अभिलाषा (काहानी) : Munshi Premchand Ki Kahani

अभिलाषा (काहानी) : Munshi Premchand Ki Kahani :-

अभिलाषा (काहानी) : Munshi Premchand Ki Kahani :-

कल पड़ोस में बड़ी हलचल मची। एक पानवाला अपनी स्त्री को मार रहा था। वह बेचारी बैठी रो रही थी, पर उस निर्दयी को उस पर लेशमात्र भी दया न आती थी। आखिर स्त्री को भी क्रोध आ गया। उसने खड़े होकर कहा, “बस, अब मारोगे, तो ठीक न होगा। आज से मेरा तुझसे कोई संबंध नहीं। मैं भीख माँगूँगी, पर तेरे घर न आऊँगी।”

यह कहकर उसने अपनी एक पुरानी साड़ी उठाई और घर से निकल पड़ी। पुरुष काठ के उल्लू की तरह खड़ा देखता रहा। स्त्री कुछ दूर चलकर फिर लौटी और दूकान की संदूकची खोलकर कुछ पैसे निकाले। शायद अभी तक उसे ममता थी; पर उस निर्दय ने तुरन्त उसका हाथ पकड़कर पैसे छीन लिये।

हाय री ह्रदयहीनता ! अबला स्त्री के प्रति पुरुष का यह अत्याचार ! एक दिन इसी स्त्री पर उसने प्राण दिये होंगे, उसका मुँह जोहता रहा होगा; पर आज इतना निष्ठुर हो गया है, मानो कभी की जान-पहचान ही नहीं। स्त्री ने पैसे रख दिये और बिना कहे-सुने चली गई। premchand ki kahani

कौन जाने कहाँ ! मैं अपने कमरे की खिड़की से घंटों देखती रही कि शायद वह फिर लौटे या शायद पानवाला ही उसे मनाने जाय; पर दो में से एक बात भी न हुई। आज मुझे स्त्री की सच्ची दशा का पहली बार ज्ञान हुआ।

Munshi Premchand Ki Kahani

यह दूकान दोनों की थी। पुरुष तो मटरगश्ती किया करता था, स्त्री रात-दिन बैठी सती होती थी। दस-ग्यारह बजे रात तक मैं उसे दूकान पर बैठी देखती थी। प्रात:काल नींद खुलती, तब भी उसे बैठी पाती। नोच-खसोट, काट-कपट जितना पुरुष करता था, उससे कुछ अधिक ही स्त्री करती थी। पर पुरुष सबकुछ है, स्त्री कुछ नहीं ! पुरुष जब चाहे उसे निकाल बाहर कर सकता है !

इस समस्या पर मेरा चित्त इतना अशांत हो गया कि नींद आँखों से भाग गई। बारह बज गये और मैं बैठी रही। आकाश पर निर्मल चाँदनी छिटकी हुई थी। निशानाथ अपने रत्न-जटित सिंहासन पर गर्व से फूले बैठे थे। बादल के छोटे-छोटे टुकड़े धीरे-धीरे चंद्रमा के समीप आते थे और फिर विकृत रूप में पृथक् हो जाते थे, मानो श्वेतवसना सुन्दरियाँ उसके हाथों दलित और अपमानित होकर रुदन करती हुई चली जा रही हों।

इस कल्पना ने मुझे इतना विकल किया कि मैंने खिड़की बंद कर दी और पलंग पर आ बैठी। मेरे प्रियतम निद्रा में मग्न थे। उनका तेजमय मुखमंडल इस समय मुझे कुछ चंद्रमा से ही मिलता-जुलता मालूम हुआ। वही सहास छवि थी, जिससे मेरे नेत्र तृप्त हो जाते थे।

वही विशाल वक्ष था, जिस पर सिर रखकर मैं अपने अन्तस्तल में एक कोमल, मधुर कंपन का अनुभव करती थी। वही सुदृढ़ बाँहें थीं, जो मेरे गले में पड़ जाती थीं, तो मेरे ह्रदय में आनंद की हिलोरें-सी उठने लगती थीं।

पर आज कितने दिन हुए, मैंने उस मुख पर हँसी की उज्ज्वल रेखा नहीं देखी, न देखने को चित्त व्याकुल ही हुआ। कितने दिन हुए, मैंने उस वक्ष पर सिर नहीं रखा और न वह बाँहें मेरे गले में पड़ीं। क्यों ? क्या मैं कुछ और हो गई, या पतिदेव ही कुछ और हो गये।

