महादेवी वर्मा का जीवन परिचय (Mahadevi Verma Ka Jivan Parichay)

महादेवी वर्मा का जीवन परिचय (Mahadevi Verma Ka Jivan Parichay) :-

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महादेवी वर्मा (Mahadevi Verma) छायावादी आंदोलन की कवयित्री व लेखिका थी। अपने रचनाओं के लिए उन्हें आधुनिक मीरा भी कहा जाता है। महादेवी वर्मा की कविताएँ व कहानियाँ पाठक के दिमाग में सदृश चित्र अंकित कर देती हैं।

उन्हें छायावादी आंदोलन के महान कवयित्रियों में एक गिना जाता है। कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने वर्मा को हिन्दी साहित्य की सरस्वती की उपाधि दी। ऐसा कहा जाता है कि वर्मा ने निराला को जीवनपर्यन्त 40 वर्षों तक राखी बांधी। वह महादेवी को अपनी मुँहबोली बहन मानते थे।

नाममहादेवी वर्मा
जन्म वर्ष1907
जन्म-स्थानफर्रुखाबाद
माता का नामश्रीमती हेमरानी देवी
पिता का नामश्री गोविंदसहाय वर्मा
पतिडॉक्टर स्वरूप नारायण मिश्रा
प्रारंभिक शिक्षाइंदौर
उच्च शिक्षाप्रयाग
प्रसिद्धिकवयित्री, लेखिका
भाषाखड़ी बोली
जीवनकाल80 वर्ष
कविताएँनिहार, रश्मी, नीरजा, संध्यागीत, प्रथम आयाम, सप्तपर्ण, दीपशिक्षा आदि।
कहानियाँअतीत के चलचित्र पथ के साथी, मेरा परिवार, संस्मरण. संभाषण, के रेहाये, आदि।
मृत्यु11 सितंबर, 1987
महादेवी वर्मा का जीवन परिचय (Mahadevi Verma Ka Jivan Parichay)

महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य में छायावाद की सशक्त हस्ताक्षर हैं। छायावाद के चार स्तंभों में सबसे प्रमुखता से उनका नाम लिया जाता है। महादेवी वर्मा को उनकी पारिवारिक और सामाजिक रचनाओं के लिए जाना जाता है।

इस पोस्ट में हम आपको महादेवी वर्मा का पूरा जीवन परिचय विस्तार से और सबसे सरल भाषा में बताएंगे तो आपको पोस्ट को पूरा पढ़ना है और लास्ट तक पढ़ना है और अंत में आपको बहुत ही इंपॉर्टेंट प्रश्न और उनके उत्तर भी मिलेंगे.

महादेवी वर्मा का जीवन परिचय (Jivan Parichay) :-

हिंदी साहित्य में आधुनिक मीरा के नाम से प्रसिद्ध कवियित्री एवं लेखिका महादेवी वर्मा जी का जन्म वर्ष 1907 में उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद शहर में हुआ था। महादेवी वर्मा के पिता जी गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर जिले के एक महाविद्यालय में प्राध्यापक थे। इनकी माताजी श्रीमती हेमरानी देवी हिंदू धर्म के सिंहासनासीन भगवान की पूजा अर्चना किया करती थी। इनका संपूर्ण परिवार रामायण, गीता का पाठ किया करता था।

नाना एवं माता के गुणों का महादेवी पर गहरा प्रभाव पड़ा। महादेवी वर्मा एक ऐसी कवयित्री हैं, जिन्होंने भारत के गुलामी और आजादी दोनो के दिन देखकर साहित्यिक रचनाएं की है। इनके परिवार में पहले कई पीढ़ियों से लड़कियां नहीं हुई इस कारण जब ये पैदा हुई तो इनके दादाजी बाबा बाबू बाँके विहारी जी ने इनको घर के देवी मानते हुए इनका नाम महादेवी रख दिया।

इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में और उच्च शिक्षा प्रयाग में हुई थी। नौ वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह स्वरूप नारायण वर्मा से हुआ, किंतु इन्हीं दिनों इनकी माता का स्वर्गवास हो गया, ऐसी विकट स्थिति में भी इन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा। महादेवी की माता संस्कृत व हिंदी दोनों भाषाओं की ज्ञाता थी। वह अपनी माता को कविताएं लिखने हेतु प्रेरित करने के लिए श्रेय भी देती है।

अत्यधिक परिश्रम के फल स्वरुप इन्होंने मैट्रिक से लेकर एम.ए. तक की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वर्ष 1933 में इन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ में प्रधानाचार्या पद को सुशोभित किया। इन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए काफी प्रयास किया साथ ही नारी की स्वतंत्रता के लिए ये सदैव संघर्ष करती रही। इनके जीवन पर गांधीजी का तथा कला साहित्य साधना पर रविंद्र नाथ टैगोर का प्रभाव पड़ा।

हिंदी साहित्य के अपने जीवन काल में छायावादी युग को अपने अनुसार डाल और उस युग में इनके साथी सुमित्रानंदन पंत और निराला जी को इन्होंने अपना भाई माना और उनको राखी भी बांधती थी।

महादेवी वर्मा का वैवाहिक जीवन (Mahadevi ji ka vaivahik Jivan) –

जब महादेवी वर्मा मात्र 11 वर्ष की थी तभी उनका विवाह डॉक्टर स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया गया था। किंतु विधि को कुछ और ही मंजूर था। महादेवी जी का वैवाहिक जीवन सुख में नहीं रहा। इनका जीवन असीमित आकांक्षाओं और महान आशाओं को प्रति फलित करने वाला था। इसलिए उन्होंने साहित्य सेवा के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।

महादेवी वर्मा जी की शिक्षा (Mahadevi Verma ji ki Shiksha) –

छठी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत ही 9 वर्ष जैसे की हुमने उपेर भी आलोचना किया है की बाल्यावस्था में ही महादेवी वर्मा का विवाह डॉक्टर स्वरूप नारायण वर्मा के साथ कर दिया गया।

इससे उनकी शिक्षा का क्रम टूट गया क्योंकि महादेवी के ससुर लड़कियों से शिक्षा प्राप्त करने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन जब महादेवी के ससुर का स्वर्गवास हो गया तो महादेवी जी ने पुनः शिक्षा प्राप्त करना शुरू किया।

वर्ष 19-20 में महादेवी जी ने प्रयाग से प्रथम श्रेणी में मिडिल पास किया। (वर्तमान उत्तर प्रदेश का हिस्सा प्रयागराज) संयुक्त प्रांत के विद्यार्थियों में उनका स्थान सर्वप्रथम रहा।

इसके फलस्वरूप उन्हें छात्रवृत्ति मिली। 1924 में महादेवी जी ने हाई स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और पुनः प्रांत बार में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इस बार भी उन्हें छात्रवृत्ति मिली। वर्ष 1926 में उन्होंने इंटरमीडिएट और वर्ष 1928 में बीए की परीक्षा क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में प्राप्त की।

