अनिष्ट शंका (काहानी) : Munshi Premchand Ki Kahani

अनिष्ट शंका (काहानी) : Munshi Premchand Ki Kahani :-

अनिष्ट शंका (काहानी) : Munshi Premchand Ki Kahani

चाँदनी रात, समीर के सुखद झोंके, सुरम्य उद्यान। कुँवर अमरनाथ अपनी विस्तीर्ण छत पर लेटे हुए मनोरमा से कह रहे थे- तुम घबराओ नहीं, मैं जल्द आऊँगा।

मनोरमा ने उनकी ओर कातर नेत्रों से देखकर कहा- मुझे क्यों नहीं लेते चलते ?

अमरनाथ- तुम्हें वहाँ कष्ट होगा, मैं कभी यहाँ रहूँगा, कभी वहाँ, सारे दिन मारा-मारा फिरूँगा, पहाड़ी देश है, जंगल और बीहड़ के सिवाय बस्ती का कोसों पता नहीं, उन पर भयंकर पशुओं का भय, तुमसे यह तकलीफें न सही जायँगी।

मनोरमा- तुम भी तो इन तकलीफों के आदी नहीं हो।

अमरनाथ- मैं पुरुष हूँ, आवश्यकता पड़ने पर सभी तकलीफों का सामना कर सकता हूँ।

मनोरमा- (गर्व से) मैं भी स्त्री हूँ, आवश्यकता पड़ने पर आग में कूद सकती हूँ। स्त्रियों की कोमलता पुरुषों की काव्य-कल्पना है। उनमें शारीरिक सामर्थ्य चाहे न हो पर उनमें यह धैर्य और साहस है जिस पर काल की दुश्चिंताओं का जरा भी असर नहीं होता।

अमरनाथ ने मनोरमा को श्रद्धामय दृष्टि से देखा और बोले- यह मैं मानता हूँ, लेकिन जिस कल्पना को हम चिरकाल से प्रत्यक्ष समझते आये हैं वह एक क्षण में नहीं मिट सकती। तुम्हारी तकलीफ मुझसे न देखी जायेगी, मुझे दुःख होगा। देखो इस समय चाँदनी में कितनी बहार है ! Munshi Premchand Ki Kahani

मनोरमा- मुझे बहलाओ मत। मैं हठ नहीं करती, लेकिन यहाँ मेरा जीवन अपाढ़ हो जायेगा। मेरे हृदय की दशा विचित्र है। तुम्हें अपने सामने न देख कर मेरे मन में तरह-तरह की शंकाएँ होती हैं कि कहीं चोट न लग गयी हो, शिकार खेलने जाते हो तो डरती हूँ कहीं घोड़े ने शरारत न की हो। मुझे अनिष्ट का भय सदैव सताया करता है।

अमरनाथ- लेकिन मैं तो विलास का भक्त हूँ। मुझ पर इतना अनुराग करके तुम अपने ऊपर अन्याय करती हो।

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मनोरमा ने अमरनाथ को दबी हुई दृष्टि से देखा जो कह रही थी- मैं तुमको तुमसे ज्यादा पहचानती हूँ।
बुंदेलखंड में भीषण दुर्भिक्ष था। लोग वृक्षों की छालें छील-छील कर खाते थे। क्षुधा-पीड़ा ने भक्ष्याभक्ष्य की पहचान मिटा दी थी। पशुओं का तो कहना ही क्या, मानव संतानें कौड़ियों के मोल बिकती थीं। पादरियों की चढ़ बनी थी, उनके अनाथालयों में नित्य गोल के गोल बच्चे भेंड़ों की भाँति हाँके जाते थे।

माँ की ममता मुट्ठी भर अनाज पर कुर्बान हो जाती। कुँवर अमरनाथ काशी-सेवा-समिति के व्यवस्थापक थे। समाचार-पत्रों में यह रोमांचकारी समाचार देखे तो तड़प उठे। समिति के कई नवयुवकों को साथ लिया और बुंदेलखण्ड जा पहुँचे। मनोरमा को वचन दिया कि प्रतिदिन पत्र लिखेंगे और यथासम्भव जल्द लौट आयेंगे। premchand ki kahani