Munshi Premchand Ki Kahani

अभी कुछ बहुत दिन भी तो नहीं बीते, कुल पाँच साल हुए हैं क़ुल पाँच साल, जब पतिदेव ने विकसित नेत्रों और लालायित अधरों से मेरा स्वागत किया था। मैं लज्जा से गर्दन झुकाये हुए थी। ह्रदय में कितनी प्रबल उत्कंठा हो रही थी कि उनकी मुख-छवि देख लूँ; पर लज्जावश सिर न उठा सकती।

आखिर एक बार मैंने हिम्मत करके आँखें उठाईं और यद्यपि दृष्टि आधे रास्ते से ही लौट आई, तो भी उस अर्ध-दर्शन से मुझे जो आनंद मिला, क्या उसे कभी भूल सकती हूँ। वह चित्र अब भी मेरे ह्रदय-पट पर खिंचा हुआ है। जब कभी उसका स्मरण आ जाता है, ह्रदय पुलकित हो उठता है। उस आनंद-स्मृति में अब भी वही गुदगुदी, वही सनसनी है !

Munshi Premchand Ki Kahani

लेकिन अब रात-दिन उस छवि के दर्शन करती हूँ। उषाकाल, प्रात:काल, मधयाह्नकाल, संध्याकाल,
निशाकाल आठों पहर उसको देखती हूँ; पर ह्रदय में गुदगुदी नहीं होती। वह मेरे सामने खड़े मुझसे बातें किया करते हैं। मैं क्रोशिए की ओर देखती रहती हूँ।

जब वह घर से निकलते थे, तो मैं द्वार पर आकर खड़ी हो जाती थी। और, जब वह पीछे फिरकर मुस्करा देते थे तो मुझे मानो स्वर्ग का राज्य मिल जाता था। मैं तीसरे पहर कोठे पर चढ़ जाती थी और उनके आने की बाट जोहने लगती थी। उनको दूर से आते देखकर मैं उन्मत्त-सी होकर नीचे आती और द्वार पर जाकर उनका अभिवादन करती। Munshi Premchand Ki Kahani

पर अब मुझे यह भी नहीं मालूम होता कि वह कब जाते और कब आते हैं। जब बाहर का द्वार बंद हो जाता है, तो समझ जाती हूँ कि वह चले गये, जब द्वार खुलने की आवाज आती है, तो समझ जाती हूँ कि आ गये। समझ में नहीं आता कि मैं ही कुछ और हो गई या पतिदेव ही कुछ और हो गये। तब वह घर में बहुत न आते थे। जब उनकी आवाज कानों में आ जाती तो मेरी देह में बिजली-सी दौड़ जाती थी।

उनकी छोटी-छोटी बातों, छोटे-छोटे कामों को भी मैं अनुरक्त, मुग्ध नेत्रों से देखा करती थी। वह जब छोटे लाला को गोद में उठाकर प्यार करते थे, जब टामी का सिर थपथपाकर उसे लिटा देते थे, जब बूढ़ी भक्तिन को चिढ़ाकर बाहर भाग जाते थे, जब बाल्टियों में पानी भर-भर पौदों को सींचते थे, तब ये आँखें उसी ओर लगी रहती थीं।

पर अब वह सारे दिन घर में रहते हैं, मेरे सामने हँसते हैं, बोलते हैं, मुझे खबर भी नहीं होती। न-जाने क्यों ? तब किसी दिन उन्होंने फूलों का एक गुलदस्ता मेरे हाथ में रख दिया था और मुस्कराये थे। वह प्रणय का उपहार पाकर मैं फूली न समाई थी। Munshi Premchand Ki Kahani

केवल थोड़-से फूल और पत्तियाँ थीं; पर उन्हें देखने से मेरी आँखें किसी भाँति तृप्त ही न होती थीं। कुछ देर हाथ में लिये रही, फिर अपनी मेज पर फूलदान में रख दिया। कोई काम करती होती, तो बार-बार आकर उस गुलदस्ते को देख जाती।