1933 में महादेवी जी ने संस्कृत में मास्टर ऑफ आर्ट की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस प्रकार उनका विद्यार्थी जीवन बहुत सफल रहा।स्नातक में उनका एक विषय दर्शन भी था पूर्णविराम इसलिए उन्होंने भारतीय दर्शन का गंभीर अध्ययन किया इस अध्ययन की छाप उन पर अंत तक बनी रही।

महादेवी जी ने अपनी रचनाएं चांद में प्रकाशित होने के लिए भेजी। हिंदी संसार में उनकी उन प्रारंभिक रचनाओं का अच्छा स्वागत हुआ। इससे महादेवी जी को अधिक प्रोत्साहन मिला और फिर से वे नियमित रूप से काव्य साधना की ओर अग्रसर हो गई।

महादेवी जी का संपूर्ण जीवन शिक्षा विभाग से ही जुड़ा रहा। मास्टर ऑफ आर्ट m.a. की परीक्षा पास करने के पश्चात ही वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्य नियुक्त हो गई। उनकी कर्तव्यनिष्ठा में शिक्षा के प्रति लगाव और कार्यकुशलता के कारण ही प्रयाग महिला विद्यापीठ में निरंतर उन्नति की। महादेवी जी ने वर्ष 1932 में महिलाओं की प्रमुख पत्रिका चांद की संपादक बनी।

साहित्यिक परिचय ( Mahadevi Verma ji ki Sahityik Parichay) –

महादेवी वर्मा छायावाद और रहस्यवाद की प्रमुख कवयित्री हैं। छायावाद के चार महान कवियों के बृहद चतुष्ट्य में इनकी गणना की जाती है। महादेवी जी साहित्य और संगीत के अतिरिक्त चित्रकला में भी रुचि रखती थीं। सर्वप्रथम इनकी रचनाएं चांद नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई।

ये ‘चांद’ पत्रिका की संपादिका भी रहीं। इनकी साहित्य साधना के लिए भारत सरकार ने इन्हें पदम भूषण की उपाधि से अलंकृत किया। इन्हें ‘सेकसरिया’ तथा ‘मंगला प्रसाद’ पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया।

वर्ष 1983 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा इन्हें एक लाख रुपए का भारत-भारती पुरस्कार दिया गया तथा इसी वर्ष काव्य ग्रंथ यामा पर इन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार प्राप्त हुआ।

ये जीवन पर्यंत प्रयाग में ही रहकर साहित्य साधना करती रहीं। आधुनिक काव्य के साथ साज-श्रंगार में इनका अविस्मरणीय योगदान है। इनके काव्य में उपस्थित विरह-वेदना अपनी भावनात्मक गहनता के लिए अमूल्य मानी जाती है।

इसी कारण इन्हें आधुनिक युग की मीरा भी कहा जाता है। करुणा और भावुकता इनके काव्य की पहचान है।

महादेवी वर्मा का काव्य मुख्य रूप से पीड़ा का काव्य है। इसलिए उन्हें आधुनिक युग की ‘मीरा’ कहा जाता है। साहित्य और संगीत का अपूर्व संयोग करके ‘गीत‘ विधा को विकास की चरम सीमा पर पहुँचा देने का श्रेय महादेवी वर्मा को ही है।

महादेवी वर्मा मूलतः कवि हैं किन्तु उनका गद्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उनके गद्य में भी काव्य जैसा आनन्द आता है। इस प्रकार हिन्दी साहित्य जगत में महादेवी वर्मा का उच्चतम स्थान है।

हिंदी साहित्य में स्थान ( Mahadevi Verma ji ki Hindi Sahitya Mein Sthan) –

महादेवी जी की कविताओं में नारी ह्रदय की कोमलता और सरलता का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है। इनकी कविताएं संगीत की मधुरता से परिपूर्ण हैं।

इनकी कविताओं में एकाकीपन की भी झलक देखने को मिलती है। हिंदी साहित्य में पद्य लेखन के साथ-साथ अपने गद्य लेखन द्वारा हिंदी भाषा को सजाने-संवारने तथा अर्थ- गाम्भीर्य प्रदान करने का जो प्रयत्न इन्होंने किया है, वह प्रशंसा के योग्य है। हिंदी के रहस्यवादी कवियों में इनका स्थान सर्वोपरि है।

हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग के उपरांत कविताओं में जो धारा प्रवाहित हुई, उसे हम छायावादी कविताओं के नाम से जानते हैं और महादेवी छायावादी युग की एक महान कवियित्री थीं।

उनकी कविता की सबसे प्रमुख विशेषता भावुकता और भावना की तीव्रता है। हृदय की सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अभिव्यक्तियों की ऐसी जीवंत और मूर्त अभिव्यक्ति ‘वर्मा’ को छायावादी कवियों में सर्वश्रेष्ठ बनाती है।

उन्हें हिंदी में उनके भाषणों के लिए सम्मान के साथ याद किया जाता है। उनके भाषण आम आदमी के लिए करुणा और सच्चाई की दृढ़ता से भरे हुए थे।

मूल रचनाओं के अलावा, वह अपने अनुवाद ‘ सप्तपर्णा’ (1980) जैसी रचनाओं के साथ एक रचनात्मक अनुवादक भी थीं। अपनी सांस्कृतिक चेतना की सहायता से उन्होंने वेदों, रामायण, थेरगाथा और अश्वघोष, कालिदास, भवभूति और जयदेव की कृतियों की पहचान स्थापित कर अपनी कृतियों में हिंदी काव्य की 39 चुनी हुई महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रस्तुत की हैं।

‘अपना बात ‘ में, उन्होंने भारतीय ज्ञान और साहित्य की इस अमूल्य विरासत के संबंध में गहन शोध किया है, जो केवल सीमित महिला लेखन ही नहीं, बल्कि हिंदी की समग्र सोच और उत्तम लेखन को समृद्ध करती है।

साहित्य जगत में उनका योगदान इस बात से ही स्पष्ट है कि है कि वे आज भी हिंदी साहित्य की एक महान कवयित्री के रूप में याद की जाती हैं।

महादेवी वर्मा की रचानाएं (Mahadevi verma ki rachnayen)

काव्य संग्रह :-

महादेवी वर्मा ने कई काव्य संग्रहों (Mahadevi verma poems)की रचना की हैं, जिनमें नीचे दी गई रचनाओं से कई चयनित गीतों का संकलन किया गया है। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं –

  • निहार (1930)
  • रश्मि (1932)
  • नीरजा (1933)
  • संध्यागीत (1935)
  • प्रथम अयम (1949)
  • सप्तपर्णा (1959)
  • दीपशिखा (1942)
  • अग्नि रेखा (1988)
  • गद्य और रेखाचित्र

