सूरदास का जीवन परिचय (Surdas Ka Jivan Parichay)

सूरदास का जीवन परिचय (Surdas Ka Jivan Parichay) :-

पूरा नासूरदास
जन्म1478 ई
पितापंडित रामदास बैरागी
कर्मभूमिब्रज, (मथुरा आगरा)
भाषाअवधि
कविसगुण भक्ति काव्य
मृत्यु1563 ई
सूरदास का जीवन परिचय

महाकवि सुरदास :-

हिंदी साहित्य मैं महान कृष्णभक्त कवि के रूप मैं सूरदास का नाम सबसे आता है। इन्हें मुक्तक काव्य लिखने वाले मुख्य कवियों मैं से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। जैसे सुंदर गीत या पद इन्होंने लिखी है वैसे हिंदी मैं काश ही किसी कवि ने लिखा हो।

जिसप्रकार प्रबंध काव्य लिखने में तुलसीदास बेजोड़ है, उसी प्रकार मुक्तक काव्य लेखकों में सूरदास सर्वश्रेष्ठ माने जाते है।

एक श्रेष्ठ कृष्ण भक्त कावि के रूप मैं सूरदास सबसे पहले माने जाते है। गोसाई बिट्ठलनाथ जी ने जिन आठ श्रेष्ठ कृष्ण कविओं को अष्टछाप मैं स्थान दिया है, उनके से सूरदास भी एक कवि है।

सूरदास का जीवन परिचय (Surdas ka jivan parichay):-

सूरदास जी के जन्म के विषय मैं प्रामाणिक रूप से जानकारी का घोर अभाव है। महाकवि सूरदास का जन्म 1478 ई के आसपास मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित “रुनकता” नामक गांव में हुआ था। कुछ लोगों का कहना है कि सूरदास जी का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

इनको वात्सल्य रस के सम्राट के रूप मैं माना जाता हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। इनकी मृत्यु अनुमानत: 1583 के आसपास हुई। इनके बारे में भक्तमाल और चौरासी वैष्णवन की वार्ता से थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है।

इनकी एक पुस्तक साहित्य लहरी में एक् पद है, जिससे यह अनुमान होता है कि ये चन्द के बंशज थे। कहा जाता है इनके पिता का नाम हरिश्चन्द्र था। सूरदासजी के ६ भाई और थे । वेमुसलमानों के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

आइने अकबरी और मुशियात अबुल फज्ञल में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किंतु वे वनारस के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं। अनुश्रति यह अवश्य कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे। भक्तमाल में इनकी भक्ति, कविता एवं गुरणों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है।

चौरासी वैष्णवन की वार्ता के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु या स्वामी के रूप में रहते थे। जिसका नाम गोघात बताया जाता है। सन १५७६ में उनकी भैंट महाप्रभु बल्लभाचार्य से हुई। तब बल्लभाचार्य ने पुष्टि मार्ग नामक संप्रदाय का प्रारम्भ किया था और इन्हॉने गोवर्धन पर श्रीनाथजी का प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया था।

वे उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे। कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हं यहाँ कीर्तन का कार्य सौप या था। Surdas ka jivan parichay

साहित्य रचना :-

सूरदास वात्सल्य और शृंगार के श्रेष्ठ कवि के रूप मैं माने जाते हैं। भारतीय साहित्य तो क्या, संभवत: विश्व-साहित्य में भी शायद ही कोई कवि वात्सल्य के क्षेत्र में उनके समकक्ष होंगे। यह उनकी ऐसी विशेषता है कि केवल इसी के आधार पर वे साहित्य-क्षेत्र में अत्यंत उच्च स्थान के अधिकारी माने जा सकते हैं।

बाल-जीवन का पर्यवेक्षण एवं चित्रण महान सहृदय और मानव-प्रेमी व्यक्त ही कर सकता है। इन्होंने वात्सल्य और श्रृंगार का वर्णन लोक सामान्य की भाव-भूृमि पर किया है। मार्मिकता, मनोवैज्ञानिकता, स्वाभाविकता जीवन के यथार्थ में ही होते हैं।

फिर यथार्थ अपने विविध आयामों को अंतस्संबंधित किए होता है। तुलसी की अपेक्षा सूर का विषय-क्षेत्र सीमित अवश्य है, किंतु सूर ने राधाकृष्ण की प्रेम-लीला और, कृष्ण की बाल -लीला को प्रकृति और कर्म के विशद् क्षेत्र का संदर्भ प्रदान कर दिया है। लोक-साहित्य में यह संदर्भ सहज तौर पर जुड़ा दिखलाई पड़ता है।