एक सप्ताह तक तो उन्होंने अपना वचन पालन किया, लेकिन शनैः-शनैः पत्रों में विलम्ब होने लगा। अक्सर इलाके डाकघर से बहुत दूर पड़ते थे। यहाँ से नित्यप्रति पत्र भेजने का प्रबन्ध करना दुःसाध्य था। मनोरमा वियोग-दुःख से विकल रहने लगी। premchand ki kahani

वह अव्यवस्थित दशा में उदास बैठी रहती, कभी नीचे आती, कभी ऊपर जाती, कभी बाग में जा बैठती। जब तक पत्र न आ जाता वह इसी भाँति व्यग्र रहती, पत्र मिलते ही सूखे धान में पानी पड़ जाता।

लेकिन जब पत्रों के आने में देर होने लगी तो उसका वियोग-विकल-हृदय अधीर हो गया। बार-बार पछताती कि मैं नाहक उनके कहने में आ गयी, मुझे उनके साथ जाना चाहिए था। उसे किताबों से प्रेम था पर अब उनकी ओर ताकने का भी जी न चाहता। विनोद की वस्तुओं से उसे अरुचि-सी हो गयी ! इस प्रकार एक महीना गुजर गया। Munshi Premchand Ki Kahani

एक दिन उसने स्वप्न देखा कि अमरनाथ द्वार पर नंगे सिर, नंगे पैर, खड़े रो रहे हैं। वह घबरा कर उठ बैठी और उग्रावस्था में दौड़ी द्वार तक आयी। यहाँ का सन्नाटा देख कर उसे होश आ गया। उसी दम मुनीम को जगाया और कुँवर साहब के नाम तार भेजा। किंतु जवाब न आया।

सारा दिन गुजर गया मगर कोई जवाब नहीं। दूसरी रात भी गुजरी लेकिन जवाब का पता न था। मनोरमा निर्जल, निराहार मूर्च्छित दशा में अपने कमरे में पड़ी रहती। जिसे देखती उसी से पूछती जवाब आया ? कोई द्वार पर आवाज देता तो दौड़ी हुई जाती और पूछती कुछ जवाब आया ?

उसके मन में विविध शंकाएँ उठतीं; लौंडियों से स्वप्न का आशय पूछती। स्वप्नों के कारण और विवेचना पर कई ग्रंथ पढ़ डाले, पर कुछ रहस्य न खुला। लौंडियाँ उसे दिलासा देने के लिए कहतीं, कुँवर जी कुशल से हैं। स्वप्न में किसी को नंगे पैर देखें तो समझो वह घोड़े पर सवार है। घबराने की कोई बात नहीं। लेकिन रमा को इस बात से तस्कीन न होती। उसे तार के जवाब की रट लगी हुई थी, यहाँ तक कि चार दिन गुजर गए। Munshi Premchand Ki Kahani

किसी मुहल्ले में मदारी का आ जाना बालवृन्द के लिए एक महत्त्व की बात है। उसके डमरू की आवाज में खोंचेवाले की क्षुधावर्धक ध्वनि से भी अधिक आकर्षण होता है। इसी प्रकार मुहल्ले में किसी ज्योतिषी का आ जाना मारके की बात है। premchand ki kahani

एक क्षण में इसकी खबर घर-घर फैल जाती है। सास अपनी बहू को लिये आ पहुँचती है, माता भाग्यहीन कन्या को ले कर आ जाती है। ज्योतिषी जी दुःख-सुख की अवस्थानुसार वर्षा करने लगते हैं। उनकी भविष्यवाणियों में बड़ा गूढ़ रहस्य होता है। उनका भाग्य निर्माण भाग्य-रेखाओं से भी जटिल और दुर्ग्राह्य होता है। Munshi Premchand Ki Kahani