उनकी प्रमुख गद्य रचनाओं में शामिल हैं –

  • अतीत के चलचित्र (1961, रेखाचित्र)
  • स्मृति की रेखाएं (1943, रेखाचित्र)
  • पाठ के साथी (1956)
  • मेरा परिवार (1972)
  • संस्कारन (1943)
  • संभासन (1949)
  • श्रींखला के करिये (1972)
  • विवेचामनक गद्य (1972)
  • स्कंधा (1956)
  • हिमालय (1973)

महादेवी वर्मा की बाल कविताओं के दो संकलन इस प्रकार हैं-

  • ठाकुरजी भोले हैं
  • आज खरीदेंगे हम ज्वाला

भाषा शैली (Bhasha Shaili) –

महादेवी जी ने अपने गीतों में स्निग्ध और सरल, तत्सम प्रधान खड़ी बोली का प्रयोग किया है। इनकी रचनाओं में उपमा, रूपक, श्लेष, मानवीकरण आदि अलंकारों की छटा देखने को मिलती है।

इन्होंने भावात्मक शैली का प्रयोग किया, जो सांकेतिक एवं लाक्षणिक है। इनकी शैली में लाक्षणिक प्रयोग एवं व्यंजना के प्रयोग के कारण अस्पष्टता व दुरुहता दिखाई देती है।

महादेवी वर्मा का काव्य गीतिकाव्य है उनके काव्य में दो सहेलियां प्रमुखत चित्र शैली, प्रगति शैली हैं।
महादेवी वर्मा की भाषा शुद्ध साहित्य खड़ी बोली है।

काव्य साधना (Kavya Sadhna) –

महादेवी वर्मा छायावादी युग की प्रसिद्ध कवियत्रि हैं। छायावाद आधुनिक काल की एक सहेली होती है जिसके अंतर्गत विविध सौंदर्य पूर्ण अंगों पर चेतन सत्ता का आरोप कर उनका मानवीय करण किया जाता है।

महादेवी जी के काव्य की मूल भावना वेदना-भाव लेकिन जीवन में वेदना-भाव की उपज दो कारणों से होती है।

इस प्रकार इस में अनुभूति और सौंदर्य चेतना की अभिव्यक्ति को प्रमुख स्थान दिया जाता है। महादेवी जी के काव्य में यह दोनों विशेषताएं हैं।

अंतर मात्र इतना है कि जहां छायावाद के अन्य कवियों ने प्रकृति में उल्लास का अनुभव किया है वहीं इसके उलट महादेवी जी ने वेदना का अनुभव किया है।

महादेवी वर्मा ने अपने काव्य में कल्पना के आधार पर प्रकृति का मानवीकरण कर उसे एक विशेष भाव स्मृति और गीत काव्य से विभूषित किया है इसलिए महादेवी जी की रचनाओं में छायावाद की विभिन्न भागवत और कलाकात विशेषताएं मिलती हैं।

महादेवी वर्मा की काव्य विशेषताएँ (Mahadevi verma ki kavya vishesatayen)

महादेवी के काव्य में भाव समृद्धि तथा शैल्पिक सौन्दर्य का आकर्षक समन्वय है। आपके काव्य की उभयपक्षीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

भाव पक्ष :-

महादेवी जी के काव्य में आत्मनिवेदन का स्वर प्रधान है। अपने हृदय की विविध अनुभूतियों को ही कवयित्री ने काव्य का विषय बनाया है।

अज्ञात प्रियतम के प्रति विरह व्यथा का निवेदन, मिलन का संकल्प, रहस्यमयी संवेदनाएँ और प्रकृति का कोमलकान्त दृश्यांकन आपके गीतों के प्रधान विषय हैं।

आध्यात्मिकता और दार्शनिकता के झीने अंचल से आवृत्त आपके मृदुल उदगार एक मोहक भाव जगत् की सृष्टि करते हैं।

रस योजना:-

महादेवी जी के काव्य का प्रधान रस श्रृंगार है। यद्यपि श्रृंगार के संयोग तथा वियोग दोनो ही पक्षों को कवयित्री ने काव्य का विषय बनाया है, तथापि वियोग की अभिव्यक्ति ही अधिक तल्लीनता से हुई है।

यह वियोग लौकिक धरातल पर स्थित होते हुए भी अपनी भव्यता से अलौकिकता के अम्बर का स्पर्श करता चलता है।

वह कबीर की भाँति वियोगिनी आत्मा का प्रियतम परमात्मा के प्रति प्रेम निवेदन बनकर सहृदयों के हृदयों को भाव तरंगों में झुलाने लगता है।

वेदना:-

महादेवी का समस्त काव्य वेदनामय है। यह वेदना लौकिक वेदना से भिन्न आध्यात्मिक जगत् की है, जो उसी के लिए सहज संवेद्य हो सकती है, जिनसे उस अनुभूति-क्षेत्र में प्रवेश किया हो।

वैसे महादेवी इस वेदना को उस दु:ख की भी संज्ञा देती हैं, “जो सारे संसार को एक सूत्र में बाँधे रखने की क्षमता रखता है”। किन्तु विश्व को एक सूत्र में बाँधने वाला दु:ख सामान्यतया लौकिक दु:ख ही होता है, जो भारतीय साहित्य की परम्परा में करुण रस का स्थायी भाव होता है।

महादेवी ने इस दु:ख को नहीं अपनाया है। कहती तो हैं कि “मुझे दु:ख के दोनों ही रूप प्रिय हैं, एक वह, जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार से एक अविच्छिन्न बन्धनों में बाँध देता है और दूसरा वह जो काल और सीमा के बन्धन में पड़े हुए असीम चेतन का क्रन्दन है”।

किन्तु उनके काव्य में पहले प्रकार का नहीं, दूसरे प्रकार का ‘क्रन्दन’ ही अभिव्यक्त हुआ है। यह वेदना सामान्य लोक हृदय की वस्तु नहीं है।

सम्भवत: इसीलिए रामचन्द्र शुक्ल ने उसकी सच्चाई में ही सन्देह व्यक्त करते हुए लिखा है, “इस वेदना को लेकर उन्होंने हृदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखीं, जो लोकोत्तर हैं।

कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता”।

विषयवस्तु और दृष्टिकोण:-

वेदना की इस एकान्त साधना के फलस्वरूप महादेवी की कविता में विषयों का वैविध्य बहुत कम है। उनकी कुछ ही कविताएं ऐसी हैं, जिनमें राष्ट्रीय और सांस्कृतिक उद्बोधन अथवा प्रकृति का स्वतन्त्र चित्रण हुआ है।