विनय के पद उनकी भक्ति की उत्कृष्टता के प्रमाण हैं । लेकिन बालकृष्ण के मनोभावों, क्रीड़ाओं के वर्णन में वे विश्वप्रसिद्ध कवि हैं । बालक का मनोविज्ञान, हावभाव, खेल-कौतुक के वर्णन में सूर अद्वितीय हैं ।

इसी प्रकार श्रीकृष्ण, राधिका और गोपयों के साथ संयोग और वियोग श्रृंगार के वर्णन में भी अप्रतिम हैं। उनकी भाषा परिमार्जित है, अलंकार भरे पड़े हैं । संगीतात्मकता बोहोत आकर्षणीय है । मानवीय प्रेमभावों की विविधता और चरम अनुभूतियों का मर्मस्पर्शी वर्णन सूर की विशेषता है और सर्वोत्कृष्ट पद वात्सल्य रस संबंधी हैं।

इसलिए उन्हें वात्सल्य रस का सम्राट कहा जाता है। “भ्रमरगीत’ सूर की अत्यंत, लोकप्रिय रचना है । गोपियों के पास उद्धव श्रीकृष्ण का संदेश लेकर ब्रज आते हैं। पर उनका ज्ञान और योग का पांडित्य गोपियों के सरल, सहज, व्यंग्यात्मक उक्तियों से हार जाता है ।Surdas ka jivan parichay

हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि “सूर दास जब वर्णन करते तो सारा अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे दौड़ जाता था । सच में, भाव और भाषा दोनों के अद्वितीय अधिकारी महाकवि सूरदास ही हैं, जिन्होंने ब्रजभाषा को ही अपनी भावाभिव्यक्त का माध्यम बनाया ।

लोक-साहित्य की सहज जीवंतता जितनी सूर के साहित्य में मिलती है, उतनी हिंदी के किसी कवि में नहों मिलती। सुर का बाल-लीला वर्णन अपनी सहजता, मनोवैज्ञानिकता एवं स्वाभाविकता में अद्वितीय है। उनका काव्य बाल-चेष्याओं के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का मंडार है।

उनके भक्ति ने भगवान का मानवीकरण कर दिया था। सूर के कृष्ण सामान्य बालक बन गए हैं, जो हठ करके ऑगन में लोटने लगते हैं-काहे को आरि करत मेरे मोहन ! यों तुम औगन लोटी।

कृष्ण चलना सीख रहे हैं और पैर डगमगाते हैं। यशोदा हाथ पकड़कर उन्हें चलना सिखलाती हैं-सिखवत चलन जसोदा मैयाअरबराय कारि पानि गहावति डगमगात धरे पैयाँ।सुरदास के बाल-लीला वर्णन में चित्रण ऐसा है जिसकी दृश्यता में जीवन स्पदित है।

पक्तियाँ इतनी सहज हैं कि सपाट लगती हैं, किंतु उनमें मार्मिकता रची-बसी होती है। पाठक और श्रोता उस मार्मिकता को अचूक तौर पर ग्रहण कर लेते हैं।

महाकवि पहले विनय और दास्य भाव के पद लिखा करते थे। किंतु बल्लभाचार्य की आज्ञा से उन्होंने श्रीमदभागवत पुराण की कथा का गायन पदों में किया। सूरसागर की कथा भागवत प्राण के दशम स्कंध से ली गई है।

इसमें कृष्णजन्म से लेकर श्रीकृष्ण के मथ्रा जाने तक की कथा फुटकल पर्दों में है। साहित्य लहरी में सूरदास केदृष्टकूट पद संकलित हैं।सूरदास के पहले ब्रजभाषा में काव्य-रचना की परंपरा तो मिल जाती है| किंतु भाषा की यह प्रोढता, चलतापन और काव्य का यह उत्कर्ष नहीं मिलता।