संभव है कि वर्तमान शिक्षा विधान ने ज्योतिष का आदर कुछ कम कर दिया हो पर ज्योतिषी जी के माहात्म्य में जरा कमी नहीं हुई। उनकी बातों पर चाहे किसी को विश्वास न हो पर सुनना सभी चाहते हैं। उनके एक-एक शब्दों में आशा और भय को उत्तेजित करने की शक्ति भरी रहती है, विशेषतः उसकी अमंगल सूचना तो वज्रपात के तुल्य है, घातक और दग्धकारी। premchand ki kahani

तार भेजे हुए आज पाँचवाँ दिन था कि कुँवर साहब के द्वार पर एक ज्योतिषी का आगमन हुआ। तत्काल मुहल्ले की महिलाएँ जमा हो गयीं। ज्योतिषी जी भाग्य-विवेचन करने लगे, किसी को रुलाया, किसी को हँसाया। मनोरमा को खबर मिली। उन्हें तुरंत अंदर बुला भेजा और स्वप्न का आशय पूछा।

ज्योतिषी जी ने इधर-उधर देखा, पन्ने के पन्ने उल्टे, उँगलियों पर कुछ गिना, पर कुछ निश्चय न कर सके कि क्या उत्तर देना चाहिए, बोले- क्या सरकार ने यह स्वप्न देखा है ?

मनोरमा बोली- नहीं, मेरी एक सखी ने देखा है, मैं कहती हूँ, यह अमंगलसूचक है। वह कहती है, मंगलमय है। आप इसकी क्या विवेचना करते हैं ?

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ज्योतिषी जी फिर बगलें झाँकने लगे। उन्हें अमरनाथ की यात्रा का हाल न मालूम था और न इतनी मुहलत ही मिली थी कि यहाँ आने के पूर्व वह अवस्थाज्ञान प्राप्त कर लेते जो अनुमान के साथ मिल कर जनता में ज्योतिष के नाम से प्रसिद्ध है। जो प्रश्न पूछा था उसका भी कुछ सूत्रसूचक उत्तर न मिला। निराश हो कर मनोरमा के समर्थन करने ही में अपना कल्याण देखा। बोले सरकार जो कहती हैं वही सत्य है। यह स्वप्न अमंगलसूचक है।

मनोरमा खड़ी सितार के तार की भाँति थर-थर काँपने लगी। ज्योतिषी जी ने उस अमंगल का उद्घाटन करते हुए कहा- उनके पति पर कोई महान् संकट आनेवाला है, उनका घर नाश हो जायगा, वह देश-विदेश मारे-मारे फिरेंगे।

मनोरमा ने दीवार का सहारा ले कर कहा भगवान्, मेरी रक्षा करो और मूर्च्छित हो कर जमीन पर गिर पड़ी। Munshi Premchand Ki Kahani

ज्योतिषी जी अब चेते। समझ गये कि बड़ा धोखा खाया। आश्वासन देने लगे, आप कुछ चिंता न करें। मैं उस संकट का निवारण कर सकता हूँ। मुझे एक बकरा, कुछ लौंग और कच्चा धागा मँगा दें। जब कुँवर जी के यहाँ से कुशल-समाचार आ जाय तो जो दक्षिणा चाहें दे दें। premchand ki kahani

काम कठिन है पर भगवान् की दया से असाध्य नहीं है। सरकार देखें मुझे बड़े-बड़े हाकिमों ने सर्टिफिकेट दिये हैं। अभी डिप्टी साहब की कन्या बीमार थी। डाक्टरों ने जवाब दे दिया था। मैंने यंत्र दिया, बैठे-बैठे आँखें खुल गयीं। कल की बात है, सेठ चंदूलाल के यहाँ से रोकड़ की एक थैली उड़ गयी थी, कुछ पता न चलता था, मैंने सगुन विचारा और बात की बात में चोर पकड़ लिया। उनके मुनीम का काम था, थैली ज्यों की त्यों निकल आयी। premchand ki kahani