शेष सभी कविताओं में विषयवस्तु और दृष्टिकोण एक ही होने के कारण उनकी काव्यभूमि विस्तृत नहीं हो सकी है। इससे उनके काव्य को हानि और लाभ दोनों हुआ है।

हानि यह हुई है कि विषय-परिवर्तन न होने से उनके समस्त काव्य में एकरसता और भावावृत्ति बहुत अधिक है। लाभ यह हुआ है कि सीमित क्षेत्र के भीतर ही कवयित्री ने अनुभूतियों के अनेकानेक आयामों को अनेक दृष्टिकोण से देख-परखकर उनके सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेद-प्रभेदों को बिम्बरूप में सामने रखते हुए चित्रित किया है।

इस तरह उनके काव्य में विस्तारगत विशालता और दर्शनागत गुरुत्व भले ही न मिले, पर उनकी भावनाओं की गम्भीरता, अनुभूतियों की सूक्ष्मता, बिम्बों की स्पष्टता और कल्पना की कमनीयता के फलस्वरूप गाम्भीर्य और महत्ता अवश्य है। इस तरह उनके काव्य विस्तार का नहीं गहराई का काव्य है।

प्रकृति निरूपण :-

प्रकृति के सौन्दर्य के प्रति कवयित्री की संवेदनशीलता में कोई कमी नहीं है, किन्तु प्रकृति को आलम्बन के रूप में कम ही कविता का विषय बनाया गया है। यह स्वल्प शब्द चित्र भी बड़े मौलिक और मनोहारी हैं।

प्रकृति को उद्दीपन विभाव के रूप में महादेवी ने बड़े कलात्मक और मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत किया है। वे भावों को प्रखरता तथा अनुभूतियों को तरल गम्भीरता प्रदान करके, कथ्य को अत्यन्त हृदयग्राही बना देती है। महादेवी जी का काव्य छायावादी काव्यशैली की सभी विशेषताओं से विभूषित है।

वैयक्तिकता, प्रकृति का मानवीकरण, श्रृंगार की साध्वी अभिव्यक्ति, सौन्दर्य निरूपण, लाक्षणिक अभिव्यक्ति तथा मानवतावादी दृष्टि आदि आपकी रचनाओं में मौलिक भाव-भंगिमा में प्रस्तुत है।

कबीर और जायसी के पश्चात् काव्यपरक रहस्यवाद के दर्शन हिन्दी में महादेवी जी के ही काव्य में होते हैं। महादेवी अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रणय निवेदन के क्षणों में आध्यात्मिक छोरों का स्पर्श करने लगती हैं।

महादेवी जी ने लोक चेतना से भी स्वयं को पूर्णतया विच्छिन्न नहीं किया है। उनके पास भी सन्देश हैं, प्रेरणा मार्ग-दर्शन है।

अनुभूतियाँ :-

महादेवी वर्मा का काव्य अनुभूतियों का काव्य है। उसमें देश, समाज या युग का चित्रांकन नहीं है, बल्कि उसमें कवयित्री की निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है।

उनकी अनुभूतियाँ प्रायः अज्ञात प्रिय के प्रति मौन समर्पण के रूप में हैं। उनका काव्य उनके जीवन काल में आने वाले विविध पड़ावों के समान है। उनमें प्रेम एक प्रमुख तत्त्व है जिस पर अलौकिकता का आवरण पड़ा हुआ है।

इनमें प्रायः सहज मानवीय भावनाओं और आकर्षण के स्थूल संकेत नहीं दिए गए हैं, बल्कि प्रतीकों के द्वारा भावनाओं को व्यक्त किया गया है। कहीं-कहीं स्थूल संकेत दिए गए हैं-

मेरी आहें सोती है इन ओठों की ओटों में,
मेरा सर्वस्व छिपा है इन दीवानी चोटों में।

कवयित्री ने सर्वत्र अपनी प्रणय-भावना का उन्नयन और परिष्कार किया है। इनके प्रेम का आलंबन विराट एवं विशाल है, जो अलौकिक है-

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ ।
नींद भी मेरी अचल निस्पंद कण-कण में,
प्रथम जागृति थी जगत् के प्रथम स्पंदन में,
प्रलय में मेरा पता पद-चिह्न जीवन में।

इन्होंने अन्य छायावादी कवियों की तरह प्रकृति पर सर्वत्र चेतना का आरोप किया है और उसके साथ विविध मधुर संबंधों की कल्पनाएँ की हैं-

रजनी ओढ़े जाती थी !
झिलमिल तारों की जाली,
उसके बिखरे वैभव पर,
जब रोती थी उजियाली।

दुःख-पीड़ा और विषाद महादेवी वर्मा के काव्य का मूल स्वर है और इन्हें सुख की अपेक्षा दुःख अधिक प्रिय है। परन्तु इनमें विषाद का वह भाव नहीं है जो कर्म शक्ति को कुंठित कर देता हो। इनमें संयम और त्याग है तथा दूसरों का हित करने की प्रबल आकांक्षा है-

मैं नीर भरी दुःख की बदली !
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा कभी न अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी थी कल मिट आज चली।

महादेवी का काव्य वर्णनात्मक और इतिवृत्तात्मक नहीं है। आन्तरिक सूक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति उन्होंने सहज भावोच्छवास के रूप में की है।

इस कारण उसकी अभिव्यंजना- पद्धति में लाक्षणिकता और व्यंजकता का बाहुल्य है। रूपकात्मक बिम्बों और प्रतीकों के सहारे उन्होंने जो मोहक चित्र उपस्थित किये हैं, वे उनकी सूक्ष्म दृष्टि और रंगमयी कल्पना की शक्तिमत्ता का परिचय देते हैं।

ये चित्र उन्होंने अपने परिपार्श्व, विशेषकर प्राकृतिक परिवेश से लिए हैं पर प्रकृति को उन्होंने आलम्बन रूप में बहुत कम ग्रहण किया। प्रकृति महादेवी वर्मा के काव्य में सदैव उद्दीपन, अलंकार, प्रतीक और संकेत के रूप में ही चित्रित हुई है।

इसी कारण प्रकृति के अति परिचित और सर्वजनसुलभ दृश्यों या वस्तुओं को ही उन्होंने अपने काव्य का उपादान बनाया है। उसके असाधारण और अल्पपरिचित दृश्यों की ओर उनका ध्यान नहीं गया है।

फिर भी सीमित प्राकृतिक उपादानों के द्वारा उन्होंने जो पूर्ण या आंशिक बिम्ब चित्रित किए हैं, उनसे उनकी चित्रविधायिनी कल्पना का पूरा परिचय मिल जाता है।

इसी कल्पना के दर्शन महादेवी वर्मा के उन चित्रों में भी होते हैं, जो उन्होंने शब्दों से नहीं, रंगों और तूलिका के माध्यम से निर्मित किए हैं। उनके ये चित्र ‘दीपशिखा’ और ‘यामा’ में कविताओं में प्रकाशित हुए हैं।

