक्षित होता है।
  4. आदिकालीन साहित्य के रचनाओं में वीर तथा शृंगार रस का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है । उस समय होने वाले युद्धों से वीर रस का वर्णन व राजाओं द्वारा राजकन्याओं से होने वाले विवाह से शृंगार रस का वर्णन ज्यादातर देखने को मिलते है और आदिकालीन साहित्य के रासो काव्य में एक मुख्य अंग के रूप में वीर रस का वर्णन तथा शृंगार रस का वर्णन मैं प्रधानता परिलक्षित किया गया है।
  5. क्यों की आदिकालीन लगभग सारे कभी अपने आश्रयदाता के राज दरबार में ही रहते थे तो रचनाकार अपने आश्रयदाता की प्रशंशा को ही अपना परम कर्तव्य मानते थे। इसमें सबसे आगे आप रासो साहित्य के के रचनाकार चारण को लिया जा सकता है। अपने चरित्र नायक को श्रेष्ठ तथा विपक्षी राजा को हीन रूप से वर्णन करके का अतिशयोक्ति रासो साहित्य मैं खूब परिलक्षित होते है ।
  6. इसमें उदाहरण के रूप में पृथ्वीराज रासो एवं खुमान रासो को लिया जा सकता है जो इसी कोटि की प्रशंसापरक काव्य रचनाएं हैं, जिनमें कवि ने अपने चरित नायक राजाओं की प्रत्येक दृष्टि से महत्ता प्रतिपादित की है।
  7. आदिकाल के में वीरता का काफी वर्णन होने के बाबजूद राष्ट्रीय अभिमान भाव का प्रचुर अभाव परिलक्षित होता है । उस समय देश छोटे छोटे राज्यों में विभाजित थे और आपस में ही लड़ते तथा संघर्ष करते रहते थे।
  8. आदिकालीन साहित्य में डिंगल-पिंगल भाषा का विशेषत: रासो साहित्य में हुआ है । अपभ्रंश व राजस्थानी भाषा के मिले-जुले रूप डिंगल भाषा मुख्य रूप से रासो साहित्य मैं ब्यबहृत हुए और अपभ्रांस तथा ब्रज भाषा के सम्मिलित रूप को पिंगल भाषा कहा जाता था और ये भाषा मुख्य रूप से युद्धों के वर्णन के लिए ही ब्यबहृत किए जाते थे।
  9. आदिकालीन साहित्य के रासो काव्यों में अलंकारों का प्रयोग पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए नहीं हुआ है अपितु अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से हुआ है ।
  10. चारण कवियों ने रासो साहित्य मैं अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए अलंकारों का सहारा तो लिए पर कहीं भी चमत्कार प्रदर्शन के लिए अलंकार योजना नहीं की गई है।

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आदिकालिन साहित्य वर्गीकरण :

आदिकालिन साहित्य के रचनाओं को मुख्य रूप से 5 भागों मैं बांटा गया है, उनका आलोचना निम्न में दिया गया :

सिद्ध साहित्य (Sidhha Sahitya):-

बौद्ध धर्म कालांतर में तंत्र-मंत्र की साधना में बदल गया था। वज्रयान इसी प्रकार की साधना था। भगवान गौतम बुद्ध के मृत्यु के पश्चात बौद्ध धर्म दो शाखाओं मैं बदल गया : महायान और हीनयान। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार-” बौद्ध धर्म आपने हीनयान और महायान के विकास को चरम सीमा तक पहुचाकर अब एक नई दिशा लेने की तैयारी कर रहा था, जब उसे मंत्रयान, वज़्यान या सहजयान की संज्ञा मिलने वाली थी।”

सिद्धों का संबंध इस वज्रयान से था। उनकी संख्या 84 बताई जाती है जिनमे से सिर्फ 23 सिद्धों की रचनाएं उपलब्ध है। प्रथम सिद्ध ‘सरहपा’ (8वीं शताब्दी) सहज जीवन पर बहुत अधिक बल देते थे। इन्हें ही सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है।

सिद्धों ने नैरात्य भावना, कायायोग, सहज, शुून्य तथा समाधि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के भावों का वर्णन किया और इन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था पर हमेशा की तरह तीव्र प्रहार किया है। उनके कब्यारचना की भाषा संधा भाषा थी, जिस भाषा-शैली का उपयोग नाथों ने भी किया है।

नाथ साहित्य (Naath Sahitya):-

नाथ संप्रदाय का प्रारंभ सिद्धों के थोड़े समय बाद हुआ। नाथ पंथ की दार्शनिकता का आधार शैव मत है और व्यवहार में उन्होंने पतंजलि के हठयोग को अपनाया है।