ज्योतिषी जी तो अपनी सिद्धियों की सराहना कर रहे थे और मनोरमा अचेत पड़ी हुई थी।
अकस्मात् वह उठ बैठी, मुनीम को बुलाकर कहा यात्रा की तैयारी करो, मैं शाम की गाड़ी से बुंदेलखंड जाऊँगी। Munshi Premchand Ki Kahani

मनोरमा ने स्टेशन पर आ कर अमरनाथ को तार दिया ‘मैं आ रही हूँ। उनके अंतिम पत्र से ज्ञात हुआ था कि वह कबरई में हैं, कबरई का टिकट लिया। लेकिन कई दिनों से जागरण कर रही थी। गाड़ी पर बैठते ही नींद आ गयी और नींद आते ही अनिष्ट शंका ने एक भीषण स्वप्न का रूप धारण कर लिया।

उसने देखा सामने एक अगम सागर है, उसमें एक टूटी हुई नौका हलकोरें खाती बहती चली जाती है। उस पर न कोई मल्लाह है न पाल, न डाँडें। तरंगें उसे कभी ऊपर ले जाती हैं कभी नीचे, सहसा उस पर एक मनुष्य दृष्टिगोचर हुआ। यह अमरनाथ थे, नंगे सिर, नंगे पैर, आँखों से आँसू बहाते हुए।

मनोरमा थर-थर काँप रही थी। जान पड़ता था नौका अब डूबी और अब डूबी। उसने जोर से चीख मारी और जाग पड़ी। शरीर पसीने से तर था, छाती धड़क रही थी। वह तुरंत उठ बैठी, हाथ-मुँह धोया और इसका इरादा किया अब न सोऊँगी ! हा ! कितना भयावह दृश्य था। परम पिता ! अब तुम्हारा ही भरोसा है। उनकी रक्षा करो। Munshi Premchand Ki Kahani

उसने खिड़की से सिर निकालकर देखा। आकाश पर तारागण दौड़ रहे थे। घड़ी देखी, बारह बजे थे, उसको आश्चर्य हुआ मैं इतनी देर तक सोयी। अभी तो एक झपकी भी पूरी न होने पायी। उसने एक पुस्तक उठा ली और विचारों को एकाग्र कर पढ़ने लगी।

इतने में प्रयाग आ पहुँचा, गाड़ी बदली। उसने फिर किताब खोली और उच्च स्वर से पढ़ने लगी। लेकिन कई दिनों की जगी आँखें इच्छा के अधीन नहीं होतीं। बैठे-बैठे झपकियाँ लेने लगी, आँखें बंद हो गयीं और एक दूसरा दृश्य सामने उपस्थित हो गया। Munshi Premchand Ki Kahani

उसने देखा, आकाश से मिला हुआ एक पर्वत-शिखर है। उसके ऊपर के वृक्ष छोटे-छोटे पौधों के सदृश दिखाई देते हैं। श्यामवर्ण घटाएँ छायी हुई हैं, बिजली इतने जोर से कड़कती है कि कान के परदे फटे जाते हैं, कभी यहाँ गिरती है कभी वहाँ। शिखर पर एक मनुष्य नंगे सिर बैठा हुआ है, उसकी आँखों का अश्रु-प्रवाह साफ दीख रहा है। मनोरमा दहल उठी, यह अमरनाथ थे।

वह पर्वत शिखर से उतरना चाहते थे लेकिन मार्ग न मिलता था। भय से उनका मुखवर्ण शून्य हो रहा था। अकस्मात् एक बार बिजली का भयंकर नाद सुनायी दिया, एक ज्वाला-सी दिखायी दी और अमरनाथ अदृश्य हो गये। मनोरमा ने फिर चीख मारी और जाग पड़ी।