व्यक्तित्व में एकाकीपन की झलक :-

महादेवी की घनिष्ठतम मित्र, सहपाठिनी कवि सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी के अन्तरंग क्षणों की बात का उल्लेख करते हुए प्रसिद्ध कथाकार और प्रेमचन्द की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ के लेखक अमृत राय ने लिखा हैः- “दोनों स्त्रियां अपनी बातों में लीन, अपने परितृप्त बाल बच्चों में मगन बतियाये जा रही थीं कि एकाएक लगा कि जैसे कोई फूट फूट कर रो पड़ा।

वह रोना जैसे फूटा था वैसे ही भीतर समा भी गया पर कमरे में एकाएक सन्नाटा छा गया। जो व्यक्ति रो पड़ा उसका यह रूप इतना अप्रत्याशित था कि सब जैसे सकते में आ गये।

शुभ्रवसना, प्रसन्नवदना महादेवी जी जिनको लोगों ने सदा हंसते ही देखा था, वो कभी इस तरह फूट कर रो भी पड़ेंगी, इसकी किसी को कल्पना भी नहीं थी पर अनजाने ही, अपने सुख दुःख में भूली, अपने परिवार में मगन उन गृहणियों ने उनकी कौन सी दुखती रग छू दी थी कि उनका वह हंसमुख मुखौटा बरबस हट गया।

उस क्षण मैंने जिस निचाट सूने एकाकीपन की एक झलक पायी, वह सचमुच डरा देने वाली थी पर उसी के साथ साथ ऐसी स्त्री के लिए मेरे मन का आदर जैसे और सौ गुना बढ़ गया जिसने इस पुरुषशासित रूढ़िग्रस्त समाज में अकेले रह कर जीवन को बिना किसी दैन्य या कमज़ोरी के इस बहादुरी के साथ जिया।

रेखाचित्रकार :-

महादेवी वर्मा एक सफल रेखाचित्रकार, कवयित्री, और विचारक है। उन्होंने कई रेखाचित्र लिखें हैं जिनमें नीलकंठ मोर, घीसा, सोना, गौरा आदि काफ़ी प्रसिद्ध हैं। मानव एक श्रेष्ठ प्राणी होने पर भी पशुओं के प्रति उसका व्यवहार सराहनीय नहीं हैं।

उनके द्वारा रचित ‘सोना और गौरा‘ नामक रेखाचित्र में मानव के निष्ठुर व्यवहार पर महादेवी वर्मा ने प्रकाश डाला हैं। पशु-पक्षी भी प्रेम के लिए लालायित रहते हैं और प्रेम दिखाने पर आनंदविभोर हो उठते हैं।

बेजुबान होने पर भी स्नेह के कई मूक प्रदर्शन होते हैं। अपने असीम आनंद की अभिव्यक्ति सुंदर आँखों के भाव से प्रकट करते हैं। परन्तु मानव अपने स्वार्थ के कारण इन बेजुबान जानवरों पर इतना अत्याचार और निर्दय व्यवहार करता है और उन पर कितना जुल्म करता है इसका कोई अंत नहीं।

मानव द्वारा इतनी यातना सह कर भी पशु मानव के स्वभाव से अब तक अनजाना है। मानव का यह स्वार्थ अंत में वेदना का कार्य और कारण बन जाता है, इसी बात पर प्रकाश डालना ही महादेवी वर्मा का मुख्य ध्येय है।

महादेवी वर्मा छायावादी युग स्तंभ के रूप मैं :-

साहित्य में महादेवी वर्मा का उदय किसी क्रांति से कम नहीं था। उन्होंने हिंदी कविता में ब्रजभाषा कोमलता का परिचय दिया, जो उस समय बहुत बड़ी बात थी।

हमें भारतीय दर्शन को दिल से स्वीकार करने वाले गीतों का भंडार, महादेवी वर्मा द्वारा ही प्राप्त हुआ है। अपनी कृतियों के जरिए उन्होंने भाषा, साहित्य और दर्शन के तीन क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण कार्य किया जिसने बाद में एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया।

छायावादी कविता की सफ़लता में उनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। जयशंकर प्रसाद ने छायावादी कविता को प्रकृतिकरण दिया, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने उसमें मुक्ति को मूर्त रूप दिया और सुमित्रानंदन पंत ने नाजुकता की कला लाई, वहीं वर्मा ने छायावादी कविता को जीवन दिया। आज भी महादेवी छायावादी युग के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में विख्यात हैं।

आधुनिक मीरा ‘महादेवी’:-

महादेवी ने संपूर्ण जीवन साहित्य की साधना की और आधुनिक काव्य जगत को अपने योगदान से आलोकित किया। उनके काव्य में उपस्थित विरह वेदना और भावनात्मक गहनता के चलते ही उन्हें आधुनिक युग की मीरा कहा गया।

विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

~ महादेवी वर्मा

आधुनिक हिंदी साहित्य में स्त्री वेदना को चित्रित करने वाली महादेवी वर्मा की कविता ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ की यह आखिरी पंक्तियां यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि, उन्हें आधुनिक युग की मीरा क्यों कहा जाता है।

क्या आप जानते हैं कि महादेवी का जन्म संयोग से होली के दिन हुआ था। न जाने होलिका का असर था या महादेवी की नियती थी, वह जीवन भर वेदना की आंतरिक अग्नि में जलती रहीं।

‘बीन भी हूं, मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं’ कविता में वह अपनी मनोदशा का इजहार कुछ यूं करती हैं-

नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण-कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिन्‍ह जीवन में,
शाप हूं जो बन गया वरदान बंधन में
कूल भी हूं कूलहीन प्रवाहिनी भी हूं!
बीन भी हूं मैं…तुम्हारी रागिनी भी हूं।

पुरस्कार (Puraskar) –

  • महादेवी वर्मा ने वर्ष 1934 में निरजा पर ₹500 का पुरस्कार और सेकसरिया पुरस्कार जीता।
  • वर्ष 1944 में आधुनिक कवि और निहार पर 1200 का मंगला प्रसाद पारितोषिक भी जीता ।
  • भाषा साहित्य संगीत और चित्रकला के अतिरिक्त उनकी रूचि दर्शनशास्त्र में भी थी। महादेवी वर्मा को भारत सरकार द्वारा वर्ष 1956 में पद्म भूषण से तथा वर्ष 1988 में पदम विभूषण से सम्मानित किया गया।
  • हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा उन्हें भारतेंदु पुरस्कार प्रदान किया गया। वर्ष 1982 में काव्य संकलन यामा के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
  • महादेवी वर्मा को 1943 में मंगलाप्रसाद पारितोषिक भारत भारती के लिए मिला।
  • महादेवी वर्मा को 1952 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए मनोनीत भी किया गया।
  • 1956 में भारत सरकार ने साहित्य की सेवा के लिए इन्हें पद्म भूषण भी दिया।
  • महादेवी वर्मा को मरणोपरांत 1988 में पद्म विभूषण पुरस्कार दिया गया।
  • महादेवी वर्मा को 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय, 1977 में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, 1980 में दिल्ली विश्वविद्यालय तथा 1984 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने इनको डी.लिट (डॉक्टर ऑफ लेटर्स) की उपाधि दी।
  • महादेवी जी को 1934 में नीरजा के लिए सक्सेरिया पुरस्कार दिया गया।
  • 1942 में स्मृति की रेखाएं के लिए द्विवेदी पदक दिया गया।
  • यामा के लिए महादेवी वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया।