कितनी बार उसे आँखों से लगाया, कितनी बार उसे चूमा ! कोई एक लाख रुपये भी देता, तो उसे न देती। उसकी एक-एक पंखड़ी मेरे लिए एक-एक रत्न थी। जब वह मुरझा गया, तो मैंने उसे उठाकर अपने बक्स में रख दिया था। तब से उन्होंने मुझे हजारों चीजें उपहार में दी हैं एक-से-एक रत्नजटित आभूषण हैं, एक-से-एक बहुमूल्य वस्त्रा हैं और गुलदस्ते तो प्राय: नित्य ही लाते हैं; लेकिन इन चीजों को पाकर वह उल्लास नहीं होता।

आहुति (काहानी) : Munshi Premchand Ki Kahani

मैं उन चीजों को पहनकर आईने में अपना रूप देखती हूँ और गर्व से फूल उठती हूँ। अपनी हमजोलियों को दिखाकर अपना गौरव और उनकी ईर्ष्या बढ़ाती हूँ। Munshi Premchand Ki Kahani

बस। अभी थोड़े ही दिन हुए हैं, उन्होंने मुझे चन्द्रहार दिया है। जो इसे देखता है, मोहित हो जाता है। मैं भी उसकी बनावट और सजावट पर मुग्ध हूँ। मैंने अपना संदूक खोला और उस गुलदस्ते को निकाल लाई।

आह ! उसे हाथ में लेते ही मेरी एक-एक नस में बिजली दौड़ गई। ह्रदय के सारे तार कंपित हो गये। वह सूखी हुई पंखड़ियाँ, जो अब पीले रंग की हो गई थीं बोलती हुई मालूम होती थीं।

उसके सूखे, मुरझाये हुए मुखों के अस्फुटित, कंपित, अनुराग में डूबे शब्द सायँ-सायँ करके निकलते हुए जान पड़ते थे; किंतु वह रत्नजटित, कांति से दमकता हुआ हार स्वर्ण और पत्थरों का एक समूह था, जिसमें प्राण न थे, संज्ञा न थी, मर्म न था। premchand ki kahani

मैंने फिर गुलदस्ते को चूमा, कंठ से लगाया, आर्द्र नेत्रों से सींचा और फिर संदूक में रख आई। आभूषणों से भरा हुआ संदूक भी उस एक स्मृति-चिह्न के सामने तुच्छ था। यह क्या रहस्य था ?

फिर मुझे उनके एक पुराने पत्र की याद आ गई। उसे उन्होंने कालेज से मेरे पास भेजा था। उसे पढ़कर मेरे ह्रदय में जो आनन्द हुआ था, जो तूफान उठा था, आँखों से जो नदी बही थी, क्या उसे कभी भूल सकती हूँ। premchand ki kahani

उस पत्र को मैंने अपनी सोहाग की पिटारी में रख दिया था। इस समय उस पत्र को पढ़ने की प्रबल इच्छा हुई। मैंने पिटारी से वह पत्र निकाला। उसे स्पर्श करते ही मेरे हाथ काँपने लगे, ह्रदय में धड़कन होने लगी। मैं कितनी देर उसे हाथ में लिये खड़ी रही, कह नहीं सकती।

मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मैं फिर वही हो गई हूँ, जो पत्र पाते समय थी। उस पत्र में क्या प्रेम के कवित्तमय उद्गार थे ? क्या प्रेम की साहित्यिक विवेचना थी ? क्या वियोग-व्यथा का करुण क्रंदन था ? उसमें तो प्रेम का एक शब्द भी न था। Munshi Premchand Ki Kahani

लिखा था क़ामिनी, तुमने आठ दिनों से कोई पत्र नहीं लिखा। क्यों नहीं लिखा ? अगर तुम मुझे पत्र न लिखोगी, तो मैं होली की छुट्टियों में घर न आऊँगा, इतना समझ लो। आखिर तुम सारे दिन क्या करती हो ! मेरे उपन्यासों की आलमारी खोल ली है क्या ?

आपने मेरी आलमारी क्यों खोली ? समझती होगी, मैं पत्र न लिखूँगी तो बचा खूब रोयेंगे और हैरान होंगे। यहाँ इसकी परवाह नहीं। नौ बजे रात को सोता हूँ, तो आठ बजे उठता हूँ। कोई चिंता है, तो यही कि फेल न हो जाऊँ। अगर फेल हुआ तो तुम जानोगी।

कितना सरल, भोले-भाले ह्रदय से निकला हुआ, निष्कपट मानपूर्ण आग्रह और आतंक से पत्र भरा हुआ था, मानो उसका सारा उत्तरदायित्व मेरे ही ऊपर था। ऐसी धमकी क्या अब भी वह मुझे दे सकते हैं ? कभी नहीं। Munshi Premchand Ki Kahani