जैसे कि सूर के काव्य ब्रजभाषा के प्रवतक न हों, किसी परंपरा के चरमोत्कर्ष हो।

शुक्ल जी ने सूर को एक ओर जयदेव, चंडीदास और विद्यापति की परंपरा से जोड़ा है, तो दूसरी ओर लोक -गीतों की परंपरा से भी उन्हें जोड़ा है। विद्यापति और सूरदास में जो निरीहता, तन्मयता मिलती है, अनुभूतियों को जिस प्रकार बाह्य प्रकृति के ताने-बाने में बुना गया है, वह लोकगीतों की विशेषता है।

लोकगीतों में अभिव्यक्ति इतनी निश्छल होती है कि वह शास्त्रीयता और सामाजिक विधि-निषेध की मर्यादा का निर्वाह नहीं कर सकती। लगता है कि लोकजीवन और साहित्य में राधा-कृष्ण की जो परंपरा पहले से चली आ रही थी, वह भक्तिकाल में प्रकट हुई।

जयदेव का गीत-गोविंद, विद्यापति की पदावली, चंडीदास का काव्य और सूरदास का सूरसागर उसी परंपरा से जुड़े है।

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सूरसागर(Sursagar):-

सूरसागर सूरदास द्वारा रचित सबसे प्रसिद्द रचना हैं. जिसमे सूरदास के कृष्ण भक्ति से युक्त सवा लाख पदों का संग्रहण होने की बात कही जाती हैं. लेकिन वर्तमान समय में केवल सात से आठ हजार पद का अस्तित्व बचा हैं. विभिन्न-विभिन्न स्थानों पर इसकी कुल 100 से भी ज्यादा प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुयी हैं.

सूरदास के इस ग्रन्थ में कुल 12 अध्यायों में से 11 संक्षिप्त रूप में व 10वां स्कन्ध बहुत विस्तार से मिलता हैं. इसमें भक्तिरस की प्रधानता हैं. दशम स्कंध को भी दो भाग दशम स्कंध (पूर्वार्ध) और दशम स्कंध (उत्तरार्ध) में बांटा गया हैं।

सूरसागर की जितनी भी प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुयी हैं वह सभी 1656 से लेकर 19वीं शताब्दी के बीच तक की हैं. इन सब में सबसे प्राचीन प्रतिलिपि मिली हैं वह राजस्थान के नाथद्वारा के सरस्वती भण्डार से मिली हैं।

आधुनिक काल के प्रमुख कवि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सूरसागर के बारे में कहा हैं कि

“काव्य गुणों की इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौन्दर्य है. वह उस रमणीय उद्यान के समान नहीं जिसका सौन्दर्य पद-पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाता है, बल्कि उस अकृत्रिम वन-भूमि की भाँति है जिसका रचयिता रचना में घुलमिल गया है।

सूरसारावली(Sursaravali):-

सूरसारावली में कुल 1107 छंद हैं. इस ग्रन्थ की रचना सूरदास ने 67 वर्ष की उम्र में की थी. यह सम्पूर्ण ग्रन्थ एक “वृहद् होली” गीत के रूप में रचित है

साहित्य-लहरी (Sahitya-Lahri):-

साहित्यलहरी 118 पदों की एक लघुरचना हैं. इस ग्रन्थ की सबसे खास बात यह हैं इसके अंतिम पद में सूरदास ने अपने वंशवृक्ष के बारे में बताया हैं जिसके अनुसार सूरदास का नाम “सूरजदास” हैं और वह चंदबरदाई के वंशज हैं. चंदबरदाई वहीँ हैं जिन्होंने “पृथ्वीराज रासो” की रचना की थी. साहित्य-लहरी में श्रृंगार रस की प्रमुखता हैं

नल-दमयन्ती(Nal-Damyanti):-

नल-दमयन्ती सूरदास की कृष्ण भक्ति से अलग एक महाभारतकालीन नल और दमयन्ती की कहानी हैं. जिसमे युधिष्ठिर जब सब कुछ जुएँ में गंवाकर वनवास करते हैं तब नल और दमयन्ती की यह कहानी ऋषि द्वारा युधिष्ठिर को सुनाई जाती हैं।

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सूरदास का चिंतन पक्ष :-

मुक्तकों में ऐसी स्वाभाविक संवाद-योजना भी कम मिलेगी। सूरदास द्वारा चित्रित राधा और कृष्ण की प्रेम-लीला में मध्यकालीन पराधीन नारी के सहज एवं स्वाधीन जीवन का स्वप्न जैसे साकार हो उठा है। सूरदास के समय अर्थात् सोलहवीं शती में ब्रज़ में नारियों को वह स्वाधीनता नहीं थी, जिसका वर्णन सूरसागर में मिलता है।