महादेवी वर्मा के बारे में रोचक तथ्य

  • महादेवी वर्मा का पशु प्रेम किसी से छुपा नहीं है वह गाय को अत्यधिक प्रेम करती थी।
  • महादेवी वर्मा के पिताजी मांसाहारी थे और उनकी माताजी शुद्ध शाकाहारी थी।
  • महादेवी वर्मा कक्षा आठवीं में पूरी प्रांत में प्रथम स्थान पर रही।
  • महादेवी वर्मा इलाहाबाद महिला विद्यापीठ की कुलपति और प्रधानाचार्य भी रही।
  • यह भारतीय साहित्य अकादमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली पहली महिला थी जिन्होंने 1971 में सदस्यता ग्रहण की।
  • इनका बाल विवाह किया गया लेकिन इन्होंने अपना जीवन अविवाहित की तरह ही गुजारा।
  • महादेवी वर्मा की रुचि, साहित्य के साथ साथ संगीत में भी थी। चित्रकारिता में भी इन्होंने अपना हाथ आजमाया।
  • एक बार मैथिलीशरण गुप्त ने उनकी कर्मठता की प्रशंसा करते हुए पूछा कि आप कभी थकती नहीं। उनका उत्तर था कि होली के दिन जन्मी हूं न, इसीलिए होली का रंग और उसके उल्लास की चमक मेरे चेहरे पर बनी रहती है।

पाठशाला में हिन्दी-अध्यापक से प्रभावित होकर महादेवी वर्मा ब्रजभाषा में समस्या पूर्ति भी करने लगीं। फिर महादेवी वर्मा ने तत्कालीन खड़ी बोली की कविता से प्रभावित होकर खड़ी बोली में रोला और हरिगीतिका छन्दों में काव्य लिखना प्रारम्भ किया। उसी समय माँ से सुनी एक करुण कथा को लेकर महादेवी वर्मा ने सौ छन्दों में एक खण्डकाव्य भी लिख डाला।

  • “मेरे बचपन के दिन” कविता में उन्होंने लिखा है कि जब बेटियाँ बोझ मानी जाती थीं, उनका सौभाग्य था कि उनका जन्म एक खुले विचार वाले परिवार में हुआ। उनके दादाजी उन्हें विदुषी बनाना चाहते थे। उनकी माँ संस्कृत और हिन्दी की ज्ञाता थीं और धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। माँ ने ही महादेवी को कविता लिखने, और साहित्य में रुचि लेने के लिए प्रेरित किया।
  • महादेवी वर्मा की शिक्षा इंदौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई और साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा उन्होंने अपने घर पर पूरी की थी। 1919 में विवाहोपरान्त उन्होंने क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं।
  • महादेवी वर्मा ने 1932 में प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए किया और तब तक उनकी दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुकी थीं। वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्य बनीं।
  • विवाह के बाद भी वे क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में रहीं।उनका जीवन तो एक सन्यासिनी का जीवन था. उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा।
  • उनका सबसे क्रांतिकारी कदम था महिला-शिक्षा को बढ़ावा देना और इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान। उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार 1932 में संभाला। 1930 में नीहार, 1932 में रश्मि, 1934 में नीरजा, तथा 1936 में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए।
  • उन्होंने नए आयाम गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में स्थापित किये। इसके अलावा उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें प्रमुख हैं: मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र।
  • उन्होंने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना 1955 में की थी। भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नींव भी उन्होंने ही रखी और 15 अप्रैल 1933 को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में पहला अखिल भारतवर्षीय कवि सम्मेलन संपन्न हुआ।
  • क्या आप जानते हैं कि महादेवी वर्मा बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित थीं। महात्मा गांधी के प्रभाव से उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया था। उनको आधुनिक मीरा’ भी कहा जाता है।
  • महादेवी वर्मा को 27 अप्रैल, 1982 में काव्य संकलन “यामा” के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार, 1979 में साहित्य अकादमी फेलोशिप, 1988 में पद्म विभूषण और 1956 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

महादेवी वर्मा और महिला सशक्तिकरण :-

महादेवी एक प्रभावशाली सक्रिय महिला कार्यकर्ती थीं। उन्होंने अपनी रचना ‘श्रृंखला की कड़ियों’ में भारतीय नारी की दयनीय दशा, उनके कारणों और उनके सहज नूतन सम्पन्न उपायों के लिए अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए हैं।

इतना ही नहीं, उन्होंने उन विचारों पर स्वयं जी कर भी दिखाया है। महादेवी एक जानी-मानी चित्रकार भी थीं। उन्होंने अपनी कृति ‘दीप शिखा’ के लिए बहुत से वर्णन चित्रित किए।

महादेवी कहतीं हैं कि ‘भारतीय शास्त्रों में महिलाएं पुरुष की संगिनी रही है, छाया मात्र नहीं’

उन्होंने नारी जगत को भारतीय संदर्भ में मुक्ति का संदेश दिया। नारी मुक्ति के विषय में उनका विचार है कि भारत की स्त्री तो भारत माँ की प्रतीक है। वह अपनी समस्त सन्तान को सुखी देखना चाहती है। उन्हें मुक्त करने में ही उनकी मुक्ति है।

मैत्रेयी, गोपा, सीता और महाभारत के अनेक स्त्री पात्रों का उदाहरण देकर वह निष्कर्ष निकालती हैं कि उनमें से प्रत्येक पात्र पुरुष की संगिनी रही है, छाया मात्र नहीं। छाया और संगिनी का अंतर स्पष्ट है –

‘छाया का कार्य, आधार में अपने आपको इस प्रकार मिला देना है जिसमें वह उसी के समान जान पड़े और संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक से अधिक पूर्ण बनाना।’

‘हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ’ लेख उन्होंने साल 1931 में लिखा था जिसमे उन्होंने स्त्री और पुरुष के पति-पत्नी संबंध पर विचार करते हुए महादेवी जी ललकार भरे स्वर में सवाल उठाती हैं – अपने जीवनसाथी के हृदय के रहस्यमय कोने-कोने से परिचित सौभाग्यवती सहधर्मिणी कितनी हैं? जीवन की प्रत्येक दिशा में साथ देनेवाली कितनी हैं?