इन्हीं कुछ आधारों पर उन्होंने अपने संप्रदाय को सैद्धान्तिक रूप दिया है। सिद्धों की वाममार्गी साधना के विपरीत उन्होंने मद्य-मांस त्याग तथा मानसिक शुचिता पर बल दिया है। सिद्धों ने साधना को विकृत बना दिया था लेकिन नाथपंथी के रचनाकारों ने उसे फिर से जनता के लिए संभव बनाने पर जोर दिया।

इड़ा-पिंगला, नाद-बिंदु की साधना, शून्यचक्र में कुंडलिनी का प्रवेश आदि नाथों की अंतर साधना के मुख्य अंग हैं। नाथ साहित्य में दो महत्वपूर्ण बातों की ओर ध्यान जाता है। पहली यह कि नाथ साहित्य में धर्म निरपेक्ष दृष्टि दिखाई देती है।

इसमें ईश्वर से मिलाने वाला योग हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य साधना के रूप में प्रस्तुत हुआ है। नाथपंथ में धार्मिक कट्टरता नहीं मिलती है। दूसरी जो महत्वपूर्ण बात नाथ साहित्य के संदर्भ में कही जा सकती है, वह यह कि नाथों के साहित्य में यायावरी साहित्य का गुण मिलता है। नाथ जोगी अपने धर्म प्रचार के लिए विभिन्न प्रदेशों की यात्रा करते थे।

देश के मध्य भाग तथा पश्चिमी भारत में वे घूमते रहते थे। यात्रा में विभिन्न प्रदेशों की संस्कृति, भाषा और व्यवहार से परिचय होता है। नाथसंप्रदाय के कविओं मैं आदिनाथ, मत्स्यंद्रनाथ, गोरखनाथ, जलंधरनाथ आदि मुख्य माने जाते है ।

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जैन साहित्य (Jain Sahitya):-

आदिकालिन साहित्य के उपलब्ध रचनाओं में सबसे ज्यादा जैन साहित्य के ग्रंथों पाए जाते है, जिनके प्रवर्तक महावीर स्वामी माने जाते है । भारतवर्ष के पश्चिमी क्षेत्र (गुजरात, राजस्थान) और दक्षिण में जैन साधुओं ने हिंदी भाषा में अपने कविताओं का प्रचार करना प्रारंभ किए ।

जैन साहित्य के सर्बप्रशिद्ध ग्रंथ “रासो” काव्य माने जाते है। जैन मतमब्लांबी रचनाएँ दो प्रकार के माने जाते है: एक जिनमें नाथ – सिद्धों की तरह आंतस्साधना, उपदेश, नीति, सदाचार पर वल और कर्मकाण्ड का खण्डन है। ये प्रायः दोहों में रचित मुक्तक है।

दूसरी जिसमे पौराणिक, जैन साधकों की प्रेरक जीवन – कथा या लोक प्रचलित कथाओं को आधार बनाकर जैन मत का प्रचार किया गया है।

लौकिक साहित्य (Loukik Sahitya):-

हिंदी साहित्य के आदिकाल मैं जैन साहित्य, नाथ साहित्य, मुख्यतः धर्म तथा रासो साहित्य, राज्याश्रीत होने के कारण अनेकों समय तक चलता रहा l पर एक और साहित्य जो की लोकसाहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ था, वह लोकाश्रित होने के कारण जल्द ही लुप्त हो गया ।

जितने भी लोकाश्रित तथा लोगों के आंचलिक भाषा में तथा लोकगीतों में जो थोड़ा बोहोत शेष रह गया था उसको अनुध्यान करने से ये जरूर पता चलता है की उस समय लोकसाहित्य प्रचलित था ।

अभी परमाणिकता से उपलब्ध लोकसाहित्य में “बीसलदेव रासो, वसंत विलास, राउलबेल, वर्ण रत्नाकर तथा अमीरखूसरो की रचनाएं भी सामिल है।

रासो साहित्य (Raso sahitya):-

हिंदी साहित्य के आदिकाल मैं प्राप्त कुछ ऐसे ग्रंथ है जिनके अंत में “रासो” शब्द जुड़ा हुआ है, जिनका असली अर्थ “काव्य” माना जाता है। पर इस शब्द के उत्पन्न मैं विभिन्न विद्वानों के भिन्न – भिन्न मत है।