उसका हृदय बाँसों उछल रहा था, मस्तिष्क चक्कर खाता था। जागते ही उसकी आँखों में जल-प्रवाह होने लगा। वह उठ खड़ी हुई और कर जोड़ कर ईश्वर से विनय करने लगी ईश्वर मुझे ऐसे बुरे-बुरे स्वप्न दिखाई दे रहे हैं, न जाने उन पर क्या बीत रही है, तुम दीनों के बन्धु हो, मुझ पर दया करो, मुझे धन और सम्पत्ति की इच्छा नहीं, मैं झोपड़ी में खुश रहूँगी, मैं केवल उनकी शुभकामना रखती हूँ। मेरी इतनी प्रार्थना स्वीकार करो। Munshi Premchand Ki Kahani

वह फिर अपनी जगह पर बैठ गयी। अरुणोदय की मनोरम छटा और शीतल सुखद समीर ने उसे आकर्षित कर लिया। उसे संतोष हुआ, किसी तरह रात कट गयी, अब तो नींद न आयेगी।

पर्वतों से मनोहर दृश्य दिखायी देने लगे, कहीं पहाड़ियों पर भेंड़ों के गल्ले, कहीं पहाड़ियों के दामन में मृगों के झुंड, कहीं कमल के फूलों से लहराते सागर। मनोरमा एक अर्धस्मृति की दशा में इन दृश्यों को देखती रही। लेकिन फिर न जाने कब उसकी अभागी आँखें झपक गयीं।

उसने देखा अमरनाथ घोड़े पर सवार एक पुल पर चले जाते हैं। नीचे नदी उमड़ी हुई है, पुल बहुत तंग है, घोड़ा रह-रह कर बिदकता है और अलग हो जाता है। मनोरमा के हाथ-पाँव फूल गये। वह उच्च-स्वर से चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगी घोड़े से उतर पड़ो, घोड़े से उतर पड़ो, यह कहते हुए वह उनकी तरफ झपटी, आँखें खुल गयीं। Munshi Premchand Ki Kahani

गाड़ी किसी स्टेशन के प्लेटफार्म से सनसनाती चली जाती थी। अमरनाथ नंगे सिर, नंगे पैर प्लेटफार्म पर खड़े थे। मनोरमा की आँखों में अभी तक वही भयंकर स्वप्न समाया हुआ था। कुँवर को देख कर उसे भय हुआ कि वह घोड़े से गिर पड़े और नीचे नदी में फिसलना चाहते हैं।

उसने तुरन्त उन्हें पकड़ने के लिए हाथ फैलाया और जब उन्हें न पा सकी तो उसी सुषुप्तावस्था में उसने गाड़ी का द्वार खोला और कुँवर साहब की ओर हाथ फैलाये हुए गाड़ी के बाहर निकल आयी। तब वह चौंकी, जान पड़ा किसी ने उठा कर आकाश से भूमि पर पटक दिया, जोर से एक धक्का लगा और चेतना शून्य हो गयी। Munshi Premchand Ki Kahani

वह कबरई का स्टेशन था। अमरनाथ तार पा कर स्टेशन पर आये थे। मगर यह डाक थी, वहाँ न ठहरती थी, मनोरमा को हाथ फैलाये गाड़ी से गिरते देख कर वह ‘हाँ हाँ’ करते हुए लपके लेकिन कर्मलेख पूरा हो चुका था। मनोरमा प्रेमवेदी पर बलिदान हो चुकी थी।

इसके तीसरे दिन वह नंगे सिर, नंगे पैर भग्नहृदय घर पहुँचे। मनोरमा का स्वप्न सच्चा हुआ। उस प्रेमविहीन स्थान में अब कौन रहता। उन्होंने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति काशी-सेवा समिति को प्रदान कर दी और अब नंगे सिर, नंगे पैर, विरक्त दशा में देश-विदेश घूमते रहते हैं। ज्योतिषी जी की विवेचना भी चरितार्थ हो गयी। premchand ki kahani

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