मौजूदा समय में भी इन सवालों के जवाब संतोष प्रदान करने लायक नहीं हो सकते। रामायण की सीता पतिव्रता रहने के बावजूद पति की परित्यक्ता बन गयी। नारी की नियति ऐसी क्यों? महादेवीजी इसे नारीत्व का अभिशाप मानती है। साल 1933 में उन्होंने नारीत्व के अभिशाप पर लिखा है –

‘अग्नि में बैठकर अपने आपको पतिप्राणा प्रमाणित करने वाली स्फटिक सी स्वच्छ सीता में नारी की अनंत युगों की वेतना साकार हो गयी है।’ सीता को पृथ्वी में समाहित करते हुए राम का हृदय विदीर्ण नहीं हुआ।

‘भारतीय संस्कृति और नारी’ शीर्षक निबंध में उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति में स्त्री के महत्वपूर्ण स्थान पर गंभीर विवेचना की है। उनके अनुसार मातृशक्ति की रहस्यमयता के कारण ही प्राचीन संस्कृति में स्त्री का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, भारतीय संस्कृति में नारी की आत्मरूप को ही नहीं उसके दिवात्म रूप को प्रतिष्ठा दी है।

महादेवी आधुनिक नारी की स्थिति पर नज़र डालते हुए भारतीय नारी के लिए समाज में पुरुष के समकक्ष स्थान पाने की ज़रूरत पर जोर देती हैं। साल 1934 में लिखित ‘आधुनिक नारी-उसकी स्थिति पर एक दृष्टि’ लेख में वे कहती हैं – ‘एक ओर परंपरागत संस्कार ने उसके हृदय में यह भाव भर दिया है कि पुरुष विचार, बुद्धि और शक्ति में उससे श्रेष्ठ है और दूसरी ओर उसके भीतर की नारी प्रवृत्ति भी उसे स्थिर नहीं करने देती।’

महादेवी जीवन भर अपनी लेखनी से सजगता और निडरता के साथ भारत की नारी के पक्ष में लड़ती रहीं। नारी शिक्षा की ज़रूरत पर जोर से आवाज़ बुलंद की और खुद इस क्षेत्र में कार्यरत रहीं। उन्होंने गांधीजी की प्रेरणा से संस्थापित प्रयाग महिला विद्यापीठ में रहते हुए अशिक्षित जनसमूह में शिक्षा की ज्वाला फैलायी थी।

वह लिखती हैं – ‘वर्तमान युग के पुरुष ने स्त्री के वास्तविक रूप को न कभी देखा था, न वह उसकी कल्पना कर सका। उसके विचार में स्त्री के परिचय का आदि अंत इससे अधिक और क्या हो सकता था कि वह किसी की पत्नी है।

कहना न होगा कि इस धारणा ने ही असंतोष को जन्म देकर पाला और पालती जा रही है।’ अपने लेखों में उन्होंने सदैव नरी- हित पर जोर दिया और नारी सशक्तिकरण की मिसाल बनीं।

महिला विद्यापीठ की स्थापना :-

महादेवी वर्मा ने अपने प्रयत्नों से इलाहाबाद में ‘प्रयाग महिला विद्यापीठ’ की स्थापना की। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। महादेवी वर्मा पाठशाला में हिन्दी-अध्यापक से प्रभावित होकर ब्रजभाषा में समस्या पूर्ति भी करने लगीं। फिर तत्कालीन खड़ी बोली की कविता से प्रभावित होकर खड़ी बोली में रोला और हरिगीतिका छन्दों में काव्य लिखना प्रारम्भ किया।

उसी समय माँ से सुनी एक करुण कथा को लेकर सौ छन्दों में एक खण्डकाव्य भी लिख डाला। 1932 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार सँभाला। प्रयाग में अध्यापन कार्य से जुड़ने के बाद हिन्दी के प्रति गहरा अनुराग रखने के कारण महादेवी वर्मा दिनों-दिन साहित्यिक क्रियाकलापों से जुड़ती चली गईं।

उन्होंने न केवल ‘चाँद’ का सम्पादन किया वरन् हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ की स्थापना की। उन्होंने ‘साहित्यकार’ मासिक का संपादन किया और ‘रंगवाणी’ नाट्य संस्था की भी स्थापना की।

मृत्यु :-

महादेवी वर्मा जी ने अपना पूरा जीवन इलाहाबाद में बिताया और फिर 11 सितंबर 1987 वे इस दुनिया की मोह माया को त्याग कर चल बसीं, इन्होंने अपनी कविताओं में महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचार को ही नहीं बल्कि समाज के गरीब और जरूरतमंद तथा दलित लोगों के भाव को भी चित्रित किया।

इसके साथ ही महादेवी वर्मा जी के व्यक्तित्व और स्वभाव को देखकर बहुत से रचनाकार और लेखक उनसे प्रभावित हुए।

हिंदी साहित्य में महादेवी जी का योगदान हमेशा यादगार रहेगा, साथ ही उनकी दूरदर्शी सोच के भी सभी कायल थे इसलिए इन्हें साहित्य सम्राज्ञी का दर्ज़ा दिया गया। मरकर भी आज वे समाज के प्रति किए गए कार्यों और अपनी जीवंत रचनाओं में अमर हैं।

उनके कुछ महान विचार :-

महादेवी “सादा जीवन, उच्च विचार” के कथन को सिद्ध करती हैं। उन्होंने जितना सादा जीवन व्यतीत किय, उनके विचार उतने ही साफ और उच्च थे। उनके द्वारा कहे गए कुछ कथन, जिनसे उनके महान विचार साफ झलकते हैं, इस प्रकार हैं –