जैसे की जॉर्ज ग्रियर्सन इसका उत्पन्न “राजसूय यज्ञ” से माना है, वही रामचंद्र शुक्ल जी ने इस शब्द का उत्पत्ति “रामायण” से माना है, वही हजारीप्रसाद जी रासक को एक पूर्ण शब्द भी मानते है तथा रासक छंद से जो काव्य लिखे जाते है उन काव्य को “रासक” कहा जाता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदिकाल के तृतीय प्रकरण को “बीरगाथा काल” के नाम से नवाजा था, क्यों की उनके मुताबिक जो जो रासो काव्य उस समय मैं रचना किया गया था, उनमे से काफी रचनाओं मैं युद्ध, राजाओं का वर्णन तथा उनके वीरता के किस्सों का वर्णन था।

शुक्ल जी ने इस काल की प्रधान साहित्यिक प्रवृत्ति की पाचन जिन 12 ग्रन्थों के आधार पर की है, वे है:

विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, कीर्तिलता, खुमान रासो, बीसलदीव रासो, पृथ्वीराज रासो, जयचंद्र प्रकाश, जयमयंक-जस-चंद्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियाँ एवं विद्यापति की पदाबली।

इनमें से विद्यापति की रचनाएँ( 14वीं, 1वीं शताब्दी) अर्थात् कीर्तिलता, कीर्तिपताका, पदावली और नरपति नाल्ह द्वारा रचित बीसलदेव रासो प्रामाणिक में उपलब्ध हैं। कीर्तिपताका अभी तक संपादित होकर प्रकाशित नहीं हुई।

बीसलदेव रासो का पाठ डॉ. माताप्रसाद गुप्त द्वारा संपादित-प्रकाशित है। कुछ लोग इसे तेरहवीं शती की रचना मानते हैं, तो कुछ लोग सोलहवीं-सत्रहवीं शती की। जगनिक कृत परमाल रासो ‘आल्हा’ के रूप में ही पहचाना जाता है।

आल्हा कगान है, अतः यह विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में गाया जाता है। जगनिक संभवतः परमाल और पृथ्वीराज के समकालीन(12वों शती के) थे।

विजयपालरासो के रचयिता का नाम नल्लसिंह हे। इसमें जो लड़ाई विजयपाल ने पंग राजा से की थी, उसका वर्णन है। मिश्र बंधुओं ने इसका रचनाकाल चौदहवों शती ही माना है।

भाषा-शैली पर विचार करने से यह रचना परवर्ती लगती है हम्मीर रासो से, जयचंद प्रकाश और जयमयंक-जस -चंद्रिका उपलब्ध नहीं हैं। हम्मीर विषयक एक पद्य प्राकृत पैंगलम् में मिलता है, जिसके वारे में रामचंद्र शुक्ल जी का विश्वास है कि वह हमीर रासो का ही है।

खुमान रासो के रचयिता दलपति विजय हैं। इसमें नौवों शताब्दी के खुमान के युद्ध का वर्णन है। लेकिन मेवाड़के परवर्ती शासकों जैसे महाराणा प्रताप सिंह और राजसिंह का भी वर्णन है। इससे प्रकट होता है कि यह रचना सत्रहवीं शती के आसपास की है।

पृथ्वीराज रासो को आदिकाल के सबसे बड़े प्रसिद्ध ग्रंथ माना जाता है, जिसेक रचयिता चंदबरदाई को माना जाता है, जो की पृथ्वीराज के सबसे अंतरंग बताए जाते थे। प्रामाणिकता के अभाव से इस ग्रंथ को कभी प्रकाशित ही नहीं किया गया। लेकिन इसके रचना के काल 1600 बि. के आसपास बताया जाता है।

इसके बाद जिन कवियों को आदिकालीन अंतिम सीमा के आसपास रखा गया है वे है विद्यापति और अमीर खुसरो। उनके रचनाओं मैं कीर्तीलता, कीर्तिपताका और पदाबली। वैसे ही अमीर खुसरो की रचनाओं मैं पहेलियाँ, मुकरिया, तथा दो सूखने मुख्य माने जाते है ।

अकसार पूछे जाने वाले सवाल (FAQs):-

आदिकाल के प्रथम कवि कौन है?

आदिकाल के प्रथम कवि महर्षि वाल्मीकि थे और उन्होंने रामायण ग्रंथ की रचना की थी। आदिकाल के प्रथम कवि होने के कारण उनको आदिकवि कहा जाता है।

आदिकाल की भाषा कौन सी है?

आदिकाल मैं काफी भाषाओं का ब्यबहार किया गया है, उनमे से अपभ्रंश, डिंगगल आदि प्रमुख है।

आदिकाल का प्रथम महाकाव्य कौन सा है?

आदिकाल का प्रथम महाकाव्य पृथ्वीराज रासो को माना जाता है।

आदिकाल का अंतिम कवि कौन है?

आदिकाल के अंतिम चरण के सुप्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो थे।

अंतिम कुछ शब्द :-

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WIKIPEDIA PAGE – आदिकाल

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