ऐसी धमकी वही दे सकता है, जो न मिल सकने की व्यथा को जानता हो, उसका अनुभव करता हो। पतिदेव अब जानते हैं, इस धमकी का मुझ पर कोई असर न होगा, मैं हँसूँगी और आराम से सोऊँगी, क्योंकि मैं जानती हूँ, वह अवश्य आयेंगे और उनके लिए ठिकाना ही कहाँ है ? जा ही कहाँ सकते हैं ? तब से उन्होंने मेरे पास कितने पत्र लिखे हैं।premchand ki kahani

दो-दिन को भी बाहर जाते हैं, तो जरूर एक पत्र भेजते हैं, और जब दस-पाँच दिन को जाते हैं, तो नित्य प्रति एक पत्र आता है। पत्रों में प्रेम के चुने हुए शब्द, चुने हुए वाक्य, चुने हुए संबोधन भरे होते हैं। मैं उन्हें पढ़ती हूँ और एक ठंडी साँस लेकर रख देती हूँ। हाय ! वह ह्रदय कहाँ गया ? प्रेम के इन निर्जीव भावशून्य कृत्रिम शब्दों में वह अभिन्नता कहाँ है, वह रस कहाँ है, वह उन्माद कहाँ है, वह क्रोध कहाँ है ?

वह झुँझलाहट कहाँ है ? उनमें मेरा मन कोई वस्तु खोजता है क़ोई अज्ञात, अव्यक्त, अलक्षित वस्तु पर वह नहीं मिलती। उनमें सुगंध भरी होती है, पत्रों के कागज आर्ट-पेपर को मात करते हैं; पर उनका यह सारा बनाव-सँवार किसी गतयौवना नायिका के बनाव-सिंगार के सदृश ही लगता है, कभी-कभी तो मैं पत्रों को खोलती भी नहीं। Munshi Premchand Ki Kahani

मैं जानती हूँ, उनमें क्या लिखा होगा। उन्हीं दिनों की बात है, मैंने तीजे का व्रत किया था। मैंने देवी के सम्मुख सिर झुकाकर वन्दना की थी देवि, मैं तुमसे केवल एक वरदान माँगती हूँ। हम दोनों प्राणियों में कभी विच्छेद न हो, और मुझे कोई अभिलाषा नहीं, मैं संसार की और कोई वस्तु नहीं चाहती।

तब से चार साल हो गये हैं और हममें एक दिन के लिए भी विच्छेद नहीं हुआ। मैंने तो केवल एक वरदान
माँगा था। देवी ने वरदानों का भंडार ही मुझे सौंप दिया। पर आज मुझे देवी के दर्शन हों, तो मैं उनसे कहूँ तुम अपने सारे वरदान ले लो; मैं इनमें से एक भी नहीं चाहती। Munshi Premchand Ki Kahani

मैं फिर वही दिन देखना चाहती हूँ, जब ह्रदय में प्रेम की अभिलाषा थी। तुमने सबकुछ देकर मुझे उस अतुल सुख से वंचित कर दिया, जो अभिलाषा में था। मैं अबकी देवी से वह दिन दिखाने की प्रार्थना करूँ, जब मैं किसी निर्जन जलतट और सघन वन में अपने प्रियतम को ढूँढ़ती फिरूँ।

नदी की लहरों से कहूँ, मेरे प्रियतम को तुमने देखा है ? वृक्षों से पूछूँ, मेरे प्रियतम कहाँ गये ? क्या वह सुख मुझे कभी प्राप्त न होगा ? उसी समय मन्द, शीतल पवन चलने लगा। मैं खिड़की के बाहर सिर निकाले खड़ी थी। पवन के झोंके से मेरे केश की लटें बिखरने लगीं। premchand ki kahani

मुझे ऐसा आभास हुआ, मानो मेरे प्रियतम वायु के इन उच्छ्वासों में हैं। फिर मैंने आकाश की ओर देखा। चाँद की किरणें चाँदी के जगमगाते तारों की भाँति आँखों से आँखमिचौनी-सी खेल रही थीं। आँखें बन्द करते समय सामने आ जातीं; पर आँखें खोलते ही अदृश्य हो जाती थीं। मुझे उस समय ऐसा आभास हुआ कि मेरे प्रियतम उन्हीं जगमगाते तारों पर बैठे आकाश से उतर रहे हैं।