यह सच है कि रास-लीला का साधनाल्मक अर्थ भी है, जहाँ गोपियों साधकों की प्रतीक हैं, किंतु काव्य का प्रतीकार्थ ही ठीक नहीं होता, उसका साधारण या वाच्यार्थ भी संगत होता है। गोपियाँ लोक-लाज तजकर घर की चार दीवार ही नहीं तोड़तीं, वे कृष्ण की बाँसुरी सुनकर उस सामाजिक व्यवस्था को भी तोड़ृती हैं, जो नारियों को पराधीन रखती है।

जिस तरह तुलसी ने मध्यकालीन भारत में दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित ‘रामराज्य’ का स्वप्न देखा है, वैसे ही सूर ने भी कृष्ण-कथा और रास-लीला के माध्यम से एक ऐसा सर्वसुखद स्वप्न देखा है, जिसमें नारी और पुरुष दोनों मैं समान तोर पर स्वाधीनता हो। रास-लीला सुख-विभोर मानवता का सजीव गतिमय स्पदित चित्र है।

यहाँ मनुष्य सृष्टि ने साथ ताल, लय, गति, प्राण, अनुभूति सभी तरह से एकरमक हो गया है। ऐसा स्वप्न जो अखंड अनुभूति का हो, सूर ने देखा था। तुलसीदास नारी पराधीनता को महसूस करते थे, उसकी पीड़ा का चित्रण कर सकते थे, किंतु सामाजिक निषेधों में अंतर्निहित अमानवीयता को सूरदास की तरह तोड़ नहीं सकते थे।

सूरदास की भाषा:-

सूरदास ब्रजभाषा के प्रथम प्रतिष्ठित कवि हैं। सूरदास के गेयपद मुक्तक हैं, किंतु उनमें प्रबंधात्मकता का रस है। इसलिए उन्हें गेयपद के साथ-साथ “लीला-पद’ भी कहा जाता है। उनकी भाषा में साहित्यिकता के साथ चलतापन एवं प्रवाह भी है।

कहीं-कहीं वे गीत-गोविंद के वर्णान्प्रास की शैली भी अपना लेते हैं। सूरदास भी यथास्थान विविध शैलियों को अपनाते हैं।

उनकी कविता में लोक साहित्य की सरलता ही नहीं, काव्य- परंपरा से सुपरिचित रूढ़ियों की उपयोग भी है। साथ ही इन्होंने विरह-वर्णन का भी अपनी रचनाओं में बड़ा ही मनोरम चित्रण किया है। उनका विरह-वर्णन भी अधिकांशत: स्वाभाविक पद्धति से ही चित्रित है। इसमें भी कृष्ण की स्मृति प्राय: दैनंदिन जीवन-प्रसंगों में आती है।

अवश्य ही कहीं -कहीं सूर ने रूढ़ उपमानों की कुछ ज्यादा ही उपयोग किया है या अतिशयोक्ति से काम लेते हुए काव्य मैं चमत्कार पैदा किया है। इसके अलावा सूरदास के विरह-वर्णन की मार्मिकता का आधार विरहावस्था में हृदय की नाना वृत्तियों का स्वाभाविक पद्धति पर चित्रण है।

सूरदास के प्रसिद्ध दोहें (Surdas ke dohe) :-

अबिगत गति कछु कहति न आवै।

ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥

परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।

मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥

रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।

सब बिधि अगम बिचारहिं तातों सूर सगुन लीला पद गावै।।

अर्थ : इस दोहे में सूरदास समझाते हैं कि कुछ ऐसी बातों होती हैं जिसे सिर्फ मन ही समझ सकता है और कोई नही। जिस प्रकार एक गूंगे को मिठाई खिलाने पर वह उसके स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता है परंतु उसका मन उस भाव को समझ सकता है।

ठीक उसी तरह निराकार ब्रह्म ईश्वर का ना कोई रूप होता है, ना गुण। वहां पर मन स्थिर नहीं हो सकता है। उसी तरह श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन करने पर सूरदास को जो आनंद मिलता है उसे सिर्फ उसका मन ही समझ सकता है। वे उस आनन्द का वर्णन नहीं कर सकते हैं।

बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥

अर्थ : इस दोहे में सूरदास ने कहा है कि श्री कृष्ण जब एक सखी से पूछते हैं कि तुम कौन हो? तुम कहां रहती हो?, तुम्हारी मां कौन है? मैंने तुम्हें ब्रज में कभी नहीं देखा है। तुम्हारी बेटी ब्रज में आकर हमारे साथ क्यों नहीं खेलती है?