  • “जीवन के सम्बन्ध में निरन्तर जिज्ञासा मेरे स्वभाव का अंग बन गई है। ”
  • “आज हिन्दु – स्त्री भी शव के समान निःस्पंद है।”
  • “अर्थ ही इस युग का देवता है। ”
  • “मैं किसी कर्मकाण्ड में विश्वास नहीं करती… मैं मुक्ति को नहीं, इस धूल को अधिक चाहती हूँ।”
  • “अपने विषय में कुछ कहना पड़े : बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि अपने दोष देखना आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को।”
  • “कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं, जो साहस के साथ उनका सम्मान करते है। ”
  • “कवि कहेगा ही क्या, यदि उसकी इकाई बनकर अनेकता नहीं पा सकी और श्रोता सुनेंगे ही क्या, यदि उन सबकी विभिन्नताएँ कवि में एक नहीं हो सकी।”
  • “मेरे संकल्प के विरूद्ध बोलना उसे और अधिक दृढ़ कर देना है।”
  • “पति ने उनका इहलोक बिगाड़ दिया है, पर अब उसके अतिरिक्त किसी और की कामना करके वे परलोग नहीं बिगाड़ना चाहती।”
  • “गृहिणी का कर्त्तव्य कम महत्वपूर्ण नहीं है, यदि स्वेच्छा से स्वीकृत है।”
  • “क्या हमारा जीवन सबका संकट सहने के लिए है?”
  • “प्रत्येक गृह स्वामी अपने गृह का राजा और उसकी पत्नी रानी है कोई गुप्तचर, चाहे देश के राजा का ही क्यों न हो, यदि उसके निजी वार्ता का सार्वजनिक घटना के रूप मे प्रचारित कर दे, तो उसे गुप्तचर का अधिकार दुष्टाचरण ही कहा जाएगा।”
  • “विज्ञान एक क्रियात्मक प्रयोग है।”
  • “वे मुस्कुराते फूल, नही जिनको आता है मुरझाना, वे तोरो के दीज नही जिनको भाता है बुझ जाना।”
  • “प्रतिवाद के उपरांत तो मत परिवर्तन सहज है, पर मौन मे इसकी कोई संभावना शेष नहीं रहती।”
  • “मैंने हँसी में कहा – ‘तुम स्वर्ग में कैसे रह सकोगे बाबा! वहाँ तो न कोई तुम्हारे कूट पद और उलटवासियाँ समझेगा और न आल्हा-ऊदल की कथा सुनेगा । स्वर्ग के गन्थर्व और अप्सराओ मे तुम कुछ न जँचोगे।”
  • “पैताने की ओर यंत्र से रखी हुई काठ और निवाड़ से बनी खटपटी कह रही थी कि जूते के अछूतेपन और खड़ाऊँ की ग्रामीणता के बीच से मध्यमार्ग निकालने के लिए ही स्वामी ने उसे स्वीकार किया है।”
  • “प्रत्येक विज्ञान मे क्रियात्मक कला का कुछ अंश अवश्य होता है ।”
  • “कला का सत्य जीवन की परिधि में, सौंदर्य के माध्यम द्वारा व्यक्त अखण्ड सत्य है।”
  • “व्यक्ति समय के सामने कितना विवश है समय को स्वीकृति देने के लिए भी शरीर को कितना मूल्य देना पड़ता है।”
  • कोई भी कला सांसारिक और विशेषतः व्यावसायिक बुद्धि को पनपने ही नहीं दे सकती और बिना इस बुद्धि को पनपने ही नहीं दे सकती और बिना इस बुद्धि के मनुष्य अपने आपको हानि पहुँचा सकता है, दूसरो को नहीं।”
  • “एक निर्दोष के प्राण बचानेवाला, असत्य उसकी अहिंसा का कारण बनने वाले सत्य से श्रेष्ठ होता है।”
  • “कवि अपनी श्रोता – मण्डली में किन गुणों को अनिवार्य समझता है, यह प्रश्न आज नहीं उठता पर अर्थ की किस सीमा पर वह अपने सिद्धांतों का बीज फेंककर नाच उठेगा, इसका उत्तर सब जानते हैं।”

अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs) :-


महादेवी वर्मा की पहली रचना कौन सी है?

नीहार: नीहार महादेवी वर्मा का पहला कविता-संग्रह है। इसका प्रकाशन 1930 में हुआ। रश्मि: रश्मि महादेवी वर्मा का पहला कविता-संग्रह है। इसका प्रकाशन 1932 में हुआ

महादेवी वर्मा की भाषाशैली कौनसी है ?

उन्होंने गद्य और कहानियां लिखने के लिए आम बोल-चाल की भाषा या खड़ी बोली का प्रयोग किया है। इसके अलावा उन्होंने अपनी महत्तवपर्ण रचनाओं में उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का भी इस्तेमाल किया है।

महादेवी का जन्म कब और कहां हुआ था?

महादेवी का जन्म 26 मार्च 1907 को प्रातः 8 बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ।

महादेवी वर्मा का नाम महादेवी किसने और क्यों रखा?

महादेवी का जन्म 26 मार्च 1907 को प्रातः 8 बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ। उनके परिवार में लगभग 200 वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः दादा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और उन्हें घर की देवी मानते हुए  उनका नाम महादेवी रखा।

महादेवी वर्मा की प्रमुख रचना कौन सी है?

महादेवी के लेखन की प्रमुख विधा कविताएं हैं, महादेवी वर्मा के आठ कविता संग्रह हैं- नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1934), सांध्यगीत (1936), दीपशिखा (1942), सप्तपर्णा (अनूदित 1959), प्रथम आयाम (1974), और अग्निरेखा (1990)।

महादेवी वर्मा के पति का क्या नाम है?

महादेवी वर्मा के पति का नाम स्वरूप नारायण वर्मा है।

साबिया किसकी कृति है?

साबिया महादेवी वर्मा की कृति है।

महादेवी वर्मा का गद्य में योगदान क्या है?

महादेवी वर्मा ने गद्य साहित्य में भी अपना योगदान दिया है। अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, शृंखला की कड़ियाँ, पथ के साथी और मेरा परिवार उनके प्रमुख गद्य साहित्य हैं। 

आधुनिक युग की मीरा किसे कहा जाता है?

अपने काव्य में उपस्थित विरह वेदना और भावनात्मक गहनता के चलते ही महादेवी वर्मा जी को आधुनिक युग की मीरा कहा जाता है। 

महादेवी वर्मा को कौन कौन से पुरस्कार से सम्मानित किया?

महादेवी को भारतीय साहित्य के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार उन्हें उनकी कविताओं के संकलन यामा के लिए 1982 में दिया गया। 1956 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।

यामा काव्य संग्रह का प्रकाशन कब हुआ?

यामा महादेवी वर्मा द्वारा रचित एक प्रसिद्ध काव्य संग्रह है। जिसका पहला प्रकाशन सन् 1946 ई० में हुआ था।

अंतिम कुछ शब्द :-

दोस्तों मै आशा करता हूँ आपको “ महादेवी वर्मा का जीवन परिचय (Mahadevi Verma Ka Jivan Parichay) “ Blog पसंद आया होगा। अगर आपको मेरा ये Blog पसंद आया हो तो अपने दोस्तों और अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर शेयर करे अन्य लोगो को भी इसकी जानकारी दे। यह Blog Post मुख्य रूप से अध्यायनकारों के लिए तैयार किया गया है, हालांकि सभी लोग इसे पढ़कर ज्ञान आरोहण कर सकते है।

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WIKIPEDIA PAGE : महादेवी वर्मा का जीवन परिचय

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