उसी समय किसी ने गाया
अनोखे-से नेही के त्याग,
निराले पीड़ा के संसार !
कहाँ होते हो अन्तध्र्दान,
लुटा करके सोने-सा प्यार !
‘लुटा करके सोने-सा प्यार’,

यह पद मेरे मर्मस्थल को तीर की भाँति छेदता हुआ कहाँ चला गया, नहीं जानती। मेरे रोयें खड़े हो गये। आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। ऐसा मालूम हुआ, जैसे कोई मेरे प्रियतम को मेरे ह्रदय से निकाले लिये जाता है। मैं जोर से चिल्ला पड़ी। उसी समय पतिदेव की नींद टूट गई।

premchand ki kahani

वह मेरे पास आकर बोले¸ ‘क्या अभी तुम चिल्लाई थीं ? अरे ! तुम रो रही हो ? क्या बात है ? कोई स्वप्न तो नहीं देखा ?’ Munshi Premchand Ki Kahani

मैंने सिसकते हुए कहा, ‘रोऊँ न, तो क्या हँसूँ ?’

स्वामी ने मेरा हाथ पकड़कर कहा, ‘क्यों, रोने का कोई कारण है, या यों ही रोना चाहती हो?’

‘क्या मेरे रोने का कारण तुम नहीं जानते ?’

‘मैं तुम्हारे दिल की बात कैसे जान सकता हूँ ?’

‘तुमने जानने की चेष्टा कभी की है ?’

‘मुझे इसका सान-गुमान भी न था कि तुम्हारे रोने का कोई कारण हो सकता है।’

‘तुमने तो बहुत कुछ पढ़ा है, क्या तुम भी ऐसी बात कह सकते हो ?’

स्वामी ने विस्मय में पड़कर कहा, ‘तुम तो पहेलियाँ बुझवाती हो ?’

‘क्यों, क्या तुम कभी नहीं रोते ?’

‘मैं क्यों रोने लगा।’

‘तुम्हें अब कोई अभिलाषा नहीं है ?’

‘मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा पूरी हो गई। अब मैं और कुछ नहीं चाहता।’

यह कहते हुए पतिदेव मुस्कराये और मुझे गले से लिपटा लेने को बढ़े। उनकी यह ह्रदयहीनता इस समय मुझे बहुत बुरी लगी। मैंने उन्हें हाथों से पीछे हटाकर कहा, मैं इस स्वाँग को प्रेम नहीं समझती।

Munshi Premchand Ki Kahani

जो कभी रो नहीं सकता वह प्रेम नहीं कर सकता। रुदन और प्रेम, दोनों एक ही ऱेत से निकलते हैं। उसी समय फिर उसी गाने की ध्वनि सुनाई दी :

अनोखे-से नेही के त्याग,
निराले पीड़ा के संसार !
कहाँ होते हो अंतर्धान
लुटा करके सोने-सा प्यार !

पतिदेव की वह मुस्कराहट लुप्त हो गई। मैंने उन्हें एक बार काँपते देखा। ऐसा जान पड़ा, उन्हें रोमांच हो रहा है। सहसा उनका दाहिना हाथ उठकर उनकी छाती तक गया। उन्होंने लम्बी साँस ली और उनकी आँखों से आँसू की बूँदें निकलकर गालों पर आ गईं।

तुरंत मैंने रोते हुए उनकी छाती पर सिर रख दिया और उस परम सुख का अनुभव किया, जिसके लिए कितने दिनों से मेरा ह्रदय तड़प रहा था। आज फिर मुझे पतिदेव का ह्रदय धड़कता हुआ सुनाई दिया, आज उनके स्पर्श में फिर स्फूर्ति का ज्ञान हुआ। Munshi Premchand Ki Kahani

अभी तक उस पद के शब्द मेरे ह्रदय में गूँज रहे थे कहाँ होते हो अंतर्धान,
लुटा करके सोने-सा प्यार ! ……..


(महादेवी वर्मा की कविता का एक पद)

Munshi Premchand Ki Kahani

munshi premchand kahani

मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय

मुंशी प्रेमचंद की अन्य रचानाएं

Quieres Solved :-

  • Munshi Premchand Ki Kahani
  • munshi premchand kahani
  • premchand ki kahani

सभी कहानियाँ को हिन्दी कहानी से प्रस्तुत किया गया हैं।

Leave a Comment