सखी नंद के लाला जो चोरी करता है उसे बस चुपचाप सुनती है। श्री कृष्ण कहते हैं कि हमें खेलने के लिए एक और सखी मिल गई है। यहां श्री कृष्ण श्रृंगार रस के ज्ञाता हैं।और इस तरह वह कृष्ण और राधा की बातों को सुंदर तरह से बताते हैं।

मुख दधि लेप किए सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥

अर्थ : इस दोहे में सूरदास कहते हैं कि श्री कृष्ण अभी छोटे हैं और यशोदा के घर के आंगन में घुटनों के बल चलते हैं। उनके छोटे हाथों में मक्खन लगा हुआ है। बालक कन्हैया के शरीर पर मिट्टी लगी है। मुंह पर दही लगा है। उनके गाल सुंदर हैं और आंखें चंचल हैं। श्री कृष्ण के माथे पर तिलक लगा हुआ है। उनके बाल घुंघराले हैं।

जब वे घुटने के बल चलते हैं तो उनके घुंघराले बाल उनके गालों पर झूलने लगते हैं जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे भंवरा फूल का रस पीकर झूम रहा है। बालक कृष्ण की सुंदरता और भी बढ़ जाती है क्योंकि उनके गले में कंठ हार और सिंह नख पड़ा हुआ है।

सूरदास जी इस दोहे में कहते हैं कि श्री कृष्ण के इस अद्भुत रूप का दर्शन जिसे भी एक बार हो जाता है उसका जीवन सार्थक हो जाता है। उसके लिए सौ युगो तक जीवन जीना भी निरर्थक साबित हो जाता है।

अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs):-

सूरदास की भक्ति के दो रूप कौन से हैं?
सूरदास ने पुष्टिमार्गीय सेवा भाव को अपनाते हुए भक्ति के तीनों रूप गुरु सेवा, सन्त सेवा तथा प्रभु सेवा को अपनी भक्ति भावना में स्थान दिया है।

साहित्य – लहरी किसके द्वारा रचित ग्रन्थ है ?
साहित्य – लहरी हिंदी साहित्य के महान कवि सूरदास जी के द्वारा रचित ग्रथ है।

सूरदास ने कितनी रचनाएं लिखी?
सूरदास ने 16 से अधिक रचनाये की हैं।

सूरदास का जन्म कब हुआ था?
उत्तर: सूरदास का जन्म 1478 ई० में हुआ था।

सूरदास ने क्या लिखा था?
सूरदास जी द्वारा रचित कुल पांच ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, जो निम्नलिखित हैं: सूर सागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती और ब्याहलो। इनमें से नल दमयन्ती और ब्याहलो की कोई भी प्राचीन प्रति नहीं मिली है। कुछ विद्वान तो केवल सूर सागर को ही प्रामाणिक रचना मानने के पक्ष में हैं।

सूरदास की कृष्ण भक्ति क्या है?

सूरदास की रचनाओं में कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति का वर्णन मिलता है. इन रचनाओं में वात्सल्य रस, शांत रस, और श्रंगार रस शामिल है।

सूरदास जी अंधे कैसे हुए थे?

सूरदास जी के अंधे बाद मैं हुए या फिर वे जन्मांध थे इसके बिषय मैं कुछ साफ पता नही चलता हैं, क्यूँ की इसके वारे मैं अनेकों जनश्रुतियाँ मिलते हैं।

सूरदास ने क्या लिखा था?

सूरदास जी द्वारा रचित कुल पांच ग्रन्थ अभितक उपलब्ध हो पाए हैं, जो निम्नलिखित हैं, सूर सागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती और ब्याहलो।

सूरदास ने कितनी रचनाएं लिखी?

सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं, जो की अभितक उपलब्ध हो पाए हैं।

सूरदास ने कुल कितने पद लिखे?

भ्रमरगीत में सूरदास ने लगभग 752 पद लिखे हैं।

अंतिम कुछ शब्द :-

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Wikipedia Page :- जीबन परिचय

ये भी देखें :-

hindisikhya.in

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